शनिवार, 16 अगस्त 2025

श्री कृष्ण चरित्र और भगवान शंकर जी का चरित्र विकृत कर प्रस्तुत करना दोषपूर्ण कृत्य है।

श्री कृष्ण ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था में ब्रज छोड़कर मथुरा चले गए थे और फिर कभी वास नहीं लौटे।
कत्थक में श्रीकृष्ण ग्यारह वर्ष से अधिक अवस्था के लग रहे हैं।
योगेश्वर चक्रधर नारायणी सेना के संस्थापक श्रीकृष्ण को केवल माखन चोर, गोपियों के वस्त्र हरण करने वाले और रास रचैया बतलाने वाले जयदेव रचित गीत गोविन्द और ब्रह्म वैवर्त पुराण ने सनातन वैदिक धर्मियों का बहुत चारित्रिक पतन किया।
कत्थक की तुलना में भरत नाट्यम में ये दोष नहीं पाये जाते हैं
यही स्थिति शिव पुराण आदि ग्रन्थों ने विष विज्ञानी, अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता, व्याकरण, नाट्यशास्त्र आदि विषयों के मर्मज्ञ महायोगी भगवान शंकर जी को भी गंजेड़ी, भंगेड़ी, धतुरा आदि सेवन कर नशे में धूत होकर पार्वती को नग्न कर नचवाने वाला सिद्ध कर दिया और युवाओं का चरित्र भ्रष्ट कर दिया।
महाभारत में जहाँ दक्ष यज्ञ में भगवान शंकर जी को यज्ञ भाग दिलवा कर पार्वती जी और भगवान शंकर दोनों प्रसन्नता पूर्वक कैलाश लौट जाते हैं, वहीं शिव पुराण में दक्ष पुत्री सती को यज्ञ में ही आत्मदाह कर भस्म हो जाना, सती के भस्मीभूत शव को कन्धे पर टांग कर शंकर जी का विक्षिप्त की भाँति भ्रमण करना, भगवान विष्णु द्वारा चक्र से सती के शव के इक्यावन टुकड़े करने से जहाँ-जहाँ जो टुकड़ा गिरा वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ स्थापित होना, हिमाचल और मेना की सन्तान पार्वती के रूप में सती का पुनर्जन्म होना, फिर कठोर तपस्या खर शंकर जी से विवाह करना आदि असत्य घटनाएँ जोड़ कर उमा पार्वती को मरण धर्मा मानवी सिद्ध कर दिया। जबकि केन उपनिषद में हेमावती उमा को ब्रह्मज्ञानी देवी बतलाया है।
ऐसे ही वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड और युद्ध काण्ड में रावण की लङ्का गुजरात के भरूच से दक्षिण में सौ योजन अर्थात 1287 किलोमीटर और केरल के कोझीकोड से पश्चिम में 23 योजन अर्थात 296 किलोमीटर लक्ष्यद्वीप में बतलाई है और विश्वकर्मा पूत्र नल जैसे विश्वकर्म प्रवीण इंजिनियर ने कोझीकोड से किल्तान द्वीप तक 296 किलोमीटर का सेतु बनाया था।
जबकि, कवि कम्बन ने शायद रावण को तमिल सिद्ध करने के चक्कर में सिंहल द्वीप, श्रीलङ्का/ सिलोन को रावण की लंका बतला दिया।रावण का अत्यधिक महिमा मण्डन भी कर दिया।
 और रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान श्री रामचन्द्र द्वारा होना बतला दिया। जिसे तुलसीदास जी ने खूब प्रचारित कर दिया।

दूध, दही, छाछ-मक्खन, और घी के उदाहरण से शुद्र वर्ण से द्विज फिर विप्र और अन्त में ब्राह्मण बनने की सिद्धि।

जन्मना उक्त सभी दूग्ध उत्पादन है।
संस्कार से दहीं बनते हैं। केवल रङ्ग रोगन करना वाह्य संस्कार है जबकि मूल स्वरूप में ही परिवर्तन ही आन्तरिक और वास्तविक संस्कार है।  दूध में रासायनिक परिवर्तन होकर दही बनता है अब उसे वापस दूध नहीं बना सकते वैसे ही एक जन्म में संस्कारित होने पर दुबारा शुद्र नहीं बनता। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कर्मयोगी का पतन नहीं होता आगे ही बढ़ता है।
(विचार) मन्थन (स्वाध्याय) से मक्खन (विवेक) और छाँछ (बुद्धि) अलग-अलग होकर (विप्र) बने, तप कर घी (ब्राह्मण) बने।

जन्मना जायते शूद्र:संस्कारात् भवेत् द्विज:। वेद पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:।। 
(स्कन्द पुराण:नागर खण्ड:18.6)
 वेदाध्ययन करके द्विज से विप्र (विद्वान) तो हो जाता है, बुद्धि द्वारा विश्लेषण कर विवेक से निष्कर्ष निकालना भी सीख लेता है, लेकिन मनेन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं होने से न चाहकर भी अधर्म में प्रवृत्त होनें से बच नहीं पाता।
इसलिए 
सर्वधर्म पालन में कष्ट सहन कर तितिक्षा के माध्यम से सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण-उत्सर्जन करते भी समाधि में लीन रहते हुए तप करके आत्मज्ञानी ब्राह्मण होता है।

तीस अंश भोगांश वाली सायन राशियों को प्रधय कहा जाना उचित होगा। क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण आठ या नौं अंश की नक्षत्र पट्टी में असमान भोग वाले तेरह तारामण्डल को अरे कहा जाना उचित होगा। तीस अंश की बारह निरयन राशियों को राशि ही कहा जाना उचित होगा।

तीस अंश भोगांश वाली सायन राशियों को प्रधय कहा जाना उचित होगा। क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण आठ या नौं अंश की नक्षत्र पट्टी में असमान भोग वाले तेरह तारामण्डल को अरे कहा जाना उचित होगा। तीस अंश की बारह निरयन राशियों को राशि ही कहा जाना उचित होगा।
आचार्य दार्शनेय लोकेश जी के अनुसार 
 *"वेद में 'राशि' शब्द नहीं किन्तु 'प्रधयः' शब्द राशियों के अर्थ में (अथर्ववेद १०/८/४) ही आया है। 'प्रधि' शब्द क्रान्तिवृत्त के १२ भागों के अर्थ में आया है।"* 

अर्थात सायन राशियों के लिए प्रधय शब्द और तारामण्डल के आधार पर तेरह राशियों को आचार्य वराहमिहिर के अनुसार अरे लिखा जाना उचित होगा।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

वैदिक सनातन धर्मियों को इनसे दूर ही रहना चाहिए।

सनातन वैदिक धर्मियों को वेद विरोधी, तामसिक तप करने वाले तान्त्रिकों (जैन), सन्देह वादी (बौद्धों), अश्लील मुद्राएँ बनाने वाले, मदिरा पीकर, मत्स्य और मान्स खाकर, मैथुन कर तान्त्रिक पूजा और होम-हवन करने वाले, चमत्कार दिखा कर आकर्षित करने वाले, सन्देहवाद और सेकुलरिज्म का झूठा पाठ पढ़ाकर अब्राहमिक मत को पोषित करने वाले कोरे तार्किकों और अब्राहमिक बाबाओं से दूर रहना चाहिए।
जो लोग इस श्रेणी में आते हैं उनकी जानकारी दी है।
बाहुबली, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पारसनाथ, वर्धमान महावीर जैसे वेद विरोधी, अनीश्वरवादी, सिद्धार्थ बुद्ध जैसे माध्यमिक, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोधी नाथों , महावतार बाबा, श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय उनके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानन्द और प्रणवानन्द तथा युक्तेश्वर गिरि के शिष्य परमहंस योगानन्द; इसी सम्प्रदाय के हेड़ाखान बाबा, रामकृष्ण जैसे मांसाहारी तान्त्रिक और चमत्कारी उनके मान्साहारी, व्यसनी शिष्य विवेकानन्द जैसे सेकुलर, नीम करोली बाबा, अक्कलकोट के स्वामी समर्थ,और उनके शिष्य बालप्पा महाराज, चोलप्पा महाराज, अलंदी के नृसिंह सरस्वती महाराज, वेङ्गुरला के आनन्दनाथ महाराज, मुंबई के स्वामीसुत महाराज, पुणे के शंकर महाराज, पुणे के रामानन्द बीडकर महाराज और उनके अनुयायी गजानन महाराज, खण्डवा के अवधूत बड़े दादा महाराज जी और छोटे दादा महाराज जैसे चमत्कारी सिद्धों और नाथों।
अरविन्द, बौद्ध विचारक जिद्दु कृष्णमूर्ति और जैन विचारक रजनीश जैसे कोरे तार्किक। 
इस्कॉन के प्रभुपाद, कृपालु महाराज, रामपाल, गुरुमित राम रहीम, आशाराम, 

और कसाई बाबा जैसे मुस्लिम फकीरों से दूर रहने में ही भलाई है।

जैन-बौद्ध और नाथ और शैवों, शाक्तों के सम्प्रदाय में वर्णाश्रम का नहीं सीधे संन्यास का महत्व है।

शंकर जी के गण

शंकर जी के गणों में
नन्दी वृषभ (जाति समझ नहीं आई)
श्रङ्गी (जाति पता नही।)
भृङ्गी (जाति पता नही।)
वासुकी नाग, 
पुष्पदन्त गन्धर्व,
मणिभद्र यक्ष,
रावण राक्षस,
विनायक पिशाच 
छत्तीस यक्षिणियाँ।
चौंसठ योगिनियाँ।

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

गुरु और उपनयन

पिता ही सर्वप्रथम उपनयन कर मन्त्र दीक्षा देते हैं।
जो सिद्धान्ततः उचित भी है। प्रथम यज्ञोपवीत के समय उपनीत करने का अधिकार केवल पिता को ही होता है।
पिता के अभाव में माता , वो भी न हो तो बड़ा भाई ऐसा क्रम है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में भी जब कर्मकाण्ड की क्रियाएँ की जाती है तब दो जनेऊ धारण की जाती है। इसलिए प्रथम बार दो जनेऊ ही पहनाई जाती है।
लेकिन जब बाद में कोई गुरुकुल में विद्याअध्ययन करने जाता है, तब गुरुकुल का कुलपति आचार्य पुनः उपनयन करवाता है।
उसके बाद और किसी बड़े गुरुकुल में शिक्षा-दीक्षा लेनी हो तो वह गुरु पुनः उपनयन कराता है।
अन्त में जब उपनिषद श्रवण, मनन, निदिध्यासन करवा कर तत्वमस्यादि बोध करवाने वाले सतगुरु से ब्रह्मदीक्षा लेना हो तो वे भी दीक्षा देने के लिए उपनीत करते हैं।
इसलिए एक व्यक्ति के कई गुरु हो सकते हैं।
ऐसे व्यक्ति में साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है।
जो योग्य (आत्मज्ञ) गुरु से उपनिषद श्रवण कर निदिध्यासन कर श्रीगुरू मुख से तत्वमस्यादि महावाक्यों का श्रवण कर आत्म ज्ञान प्राप्त करता है वह सहज स्वाभाविक हो जाता है। उसका किसी से भी लगाव नहीं किसी से भी विरोध नहीं होता।
केवल जिज्ञासुओं के प्रति ही शास्त्रोक्त मत प्रकट करते हैं।
जो व्यक्ति उक्त परम्परा का उल्लघङ्घन कर अतिक्रमण कर किसी को भी सतगुरु मान लेता है वही व्यक्ति नैयायिकों की भाँति साम्प्रदायिक वितण्डावाद का आश्रय लेकर सर्वत्र ज्ञान बचारता रहता है।
जो व्यक्ति अन्तिम सतगुरु तक नहीं पहूँच पाता वह पूर्व मीमांसकों (वर्तमान में वरिष्ठ आर्यसमाजियों) की भाँति शास्त्रार्थ करते हुए अपने अहंकार को ही दृढ़ करते फिरते हैं।
लेकिन आत्मज्ञानी गुरु का आश्रय ग्रहण कर समाधान होने के कारण समाधिस्थ रहता है।
उसे जगत प्रभावित ही नहीं करता। उसके लिए तो गुण ही गुणों में व्यवहार रत है। इसलिए वह कोई भी पक्ष-विपक्ष देखता ही नहीं है। और सवस्थ रहता है।

तन्त्र उत्पत्ति और विकास

तन्त्र उत्पत्ति और विकास 

तन्त्र का मतलब वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था से हटकर मनमानी निरंकुश व्यवस्था।

मेने पहले भी लिखा है कि, हिरण्यगर्भ को हम त्वष्टा और उनकी रचना के रूप में जानते हैं। त्वष्टा ने ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की भांति गड़ा (घड़ा)।
इन त्वष्टा की रचना ब्रह्माण्ड है। इसलिए वैदिक वाङ्मय में त्वष्टा के पुत्र त्रिमुख विश्वरूप बतलाया गया। जिन्हें देवताओं (आदित्यों) ने अपना पुरोहित नियुक्त किया। वे एक मुख से सोमरस पान करते थे और देवताओं के लिए आहुति देते थे। दुसरे मुख से मदिरापान करते थे और असुरों को आहुति देते थे।
इन विश्वरूप की हत्या इन्द्र ने कर दी। इससे रुष्ट होकर त्वष्टा ने वत्रासुर को जन्म दिया। वत्रासुर ने जलों को रोक लिया था और भूमि डुबने लगी थी। और गोएँ चुरा ली थी। तब देवताओं ने परम शैव दधीचि से अस्थियाँ लेकर वज्र बनाकर इन्द्र ने वत्रासुर को मारकर गौओं और जलों को मुक्त किया।
पुराणोल्लेखित हिरण्याक्ष द्वारा भूमि खो रसातल में ले जाना और वराह अवतार द्वारा भूमि को पुनः अपनी कक्षा में स्थापित कर देना।(जो लगभग असम्भव है।), महर्षि कश्यप द्वारा समुद्र पी जाना, भगवान शंकर की जटा में गङ्गा समाना, फिर जह्नु ऋषि के कमण्डलु में गङ्गा समाना, वामन द्वारा तीन पग में त्रिलोकी माप लेना (इसका सत्यापन करने वाला भी त्रिविक्रम विष्णु तुल्य ही होना आवश्यक है।) सब रूपकात्मक वर्णन है। जो उक्त वेद मन्त्रों में उल्लेखित बातों के आधार पर गड़ ली गई।

पुराणों के अनुसार 
बाद में देवताओं ने शुक्राचार्य को भी पुरोहित नियुक्त किया। फिर उनका असुर प्रेम देखकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया। ब्रहस्पति के नाराज होकर जाने पर पुनः शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। फिर शुक्राचार्य को हटाकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया।

शुक्राचार्य जी परम शैव थे। अरब प्रायद्वीप और लगे हुए पूर्वी अफ्रीका में उन्होंने ही शैव पन्थ की स्थापना की थी, जो वेदों को अन्तिम सत्य नहीं मानता था और वेदों की मनमानी व्याख्या करता था। तथा वेद मन्त्रों को उल्टा पढ़कर या भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चारण कर तान्त्रिक प्रयोग करने लगे थे।
शैव मत ईरान में भी मीड सम्प्रदाय के रूप में पनपा और शंकर जी को मीढीश कहा जाने लगा।
अब्राहम का अब्राह्म मत शिवाई कहलाता है जिसे अरबी में सबाइन और साबई मत कहते हैं।
इसी सबाइन मत से दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम और वहाबी पन्थ बने।

शुक्राचार्य के पुत्र भी त्वष्टा ने टर्की और युनान के निकट क्रीट द्वीप पर शाक्त पन्थ की नीव रखी। यह शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय बना।

भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाया। सिन्धु नदी के आसपास मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में तान्त्रिक पद्धति की मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ इन्ही शिष्णेदेवाः तान्त्रिकों के प्रमाण है, जिन्हें वेदों में घोर निन्दनीय और बहिष्कृत मत कहा गया है।
इस तन्त्र मत के लोग वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं मानते हैं। बचपन से ग्रहत्याग कर प्रथक संघ बनाकर घोर तामसिक तप करते हैं।
कालान्तर में यह श्रमण मत कहलाया जिसके दो रूप आस्तिक (वेदों को अंशतः मानने वाले) और नास्तिक (वेदों को न मानने वाले)
 नास्तिक मत वालों के भी दो रूप वर्तमान में भी पाये जाते हैं। इसमें  नाथ ईश्वरवादी हैं। तथा जैन अनीश्वरवादी हैं। श्रमण सम्प्रदाय के प्रमुख शंकर जी हुए। ईश्वर वादी शंकर जी को अपना इष्ट देवता मानते हैं और जैनों के आदर्श हैं।

इस प्रकार श्रमण सम्प्रदाय में तीन प्रमुख मत हुए ।
1 सिद्ध (नागा) सम्प्रदाय ईश्वर वादी और वेदों के प्रति आस्तिक हो गये। सिद्ध सम्प्रदाय के नागाओं को आद्य शंकराचार्य जी ने अपनी सेना के सैनिक बनाया।
 
2 नाथ सम्प्रदाय जो अ वैदिक ही रहे। लेकिन ईश्वर वादी हुए और भगवान शंकर को अपना इष्ट बनाया।
तथा 
3 जैन सम्प्रदाय जो शुद्ध नास्तिक (वेदों को न मानने वाले) और अनिश्वर वादी होते हैं।
जैन सम्प्रदाय से ही बौद्ध मत निकला। लेकिन कुछ लोग बौद्ध परम्परा को सन्देह वादी स्वतन्त्र मत मानते हैं 
भारत से बाहर ईरान का मीढ सम्प्रदाय लगभग नाथ सम्प्रदाय का ही रूप था। अफगानिस्तान के पिशाच और तुर्किस्तान में भी नाथ ही थे।
तिब्बत में नागाओं का गढ़ हुआ करता था। ये ही बाद में बौद्ध हो गये। सिद्धार्थ गोतम बुद्ध जो जन्मतः श्रमण सम्प्रदाय के प्रति आस्थावान थे। लेकिन उन्हें श्री आलार कलाम ने हठयोग और सांख्य दर्शन में दीक्षित कर दिया। बाद में श्री रुद्रक रामपुत्र से भी शिक्षा ली थी। लेकिन जन्मगत आस्था को भी वे छोड़ नहीं पाये। कुछ समय जैन आचार्यों की सङ्गति में रहकर कठोर तामसिक तप भी किया। और गणधर बुद्ध कहलाये। लेकिन सन्तुष्ट नहीं हो पाये। इसलिए अपना सन्देहवादी माध्यमिक दर्शन के साथ प्रथक मत स्थापित किया।
तान्त्रिक परम्परा के अनुयाई होने के कारण बौद्धों की एक शाखा वज्रयान सम्प्रदाय शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय हो गया। तिब्बत के नागालोग वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयाई हो गये।
इस बौद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय में यमराज को इष्ट मानने वाला और मृत्यु को ही अन्तिम सत्य मानने वाला सम्प्रदाय भी था। जो उछल-उछल कर साधना करता था।
प्राचीन काल में वैदिक मत में सबसे अन्त में पराकाष्ठा पर पहूँचे ऋषि सप्त ऋषि बन गये।
उनके बाद भगवान श्रीकृष्ण, वेदव्यास जी आदि हुए।
वर्तमान युग में भगवान आद्य शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य आदि हुए। सबसे अन्त में दयानन्द सरस्वती हुए। 
तन्त्र मत में आदिकाल में त्वष्टा पुत्र विश्वरूप पराकाष्ठा पर पहूँचे। जिनका वध इन्द्र को करना पड़ा।
फिर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन हुआ, जिसका वध भगवान परशुराम जी को करना पड़ा।
हठयोग में पराकाष्ठा पर रावण पहूँचा जिसका वध भगवान श्री रामचन्द्र जी को करना पड़ा ।
फिर कन्स, शिशुपाल और कालनेमी और जरासंध हुए। कन्स और शिशुपाल वध भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयम् किया और कालनेमी और जरासंध का वध नीतिकौशल से भगवान श्रीकृष्ण ने करवाया। 
तान्त्रिक क्रकच द्वारा भगवान आद्य शंकराचार्य जी की बलि चढ़ाने की कपट योजना का अन्त  उनके शिष्य पद्मपादाचार्य ने नृसिंह आवेश आह्वान कर क्रकच का वध कर किया और कापालिक उग्र भैरव का वध स्वयम भैरव ने कर दिया; भैरव स्वयम् प्रकट होकर कापालिक उग्र भैरव को खा गए।
ऐसी ही एक अन्य कथा के अनुसार अभिचार मन्त्र प्रयोग कर भगवान आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा के कोई शंकराचार्य जी को भगन्दर रोग पैदा कर मारने के इच्छुक कामरूप असम के तान्त्रिक अभिनव गुप्त का वध भगवान (आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा में हुए किसी) शंकराचार्य जी के शिष्य पद्मपादाचार्य जी को भगवान नृसिंह का आह्वान कर करवाना पड़ा।
ऐसे ही 
वर्तमान में लाहिड़ी महाशय आदि नाथ लोग हुए। एवम् तिब्बत में स्थित तथाकथित ज्ञानगञ्ज में बैठे कुछ सिद्ध गण हैं, जिनका मत हैकि, सृष्टि सञ्चालन में उनका हस्तक्षेप है।
वर्तमान में श्री भगवतानन्द गुरु के पिता श्री भी यम राज के निग्रह मत के अनुयाई हैं। जिन्होंने श्री भगवतानन्द गुरु को निग्रहाचार्य बनाया।

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

आजकल प्रचलित कर्मकाण्ड केवल दिखावा मात्र हो गया है।

आजकल तो सत्यनारायण कथा तक बन्द हो गई।
पहले मन्दिरों में ही भागवत सप्ताह चलता था।
अब पाण्डालों में नाचने-गाने के कार्यक्रम को भागवत कथा कहते हैं।
अब तो वह भी बन्द हो गई और प्रदीप मिश्रा और उनके अनुयाइयों द्वारा शिव पुराण के नाम पर टोने-टोटके सिखाये जाने लगे हैं।
अब एक चपेट पत्थर पर एक बेलनाकार पत्थर रखकर (स्थापित कर) उसपर दूध, घी, शहद, इत्र आदि रगड़ मसलकर पानी से बहाकर फिर उसपर भाँग-धतुरे का लेप कर बाद में उसे प्रसाद कहकर सेवन करने और चीलम में गाँजा भरकर धुम्रपान करते हुए पैदल यात्रा निकाल कर सड़कें जाम कर एक स्थान का पानी दुसरे स्थान पर लाकर उस पत्थर पर ढोल देने को ही धर्म-कर्म घोषित कर दिया गया है।
न किसी को वेद मन्त्रों का, न शिक्षा का, न विधि का ज्ञान है केवल पुस्तकों में देख-रेख कर रेसिपी से भोजन बनाने जैसे कर्मकाण्ड की क्रियाएँ करवा देते हैं। तो उसका फल क्या होगा?

संस्कृत का धर्मशास्त्र और हिन्दी में नीतिशास्त्र एक ही विषय है।

समुचित स्थान पर, समुचित समय पर किया गया समुचित प्रयत्न (कार्य) ही सफल होता है। यही धर्म है जिसे हिन्दी में नीति कहते हैं।
समुचित स्थान का चयन ही वास्तुशास्त्र है, समुचित समय का निर्धारण ही मुहूर्त शास्त्र है, और व्यवस्थित प्रयत्न करने की कला ही धर्मशास्त्र (हिन्दी में नीतिशास्त्र) है।
धर्मशास्त्र में आचरण के नियमों और निषेधों का उल्लेख होता है। कर्मकाण्ड की क्रियाओं का धर्मशास्त्र में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
धर्मशास्त्र को ब्रह्माण्ड में खगोल-भुगोल के माध्यम से उचित स्थान और पञ्चाङ्ग की सहायता से उचित समय की जानकारी के लिए सिद्धान्त (गणित) ज्योतिष की सहायता लेना पड़ती है, इसलिए ज्योतिष को धर्मशास्त्र का नेत्र कहा जाता है।
जबकि, लोग कर्मकाण्ड को ही धर्म समझते हुए लिखते हैं कि, धर्म से बड़ा कर्म है।

सोमवार, 28 जुलाई 2025

यात्रा मुहूर्त के नियम/ सिद्धान्त।

सुखद यात्रा ---
योगिनी बाँये हाथ पर या बाँये हाथ पर और पीठ पीछे हो।
दिशाशूल बाँये हाथ पर हो।
चन्द्रमा दाहिने हाथ की ओर हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।




वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी पीठ पीछे हो।
दिशाशूल पीठ पीछे हो या पीठ पीछे और बाँये हाथ पर हो।
चन्द्रमा सामने हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।




धन हानि कारक यात्रा से बचाव हेतु ---

योगिनी दाहिने हाथ पर या दाहिने हाथ पर और सामने न हो।
दिशाशूल दाहिने हाथ पर न हो।
चन्द्रमा बाँये हाथ पर न हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।



मृत्यु कारक यात्रा से बचाव हेतु ---

योगिनी सामने या सामने और दाहिने हाथ पर न हो।
दिशाशूल सामने न हो।
चन्द्रमा पीठ पीछे न हो।
राहु सामने या पीठ पीछे न हो।

यात्रा मुहूर्त।

पूर्व दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी द्वितीया, सप्तमी, दशमी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल बुधवार हो।
चन्द्रमा वृषभ , कन्या या मकर राशि में हो।
राहु मंगलवार या शनिवार न हो।


पूर्व दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी षष्टी, सप्तमी, चतुर्दशी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।




पश्चिम दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी तृतीया, पञ्चमी, एकादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल गुरुवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।


पश्चिम दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी प्रतिपदा, तृतीया, नवमी या एकादशी तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।




उत्तर दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी, षष्ठी, द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।


उत्तर दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी चतुर्थी, पञ्चमी, द्वादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल शुक्रवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।




दक्षिण दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।


दक्षिण दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी द्वितीया, अष्टमी, दशमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल मङ्गलवार या बुधवार हो ।
चन्द्रमा वृषभ, कन्या या मकर राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।




ईशान (पूर्वोत्तर) कोण में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी, षष्ठी , द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह, धनु राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।


ईशान (पूर्वोत्तर) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी चतुर्थी, षष्ठी, द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।



नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण मे सुखद यात्रा ---
योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।


 नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।



आग्नेय (दक्षिण पूर्वी) दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी द्वितीया, अष्टमी, दशमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल मंगलवार, बुधवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा वृषभ, कन्या या मकर हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

आग्नेय (दक्षिण पूर्वी) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी द्वितीया, सप्तमी, दशमी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल मङ्गलवार, बुधवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह, या धनु राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।



वायव्य (पश्चिमोत्तर) कोण में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी , पञ्चमी, द्वादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

 वायव्य (पश्चिमोत्तर) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी तृतीया, पञ्चमी, एकादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल गुरुवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

भारत में वैदिक धर्म को सनातन धर्म के रूप में राजधर्म बनाए रखने का इतिहास।

भारत में जैन और बौद्ध मत के व्यापक प्रचार-प्रसार के बाद आचार्य श्री कुमारिल भट्ट ने बौद्ध मत का खण्डन कर बौद्धाचार्य को शास्त्रार्थ में हरा कर पुनः वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की। उनके इसी कार्य को ईसापूर्व 509 से 477 के बीच आगे बढ़ाया भगवान श्री आद्य शंकराचार्य जी ने।
 
तत्पश्चात श्री विष्णु गुप्त चाणक्य ने बौद्ध मतावलम्बी धनानन्द को पदच्युत कर ईसा पूर्व 321 में चन्द्रगुप्त मौर्य को सत्तासीन करवा कर भारत की बिखरी राजसत्ता को केन्द्रीय सत्ता में परिवर्तित किया। वैदिक सनातन धर्म में बौद्धों और जैनों के प्रति सह अस्तित्व का भाव उपजा।
लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य की आस्था जैन मत में थी। और उसका उत्तराधिकारी अशोक बौद्ध हो गया। इसी परम्परा में अशोक के उत्तराधिकारी वृहदृथ ने तो भी बौद्ध मत का पालन करते हुए यूनानी क्षत्रप के आक्रमण के विरुद्ध प्रतिकार करने से इन्कार कर समर्पण की मंशा प्रकट की तो ईसापूर्व 187 में सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कायर वृहदृथ की हत्या कर स्वयम् सत्ता सम्भाली। और अश्वमेध यज्ञ कर भारत में वैदिक धर्म की जाग्रति फैलाई।

शुंग वंश के बाद ईसापूर्व 73 से ईसा पूर्व 28 तक मगध में वासुदेव कण्व द्वारा स्थापित कण्व वंशीय राजाओं ने भी वैदिक धर्म को ही राजधर्म बनाया।

इसी समय कुरुक्षेत्र के आसपास हरियाणा के मालव प्रान्त के महाराज नाबोवाहन ने मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के निकट आकर गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। 
गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु और शिव के भक्त थे। उनके पुत्र राजा भृतुहरि हुए। भृतुहरि को गोरखनाथ ने नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित कर उन्हें संन्यास दिला दिया।राजा भृतुहरि ने अपने छोटे भाई विक्रम सेन को राजपाट सौंप दिया। जो बाद में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विक्रमादित्य सम्राट हुए। सम्राट के अधिनस्थ बहुत से छोटे- बड़े राजा होते हैं जो सम्राट को कर देते हैं। विक्रमादित्य का शासन प्रबन्ध टर्की, युनान, मिश्र और रोमन साम्राज्य (इटली) तक था। उन्होंने रोम के जुलियन सीजर को बन्दी बनाकर उज्जैन में घुमाया था। विक्रमादित्य ने वैदिक सनातन धर्म का मान पूरे एशिया महाद्वीप में बढ़ाया था।
सम्राट विक्रमादित्य के बाद ईसापूर्व 30 में महाराष्ट्र के जुन्नर नगर में सिमुक ने कण्व वंश से राजसत्ता छीनकर सात वाहन वंश की स्थापना की और शुङ्ग वंश को भी समाप्त कर दिया। बादमें गोतमिपुत्र सातकर्णी ने पेठण को राजधानी बनाया।
सनातन धर्म का वर्तमान पौराणिक स्वरूप सातवाहन वंश के समय ही विकसित हुआ।

फिर वैदिक धर्मी श्री गुप्त ने 240ईस्वी में गुप्त वंश की स्थापना कर वैदिक धर्म को और मजबूत बनाया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने 320 ईस्वी में सम्राट की उपाधि धारण कर तथा समुद्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य स्थापित कर तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सनातन धर्म को राजधर्म घोषित कर इस कार्य को आगे बढ़ाया।
फिर उज्जैन में मुञ्जराज हुए जिनके भतिजे राजा भोज ने 1010 ईस्वी में धारा नगरी (धार) को राजधानी बनाया। 
फिर राजपूत राजाओं का दौर चला जिसमें अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान ने 1166 से 1192 के बीच अन्तिम अश्वमेध यज्ञ कर सम्राट की उपाधि ग्रहण की। लेकिन मोह मद घोरी से परास्त होने से भारत में इस्लामिक राज्य प्राम्भ हुआ।

जिसे महाराष्ट्र के रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी राजे भोसले ने 1674 ईस्वी में पुनः हिन्दू स्वराज्य की स्थापना कर चूनोति दी। लेकिन उनके पुत्र सम्भाजी राव भोसले ओरंगजेब से हार गये और मराठा साम्राज्य समाप्त हो गया।

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

मृत्यु पूर्व क्या कर्तव्य है।

पहले एकादशी उद्यापन, तीर्थ यात्रा में गोदान , भूमि दान, स्वर्ण दान, अन्नदान, वस्त्र दान, कन्या दान  सब कर लेना चाहिए। 
तीर्थ में, पुण्यप्रदा नदी किनारे, या घर में पञ्चगव्य से स्नान कर शुद्धोदक स्नान कर पञ्चगव्य पान कर गङ्गा जल से आचमन कर, देशी गाय की कुंवारी केड़ी या देशी गाय के गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर,  पद्मासन लगाकर कर तुलसीदल मुख मे रखकर गङ्गा जल से आचमन कर प्राणायाम करके ॐ का उच्चारण करके ईशावास्योपनिष का पाठ कर ॐ का जप करते हुए  शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा की धारणा खर परमात्मा के ध्यान करते हुए समाधिस्थ हो कर प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित कर परमात्मा में लीन हो जाना कर्तव्य है।
इतना न हो सके तो जितना हो सके उतना तो करे ही।
गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर,  पद्मासन लगाकर कर तुलसीदल मुख मे रखकर गङ्गा जल से आचमन कर जलप्राणायाम करके ॐ का उच्चारण करके दक्षिण दिशा में पेर करके पीठ के बल लेट जाएँ। और परमात्मा कोदक्षिण दिशा में पेर करके स्मरण करते हुए प्राणोत्सर्ग करना चाहिए।
यह भी न हो तो मरने के पहले मुख में गङ्गा जल और तुलसीदल रखकर गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर, दक्षिण दिशा में पेर करके पीठ के बल लिटा दिया जाए।
मृत्योपरान्त कर्मकाण्ड में ये सब नहीं कर पाने का प्रायश्चित करवाया जाता है।

रविवार, 13 जुलाई 2025

देवताओं की वरीयता क्रम।

परमात्मा के इस ॐ संकल्प के साथ ही परमात्मा स्वयम् परब्रह्म स्वरूप में प्रकट हुए। मानवीय स्वभाव वश हम इस स्वरूप का एकात्मक स्वरूप नहीं समझ पाते हैं इसलिए इसे परमेश्वर परम पुरुष विष्णु और परा प्रकृति माया के रूप में जानते समझते हैं।
ऋग्वेद में कहा है, विष्णु परमपद को देखने के लिए देवता भी तरसते हैं।
यहाँ से ईश्वर - शासक की अवधारणा प्रारम्भ होती है। जो उत्तरोत्तर नीचे की ओर ब्रह्म (महेश्वर प्रभविष्णु-श्रीलक्ष्मी अर्थात सवितृ- सविता ) हुए फिर 
अपर ब्रह्म (जगदीश्वर नारायण श्री हरि-कमला लक्ष्मी) हुए। फिर 
पञ्च मुखी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा - वाणी ( ईश्वर त्वष्टा-रचना और अर्धनारीश्वर महारुद्र)। फिर 
चतुर्मुख प्रजापति-सरस्वती ब्रह्मा (दक्ष प्रथम-प्रसूति, रुचि-आकुति और कर्दम देवहूति) हुए। उधर महा रुद्र से रुद्र- रौद्री हुए। फिर 
वाचस्पति (इन्द्र- शचि) हुए। फिर 
इसके बाद देवताओं की उत्पत्ति हुई।
ब्रह्मणस्पति (द्वादश आदित्य और उनकी शक्तियाँ) हुए। फिर 
ब्रहस्पति (जिसके नाम पर ब्रहस्पति ग्रह का नाम करण हुआ) (अष्ट वसु और उनकी शक्तियाँ) हुए। फिर 
पशुपति (एकादश रुद्र और उनकी शक्तियाँ) हूए। इन एकादश रुद्रों में एक शंकर-शंम्भु भी है। फिर  
गणपति (सोम राजा और वर्चा) हुए। यह गणपति उमा-शंकर सुत गजानन विनायक नहीं है।
फिर सदसस्पति हुए , सदसस्पति की शक्ति मही हुई। फिर 
मही से भारती, सरस्वती और इळा (इला) हुए।

(> यह चिह्न बड़ा है का है। अर्थात बढ़ा से > छोटा हुआ।)
कहने का तात्पर्य परमात्मा> परब्रह्म, परमेश्वर विष्णु> ब्रह्म महेश्वर प्रभविष्णु > अपरब्रह्म जगदीश्वर नारायण श्री हरि>  ईश्वर हिरण्यगर्भ त्वष्टा और महारुद्र से > प्रजापति  दक्ष > वाचस्पति इन्द्र > ब्रह्मणस्पति आदित्य > ब्रहस्पति वसु > पशुपति रुद्र (जिससे ग्यारह रुद्र हुए जिसमें एक कैलाश वासी शंकरजी भी हैं।) > गणपति (सोम-वर्चा) > सदसस्पति > मही > भारती > सरस्वती > इळा।

तैंतीस देवता - (1) प्रजापति (2) इन्द्र (3 से 14) तक द्वादश आदित्य (15 से 22) तक अष्ट वसु और (23 से 33) तक एकादश रुद्र। ये तैंतीस देवता हैं।

ग्रेडेशन का एक सूत्र है --- नारायण श्रीहरि के बाँये पेर के अङ्गठे से निकली गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डलु में रही। वहाँ से निकल कर इन्द्र के स्वर्ग लोक में रही। स्वर्ग से निकलकर शंकर जी के सिर की जटा में समाई।
मतलब नारायण बड़े हैं ब्रह्मा से। 
ब्रह्मा बड़े हैं इन्द्र से
इन्द्र बड़े हैं शंकर जी से

शनिवार, 12 जुलाई 2025

हिरण्यगर्भ सूक्त


हिरण्यगर्भ सूक्त में हिरण्यगर्भ, प्रजापति, दक्ष , वृहति और आप ये पाँच ही सञ्ज्ञा आई है।
त्रिविक्रम विष्णु का नाम नहीं है। न प्रभविष्णु सवितृ का है ।
यदि हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने ही प्रजा का सृजन भी किया होता तो ऐसी भाषा आती कि, हिरण्यगर्भ ही प्रजापति है। लेकिन ऐसा वर्णन नहीं है।
और न ही ऐसा कहीं वर्णन है कि,
हिरण्यगर्भ ही दक्ष है। हिरण्यगर्भ ही वाचस्पति है, हिरण्यगर्भ ही ब्रह्मणस्पति है, हिरण्यगर्भ ही ब्रहस्पति है।
लेकिन ऐसा वर्णन नहीं है।
विष्णु सर्वव्यापी को त्रिविक्रम कहकर यह बतलाता गया कि, वह प्रत्येक स्थान, प्रत्येक लोक, प्रत्येक भुवन में पहले से है।
यही बात ईशावास्योपनिषद में भी कही है।
प्रभविष्णु जिससे सृजन प्रारम्भ हुआ। भू भव यानी होना। इस लिए प्रभ शब्द आया।
 प्रभा, प्रभात, प्रभु, प्रभुत्व, प्रभाव इन सभी शब्दों में वही होने का भाव है।
यही सवितृ में है, प्रसवित्र (जिसने सृष्टि को प्रसुत किया।) इसलिए जनक, प्रेरक और रक्षक अर्थ हैं।
हिरण्यगर्भ जिसका गर्भ (केन्द्र) हिरण्यमय है। गर्भ शब्द का प्रयोग कर जनक बतलाया गया। जो हिरण्य आदि भौतिक जगत का जनक है।
प्रजापति जिससे प्रजाएँ उत्पन्न हुई।
दक्ष जिसने धर्मसूत्र रचकर धर्म मर्यादा स्थापित कर प्रजा को धर्म में दीक्षित किया।
अपः तत्व (नार) प्रकृति (श्री-लक्ष्मी) का प्रतीक है जिसपर नारायण श्रीहरि आश्रित हैं।
वृहति वृहत के अर्थ में है।

ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलने का कारण।

भारतीय उप महाद्वीप, तुर्किस्तान और मेसोपोटामिया (ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान,  उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अजरबेजान, आर्मेनिया, दक्षिण पूर्वी टर्की, पश्चिम टर्की (सु संस्कृत होने के कारण जिसे युनान/ ग्रीस कहते हैं, जबकि युनान अलग देश है।) तथा सीरिया, इराक, सऊदी अरब,यमन,ओमान, जोर्डन,  लेबनान), मिश्र, केनिया, सोमालिया , नेरोबी और ईरान , अफगानिस्तान, तिब्बत , पश्चिमी चीन, युक्रेन और दक्षिण पूर्वी रूस,  तथा लेटिन अमेरिका मेक्सिको, बोलिविया, आदि देशों के इतिहास, धर्म, संस्कृति, वैज्ञानिक उपलब्धियों के रेकार्ड शक हूण, पारसी, श्रमणों-बौद्धों और अब्राहीमीक (सबाइन, दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, ईसाई और इस्लामी) आक्रान्ताओ ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
इसलिए प्राचीन वैज्ञानिक अनुसंधान के दौरान किये गये प्रयोगों और निरीक्षणों का इतिहास नहीं मिलता है।
निष्कर्ष भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अन्तरित होते-होते कितने बदल गए कह नहीं सकते।



रविवार, 6 जुलाई 2025

सृष्टि का कारण और सृष्टि के पहले क्या था?

प्रश्न यह है कि, 

1 जिसके पहले सत भी नहीं था, असत भी नहीं था ।

2 दुसरा कहीं लिखा है कि, पहले केवल असत था, और असत से सत की उत्पत्ति हुई 

दुसरे ऋषि का कहना है कि, पहले केवल सत था और सत से उत्पत्ति हुई 

3 तीसरी ओर कहा जाता है कि, सृष्टि उत्पत्ति एकार्णव जल से हुई।

इन सब की मीमांसा कैसे की जाए? सत्य क्या है? किसे सत्य माना जाए?

  उत्तर - 
1 सत मतलब अस्तित्व नही था। लेकिन अनस्तित्व भी तो नहीं था। क्योंकि परमात्मा तो सदैव से है, सदैव रहेगा। सनातन है। इसलिए सृष्टि नहीं होने से जगत का अस्तित्व नही होते हुए भी परमात्मा तो था ही इसलिए अनस्तित्व भी नहीं था।

2 पहले असत था; असत से ही सत (अस्तित्व) हुआ । मतलब सृष्टि के पहले जगत का अस्तित्व नही था। उस अभाव की पूर्ति जगत की उत्पत्ति से हुई।

सत से ही सत की उत्पत्ति हुई मतलब परमात्मा के (विश्वात्मा) ॐ संकल्प से परमात्मा स्वयम [प्रज्ञात्मा अर्थात परम पुरुष  और परा प्रकृति] परब्रह्म परमेश्वर (अर्थात विष्णु और माया) के स्वरूप में प्रकट हुआ। फिर [प्रज्ञात्मा अर्थात पुरुष और प्रकृति)  ब्रह्म (अर्थात प्रभविष्णु जनक, प्रेरक रक्षक सवितृ और श्री लक्ष्मी या सावित्री) के स्वरूप में प्रकट हुआ। जिसने सृष्टि सृजन किया।

3 एकार्णव जल से सृष्टि उत्पत्ति -- यह एकार्णव जल पुरुष (प्रभविष्णु सवितृ) की प्रकृति (श्री लक्ष्मी सावित्री) है। इस प्रकृति से ही आगे की सृष्टि हुई।
परमात्मा ही जीवात्मा (अर्थात अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (अर्थात नारायण श्रीहरि और नारायणी पद्मासना कमला गज लक्ष्मी) हुए।
ये अपर पुरुष नारायण त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति नार पर अवस्थित हैं। और प्रत्यागात्मा ब्रह्म (पुरुष और प्रकृति)  पर आश्रित हैं। क्योंकि प्रत्येक का व्यक्तिगत अस्तित्व प्रत्यागात्मा ब्रह्म के कारण ही है।
जीवात्मा अपर ब्रह्म से भूतात्मा (देहि और अवस्था) हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा/ पञ्च मुखी ब्रह्मा/ अण्डाकार) (त्वष्टा और रचना) हुआ। त्वष्टा ने ब्रह्माण्ड के गोले घड़े। इस प्रकार भौतिक सृष्टि हुई।
जैविक सृष्टि के लिए परमात्मा सुत्रात्मा (ओज और आभा या रेतधा और स्वधा) प्रजापति हुए। प्रजापति को देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा ।
अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति (3) रुद्र - रौद्री और  (4) पितर - स्वधा भू स्थानी प्रजापति (5) दक्ष प्रथम - प्रसुति, (6) रुचि - आकुति (7) कर्दम - देवहूति के रूप में जानते हैं। इनके अलावा आठवें स्वायम्भुव मनु और शतरूपा हूए जो राजन्य हुए। इन लोगों ने ही जैविक सृष्टि की।
इनके अलावा भूमि पर ये
आठ भूस्थानी प्रजापति ये हुए (1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। जिन्होंने मैथुनिक सृष्टि उत्पत्ति की। इनके अलावा नारद जी मुनि होगये। इस कारण नारद जी को प्रजापति नहीं कहते हैं।
ये सभी आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष हैं इसलिए ब्राह्मण कहलाते हैं।
इस प्रकार प्रत्यागात्मा ब्रह्म (पुरुष और प्रकृति)  पर आश्रित और  त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति नार अर्थात एकार्णव जल पर अवस्थित जीवात्मा (अर्थात अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (अर्थात नारायण श्रीहरि और नारायणी पद्मासना कमला गज लक्ष्मी) को भौतिक और जैविक सृष्टि का कारण माना जाता है। यही एकार्णव जल (त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति) सृष्टि के आदि में था।
इस प्रकार मीमांसा पूर्ण हुई।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

आस्तिक ईश्वरवाद, आस्तिक ईश्वर की अवधारणा अनावश्यक मानने वाले पूर्व मीमांसक और सांख्य दर्शन तथा आस्तिक अनीश्वरवादी पूर्व मीमांसक।

ईश्वर है या नहीं है, ईश्वर की अवधारणा अनावश्यक है या आवश्यक है; ये समस्याएँ वेदों के प्रति आस्थावान आस्तिकों (वैदिकों) में भी है। इनमे प्रमुख तीन है।
1 ईश्वरवादी जो परमात्मा के ॐ सङ्कल्प से परमात्मा के सगुण प्रकट स्वरूप परब्रह्म (विष्णु-माया) की प्रेरणा से ब्रह्म (प्रभविष्णु-श्रीलक्ष्मी)  (सवितृ- सावित्री) सृष्टि का जनक प्रेरक रक्षक  को मानते हैं। जिसकी प्रेरणा से वाणी हिरण्णगर्भ - (त्वष्टा - रचना) ने बढ़ाई (सुतार- लौहार, सुनार, कम्भकार) की भाँति सृष्टि में ब्रह्माण्डों को और ब्रह्माण्ड के गोलों को घड़ा।

2 - तार्किक दृष्टि वाले साधक गण कहते हैं, कि, पुरुष के लिए केवल धर्म, अर्थ, काम मौक्ष पुरुषार्थ कहे गए हैं। इनको प्राप्त करने में न ईश्वर आवश्यक है, न सहायक है न बाधक है; तो इस अव्याकृत तथ्य पर विचार करना भी अनावश्यक है।
सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को सांख्य दर्शन का ज्ञान प्रदाता गुरु ने यही शिक्षा दी गई थी। इसलिए वे नास्तिक अनीश्वरवादी शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ की परम्परा से हटकर प्रचार करने लगे।

3 - अनीश्वरवादी पूर्व मीमांसक- जो ईश्वर की अवधारणा की आवश्यकता पर और  प्रश्न  ईश्वर के अनस्तित्व मानने से क्या क्षति हो जाएगी यह प्रश्न उठाते हुए ईश्वर के होने पर भी हिंसा, बलात्कार, लूट जैसे अनाचार होने का कारण पूछते हुए ईश्वर के न होने पर बहुत से तर्क प्रस्तुत करते हैं। जिनका उत्तर उत्तर मीमांसक वेदान्तियों ने दिया है उसमें भी विशेषकर शंकराचार्य परम्परा के अद्वैत वेदान्तियों ने उत्तर दिये हैं।

इनके अलावा वेदों को न मानने वाले, वेद विरोधी नास्तिक अनीश्वरवादी जैन दर्शन के शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ, वर्धमान महावीर से लेकर स्टीफन हॉकिंग तक उक्त तर्क और वैदिक ईश्वर वादियों द्वारा दिए गए उनके प्रामाणिक उत्तरो को ही संकलित किया जाए तो महाभारत से बड़ा ग्रन्थ बन जाएगा।

गुरुवार, 26 जून 2025

क्या यम नियम पालन किए बिना, पञ्च महायज्ञ पूर्ण किए बिना, सदाचारी जीवन के बिना केवल नाम जप से उद्धार सम्भव है?

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपीधर्म में दृढ रहते हुए शोच, सन्तोष, तप (जिसमें नाम जप सम्मिलित है।), स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूपी नियमों का पालन करते हुए ब्रह्म यज्ञ (अष्टाङ्ग योग इसी का भाग है।), देव यज्ञ, नृयज्ञ (अतिथि यज्ञ- दान आदि), भूत यज्ञ (प्रकृति,जीव- जन्तुओं और वनस्पतियों की सेवा), तथा पितृ यज्ञ (बुजुर्गों और दिवङ्गत जनों की लोक सेवार्थ प्रतिज्ञा और इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु पाठशाला,  व्यायाम शाला, धर्मशाला, वाचनालय, सदावर्त, कूप-तड़ाग, बान्ध, घाट, नहर, औषधालय, चिकित्सालय, मार्ग, स्ट्राम वाटर लाइन, सिवरेज, ड्रेनेज, प्रकाश व्यवस्था, आदि के निर्माण और रखरखाव में यथाशक्ति सहयोग करना) जिसे निष्काम कर्म योग भी कहा है, इसके बिना अन्तःकरणों की मलिनता दूर हो नहीं सकती। और निर्मल अन्तःकरण में ही सद्विचार, सद्भाव और सत्कर्म के सङ्कलप पूर्ण करने के निश्चय के लिए निश्चयात्मिका बुद्धि का वास होता है।
ऐसे व्यक्ति ही श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 09 श्लोक 22 के अनुसार सदाचारी जीवन जीनेवाले ईश्वर प्रणिधान किये हुए लोगों के लिए ही अनन्याश्चिन्तयन्तो मां: कहा गया है। उनके योग क्षेम  परब्रह्म भगवान विष्णु स्वयम ही निर्वहन करते हैं।
अन्यथा तोता रटन्त से कुछ नहीं होता।

बुधवार, 25 जून 2025

ब्रह्म-यज्ञ के अन्तर्गत भगवत-कथा और लौकिक भागवत कथा या राम कथा आयोजन की मर्यादा में अन्तर होता है।


वैदिक काल में यज्ञ सत्र के दौरान रात्रि में प्राचीन काल का इतिहास-गौरव जानकर धर्म कार्य में प्रेरणा और उत्साह वर्धन हेतु इतिहास श्रवण होता था। धार्मिक लोगों की कथा-साहित्य शास्त्र मनोरञ्जनार्थ पुराण श्रवण होता था।
ऋग्वेद के ऋषि और स्वायम्भुव मनु के पाँचवी पीढ़ी में उत्पन्न ऋषभदेव ने अपनी पुत्री को चौदह भाषाएँ और उनकी लिपियाँ सिखाई थी। फिर भी मुखाग्र और अन्तस्थ स्मरण रखने की परम्परा थी। जो बारहखड़ी, गिनती-पहाड़े, और कविताओं को मुखाग्र स्मरण की परम्परा आज भी कायम है। इसलिए उस समय लेखन की परम्परा नहीं थी। इसलिए वह श्रुति काल कहलाता है। श्रुति काल में कथा वाचन नही कथा-कथन और श्रवण होता था।
इस इतिहास को महर्षि पराशर जी नें संहिता बद्ध कर अपने पुत्र श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया। फिर पुराण कथाओं का सम्पादन कर पुराण संहिता अपने पुत्र श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया।
श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने इस इतिहास को बत्तीस हजार श्लोक की जय संहिता के रूप में पढ़ाया- सिखाया। फिर जय संहिता का विस्तार भारत ग्रन्थ के रूप में हुआ और श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी के शिष्यों ने उसे लगभग एक लाख श्लोकों का बना दिया। अतः इसका लेखन अपरिहार्य हो गया था। अस्तु शीघ लेखन के ज्ञाता गणेश जी की सहायता ली गई। यह भी प्रमाणित करता है कि, लिपियाँ महाभारत रचना के पहले से अस्तित्व और प्रचलन में थी।
महाभारत की मारकाट से वृहद वर्णन से महर्षि वेदव्यास जी को वितृष्णा होने लगी। अतः श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने ललित साहित्य के रूप में रूपकात्मक पुराण कथा संहिता बद्ध कर अपने शिष्यों को पढ़ाई- सुनाई।
शिष्यों में जिस शिष्य ने अपनी योग्यता अनुसार जैसा ग्रहण किया उसे लिपिबद्ध कर वेद व्यास जी के नाम पर पुराणों की रचना की। व्यास जी के शिष्य व्यास ही कहलाते हैं। अस्तु समस्त पुराण साहित्य वेदव्यास जी के नाम पर प्रचलित हो गई। जिसका प्रवर्तन, प्रवर्धन, सम्पादन, लेखन गुप्त काल और धार के राजा भोज के समय तक होता रहा।
इन पाण्डुलिपियों में भी शिष्य गण अपनी समझ और आस्था अनुसार वर्तमान इतिहास जोड़ते गये। जो वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध है। यह पूर्णतः लौकिक साहित्य है। 
अतः इन कथाओं का कथनोपकथन, उपदेश, श्रवण घरों में, सभाओं में भी होता है और मठों में तथा मठों के अधीन मन्दिरों में महन्त जी या उनके अनुयाई आगमोक्त पूजन विधि से पूजन कर केवल श्रद्धालु भक्तों को कथा सुनाते हैं, केवल वही व्यास पीठ कहलाती है।
जैसे यज्ञ के पहले उचित पवित्र भूमि की परीक्षा कर खुदाई कर जाँच-पड़ताल कर भूमि शोधन होता था। भूमि का पवित्रिकरण होता था। तत्पश्चात यज्ञ-सत्र का आयोजन होता है। वैसी शुद्ध की हुई भूमि पर सायं काल में व्यासपीठ स्थापित कर पुराण वाचन एवम् प्रवचन  होता है तब तो व्यासपीठ की मर्यादा का प्रश्न उपस्थित होता है।
लेकिन जब किसी भी खाली पड़े कॉलोनी का कचरा डालने के काम आने वाले प्लाट पर या किसी किसान के खेत को समतल कर उस खेत पर कथा आयोजन होता है तो, उसमें कौन सी व्यास-पीठ स्थापित हो सकती है? तो यहाँ तो गली-मोहल्लों में आयोजित होने वाली सत्यनारायण कथा, तेजाजी की कथा और रामदेवजी की कथा के समान ही परम्परा निर्वहन होगी।
निर्वयसनी, ऋतुकाल में ही केवल सन्तानोपत्ति हेतु गर्भाधान संस्कार के निमित्त स्वयम् की पत्नी के साथ रति करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी, ईश्वर प्रदत्त सम्पदा से सन्तुष्ट, ब्रह्म कर्म में प्रवृत्त, पञ्चमहायज्ञ सेवी, निष्काम कर्मयोगी ब्राह्मण न तो सुलभ हैं, न ऐसे ही धर्म प्रेमी श्रोता सुलभ हैं।
अतः स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी का नियम था कि वे किसी योग्य संन्यासी के आग्रह पर ही भागवत कथा सुनाते थे। उस बीच जो श्रद्धालु हो वह भी सुनले। इसमें उन्हें कोई आपत्ती नही थी।
ऐसे आयोजन में व्यासपीठ की मर्यादा होती है।
लेकिन खेतों में और प्लॉटों में व्यासपीठ हो ही नहीं सकती।

एक तरफ कहा जाता है कि, पुराण की रचना ही उनके नैतिक - धार्मिक विकास के लिए रची गई जो वेदों में उल्लेखित धर्म- दर्शन की गूढ़ बातों को नहीं समझ पाते थे। अर्थात सेवा क्षेत्र में लगे हुए श्रम जिवियों के लिए पुराण रचे गए ‌। और दुसरी ओर व्यास पीठ की मर्यादा की बात करना। दोहरी मानसिकता है।
इस लिए ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी का यह कथन उचित है कि, अपना वर्ण, जाति, गोत्र घोषित कर ही वैधानिक तरीके से किसी के द्वारा कथा करने पर किसी को कोई आपत्ती नही हो सकती। उसके श्रोता ऐच्छिक रूप से कोई भी हो सकते है।
लेकिन यदि व्यासपीठ मर्यादा की घोषणा के साथ भगवत कथा ब्रह्म यज्ञ आयोजित किया जाता है तो, फिर, विधि-विधान से व्यासपीठ स्थापित कर, योग्य विप्र या ब्राह्मण के मुख से ही भगवत कथा होना चाहिए। और केवल धर्म मर्यादा पालक श्रोताओं को ही श्रवणाधिकार है।

समान गोत्र - प्रवर में विवाह त्याज्य है।

चतुर्मुखी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान जो स्वयम् ब्रह्मर्षि थे वे भी प्रजापति कहलाते हैं।
इनमे दक्ष प्रजापति प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति, रुचि प्रजापति और उनकी पत्नी आकुति (इन्ही ने श्राद्ध चलाया जिसे सांकल्पिक नान्दिश्राद कहते हैं) और कर्दम प्रजापति और उनकी पत्नी देवहूति (जिनके पुत्र सांख्य दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हुए।)
शेष ब्रह्मर्षि (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति।
इनके अलावा नारद ने विवाह नहीं किया।
इन आठ मे से जिन्होंने गुरुकुल चलाए उन कुल गुरुओं के गोत्र चले।
फिर इनके योग्य शिष्यों के भी गुरुकुल चले उनके नाम पर भी गोत्र चले।
लेकिन एक महागुरु के जितने शिष्यों के गोत्र होते हैं वे एक ही प्रवर में माने जाते हैं। इसलिए समान प्रवर में भी विवाह नहीं होता है।

पिता का गोत्र तो विवाह में त्याज्य है ही, माता, दादी, पर दादी, वृद्ध परदादी का गोत्र भी त्याज्य है। नाना जी, नानी और माँ की दादी और नानी का गोत्र भी त्याज्य है ।

शुक्रवार, 20 जून 2025

आत्मा द्वारा वरण करने पर ही आत्मज्ञान होना ---

श्री शिशिर भागवत: 

ईश्वर में पूर्ण समर्पण भी ईश्वरेच्छा के बिना नहीं होता ।
 
मेरा उत्तर 

 यहाँ आपने प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर कहा है उनकी इच्छा को ईश्वरेच्छा कहा है।
जबकि,
उपनिषद के वाक्य आत्मा जिसे स्वयम् वरण करता है वहाँ उपनिषद मे आत्मा का तात्पर्य परमात्मा से होता है। इसमें 
प्राणायाम कर धारणा, ध्यान और समाधि एक साथ कर संयम द्वारा विश्वात्मा ॐ को धनुष बनाकर उसमें प्रत्यगात्मा (पुरुष-प्रकृति) अर्थात ब्रह्म (प्रभविष्णु - श्री एवम लक्ष्मी) को बाण की नोक पर बैठाकर प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर में स्थाई रूप से स्थापित कर दिया जाता है। इसके बाद प्रज्ञात्मा स्वाभाविक रूप से विश्वात्मा ॐ के द्वारा परमात्म भाव में स्थित और स्थिर हो जाता है।
यही सद्योमुक्ति है।

अन्यथा संसार में रत स्वभावतः प्रत्यगात्मा सदैव प्रज्ञात्मा और जीवात्मा के बीच दोलन करता रहता है।

श्री शिशिर भागवत का कथन -
सद्यो मुक्त तो हुवे नहीं है तो अभी जहां है उसी के बारे में कह सकते है ।
जब वो वरण करेगा तब बात दूसरी होगी । 100 % हरि कर्ता भाव उसके कृपा के बिना लगभग असंभव ही है ।
मेरा उत्तर -
वह शब्द परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है।

वेद शास्त्र (शब्द प्रमाण) ही प्रमाणों में परम प्रमाण है।
स्मृति (रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि तथा महापुरुषों के अनुभव एवं उनके अनुभव के आधार पर कथित वचन) प्रमाण कोटि में नहीं आती।

श्री शिशिर भागवत ---

ये मान्य है ।

योग दिवस वसन्त विषुव दिवस सायन मेष संक्रान्ति (20-21 मार्च) और इण्टरनेश्नल योगा डे उत्तर परम क्रान्ति दिवस सायन कर्क संक्रान्ति (21-22 जून)

समत्वम् योग उच्चते।
इस परिभाषा के अनुसार तो जिस दिन दिन-रात बराबर हो, प्रकृति प्रफुल्लित हो अर्थात सभी पेड़ पौधों पुष्पित हो, जीवों का मन उत्साहित हो उस दिन योग दिवस मनाया जाना चाहिए।
वह दिन वसन्त विषुव दिवस, सायन मेष संक्रान्ति 20-21 मार्च को होता है।
दिन-रात बराबर, सृष्टि का प्रारम्भ दिवस, संवत्सर, प्रारम्भ दिवस, वसन्त ऋतु, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय, सूर्य की स्थिति और गति उत्तर में (उर्ध्व में) होती है। यह प्राकृतिक योग दिवस होता है।
ध्यान रखें व्यायाम प्रारम्भ करने और जम कर व्यायाम करने के लिए ठण्ड का समय ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गर्मी और बरसात में चल रहा नियमित हल्का व्यायाम करन ही उचित माना जाता है।

अष्टाङ्ग योग में मुख्यता यम- नियम की है। बिना यम-नियम पालन के आसन मात्र जिम्नास्टिक है। प्राणायाम ब्रीदिंग एक्सरसाइज है, बिना प्रत्याहार, बिना धारणा के ध्यान होता ही नहीं। केवल रिलेक्सेशन हो सकता है। तो समाधि की तो कल्पना ही नहीं।
यह योग नहीं योगा है। YOGA योगा, योगा में सब-कुछ होगा वाला योगा डे सायन कर्क संक्रान्ति 21-22 जून को मनाया जाता है जिस दिन सूर्य का परम उत्तर क्रान्ति दिवस होता है अर्थात जिस दिन सूर्य उत्तरी गोलार्ध में उत्तर की ओर गति करते हुए, परम उत्तर सीमा पर अर्थात कर्क रेखा पर पहूँच कर दक्षिण की ओर गति प्रारम्भ करता है।

मैरे एक मित्र श्री अरविन्द शुक्ला जी के अनुसार ---

अष्टाङ्ग योग ---
जब कोई व्यक्ति यम (जैसे अहिंसा, सत्य), नियम (जैसे शौच, संतोष) के मार्ग पर चलता है, तब उसके भीतर तप, स्वाध्याय और अंततः ईश्वर प्रणिधान यानी ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण उत्पन्न होता है। यही समर्पण उसे वास्तविक धर्म का पालनकर्ता बनाता है।

जो व्यक्ति परमात्मा को ही अपने भीतर के ‘मैं’ के रूप में पहचान लेता है — वह अपने आप में अडिग होता है, स्थिर होता है, और वही सच्चा आत्म-विश्वास (आत्मा में विश्वास) प्राप्त करता है।

> "ईश्वर में पूर्ण समर्पण ही आत्मविश्वास की सबसे ऊँची अवस्था है।"

गुरुवार, 19 जून 2025

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास उसी को होता है जिसने ईश्वर प्रणिधान कर दिया हो।
 पञ्च महायज्ञ के अन्तर्गत ब्रह्म यज्ञ के अन्तर्गत अष्टाङ्ग योग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपी पाँच धर्म (यम) के बाद पाँच नियम शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय के बाद ईश्वर प्रणिधान आता है।
अर्थात पूर्णतः धर्मपालक व्यक्ति में ही ईश्वर प्रणिधान (ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति पूर्ण समर्पण) होता है।
अर्थात जो परम आत्म (परमात्मा) को ही वास्तविक मैं समझ ले वही व्यक्ति आत्म विश्वास रखता है।

मंगलवार, 17 जून 2025

वेदव्यास कौन कहलाता है?

वेदों के सभी मन्त्र मिलकर भी बहुत सीमित है। लेकिन वेदों में प्रत्येक विषय का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है।
हजारों ब्रह्मचारियों को जो नित्य पञ्च महायज्ञ और ब्रह्म यज्ञ के अन्तर्गत अष्टाङ्ग योग के पूर्ण अभ्यासी हो उन्हें चारों वेद, सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, शिक्षा (फोनेटिक्स), व्याकरण, निरुक्त (भाषाशास्त्र), निघण्टु, छन्द शास्त्र, मीमांसा, ज्योतिष, कल्प सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्यसूत्र धर्म सूत्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद (स्थापत्य वेद), गन्धर्ववेद और अर्थशास्त्र, न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन, योग दर्शन, सांख्य दर्शन, पूर्व मीमांसा दर्नश और उत्तर मीमांसा दर्शन, प्राचीन इतिहास-पुराण, बौद्ध, जैन और नास्तिक दर्शन के सब ग्रन्थ भली-भाँति पढ़ादो, समझा दो, सिखादो, फिर उसे वर्तमान प्रचलित गणित, ब्रह्माण्ड विज्ञान, रोबोटिक्स, भुगोल , खगोल, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जन्तु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, सभी प्रकार की तकनीकी शिक्षा, सभी प्रकार के चिकित्सा शास्त्र, गृह शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र, गृह शास्त्र समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, लेखाकर्म, मुद्रा और बेंकिंग आदि सभी विषयों में पारङ्गत कर दो, जो यह सभी समझ जाएगा वह विद्वान कहलाएगा। उसके बाद उन्हें वेदों का भाष्य करने को कहो, तो उनमें जो सभी विषयों के अनुसार प्रत्येक वेद मन्त्र का अलग-अलग अर्थ और व्याख्या कर देगा। वह भाष्यकार वेदव्यास कहलाता है। 
फिर उसे वह भाष्य वर्तमान विद्वानों को सिखाने के लिए कहोगे तो जो व्यक्ति जिस विषय का ज्ञाता होगा उसे वही अर्थ और व्याख्या समझ आएगी। शेष अधिकांश या तो गलत लगेगी या थोड़ी बहुत ही ठीक लगेगी।
इस प्रकार सबकी राय अलग-अलग हो जाएगी।
पूर्वकाल में भी यही हुआ।देवताओं, मानवों और असुरों ने वेदों के अर्थ अपनी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही समझे थे।
 

सोमवार, 16 जून 2025

क्वोरा लेखक श्री राहुल गुप्ता जी के अनुसार जैन परम्परा के गणधर गोतम बुद्ध

राहुल गुप्ता जी का मत है कि, शान्तिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की परम्परा जिसमें वर्धमान महावीर हुए उसी परम्परा के अन्तर्गत सिद्धार्थ को गोतम बुद्ध कहा गया। 
लेकिन उस श्रमण परम्परा में बुद्ध और अर्हत दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन उस गोतम बुद्ध ने कोई नया पन्थ बौद्ध पन्थ का प्रवर्तन नहीं किया था।
उस गोतम बुद्ध की मृत्यु के लगभग डेढ़ सौ से तीन सौ वर्ष बाद उनके शिष्यों ने बौद्ध मत प्रतिपादित किया।

सिद्धार्थ एक व्यक्ति था, उसे अर्हत वादी श्रमण परम्परा में गोतम की उपाधि मिली, और माना गया कि, उन्हें बोध हुआ इसलिए बुद्ध भी कहा गया। लेकिन बुद्ध के रूप में सर्वसम्मति या मान्यता नहीं मिली। उस परम्परा में अर्हत महत्वपूर्ण होता है, बुद्ध नहीं। और तीर्थंकर नियत निर्धारित होते थे।

सनातन धर्म के मत पन्थ, सम्प्रदाय

भारत में दो परम्परा रही है।
1  निवृत्ति मार्ग - ये वेदों के प्रति आस्थावान होने से आस्तिक कहलाये। इसमें सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, नारद, भरत मुनि और शुकदेव आदि प्रसिद्ध हैं

परवर्ती काल में श्रमण परम्परा इसी से विकसित हुई। इसमें वेदों के प्रति आस्थावान सिद्ध गण कहलाते हैं। इसमें  कपिल देव और पतञ्जली मुख्य रहे।
इसी श्रमण परम्परा वेदों के प्रति नास्तिक तन्त्र मार्गी हुए इनमें मुख्य अर्धनारीश्वर महारुद्र एवम् उनके एकादश रुद्र, तथा इनके अनुयाई  शुक्राचार्य, शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप, अत्रि पुत्र दत्तात्रेय , दधीचि आदि हुए। 
इसी परम्परा में आगे चलकर वर्धमान महावीर के अनुयाई जैन कहलाई।

2 प्रवृत्ति मार्ग - ये वेदों के प्रति आस्थावान होने से आस्तिक कहलाये। यह वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करते थे।
इसमें भी दो शाखाएँ है - 
(क) ब्राह्मण - प्रजापति के पुत्र 1 दक्ष प्रजापति (प्रथम) इनकी पत्नी प्रसुति, 2 रुचि प्रजापति इनकी पत्नी आकुति और 3 कर्दम प्रजापति मुख्य थे। इनके अलावा 
(4)मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। मुख्य रहे हैं।
(ख)  क्षत्रिय - स्वायम्भुव मनु और उनके पुत्र उत्तानपादासन और प्रियव्रत, और पौत्र ध्रुव और उत्तम। तथा प्रियव्रत शाखा में आग्नीध्र ->  या अजनाभ या नाभी -> ऋषभदेव -> भरत चक्रवर्ती और बाहुबली। (बाद में बाहुबली  श्रमण परम्परा में दिक्षित हो गये।)
वृद्धावस्था आने पर ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती भी सन्यस्त हो गये थे। लेकिन ये श्रमण नहीं हुए।
उक्त सभी स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुए थे।
वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए ये आदर्श हुए।

शनिवार, 14 जून 2025

वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस में अन्तर ‌

राघव आयंगर की बहुमूल्य खोजों के आधार पर यह मान लिया गया है कि तमिल कवि कम्बन द्वारा रचित इरामवतारम्‌ ११७८ ई. में समाप्त हुआ और इसका प्रकाशन ११८५ में हुआ।  इरामावतारम् जिसे हिन्दी में रामावतारम या कम्ब रामायण कहते हैं उसके आधार पर रचित तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस पठन-पाठन की परम्परा के कारण कई भ्रम प्रचलित हो गये।
जैसे-
1 गोतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र ने छल पुर्वक सम्बन्ध बनाए। जबकि, अहिल्या इन्द्र पर आसक्त थी। उन्होंने स्वयम् कहा था कि, आओ इन्द्र, जबतक ऋषि सन्ध्या करके लौटे इसके पहले तुम मुझे सन्तुष्ट कर निकल जाओ, यदि ऋषि तुम्हें देख लेंगे तो शाप दे देंगे।
2 अहिल्या पाषाण की हो गई थी, श्री राम ने पाषाण बनी अहिल्या जी को अपने पेर छुआए जिससे वे पुनः जीवित नारी बन गई।
जबकि सच यह है कि, गोतम ऋषि ने उनके उद्धार की व्यवस्था करते हुए कहा था कि, (केवल प्राणवायु लेकर) निराहार रहकर पाषाणवत स्थिर रहकर (अचल रहकर) पर प्रायश्चित करना और जब श्री रामचन्द्र जी इधर से गुजरेंगे, उनका आतिथ्य सत्कार करने पर तुम्हारा प्रायश्चित पूर्ण होगा। जब महर्षि विश्वामित्र जी के साथ श्री रामचन्द्र जी उधर से गुजरे तब, सूनसान आश्रम के विषय में पुछने पर महर्षि विश्वामित्र जी ने श्री रामचन्द्र जी को पुरा प्रकरण सुनाया और अहिल्या जी के उद्धार के लिए आश्रम में ले गये। यज्ञभस्म लपेटे, अचल निराहार रहकर तपस्या करती हुई अहिल्या जी के चरणों का स्पर्श कर श्री रामचन्द्र जी ने उन्हें प्रणाम किया, अहिल्या जी ने प्रसन्न होकर श्री रामचन्द्र जी का आतिथ्य सत्कार किया। तब उनका प्रायश्चित पूर्ण हुआ।

3 सीता स्वयम्वर - वास्तव में विश्वामित्र जी श्री रामचन्द्र जी और लक्षण जी को जनक जी के यहाँ शिव धनुष (पिनाक) के दर्शन कराने ले गये थे। उस समय वहाँ कोई स्वयम्वर नहीं हो रहा था।
जनक जी ने सीता जी के विवाह हेतु पिनाक शिव धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने वाले से ही सीता जी का विवाह करने की प्रतिज्ञा सुनाई एवम् कहा कि, पहले कई राजा असफल होने पर रुष्ट होकर सामुहिक रूप हमला कर चुके हैं, तब देवलोक की सहायता से उनसे सामना कर विजयी हुआ था। लेकिन आजकल कोई प्रतापी इस धनुष पर प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाया। अधिकांश तो उठा भी नहीं पाते हैं।
दर्शनार्थ एक गाड़ी में सन्दूक में रखे उस धनुष को बहुत से सेवक खींच कर सभा मे लाये। तब विश्वामित्र जी की आज्ञा पर श्री रामचन्द्र जी ने धनुष को नमस्कार कर सहज ही उठाया और उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर टंकार की तो वह धनुष टूट गया।
तब प्रसन्न जनक जी ने रामचन्द्र जी से सीता जी का विवाह प्रस्ताव रखा। जिसे महर्षि विश्वामित्र जी और श्री रामचन्द्र जी ने स्वीकार किया एवम् लक्ष्मण जी ने भी प्रसन्नता व्यक्त की।

4 श्रीरामचन्द्र जी और परशुराम जी का संवाद - लौटते समय श्री परशुराम जी सामने आ गये और नाराज होने पर श्री रामचन्द्र ने तर्क दिया कि, धनुष पुराना होने के कारण टंकार देने पर टूट गया।
तब श्री परशुराम जी ने श्री रामचन्द्र जी को वैष्णव धनुष देते हुए उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ाने को कहा। लेकिन जैसे ही परशुरामजी ने श्री रामचन्द्र जी के हाध में वैष्णव धनुष दिया वैसे ही परशुरामजी के शरीर से अवतारत्व का तेज निकल कर श्री रामचन्द्र जी के शरीर में समा गया। श्री परशुराम जी अब साधारण ऋषि मात्र रह गये और श्री रामचन्द्र जी को अवतार हो गये।

5 वानर अर्थात वनवासी जनजाति के स्थान पर बन्दर मानना।
जिसके प्रमाण आप पढ़ चुके हो।

5 रामेश्वर ज्योतिर्लिंग श्री रामचन्द्र जी द्वारा स्थापित नहीं है। श्री रामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये ही नहीं।इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

6 रावण की लङ्का लक्ष्यद्वीप में न कि, सिंहल द्वीप (श्रीलंका)
इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

7 केरल के नीलगिरी के कण्णूर या कोझिकोड से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप तक लगभग तीन सौ किलोमीटर का रामसेतु नल के विश्वकर्म (स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद) के ज्ञान (सिविल इंजीनियरिंग) के बल पर समुद्र मे तेरते लम्बे पेड़ों की जाली बना कर उसपर शिलाएँ जमाकर उसपर मिट्टी डालकर बनाया गया था। न कि, तेरते पत्थरों से।
 इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

8 रावण वध अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या की सन्धि काल में हुआ था, न कि, आश्विन शुक्ल दशमी को।
इस विषय में पहले भी वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ सहित सप्रमाण जानकारी भेज चुका हूँ। और पुनः प्रेषित है।

9 श्री रामचन्द्र जी वनवास पूर्ण कर चैत्र शुक्ल पञ्चमी को चित्रकूट पहूँचे। उसी दिन या दुसरे दिन नन्दिग्राम पहूँचे, फिर नन्दिग्राम से अयोध्या चैत्र शुक्ल षष्ठी को पहूँचे। न कि, अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली) को।
फिर चैत्र शुक्ल नवमी पुष्य नक्षत्र के दिन श्री रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक हुआ था।

10 वाल्मीकि रामायण का उत्तर काण्ड महर्षि वाल्मीकि जी के शिष्य भरद्वाज जी की रचना है।

11 गर्भवती सीता जी को वाल्मीकि आश्रम में छोड़ने का निर्णय गुप्तचरों की सुचना के आधार पर लिया गया था। गुप्तचरों की सुचना के अनुसार रावण के अधीन लंका में रही सीता जी को पटरानी बनाना धर्म-विरुद्ध आचरण माना गया। इसलिए सीताजी का त्याग किया। न कि, केवल एक धोबी के उलाहने पर।

12 महर्षि वाल्मीकि प्रणेताओं के पुत्र थे न कि, डाकु बाल्या भील।
 हो सकता है कि, यह घटना महर्षि वाल्मीकि के किसी अन्य जन्म मे घटित हुई हो।
13 कैकई और भरत का चरित्र और उनका श्री रामचन्द्र जी के प्रति प्रेम वैसा नहीं था जैसा रामचरितमानस में लिखा है।
भरत ने जब अयोध्या लौटने पर जनता का अपने प्रति घोर घृणा भाव देखा तब उनका हृदय परिवर्तन हुआ।
 दशरथ जी का कैकई के प्रति अधिक लगाव होने के कारण माता कौशल्या  और श्री रामचन्द्र जी को कैकई  और भरत के सामने दब कर रहना पड़ता था।

गुरुवार, 12 जून 2025

शिक्षा

मेकाले शिक्षा प्रणाली बहुत गलत है। जो सबको क्लास रूम में एक जैसा भाषण पिलाया जाता है।
होना यह चाहिए कि, बच्चों को खेतो में, बगीचों में, लघु उद्योगों में, बड़े उद्योगों में, खदानों में,  ट्रेफिक में, वन में सब जगह ले जाओ।
वहाँ बच्चे को जो जिज्ञासा हो उनका उत्तर तत्काल दे सके ऐसे जानकर साथ रखो।
फिर उसकी रूचि अनुसार विषय के पाठ पढ़ाओ, उसी के अन्तर्गत बच्चे को मात्रभाषा, संस्कृत, अंग्रेजी और गणित, हिन्दी आदि भाषाओं का ज्ञान करवाओ। चित्रकला, मूर्ति कला, गायन, वादन और नृत्य नाट्य सिखाओ।
भुगोल, खगोल, धर्म-नीति और शरीर रचना और मनोविज्ञान सिखाओ।
जब बच्चे की मूलभूत जिज्ञासाएँ शान्त हो जाएगी तब उसकी रूचि के विषयों को सिखाया जाए।
ध्यान रखें सिखाना है। पढ़ाना नहीं है।
इसी बीच उसकी उत्पादकता विकसित करो, ताकि वह कुछ उत्पादन करने लगे, उससे उसका खर्च निकले।

गुरुवार, 29 मई 2025

वैदिक धर्म के अत्यावश्यक ग्रन्थ।

ऋग्वेद -ब्रह्माण्ड विज्ञान, धर्म-दर्शन,
यजुर्वेद सामाजिक विज्ञान, नीति- दर्शन, कर्मकाण्ड,
सामवेद - स्तुति गायन, और प्राण विद्या और अथर्ववेद - क्रियाएँ एवम विज्ञान - तकनीकी
उक्त वेदों की व्याख्या - ब्राह्मण ग्रंथों में है। जिनके पूर्वाध में वर्णाश्रम धर्म-नीति, व्यवहार, कर्मकाण्ड, यज्ञ आदि है उत्तरार्ध में पहले ब्रह्माण्ड विज्ञान और अन्त में आरण्यक (वानप्रस्थाश्रम के धर्म-कर्म, गुरुकुल संचालन आदि) तथा अन्त में उपनिषद हैं। इसलिए उपनिषदों को वेदान्त कहते हैं। उपनिषदों में आत्मज्ञान और अपरोक्ष ब्रह्मज्ञान है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में उपनिषदों को ब्रह्म सूत्र कहा है।

सूत्र ग्रन्थ --- ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेखित कर्मकाण्ड की क्रिया विधि - निषेध, कर्मकाण्डी के धर्माचरण, के लिए सूत्र ग्रन्थ हैं। *सूत्र ग्रन्थ षड वेदाङ्ग के भाग है।*

वेदाङ्गो के वर्णित विषय -

1. शिक्षा - वेदस्‍य वर्णोच्‍चारणप्रकिया ।


2. व्याकरणम् - शब्‍दनिर्माणप्रक्रिया ।


3. ज्योतिषम् - कालनिर्धारणम् ।


4. निरुक्तम् - शब्‍दव्‍युत्‍पत्ति: ।


5. छन्द - या पिङ्गल शास्त्र


6. कल्पः -


कल्प के अन्तर्गत

 
1श्रोत सूत्र - बड़े-बड़े सत्र यज्ञों की विधि- निषेध।


2 गृह्यसूत्र - वार्षिक यज्ञ (पञ्च दिवसीय वार्षिक यज्ञ वर्षान्त से नव संवत्सर प्रारम्भ 16 मार्च से 20 मार्च तक चलते थे।)

फिर 21 मार्च वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति को संवत्सर प्रारम्भ यज्ञ)

अर्ध वार्षिक यज्ञ --
(21 मार्च से 22 सितम्बर तक उत्तर गोल या वैदिक उत्तरायण/  23 सितम्बर से 20 मार्च तक दक्षिण गोल या वैदिक दक्षिणायन)
अर्ध वार्षिक और त्रेमासिक यज्ञ -(23 जून से 21 दिसम्बर तक उत्तर तोयन या परम्परागत दक्षिणायन/22 दिसम्बर से 21 जून तक दक्षिण तोयन या परम्परागत उत्तरायण)

ऋतु यज्ञ - 21 मार्च वसन्त ऋतु यज्ञ (आजकल गुड़ी पड़वा), 22 मई ग्रीष्म ऋतु  यज्ञ, 23 जुलाई वर्षों ऋतु यज्ञ (आजकल दिवासा या हरियाली अमावस्या), 23 सितम्बर शरद ऋतु यज्ञ (आजकल शरद पूर्णिमा), 22 नवम्बर हेमन्त ऋतु यज्ञ (दीवाली -अग्रहायण/ अन्नकूट), 21 जनवरी शिशिर ऋतु यज्ञ।
मासिक यज्ञ - बारह सायन संक्रान्तियों पर ।
पाक्षिक यज्ञ- अमावस्या -प्रतिपदा पर और पूर्णिमा -प्रतिपदा पर।
नित्यकर्म- पञ्च महायज्ञ।
इनके अलावा व्रत, पर्व, उत्सव और त्यौहार मनाने के विधि-विधान -निषेध का वर्णन।

3 धर्म सूत्र -  प्राकृतिक, स्वाभाविक,जीवन यापन के लिए धर्म शास्त्र - कर्तव्य कर्म या कार्य कर्म करने के विधि-विधान और निषेध, अकर्तव्य कर्म या विकर्म तथा अकर्तव्य कर्म या विकर्म करने और कर्तव्य कर्म या कार्य कर्म न करने का प्रायश्चित एवम् निषिद्ध कर्म करने का दण्ड वर्णन।

4 *शुल्ब सुत्र* - 

*संस्कार और यज्ञ सत्र के लिए* *सृष्टि ,ब्रह्माण्ड, सोलह भुवन और अठारह लोक, आकाश गङ्गा, सौर मण्डलों तथा नक्षत्रों तथा तारा (ग्रहों) के नक्शों के आधार पर मण्डप, मण्डल और यज्ञ बेदी बनाने की विधि- विधान और निषेध का वर्णन।* अर्थात यज्ञवेदीनिर्माणप्रक्रिया ।*


निम्नलिखित शुल्ब सूत्र इस समय उपलब्ध हैं:

आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र
बौधायन शुल्ब सूत्र
मानव शुल्ब सूत्र
कात्यायन शुल्ब सूत्र
मैत्रायणीय शुल्ब सूत्र (मानव शुल्ब सूत्र से कुछ सीमा तक समानता है)
वाराह (पाण्डुलिपि रूप में)
वधुल (पाण्डुलिपि रूप में)
हिरण्यकेशिन (आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र से मिलता-जुलता)

वास्तुशास्त्र, वास्तुकला विशेषज्ञ बनने के लिए शिल्पवेद या स्थापत्य वेद के साथ शुल्बसूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।

बुधवार, 28 मई 2025

अर्थिंग करने के लिए

3 K.W. से 5 K.W. तक लोड वाले घरों के लिए।
18 किलो ग्राम कोयला और 6 किलो ग्राम नमक।
या 21 किलोग्राम कोयला और 7 किलोग्राम कुड़ा का नमक डले।
और 5 किलो ग्राम Bentonite powder  डालना चाहिए।

हमारी इच्छा

मुस्लिम लोगों ने पाकिस्तान के पक्ष में वोटिंग करके पाकिस्तान नहीं गये मुस्लिमों को भारत में सभी मौलिक अधिकारों और नागरिक अधिकारों से वञ्चित कर दिया जाए।
26 जनवरी 1950 के बाद सनातनियों का मत परिवर्तन दण्डनीय अपराध घोषित कर हो चुके मत परिवर्तन को शुन्य घोषित किया जाए।
प्रत्येक ग्राम में वैदिक गुरुकुल स्थापित किया जाए, एवम् प्रत्येक व्यक्ति को अनिवार्य वैदिक शिक्षा दी जाए।
वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था लागू कर जातिप्रथा को अवैध घोषित की जाए।

मंगलवार, 27 मई 2025

पर्जन्य देवता की कार्यावधि में आंधी -अन्धड़, तुफानी वर्षा का सम्बन्ध मरुद्गणों से है; न कि, इन्द्र से।

मरुद्गणों का अधिकार आंधी, अन्धड़, तुफान पर है। अर्थात आंधी, अन्धड़, तुफान, और तुफानी वर्षा पर जिसमें गर्जन तर्जन होता है उसके सञ्चालक देवता मरुद्गण हैं।
मुख्य मरुद्गण सात थे। उनके प्रत्येक के छः-छः अनुचर (पुत्र) हैं। इस प्रकार कुल उनचास मरुद्गण हुए।
ये सैनिकों के समान गणवेश में मार्च पास्ट करते हैं।

उमड़-घुमड़ कर आते काले-सफेद, लाल और श्याम वर्णी बादलों से इस रूपक की तुलना करो।
पौराणिक लोग इस घटना का सम्बन्ध इन्द्र से जोड़ते हैं।
जबकि, मरुद्गण इन्द्र के सैनिक हैं।

 श्रीमद्भागवत पुराणोक्त कथा के अनुसार ब्रजवासियों द्वारा बलि पूजा के दिन की जाने वाली (बलि नामक दैत्य जो कुछ काल के लिए इन्द्र पद पर आसीन रहा होगा उस रूप में) इन्द्र की पूजा के कार्यक्रम बलिवर्धन पूजा का विरोध कर गोवर्धन पूजा का उपदेश किया था। तब अतिवृष्टि का सम्बन्ध इन्द्र के कोप से जोड़ा गया, उस समय श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को तत्कालीन गोवर्धन पर्वत की किसी गुफा में  शरण लेकर समय व्यतीत करने की समसामयिक राय दी होगी।
जिससे लोगों ने गोवर्धन पर्वत को ब्रज क्षेत्र रक्षक के रूप देखकर गोवर्धन पूजा प्रारम्भ कर दी।

मंगलवार, 20 मई 2025

तुर्किस्तान का क्षेत्र

तुर्किस्तान को आजकल तुर्किये गणराज्य अर्थात पश्चिम तुर्किस्तान कहते हैं। मध्य तुर्किस्तान में तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान देश आते हैं और पूर्वी तुर्किस्तान को चीन का शिनजियांग प्रांत. कहते हैं।
इसमें कश्यप ऋषि की सन्तान पूर्वी तुर्किस्तान में आदित्य, आर्मेनिया और अजर बेजान में दैत्य, गर्डेशिया में गरुड़, सीरिया में नाग असिरिया (इराक) में असुर रहती थी। सर्बिया की (लेपांस्कीवीर संस्कृति) और चेकोस्लोवाकिया में डेन्युब (दानवी) नदी के किनारे दानव रहते थे।

मूलतः तुर्क लोग टेंग्रिज्म के अनुयायी थे, आकाश देवता टेंग्री के पंथ को साझा करते थे।
बाद में बौद्ध धर्म के अनुयाई भी हुए। फिर मनिचैइज्म, नेस्टोरियन ईसाई धर्म और के अनुयायी भी हुए। मुस्लिम विजय के दौरान, तुर्कों ने मुस्लिम दुनिया में गुलामों के रूप में प्रवेश किया, अरब छापों और विजयों की लूट के कारण आजकल अधिकांशतः इस्लाम के अनुयाई हैं।

पूर्वी तुर्किस्तान को आज चीन में झिंजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र के नाम से जाना जाता है. यह क्षेत्र मध्य एशिया में स्थित है और उइगर लोगों की पारंपरिक मातृभूमि है। पूर्वी तुर्किस्तान नाम को चीन द्वारा अलगाववादी आंदोलन से जोड़कर देखा जाता है। 1884 में, मांचू साम्राज्य ने पूर्वी तुर्किस्तान को अपने क्षेत्र में शामिल किया और इसका नाम झिंजियांग रख दिया, जिसका अर्थ है "नया क्षेत्र"।

सोमवार, 19 मई 2025

प्रारब्ध, कर्म-भोग और सुधार की सम्भावना।

सृष्टि के आदि से विगत जन्म तक मन में उठे सङ्कल्प से निर्मित कर्मों के सञ्चित में से इस जन्म में भोगे जा सकने योग्य जो कर्मफल उदित हो चुके हैं, उसे प्रारब्ध कहते हैं।
इसी प्रारब्ध के आधार पर हमारा जन्म उन कर्मभोगों के भोगने के अनुकूल देश (स्थान), काल (समयावधि के लिए), (देव, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, असुर, दैत्य, दानव या राक्षस) जाति में, गोत्र और कुल और वंश में, परिवार में, और कर्मभोगों के लिए अनुकूल परिस्थितियों में हमारा जन्म होता है।
 मारी प्रकृति (स्वभाव) और प्रवृत्ति बनती है, और हमारे नवीन कर्म भी उस प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार ही होते हैं।

इसमें परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं होता।
हम अपने सुधार या बिगाड़ के लिए प्रयास और प्रयत्न करने के लिए स्वतन्त्र हैं।
जब परिस्थितियाँ सुधार के लिए अनुकूल हो तो पूरी ताकत से भिड़ जाना चाहिए। और जब परिस्थितियाँ बिगाड़ के अनुकूल हो तो हर कदम सावधानी से बढ़ाना चाहिए।
यही एक मात्र मार्ग है।

न ईईश्वर कोई किस्मत लिखकर भेजता है और न हम भाग्य के दास हैं।

एक ही सिद्धान्त है कि, मर्जी है आपकी आखिर जीवन है आपका।

शनिवार, 17 मई 2025

वैश्विक भविष्यवाणियों की यथार्थ स्थिति।

सन 1970-71 से मैं यह पढ़ते आया हूँ कि, 1979 या 1981 के आसन्न में विश्वयुद्ध होगा, प्रलय जैसी स्थिति होगी, विश्व की जनसंख्या एक चौथाई से भी कम रह जाएगी। 
फिर सन 1999 तक अखण्ड भारत बनेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय भारत में होगा। भारत की सम्प्रभुता लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप से अधिक बड़े क्षेत्र में होगी। भारत विश्व गुरु होगा। आर्थिक और सामरिक शक्तियों में भारत प्रथम स्थान पर होगा।
भारत और रूस में दूरियाँ बड़ेगी। भारत अमेरिका में घनिष्ठता बड़ेगी। चीन लगभग खत्म हो जाएगा। 
इसमें हर साल कुछ अवधि बढ़ती जाती है। अब 2032 तक पहूँच गए हैं।

जो हे सो सामने है।
इसलिए मुझे इन भविष्यवाणियों में रत्ती मात्र भी भरोसा नहीं रहा।

शुक्रवार, 16 मई 2025

अन्धविश्वास और अन्ध अविश्वास दोनों ही समान हानिकारक है।

अन्धविश्वास हो या अन्ध अविश्वास हो इन्हीं दो मुर्खता के कारण सभी सम्प्रदायों का बण्टाढार हो गया।

पूर्ण सत्य तक तो मन्त्रदृष्टा ऋषिगण ही पहूँच पाते हैं।
लेकिन जैसे 

निम्बार्काचार्य और रामानुजाचार्य जी के तर्कों के समाधान के बिना शंकराचार्य जी का दर्शन अधूरा है। 
वैसे ही 

वेद मन्त्रों को समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थ बने। ब्राह्मण ग्रन्थों के अलग-अलग विषयों को लेकर उपवेद और वेदाङ्ग बने।
(वेदाङ्ग के कल्प के अन्तर्गत ही शुल्ब सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्य सूत्र , और धर्मसूत्र आते हैं।)
फिर षड दर्शन बने, जिसमें वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों के पूर्वभाग कर्मकाण्ड के आधार पर बने शुल्ब सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्य सूत्र , और धर्मसूत्रके स्पष्टीकरण हेतु जेमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन और वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग आरण्यक और उपनिषदों के स्पष्टीकरण हेतु बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन बना जिसमें स्मृति अर्थात रामायण-महाभारत और पुराणों तक के प्रमाणों को स्वीकार किया गया। 
इन सब के अध्ययन, मनन, चिन्तन और निदिध्यासन के बिना वेद मन्त्रों का अर्थ नही समझा जा सकता।

वेदों को मन्त संहिता कहते हैं और वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं। तो मन्त्र दृष्टा हुए बिना ब्रह्म ज्ञान केवल दिवास्वप्न मात्र है।

अर्थात विश्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जो उपयोग विहीन हो।

बुधवार, 7 मई 2025

ग्रीष्म ऋतु विवरण ---

ग्रीष्म ऋतु विवरण --- विशेष कर सन 2025 ईस्वी में ---

ऋतुओं का सम्बन्ध सायन सौर संक्रान्तियों और भौगोलिक अक्षांशों से है।
निरयन सौर या नक्षत्रीय सौर वर्ष से ऋतुओं का कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता है। अतः सूर्य के निरयन संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष और चैत्र - वैशाख आदि चान्द्र मास से तो ऋतुओं का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है।
दक्षिण भारत में सातवाहन शासकों ने और उत्तर भारत में कुषाण शासकों ने निरयन सौर संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष शकाब्द के साथ चैत्र-वैशाख आदि चान्द्र मास प्रचलित कर दिया। जो ऋतुओं से बिल्कुल असम्बद्ध है।
22 मार्च 285 ईस्वी को जब अयनांश शुन्य अंश था। अतः  
सायन संक्रान्ति और सूर्य का निरयन संक्रमण एक साथ होता था। इसलिए ऋतुओं का आधार सायन सौर संक्रान्तियों और ऋतुओं से असम्बन्धित सूर्य के निरयन संक्रमण के अन्तर पर धर्मशास्त्रियों का ध्यान नहीं गया। 
लगभग 800 ईसापूर्व से सन 1000 ईस्वी तक राजा भोज के समय तक अयनांश 10° ही था। अतः केवल दस दिन का अन्तर पड़ता था। इसलिए व्याकरण तथा छन्दशास्त्र के विद्वान लेकिन खगोल तथा सिद्धान्त ज्योतिष की कम जानकारी वाले धर्मशास्त्रियों का ध्यान इस अन्तर पर नहीं गया। महाराजा पृथ्वीराज चौहान के पतन के बाद सन 1206 के बाद  कुतुबुद्दीन एबक के गुलाम वंश के शासन और आक्रमणों के कारण भारतीय संस्कृति पतनोन्मुख होने लगी। संस्कृत, धर्मशास्त्र, खगोल और सिद्धान्त ज्योतिष का ज्ञान कुछ शास्त्रियों तक सीमित रह गया। अस्तु इस अन्तर पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
वस्तुतः सम्राट विक्रमादित्य के ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर के पहले तक
आर्यावर्त क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु सायन वृषभ और मिथुन के सूर्य में मानी जाती थी।
अर्थात सायन वृषभ संक्रान्ति दिनांक 19 उपरान्त 20 अप्रैल 2025 शनिवार Sunday को उत्तर रात्रि 01:27 बजे  से सायन कर्क संक्रान्ति 21 जून 2025 शनिवार को प्रातः 08:13 बजे तक भारत के मध्य क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु रहती है।
जबकि कुरुक्षेत्र हरियाणा, पञ्जाब, उत्तर प्रदेश से उत्तर में ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु सायन मिथुन संक्रान्ति 20 उपरान्त 21 मई को उत्तर रात्रि 12:25 बजे से सायन सिंह संक्रान्ति दिनांक 22 जुलाई 2025 मङ्गलवार को सायम् 07:00 बजे तक रहेगी।
वर्तमान में इस अन्तर पर पञ्चाङ्गकार ध्यान नहीं देते हैं और पूरे भारत वर्ष और नेपाल भूटान तक में ग्रीष्म ऋतु सायन वृषभ और मिथुन के सूर्य में ही दर्शाई जाती है।
इसके अलावा 

निरयन वृषभ राशि में सूर्य 14 उपरान्त 15 मई 2025 बुधवार Thursday को 00:21 बजे प्रवेश करेंगे।
वृषभ संक्रमण का पुण्य काल 14 जनवरी 2025 बुधवार को सूर्योदय समय (इन्दौर में 05:44 बजे) से सूर्यास्त समय (इन्दौर में07:02 बजे) तक रहेगा। तथा निरयन वृषभ राशि से निरयन मिथुन राशि में सूर्य का संक्रमण 
 15 जून 2025 रविवार को प्रातः 06:45 होगा।
तदनुसार निरयन मिथुन संक्रमण का पुण्य काल 15 जून 2025 रविवार को प्रातः 06:45 से दोपहर 01:09 बजे तक रहेगा।

सेनापति के ऋतु वर्णन में ग्रीष्म ऋतु वर्णन में इसका उल्लेख ऐसे किया गया है।
 *वृष को तरनि तेज, सहसौ किरन करि, ज्वालन के जाल बिकराल बरसत हैं। तपति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी छाँह कौं पकरि, पंथी-पंछी बिरमत हैं।*

और भी 

रोहिणी नक्षत्र में सूर्य दिनांक 25 मई 2025 रविवार को दिन में 09:32 बजे से 08 जून 2025 रविवार को प्रातः 07:19 बजे तक रहेगा।
ऐसी मान्यता है कि, रोहिणी नक्षत्र के सूर्य में भी बहुत गर्मी होती है।

इतना ही नहीं 

निरयन वृषभ राशि के सूर्य में जब चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र से रोहिणी नक्षत्र तक रहता है तो उन नौ दिनों को जैन ज्योतिष में धनिष्ठा नवक कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन नौ दिनों में गर्मी बहुत होती है।
इस वर्ष धनिष्ठा नवक 19 मई 2025 को सायम्  07:29 बजे से 27 उपरान्त 28 मई 2025 मङ्गलवार को उत्तर रात्रि 02:50 बजे तक रहेगा।

शुक्रवार, 2 मई 2025

भगवान आद्यशंकराचार्य के महत्वपूर्ण कार्य।

भगवान आद्य शंकराचार्य जी का मुख्य कार्य ग्यारह उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता और आचार्य बादरायण रचित शारीरिक सूत्र का भाष्य कर अद्वैत वेदान्त मत को सुदृढ़ कर वैदिक अभेद दर्शन को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने, स्मार्त मत स्थापना, बौद्धों को शास्त्रार्थ में और तानत्रिकों को उनके स्तर पर युद्ध आदि कर विजय कर उन्हें शुद्ध कर स्मार्त मत में सम्मिलित करना रहा है।
विभिन्न बौद्ध मठ मन्दिरों का अधिग्रहण तथा देवी-देवताओं के स्तोत्र रचना में तो परवर्ती शंकराचार्यों का योगदान भी है।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

01 जनवरी 2021 की स्थिति में नक्षत्रों के योग तारा की निरयन स्थिति।

कृतिका वृषभ 06°07'07"। 
 21 मई।

मृगशीर्ष मिथुन 00°51'59" । 16 जून।

मघा सिंह 05° 52'14" 
23 अगस्त।

चित्रा कन्या 29°59'01"
17 अक्टूबर।

अयनांश 
01 जनवरी 2021 को 24°07'55 
 और 
01 जनवरी 2022 को 24°08'46" ।

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

मुहूर्त निकालने में अक्षांश का महत्व।

क्या ब्रह्म मुहूर्त, अभिजित मुहूर्त, विजय मुहूर्त आदि तीस मुहुर्त को भी प्रातः,सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न, सायाह्न, प्रदोष, महानिशिथ काल और अरुणोदय काल के समान दीनमान-रात्रिमान के अनुपात में गणना की जाना चाहिए या निश्चित दो घटि (48 मिनट) के ही माना जाना चाहिए।
यह विषय धर्मशास्त्र सम्बन्धित है। इसमें ज्योतिष केवल सहायक की भूमिका में ही रहता है। निर्णय धर्मशास्त्र का ही मान्य होता है।
उपर उल्लेखित ब्रह्म मुहूर्त, अभिजित मुहूर्त, विजय मुहूर्त अथर्ववेद में वर्णित हैं। अतः अथर्ववेद के अनुसार ही मान्य होगा।
 मुहूर्त समय मापन की इकाई है, अतः घटि-पल-विपल के समान ही मुहुर्त मान भी निश्चित और अपरिवर्तनीय होता है। अतः अथर्ववेदोक्त तीस मुहुर्त का मान निश्चिन्त दो घटिका अर्थात 48 मिनट के निश्चित समय के ही होते हैं।
लेकिन प्रातः,सङ्गव आदि कालावधि है, अतः ये दिनमान या रात्रि मान के घटबड़ के अनुपात में घटते-बढ़ते रहते हैं।
इसलिए ये काल या कालावधि 66°40' से अधिक उत्तर दक्षिण अक्षांश पर लागू नहीं होता।
इसी प्रकार 66°40' से अधिक उत्तर अक्षांश पर मकर लग्न उदय होते नहीं दिखता है। और 66°40' से अधिक दक्षिण अक्षांश पर कर्क लग्न उदय होता नहीं देखा जा सकता है।
ध्रुव प्रदेशों में तो दिन और रात ही छः-छः महीने के होते हैं। वहाँ मध्याह्न नहीं होता तथा कोई भी लग्न उदय अस्त नहीं होता। 
अतः वहाँ के लिए मुहूर्त निकालते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

रविवार, 13 अप्रैल 2025

महाभारत युद्ध के बहुत पहले वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्म लोक को प्रयाण कर गए थे।

शुकदेव जी ने कभी भी आस्तिक मत से तटस्थता नहीं दर्शाई।
फिर वे कैशोर्य अवस्था तक पहूँचने के पूर्व ही ब्रह्मलोक को सिधार गए।
कृपया महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक  देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

जयन्ती और जन्मोत्सव उदाहरण


जयन्ती शब्द का जीवित और मरने के बाद से कोई सम्बन्ध नहीं है।
जीवित व्यक्ति की भी जयन्ती ही होती है। क्योंकि वह इतने वर्ष तक जी रहा है, यह भी उसकी विजय ही है।
मरे हुओं का भी जयन्ती के दिन उनके जन्म समय पर जन्मोत्सव ही मनाया जाता है।
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा हनुमान जयन्ती है। और सूर्योदय के समय आरती आदि करके जन्मोत्सव मनाया गया।
चैत्र शुक्ल नवमी (राम नवमी) श्रीरामचन्द्र जी की जयन्ती ही है। और मध्याह्न के समय उनका जन्मोत्सव मनाते हैं।
अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) श्रीकृष्ण जयन्ती ही है। और मध्यरात्रि के समय श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
जयन्ती पूरे दिन भर रहती है, जबकि जन्मोत्सव बमुश्किल आदा-एक घण्टा।

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

वैदिक विष्णु के दो हाथ हैं। पुराणों में भूमा (प्रभविष्णु) अष्टभुजा और महाभारत में भी श्रीहरि चतुर्भुज हैं।

ऋग्वेद का विष्णु चार हाथो वाला होने की बजाय दो हाथो वाला है उसके साथ लक्ष्मी भी नहीं है न ही सवारी गुरूड़ है । वेदों के बाद उपनिषद में भी विष्णु चार हाथों वाला लक्ष्मी या गरुण के साथ नहीं है । 
जबकि, बुद्धिज्म में बोधिसत्व वज्रपाणि, बोधिसत्व अमिताब बुद्ध, मंजूसिरी की हाथो में शंख चक्र गदा पद्म देखने को मिलता है फिर अचानक से पुराणों में विष्णु चार हाथो वाला शंख चक्र गदा पद्म और गरुण इत्यादि वाला हो जाता है ।
क्या वेद उपनिषद के रचना के बाद पुराण लेखकों को भगवान विष्णु ने स्वयम् बताया की अब उनका स्वरूप ऐसा हो गया है।
यदि भगवान विष्णु का मूल स्वरूप ऐसा ही होता तो, क्या वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषि और उपनिषद के ऋषियों को जानकारी नहीं होती? वे ही ऐसा उल्लेख कर सकते थे।
अर्थात बौद्ध धर्माचार्यों के शुद्धिकरण पश्चात वैदिक मत में लौटाए गये लोगों ने पुराण लिखे या पुराणों में संशोधन किया  और विष्णु 4 हाथ शंख चक्र गदा पद्म इत्यादि जोड़ लिया ।
वेद उपनिषद में किसी देवता के हाथ में शंख चक्र गदा पद्म है 4 हाथ, उससे ज्यादा है ? जिसे देखकर को देख कर पुराण में ये विष्णु का ऐसा स्वरूप आया ? 
जबकि भारत सहित सभी बौद्ध देशोंमें पुरातत्त्वीय महत्व की मूर्तियों में मंजूसिरी, वज्रपाणि, अवलिकेतेश्वर बुद्ध की मूर्तियो में ही यह स्वरूप दिखता है ।
ऐसे ही चतुर्मुख ब्रह्मा, द्विमुख अग्नि के विषय में भी विचार किया जाना चाहिए।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

सनातन स्वाभिमान और महर्षि दयानन्द सरस्वती का योगदान

जबतक प्रत्येक सनातनी को सैन्य प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा, जब तक सनातनी पराङ्ग्मुखापेक्षी रहेगा तब तक हमारी दब्बू प्रवृत्ति बनी रहेगी।
पहले भी यही हुआ। क्षत्रिय आपस में लड़ते रहे, जन साधारण जमींदारों , ठाकुरों की लठेत सेना के भरोसे छोड़ दी गई।
हम न ईरानी आक्रमण सह पाते, न तजाकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान के शक- कुषाण, हूण आक्रमण रोक पाया,न युनानी आक्रमण रोक पाये, तो इराक, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान के मुस्लिम आक्रांताओं को रोक पाये और न पूर्तगाल, नीदरलैंड्स के डच, फ्रांस और ब्रिटिश आक्रमण रोक पाये।
हमेशा लुटते-पिटते मन्दिरों में घण्टी बजाते पुजारी- पुरोहित, खेतों में हल जोतते किसान, व्यापारी, कारीगर सब देखते रहे या आक्रमणकारियों की सेना में भर्ती हो गए लेकिन अपने घर- परिवार, कुटुम्ब, ग्राम, राज्य, देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता नहीं की। उसका उत्तरदायित्व क्षत्रियों पर छोड़ दिया।
सारे क्षत्रिय मर खप गये या युद्ध करना छोड़ खेती-बाड़ी करने लग गए तो कुषाण, शक, हूण, खस, ठस, बर्रबरों की शुद्धि कर उन्हें अग्नि वंशीय राजपूत बना दिया। और बाद में शकों को सूर्यवंशी, हूण- गुर्जरों को चन्द्र वंशीय घोषित कर दिया। और देश- धर्म की रक्षा का भार उनको सोप कर फिर से निश्चिन्त हो गये। 
पुराने अनुभव से सीखें बिना लूटते-पिटते रहे, इस्लाम स्वीकार करते रहे। ईसाई बनते रहे। देशद्रोह करते रहे। और अपने घर परिवार में खुश रहे। मन्दिरों में नाच- गान करते रहे।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ललकारा, बाइबल, इसाई मजहब , कुरान, इस्लाम मज़हब और सनातध धर्म के मत पन्थ सम्प्रदाय का खणृडध कर इधर मत, पनृथ सम्प्रदायों को भूलकर भूलकर वेदों की ओर लौटने का कहा, जाति व्यवस्था छोड़कर गुण-कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की ओर लौटने का आह्वान किया तथा मूर्ति पूजा छोड़ वैदिक पञ्च महायज्ञ की ओर लौटने का कहा, मुस्लिम और ईसाई बने सनातनियों की शुद्धि कर वापस सनातनी बनाने लगे तो उन्हें नास्तिक, अंग्रैजों और ईसाइयों का एजेंट कहने लगे।

शनिवार, 29 मार्च 2025

शालिवाहन शक एवम विक्रम संवत।

वास्तव में सनातन धर्म के ग्रन्थों के अनुसार विक्रम संवत निरयन मेष संक्रमण से प्रारम्भ होता है। अतः 14 अपल 2025 सोमवार को वैशाखी से प्रारम्भ होगा। 
पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में वैशाखी और विक्रम संवत, बङ्गाल, उड़ीसा,असम में बिहु, वैशाख बिहु नाम से तमिलनाडु में मेषादि और मेष संक्रमण के नाम से केरल में विशु के नाम से मनाया जाएगा।

विक्रमादित्य के दादा जी ने स्वयम् हरियाणा के कुरुक्षेत्र के निकट मालवा क्षेत्र से सोनकच्छ में आकर राज्य किया था। इसलिए पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में विक्रम संवत का महत्व अधिक है। वे आज भी प्राचीन परम्परा अनुसार विक्रम संवत प्रारम्भ करते हैं।
लेकिन विक्रमादित्य के केवल 135 वर्ष बाद ही सातवाहन साम्राज्य और कुषाण साम्राज्य स्थापित हो गए और उन्होंने तिब्बती परम्परागत सायन सौर-चान्द्र तिथि पत्रक लागू कर दिया। लेकिन ज्योतिष के जानकार धर्माचार्यों ने इसे विक्रम संवत से जोड़ने हेतु निरयन सौर संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष में बदल दिया।

सन्त श्री रामचन्द्र केशव डोंगरे महाराज भागवत कथा वाचक।

हम स्व श्री सन्त रामचंद्र केशव जी डोंगरे महाराज की बात कर रहे हैं, जिन्होंने भागवत पुराण की कथा को बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध किया था।

उन्होंने दिन के समय में बड़े पाण्डालों में भागवत कथा सुनाना शुरू किया था, जो एक नए युग की शुरुआत थी। जब उनकी कथा का आयोजन इन्दौर में दशहरा मैदान में हुआ था, जिसमें धार, देवास, उज्जैन और निमाड़ तक से लोग कथा सुनने आये थे।

यह एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसने भागवत पुराण कथा को एक नए स्तर पर पहुंचाया था। स्व श्री सन्त रामचंद्र केशव जी डोंगरे महाराज की कथा का प्रभाव आज भी लोगों के जीवन में देखा जा सकता है।

सोमवार, 24 मार्च 2025

सनातन धर्म शब्द मनुस्मृति में है।

*मनु स्मृति में स्नातक धर्म* शब्द है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , *एष धर्मः सनातन:* ॥ —मनुस्मृति 4.138

अर्थं च धर्मं च परमं च कामं

यं प्राहुश्चतुर्वर्ण्यविधानकर्तारम्।

*स एष सनातनधर्म गोप्ता*

व्यक्तो ह्यजः शाश्वतो लोके॥

—मनुस्मृति १-२३

रोगी प्रशन लग्न

*रोगी प्रश्न लग्न से* 

लग्न से वैद्य (डॉक्टर)
चतुर्थ भाव से औषधी
पञ्चम भाव से रोग
दशम भाव से रोगी 

लग्न एवम् दशम में सुसम्बन्ध हो, मैत्री हो तो वैद्य (डॉक्टर ) से लाभ होगा।
सप्तम और चतुर्थ भाव बलवान एवम् परस्पर मित्र हो तो औषधी से लाभ होगा।
विपरित स्थिति में हानी होगी। रोग बढ़ेगा।

सोमवार, 17 मार्च 2025

स्त्री - पुरुषों के कार्य विभाग प्राकृतिक हैं।

नृत्याङ्गनाएँ कितना ही कलात्मक नाट्य (नृत्य) प्रस्तुत करें लेकिन अधिकांश नृत्य गुरु पुरुष होते हैं।
महिलाएँ एक से एक स्वादिष्ट भोजन रोज बनातीं है।
लेकिन रसोइयों की बात ही कुछ और है।
फिर भी 
नृत्य गुरु द्वारा प्रस्तुत नृत्य में वह रस वह आनन्द नहीं आयेगा जो उनकी शिष्य नृत्यांगना के नृत्य में आयेगा।
ऐसे ही 
रसोइये कितना ही स्वादिष्ट भोजन, कितने ही स्वादिष्ट व्यञ्जन बनाए, लेकिन दो-तीन दिन से अधिक नहीं खा सकते। जबकि, महिलाओं द्वारा तैयार की गई दाल, भात, सब्जी, रोटी जीवन भर खा कर भी उकताहट नहीं होती।
राज्य / शासन जब महिला करतीं हैं तो कठोरता पूर्वक शासन करतीं हैं और सफल होती हैं। लेकिन शासनकाल दीर्घ नहीं रहता।
पुरुषों का शासनकाल दीर्घ होता है लेकिन उतने कठोर निर्णय नहीं लेते, इसलिए लोगों को हमेशा कुछ कमी लगती है।

यही प्रकृति है।

शनिवार, 8 मार्च 2025

भगवान, महात्मा, सन्त, महापुरुष, श्रीमन्त, श्रेष्ठि या बड़े लोग में अन्तर

समग्र ऐश्वर्य, बल, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छः को “भग” कहते हैं। ये जिसमें एकत्रित हैं, वह भगवान् है।

धर्मनिष्ठ, सदाचारी, अध्यात्मिक अनासक्त, वितरागी ब्रह्मवादियों को महात्मा कहते हैं। 

चमत्कारी सन्तों को गुजराती में बापू कहते हैं, तो मालवी में बापजी कहते हैं।
अंग्रेजी में सेंट कहते हैं। उर्दू में बाबा कहते हैं।

पराक्रमी, वीर, विजेताओं को महापुरुष कहते हैं। अंग्रेजी में इन्हें ग्रेट कहते हैं।

सत्ताधारी, प्रभावशाली को श्रीमन्त कहते हैं ।

धनवान को श्रेष्ठि या बड़े लोग कहां जाता है।

गुरुवार, 6 मार्च 2025

जप साधना।

मन्त्र जप को स्वाध्याय कहा है, जो सर्वमान्य है।
पाँच यम (धर्म) की प्राप्त्यर्थ पाँच नियमों में से एक है स्वाध्याय। उस स्वाध्याय के अन्तर्गत मन्त्रध्यान भी एक भाग है।

लेकिन न यही एकमात्र साधन है, न अन्तिम साधन है।
यह भी साधना का एक अङ्ग है।

जैसे षड रस में कोई केवल एक ही रस अपना ले तो गिने दिनों में बिमार होना निश्चित है।

ईश्वरः सर्व भूतानाम् हृत्देशेऽर्जुन तिष्ठति का अर्थ ।

ईश्वरः सर्व भूतानाम् हृत्देशेऽर्जुन तिष्ठति 
का अर्थ सभी जड़ चेतन का मौलिक स्वरूप परमात्मा ही है।

जैसे बर्फ, वाष्प और तरल जल सब मूलतः केमिस्ट्री की भाषा में H20 ही है। स्वर्ण सिंहासन हो या स्वर्णाभुषण सब मूलत स्वर्ण ही है। ऐसे ही सर्वभूत मात्र मूलतः परमात्मा ही है।
इसलिए उनका केन्द्रक (न्युक्लियस) के रूप में मैं विष्णु रूप में स्थित हूँ।

श्री कृष्ण ने पूरी भगवतगीता बिहाफ ऑफ विष्णु कही है।

बुधवार, 5 मार्च 2025

मत पन्थ, सम्प्रदायों और आचार्यों के प्रति मेरा मत, मेरा समर्थन और विरोध का स्पष्टीकरण।

मैं हर उस व्यक्ति का समर्थन करता हूँ जो यम-नियम का कठोरता से पालन करने को कहता है, पञ्च महायज्ञ को प्राथमिक कर्तव्य बतलाता है, हर पल परमात्मा के स्मरण रखने का कहता है, पूर्ण समर्पण पर जोर देता है।
इसलिए, महर्षि कुमारील भट्ट, भगवान आदि शंकराचार्य जी, महर्षि दयानन्द सरस्वती जी और आर्यसमाज, स्वामी रामसुखदास जी महाराज, अखण्डानन्द सरस्वती महाराज जी, शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द जी सरस्वती, हंसानन्द महाराज जी, और प्रेमानन्द जी महाराज सबका समर्थन करता हूँ।
जो क्रियाओं को ही आधार मानता है, तन्त मार्ग का अनुसरण करता है, महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन का पुरुष- प्रकृति वाला द्वैत हो, ईश्वर कृष्ण का सांख्यकारिकाओं वाला द्वैत / त्रेत हो, महर्षि दयानन्द सरस्वती - आर्य समाज का त्रेत का भी विरोध करता हूँ, तो स्वामी निम्बार्काचार्य जी का भेदाभेद वाला त्रेत हो, वसुगुप्त का भैरव तन्त्र का त्रिक हो, अभिनव गुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन का त्रिक हो, वल्लभाचार्य जी का शुद्धाद्वेत का त्रेत हो, स्वामी रामानुजाचार्य जी का विशिष्टाद्वैत का त्रेत हो या माध्वाचार्य जी का द्वैत दर्शन वाला त्रेत हो सभी त्रेत दर्शन का विरोध ही करता हूँ। लेकिन इन आचार्यों के प्रति श्रद्धालु हूँ। और ऐसा मानता हूँ कि, वेद विरोधी, सनातन धर्म विरोधी मत, पन्थ और सम्प्रदायों की ओर आकृष्ट इन विचारों वाले जन समुह को वेदों और सनातन धर्म में ही उनके विचारों के अनुकूल मत,पन्थ, सम्प्रदाय देकर बाहर जाने से रोका। क्योंकि यहाँ से वेदों की ओर लौटना सम्भव है, लेकिन आसुरी मत पन्थ, सम्प्रदायों - तन्त्र में या ताओ, कुङ्गफु, जैन, बौद्ध, झेन, शिन्तो, जरथ्रुस्त के पारसी मत-पन्थ, और इब्राहीम के मत के सबाइन (शिवाई या साबई), दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, इसाई, इस्लाम या बहाई पन्थ में गया व्यक्ति को लौटाना लगभग असम्भव है।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस में अन्तर।

वाल्मीकि जी का आश्रम अयोध्या के निकट ही था। सीताजी वाल्मीकि आश्रम में रही वहीं कुश और लव का जन्म हुआ। और वाल्मीकि आश्रम में ही लवकुश का शिक्षण -प्रशिक्षण हुआ।
इसी दौरान महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण इतिहास ग्रन्थ रचा और लव कुश को मुखाग्र करवा कर श्री रामचन्द्र जी के अश्वमेध यज्ञ में सुनाने हेतु भेजा।
इस इतिहास का अनुमोदन स्वयम् श्री रामचन्द्र जी ने किया। इस लिए मूल वाल्मीकि रामायण में केवल अश्वमेध यज्ञ तक का ही वर्णन है। उत्तर काण्ड भरद्वाज जी की रचना मानी जाती है।
इसलिए इतिहास के रूप में केवल वाल्मीकि रामायण ही प्रमाण है।
तुलसीदास जी ने प्रयागराज में माघ मेले में कवि कम्बन रचित राम चरित्र पर प्रवचन सूना था।
उसी से प्रभावित होकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की द्वितीय आवृत्ति लिखी थी। 
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में कई स्थानों पर अत्यधिक अन्तर है।


वाल्मीकि रामायण के अनुसार ---
कौशल्या जी के पास स्त्री धन के रूप में कोसल प्रदेश के पन्द्रह गावों की जागीर की जमींदारी थी। इस प्रकार आर्थिक रूप से वे आत्मनिर्भर और सक्षम थी।

कैकेई देश की सुन्दर और साहसी राजकुमारी कैकेई से महाराज दशरथ को अत्यधिक लगाव था। इस कारण पटरानी होते हुए भी कौशल्या जी की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
इसलिए ही सुमित्रा जी ने लक्ष्मण जी को श्रीरामचन्द्र जी के साथ और शत्रुघ्न जी को भरत जी के साथ अटैच कर दिया। यह राजनीति थी।
श्री रामचन्द्र जी, भरत जी, लक्ष्मण जी और शत्रुघ्न जी के जन्म में केवल एक-एक दिन का अन्तर था। मतलब चारों भाई समवयस्क थे।
लेकिन 
जब श्रीराम क्रीड़ा में विजयी होते तो भी उन्हें भरत जी को विजयी घोषित कर देते थे। (यह विवशता की राजनीति कहलाती है।)
मतलब स्पष्ट है कि, उत्तानपाद - सुनीति और सुरुचि तथा ध्रुव जी और उत्तम वाली कहानी रिपिट हो रही थी।
अयोध्या और भारत भूमि में किसी मूर्ति/ प्रतिमा पूजन का उल्लेख नहीं है। लेकिन देवों और देवताओं की आराधना - उपासना हेतु उपासना स्थल / स्थानक होते थे। कौशल्या जी विष्णु उपासक थी।

सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश, रघुकुल की परम्परा अनुसार श्री रामचन्द्र जी ही उत्तराधिकारी होंगे यह बात कैकई भली-भांति जानती थी और उसने स्वीकार भी कर लिया था। लेकिन 
कैकेई का श्री राम के प्रति प्रेम का तुलसीदास जी का प्रचार मात्र है।

इन्द्र को अपने प्रति आकर्षित देखकर प्रसन्न और उत्साहित होकर अहिल्या जी ने स्वैच्छया इन्द्र को शीघ्रातिशीघ्र उनके साथ रमण कर गोतम ऋषि के लौटने के पहले भाग जाने की सलाह देतीं हैं। मतलब अहिल्या जी भी समान रूप से दोषी थी।
गोतम ऋषि ने अहिल्या जी के उद्धार का उपाय बतलाता कि, श्री रामचन्द्र जी जब यहाँ से गुजरेंगे, तब तक तुम्हें यज्ञ भस्म लपेटे,केवल वायु का सेवन कर (निराहार रहकर) सब लोगों से अदृश्य रहकर (छुपकर) शिलावत स्थिर रहकर तप करना है । जब श्रीरामचन्द्र जी का आतिथ्य, स्वागत - सत्कार करोगी तब तुम दोषमुक्त होंगी।
मतलब अहिल्या जी पत्थर की नहीं बनी थी ।
जब सुनसान आश्रम देखकर श्री रामचन्द्र जी ने महर्षि विश्वामित्र जी से जिज्ञासा प्रकट की, तो महर्षि विश्वामित्र ने इन्द्र-अहिल्या- महर्षि गोतम के पुरे प्रकरण की जानकारी देकर आश्रम में प्रवेश किया। श्री रामचन्द्र जी ने सादर झुक कर माता अहिल्या के चरणों में प्रणाम किया।
अहिल्या जी ने फल-फूल आदि से महर्षि सहित श्री रामचन्द्र जी और लक्ष्मण जी का आतिथ्य सत्कार किया। और महर्षि गौतम के शाप से मुक्त होकर महर्षि गौतम से जा मिली।
अर्थात न तो अहिल्या जी शिला (पाषाण) हुई थी, न रामचन्द्र जी ने अशिष्टता पुर्वक ऋषि पत्नी की पाषाण देह को लात मारी। (चरण नहीं छुआये।) ये सब कवि कम्बन और तुलसीदास जी की कल्पना मात्र है।

मिथिला पहुँचने पर विश्वामित्र जी ने जनक जी और गौतम ऋषि के पुत्र का परिचय कराया और शिव धनुष की जानकारी दी।
महर्षि ने जनक जी से शिव धनुष दिखलाने का कहा। तब जनक जी ने पिनाक धनुष की विशेषता और पिनाक धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले से सीता जी के विवाह का प्रण के विषय में बतलाया।
 एक गाड़ी में सन्दुक में रखे पिनाक धनुष को बहुत से भृत्य धका कर लाये। तब उन्हें बड़े से सन्दुक में रखे शिव धनुष पिनाक के दर्शन करवाए।
महर्षि के निर्देश पर श्री रामचन्द्र जी ने पिनाक पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर ज्यों ही प्रत्यञ्चा कान तक खींच कर टंकार की वैसे ही पुराना होने से धनुष टूट गया।

जनक जी ने प्रण अनुसार सीता जी का विवाह श्री रामचन्द्र जी से करने का प्रस्ताव रखा जिसे महर्षि और श्री रामचन्द्र जी ने स्वीकार किया।

दशरथ जी को सुचित किया गया। वे सदलबल बारात लेकर आये तब अपने छोटे भाइयों की पुत्रियों के विवाह भी दशरथ पुत्रों से करने का प्रस्ताव किया। और सबने सहर्ष स्वीकार किया।
विवाह सम्पन्न हुआ। जब बारात लौट रही थी तब मार्ग में भगवान परशुराम जी का आगमन हुआ। परशुराम जी ने क्रोधित हुए लेकिन श्रीरामचन्द्र जी ने शिष्टता पूर्वक निवेदन किया कि, धनुष पुराना था इसलिए टूट गया। जानबूझकर नहीं तोड़ा। लेकिन परशुराम जी ने नाराज होकर श्री रामचन्द्र जी को वैष्णव धनुष देकर उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर दिखलाने की चुनौती दी।
लेकिन जैसे ही परशुरामजी ने वैष्णव धनुष श्रीरामचन्द्र जी के हाथों में दिया वैसे ही भगवान परशुराम जी का अवतारत्व का तेज (चार्ज) श्रीरामचन्द्र जी में प्रवेश कर गया और भगवान परशुराम जी केवल ऋषि ही रह गये। उनको प्राप्त अवतार का प्रभार समाप्त हो गया।(डिस्चार्ज्ड हो गये।) 
मतलब न तो धनुषयज्ञ/ सीता स्वयम्वर हुआ था। न स्वयम्वर में परशुरामजी जी और लक्ष्मण जी का विवाद हुआ। और
अवतारत्व एक दायित्व है। पदभार है। जो अवतार पद के दायित्व निर्वहन कर्ता व्यक्ति के पदभार समाप्त होने पर दूसरे योग्य व्यक्ति को अन्तरित हो सकता है।
एक अवतार दुसरे अवतार को नहीं पहचान पाता है।
सीता जी जनकपुरी में उमादेवी के उपासना स्थल / स्थानक पर उमादेवी की उपासना करतीं थी।  
 श्री रामचन्द्र जी दैनिक पञ्च महायज्ञ के अलावा उपासना स्थलों/ स्थानकों पर जाकर देवों की उपासना करते थे।
अवध राज्य गणराज्य था, गणराज्य के राजा का चुनाव सभी वर्णों के प्रतिनिधियों की समिति करती थी।
श्रीरामचन्द्र जी को युवराज घोषित करने का अनुमोदन भी दशरथ जी ने उक्त समिति से लिया था। तत्पश्चात ही घोषणा की थी।

भरत जी और शत्रुघ्न जी को कैकेई देश भेज कर अचानक श्री रामचन्द्र जी को युवराज घोषित करना भी राजनीति थी। जिससे कैकेई पक्ष को सन्देह होना स्वाभाविक था।

वनवास यात्रा में दशरथ जी सुमन्त के साथ रथ से श्रीरामचन्द्र जी - सीता जी और लक्ष्मण जी को अयोध्या नगरी की सीमा तक छोड़ने गए थे।

भरत जी जब अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने उन्हें बहुत बुरा कहा, उनकी और कैकेई की निन्दा की, उनकी अवहेलना की इसका कारण जानकर भरत जी व्यथित हो गये। स्वाभाविक है कि, भरत जी समझ गए कि, श्रीरामचन्द्र जी के स्थान पर उनका राजा होना जनता को स्वीकार्य नहीं है।

अतः भरत जी श्री रामचन्द्र जी को राजकीय सम्मान सहित वापस लेने चित्रकूट गये।
लेकिन न केवल लक्ष्मण जी अपितु श्रीरामचन्द्र जी भी सेना सहित भरत के आगमन पर शंकित हो गये थे। लेकिन उन्होंने धैर्य रखा और भरत की भावभङ्गिमा और गतिविधियों को देखकर निश्चिन्त हो गये।

वाल्मीकि रामायण में भरत जी के नन्दी ग्राम वास के दौरान उर्मिला जी और माण्डवी जी तथा श्रुति कीर्ति जी के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं है।
लोगों ने मन गड़न्त कहानियाँ गढ़ ली है।

लक्ष्मण रेखा की कहानी भी मनगढ़न्त है।

जब सीताजी माया (नारायणी/ श्री लक्ष्मी) की अवतार ही थी, तो माया को माया की सीता बनाने की कल्पना ही हास्यास्पद लगती है। इसलिए वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।

अङ्गद जी के नेतृत्व वाले खोजीदल को सुग्रीव जी ने तञ्जावूर पर पाण्ड्य देश के द्वारा में प्रवेश करने का स्पष्ट इन्कार कर दिया था। मतलब तमिलनाडु में प्रवेश निषेध था।
इसी प्रकार सुग्रीव जी के नेतृत्व में सुग्रीव जी की सेना सहित श्री रामचन्द्र जी सह्य पर्वत से पश्चिम घाट पर कर्नाटक - केरल सीमा पर के कोझीकोड पर उतरे और पहले तीन दिन तप कर समुन्द्र देव से मार्ग मांगा। समुद्र देवता को प्रसन्न होता नहीं देखकर श्री रामचन्द्र जी क्रोधित हो गए। (लक्ष्मण जी नहीं)।
श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र को सुखा देने के लिए शर संधान किया। लक्ष्मण जी ने श्री रामचन्द्र जी को समझाया। लेकिन श्रीरामचन्द्र जी का क्रोध शान्त नहीं हुआ। तब समुद्र में तुफान आ गया। समुद्र देवता प्रकट हुए। बाण पश्चिम दिशा में छोड़ने का सुझाव दिया जिससे पश्चिम में मरुस्थल बन गया।
फिर समुद्र देवता ने ही विश्वकर्मा पुत्र नल के विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) कौशल का परिचय देकर उनसे सेतु बनवाने का सुझाव दिया।
सेतु निर्माण हेतु पर्वतों की शिलाएँ तोड़कर लाने और उँचे-उँचे वृक्ष तोड़कर लाने हेतु बड़े-बड़े यन्त्रों का उपयोग किया गया।

 नल के नेतृत्व में विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) कौशल के आधार पर कर्नाटक - केरल सीमा पर के कोझीकोड से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप तक उथले समुद्र में भराव कर, फिर वृक्षों से जाली बना कर, शिलाओं से ढककर, मिट्टी से आच्छादित कर समुद्र में पहले दिन 14 योजन सेतु निर्माण किया। दुसरे दिन 6 योजन निर्माण किया। कुल बीस योजन हो गया। समुद्र की गहराई बढ़ने के कारण तीसरे दिन, चौथे दिन और पाँचवे दिन एक-एक योजन सेतु निर्माण किया। इस प्रकार कुल तेइस योजन अर्थात लगभग 296 या 297 किलोमीटर का सेतु निर्माण किया गया था।

न श्रीरामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये, न वहाँ रामेश्वरम शिवलिङ्ग की स्थापना की। अतः रावण को पुरोहित बनाने और रावण द्वारा सीता जी को लाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हुआ। श्री रामचन्द्र जी कभी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) भी नहीं गये। अतः मन्नार की खाड़ी में स्थित मात्र 48 किलोमीटर का (तथाकथित एडम ब्रिज) सेतु बनाने का भी कोई प्रश्न ही नहीं ।
उस समय तक भारतीय भूमि पर कोई मूर्ति पूजा प्रचलित नहीं थी। 
सीता जी की खोज में गये हनुमानजी ने रावण की लङ्का में रावण की कुलदेवी निकुम्भला नामक योगीनी यक्षणी की प्रतिमाएँ तोड़कर बहुत से मन्दिर डहाये/ तोड़े।
ऐसे ही श्रीरामचन्द्र जी के साथ युद्ध के दौरान भी रावण और मेघनाद के द्वारा निकुम्भला के गुप्त मन्दिर में वाममार्गी / शाबरी/ डाबरी मन्त्रों से किया जा रहे तान्त्रिक होम हवन को विध्वंस कर निकुम्भला की मूर्ति और मन्दिर तोड़े।
मतलब श्री रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी और हनुमान जी मूर्ति पूजा और तन्त्र के घोर विरोधी थे।

श्री रामचन्द्र जी ने अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या तिथि को रावण के वक्षस्थल पर ब्रह्मास्त्र चला कर वध किया था। रावण तत्काल ही मर गया था। अतः लक्ष्मण जी को राजनीति सिखाने की सम्भावना ही नहीं थी।

पुष्पक विमान से श्री रामचन्द्र जी, सीता जी और लक्ष्मण जी, हनुमान जी, सुग्रीव जी और जामवन्त जी सहित चैत्र शुक्ल पञ्चमी को चित्रकूट पहूँचे। भरत जी के आचार-विचार (नीयत) की जानकारी लेने पर अनुकूल पाकर चैत्र शुक्ल षष्ठी तिथि को नन्दी ग्राम भरत जी के पास पहूँचे। फिर वहाँ से राजकीय स्वागत सत्कार समारोह पूर्वक अयोध्या पहूँचे।

इसलिए दीपावली को श्री रामचन्द्र जी का अयोध्या लौटना केवल कल्पना मात्र है।

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

अन्तरात्मा की आवाज।

चित्त में सर्वप्रथम जो विचार आए वह सत्य होता है। उसे मान लो, उसपर दृढ़ रहो। उसे नोट करलो- अन्यथा भूल सकते हो।
क्योंकि 
फिर तत्काल तर्क, वितर्क और कुतर्कों का सिलसिला चलेगा। उसमें उलझनें में केवल हानि ही होगी अत उनपर ध्यान मत दो।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

धर्म

धर्म का अर्थ, स्वरूप और लक्षण---

धर्म का अर्थ है,सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के व्रत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है।  स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ मानवों द्वारा आचरित आचरण धर्म है।
धर्म का स्वरूप पञ्चमहायज्ञों में परिलक्षित होता है।
धर्म लक्षण--- अहिंसा, अक्रोध, क्षमा , दया, करुणा, 
सत्य, ऋतु के अनुकूल होना,
अस्तेय, अलोभ, पराये धन, पर नारी के प्रति आकर्षण नहीं होना, ब्रह्मचर्य,संयम,निर्व्यसन होना,   
अपरिग्रह, दान
शोच, सन्तोष, शान्ति,पर दोष दर्शन न करना, अपने दोष निवारण,
स्वच्छता, पवित्रता,
तप, अन्द्रिय निग्रह, तितिक्षा, ईज्या अर्थात पञ्च महा यज्ञ, यज्ञ के लिए यज्ञ, यज्ञ-याग, पूजा आदि,  
ईश्वर प्राणिधान,
स्वाध्याय श्रवण, अध्ययन, मनन, चिन्तन, धी, विद्या, सद्गुणों के प्रति श्रद्धा।
ईश्वर प्राणिधान - सम्पूर्ण समर्पण, परमात्मा में अनन्य, अनन्त प्रेम- भक्ति।

बुधवार, 29 जनवरी 2025

भारतीय जनता के श्रद्धेय नेता

 सावरकर से लेकर आज तक मोहनदास करमचन्द गांधी और जवाहरलाल नेहरू, फिरोज गांधी, इन्दिरा गांधी तथा राजीव गांधी और कम्युनिस्टों के विरुद्ध यही बातें कही जाती रही है।
लेकिन यह कोई नहीं कहता की, भारतीय सनातन धर्मियों का नेतृत्व करने में हमारी असफलता ही गांधी - नेहरु - इन्दिरा की सफलता रही।
भारतीय जनता की श्रद्धा लाला लाजपतराय द्वारा 1921 में, स्थापित गैर-लाभकारी कल्याणकारी संगठन, सर्वेंट्स ऑफ़ द पीपल सोसाइटी के प्रति थी । लेकिन लाला लाजपतराय जी के बलिदान के बाद उसे कोई चला नहीं पाया।
भारतीय जनता की श्रद्धा पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा स्थापित और पण्डित चन्द्रशेखर आजाद द्वारा समर्थित हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में थी। लेकिन इन क्रान्तिकारयों बलिदान के बाद उस सङ्गठन को कोई चला नहीं पाया।
भारतीय जनता की श्रद्धा सुभाषचन्द्र बोस द्वारा स्थापित ऑल इंडिया फार्वर्ड ब्लाक से अधिक आजाद हिन्द सेना में थी। लेकिन सुभाष चन्द्र बोस की विमान दुर्घटना के बाद इस आजाद हिन्द सेना का सञ्चालन ठप हो गया।
इनका प्रभाव इतना था कि, घर घर में बच्चों के नाम चन्द्रशेखर और सुभाष रखे जाने लगे

ऐसा प्रभाव ऐसी श्रद्धा सावरकर और हेड गवार के प्रति केवल मध्य भारत में बसे महाराष्ट्रीय लोगों में ही पाई जाती है। महाराष्ट्र में तक नहीं है।

इसके लिए हमेशा सावरकर पन्थियों और रा.स्व.से.संघ के कार्यकर्ताओं ने जनता को मुर्ख, दोगले हिन्दू कहकर उनको अपने से और दूर कर लिया।
अड़वानी, तोगड़िया और गोविन्दाचार्य के प्रयासों तथा जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन एवम अन्ना आन्दोलन का लाभ उठाकर भाजपा सत्ता में आ पाई।
लेकिन इन्हें कांग्रेस के विरुद्ध दुष्प्रचार के अलावा कुछ आता ही नहीं है।

नेहरू के नाम पर एक्सीडेण्टल हिन्दू काला कथन भी इनकी अपनी रचना है।
फेक्ट चेक में यह पाया गया कि, नेहरू ने स्वयम् को एक्सिडेंटल हिन्दू कहने वाला कोई स्टेटमेंट कभी नहीं दिया। किसी ने पुस्तक में अपने मन से यह जोड़ दिया था। बिना जाँच किये उसी झूठ को पकड़ कर चला रहे हैं।

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

श्री, लक्ष्मी और कमला (पद्मा)

परब्रह्म विष्णु की माया ही ब्रह्म नारायण की श्री और लक्ष्मी के स्वरूप में प्रकट होती हैं।
अष्ट भूज नारायण के एक ओर श्री देवी चँवर डुलाती हुई चँवर सेवा करते हुए दर्शाया जाता है। और दूसरी ओर लक्ष्मी चरण सेवा करते हुए दर्शाई जाती है।
श्री का प्रसाद गुण, विशेषताएँ, अष्ट सिद्धियाँ, सत्ता, शासन, प्रभाव, राज्य, स्थाई सम्पत्ति है।
इनका स्थिर स्वभाव है।
लक्ष्मी चञ्चला है। 
लक्ष्मी का प्रसाद रत्न, स्वर्ण, रौप्य के भण्डार, नौ निधियाँ धन- सम्पदा, राशि (नगद रूपये), सेविंग बैंक अकाउंट, फिक्स्ड डिपॉजिट अकाउंट्स आदि हैं।
ये दोनों अजयन्त देव हैं अर्थात ईश्वर श्रेणी की देवियाँ हैं।
चतुर्भुज श्री हरि की पत्नी समुद्र मन्थन से निकली कमलासना देवी पद्मा / कमला हैं। ये आजानज देव श्रेणी की देवी हैं। अर्थात जन्मजात देवता हैं।
स्वर्ण रत्नादि इन्ही का प्रसाद है।
महर्षि भृगु की भी श्री लक्ष्मी नामक पुत्री हुई, उनका विवाह आदित्य विष्णु से हुआ। 
ये आदित्य विष्णु ही ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी रूप में प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र बलि से तीन पग भूमि की भिक्षा मांगने गये थे और तीन पग में त्रिलोक नाप लिया था। फिर बलि को सुतल लोक भेज दिया। और उसे वरदान दिया कि, वर्ष में हेमन्त और शिशिर ऋतु में चार माह सुतल लोक के द्वारा पर रहेंगे। 
कालान्तर में पौराणिकों ने इसे वर्षा और शरद ऋतु कर दिया।

रविवार, 5 जनवरी 2025

सनातन धर्म

सर्वप्रथम यह जान समझ लें कि, धर्म आस्था और विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि प्रमाणों र तर्क पर आधारित आचरण और व्यवहार है।
आस्था और विश्वास के आधार पर मत, पन्थ और सम्प्रदाय बनते हैं। इसलिए अब्राहमिक मजहब आस्था और विश्वास पर ही टिका है।
लेकिन सनातन धर्म का आधार वेद अर्थात ज्ञान है। अर्थात अवलोकन, प्रयोगों, निरीक्षणों और गणनाओं पर आधारित ज्ञान है।

सनातन धर्म के वास्तविक धर्म ग्रंथ ---

वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, षड वेदाङ्ग के अन्तर्गत कल्प अर्थात शुल्ब सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्म सूत्र तथा पूर्व मीमांसा दर्शन और उत्तर मीमांसा दर्शन ही प्रामाणिक धर्मग्रंथ हैं।

वेदों को जानने- समझने हेतु गुरुकुल में पढ़ाये जाने वाले शास्त्रों का महत्व  और क्रम---

वेदों में कविता, गद्य और गान के रूप में मन्त्र हैं। जिसको जिस शास्त्र का ज्ञान है उसे उन वेद मन्त्रों में तत्सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान और दर्शन दृष्टिगोचर होता है। सायणाचार्य पौराणिक आख्यानों के ज्ञाता थे तो उन्होंने वेदों की व्याख्या पौराणिक चरित्रों और घटनाओं के आधार पर वेद भाष्य लिखा।
आचार्य महिधर अध्यात्मिक ज्ञानी थे, तो उन्होंने अध्यात्म परक वेद भाष्य लिखा।
दयानन्द सरस्वती जी भाषाशास्त्री थे, उच्चारण शिक्षा  व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और और शब्दकोश निघण्टु तथा छन्दशास्त्र के ज्ञाता थे अतः उन्होंने भाषाई आधार पर शुद्धतम अनुवाद कर संस्कृत में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका लिखकर हिन्दी भाषा में वेदों का भाष्य लिखा।
उपर्युक्त कोई भी भाष्य न गलत है न पूर्ण है। ऐसे और भी कई प्रकार से भाष्य हो सकते हैं जो सभी सही लेकिन अधूरे ही रहेंगे।
आगे वेदों की व्याख्या जानने-समझने की गुरुकुल पद्यति लिखी गई है। उससे ब्राह्मण वेदों का तात्पर्य हर दृष्टिकोण से जान-समझ पाता है।


वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में है। ब्राह्मण ग्रन्थों का पूर्व भाग व्यवहार और कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है। जो ब्रह्मचर्य आश्रम और ग्रहस्थ आश्रम मे उपयोगी है।
 उत्तर भाग आरण्यक है, जो वानप्रस्थाश्रम में उपयोगी है । और अन्तिम भाग उपनिषद अर्थात ज्ञान काण्ड है।

वेदों की भाषा समझने हेतु उच्चारण शिक्षा, व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और शब्दकोश निघण्टु तथा छन्द शास्त्र का ज्ञान आवश्यक है । 
उचित स्थान पर उचित समय पर किया गया कर्म ही सफल होता है, इसलिए भूगोल, खगोलशास्त्र और काल गणना का ज्योतिष ज्ञान आवश्यक है।
लेकिन उचित स्थान पर उचित समय पर किया गया कार्य भी तभी सफल होता है जब शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही किया जाए। और निषिद्ध कर्मो के प्रति पूर्ण उपरामता हो। अर्थात निषिद्ध कर्मों का संकल्प भी मन में न आए न चित्त में कोई ऐसा विचार हो तभी एकाग्रता पूर्वक कार्य किया जा सकता है। अतः वेदों के अनुसार आचरण करने में विधि और निषेध का ज्ञान अर्थात धर्म सूत्रों का ज्ञान आवश्यक है। 
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति आदि स्मृतियाँ इन्हीं धर्म सूत्रों की व्याख्या हैं। लेकिन स्मृतियों का स्थान प्रमाण कोटि में नहीं आता है।

फिर भी कर्म करते समय विरोधी भासने वाले वाक्यों और मिश्र वाक्यों या स्वविवेक पर निर्णय करने वाले आदेशों के पालन में महाभारत युद्ध के समय अर्जुन जैसे ज्ञानी को मति भ्रम हो गया था। इसलिए धर्म मीमांसा रूप श्रीमद्भगवद्गीता का गहन अध्ययन आवश्यक है।

कर्म करने हेतु खगोलीय परिस्थितियों की अनुरूपता आवश्यक है, इसके लिए गणितीय आधार वाले शुल्ब सूत्रों के आधार पर उचित प्रकार के मण्डप में, उचित प्रकार के मण्डल पर प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं और देवों को स्थापित करने हेतु उचित प्रकार के मण्डल बनाना आवश्यक है; तब जाकर उचित प्रकार की वेदी बनाकर आहूत प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं और देवों को  आहुति देकर उनके प्रति कर्तव्य पालन किया जा सकता है। इसके लिए शुल्बसूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।
लेकिन प्रत्येक कर्म की एक निर्धारित विधि होती है, और उमें बाधाएँ न आए इसलिए कुछ निषेध भी होते हैं। इसलिए छोटे कर्मकाण्ड, नित्यकर्म, दैनिक अग्निहोत्र, पञ्चमहायज्ञ, संस्कार प्रयोग, उत्सव मनाने के विधि निषेध हेतु गृह्यसूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।
फिर बड़े बड़े सत्र , बड़े यज्ञों के अनुष्ठान करने की विधि और निषेध जानना आवश्यक है, इसके लिए श्रोत सूत्रों का ज्ञान आवश्यक होता है।
लेकिन इन सबके ज्ञान होने पर भी कभी-कभी विरोधी वाक्य भ्रम पैदा कर देते हैं, इसलिए जेमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।

वेदों का ज्ञान विज्ञान समझे बिना उनका व्यावहारिक उपयोग नहीं किया जा सकता, इसके लिए आयुर्वेद , धनुर्वेद , गन्धर्ववेद और स्थापत्य वेद यानी शिल्प वेद और अर्थशास्त्र नामक उपवेद के ग्रन्थों का ज्ञान आवश्यक है। इनके अलावा धर्म प्रबोधनकारी कोई ग्रन्थ नहीं है।
सफलता पूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन जी लेने के बाद आता है वानप्रस्थ आश्रम का समय, इसके मार्गदर्शन हेतु ही ब्राह्मण ग्रन्थों का अन्तिम भाग अर्थात आरण्यका ज्ञान आवश्यक है। फिर जिज्ञासा होती है कि, यह जगत क्या है?  यह जगत किस पदार्थ से बना? इस जगत का मूल क्या है? यह जगत कैसे बना? क्या इस जगत का कोई निर्माता है? या यह स्वयमेव विकसित हो गया? और विकसित हो रहा है? यदि कोई इस जगत का रचयिता है या यह स्वयम् विकास का परिणाम है तो भी, इसका इतना कुशल और व्यवस्थित सञ्चालन किस प्रकार हो रहा है? क्या इसके सञ्चालन के कुछ नियम है? क्या यह स्व सञ्चालित हो रहा है या कोई शक्ति इसे सञ्चालित कर रही है?  
देवता क्या हैं? देवता कौन हैं? देवता कितने हैं? देवताओं की क्या-क्या श्रेणियाँ है? इन देवताओं का शासक ईश्वर क्या है? ईश्वर कौन है? ईश्वरों में भी ईश्वर, महेश्वर, जगदीश्वर और परमेश्वर श्रेणियाँ सुनी जाती है, ये ईश्वर, महेश्वर, जगदीश्वर और परमेश्वर कौन है? 
मैरा इस जगत से क्या सम्बन्ध है? वह सम्बन्ध कैसा है? वह सम्बन्ध क्यों है? इस जगत में मेरी क्या भूमिका है? जगत और ईश्वर के बीच मैरी क्या स्थिति है? क्या इस जगत में व्यवहार करते हुए भी मैं तटस्थ रह सकता हूँ?
फिर प्रश्न उपस्थित होते हैं कि, मैं क्या हूँ, क्या मैं देही हूँ, या भूतात्मा हूँ, या जीव हूँ, या जीवात्मा हूँ, या प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) हूँ या प्रज्ञात्मा हूँ?
 मैरा अपना वास्तविक अस्तित्व क्या है? मैरा अपना वास्तविक स्वरूप क्या है? विश्वात्मा क्या है? परमात्मा क्या है? क्या वह मैं ही हूँ? या मुझसे कुछ उच्च स्तर हैं? क्या मैं वहीं हो सकता हूँ?

 ये सब जिज्ञासाएँ हर बच्चे के मन में उठती है। चूंकि माता-पिता और हमारे आसपास घूम रहे कथावाचक, कर्मकाण्डी पण्डित, संसार में रह कर सांसारिक जीवन जीते हुए संन्यासी कहलाने के शौकीन बाबाओं के पास भी इनके कोई उत्तर नहीं मिलते।

इनके उत्तर दिये गए हैं वेदों के अन्तिम अध्यायों में। जिन्हें उपनिषद कहते हैं। इन्हें ब्रह्मसूत्र कहा जाता है। इन उपनिषदों मे या ब्रह्म सूत्रों में दिखने वाले विरोधी वाक्यों और मिश्रित वाक्यों की मीमांसा बादरायण के उत्तर मीमांसा दर्शन मे अर्थात शारीरिक सूत्र में है। इसलिए इस ग्रन्थ को भी ब्रह्म सूत्र कहा जाता है। इन उपनिषदों अर्थात ब्रह्म सूत्रों का ज्ञान भी आवश्यक है। तभी हमारे भ्रम निवारण हो सकते हैं।

हमे हमारे देश- समाज की महत्वपूर्ण घटनाएँ, हमारे आदर्श पुरुषों का जीवन चरित्र , उनका दुष्टों के साथ संघर्ष का सच्चा इतिहास जानने की जिज्ञासा होती है, लेकिन इसके प्रामाणिक ग्रन्थ वैदिक इतिहास-पुराण और गाथाएँ अब उपलब्ध नहीं है। फिर भी वाल्मीकि रामायण और वेदव्यास कृत महाभारत में ही जितना इतिहास मिलता है उतना ही इतिहास प्रामाणिक है। 
विष्णु पुराण महर्षि पराशर जी की रचना मानी जाने के कारण सबसे प्राचीन पुराण माना जाता है। इस कारण विष्णु पुराण केवल अवलोकनीय ग्रन्थ माना जाता है। लेकिन स्मृतियों के समान विष्णु पुराण को भी प्रमाण नहीं माना जाता है।परवर्ती पुराण आदि तथा संस्कृत साहित्य तो केवल लौकिक साहित्य मात्र हैं; प्रमाण नहीं है। 

क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
 अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है।
उक्त ज्ञानार्जन केवल गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ही सम्भव है।
इन सबका ज्ञान केवल गुरुकुल में ही हो सकता है।
घर में या होस्टल में रहकर आधुनिक शिक्षा से केवल किसी बड़े व्यवसाई द्वारा स्थापित या शासकीय उपक्रम में नौकर बनकर अर्थार्जन करने की ही शिक्षा देती है। उनमें कुछ समझदार ही स्वालम्बी व्यवसाय कर के अर्थार्जन कर गृहस्थी चलाने को ही जीवन की सफलता मान लेते हैं। उस गृहस्थी में कुछ कर्मकाण्डी पण्डितों से पूजा पाठ करवाना, तपस्वियों के  प्राकृतिक तपस्थलों पर बने तीर्थों और उनके वर्तमान उत्तरवर्ती महन्तों के मठ, मन्दिरों में जाकर पूजा-पाठ, दान-पुण्य आदि सकाम उपासना करके स्वयम् को परम धार्मिक समझ लेते हैं। और उन बाबाओं द्वारा बतलाई गई साधना- प्रणाली को अपना कर स्वयम् को स्वनाम धन्य अध्यात्मिक घोषित कर लेते हैं। जबकि उन साधनाओं से आजतक कोई सफल नहीं हुआ
लेकिन वास्तविक सफल जीवन कुछ भिन्न ही है। 

सनातन वैदिक धर्मी के लक्षण एवम् पहचान ---

सदैव मन ही मन ॐ का उच्चारण करते हुए चित्त में परमात्मा का निरन्तर ध्यान रखते हुए सत्कर्म ही करते हुए सदाचार पूर्वक जीवन यापन करना, ईश्वर प्रदत्त इस देह को स्वस्थ्य, सुघड़, बलवान देहयष्टि बनाये रखकर देश-धर्म की रक्षार्थ सदैव तत्पर रहने को छोड़कर कोई धर्म मार्ग नहीं है। सनातन वैदिक धर्मी का यह प्रथम कर्तव्य और पहचान है। इसके बिना कोई सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता।

वैदिक धर्म में यज्ञ, योग और ज्ञान साधना थी।

पञ्च महायज्ञ नित्यकर्म थे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपी धर्म धारण किए बगैर सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता यह द्वितीय कर्तव्य है।  

शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूपी नियमों का दृढ़तापूर्वक निर्वहन किये बिना कोई सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता यह तृतीय कर्तव्य है।

वेदाध्ययन, चिन्तन मनन, सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त पूर्व सन्ध्या करना, योगासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि अभ्यास रूपी ब्रह्म यज्ञ प्रत्येक सनातन वैदिक धर्मी का चतुर्थ कर्तव्य है। 

सूर्योदय पश्चात अग्निहोत्र रूपी देव यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का पञ्चम कर्तव्य है। 

 ब्रह्मचारी, संन्यासी, आगंतुक, जरुरत मन्द, वृद्ध, रोगी, विकलाङ्ग, निराश्रित,बालक और अबला महिलाओं की सेवा सुश्रुषा, गुरुकुल, महाविद्यालय , चिकित्सालय, औषधालय , धर्मशाला, अतिथिगृह, पेयजल आपूर्ति (प्याऊ), सदावर्त निर्माण और सञ्चालन में यथा सामर्थ्य, यथा शक्ति तन-मन-धन से सहयोग रूपी नृयज्ञ या अतिथि यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का षष्ठ कर्तव्य है। 

पशु-पक्षी, चीटी-मछली जैसे छोटे-छोटे जीवों, पाल्य जीव जन्तुओं तथा पैड़-पौधों की यथोचित सेवा व्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण रूपी भूत यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का सप्तम कर्तव्य है। 

मृत्युशय्या पर पड़े व्यक्ति की सेवा - सुश्रुषा, उन्हें ईशावास्योपनिष, श्रीमद्भगवद्गीता सुनाना, ॐ संकिर्तन के द्वारा उनका ध्यान परमात्मा में लगाना, शव को वैदिक ऋति से मन्त्राग्नि देकर अन्त्येष्टि करना, और तीसरे दिन श्मशान की सफाई कर अस्थि-भस्म का समुचित विसर्जन करना, मृतक की कोई सामाजिक उत्थान - समाज सेवा सम्बन्धित अधूरी इच्छा; यथा - कूप-तड़ाग, प्याऊ, विद्यालय, चिकित्सालय, श्मशान आदि के निर्माण की इच्छा आदि अधुरे संकल्प को पूर्ण करने में सहयोग रूपी श्राद्धकर्म करके पितृयज्ञ करना सनातन वैदिक धर्मी का अष्टम कर्तव्य है। 

उक्त आठ कर्तव्यों को धारण करने वाला और समस्त निषिद्ध कर्मो के प्रति उपराम व्यक्ति ही सच्चा सनातन वैदिक धर्मी होता है।
और 
ऐसे आचरण वाले व्यक्ति को ही सत्गुरु - ॐ तत्सत्, सञ्चिदानन्द ब्रह्म,  सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्  का बोध करा कर; तत्वमस्यादि महावचन सुनाकर; सर्व खल्विदम् ब्रह्म,  प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोऽहम् और अहम्ब्रह्मास्मि का बोध करा सकते हैं। 
तभी वह सद्योमुक्त होकर जगत में विचरण करता है और देह त्याग पश्चात जन्म मरण के बन्धन से सदा के लिए मुक्त हो सकता है। 
इसको छोड़ कर अन्य कोई धर्म मार्ग नहीं है।

ऐसे सद्योमुक्त में से कुछ विशेष विभूतिवान परुषों को देवगण आग्रह करते हैं तो उनके आग्रह पर वह अपने प्रज्ञात्मा को विश्वात्मा और परमात्मा में लय न करके  सप्त ऋषियों के समान किसी भी लोक में रहकर लोक कल्याणकारी कर्म करने को रह सकता है। और आवश्यकता पूर्ति होने पर जीवन- मरण से मुक्त हो सकता है।
या देवताओं के अनुरोध पर अपनी अन्तरात्मा को भी प्रज्ञात्मा में लय न करके किसी लोक विशेष में रहकर यथा आवश्यकता निर्धारित कार्य की पूर्ति हेतु पृथ्वी पर जन्म लेकर अर्थात अवतार ग्रहण कर कार्य पूर्ण कर पुनः उसी लोक में लौट सकता है। या जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है।

गुरुकुल में सर्व प्रथम वेदमन्त्र पहले रटवाये जाते हैं। लेकिन केवल रटने से स्मृति नहीं बढ़ती अपितु ,उनका उपयोग सीखने, जानने और उपयोग करने से ही स्मृति बढ़ती है। 
इसलिए 
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली ---
पहले गुरुकुल  ब्रह्मचर्य आश्रम में भिक्षा मांगने, आश्रम की साफ-सफाई, पैड़ पौधों और गो की सेवा करने, आश्रम की लिपाई-छबाई, रखरखाव करने, कुटीर बनाने, गो चराने, कृषि करने, अतिथि सेवा करने से ब्रह्मचारी का अहंकार नष्ट हो जाता था। कार्य के दौरान ब्रह्मचारी को के समक्ष नई नई चीजें दिखती थी और नई नई समस्याएँ आती थी । इस कारण उसके मस्तिष्क में जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती थी। जिसका समाधान वहीं पर किया जाता था।इस कारण ब्रह्मचारी व्यवहार में दक्ष हो जाता था। तब उसे वेदपाठ अभ्यास और योगाभ्यास करवाया जाता था, इसमें आई समस्याओं के लिए उसे वेदमन्त्रों के उच्चारण की विधि अर्थात शिक्षा, वैदिक व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और छन्द शास्त्र और भूगोल, खगोल तथा काल गणना ज्ञान हेतु ज्योतिष का ज्ञान प्रदान किया जाता था। फिर खगोल के पेटर्न के अनुसार शुल्बसूत्रोक्त मण्डप, मण्डल और बेदी बनाने की विधि सम्बन्धित ज्ञान प्रदान किया जाता था। फिर नित्योपयोगी, दैनिक कर्मकाण्ड गृह्यसूत्र और अर्थशास्त्र तथा आयुर्वेद आदि का ज्ञान दिया जाता था। फिर कर्म में उनका उपयोग करवाया जाता है; ताकि, वह व्यावहारिक जीवन जी सके और कर्मकाण्ड और संस्कार आदि के समय वह स्वयम् वेदमन्त्र का उच्चारण करे।  इसका ज्ञान नहीं होने के कारण आजकल पुरोहित भी पुस्तक देखकर मन्त्रोच्चार करता है। और जातिगत ब्राह्मण यजमान भी केवल मम् बोलता है। लेकिन समझता कुछ नहीं है।
तब जाकर बटुक वैष्य वर्णोचित ज्ञानार्जन कर द्विजत्व को प्राप्त होता था। फिर व्यावहारिक और व्यावसायिक जीवन में उनका उपयोग सिखाया जाता था। तब व्यक्ति वैश्य बनता था

धर्म सूत्रोक्त धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन करवा कर धर्म मीमांसा का ज्ञान प्रदान कर, वाद्य यन्त्र बजाने, और बनाने, सामगान करने, नाट्यशास्त्र का अध्ययन , शस्त्रास्त्र  सञ्चालन और निर्माण करने, रथ हांकने और रथ निर्माण करने की विद्या धनुर्वेद और शिल्पवेद अर्थात स्थापत्य वेद सीख कर क्षात्र धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना सीखता था। फिर उनका तकनीकी उपयोग सिखाया जाता है तब व्यक्ति क्षत्रिय बनता है। 

पूर्व मीमांसा श्रोत सुत्रोक्त बड़े यज्ञ करने, प्रवचन सुनने छोटे बटुकों का अध्यापन करने, प्रवचन करने, यज्ञ करवाने के अभ्यास करवाया जाता था। फिर अन्त में उनका वास्तविक आषय समझाया जाता है तब ब्रह्मचारी विप्र बनता है।

इसके बाद ब्रह्मचारी के माता-पिता एवम् स्वयम् ब्रह्मचारी यदि चाहें तो उसका समावर्तन संस्कार करवा कर गृहस्थ धर्म में प्रवेश कर सकता था।

लेकिन यदि ब्रह्मचारी अभी और भी ज्ञानार्जन करना चाहता हो तो गुरुकुल के आचार्य गण, कुलपति ब्रह्मचारी की योग्यता परखकर ब्रह्मचारी से कृच्छ चन्द्रायण तप करवा के समाधि अभ्यास करवाते थे। जब समाधि अभ्यास से वह वेद मन्त्रों का भाव स्वतः दर्शन करता है तब मन्त्र दृष्टा हो जाता है। जब वेद का पूर्णतः दृष्टा हो जाता है तब ब्राह्मण कहलाता है।
ऐसा ब्राह्मण ही ब्रह्मर्षि हो सकता है। और ऐसा ब्रह्मर्षि जब सांसारिक जीवन छोड़कर संन्यास ग्रहण कर, निर्जन वन में, पर्वत कन्दराओंमें एकान्त वासी हो जाता है, तब वह मुनि कहलाता है।

इन सबके बिना क्या कभी किसी को ऋषि बनने का कोई किस्सा सुना है?
नहीं ना। 

अतः सदाचार पूर्वक, स्व स्थ रहने (स्व में स्थित रहने) का अभ्यास, वास्तविक मैं , परम आत्म परमात्मा के अर्थ में ॐ शब्द नाद और ॐकार का ध्यान करते हुए सदैव परमात्मा का स्मरण रखकर प्रकृति, जगत, संसार और शरीरों की सेवा करना ही मानव जीवन है
यही सनातन धर्म है।
वेदव्यास जी के बाद कोई महर्षि सुना है?
शुकदेव जी के बाद कोई मुनि सुना है?
योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्ण के बाद हठयोगी तो बहुत हुए लेकिन कोई वास्तविक योगी नहीं हुआ।
कारण एक ही है कि, महाभारत युद्ध में भारत के सभी ज्ञानी-ध्यानी, विद्वान, कर्मठ, वीर समाप्त हो गये।
वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति समाप्त हो गये, नये-नये मत पन्थ विकसित हो गये।
गुरुकुल समाप्त हो गये।
परिणाम स्वरूप अधिकांश जनता जैन-बौद्ध या नास्तिक (आजीवक) हो गई।
आचार्य कुमारील भट्ट और शंकराचार्य जी की कृपा से वैदिक मत में वापसी तो हुई, लेकिन विभिन्न सम्प्रदायों में बंट गए।
यज्ञ करते समय यदि शिश्नेदेवाः (तान्त्रिक लिङ्ग पूजकों) की छाया भी पड़ जाए तो ऋग्वेद में यज्ञ बन्द करदेने का निर्देश है। यजुर्वेद में भी न सत्य प्रतिमा अस्ति कह कर प्रतिमा का निषेध किया गया है। इसलिए उस समय गुरुकुल शिक्षित प्रत्येक व्यक्ति पञ्चमहायज्ञ सेवी ही होता था।
तब भारत पर किसी आसुरी शक्ति की दृष्टि पढ़ने पर साक्षात धर्म हमारी रक्षार्थ उपस्थित हो जाता था। महर्लोक और उससे उच्च लोको से सहायता प्राप्त हो जाती थी।
यूनानी आक्रमण के बाद जैन और बौद्ध आचार्य इराक में प्रचलित मूर्ति पूजा ले आये। भगवान आद्य शंकराचार्य जी के द्वारा शुद्धि करवा कर बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को सनातन धर्म में ले आये । सनातन धर्म में लौटे इन पूर्व बौद्धाचार्यो और पूर्व जैनाचार्यों ने पुरुष सूक्त आदि वैदिक मन्त्रों से उनके मठ मन्दिरों में प्रतिष्ठित मुर्तियों की षोडशोपचार पूजा करना प्रारम्भ कर दी। जबकि,  पुरुष सूक्त का पूजन में विनियोग नहीं है। अपितु सृष्टि उत्पत्ति रहस्य प्रकाशक उपनिषद है। पूरुष सूक्त का पूजन विधि के कर्म से दूर तक का भी कोई सम्बन्ध नहीं है।
जब हमने अपना धर्म - संस्कृति सब छोड़ दिये तो धर्म हमारी रक्षा क्यों करेगा?