सृष्टि के आदि से विगत जन्म तक मन में उठे सङ्कल्प से निर्मित कर्मों के सञ्चित में से इस जन्म में भोगे जा सकने योग्य जो कर्मफल उदित हो चुके हैं, उसे प्रारब्ध कहते हैं।
इसी प्रारब्ध के आधार पर हमारा जन्म उन कर्मभोगों के भोगने के अनुकूल देश (स्थान), काल (समयावधि के लिए), (देव, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, असुर, दैत्य, दानव या राक्षस) जाति में, गोत्र और कुल और वंश में, परिवार में, और कर्मभोगों के लिए अनुकूल परिस्थितियों में हमारा जन्म होता है।
मारी प्रकृति (स्वभाव) और प्रवृत्ति बनती है, और हमारे नवीन कर्म भी उस प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार ही होते हैं।
इसमें परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं होता।
हम अपने सुधार या बिगाड़ के लिए प्रयास और प्रयत्न करने के लिए स्वतन्त्र हैं।
जब परिस्थितियाँ सुधार के लिए अनुकूल हो तो पूरी ताकत से भिड़ जाना चाहिए। और जब परिस्थितियाँ बिगाड़ के अनुकूल हो तो हर कदम सावधानी से बढ़ाना चाहिए।
यही एक मात्र मार्ग है।
न ईईश्वर कोई किस्मत लिखकर भेजता है और न हम भाग्य के दास हैं।
एक ही सिद्धान्त है कि, मर्जी है आपकी आखिर जीवन है आपका।
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