वैदिक काल में यज्ञ सत्र के दौरान रात्रि में प्राचीन काल का इतिहास-गौरव जानकर धर्म कार्य में प्रेरणा और उत्साह वर्धन हेतु इतिहास श्रवण होता था। धार्मिक लोगों की कथा-साहित्य शास्त्र मनोरञ्जनार्थ पुराण श्रवण होता था।
ऋग्वेद के ऋषि और स्वायम्भुव मनु के पाँचवी पीढ़ी में उत्पन्न ऋषभदेव ने अपनी पुत्री को चौदह भाषाएँ और उनकी लिपियाँ सिखाई थी। फिर भी मुखाग्र और अन्तस्थ स्मरण रखने की परम्परा थी। जो बारहखड़ी, गिनती-पहाड़े, और कविताओं को मुखाग्र स्मरण की परम्परा आज भी कायम है। इसलिए उस समय लेखन की परम्परा नहीं थी। इसलिए वह श्रुति काल कहलाता है। श्रुति काल में कथा वाचन नही कथा-कथन और श्रवण होता था।
इस इतिहास को महर्षि पराशर जी नें संहिता बद्ध कर अपने पुत्र श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया। फिर पुराण कथाओं का सम्पादन कर पुराण संहिता अपने पुत्र श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया।
श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने इस इतिहास को बत्तीस हजार श्लोक की जय संहिता के रूप में पढ़ाया- सिखाया। फिर जय संहिता का विस्तार भारत ग्रन्थ के रूप में हुआ और श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी के शिष्यों ने उसे लगभग एक लाख श्लोकों का बना दिया। अतः इसका लेखन अपरिहार्य हो गया था। अस्तु शीघ लेखन के ज्ञाता गणेश जी की सहायता ली गई। यह भी प्रमाणित करता है कि, लिपियाँ महाभारत रचना के पहले से अस्तित्व और प्रचलन में थी।
महाभारत की मारकाट से वृहद वर्णन से महर्षि वेदव्यास जी को वितृष्णा होने लगी। अतः श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने ललित साहित्य के रूप में रूपकात्मक पुराण कथा संहिता बद्ध कर अपने शिष्यों को पढ़ाई- सुनाई।
शिष्यों में जिस शिष्य ने अपनी योग्यता अनुसार जैसा ग्रहण किया उसे लिपिबद्ध कर वेद व्यास जी के नाम पर पुराणों की रचना की। व्यास जी के शिष्य व्यास ही कहलाते हैं। अस्तु समस्त पुराण साहित्य वेदव्यास जी के नाम पर प्रचलित हो गई। जिसका प्रवर्तन, प्रवर्धन, सम्पादन, लेखन गुप्त काल और धार के राजा भोज के समय तक होता रहा।
इन पाण्डुलिपियों में भी शिष्य गण अपनी समझ और आस्था अनुसार वर्तमान इतिहास जोड़ते गये। जो वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध है। यह पूर्णतः लौकिक साहित्य है।
अतः इन कथाओं का कथनोपकथन, उपदेश, श्रवण घरों में, सभाओं में भी होता है और मठों में तथा मठों के अधीन मन्दिरों में महन्त जी या उनके अनुयाई आगमोक्त पूजन विधि से पूजन कर केवल श्रद्धालु भक्तों को कथा सुनाते हैं, केवल वही व्यास पीठ कहलाती है।
जैसे यज्ञ के पहले उचित पवित्र भूमि की परीक्षा कर खुदाई कर जाँच-पड़ताल कर भूमि शोधन होता था। भूमि का पवित्रिकरण होता था। तत्पश्चात यज्ञ-सत्र का आयोजन होता है। वैसी शुद्ध की हुई भूमि पर सायं काल में व्यासपीठ स्थापित कर पुराण वाचन एवम् प्रवचन होता है तब तो व्यासपीठ की मर्यादा का प्रश्न उपस्थित होता है।
लेकिन जब किसी भी खाली पड़े कॉलोनी का कचरा डालने के काम आने वाले प्लाट पर या किसी किसान के खेत को समतल कर उस खेत पर कथा आयोजन होता है तो, उसमें कौन सी व्यास-पीठ स्थापित हो सकती है? तो यहाँ तो गली-मोहल्लों में आयोजित होने वाली सत्यनारायण कथा, तेजाजी की कथा और रामदेवजी की कथा के समान ही परम्परा निर्वहन होगी।
निर्वयसनी, ऋतुकाल में ही केवल सन्तानोपत्ति हेतु गर्भाधान संस्कार के निमित्त स्वयम् की पत्नी के साथ रति करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी, ईश्वर प्रदत्त सम्पदा से सन्तुष्ट, ब्रह्म कर्म में प्रवृत्त, पञ्चमहायज्ञ सेवी, निष्काम कर्मयोगी ब्राह्मण न तो सुलभ हैं, न ऐसे ही धर्म प्रेमी श्रोता सुलभ हैं।
अतः स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी का नियम था कि वे किसी योग्य संन्यासी के आग्रह पर ही भागवत कथा सुनाते थे। उस बीच जो श्रद्धालु हो वह भी सुनले। इसमें उन्हें कोई आपत्ती नही थी।
ऐसे आयोजन में व्यासपीठ की मर्यादा होती है।
लेकिन खेतों में और प्लॉटों में व्यासपीठ हो ही नहीं सकती।
एक तरफ कहा जाता है कि, पुराण की रचना ही उनके नैतिक - धार्मिक विकास के लिए रची गई जो वेदों में उल्लेखित धर्म- दर्शन की गूढ़ बातों को नहीं समझ पाते थे। अर्थात सेवा क्षेत्र में लगे हुए श्रम जिवियों के लिए पुराण रचे गए । और दुसरी ओर व्यास पीठ की मर्यादा की बात करना। दोहरी मानसिकता है।
इस लिए ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी का यह कथन उचित है कि, अपना वर्ण, जाति, गोत्र घोषित कर ही वैधानिक तरीके से किसी के द्वारा कथा करने पर किसी को कोई आपत्ती नही हो सकती। उसके श्रोता ऐच्छिक रूप से कोई भी हो सकते है।
लेकिन यदि व्यासपीठ मर्यादा की घोषणा के साथ भगवत कथा ब्रह्म यज्ञ आयोजित किया जाता है तो, फिर, विधि-विधान से व्यासपीठ स्थापित कर, योग्य विप्र या ब्राह्मण के मुख से ही भगवत कथा होना चाहिए। और केवल धर्म मर्यादा पालक श्रोताओं को ही श्रवणाधिकार है।
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