गुरुवार, 7 अगस्त 2025

गुरु और उपनयन

पिता ही सर्वप्रथम उपनयन कर मन्त्र दीक्षा देते हैं।
जो सिद्धान्ततः उचित भी है। प्रथम यज्ञोपवीत के समय उपनीत करने का अधिकार केवल पिता को ही होता है।
पिता के अभाव में माता , वो भी न हो तो बड़ा भाई ऐसा क्रम है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में भी जब कर्मकाण्ड की क्रियाएँ की जाती है तब दो जनेऊ धारण की जाती है। इसलिए प्रथम बार दो जनेऊ ही पहनाई जाती है।
लेकिन जब बाद में कोई गुरुकुल में विद्याअध्ययन करने जाता है, तब गुरुकुल का कुलपति आचार्य पुनः उपनयन करवाता है।
उसके बाद और किसी बड़े गुरुकुल में शिक्षा-दीक्षा लेनी हो तो वह गुरु पुनः उपनयन कराता है।
अन्त में जब उपनिषद श्रवण, मनन, निदिध्यासन करवा कर तत्वमस्यादि बोध करवाने वाले सतगुरु से ब्रह्मदीक्षा लेना हो तो वे भी दीक्षा देने के लिए उपनीत करते हैं।
इसलिए एक व्यक्ति के कई गुरु हो सकते हैं।
ऐसे व्यक्ति में साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है।
जो योग्य (आत्मज्ञ) गुरु से उपनिषद श्रवण कर निदिध्यासन कर श्रीगुरू मुख से तत्वमस्यादि महावाक्यों का श्रवण कर आत्म ज्ञान प्राप्त करता है वह सहज स्वाभाविक हो जाता है। उसका किसी से भी लगाव नहीं किसी से भी विरोध नहीं होता।
केवल जिज्ञासुओं के प्रति ही शास्त्रोक्त मत प्रकट करते हैं।
जो व्यक्ति उक्त परम्परा का उल्लघङ्घन कर अतिक्रमण कर किसी को भी सतगुरु मान लेता है वही व्यक्ति नैयायिकों की भाँति साम्प्रदायिक वितण्डावाद का आश्रय लेकर सर्वत्र ज्ञान बचारता रहता है।
जो व्यक्ति अन्तिम सतगुरु तक नहीं पहूँच पाता वह पूर्व मीमांसकों (वर्तमान में वरिष्ठ आर्यसमाजियों) की भाँति शास्त्रार्थ करते हुए अपने अहंकार को ही दृढ़ करते फिरते हैं।
लेकिन आत्मज्ञानी गुरु का आश्रय ग्रहण कर समाधान होने के कारण समाधिस्थ रहता है।
उसे जगत प्रभावित ही नहीं करता। उसके लिए तो गुण ही गुणों में व्यवहार रत है। इसलिए वह कोई भी पक्ष-विपक्ष देखता ही नहीं है। और सवस्थ रहता है।

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