अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपीधर्म में दृढ रहते हुए शोच, सन्तोष, तप (जिसमें नाम जप सम्मिलित है।), स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूपी नियमों का पालन करते हुए ब्रह्म यज्ञ (अष्टाङ्ग योग इसी का भाग है।), देव यज्ञ, नृयज्ञ (अतिथि यज्ञ- दान आदि), भूत यज्ञ (प्रकृति,जीव- जन्तुओं और वनस्पतियों की सेवा), तथा पितृ यज्ञ (बुजुर्गों और दिवङ्गत जनों की लोक सेवार्थ प्रतिज्ञा और इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु पाठशाला, व्यायाम शाला, धर्मशाला, वाचनालय, सदावर्त, कूप-तड़ाग, बान्ध, घाट, नहर, औषधालय, चिकित्सालय, मार्ग, स्ट्राम वाटर लाइन, सिवरेज, ड्रेनेज, प्रकाश व्यवस्था, आदि के निर्माण और रखरखाव में यथाशक्ति सहयोग करना) जिसे निष्काम कर्म योग भी कहा है, इसके बिना अन्तःकरणों की मलिनता दूर हो नहीं सकती। और निर्मल अन्तःकरण में ही सद्विचार, सद्भाव और सत्कर्म के सङ्कलप पूर्ण करने के निश्चय के लिए निश्चयात्मिका बुद्धि का वास होता है।
ऐसे व्यक्ति ही श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 09 श्लोक 22 के अनुसार सदाचारी जीवन जीनेवाले ईश्वर प्रणिधान किये हुए लोगों के लिए ही अनन्याश्चिन्तयन्तो मां: कहा गया है। उनके योग क्षेम परब्रह्म भगवान विष्णु स्वयम ही निर्वहन करते हैं।
अन्यथा तोता रटन्त से कुछ नहीं होता।
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