शुक्रवार, 20 जून 2025

आत्मा द्वारा वरण करने पर ही आत्मज्ञान होना ---

श्री शिशिर भागवत: 

ईश्वर में पूर्ण समर्पण भी ईश्वरेच्छा के बिना नहीं होता ।
 
मेरा उत्तर 

 यहाँ आपने प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर कहा है उनकी इच्छा को ईश्वरेच्छा कहा है।
जबकि,
उपनिषद के वाक्य आत्मा जिसे स्वयम् वरण करता है वहाँ उपनिषद मे आत्मा का तात्पर्य परमात्मा से होता है। इसमें 
प्राणायाम कर धारणा, ध्यान और समाधि एक साथ कर संयम द्वारा विश्वात्मा ॐ को धनुष बनाकर उसमें प्रत्यगात्मा (पुरुष-प्रकृति) अर्थात ब्रह्म (प्रभविष्णु - श्री एवम लक्ष्मी) को बाण की नोक पर बैठाकर प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर में स्थाई रूप से स्थापित कर दिया जाता है। इसके बाद प्रज्ञात्मा स्वाभाविक रूप से विश्वात्मा ॐ के द्वारा परमात्म भाव में स्थित और स्थिर हो जाता है।
यही सद्योमुक्ति है।

अन्यथा संसार में रत स्वभावतः प्रत्यगात्मा सदैव प्रज्ञात्मा और जीवात्मा के बीच दोलन करता रहता है।

श्री शिशिर भागवत का कथन -
सद्यो मुक्त तो हुवे नहीं है तो अभी जहां है उसी के बारे में कह सकते है ।
जब वो वरण करेगा तब बात दूसरी होगी । 100 % हरि कर्ता भाव उसके कृपा के बिना लगभग असंभव ही है ।
मेरा उत्तर -
वह शब्द परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है।

वेद शास्त्र (शब्द प्रमाण) ही प्रमाणों में परम प्रमाण है।
स्मृति (रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि तथा महापुरुषों के अनुभव एवं उनके अनुभव के आधार पर कथित वचन) प्रमाण कोटि में नहीं आती।

श्री शिशिर भागवत ---

ये मान्य है ।

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