ईश्वर है या नहीं है, ईश्वर की अवधारणा अनावश्यक है या आवश्यक है; ये समस्याएँ वेदों के प्रति आस्थावान आस्तिकों (वैदिकों) में भी है। इनमे प्रमुख तीन है।
1 ईश्वरवादी जो परमात्मा के ॐ सङ्कल्प से परमात्मा के सगुण प्रकट स्वरूप परब्रह्म (विष्णु-माया) की प्रेरणा से ब्रह्म (प्रभविष्णु-श्रीलक्ष्मी) (सवितृ- सावित्री) सृष्टि का जनक प्रेरक रक्षक को मानते हैं। जिसकी प्रेरणा से वाणी हिरण्णगर्भ - (त्वष्टा - रचना) ने बढ़ाई (सुतार- लौहार, सुनार, कम्भकार) की भाँति सृष्टि में ब्रह्माण्डों को और ब्रह्माण्ड के गोलों को घड़ा।
2 - तार्किक दृष्टि वाले साधक गण कहते हैं, कि, पुरुष के लिए केवल धर्म, अर्थ, काम मौक्ष पुरुषार्थ कहे गए हैं। इनको प्राप्त करने में न ईश्वर आवश्यक है, न सहायक है न बाधक है; तो इस अव्याकृत तथ्य पर विचार करना भी अनावश्यक है।
सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को सांख्य दर्शन का ज्ञान प्रदाता गुरु ने यही शिक्षा दी गई थी। इसलिए वे नास्तिक अनीश्वरवादी शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ की परम्परा से हटकर प्रचार करने लगे।
3 - अनीश्वरवादी पूर्व मीमांसक- जो ईश्वर की अवधारणा की आवश्यकता पर और प्रश्न ईश्वर के अनस्तित्व मानने से क्या क्षति हो जाएगी यह प्रश्न उठाते हुए ईश्वर के होने पर भी हिंसा, बलात्कार, लूट जैसे अनाचार होने का कारण पूछते हुए ईश्वर के न होने पर बहुत से तर्क प्रस्तुत करते हैं। जिनका उत्तर उत्तर मीमांसक वेदान्तियों ने दिया है उसमें भी विशेषकर शंकराचार्य परम्परा के अद्वैत वेदान्तियों ने उत्तर दिये हैं।
इनके अलावा वेदों को न मानने वाले, वेद विरोधी नास्तिक अनीश्वरवादी जैन दर्शन के शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ, वर्धमान महावीर से लेकर स्टीफन हॉकिंग तक उक्त तर्क और वैदिक ईश्वर वादियों द्वारा दिए गए उनके प्रामाणिक उत्तरो को ही संकलित किया जाए तो महाभारत से बड़ा ग्रन्थ बन जाएगा।
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