तन्त्र उत्पत्ति और विकास
तन्त्र का मतलब वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था से हटकर मनमानी निरंकुश व्यवस्था।
मेने पहले भी लिखा है कि, हिरण्यगर्भ को हम त्वष्टा और उनकी रचना के रूप में जानते हैं। त्वष्टा ने ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की भांति गड़ा (घड़ा)।
इन त्वष्टा की रचना ब्रह्माण्ड है। इसलिए वैदिक वाङ्मय में त्वष्टा के पुत्र त्रिमुख विश्वरूप बतलाया गया। जिन्हें देवताओं (आदित्यों) ने अपना पुरोहित नियुक्त किया। वे एक मुख से सोमरस पान करते थे और देवताओं के लिए आहुति देते थे। दुसरे मुख से मदिरापान करते थे और असुरों को आहुति देते थे।
इन विश्वरूप की हत्या इन्द्र ने कर दी। इससे रुष्ट होकर त्वष्टा ने वत्रासुर को जन्म दिया। वत्रासुर ने जलों को रोक लिया था और भूमि डुबने लगी थी। और गोएँ चुरा ली थी। तब देवताओं ने परम शैव दधीचि से अस्थियाँ लेकर वज्र बनाकर इन्द्र ने वत्रासुर को मारकर गौओं और जलों को मुक्त किया।
पुराणोल्लेखित हिरण्याक्ष द्वारा भूमि खो रसातल में ले जाना और वराह अवतार द्वारा भूमि को पुनः अपनी कक्षा में स्थापित कर देना।(जो लगभग असम्भव है।), महर्षि कश्यप द्वारा समुद्र पी जाना, भगवान शंकर की जटा में गङ्गा समाना, फिर जह्नु ऋषि के कमण्डलु में गङ्गा समाना, वामन द्वारा तीन पग में त्रिलोकी माप लेना (इसका सत्यापन करने वाला भी त्रिविक्रम विष्णु तुल्य ही होना आवश्यक है।) सब रूपकात्मक वर्णन है। जो उक्त वेद मन्त्रों में उल्लेखित बातों के आधार पर गड़ ली गई।
पुराणों के अनुसार
बाद में देवताओं ने शुक्राचार्य को भी पुरोहित नियुक्त किया। फिर उनका असुर प्रेम देखकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया। ब्रहस्पति के नाराज होकर जाने पर पुनः शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। फिर शुक्राचार्य को हटाकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया।
शुक्राचार्य जी परम शैव थे। अरब प्रायद्वीप और लगे हुए पूर्वी अफ्रीका में उन्होंने ही शैव पन्थ की स्थापना की थी, जो वेदों को अन्तिम सत्य नहीं मानता था और वेदों की मनमानी व्याख्या करता था। तथा वेद मन्त्रों को उल्टा पढ़कर या भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चारण कर तान्त्रिक प्रयोग करने लगे थे।
शैव मत ईरान में भी मीड सम्प्रदाय के रूप में पनपा और शंकर जी को मीढीश कहा जाने लगा।
अब्राहम का अब्राह्म मत शिवाई कहलाता है जिसे अरबी में सबाइन और साबई मत कहते हैं।
इसी सबाइन मत से दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम और वहाबी पन्थ बने।
शुक्राचार्य के पुत्र भी त्वष्टा ने टर्की और युनान के निकट क्रीट द्वीप पर शाक्त पन्थ की नीव रखी। यह शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय बना।
भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाया। सिन्धु नदी के आसपास मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में तान्त्रिक पद्धति की मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ इन्ही शिष्णेदेवाः तान्त्रिकों के प्रमाण है, जिन्हें वेदों में घोर निन्दनीय और बहिष्कृत मत कहा गया है।
इस तन्त्र मत के लोग वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं मानते हैं। बचपन से ग्रहत्याग कर प्रथक संघ बनाकर घोर तामसिक तप करते हैं।
कालान्तर में यह श्रमण मत कहलाया जिसके दो रूप आस्तिक (वेदों को अंशतः मानने वाले) और नास्तिक (वेदों को न मानने वाले)
नास्तिक मत वालों के भी दो रूप वर्तमान में भी पाये जाते हैं। इसमें नाथ ईश्वरवादी हैं। तथा जैन अनीश्वरवादी हैं। श्रमण सम्प्रदाय के प्रमुख शंकर जी हुए। ईश्वर वादी शंकर जी को अपना इष्ट देवता मानते हैं और जैनों के आदर्श हैं।
इस प्रकार श्रमण सम्प्रदाय में तीन प्रमुख मत हुए ।
1 सिद्ध (नागा) सम्प्रदाय ईश्वर वादी और वेदों के प्रति आस्तिक हो गये। सिद्ध सम्प्रदाय के नागाओं को आद्य शंकराचार्य जी ने अपनी सेना के सैनिक बनाया।
2 नाथ सम्प्रदाय जो अ वैदिक ही रहे। लेकिन ईश्वर वादी हुए और भगवान शंकर को अपना इष्ट बनाया।
तथा
3 जैन सम्प्रदाय जो शुद्ध नास्तिक (वेदों को न मानने वाले) और अनिश्वर वादी होते हैं।
जैन सम्प्रदाय से ही बौद्ध मत निकला। लेकिन कुछ लोग बौद्ध परम्परा को सन्देह वादी स्वतन्त्र मत मानते हैं
भारत से बाहर ईरान का मीढ सम्प्रदाय लगभग नाथ सम्प्रदाय का ही रूप था। अफगानिस्तान के पिशाच और तुर्किस्तान में भी नाथ ही थे।
तिब्बत में नागाओं का गढ़ हुआ करता था। ये ही बाद में बौद्ध हो गये। सिद्धार्थ गोतम बुद्ध जो जन्मतः श्रमण सम्प्रदाय के प्रति आस्थावान थे। लेकिन उन्हें श्री आलार कलाम ने हठयोग और सांख्य दर्शन में दीक्षित कर दिया। बाद में श्री रुद्रक रामपुत्र से भी शिक्षा ली थी। लेकिन जन्मगत आस्था को भी वे छोड़ नहीं पाये। कुछ समय जैन आचार्यों की सङ्गति में रहकर कठोर तामसिक तप भी किया। और गणधर बुद्ध कहलाये। लेकिन सन्तुष्ट नहीं हो पाये। इसलिए अपना सन्देहवादी माध्यमिक दर्शन के साथ प्रथक मत स्थापित किया।
तान्त्रिक परम्परा के अनुयाई होने के कारण बौद्धों की एक शाखा वज्रयान सम्प्रदाय शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय हो गया। तिब्बत के नागालोग वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयाई हो गये।
इस बौद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय में यमराज को इष्ट मानने वाला और मृत्यु को ही अन्तिम सत्य मानने वाला सम्प्रदाय भी था। जो उछल-उछल कर साधना करता था।
प्राचीन काल में वैदिक मत में सबसे अन्त में पराकाष्ठा पर पहूँचे ऋषि सप्त ऋषि बन गये।
उनके बाद भगवान श्रीकृष्ण, वेदव्यास जी आदि हुए।
वर्तमान युग में भगवान आद्य शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य आदि हुए। सबसे अन्त में दयानन्द सरस्वती हुए।
तन्त्र मत में आदिकाल में त्वष्टा पुत्र विश्वरूप पराकाष्ठा पर पहूँचे। जिनका वध इन्द्र को करना पड़ा।
फिर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन हुआ, जिसका वध भगवान परशुराम जी को करना पड़ा।
हठयोग में पराकाष्ठा पर रावण पहूँचा जिसका वध भगवान श्री रामचन्द्र जी को करना पड़ा ।
फिर कन्स, शिशुपाल और कालनेमी और जरासंध हुए। कन्स और शिशुपाल वध भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयम् किया और कालनेमी और जरासंध का वध नीतिकौशल से भगवान श्रीकृष्ण ने करवाया।
तान्त्रिक क्रकच द्वारा भगवान आद्य शंकराचार्य जी की बलि चढ़ाने की कपट योजना का अन्त उनके शिष्य पद्मपादाचार्य ने नृसिंह आवेश आह्वान कर क्रकच का वध कर किया और कापालिक उग्र भैरव का वध स्वयम भैरव ने कर दिया; भैरव स्वयम् प्रकट होकर कापालिक उग्र भैरव को खा गए।
ऐसी ही एक अन्य कथा के अनुसार अभिचार मन्त्र प्रयोग कर भगवान आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा के कोई शंकराचार्य जी को भगन्दर रोग पैदा कर मारने के इच्छुक कामरूप असम के तान्त्रिक अभिनव गुप्त का वध भगवान (आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा में हुए किसी) शंकराचार्य जी के शिष्य पद्मपादाचार्य जी को भगवान नृसिंह का आह्वान कर करवाना पड़ा।
ऐसे ही
वर्तमान में लाहिड़ी महाशय आदि नाथ लोग हुए। एवम् तिब्बत में स्थित तथाकथित ज्ञानगञ्ज में बैठे कुछ सिद्ध गण हैं, जिनका मत हैकि, सृष्टि सञ्चालन में उनका हस्तक्षेप है।
वर्तमान में श्री भगवतानन्द गुरु के पिता श्री भी यम राज के निग्रह मत के अनुयाई हैं। जिन्होंने श्री भगवतानन्द गुरु को निग्रहाचार्य बनाया।
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