जन्मना उक्त सभी दूग्ध उत्पादन है।
संस्कार से दहीं बनते हैं। केवल रङ्ग रोगन करना वाह्य संस्कार है जबकि मूल स्वरूप में ही परिवर्तन ही आन्तरिक और वास्तविक संस्कार है। दूध में रासायनिक परिवर्तन होकर दही बनता है अब उसे वापस दूध नहीं बना सकते वैसे ही एक जन्म में संस्कारित होने पर दुबारा शुद्र नहीं बनता। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कर्मयोगी का पतन नहीं होता आगे ही बढ़ता है।
(विचार) मन्थन (स्वाध्याय) से मक्खन (विवेक) और छाँछ (बुद्धि) अलग-अलग होकर (विप्र) बने, तप कर घी (ब्राह्मण) बने।
जन्मना जायते शूद्र:संस्कारात् भवेत् द्विज:। वेद पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:।।
(स्कन्द पुराण:नागर खण्ड:18.6)
वेदाध्ययन करके द्विज से विप्र (विद्वान) तो हो जाता है, बुद्धि द्वारा विश्लेषण कर विवेक से निष्कर्ष निकालना भी सीख लेता है, लेकिन मनेन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं होने से न चाहकर भी अधर्म में प्रवृत्त होनें से बच नहीं पाता।
इसलिए
सर्वधर्म पालन में कष्ट सहन कर तितिक्षा के माध्यम से सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण-उत्सर्जन करते भी समाधि में लीन रहते हुए तप करके आत्मज्ञानी ब्राह्मण होता है।
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