मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

होरा शास्त्र अर्थात फलित ज्योतिष के ग्रन्थ।

होरा शास्त्र या जातक शास्त्र (फलित ज्योतिष) के कुछ प्रमुख ग्रन्थ-

 वृद्ध गर्ग रचित 1 *गार्गीय-ज्योतिष* ।
2 *गर्ग-संहिता* ।
 3 *गर्ग होरा* ।

 वराहमिहिर रचित 
4 *वृहत् संहिता* 
5 *बृहज्जातकम्* ।
6 *लघुजातक* ।
7 *दैवज्ञवल्लभ* ।

 महर्षि पराशर रचित
8 *बृहद पाराशर होराशास्त्र* 

9 *लघु पाराशरी* 

 महर्षि जैमिनि रचित 
10 *जैमिनीसूत्र* ।

आचार्य केशव देवज्ञ रचित 
11 *केशवीय जातक पद्धति* 

 कल्याणवर्मा रचित 
12 *सारावली* 

 मन्त्रेश्वर रचित 
 13 *फलदीपिका* 

 वैद्यनाथ दीक्षित रचित 
14 *जातक पारिजात* 

गणक कालिदास
15 *उत्तरकालामृतम्* 

 गणेश दैवज्ञ रचित 
 16 *जातकालंकार* 

महादेव रेवाशंकर पाठक (रतलाम) रचित 
 17 *जातकतत्त्व* 

व्यंकटेश शर्मा रचित 
 18 *सर्वार्थ चिन्तामणि* 

जनार्दन हरजी रचित 
 19 *मानसागरी* 

व्यंकटेश देवज्ञ रचित
 20 *सर्वार्थचिन्तामणि* 

आचार्य बलभद्र रचित 
21 *होरारत्न* 

मेलपातुर नारायण भट्टतिरि रचित 
22 *चमत्कारचिन्तामणि* 

 राजा स्फुजिध्वज रचित 
 23 *स्फुजिध्वज होरा* 
या
24 *यवनजातक* 

पृथुयासस रचित 
 25 *होरासार* 

आचार्य नीलाकण्ठ रचित 
 26 *ताजिकनीलकण्ठी* 

प्रणकट्टु नम्बूतिरी रचित 
27 *प्रश्नमार्ग* 
गोविन्द भट्टतिरि रचित 
 28 *दशाध्यायी* 

29 *षट्पञ्चाशिका* 
30 *देवकेरलम्* 
31 *कृष्णीयम्* 
 32 *शम्भुहोराप्रकाश*

फलित ज्योतिष में होरा शास्त्र और ताजिक, दशा और गोचर का महत्व।


जिनका जन्म शुक्ल पक्ष में सिंह होरा में हुआ हो या कृष्ण पक्ष में कर्क होरा में हुआ हो उनका फलित देखने हेतु विंशोत्तरी महादशा-अंतर्दशा-प्रत्यन्तर दशा के अलावा षोडश वर्षीय दशा अन्तर्दशा प्रत्यन्तर दशा भी देखते हैं। और प्रश्न के विचारणीय विषय में महादशाशेश - अन्तर्दशेश - प्रत्यन्तर्दशेश के गोचर को ही अधिक महत्व देते हैं। उसमें भी विंषोत्तरी और षोडशोत्तरी महादशा के ग्रहों के नक्षत्रों में ग्रह का भ्रमण भी महत्वपूर्ण मानते हैं।
भारत में अष्टकवर्ग के बलाबल के आधार पर गोचर (ट्रांजिट) देखा जाता है।
युरोप में दशा नहीं चलती, वहाँ गोचर से ही घटना का दिन ज्ञात किया जाता है। वे कुण्डली में और गोचर में ग्रहों में परस्पर अंशात्मक दृष्टियोग के आधार पर फलित करते हैं।

वर्ष फल की यह भी एक विधि है, पूर्व में ईराक में प्रचलित ताजिक को ताजिक नीलकण्ठ नामक ग्रन्थ रचकर भारत में प्रचलित किया गया। इसलिए इसमें अधिकांश तकनीकी शब्द अरबी के हैं। मुन्था और मुन्था दशा इसी ताजिक वर्षफल शास्त्र में उल्लेखित है। इसमें नक्षत्रीय सौर वर्ष अर्थात निरयन सौर वर्षमान के अनुसार जन्मदिन समय से ठीक एक-एक वर्ष बाद का लग्नादि भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट देखते हैं।
मुझे यह बहुत अविकसित पद्यति लगती है।
युरोप में सायन सौर वर्ष के आधार पर ही वर्ष कुण्डली बनाते हैं। लेकिन मुन्था और मुन्था दशा तथा इत्यशाल आदि योग नहीं देखते हैं।


गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

वैदिक नव संवत्सर

वेदिक युग में नवसंवत्सरोत्सव, वसन्तोत्सव, नव सस्येष्टि ये सभी उत्सव उस दिन मनाये जाते थे जिस दिन सुर्य ठीक भूमध्यरेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश.करता है। उस दिन दिन - रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सुर्यास्त होता है । सुर्योदय सुर्यास्त के समय सुर्य भूमध्य रेखा पर होने के कारण सुर्योदय ठीक पुर्व दिशा में और सुर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है।उस दिन मध्याह्न की छाँया देखकर स्व स्थान का अक्षांश देशान्तर ज्ञात करना आसान होता है। उक्त दिवस को महा विषुव, और वसन्त विषुव कहा जाता है। इसे ज्योतिषीय भाषा में सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं। मूलतः कलियुग संवत का आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति से होता है।

22 मार्च 1957 से भारत शासन ने भी भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर के रुप में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। 

पहले लगभग पुरे विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में वेद ही सर्वमान्य धर्म ग्रन्थ थे। चाहे सबने अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अलग-अलग अर्थ लगाये। लेकिन एशिया, यूरोप और पूर्वी अफ्रीका में अथर्ववेद और कृष्ण यजुर्वेद सर्वमान्य धर्मशास्त्र थे। जरथ्रुस्त के पहले ईरान में अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता प्रचलित था। इसी अवेस्ता की जेन्द टीका कर जुरथ्रस्थ ने जेन्दावेस्ता ग्रन्थ रचा।

इसलिए वसन्त विषुव 20/21 मार्च को नववर्ष मनाया जाता था। जमशेदी नवरोज नामक पारसी नववर्ष आज भी इसी दिन मनाते हैं। 

सऊदी अरब और ईराक में भी सायन मेष संक्रान्ति वाले माह के आसपास वाले दो माह वसन्त ऋतु आरम्भ के पु्र्व वाला माह और वसन्त विषुव से वसन्त ऋतु प्रारम्भ के बाद वाला माहों को रबीउल अव्वल और रबीउस्सानी कहते हैं।

चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है।

ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार 1975 ईस्वी के पहले यह प्रायः 20 मार्च को पड़ता था एवम् 1975 ई. के बाद आगामी हजारों लाखों वर्ष तक यह अधिकांशतः 21 मार्च को होता है और होगा।

चुँकि, ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष गणना आधारित केलेण्डर है तथा चार वर्षों में प्लुत वर्ष में एक दिन बढ़ा कर,तथा प्रति 100 वर्षों में प्लुत वर्ष नही करना जैसे सन 1900 ई. में फरवरी 28 दिन का ही था और प्रत्येक 400 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष करना जैसे फरवरी 2000ई. 29 दिन का था।और प्रत्यैक 4000 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष न करना इस प्रकार ग्रेगोरियन केलेण्डर में स्थाई रुप से एक दिन या एक तारीख का अन्तर हजारों लाखों वर्ष में ही आयेगा। तब सायन मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ने लगेगी।

नक्षत्रीय सौर संवत्सर ---

इसके अतिरिक्त वेदिक काल में ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा नाक्षत्रिय गणना आधारित वर्षगणना प्रचलित की। इस पद्यति में नाक्षत्रिय या निरयन मेष संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ होता है। आज भी पञ्जाब, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु, केरल आदि अनेक राज्यों में निरयन मेष संक्रान्ति से ही संवत्सरारम्भ होता है। मूलतः युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत निरयन मेष संक्रान्ति से ही आरम्भ होता है।

सन 285 ईस्वी में दिनांक 22 मार्च 285 ई. को सायन और निरयन मेष संक्रान्ति एकसाथ हुई थी। तब से लगभग हर 71 वर्ष में निरयन मेष संक्रान्ति एक दिनांक बाद में होते होते आजकल दिनांक 14 अप्रेल को होने लगी है।अर्थात 1735 वर्षों में 24 दिन का अन्तर पड़ गया है। सन 2189 में 22 अप्रेल को निरयन मेष संक्रान्ति आयेगी। ऐसे ही तथा 12890 वर्ष में पुरे छः मास का अन्तर पड़ जायेगा। और 25780 वर्ष में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ने से सायन कलियुग संवत 28882 और निरयन युधिष्ठिर संवत 28881 होगा यानि एक वर्ष का अन्तर होगा।


नक्षत्रीय सौर- चान्द्र संवत्सर 

उत्तर भारत में कुशाण राजाओं विशेषकर कनिष्क द्वारा और दक्षिण भारत में सातवाहन राजाओं विशेषकर शालिवाहन सातकर्णि द्वारा चलाये गये निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

निरयन मीन राशि में सुर्य हो तब अर्थात वर्तमान में लगभग 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जो अमावस्या होती है उसी समय से निरयन सौर संस्कृत शक संवत का वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष नया शकाब्ध आरम्भ होता है। किन्तु व्यवहार में उसके दुसरे दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्ध आरम्भ होता है।

जब दो संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े या यों कहें कि जब दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो वह क्षय मास कहलाता है सन 1983 ई. में आश्विन मास क्षय हुआ था। इसके पहले 1964 ई. में भी क्षय मास आया था। माघ मास को छोड़ कोई भी मास क्षय हो सकता है। क्षय मास वाले वर्ष में क्षय मास के पहले और बादमें अधिक मास पड़ते हैं। ऐसा प्रत्यैक 19 वर्ष, 122वर्ष और 141 वर्ष में होता है। 1963 ई. में 141 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था।सन 1964 ई. के बाद 1983 ई. में 19 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था और अब 122 वर्ष बाद वाला क्षय मास सन 2105 ईस्वी में पड़ेगा।

इसी 19 वर्ष, 122 वर्ष, 141 वर्षों के क्रम से निरयन सौर संस्कृत संवत्सर मे पञ्चाङ्ग के मास, तिथि, करण, नक्षत्र, और योग तथा सुर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहणों की आवृत्ति होती रहतीहै।

इसी प्रकार जब दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े या यों कहें कि अमावस्याओं के बीच कोई संक्रान्ति न पड़े तो अधिक मास होता है। ये चैत्र से कार्तिक तक कोई भी मास अधिकमास हो सकता है।

माघ मास न क्षय होता है न अधिक होता है।

ऐसे अधिक मास और क्षय मास के प्रावधान कर 354 दिन के चान्द्र वर्ष को 365.256363 दिन के निरयन सौर वर्ष से बराबरी कर ली जाती है।

अब चुँकि अभी निरयन मीन संक्रान्ति 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच पड़ती है इसलिये 15 मार्च से 13 अप्रेल के बीच ही शकाब्ध आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पड़ती है। लगभग 1130 वर्ष बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अप्रेल माह में ही पड़ा करेगी।

सुचना ---
पुराणों में लिखा है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की।
लेकिन जब चन्द्रमा की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि होना सम्भव ही नहीं है।
1 चन्द्रमा भूमि का उपग्रह है। इसलिए पहले भूमि बनी तभी उसका उपग्रह चन्द्रमा बन पाया।
 चन्द्रमा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि, किसी ग्रह या उल्का के भूमि के टकराव से भूमि का एक टुकड़ा टूट कर भूमि की परिक्रमा करने लगा जो चन्द्रमा कहलाया, और भूमि पर उस स्थान पर प्रशान्त महासागर बन गया।
2 पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा 
(क) चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से हुई।
(ख) चन्द्रमा की उत्पत्ति देवराज पुरन्दर इन्द्र और असुर राजा बलि के समय समुद्र मन्थन में हुई।
(ग) महर्षि अत्रि और अनुसुया का पुत्र चन्द्रमा हुआ।
तीनों सिद्धान्त यह मानते हैं कि, चन्द्रमा की उत्पत्ति सृष्टि उत्पत्ति के बहुत बाद में हुई।
तो चैत्र मास, शुक्ल पक्ष और प्रतिपदा तिथि भी चन्द्रमा की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है।

सुचना -

1 प्लुत वर्ष यानि अन्तिम माह में एक दिन अधिक होना । पहले फरवरी अन्तिम माह था। जुलियन सीजर ने जनवरी को प्रथम मास घोषित किया। अतः अन्तिम मास में एक दिन बढ़ाया गया।

2 भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के गोलाध्याय (यानि खगोल विज्ञान और भुगोल) में पुरे विश्व के लिये पुर्व पश्चिम दिशा भूमध्यरेखा पर ही मान्य है। वेध लेनें वाले के अक्षांश पर पुर्व पश्चिम मानने से पुर्व पश्चिम दिशा अर्थहीन हो जायेगी। क्यों कि प्रत्यैक देशान्तर के लिये तो पुर्व पश्चिम अलग अलग होती ही है। भारत वासियों का पुर्व और अमेरिका वासियों का पश्चिम लगभग एक ही होता है। ऐसे में यदि अलग अलग अक्षांशों पर उत्तराभिमुख खड़े हुए व्यक्ति द्वारा वेध लेनें वाले के 90° दाँयें बाँयें पुर्व पश्चिम मानें तो कम्युनिकेशन असम्भव सा होजायेगा। सभी अक्षांशों के पुर्व पश्चिम अलग अलग होंगें।

3 जब सुर्य को केन्द्र मानकर देखनें पर भूमि चित्रा नक्षत्र के सम्मुख दिखे यानि सुर्य, भूमि और चित्रा नक्षत्र का तारा एक पङ्क्ति में दिखे। केन्द्रीय ग्रह स्पष्ट में भूमि चित्रा नक्षत्र के योग तारा का भोग एक ही हो या जब चित्रा तारे से भूमि की युति हो तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष गणना लागु करने का प्रयोग काशी के बापुशास्त्री जी ने किया था और कई वर्षों तक सायन सौर संस्कृत पञ्चाङ्ग प्रकाशित किया। किन्तु धर्माचार्यों के असहयोग और लोकप्रिय नही होने के कारण उन्हें प्रकाशन बन्द करना पड़ा। खेर।

ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं 

कविता आदर्श नगर रोहतक हरियाणा के उदयीमान युवा कवि श्री अङ्कुर आनन्द द्वारा रचित है। जो उनके काव्यसंग्रह "कलम जब ठान लेती है" के पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित है। श्री अङ्कुर आनन्द भारत संचार निगम लिमिटेड में कार्यरत हैं।

इस काव्य संग्रह की एक प्रति श्री अंकुर आनन्द ने स्वयम् आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश जी को भेंट की है।

बुधवार, 25 दिसंबर 2024

सनातन धर्म के मुख्य संवत्सर पत्रक (केलेण्डर) और विषुव तथा अयनान्त संक्रान्ति का समय।

वैदिक सनातन धर्म के अनुसार वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय, शारदीय विषुव और और उत्तरायण - दक्षिणायन के अयनान्त के समय तीर्थ स्नान, होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

वसन्त विषुव (Vernol Equinox) दिनांक 20 मार्च 2025 गुरुवार को 14:31 बजे अर्थात दोपहर 02:31 बजे होगा। इस समय हमारा वैदिक नव संवत्सर (नव वर्ष) प्रारम्भ होता है। जिसे धार्मिक दृष्टि से इसके बाद सूर्योदय से (21 मार्च 2025 शुक्रवार से) लागू माना जाता है। वसन्त विषुव के समय सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए भूमि की भूमध्य रेखा के शीर्ष पर पहूँच जाता है। और दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त हो जाता है। वेदों के अनुसार इसे देवों कि दिन प्रारम्भ और पितरों की रात्रि प्रारम्भ कहा गया है।
वैदिक नव संवत्सर प्रारम्भ दिवस —- वसन्त विषुव या वसन्त सम्पात दिवस (20/21 मार्च) जिस दिन दिन रात बराबर होते हैं।  यह एक मात्र पूर्णतः वैज्ञानिक ऋतुबद्ध संवत है। इसे कलियुग संवत से दर्शाया जाता है। लेकिन वर्तमान में हिन्दुओं नें वेदों से परहेज़ कर लिया है इसलिए यह वैदिक, वैज्ञानिक, और वास्तविक नववर्ष दिवस मनाना बन्द कर दिया है।
वसन्त विषुव प्रति वर्ष 20 या 21 मार्च को पड़ता है। क्योंकि कलियुग संवत और ग्रेगरी केलेण्डर दोनों ही सायन सौर केलेण्डर हैं। गोल, ऋतु और ग्रेगोरी केलेण्डर के अनुसार माहों के प्रारम्भ दिनांक और मास अवधि निम्नानुसार है ---
उत्तर गोल। 
वसन्त ऋतु।
1 मधु मास , 21 मार्च से, 31 दिन।
2 माधव मास, 21 अप्रेल से, 31 दिन। 
ग्रीष्म ऋतु।
3 शुक्र मास, 22 मई से, 31 दिन।
4 शचि मास, 22 जून से, 31 दिन। 
वर्षा ऋतु 
5 नभः मास, 23 जुलाई से, 31 दिन।
6 नभस्य मास, 23 अगस्त से, 31 दिन।
दक्षिण गोल।
शरद ऋतु।
7 ईष मास, 23 सितम्बर से, 30 दिन।
8 उर्ज मास, 23 अक्टूबर से, 30 दिन।
हेमन्त ऋतु।
9 सहस मास, 22 नवम्बर 30 दिन।
10 सहस्य मास, 22 दिसम्बर से 29 दिन।
शिशिर ऋतु।
11 तपः मास, 20 जनवरी से, 30 दिन।
12 तपस्य मास, 19 फरवरी से, 30 या 31 दिन होते हैं।
साधारण तीन वर्ष में 30 दिन और प्रत्येक चौथे वर्ष (अधिवर्ष में) 31 दिन का मास होता है।
मासावधि मन्दोच्च पर आधारित होती है। मन्दोच्च 13,384 वर्ष में आवर्तन पूर्ण करता है। अत: प्रत्येक 1074 वर्ष में एक माह पहले वाला माह 29 दिन का और उसका सातवाँ माह 31. 5 दिन का हो जाता है। लेकिन अभी लम्बे समय तक ये ही स्थिति रहने वाली है।

ऐसे ही उत्तरायण या ग्रीष्म अयनान्त (Summer solstice) दिनांक 21 जून 2025 शनिवार को प्रातः 08:11 बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी होगा।  इस दिन सबसे बड़ा दिन, सबसे छोटी रात्रि होती है। सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि की कर्क रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है। कर्क रेखा हमारे निकट उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा सङ्गम स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है।
एवम्

शरद विषुव (Autumn Equinox) दिनांक 22 सितम्बर 2025 सोमवार को 23:49 बजे अर्थात रात्रि 11:49 बजे  होगा अतः  इस समय और दूसरे दिन 23 सितम्बर 2025 को सूर्योदय समय भी उपर लिखितानुसार तीर्थ स्नान, यज्ञ, होम, दान-पुण्य कर्म किया जाएगा ।

इसके बाद दक्षिणायन या दक्षिण अयनान्त (Winter Solstice) 21 दिसम्बर 2025 रविवार को 20:32 बजे अर्थात रात्रि 8:32 बजे होगा। अतः दूसरे दिन 22 दिसम्बर 2025 को सूर्योदय समय तीर्थ स्नान, यज्ञ, होम, दान-पुण्य कर्म किया जाता है ।



2 नक्षत्रीय नव संवत्सर प्रारम्भ दिवस —- वेदों में चित्रा तारे को क्रान्तिवृत और उसके आसपास आठ-आठ अंश चौड़ी नक्षत्र पट्टी का मन्ध्य बिन्दु कहा गया है। अतः
जब सूर्य के केन्द्र से भूमि का केन्द्र चित्रा तारे के सम्मुख पड़ता है। अर्थात भूमि के केन्द्र से सूर्य का केन्द्र चित्रा तारे से 180° पर होता है। अर्थात अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ बिन्दु पर सूर्य होता है। तब नक्षत्रीय नव संवत्सर प्रारम्भ होता है। उत्तर वैदिक काल और सुत्र ग्रन्थों के रचना काल से पौराणिक काल तक नक्षत्रीय नव संवत्सर का विशेष महत्व रहा। इसमें वर्तमान में ग्रेगोरी केलेण्डर के अनुसार माहों के प्रारम्भ दिनांक और मास अवधि निम्नानुसार है ---

1 मेष मास, 13 अप्रेल से, 31 दिन। (वैशाखी से)
2 वृषभ मास, 14 मई से, 31 दिन।
3 मिथुन मास, 14 जून से, 32 दिन ।
4 कर्क मास, 16 जुलाई से, 31 दिन ।
5 सिंह मास, 16 अगस्त से,31  दिन ।
6 कन्या मास, 16 सितम्बर से, 31 दिन ।
7 तुला मास, 17 अक्टूबर से, 30 दिन ।
8 वृश्चिक मास, 16 नवम्बर से, 29  दिन ।
9 धनु मास, 15 दिसम्बर से, 30 दिन ।
10 मकर मास, 14 जनवरी से, 29 दिन ।
11 कुम्भ मास, 12 फरवरी से, 30 दिन ।
और 
12 मीन मास,14 मार्च से, 30 दिन ‌होते हैं।
लेकिन ये 71 वर्ष में अगले दिनांक से प्रारम्भ होने लगेगें।
मासावधि मन्दोच्च पर निर्भर है। अतः हर 1074 वर्ष में  31 दिन, 30 दिन या 29 दिन वाली मासावधि  एक माह पीछे वाले माह में चली जाती है।

आज भी पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड में वैशाखी पर्व और विक्रम संवत प्रारम्भ दिवस के रूप में मनाते हैं। बङ्गाल, उड़ीसा, असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर त्रिपुरा, में भी इस दिन नव संवत्सर प्रारम्भ होने का पर्वोत्सव मनाते हैं। इसे विषु के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार तमिलनाडु और केरल में भी यह दिवस नव संवत्सर के रूप में मनाया जाता है। इसे मेषादि के नाम से मनाते हैं। विषु भी कहते हैं। ऋतुओं से इस संवत का सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता, इसलिए यह संवत ऋतु बद्ध नहीं है।
धनुर्मास और मीन मास को खर मास कहते हैं, इसमें संस्कार आदि शुभकार्य वर्जित होते हैं।

3 निरयन सौर चान्द्र शकाब्द —- 
दक्षिण भारत में सात वाहन वंश द्वारा शासित क्षेत्रों महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर भारत में कुषाण वंश द्वारा शासित या प्रभावित गुजरात, राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में  विषु या नक्षत्रीय नव संवत्सर के पहले पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होने वाला शकाब्द को चैत्रादि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा या गुड़ी पड़वा के नाम से मनाया जाता है। लेकिन यह संवत भी ऋतुबद्ध नहीं है। इसमें पूर्णिमा के दिन जिस नक्षत्र पर या जिस नक्षत्र के आसपास चन्द्रमा होता है उस नक्षत्र के नाम के आधार पर निम्नलिखित माह होते हैं। ये प्रायः 29 या 30 दिन की अवधि के होते हैं। प्रत्येक 38 से 58 माह में चैत्र से कार्तिक मास के बीच एक अधिक मास पड़ता है।
इसलिए वह संवत्सर तेरह माह का होता है। इस अधिक मास को मल मास कहते हैं। इसमें संस्कार आदि शुभ कार्य नहीं होते हैं। और 19 वर्ष बाद, फिर 122 वर्ष बाद फिर 141 वर्ष बाद एक क्षय मास पड़ता है। लेकिन क्षय मास के एक-दो मास पहले और क्षय मास के बाद एक अधिक मास पड़ता है। इस कारण क्षय मास वाले संवत्सर में भी तेरह माह होते हैं।
मासारम्भ के दिनांक निम्नानुसार हैं।
सुचना ---
पुराणों में लिखा है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की।
लेकिन जब चन्द्रमा की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि होना सम्भव ही नहीं है।
1 चन्द्रमा भूमि का उपग्रह है। इसलिए पहले भूमि बनी तभी उसका उपग्रह चन्द्रमा बन पाया।
 चन्द्रमा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि, किसी ग्रह या उल्का के भूमि के टकराव से भूमि का एक टुकड़ा टूट कर भूमि की परिक्रमा करने लगा जो चन्द्रमा कहलाया, और भूमि पर उस स्थान पर प्रशान्त महासागर बन गया।
2 पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा 
(क) चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से हुई।
(ख) चन्द्रमा की उत्पत्ति देवराज पुरन्दर इन्द्र और असुर राजा बलि के समय समुद्र मन्थन में हुई।
(ग) महर्षि अत्रि और अनुसुया का पुत्र चन्द्रमा हुआ।
तीनों सिद्धान्त यह मानते हैं कि, चन्द्रमा की उत्पत्ति सृष्टि उत्पत्ति के बहुत बाद में हुई।
तो चैत्र मास, शुक्ल पक्ष और प्रतिपदा तिथि भी चन्द्रमा की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है।


1 चैत्र, 14 मार्च से 12 अप्रैल के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होता है।

2 वैशाख, 14 अप्रेल से 13 मई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

3 ज्येष्ठ, 14 मई से 13 जून के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

4 आषाढ़, 14जन से 15 जुलाई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

5 श्रावण,16 जुलाई से 15 अगस्त के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

6 भाद्रपद, 16 अगस्त से 15 सितम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

7 आश्विन, 16 सितम्बर से 16 अक्टूबर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

8 कार्तिक, 17 अक्टूबर से 15 नवम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

9 मार्गशीर्ष, 16 नवम्बर से 14 दिसम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

10 पौष, 15 दिसम्बर से 13 जनवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

11 माघ, 14 जनवरी से 11 फरवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।
और
12 फाल्गुन 12 फरवरी से 13 मार्च के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

वर्तमान में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/ गुड़ी पड़वा निरयन सौर चान्द्र शकाब्द का प्रारम्भ दिन 14 मार्च से 14 अप्रैल के बीच पड़ता है। प्रत्येक 71 वर्ष में ये एक दिनांक बाद में आने लगता है।

4 सायन सौर चान्द्र संवत —- वसन्त विषुव अर्थात वसन्त सम्पात दिवस के पहले पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होने वाला संवत है। इसे भी शकाब्द और विक्रम संवत दोनों से जोड़ा गया है। ग्रेटर नोएडा के आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा रचित, सम्पादित और प्रकाशित श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम के माध्यम से इसे प्रचलित किया गया है। यह संवत्सर सायन संक्रान्तियो पर आधारित चान्द्रमास वाला पत्रक (केलेण्डर) है; जो, 18 फरवरी से 21 मार्च के बीच में प्रारम्भ होता है इसलिए यह संवत अधिकतम एक महीने के अन्तर से सदैव ऋतुबद्ध रहता है।
इस पत्रक (केलेण्डर) में भी माह  प्रायः 29 या 30 दिन की अवधि के होते हैं। प्रत्येक 38 से 58 माह में चैत्र से कार्तिक मास के बीच एक अधिक मास पड़ता है।
इसलिए वह संवत्सर तेरह माह का होता है। इस अधिक मास को मल मास कहते हैं। इसमें संस्कार आदि शुभ कार्य नहीं होते हैं। और 19 वर्ष बाद, फिर 122 वर्ष बाद फिर 141 वर्ष बाद एक क्षय मास पड़ता है। लेकिन क्षय मास के एक-दो मास पहले और क्षय मास के बाद एक अधिक मास पड़ता है। इस कारण क्षय मास वाले संवत्सर में भी तेरह माह होते हैं।
मासारम्भ के दिनांक निम्नानुसार हैं।

1 चैत्र, 19 फरवरी से 20 मार्च के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

2 वैशाख, 21 मार्च से 20 अप्रैल के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

3 ज्येष्ठ, 21 अप्रेल से 21 मई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

4 आषाढ़, 22 मई से 21 जून के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

5 श्रावण, 22 जन से 22 जुलाई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

6 भाद्रपद, 23 जुलाई से 22 अगस्त के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

7 आश्विन, 22 अगस्त से 22 सितम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

8 कार्तिक, 23 सितम्बर से 22 अक्टूबर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

9 मार्गशीर्ष, 23 अक्टूबर से 22 नवम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

10 पौष, 22 नवम्बर से 21 दिसम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

11 माघ, 22 दिसम्बर से 19 जनवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।
और
12 फाल्गुन, 20 जनवरी से 18 फरवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है। 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

वसन्त सम्पात और चित्रा तारे से भूमि और सूर्य के बीच बनने वाले 000°, 90°, 180° और 270° के कोण के आधार पर सनातन वैदिक धर्म के आठ महत्वपूर्ण और मुख्य पर्वोत्सव।

*वसन्त सम्पात और चित्रा तारे से भूमि और सूर्य के बीच बनने वाले 000°, 90°, 180° और 270° के कोण के आधार पर सनातन वैदिक धर्म के आठ महत्वपूर्ण और मुख्य पर्वोत्सव।* 

दक्षिणायन या शीतकालीन अयनान्त या (Winter solstice) दिनांक 21 दिसम्बर 2024 शनिवार को 14:51 बजे अर्थात दोपहर 02:51 बजे हुआ। इस दिन सबसे छोटा दिन तथा सबसे बड़ी रात्रि होती है। इस दिन सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि के मकर रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है।
निरयन मकर मासारम्भ 14 जनवरी 2025 मङ्गलवार को प्रातः 08:56 बजे होगा। इसदिन प्रयागराज महाकुम्भ में मुख्य स्नान होगा।
अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 270°° पर अर्थात चित्रा तारे से 90° पर निरयन मकरादि बिन्दु माना जाता है। जिस समय सूर्य निरयन मकरादि बिन्दु पर होता है उस समय से निरयन मकर मासारम्भ होता है। इसे परम्परा से मकर संक्रान्ति भी कहते हैं। इस दिन प्रयागराज में स्नान तथा केरल में अय्यप्पा मन्दिर में दर्शन विशेष परम्परा है।

सनातन धर्म में नव संवत्सर अर्थात नव वर्षारम्भ का पर्व भूमि और सूर्य तथा नक्षत्र मण्डल की स्थिति के आधार पर निम्नलिखित दिनों में मनाया जाता है। इसमें वसन्त विषुव नव संवत्सर प्रारम्भ तथा शरद विषुव और अयनान्त (उत्तरायण और दक्षिणायन संक्रान्ति) मुख्य हैं। इन दिनों में वैदिक सनातन धर्म के अनुसार और वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय और अयनान्त के समय गङ्गा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, शिप्रा, पुष्कर, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, सौरों, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, द्वारिका, रामेश्वरम के तीर्थों में स्नान,  होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
कर्क रेखा उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा- सरस्वती (कान्ह नदी का सङ्गम पर) त्रिवेणी पर स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है। इसी प्रकार प्राकृतिक रूप से ॐ आकृति की पर्वत पर ॐकारेश्वर और उसी के सामने नर्मदा के दुसरे तट पर ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग है। समीप ही नर्मदा और कावेरी नदी का सङ्गम है‌।
अतः इन तीर्थ स्थल पर स्नान दान, होम- हवन किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

 
वसन्त विषुव (Vernol Equinox) दिनांक 20 मार्च 2025 गुरुवार को 14:31 बजे अर्थात दोपहर 02:31 बजे होगा। इस समय हमारा नव संवत्सर (नव वर्ष) प्रारम्भ होता है। जिसे धार्मिक दृष्टि से इसके बाद सूर्योदय से लागू माना जाता है। वसन्त विषुव के समय सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए भूमि की भूमध्य रेखा के शीर्ष पर पहूँच जाता है। और दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त हो जाता है। वेदों के अनुसार इसे देवों कि दिन प्रारम्भ और पितरों की रात्रि प्रारम्भ कहा गया है।
वैदिक सनातन धर्म के अनुसार अयनान्त समय और वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय तीर्थ स्नान, होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

ऐसे ही उत्तरायण या ग्रीष्म अयनान्त (Summer solstice) दिनांक 21 जून 2025 शनिवार को प्रातः 08:11बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी किया जाता है। इस दिन सबसे बड़ा दिन, सबसे छोटी रात्रि होती है। सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि की कर्क रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है। कर्क रेखा हमारे निकट उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा सङ्गम स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है।
एवम्

शरद विषुव (Autumn Equinox) दिनांक 22 सितम्बर 2025 सोमवार को 23:49 बजे अर्थात रात्रि 11:49 बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी उपर लिखितानुसार कर्म किया जाता है ।

इसके बाद दक्षिणायन या दक्षिण अयनान्त (Winter Solstice) 21 दिसम्बर 2025 रविवार को 20:32 बजे अर्थात रात्रि 8:32 बजे होगा।

निरयन मकर मासारम्भ 14 जनवरी 2025 मङ्गलवार को प्रातः 08:56 बजे होगा। इसदिन प्रयागराज महाकुम्भ में मुख्य स्नान होगा।

इसी प्रकार वेदों में चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के मध्य में अर्थात 180° पर माना गया है। इसलिए नक्षत्र पट्टी का प्रारम्भ 000° चित्रा तारे से 180° पर स्थित बिन्दु से माना जाता है। इसे अश्विन्यादि बिन्दु कहते हैं। वराहमिहिर के बाद प्रचलित तीस अंशों वाली राशि प्रणाली अपनाई जाने के बाद इस बिन्दु को निरयन मेषादि बिन्दु भी कहते हैं। संयोग से वर्तमान में उस स्थान पर कोई तारा स्थित नहीं है। लेकिन किसी समय इस 000° बिन्दु पर रेवती तारा स्थित था जो वर्तमान में लगभग चार अंश से अधिक खिसक चुका है।
जब भू केन्द्र से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होता है तब निरयन मेष मास प्रारम्भ होता है। इसी दिन से नाक्षत्रीय सौर नव संवत्सर प्रारम्भ होता है जिसे निरयन सौर वर्ष का प्रारम्भ कहते हैं। 
दिनांक 13 उपरान्त 14 अप्रेल 2025 रविवार Monday को उत्तर रात्रि 03:22 बजे निरयन मेषारम्भ मास वैशाखी कि प्रारम्भ होगा। अतः संकल्पादि में पञ्जाब हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में विक्रम संवत 2082 का प्रारम्भ होगा।
इस दिन से पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में विक्रम संवत प्रारम्भ होता है।
बङ्गाल,उड़ीसा, और उत्तर पूर्व के राज्य असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा आदि मे, तथा तमिलनाडु और केरल में भी नव संवत्सर (नव वर्ष) मनाया जाता है।

अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 90° पर अर्थात चित्रा तारे से 270° पर निरयन कर्कादि बिन्दु माना जाता है। 
जिस समय सूर्य निरयन कर्कादि बिन्दु पर होता है तब निरयन कर्क मास प्रारम्भ होता है।
दिनांक 16 जुलाई 2025 बुधवार को 17:32 बजे अर्थात दिन में 05:33 बजे निरयन कर्क मास प्रारम्भ होगा।

ऐसे ही चित्रा तारे से निरयन तुलादि तुला राशि का प्रारम्भ होता है। अर्थात अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 180° पर निरयन तुलादि बिन्दु कहते है।
जिस समय सूर्य चित्रा तारे पर होता है तब से निरयन तुला मासारम्भ होता है।
दिनांक 17 अक्टूबर 2025 को 13:46 बजे अर्थात दोपहर 01:46 बजे निरयन तुला मासारम्भ होगा।

अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 270°° पर अर्थात चित्रा तारे से 90° पर निरयन मकरादि बिन्दु माना जाता है। जिस समय सूर्य निरयन मकरादि बिन्दु पर होता है उस समय से निरयन मकर मासारम्भ होता है। इसे परम्परा से मकर संक्रान्ति भी कहते हैं। इस दिन प्रयागराज में स्नान तथा केरल में अय्यप्पा मन्दिर में दर्शन विशेष परम्परा है।
14 जनवरी 2026 बुधवार को 15:05 बजे अर्थात दोपहर 03:05 बजे निरयन मकर मास प्रारम्भ होगा।
उक्त चारों दिवसों को भी सायन संक्रान्तियों के समान ही पर्व मनाया जाता है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

मनुस्मृति

प्रजापति से उत्पन्न भूलोक के चार प्रजापति (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
तथा चौथे स्वायम्भूव मनु हुए।
उक्त तीनों प्रजापतियों की सन्तान ब्रह्मज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। 
इसके अलावा प्रजापति से उत्पन्न ये ऋषि हुए जिनकी पत्नियाँ दक्ष- प्रसुति की पुत्रियाँ थी।⤵️
(1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। 
इनकी सन्तान भी वैदज्ञ विप्र और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए।
प्रजापति से उत्पन्न अग्नि - स्वाहा तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) तथा अर्यमा-स्वधा की भी सन्तान हुए। धर्म की कुछ सन्तान हरियाणा के कुरुक्षेत्र में ही रही। दृविण की की सन्तान दक्षिण भारत में बसी जो दविड़ कहलाई।
महारुद्र शंकर जी ने स्वयम् को दश रुद्र स्वरूप में प्रकट किया जिनके नाम (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली हैं। इन्हीं के साथ उमा ने भी स्वयम् को दस रौद्रियों के रूप में प्रकट किया। जो रुद्रों की पत्नियाँ हुई। 
इनमें से अधिकांश अरब प्रायद्वीप और पूर्वी अफ्रीका में फैल गये। 
स्वायम्भूव मनु की के पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत राजन्य (राजा) हुए।
भारत का राज्य प्रियव्रत शाखा के हिस्से का है।
लेकिन सप्तम (वैवस्वत) मन्वन्तर के प्रारम्भ में हुए जल प्रलय के बाद स्वायम्भूव मनु की सन्तान परम्परा मनुर्भरत नहीं रहे। अब सभी वैवस्वत मनु के पुत्रों से सूर्यवंशी और पुत्री (ईला) से चन्द्रवंशियों के राज्य रहे।
सूर्यवंशियों से ही वैश्य हुए सूर्यवंशियों और चन्द्रवंशियों के मिश्रण से शुद्र हुए।
प्राचीन काल में स्वायम्भूव मनु का धर्मशास्त्र मानव धर्मशास्त्र मनुर्भरतों का संविधान और विधि-विधान (कानून) था।
वर्तमान में प्राप्त और प्रचलित स्मृतियाँ स्वायम्भूव मनु के धर्मशास्त्र और अन्य ऋषियों के धर्मशास्त्र की स्मृति के आधार पर रचित ग्रन्थ हैं। ये स्मृतियाँ प्राचीन स्मृतियों के आधार पर किसी राज्य का संविधान और विधि-विधान (कानून) की संहिता थी। जो समय समय पर संशोधन होती रही है।

संख्यात्मक संयोगों को धर्म, ज्योतिष और विज्ञान और तकनीकी से जोड़ना व्यर्थ का आडम्बर है।


प्रकृति में कई चीजे ऐसी जिनमें संख्यात्मक समानता पाई जाती है। लेकिन उनका परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता है।  मेसोपोटामिया (प्रायः अरब प्रायद्वीप) मूल की बारह राशियों का द्वादश ज्योतिर्लिंगों से
संख्यात्मक साम्य होना मात्र संयोग है।
महाभारत काल तक भारत में अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे, लेकिन क्रान्तिवृत से नौ अंश उत्तर दक्षिण में फैली नक्षत्र पट्टी से अभीजित तारे के  बाहर की ओर विचलित होने के कारण अभिजित नक्षत्र का नक्षत्र दर्जा हटा कर अ समान भोग वाले सत्ताइस नक्षत्र स्वीकार कर लिये गये। जिसमें नक्षत्र चरण का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि चित्रा नक्षत्र केवल चित्रा तारे के आसपास एक अंश के लगभग का ही है। अतः असमान भोगांश वाली तेरह राशि और असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्रों में नक्षत्र चरण रूपी नवांश वाली अवधारणा निरर्थक ही सिद्ध होती है।
पश्चिम टर्की (तथाकथित ग्रीक), मिश्र और इराक में प्रचलित बारह राशिया भारत में पूर्णतः अप्रचलित थी।
सर्वप्रथम विक्रमादित्य और वराहमिहिर के समय भारत में बारह राशियों को अपनाया गया। लेकिन वराहमिहिर ने भी असमान भोगांश वाले तेरह अरों की बात भी कही है। जो आकृतियों के अनुसार नामकरण की गई आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह साइन (राशियों) से मैल खाती है।
द्वादश आदित्यों का सम्बन्ध द्वादश मास से जोड़ा हुआ है। लेकिन बारह मास का सम्बन्ध यह भी आजतक किसी धर्मशास्त्री, कर्मकाण्डी या ज्योतिर्विद ने नहीं जोड़ा। 
द्वादश राशियों से ज्योतिर्लिंगों को  सम्बन्ध जोड़ने की कोई तुक नहीं है ।
अब कोई वैष्णव 108 वैष्णव तीर्थों का सम्बन्ध नक्षत्र चरण (नवांश) से जोड़कर अपनी कल्पना बतलाएगा।
कोई ज्योतिष के अष्टक वर्ग, आठ दिशाओं या कंप्यूटर और डिजिटल नंबरिंग सिस्टम  में उपयोग की जाने वाली अष्टाधारी संख्या प्रणाली (octal number system) का सम्बन्ध गाणपत्य सम्प्रदाय के महाराष्ट्र में पूणे के आसपास स्थित अष्ट विनायक से जोड़ेगा।
और वर्ष के बावन सप्ताह से इक्कावन या बावन शक्तिपीठों से जोड़ेगा। जिनका कोई औचित्य नहीं बनता।
आजकल भारत के हिन्दू वादी और पाकिस्तान के इस्लाम वादी कुछ तकनीकी वैज्ञानिक ऐसे ही बे सिर-पैर की बातें करके विश्व विज्ञान सम्मेलन आदि में अपना, भारत देश, सनातन धर्म और संस्कृति का उपहास करवाते हैं।

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

वैदिक शिक्षा कैसी हो?

 वेदों की व्याख्या अर्थात (उपनिषद और आरण्यक सहित) सभी ब्राह्मण ग्रन्थ।
1 उच्चारण शास्त्र शिक्षा, 2 व्याकरण, 3 शब्द व्युत्पत्ति और शब्दकोश निघण्टु का भाषा शास्त्र निरुक्त, 4 छन्दशास्त्र, ब्रह्माण्ड विज्ञान और 5 काल गणना हेतु ज्योतिष शास्त्र, तथा १आचरण शास्त्र अर्थात धर्म सूत्र, २ ब्रह्माण्ड के नक्शे मण्डल और मण्डप और यज्ञ वेदी बनाने का शास्त्र शुल्बसूत्र,३ छोटे यज्ञ, पञच महायज्ञ , संस्कार विधान और व्रत-उत्सव विधान के लिए गृह्यसूत्र तथा ४ बड़े यज्ञों के विधि विधान श्रोत सूत्र) 6 कल्प अर्थात षड वेदाङ्ग तथा (१आयुर्वेद, २ धनुर्वेद, ३ संगीत-नाट्य का गान्धर्व वेद ४ शिल्प वेद या स्थापत्य वेद) नामक वैदिक वैज्ञानिक ग्रन्थ, सबको पढ़ना अनिवार्य हो।
फिर ब्राह्मण ग्रन्थों का व्यवहार में उपयोग हेतु पूर्व मीमांसा दर्शन और उपनिषदों का तात्पर्य बोधक शास्त्र उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सूत्र) का गहन अध्ययन करवाया जाए। तत्पश्चात तर्कशास्त्र - न्याय दर्शन, पदार्थ रचना का शास्त्र वैशेषिक दर्शन कर्ममीमांसा - योग दर्शन तथा तत्व मीमांसा - सांख्य दर्शन और सांख्य कारिकाएँ पढ़ाई जाए, फिर वेद निरपेक्ष, ईश्वर निरपेक्ष बौद्ध दर्शन, वेदों के प्रति अनास्थावान अनीश्वरवादी जैन दर्शन तथा नास्तिक दर्शन पढ़ाया जाए।ये उपर लिखित हमारे वास्तविक धर्मग्रन्थ हैं।
इसके बाद कर्मकाण्ड और धर्मशास्त्र पढ़ाया जाए। फिर वाल्मीकि रामायण और महाभारत नामक इतिहास ग्रन्थ पढ़ाये जाएँ।
साथ ही साथ खेतों, उद्यमों, कारखानों और बाजार में व्यावहारिक व्यावसायिक शिक्षण दिया जाए। और आधुनिक शास्त्र भी पढ़ाये जाएँ।वाल्मीकि रामायण और महाभारत इतिहास ग्रन्थ हैं।
 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 25 से 43 तक का भाग श्रीमद्भगवद्गीता कहलाता है। श्रीमद्भगवद्गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। लेकिन वैदिक ऋचाओं और उपनिषदों के मन्त्र और भावों की बहुतायत होने के कारण और बुद्धि योग या समत्व योग का सर्वश्रेष्ठ विवेचन तथा सर्वश्रेष्ठ कर्म मीमांसा होने के कारण श्रीमद्भगवद्गीता का विशिष्ट महत्व है।
तब जाकर बच्चे विशुद्ध वैदिक सनातन धर्मी भारतीय नागरिक बनेंगे ।
रामचरित मानस तो पाँच सौ वर्ष पुराना राजनीति और नीति शास्त्र का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। लेकिन धर्मग्रन्थों में रामचरित मानस की गणना करना कोरी भावुकता मात्र है।

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

यल्लकोट अर्थात मार्तण्ड भैरव की सप्तकोटी सेना।

यल्ल कोट या सप्त कोटी मतलब सप्त स्तरीय या सात प्रकार की सेना।

वैदिक काल में रथी, हस्ती, अश्वारोही और पदाति ऐसी चतुरङ्गीणी सेना होती थी।
रामायण में 
1 गुप्तचरी और मनोबल गिराना (हनुमान जी और अङ्गद सफल अभियान तथा रावण के शुक- सारण आदि असफल अभियान),
2 गेरीसन इंजिनियर (नल-नील के नेतृत्व में सेतु निर्माण),
3 चतुर और अनुभवी सलाहकार (जाम्बवन्त जी के नेतृत्व वाला दल),
4 स्थानीय जनबल (सुग्रीव की वानर सेना)।
ऐसे नवीन प्रयोग दिखे।
श्रीकृष्ण की नारायणी सेना और महाभारत में और भी कई नवीन उपाय किए गए।
सम्भवतः मार्तण्ड भैरव ने सात प्रकार के भिन्न-भिन्न दल बनाकर सप्तकोटी दल बनाया हो।

रविवार, 1 दिसंबर 2024

गोत्र और प्रवर वर्ण और जाति।

उत्पत्ति - प्रकरण
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नें स्वयम् को सुत्रात्मा प्रजापति और सरस्वती स्वरूप में प्रकट किया। 
ये जैविक सृष्टि के रचियता हैं। प्रजापति की पत्नी (शक्ति) सरस्वती कहलाती है। प्रजापति भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
प्रजापति विश्वरूप (अर्थात ब्रह्माण्ड स्वरूप) हैं। इनकी आयु एक कल्प (चार अरब, बत्तीस करोड़, वर्ष) है। ये प्रथम जीव वैज्ञानिक तत्व हैं। विशाल अण्डाकार हैं। लेकिन शीर्ष चपटे होने के कारण चतुर्मुख कहलाते हैं।
इसलिए पुराणों में कथा है कि, पहले ब्रह्मा के पाँच मुख थे उन्हीं से उत्पन्न रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया तो उनके चार सिर रह गये। जबकि हिरण्यगर्भ दीर्घ गोलाकार या लगभग अण्डाकार है इसलिए पञ्चमुखी कहे गए हैं और प्रजापति भी अण्डाकार हैं लेकिन शिर्ष चपटा होने से चतुर्मुखी कहे गए हैं।
ये देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं। लेकिन शैवमत में एकरुद्र प्रजापति से पहले उत्पन्न होने के कारण महादेव मानेगये। (बादमें पुराणों में शंकरजी को महादेव कहने लगे।)
पञ्चमुखी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) चतुर्मुख प्रजापति -सरस्वती और (2) अर्धनारीश्वर स्वरूप नील लोहित वर्ण के पञ्चमुखी एकरुद्र,
(3) त्वष्टा-रचना के अलावा (4) सनक, (5) सनन्दन, (6) सनत्कुमार और (7) सनातन तथा (8) नारद ।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।
[सुचना - इन अर्धनारीश्वर एकरुद्र ने ही कालान्तर में स्वयम् को नर और नारी स्वरूपों में अलग-अलग विभाजित कर शंकर और उमा के स्वरूप में प्रकट किया। बादमें शंकर ने स्वयम् को दश रुद्रों के रूप में प्रकट किया और उमा भी दश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट हुई।  

प्रजापतियों की तीन जोड़ी बतलाया गया है।
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
सूत्रात्मा प्रजापति के ही स्वरूप ओज (तीनों प्रजापति) और अणुरात्मा वाचस्पति के स्वरूप तेज (इन्द्र) अभिकरण अर्थात अधिनस्थ करण या निकटस्थ करण है। अधिनस्थ औजार या इंस्ट्रूमेंट।

प्रसुति, आकुति और देवहूति भी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से तीन देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये द्युलोक के/ स्वर्ग स्थानी प्रजापति हैं। धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । 

इनके अलावा महारुद्र शंकर (शम्भु) और उमा तथा  पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। 
महारुद्र शंकर जी ने स्वयम् को दश रुद्र स्वरूप में प्रकट किया जिनके नाम (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली हैं। इन्हीं के साथ उमा ने भी स्वयम् को दस रौद्रियों के रूप में प्रकट किया। जो रुद्रों की पत्नियाँ हुई। रुद्र- रौद्री (शंकर - उमा) मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं। ये अधिकांशतः हिमालय के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए थे। एकादश रुद्र भी कई प्रकार के हैं। इसलिए इन्हे आदि एकादश रुद्र लिखा है।
अतःएव एकरुद्र भी प्रजापति आदि के तुल्य हैं और शंकरजी भी दक्ष (प्रथम), रुचि और कर्दम आदि प्रजापतियों के तुल्य हुए। एवम् शेष दश रुद्र तो प्रजापति की सन्तानों (मरीचि, भृगु आदि) के तुल्य हुए।
साथ ही साकार पितरः अर्यमा और स्वधा ने स्वयम् षष्ठ पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अनल (५) सोम और (६) यम नामक साकार पितर हुए। अर्यमा, अनल, सोम और यम ये चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं। अर्यमा सहित ये सप्त पितरः कहलाते हैं।
दक्ष प्रजापति और प्रसुति से आठ भूस्थानी प्रजापति और हुए ये हैं (1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। दक्ष- प्रसुति सहित ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए इस लिए पुराणों में इन्हें नौ ब्रह्मा कहा गया है। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान हरियाणा में कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र गोड़ देश ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए । 

लोक - प्रकरण

आधिदैविक दृष्टि से द्युलोक में (1) (शतकृतु / शक्र) इन्द्र - शचि, (2) त्रिलोक में अग्नि-स्वधा, तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ।  भूवर्लोक (अन्तरिक्ष) में (4) पितरः (अर्यमा - स्वधा) और (5) भूलोक में  सोम- वर्चा और मतान्तर से स्वायम्भुव मनु- शतरूपा के रूप में जाने जाते है। 
इन्द्र आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं। जबकि अग्नि वैराज देव (प्राकृतिक देवता) हैं।"
"प्रजापति के ब्रह्मज्ञानी शिष्य इन्द्र-शचि देवेन्द्र और  देवराज हैं। इन्द्र के अधीन (द्वादश) आदित्य गण, (अष्ट) वसुगण, (एकादश) रुद्रगण हैं।
(1) प्रजापति, (2) इन्द्र, (3 से 14 तक) द्वादश आदित्य, (15 से 22 तक) अष्ट वसु तथा (23 से 33 तक) एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं।

द्वादश आदित्य (1) विष्णु, (2) सवितृ, (3) त्वष्टा, (4) इन्द्र, (5) वरुण, (6) विवस्वान, (7) पूषा, (8) भग, (9) अर्यमा, (10) मित्र, (11) अंशु और (12) धातृ। 
अष्ट वसु 1) प्रभास, (2) प्रत्युष, (3) धर्म, (4) ध्रुव, (5) अर्क, (6) अनिल, (7) अनल और (8) अप् और
एकादश रुद्र (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली और (11) शम्भु (शंकर))
[कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर (1) दस्र और (2) नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।]

प्रजापति अजयन्त देव हैं और इन्द्र आजानज देव है। और शेष इकतीस देवता वैराज देव हैं।

(2) अग्नि-स्वधा - द्यु स्थानी देवता होते हुए भी  स्वः में सूर्य, भूवः में विद्युत (तड़ित) और भूः में सप्तज्वालामय अग्नि के रूप में प्रकट होने वाले स्वर्ग अन्तरिक्ष और भू लोक में  व्याप्त है।"

भूमि पर आदित्यों का वासस्थान कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वतमनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।
ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है - १ शुभा, २ ममता और ३ तारा। 
इसे बुद्धि और बोध या बुद्धि और मेधा के रूप में समझा जाता है। आधिदैविक दृष्टि से इन्हे शक्तियों सहित अष्ट वसु और देवी आदि उनकी शक्तियों के नाम से जाना जाता है।
वसुगण मूलतः आदित्यों के सहचारी रहे लेकिन इनकी सन्तान पूर्ण भारतवर्ष में फैल गई।"
"पशुपति को अहंकार और अस्मिता के रूप में समझा जा सकता है। इन्हे आधिदैविक दृष्टि से शंकर और उमा के रूप में जानते हैं; जिनने स्वयम्  शक्तियों/ रौद्रियों सहित एकादश रुद्र के रूप में प्रकट किया।  ये अधिकांशतः हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए हैं।
वर्ण
ये सब सृष्टि के आदि पुरुष और स्त्रियाँ हैं।
ऐसा माना जाता है कि, स्वायम्भूव मन्वन्तर में जितने भी ब्राह्मण थे वे सब; (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।(4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति की सन्तान थे।
और जो क्षत्रिय थे वे स्वायम्भूव मनु - शतरूपा की सन्तान थे।
क्षात्र धर्म से ही पतित होकर कुछ लोग कृषि-पशुपालन करने लगे, वे वैश्य हो गये। और वैश्य कर्म से पतित होकर जो स्वर्णकार, धातुकर्मी ठठेरा, कुम्भकार (कुम्हार), शिल्पकार, चित्रकार, वैद्य, शल्यक्रिया करनेवाले नापित/ नाई,  शस्त्र निर्माता लौहार , सुतार, रथकार आदि विश्वकर्म करने वाले कारीगर जो सभी वर्णों की सेवा करते थे वे शुद्र कहलाये।
इसलिए मुण्डन, उपनयन, विवाह और अन्त्येष्टि आदि संस्कारों में इनका महत्व ब्राह्मण के सहायक के रूप में होता है।
जुआ खेलने, नशा करने वाले मद्यप, बहेलिए, चिड़ीमार आदि मान्साहारी शुद्र पञ्चम कहलाये। इनसे भी पतित चाण्डाल कहलाये जो नगर के बाहर रहते थे।
जल प्रलय के बाद सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर में विवस्वान आदित्य के पुत्र वैवस्वत मनु (श्राद्ध देव और श्रद्धा) की सन्तान सभी सूर्य वंशिय क्षत्रिय माने जाते हैं। और उक्त क्रम में सभी वैश्य-शुद्र आदि हुए।
और वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों के शिष्य ब्राह्मण और विप्र हुए। यही शिष्य परम्परा गोत्र कहलाई।

गोत्र और प्रवर
एक ही गुरुकुल के कुल गुरु के समस्त शिष्य एक ही गोत्र के माने जाते थे। 
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का गोत्र अलग हो जाता था लेकिन 
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का प्रवर एक ही होता है। चूंकि मूलतः वे भी सगोत्रीय ही हुए इसलिए एक प्रवर वालों में भी परस्पर विवाह नहीं होता है।

गुरुकुल, वर्ण और आश्रम 
जो व्यक्ति मानसिक या बौद्धिक अक्षमता वश किसी कारण गुरुकुल शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता था, वह पञ्चम वर्ण का कहलाता था।
वैदिक काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी के पुत्र पुत्रियाँ गुरुकुल से शिक्षित होते थे। लेकिन जो कर्मकार (कारीगरी) में कुशल हो जाते थे जो केवल वेदों और उपवेदों की शिक्षा लेकर गुरुकुल छोड़ देते थे, वे शुद्र बने और विशेषज्ञ न बन पाने के कारण विश्वकर्म / कारीगरी तक सीमित रहकर सेवा क्षेत्र में लग गए। और केवल वेदपाठ और गृह्य सुत्रों में उल्लेखित पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड और संस्कार करवाते थे। वे कर्मकाल में ही जनेऊ धारण करते थे। बाद में निकाल देते थे। उन्हें रोज जनेऊ बदलना पड़ती थी। वे शुद्र कहलाते थे।
जो स्वयम् भी  नित्य पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड करते थे उन्हें नियम पूर्वक उपनयन संस्कार कर यज्ञोपवीत पहनाया जाता था। ये द्वीज कहलाते थे।
इनमें जो व्यवहार कुशल, कृषि -गोपालन आदि में पारङ्गत होते थे। अपने उत्पाद विक्रय करने के अलावा बाहर से उपभोक्ता वस्तुओं का आयात- निर्यात और विपणन तथा लेखाकर्म में पारङ्गत हो जाते थे ;अर्थात जो वेदाध्ययन के पश्चात नीति और व्यवहार, तथा लेखाकर्म, और सांख्यिकी (अंक गणित) का ज्ञान लेकर निकले वे वैश्य बनकर कृषि, पशुपालन और वाणिज्य में लग गए। वे वैश्य कहलाते थे। 
जो वेदाध्ययन, नीति और व्यवहार, और उपवेदों में निपुण होकर धनुर्वेद विशेषज्ञ हो गये वे क्षत्रिय होकर सेना और नगरीय सुरक्षा में लग गए। जो शस्त्र विद्या में पारङ्गत होकर राष्ट्र और समाज की रक्षा का भार वहन करने का सङ्कल्प लेते थे वे क्षत्रिय कहलाते थे।
जो नित्यप्रति वेदाभ्यास करते थे, वे शिष्य विप्र बनकर निकलते थे।
जो विप्र वेदार्थ समझने हेतु उपवेदों के अतिरिक्त षड वेदाङ्ग का भलीभांति अध्ययन कर लेते थे। और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड तथा आरण्यकों और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे वे ब्राह्मण कहलाते थे।
अर्थात जो 1 ऋग्वेद, 2 यजुर्वेद, 3 सामवेद और 4 अथर्ववेद के अलावा वेदों के भाष्य ब्राह्मण ग्रन्थों (जिनमें- पूर्वभाग में कर्मकाण्ड और कर्म मीमांसा उत्तर भाग में व्यवहार, व्यवस्था का वर्णन आरण्यकों में और ज्ञान मीमांसा का वर्णन उपनिषदों में दिया गया है), उपवेद-  1 आयुर्वेद, 2 धनुर्वेद, 3 गान्धर्व वेद (सङ्गीत, नाट्य आदि), 4 शिल्प वेद - स्थापत्य वेद ( चारो उपवेद), तथा अर्थशास्त्र  के अलावा 1 शिक्षा (उच्चारण), 2 व्याकरण, 3 निरुक्त (यास्क) (भाषाशासत्र, शब्द व्युत्पत्ति, निघण्टु/ शब्दकोश), 4  छन्दशास्त्र (पिङ्गल), 5 ज्योतिष  और  6 कल्प ( १ धर्माधर्म, कार्य अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य उचित - अनुचित के विधि- विधान धर्म  सूत्र, २ मण्डल और मण्डप निर्माण विधि विधान के लिए शुल्ब सूत्र, ३ बड़े यज्ञों के लिए श्रोत सुत्र, ४ संस्कारों, नित्य कर्म, पाक्षिक , मासिक और वार्षिक इष्टि, यज्ञों आदि के विधि - विधान हेतु गृह्यसूत्र) रूपी षडवेदाङ्ग का अध्ययन करके कर्मकाण्ड की मीमांसा - जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन, ब्रह्मसूत्रों अर्थात उपनिषदों की ज्ञान मीमांसा का बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सूत्र), सांख्यकारिकाओं और कपिल के सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा, पतञ्जली की कर्ममीमांसा का योग दर्शन, कणाद की तत्व मीमांसा का वैशेषिक दर्शन और गोतम की तर्क मीमांसा का न्याय दर्शन, वेदों के प्रति निरपेक्ष सन्देह वादियों का बौद्ध दर्शन, वेद विरोधियों का नास्तिक दर्शन, वेदों के प्रति नास्तिक अनिश्वरवादियों का जैन दर्शन सहित दर्शन शास्त्र में विशेषज्ञता प्राप्त कर आचार्य बने विप्र कहलाते थे। विप्रो में भी जो शुद्ध धर्मनिष्ठ, नित्य पञ्चमहायज्ञ सेवी, नित्य अष्टाङ्गयोग अभ्यासी होकर पूर्ण सदाचारी ब्रह्मचारी होता था वह ब्राह्मण कहलाता था।
ये ब्राह्मण ही वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल चलाते और नवीन वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान करते रहते थे, वे ऋषि कहलाते थे। ऋषि संन्यास आश्रम में सर्वत्यागी मुनि हो जाते थे।

जातियाँ 
प्रवृत्ति, संस्कृति और आचरण के अनुसार देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, यक्ष, असुर, देत्य, दानव और राक्षस आदि वास्तविक अपरिवर्तनीय जातियाँ बनी। ये जन्मगत जातियाँ थी जिन्हें बदला नहीं जा सकता।

वर्तमान में प्रचलित जाति प्रथा 
जातिप्रथा का आधार समान व्यवसाय रहा। इसलिए सर्व प्रथम वैश्यों और विश्वकर्माओं की जातियाँ बनी। जैसे - कृषक, माली, गोपाल (गवली), गड़रिया, स्वर्णकार, रत्नपारखी, ठठेरा, लौहार, सुतार, शिल्पकार, कुम्भकार (कुम्हार) राज मिस्त्री, वैद्य, नापित (नाई) (जो शल्य चिकित्सा भी करते थे।) आदि।
फिर राजन्य, सेनापति, सेना नायक, कोतवाल आदि क्षत्रिय जातियाँ बनी। अन्त में विप्रो में भी यज्ञ कर्ता अग्निहोत्री और शर्मा, ज्योतिष ज्ञाता जोशी, पौरहित्य करने वाले पुरोहित आदि जातियाँ बनी 
फिर स्थान परिवर्तन (माइग्रेशन) के आधार पर जातियाँ बनी। जैसे हरियाणा के कुरुक्षेत्र के आसपास के गोड़ देश से निकले पञ्चगोड़ - आद्यगोड, गोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाड्य, सरयुपारीय, कान्यकुब्ज, जम्बु ब्राह्मण ,नार्मदीय, गुजराती,  महाराष्ट्रीय, कन्नड़, तेलगु, तमिल, केरलीय, वनवासी भिल- भिलाला आदि।

एक ही गोत्र-प्रवर और एक ही ग्राम के निवासियों का परस्पर विवाह निषेध का कारण।
एक ही ग्राम के निवासियों को और एक ही गुरुकल या विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थियों को भ्रातृ भगिनी भाव रहना चाहिए 
एक ही प्रकार से शिक्षित, एक ही प्रकार की रीति नीति पालन करने वालों में परस्पर विवाह होने पर भाषाई वर्ग और पन्थ - सम्प्रदाय उत्पन्न हो जाते हैं जिससे सामाजिक सद्भाव समाप्त हो दुरियाँ बढ़ती है। 
जबकि आंशिक भिन्न परम्परा वालों के मेल मिलाप से ही स्वस्थ्य समाज का गठन होता है। परस्पर ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी का आदान-प्रदान होता है। इसलिए समान गोत्र - प्रवर के वर वधू और एक ही ग्राम के निवासियों में परस्पर विवाह निषेध किया गया है।

सपिण्ड
पिता की पन्द्रह पीढ़ी या कम से कम सात पीढ़ी और माता की तेरह पीढ़ी या कम से कम पाँच पीढ़ी के लोगों को सपिण्ड माना जाता है। इसलिए गुणसूत्र (जीन्स) साम्य होने के कारण जेनेटिक आधार पर सपिण्डों में विवाह निषेध किया गया है। 

मनुस्मृति में समान जाति में विवाह को उचित बतलाया है। वहाँ जाति से तात्पर्य देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, नाग, गारुड़, यक्ष, असुर, दैत्य, दानव, राक्षस आदि जातियों को जाति मानकर कहा गया है। न कि, लोहार, सुतार, नागर, गोड़, आद्यगोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाढ्य, औदिच्छ, सरयुपारीय , कान्यकुब्ज, नार्मदीय, महाराष्ट्रीय, देशस्थ, कोकणस्थ, कराड़े,  या अग्रवाल, महेश्वरी,  नामक जातियों का।
वर्तमान में सजातीय विवाह एक प्रकार से सगोत्रीय विवाह का ही रूपान्तरण है। इसलिए यह भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।

गुरुवार, 21 नवंबर 2024

अथर्ववेदोक्त ब्रह्म मुहूर्त और विष्णु पुराणोक्त ब्राह्म मुहूर्त दोनो अलग-अलग अवधारणा है।

अथर्ववेदोक्त ब्रह्म मुहूर्त और विष्णु पुराणोक्त ब्राह्म मुहूर्त दोनो अलग-अलग अवधारणा है।
यदि रात्रि बारह घण्टे की हो तो सूर्योदय से 96 मिनट से लेकर 48 मिनट तक का उनतीसवाँ मुहूर्त या रात्रि का चौदहवाँ मुहूर्त ब्रह्म मुहूर्त होता है।इस समय सन्ध्या करते हैं। फिर एक मुहूर्त गायत्री जप करके उदयीमान सूर्य को अर्घ्य प्रदान करते हैं।
मतलब सूर्योदय से डेड़ घण्टा पहले तो सन्ध्या चालू करना है तो, उसके पहले शोच, स्नान, योगासन आदि करने के लिए उठना तो पहले ही पड़ेगा।
इसलिए जागने के लिए विष्णु पुराण में ब्राह्म मुहूर्त बतलाया है। जो बारह घण्टे की रात्रि होने पर सूर्योदय से चार घण्टे पहले प्रारम्भ होता है और सूर्योदय से दो घण्टे पहले तक रहता है।

अर्थात 21 मार्च और 23 सितम्बर को सूर्योदय लगभग 06:28 बजे यानी लगभग साढ़े छः बजे होता है और दिन-रात लगभग बारह-बारह घण्टे के होते हैं तब रात में दो बजे उठना चाहिए। और पौने पाँच बजे सन्ध्या प्रारम्भ करना चाहिए।और पाँच बजकर चालीस मिनट से गायत्री जप प्रारम्भ करना चाहिए। तथा सूर्योदय के समय अर्घ्य देकर दान आदि करना चाहिए।

सोमवार, 11 नवंबर 2024

देव शयन और देव प्रबोधन

वर्षा ऋतु में जठराग्नि मन्द हो जाती है, व्यक्ति अधिक समय घर में गुजारता है, डिप्रेस्ड रहता है इसलिए बहुत से उत्सव - त्योहार बनाए गए। तला हुआ गरिष्ठ खाद्य ग्रहण करता है; इसलिए भोजन पूर्णतः नहीं पचता और पौषण नहीं मिलता। आलस्य वर्धन होता है। मन - इन्द्रियों का मन्द होना ही देव शयन है। 

हेमन्त ऋतु में जल जमाव समाप्त होने, कीचड़ सूखने, स्वच्छता बढ़ने से बेक्टिरिया वायरस कम होने और शीत बढ़ने से स्वास्थ्य सुधार होने लगता है। इससे सुशुप्तावस्था मे गये मन - इन्द्रियों का सक्रिय होना ही देव प्रबोधन है।
वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों - उपनिषदों में अन्तरात्मा, जीवात्मा, प्राण,  मन- इन्द्रियों, जठराग्नि आदि अध्यात्मिक (देह के अन्दर सक्रीय) संस्थानों को भी देव कहा गया है। तथा विष्णु, प्रभविष्णु (श्रीहरि), नारायण, हिरण्यगर्भ आदि को भी देव कहा गया है। तथा प्रजापति, इन्द्र, द्वादश आदित्य, अष्ट वसु तथा एकादश रुद्र को देवता कहा गया है। उक्त देवों में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के दिन अर्थ कल्प के अन्त में रात्रि होने पर जब हिरण्यगर्भ ब्रह्मा सो जाते हैं, तब प्रजापति अपने कारण हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लय हो जाते हैं और नैमित्तिक प्रलय हो जाने से ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाता है।
अर्थात विष्णु, प्रभविष्णु श्री हरि (सवितृ), नारायण तो दूर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा भी नहीं सोते हैं। तो उठने का प्रश्न ही नहीं।

शनिवार, 9 नवंबर 2024

नव सस्येष्टि होला (होली) और दीवाली (दीपावली) पर्व।

पूर्णिमा और अमावस्या को यज्ञ वेदी पर समिधा जमाकर अन्वाधान करते हैं।
अमावस्या और पूर्णिमा के दूसरे दिन (प्रतिपदा) को किया जाने वाला पाक्षिक यज्ञ इष्टि कहलाता है।

इष्टि यज्ञ का एक प्रकार है। मूलतः होली और दीवाली भी नव सस्येष्टि पर्व ही हैं।
हिरण्यकशिपु -प्रहलाद- सिंहिका (होलिका) से होली का कोई सम्बन्ध नहीं है।
इस पर्व का सही नाम होला था। (उम्बी-होला वाला होला) इसलिए आज भी उम्बी-होला सेंकते हैं। इस दिन जों, गेंहू चना आदि फसलों का हवन कर यज्ञ भाग वितरण होता था।

ऐसे ही दीपावली भी नव सस्येष्टि पर्व था, इसलिए इसमें गन्ना, ज्वार और धान (साल की धानी) का हवन होता है। और पितरों के लिए दीपदान करके उन्हें पितृलोक का मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए आकाशदीप लगाते हैं।
रावण वध अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या तिथि की सन्धि वेला में हुआ था। विजया दशमी (दशहरा) को नहीं।
श्रीरामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास उपरान्त चैत्र शुक्ल पञ्चमी को भरद्वाज आश्रम पहूँचे थे। दुसरे दिन चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में भरत जी से मिले। और उसके बाद अयोध्या पधारे थे। अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली) को नहीं।
सर्वपितृ अमावस्या के बाद भी जो पितर बच जाते हैं, उन्हें यम द्वितीया के दिन तक एकत्र कर यमराज साथ ले जाते हैं।

सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

पुराणों के अनुसार श्राद्ध कर्म में मदिरा, मत्स्य और मान्स का प्रयोग होता था

*पुराणों के अनुसार श्राद्ध कर्म में मदिरा, मत्स्य और मान्स का प्रयोग होता था।* 

*विष्णु पुराण/तृतीय अंश/ सौलहवाँ अध्याय/ श्लोक 1, 2 एवम् 3 से* ---
श्राद्ध कर्म में विहित और अविहित वस्तुओं का विचार के अन्तर्गत *मत्स्य, मान्स और प्राकृतिक मदिरा मधु के द्वारा श्राद्ध करने का विधान* ।

और्व उवाच 
हविष्यमत्स्यमान्सैस्तु शशस्य नकुलस्य च।
सौकरच्छागलैणेयरौरगवैर्गवयेन च।।१।।
औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः।
प्रयान्ति तृप्तिम् मान्सैस्तु नित्यम् वार्घीणसामिषै।।२।।
अर्थात ---
और्व बोले -- हविष्यान्न, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शुकर (सूअर), छाग, कस्तुरी मृग, कृष्ण मृग, गवय (नीलगाय/ वनगाय) और भेड़ प्रजाति का पशु मेष (मेढ़ा) के मान्सों से तथा देशी गौ के दूध, दहीँ, मक्खन और घी आदि गव्य से पितृगण क्रमशः एक-एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं। और वार्घ्रीणस पक्षी के मान्स से सदा तृप्त रहते हैं। 1 एवम 2
खड्गमान्समवीवात्र कालशांक तथा मधु।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर।।3
हे नरेश्वर! श्राद्ध कर्म में गेण्डे का मान्स, कालकाश और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक है।

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

महा तपस्वी नारायण का श्रीकृष्ण अवतार और आद्यशक्ति योगमाया का एकांशना अवतार

अर्थात विष्णु पुराण,पञ्चम अंश/ प्रथम अध्याय/ श्लोक 60 से 82 तक में उल्लेख के अनुसार
 
क्षीर सागर के तट पर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के नेतृत्व में नारायण की स्तुति करने पर प्रकट होकर नारायण ने देवताओं के समक्ष एक श्वेत और एक कृष्ण केश उखाड़कर भूमि पर पटके और कहा ये दोनों पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्यों का नाश करेंगे।
देवगण भी अपने अपने अंश से अवतार लेकर दैत्यों से युद्ध करें। श्लोक 60 से 63 तक।
वसुदेव के घर देवकी के आठवें गर्भ से यह श्याम केश अवतार लेगा। और कालनेमी के अवतार कंस का वध करेगा। श्लोक  64-65
फिर नारायण ने  योगनिद्रा को आदेश दिया कि, शेष नामक मैरा अंश अपने अंशांश से देवकी के सातवें गर्भ में स्थित होगा। उसे वसुदेव की दुसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर देना। और लोग समझेंगे कि, देवकी का गर्भपात हो गया। रोहिणी के गर्भ में संकर्षित होने से वह संकर्षण कहलाएगा। श्लोक 72 से 76 तक।
तदन्तर मैं देवकी के आठवें गर्भ में स्थित होऊँगा। उस समय तू यशोदा के गर्भ से चली जाना। श्लोक 77 तक।
श्लोक 78 --- वर्षा ऋतु में नभस मास  (प्रकारान्तर से अमान्त श्रावण मास) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को निशा (रात्रि) में जन्म लूँगा। और तू नवमी को उत्पन्न होगी। श्लोक 78
 वासूदेव जी मुझे यशोदा जी के शयन गृह में ले जाएंगे और तुझे देवकी के शयनगृह में लेजाएँगे।
कंस द्वारा शिला पर पटकने पर तू आकाश मे स्थित हो जाएगी। श्लोक 79 एवम् 80
इन्द्र तुम्हें प्रणाम करेगा। फिर तुम्हें भगिनी रूप से स्वीकार करेगा। श्लोक 81 
तू शुम्भ-निशुम्भ आदि सहस्रों दैत्यों का संहार कर समस्त पृथ्वी को सुशोभित करेगी। श्लोक 82

विष्णु पुराण,पञ्चम अंश/ तृतीय अध्याय/ श्लोक 26 और 27  में उल्लेख के अनुसार

योग निद्रा को कन्स द्वारा पाषाण शिला पर पटकने के प्रयत्न के समय कन्स के हाथ से छूटकर योगनिद्रा देवी आकाश में शस्त्र युक्त, अष्टभुजा देवी के स्वरूप में प्रकट हुई। श्लोक 26
 और कन्स को फटकारते हुए कहा कि, तेरा वध करने वाला अन्यत्र जन्म ले चुका है। श्लोक 27

मिर्जापुर उत्तरप्रदेश मे स्थित *महामाया, योगमाया आद्य शक्ति, एकानंशा, विन्ध्यवासनी देवी* का मन्दिर है।
वैष्णव परंपरा में महामाया, योगमाया *आद्य शक्ति* , एकानंशा देवी को  *नारायणी* की संज्ञा दी गई है, और वह विष्णु की माया की शक्तियों के अवतार के रूप में कार्य करती हैं। 
देवी भागवत पुराण में देवी को देवी दुर्गा का परोपकारी पहलू माना गया है। 
शाक्त उन्हें आदि शक्ति का रूप मानते हैं। 
पुराणों के अनुसार *उनका जन्म यादव परिवार में नंद और माता यशोदा की बेटी के रूप में हुआ* था। जिन्हें कन्स ने देवकी - वसुदेव पुत्री समझ कर चट्टान पर पटक कर मारना चाहा, तो वे आकाशीय विद्युत बनकर विन्द्याचल पर स्थित हो गई।

भारतीय मानक समय मेरिडियन रेखा इस मन्दिर के निकट से ही गुजरती है। यहाँ मानक समय और स्थानीय समय में मात्र 16 सेकण्ड का ही अन्तर है।

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

स्वयम् भी सानन्द रहो। दुसरों का भी आनन्दवर्धन करो।

हाल कैसा है जनाब का?
इस प्रश्न के चार प्रकार के उत्तर होते हैं।
1 - जी रहा हूँ और पी रहा हूँ।

2 - टाटा स्काई का विज्ञापन था, 
दामाद - फूफाजी कैसे है?
बस जी रहा हूँ ‌। 
फूफी कैसी है?
गूजर गई।
नौकरी कैसी चल रही है?
छूट गई।
दामाद क्रिकेट मेच देखने लगता है ।

3 - फिल्म बार्डर से - चिट्ठी आती है!
करनाल वाले मामाजी गुजर गये, बाकी सब ठीक है।
गाय ने बछड़ा दिया था, पैदा होते ही मर गया बेचारा, बाकी सब ठीक है।
मुन्नी का बुखार चार दिन से उतर नहीं रहा,बाकी सब ठीक है।
मुन्ना गिर गया था, हाथ की हड्डी टूट गई, बाकी... सब ठीक है। 

4 - फिल्म मेरे अपने - हाल-चाल ठीक-ठाक है। आपकी कृपा से सब ठीक-ठाक है। 😁 

मैंरा उत्तर फिल्म मेरे अपने की स्टाइल में रहता है।

वेदों में तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। अमान्त मास प्रचलित थे।

*फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
वैदिक असमान विस्तार वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की सन्धि पर पूर्णिमा का चन्द्रमा होगा तो इससे १८०° पर स्थित नक्षत्र पर सूर्य होगा।
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)

*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
अर्थात वर्तमान में निरयन सौर वर्ष या सायन सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष को बराबर करने के लिए निर्धारित १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष वाला चक्र प्रचलित नहीं था।
महाभारत काल में हर अट्ठावन माह बाद उनसठवाँ और साठवाँ माह अधिक मास करते थे। ऐसे ही वैदिक काल में वर्षान्त पश्चात तेरहवाँ माह अधिक मास करते थे। सम्भवतः कितने वर्ष पश्चात करते थे यह स्पष्ट नहीं है।

इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। साथ ही उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि से भी इंगित करते थे। 

*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।* 
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।

तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। केवल उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि का ही उल्लेख है।

 *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
 *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।
ऐसे ही पारिश्रमिक वितरण में दशाह चलता था। सप्ताह शब्द भी मिलता है लेकिन उपयोग का उल्लेख नहीं है। वासर सूर्योदय से दुसरे सूर्योदय तक को कहते हैं, लेकिन ग्रहों के नाम वाले वार का उल्लेख नहीं है।
क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण मेंआसपास आठ-आठ अंश चोड़ी पट्टी में असमान आकृति वाले तारा मण्डलों को असमान भोगांश वाले नक्षत्र कहते थे। समान भोग वाले नक्षत्र नहीं थे। लेकिन सायन सौर मधु-माधव आदि मास निर्धारण हेतु विषुव वृत के तीस-तीस अंशों वाले अरे प्रयुक्त होते थे।
योग एवम् करण (तिथ्यार्ध) का उल्लेख नहीं है।
सूर्य से चन्द्रमा के बारह-बारह अंश के अन्तर पर तिथियाँ बदलती है। जैसे 348° से 360° तक अमावस्या रहती है। 00° से 12° अन्तर तक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, 12° से 24° तक द्वितीया, 24° से 36° तक तृतीया ....…. 168° से 180° तक पूर्णिमा। फिर 180° से 192° तक कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, 192° से 204° तक कृष्ण पक्ष की द्वितीया 204° से 216° तक कृष्ण पक्ष की तृतीया और पुनः 348° से 360° तक अमावस्या रहती है।
ऐसे ही सूर्य से चन्द्रमा के छः-छः अंश के अन्तर को करण कहते हैं।

वैदिक उत्तरायण वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक होता है।


 *संवत्सर व्यवस्था -* 
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। - 
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)

*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।

*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।* 
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।
वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति। जो प्रायः 20/21 मार्च को होती है। और शरद सम्पात अर्थात सायन तुला संक्रान्ति जो प्रायः 22/23 सितम्बर को होती है।
अतः वैदिक उत्तरायण 21 मार्च से 22 सितम्बर तक होता है। इसे उत्तरगोल भी कहते हैं।
और वैदिक दक्षिणायन 23 सितम्बर से 19/20 मार्च तक होता है। इसे दक्षिण गोल भी कहते हैं।


उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति प्रायः 22/ 23 जून को होती है। और दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति प्रायः 22 दिसम्बर को होती है।
उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 23 जून से दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति 21 दिसम्बर तक वैदिक उत्तर तोयन कहते हैं। पौराणिक काल में इसे दक्षिणायन कहा जाने लगा।
दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर से उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 22 जून तक वैदिक दक्षिण तोयन होता है। पौराणिक काल में इसे उत्तरायण कहा जाने लगा।
इसलिए 

जनमेजय को जय संहिता सुनाई थी न कि, भागवत पुराण।

श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यासजी के पुत्र श्री शुकदेव जी कैशोर्य अवस्था तक पहूँचने के पूर्व ही ब्रह्मलोक को सिधार गए।
यह बात भीष्म पितामह ने शर शैय्या पर लेटे युधिष्ठिर जी को कही थी। जबकि, उस समय परिक्षित जी अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में ही थे।
कृपया महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

तो परिक्षित की मृत्यु के समय कैसे आ गए?

वास्तव में परिक्षित जी को श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास जी की मूल रचना जय संहिता जो बाद में महाभारत कहलाई सुनाई गई थी।

प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय की पुत्री सती पार्वती ने दक्ष यज्ञ में आत्मदाह नहीं किया। वे जीवित ही शंकर जी के साथ कैलाश लौटी थी।

कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड,शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८४ पृष्ठ ५१६६ या संक्षिप्त महाभारत का पृष्ठ १२८१ देखें।
महाभारत में  उल्लेखित दक्षयज्ञ विध्वंस की कथा के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय  द्वारा किए गए यज्ञ में सभी देवताओं और ऋषियों को बुलाया लेकिन शंकर पार्वती को नहीं बुलाया।
देवताओं को समुह में जाते देख पार्वती ने शंकर जी से पुछा, तब शंकर जी ने पार्वती को बतलाया कि, दक्ष (द्वितीय) यज्ञ कर रहे हैं, उसमें उनके निमन्त्रण / आह्वान पर देवता यज्ञभाग लेने जा रहे हैं।
पार्वती द्वारा यह आपत्ति जताई कि, आप रुद्र को यज्ञभाग लेने हेतु क्यों आमन्त्रित नहीं किया गया।
तब शंकर जी बतलाते हैं कि, इसमें दक्ष का कोई दोष नहीं है। सृष्टि के आदि में प्रजापति ब्रह्मा ने रुद्र को यज्ञभाग न देने का विधान किया गया था। इसलिए मुझे नहीं बुलाया।
दक्ष द्वारा यज्ञ में न बुलाने और यज्ञभाग न देने की जानकारी से रुष्ट पार्वती (न कि, सती) को साथ लेकर स्वयम् शंकर जी दक्ष यज्ञ स्थल पर गये। वहाँ पार्वती अपनी नाराज़गी प्रकट करती है। केवल दधीचि पार्वती का समर्थन करते हैं। शेष सब मौन ही रहते हैं। दक्ष पर पार्वती के रोष का कोई प्रभाव न देखकर पार्वती जी और रुष्ट हो गई। इसे देखकर शंकरजी ने वीरभद्र और भद्रकाली का आह्वान किया। और वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस का आदेश दिया। वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस कर दक्ष द्वितीय का सिर काट दिया। और देवताओं को भी प्रताड़ित किया।
फिर प्रजापति ब्रह्मा ने नियमों में संशोधन कर भविष्य में रुद्र को यज्ञभाग देने का नियम बना दिया तब, शंकर जी ने दक्ष द्वितीय को पुनर्जीवित किया। और सहर्ष पार्वती जी को लेकर वापस लौट गए।

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

अथर्ववेदोक्त दिन और रात्रि के प्रमुख मुहूर्त और पौराणिक काल विभाजन

जहाँ भी घटि शब्द आए मतलब दिनमान या  रात्रि मान ÷30=घटि। जो लगभग 24 मिनट रहेगा।
जहाँ भी मुहूर्त शब्द आए मतलब दिनमान या रात्रि मान ÷15=मुहूर्त। लगभग 48 मिनट रहेगा।

 अभिजित मुहूर्त अर्थात दिन का आठवाँ मुहूर्त ।मध्याह्न से एक घटि (लगभग 24 मिनट) पहले से एक घटि (लगभग 24 मिनट) बाद तक। या सूर्योदय से लगभग 05 घण्टे 36 मिनट से 06 घण्टे 24 मिनट तक)

 विजय मुहूर्त मतलब दिन का ग्यारहवाँ मुहूर्त।
(दिनमान ×2/3) + सूर्योदय = विजय मुहूर्त प्रारम्भ समय। (सूर्योदय पश्चात लगभग 08 घण्टे से 08 घण्टे 24 मिनट तक।)
(दिनमान ×11/15) + सूर्योदय = विजय मुहूर्त समाप्ति समय।

 गोधूलि ऋतु पर निर्भर है। 
 हेमन्त ऋतु में सूर्यास्त के समय जब पूरा सूर्य बिम्ब दिख रहा हो। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का अर्धबिम्ब अस्त हो चुका हो और अर्धबिम्ब उपर दिख रहा हो। (मध्याङ्ग सूर्यास्त)। और वर्षा ऋतु में जब सूर्य बिम्ब पूर्ण अस्त हो चुका हो।
ऐसे ही एक विषय में मत मतान्तरयह भी है कि,
या तो 1 सूर्यास्त से एक मुहूर्त पहले से सूर्यास्त तक।
या 2 सूर्यास्त से एक घटि पहले से सूर्यास्त से एक घटि बाद तक। या 3 सूर्यास्त से एक मुहूर्त बाद तक।

 सायाह्न सन्ध्या --- सूर्यास्त से तीन घटि तक।
(रात्रिमान ÷10)+सूर्यास्त समय = सायाह्न सन्ध्या समाप्ति समय। (अर्थात सूर्यास्त से सूर्यास्त पश्चात लगभग 01 घण्टा 12 मिनट तक।)

 निशिता मुहूर्त --- मध्यरात्रि के एक घटि पहले से एक घटि बाद तक। या सूर्यास्त से लगभग 05 घण्टे 36 मिनट से 06 घण्टे 24 मिनट तक)

 ब्रह्म मुहूर्त --- अगले सूर्योदय से दो मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त पहले तक। (चार घटि पहले से दो घटि पहले तक। ) (अर्थात अगले सूर्योदय से लगभग 01 घण्टा 36 मिनट से 00 घण्टा 48 मिनट पहले तक )

 प्रातः सन्ध्या --- अगले सूर्योदय से तीन घटि पहले से सूर्योदय तक। (अर्थात अगले सूर्योदय से लगभग 00 घण्टा 48 मिनट पहले से प्रारम्भ होकर सूर्योदय तक।)


काल विभाजन का अन्य प्रकार। ---

सूर्योदय से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) तक प्रातः काल।

सूर्योदय पश्चात तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) से छः मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) तक सङ्गव काल।

सूर्योदय पश्चात छः मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) से नौ मुहूर्त ( 07 घण्टे 12 मिनट) तक कप मध्याह्न काल।

सूर्योदय पश्चात नौ मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) से बारह मुहूर्त ( 09 घण्टे 36 मिनट) तक अपराह्न काल।

सूर्योदय पश्चात बारह मुहूर्त (09 घण्टे 36 मिनट) से पन्द्रह मुहूर्त ( 12 घण्टे 00 मिनट) तक सायाह्न काल।

सूर्यास्त से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) तक प्रदोषकाल।

फिर सूर्यास्त से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) से सात मुहूर्त (05 घण्टे 36 मिनट) तक रात्रि काल । 

सूर्यास्त से सात मुहूर्त (05 घण्टे 36 मिनट) से आठवाँ मुहूर्त (06घण्टे 12 मिनट) तक निशिता काल। 
अर्थात मध्यरात्रि से एक घटि पहले से एक घटि बाद तक निशिता काल।

सूर्यास्त से आठ मुहूर्त (06 घण्टे 12 मिनट) से तेरह मुहूर्त (10 घण्टे 24 मिनट) तक रात्रि काल।

सूर्यास्त से तेरह मुहूर्त (10 घण्टे 24 मिनट) से सूर्योदय तक अरुणोदय काल।

पुनः सूर्यास्त से पाँच मुहूर्त (03 घण्टे 12 मिनट) से पाँचवाँ एक मुहूर्त सूर् का निशिता काल। अर्थात मध्यरात्रि से एक घटि पहले से एक घटि बाद तक निशिता काल।

विष्णु पुराण के अनुसार काल विभाजन के अन्तर्गत 

"काल चतुष्टय : रात्रि व्यतीत होते समय
 *सूर्योदय पूर्व 4 घण्टे से 2 घण्टे पहले तक ब्राह्म मुहूर्त रहता है।* 

 *सूर्योदय पूर्व 2 घण्टे से 1 घण्टा 12 मिनट पहले तक उषःकाल रहता है।* 

*सूर्योदय पूर्व 1 घण्टा 12 मिनट से 00 घण्टे 48 मिनट पहले तक अरुणोदय रहता है।* 

 *सूर्योदय पूर्व 00 घण्टे 48 मिनट से अगले सूर्योदय तक प्रातः काल रहता है।*


गीताप्रेस गोरखपुर की व्रत परिचय पुस्तक सर्व सुलभ है इसके पृष्ठ 17 पर भी विष्णु पुराण का कालचतुष्टय सम्बन्धित उद्धरण दिया गया है तथा लिखा गया है:

"काल चतुष्टय : 
रात्रि व्यतीत होते समय 55 घटी पर उष:काल,
 57 पर अरुणोदय, 
58 पर प्रातःकाल और 
60 पर सूर्योदय होता है।
 इसके पहले पाँच घड़ी का (अर्थात दो घण्टे का) समय 'ब्राह्म मुहूर्त' ईश्वर चिन्तन का है।

अर्थात अगले दिन के सूर्योदय से चार घण्टे पहले से दो घण्टे पहले तक के दो घण्टे का समय ब्राह्म मुहूर्त होता है।
यह अथर्ववेदोक्त ब्रह्म मुहूर्त से भिन्न हैं।

अगले दिन के सूर्योदय से 02 घण्टे पहले से 01 घण्टा 12 मिनट पहले तक 48 मिनट का समय अरुणोदय काल होता है।

अगले दिन के सूर्योदय से 01 घण्टा 12 पहले से 00 घण्टा 48 मिनट पहले तक के 24 मिनट का समय अरुणोदय काल होता है।

अगले दिन के सूर्योदय से दो घण्टे पहले से 00 घण्टा 48 मिनट पहले से सूर्योदय तक 48 मिनट का समय प्रातः काल होता है।


दिन के विभाग -
*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्* 
 तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

रावण की लंका, रामसेतु निर्माण का संक्षिप्त विवरण।

रावण की लंका, रामसेतु निर्माण का संक्षिप्त विवरण। 
*वाल्मीकि रामायण /किष्किन्धा काण्ड/ *एकचत्वारिशः सर्ग*/पाण्य वंशीय राजाओं के नगरद्वार पर लगे हुए सुवर्णमय कपाट दर्शन करोगे। जो मुक्तामणि यों से विभुषित एवं दिव्य है।( नोट - यहाँ से पाण्य देश की सीमा आरम्भ होती थी न कि, तंजोर नगर की।किन्तु इस प्रवेश द्वार को  लेण्डमार्क के रुप में देखने भर को ही कहा है।पाण्यदेश/ तमिलनाड़ु में प्रवेश करने का निर्देश नही किया है। अर्थात पुर्वी घाँट की ओर नही बल्कि पश्चम घाँट की ओर ही जाने का अप्रत्यक्ष निर्देश है। शायद राक्षसों का प्रभाव लक्षद्वीप से नाशिक तक पश्चिम में ही अधिक था।कुछ लोग पाण्यदेश यानी तमिलनाड़ु देखकर ही उत्साहित होकर पुर्वीघाँट की ओर बढ़ने का अनुमान करते हैं। जबकि सुग्रीव ने देखते हुए आगे बढ़ने का निर्देश देते हैं प्रवेश का नही।)तत्पश्चात समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना।महर्षि अगस्त ने  समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा सम्पन्न है।वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।- 19 &20"*वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धा काण्ड/पञ्चाशः सर्ग/*विन्द्याचल  पर सीता जी की खोज करते करते अंगद, जाम्बवन्त जी और  हनुमानजी सहित वानर विन्द्याचल के नैऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम) वाले शिखर पर जा पहूँचे।वहीँ रहते हुए उनका वह समय जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया।3खोजते खोजते उन्हे वहाँ एक गुफा दिखाई दी, जिसका द्वार बन्द नही था। अर्थात खुला था।- 07वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी।एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानर गण बहुत थक गये थे, पानी पीना चाहते थे। - 8"नाना प्रकार के वृक्षों से भरी उस गुफा में वे एक योजन तट एक दुसरे को पकड़े हुए गये। - 21*(एक योजन चलने पर) तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखाई दिया। और अन्धकार रहित वन देखा, वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमयी थे।* - 24*अर्थात गुफा आरपार खुला था।*"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/ त्रिपञ्चाशः सर्ग/*तदन्तर उन वानरों ने महासागर देखा। - 1वानरों का वह एकमास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लोटने का समय निश्चित किया था।  - 2"वे एक दुसरे को बताकर कि, अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेशानुसार एक माह के भीतर जो काम कर लेना चाहिए था , वह न कर सकने के  या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे भूमि पर गिर पड़े।- 5"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/षट्पञ्चाशः सर्ग/*पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास करने बैठे थे उस स्थान पर गृध्रराज सम्पाति आये। - 1 & 2" *वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/अष्टपञ्चाशः सर्ग/*सप्पाति जी ने कहा-एक दिन मेने भी देखा,दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रुपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था। - 15वह भामिनी 'हा राम ! हा राम! हा लक्ष्मण! की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती छटपटा रही थी। - 16श्रीराम का नाम लेनेसे मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी। अब मैं उस राक्षस का घर का पता बतलाता हूँ, सुनो। - 18रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। वह "लंङ्का नामवाली नगरी में निवास करता है।" - 19(ध्यान दें लंका को केवल नगरी कहा है। सिंहल द्वीप/ श्रीलंका जैसा बड़ा स्थान नही हो सकता।)*यहाँ से शतयोजन (अर्थात लगभग 1287 कि.मी.) के अन्तर पर समुद्र में एक द्वीप है, वहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी निर्माण किया है।' - 20(नोट- शत योजन को अनुवादक ने  चारसो कोस लिखा है अर्थात 1287 कि.मी.।)
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ चौथा सर्ग देखें ---
किष्किन्धा से पश्चिम घाट पर ही चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93गस प्रकार वे सह्य और मलय  को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103"*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकोनविश सर्ग/*समुद्र की शरण लेने की विभिषण की सलाह - 31विभिषण की सलाह पर सर्व सम्मति - 40श्रीराम समुद्र तट पर कुशा बिछाकर धरना देने बैठे। -41*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकविंश सर्ग/*इस प्रकार समुद्र तट पर  तीन रात लेटे लेटे बीतने पर भी समुद्र देव प्रकट नही हुए ।- 11-12श्रीराम समुद्र पर कुपित हो गये।- 13श्रीराम ने अपने धनुष सेबड़े भयंकर बाण समुद्र पर छोड़े।-  27समुद्र मेंहुई हलचल को देख-लक्ष्मण ने श्री राम का धनुष पकड़ कर रोका ।- 33वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/द्वाविंश सर्ग/श्रीराम ने ब्रह्मास्त का संधान किया -  5तब समुद्र के मध्य सागर सवयम् उत्थित हुआ। - 17"समुद्र ने विश्वकर्मा पुत्र नल का परिचय दिया और बतलाया कि नल समस्त विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) का ज्ञाता है। - 45यह महोत्साही वानर पिता के समान योग्य है।मैं इसके कार्य को धारण करुँगा। - 46तब नल ने उठकर श्रीराम से बोला - 48मैं पिता के समान सामर्थ्य पुर्वक समुद्र पर सेतु निर्माण करुँगा। -  48समुद्र ने मुझे स्मरण करवा दिया है।मै बिना पुछे अपने गुणों को नही बतला सकता था।  अतः चुप था।- 52मैं सागर पर सेतु निर्माण में सक्षम हूँ।अतः सभी वानर मिल कर सेतु निर्माण आज ही आरम्भ करदें। 53।वानर गण वन से बड़े बड़े वृक्ष और पर्वत शिखर / बड़े बड़े पत्थर/ चट्टानें ले आये।- 55महाकाय  महाबली वानर यन्त्रों ( मशीनों) की सहायता से बड़े बड़े पर्वत शिखर / शिलाओं को तोड़ कर/ उखाड़ कर समुद् तक परिवहन (ट्रांस्पोर्ट) कर लाये। -60कुछ बड़े बड़े शिलाखण्डों से समुद्र पाटने लगे।कोई सुत पकड़े हुए था। - 61कोई नापने के लिये दण्ड पकड़े था,कोई सामग्री जुटाते थे।वृक्षों से सेतु बाँधा जा रहा था। -  64 & 65पहले दिन उन्होने चौदह योजन लंबा सेतु बाँधा। -69(नोट - तट वर्ती क्षेत्र में केवल भराव करने से काम चल गया अतः  180 कि.मी. पुल बन गया। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी हो जायेगी।)दुसरे दिन बीस का योजन सेतु तैयार हो गया  - 69(अर्थात दुसरे दिन (20- 14 = 6 योजन  सेतु बना।छः  योजन अर्थात 77 कि.मी. पुल बना कर सेतु की कुल लम्बाई बीस योजन अर्थात 257 कि.मी. होगई। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी होगई।दुसरे दिन गति लगभग आधी ही रह गई।)तीसरे दिन कुल इक्कीस योजन का सेतु निर्माण कर लिया। - 70(अर्थात तीसरे दिन एक योजन  यानी 12.87 कि.मी. सेतु बन पाया और सेतु की कुल लम्बाई 21 योजन = 270 कि.मी. हो गई।(नोट - गति कम पड़ना स्वाभाविक ही है।दुसरे दिन गति आधी रह गई और तीसरे दिन से तो  एक एक योजन अर्थात  प्रतिदिन 12.87 कि.मी. ही पुल  बनेने लगा।)चौथे दिन वानरों ने बाईस योजन तक का सेतु बनाया। - 71(अर्थात एक योजन / 12.87 कि.मी.वृद्धि हुई और कुल22 योजन =   283 कि.मी. पुल बना।)पाँचवें दिन वानरों ने कुल 23 योजन सेतु बना लिया। - 72(अर्थात एक योजन वृद्धि कर सेतु की कुल लम्बाई 23 योजन = 296 कि.मी. होगई।)इस प्रकार विश्वकर्मा पुत्र नल ने  ( पाँच दिन में वानरों की सहायता से भारत की मुख्य भूमि से रावण की लंका तक   23 योजन = लगभग 300 कि.मी. का )  सेतु समुद्र में  तैयार कर दिया।नोट - इस प्रकार भारत की मुख्य भूमि पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कोजीकोड से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. का सेतु / पुल तैयार कर लिया।)सुचना - पुरातत्व विदों द्वारा केरल के कण्णूर से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप के बीच वास्तविक रामसेतु खोजा जाना चाहिए।(सूचना - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट जहाँ से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  के द्वीप पड़ते है। तथा  पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर  से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में हो सकती है। कण्णूर और लक्ष्यद्वीप का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्ध भी सदा से रहा है। कण्णूर से सोलोमन के मन्दिर के लिए लकड़ियाँ जहाज द्वारा गई थी।   ईराक के उर से व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।)(नोट - यह विशुद्ध विश्वकर्म / इंजीनियरिंग का कमाल था।न कि राम नाम लिखने से पत्थर तैराने का  कोई चमत्कार। तैरते पिण्डों को बानध कर पुल बनाना भी इंजीनियरिंग ही है किन्तु यहाँ उस तकनीकी का प्रयोग नही हुआ।किन्तु नाम लिखने से फत्थर नही तैरते बल्कि जैविकीय गतिविधियों से निर्मित कुछ पाषाण नुमा संरचना समुद्र में तैरती हुई कई स्थानों में पायी। जाती है।इसमें कोई चमत्कार नही है।पाषाण नुमा संरचनाएँ जो बीच में पोली / खाली होती है उनमें हवा हरी रह जाती है।ऐसे पत्थरों का घनत्व एक ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर से कम होने के कारण वे भी बर्फ के समान तैरते हैं। )नोट --श्लोक 76 में सेतु की लम्बाई शत योजन और चौड़ाई दश योजन लिखा है। निश्चित ही यह श्लोक प्रक्षिप्त है क्यों कि,  नई दिल्ली से आन्ध्रप्रदेश के चन्द्रपुर से आगे असिफाबाद तक की दुरी के बराबर  सेतु की लम्बाई 1288 कि.मी. कोई मान भी लेतो 129 कि.मी. चौड़ा पुल तो मुर्खता सीमा के पार की सोच लगती है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दुरी भी 110 कि.मी. है।उससे भी बीस कि.मी.अधिक चौड़ा पुल तो अकल्पनीय है।अस्तु यह स्पष्ट है कि, दासता युग में सूफियों के इन्द्रजाल अर्थात वैज्ञानिक और कलात्मक जादुगरी से प्रभावित कुछ लोगों ने मिलकर पुराने ग्रन्थों में भी ऐसे चमत्कार बतलाने के उद्देश्य से ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक डाल दिये। जो मूल रचना से कतई मैल नही खाते। ऐसे हीश्लोक 78 में वानरों की संख्या सहत्र कोटि यानी एक अरब जनसंख्या बतलाई है।भारत की जनसंख्या के बराबर एक अरब वा्नर  श्रीलंका में भी नही समा पाते।अस्तु शास्त्राध्ययन में स्वविवेक जागृत रखना होता है।" "खम्बात की खाड़ी के तट कोरोमण्डल दहेज के लूवारा ग्राम के परशुराम मन्दिर  से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  का किल्तान द्वीप पड़ता है। तथा केरल के  पश्चिमी घाँट के  नीलगिरी के कोजीकोड के रामनाट्टुकारा और पन्थीराम्कवु से से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीन सौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है।अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में रावण की लंका हो सकती है।पुरे प्रकरण को पढ़कर भारत का नक्षा  एटलस  लेकर जाँचे।कि,  भारत के पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर (केरल) से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. है। और गुजरात के खम्बात की खाड़ी से दहेज नामक स्थान से किल्तान की दुरी भी लगभग 1290 कि.मी. है।अस्तु लगभग किल्तान द्वीप के आसपास ही रावण की लंका रही होगी। लक्षद्वीप में किल्तान द्वीप राजधानी करवत्ती से उत्तर में है।अध्ययन कर पता लगाया जा सकता है कि किल्तान या करवत्ती या कोई डुबा हुआ द्वीप में से रावण की लंका कौनसा द्वीप था।यह कार्य पुरातत्व विभाग और पुरातत्व शास्त्रियों का कार्य है।रामेश्वरम कहाँ है --- परशुराम जी का मूल नाम राम है। परशु धारण करनें के कारण उनका नाम परशुराम पड़ गया। यह भी सम्भव है कि, अयोध्या नरेश श्री राम की ख्याति बड़नें के कारण विशिष्ठिकृत नाम के रूप में परशुराम नाम प्रचलित हुआ हो।रामायण में श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिङ्ग स्थापना का वर्णन नही है। किन्तु वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद के ग्रन्थ कम्ब रामायण के आधार पर यह मान्य हुआ। ऐसी लोक मान्यता है कि, केरल में त्रिशुर भी गुरुवयूर से 38 कि.मी दूर त्रिशुर के शिवलिङ्ग की स्थापना परशुराम जी ने की थी।अतः सम्भव है कि, कवि कम्बन ने त्रिशुर वाले रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग का वर्णन करनें में स्व स्थान तमिलनाड़ु में वर्णित कर दिया हो या बाद में किसी ने परिवर्तन किया हो। अतः त्रिशुर का परशुरामेश्वर की देखा-देखी ही तमिलनाडु में धनुषकोडी के निकट रामेश्वरम मान लिया गया।

श्रीरामचरित्र के सच और लोक मान्यताओं में आकाश पाताल का अन्तर है।

 
कृपया देखें -- वाल्मीकि रामायण/ बालकाण्ड/ उनचासवाँ सर्ग/ श्लोक 19 से 21 तक। विशेषकर श्लोक 17 और 18
श्री रामचन्द्र जी ने तपस्या कर रही अहिल्या के चरण छूकर प्रणाम माता जी कहा, लेकिन लोग कहते हैं कि, पत्थर बनी अहिल्या को श्री रामचन्द्र जी ने पैर के अङ्गुष्ठ से छुआ।

कर्नाटक -केरल और लक्ष्यद्वीप का मानचित्र (नक्षा) लेकर वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धाकाण्ड/ पचासवाँ सर्ग/ श्लोक ३,7-8, 21, 24, तिरेपनवाँ सर्ग/ श्लोक 1, 2, 5 एवम् छप्पनवाँ सर्ग / श्लोक 1 एवम् 2, तथा अट्ठावनवाँ सर्ग/ श्लोक 15 से 20 तक, इकतालीसवाँ सर्ग/ श्लोक 19 एवम् 20 और युद्ध काण्ड/ सर्ग/श्लोक 70 -71 , और 92 से 94 तथा 103 एवम् एक सौ एकसौ इक्कीसवाँ सर्ग / श्लोक 17, 45 से 48, 52-53,55,60-61,64-65,69, 71 एवम् 72 पढ़ने पर निश्चित ही समझ आ जाएगा कि, 
*हनुमान जी भरुच के पास से समुद्र पार कर लंका गये थे। लोग धनुषकोडी के पास बतलाते हैं।* 
 *रावण की लंका लक्ष्यद्वीप के स्थान पर श्रीलंका मानते है़। श्री रामचन्द्र जी द्वारा कोझीकोड (केरल) से किल्तान द्वीप तक राम सेतु बनवाया था, लेकिन ,लोग तथाकथित एडम ब्रिज को राम सेतु मानते हैं।* 

 *रावण ने वेदाध्ययन किया था ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन लोग रावण को वेदज्ञ मानते हैं।* 
तैत्तिरीय संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण का सम्बन्ध श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी के शिष्य वैशम्पायनजी जी से है, यह वर्णन सर्वत्र उपलब्ध है। 
लेकिन लोग कहते हैं कि, यजुर्वेद पर रावण ने भाष्य किया था, और उस भाष्य और यजुर्वेद को गड्ड-मड्ड कर दिया इसलिए इसे कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं। जो दक्षिण भारत में कर्मकाण्ड का आधार है।
*रावण अधर्मी तान्त्रिक था यह उल्लेख किष्किन्धाकाण्ड और युद्ध काण्ड में कई बार मिलता है। लेकिन लोग उसे महान शिवभक्त कहते हैं। *
 
वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धाकाण्ड/ इकतालीसवाँ सर्ग/श्लोक 19-20 देखें ---
 *दक्षिणापथ पर सीताजी की खोज कर्ता दल को स्पष्ट निर्देश देते हैं कि, (तञ्जावुर में) पाण्ड्यदेश का सूचना पट्ट देखकर दक्षिण में आगे बढ़ जाना। (पाण्ड्यदेश में प्रवेश न करना।)* 

 और वाल्मीकि रामायण/ युद्धकाण्ड/ चौथा सर्ग देखें --- *किष्किन्धा से पश्चिम घाट पर ही चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70
श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71 
श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92 
महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93 
इस प्रकार वे सह्य और मलय को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94 
उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103* 
*श्री रामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये ही नहीं और न कहीं भी कोई शिवलिङ्ग स्थापित किया, लेकिन लोग रामेश्वरम श्री रामचन्द्र जी द्वारा स्थापित बतलाते हैं।* 

 *रावण को सिविल इंजीनियरिंग का भी ज्ञान नहीं था, नल नील द्वारा पाँच दिन में राम सेतु तैयार कर दिया इसपर उसे घोर आश्चर्य हुआ। गुप्तचर बतलाते रहे, लेकिन वह उपहास करते हुए दारु पी कर रंगरेलियां करता रहा। ऐसे मुर्ख को राजनीति का पण्डित कहते हैं।* 

वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ बानवेंवाँ सर्ग/ श्लोक 66-67 के अनुसार 
 *मेघनाद वध से दुःखी और क्रुद्ध रावण को दी गई राय के आधार पर अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को रावण द्वारा पूर्ण तैयारी से श्री रामचन्द्र जी के विरुद्ध युद्ध होना निश्चित हुआ।* 
और 
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ आठवाँ सर्ग/ श्लोक 17-23 के अनुसार
 *अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को सन्ध्या समय हुए इस अन्तिम युद्ध में ही श्री रामचन्द्र जी द्वारा रावण की छाती पर मारा बाण रावण का हृदय वेधता हुआ आर-पार हो गया और पहले धरती में धँस गया। फिर तरकस मे लौट आया।* 
 *रावण की मृत्यु होते ही रावण की मृत शरीर रथ से धरती पर गिर पड़ा।*
*अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ब्रह्मास्त्र से हृदय विदीर्ण हो जाने से रावण तत्काल ही मर गया, लेकिन लोग कहते हैं कि, रावण आश्विन शुक्ल दशमी को मरा और उसके मरने से पहले श्रीरामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने भेजा।* 

ऐसे ही
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ चौबीसवाँ सर्ग/ श्लोक १ देखें ---
*श्री रामचन्द्र जी वनवास पूर्ण कर चैत्र शुक्ल पञ्चमी को भरद्वाज आश्रम पहूँचे और चैत्र शुक्ल षष्ठी को अयोध्या पहुँचे। लेकिन* 
 *लोग कहते हैं कि, श्री अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण अमावस्या को रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनाई जाती है।*

*ऐसे ही सप्रमाण शास्त्र मत पहले ही भेज चुका हूँ। कि,* 

 *दीपावली लक्ष्मी पूजा 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को है लेकिन* 
*लोग 31 अक्टूबर 2024 गुरुवार को ही मनाएंगे।*

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

ब्राह्मणों के शत्रु ब्राह्मण होना दुःख दाई।

यह सुनकर दुःख हुआ कि, भारत में जैन-बौद्ध प्रभाव कितना अन्दर तक धँसा हुआ है कि, जैनाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए। बौद्धाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए।
जैन पन्थ और बौद्ध पन्थ के आचार्यों ने सदा से लेकर आज तक यह स्वीकार किया कि, सनातन वैदिक धर्म का अस्तित्व ब्राह्मणों और आचार्यों के बलबूते पर ही सुरक्षित है। उनके प्रचार में सबसे बड़े बाधक ब्राह्मण और आचार्य ही हैं।
यह बात जरथ्रुस्त्र और सिकन्दर ने भी अनुभव की थी।
यही बात ईसाई मिशनरियों ने भी कही।
मुस्लिम और ईसाई आक्रांताओं ने सबसे अधिक प्रताड़ित और हत्या ब्राह्मणों की ही की।

लेकिन हमारी दुर्दशा के लिए ब्राह्मणों और आचार्यों को कोसने वाले अनुसूचित जाति के नवबौद्ध और जनजाति के जयस वाले, यादव कहे तो इतना दुःखद नहीं लगता जितना बौद्ध दर्शन से प्रभावित ब्राह्मणों का विरोध देखकर होता है।
ये अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का आकलन नही कर पाते, उनकी तत्कालीन समस्याओं, संघर्षों और विवशताओं को नहीं देख समझ पाते, और इन विवशताओं में लिए गए निर्णयों, और किये गए संशोधनों को नहीं समझ पाते इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या होगा।
जबकि, जैन-बौद्ध मत परिवर्तन कर संन्यासी बनने के डर से और आक्रांताओं के कारण बाल विवाह तथा विधवा जीवन में परिवर्तन का संशोधन, सति होने और जोहर करने की विवशता, रात्रि में विवाह करना, वार्षिक पूजा छुपकर करना आदि विवशताएँ विदेशी तक समझ गये।  उनके द्वारा किए गए अनुमोदन के कारण अब समझदार भारतीय भी मानने लगे हैं। लेकिन ब्राह्मण स्वयम् स्वीकार नहीं करते।
निन्दा  करेंगे लेकिन, स्वयम् करेंगे वही जो परम्परा है। वे स्वयम् बदलने को तैयार भी नहीं हैं।
जिन रूढ़ियों और सोच (चिन्तन) को आद्य शंकराचार्य जी जैसे तपस्वी और ज्ञानी को भी स्वीकार कर पञ्च देवोपासना स्वीकार करना पड़ी। यहाँ तक कि, यमोपासकों को भी उनकी उपासना के अतिरिक्त पञ्चदेवोपासना स्वीकारना पढ़ी। वैदिक - श्रोत्रियों के ब्राह्म धर्म और ब्राह्मण धर्म को स्मार्त पन्थ में ही समाविष्ट करना पड़ा।
उनके सामने अन्य कोई इतनी बड़ी विभूति नही हुई। तो इन आचार्यों ने एक विशेष प्रकार से सोचने और मान्यताओं वालों को संगठित करने का कार्य तोड़ने वाला कैसे माना जा सकता है?
जब एकादशी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, नृसिंह जयन्ती, आदि में जब स्मार्त पर्वकाल की बात करते हैं। व्रत की तिथि की अगली तिथि में पारण होना आवश्यक बतलाते हैं, तब पौराणिक लोग पौराणिक कथाओं के आधार पर मध्यरात्रि के बाद एकादशी लगे, या पचपन घटि के बाद एकादशी लगे, या छप्पन घटि के बाद एकादशी लगे तो दशमी विद्धा मान लेते हैं। और एकादशी के बजाय द्वादशी में उपवास करके त्रयोदशी में पारण करते हैं।
जन्माष्टमी में उदिया अष्टमी तिथि, सूर्योदय काल में रोहिणी नक्षत्र आवश्यक लगता है । सप्तमी वेध नहीं होना।
लेकिन स्मार्तों का विरोध करने के लिए दिपावली में चतुर्दशी वेध से कष्ट नहीं होता, उस समय पर्वकाल प्रदोषकाल व्यापी और महानिशिथ काल व्यापिनी अमावस्या चाहिए। शास्त्रोक्त मत चुभने और खलने लगे। यही स्थिति शंकराचार्य द्वारा अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के विरोध करने पर भी बनी थी। तब राजनीति शास्त्रों पर भारी पड़ रही थी।
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय ।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥
सुभाषित स्मरण हो आया।

भारतीय व्यावसायिक पद्यति।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में पण्डितों का कार्यकाल, क्षत्रियों की कचहरी, किसानों का अन्न भण्डार, व्यापारी की दुकान, मूर्तिकार, चित्रकार, सुनार, लोहार, सुतार, कुम्भकार, दर्जी आदि विश्वकर्माओं और वैद्य (फिजिशियन), नाई (सर्जन) आदि सबके वर्कशाप आदि घर में आगे ही होती थी ।
भारतीय शास्त्र भारतीय रीति-नीति के अनुसार बने हैं।
इसलिए दो अलग-अलग पूजा की आवश्यकता ही नहीं होती थी।

अंग्रेजी व्यवस्था ने घर से दूर ऑफिस और बाजार कर दिये।
इसलिए समस्या खड़ी हुई।

दीपावली पूजन

आचार्य श्री कमलाकर भट्ट प्रणीत
निर्णय सिन्धु/प्रथम परिच्छेद/पूर्णिमा - अमावस्या तिथि विचार। ---

पौर्णमास्यमावास्ये तु सावित्रीव्रतम् विना परे ग्राह्ये। भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्णे कदाचन। वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्री व्रतमुत्तमम्। इति ब्रह्मवैवर्तात।

पूर्णिमा तिथि तथा अमावस्या तिथि सावित्री व्रत के विना परा ग्रहण करनी चाहिये। ब्रह्मवैवर्त पुराण का मत है कि,-- हेमुनिश्रेष्ठ, व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी नहीं करना चाहिये।


आचार्य काशीनाथ उपाध्याय कृत धर्मसिन्धु/द्वितीय परिच्छेद/ अथामावस्याभ्यङ्गनिर्णयः--

अथाश्विनामावस्यायाम् प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्।।
तत्र सूर्योदयम् व्याप्यास्तोत्तरम् घटिकाधिरात्रिव्यापिनि दर्शे सति न सन्देहः।।
अत्र प्रातरम्यङ्गदेवपूजनादिकम् कृत्वापराह्ने पार्वणश्राद्ध कृत्वा प्रदोष समये दीपदानोल्काप्रदर्शनलक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनम् कार्यम् ।। 
अत्र दर्शेबालवृद्धादिभिन्नेर्दिवा न भोक्तव्यम्।।
रात्रो भोक्तव्यमिति विशेषो वाचनिकः।।
तथा च पर दिने एव दिनद्वयेपि वा प्रदोषव्यापौपरा।।
पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा।। अभ्यङ्गस्नानादौ परा।।
एवमुभयत्र प्रदोषव्याप्त्यभावेपि पुरुषार्थचिन्तामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरिति पक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापिदर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्तवे लक्ष्मीपूजादिकमपि परत्रैवैत्युक्तम् ।।
एतन्मते उभयत्र प्रदोषव्याप्तिपक्षेपि परत्र दर्शस्य सार्धयामत्रयाधिव्याप्तित्वात्परैव युक्तेति भाति।।
चतुर्दश्यादिदिनत्रयेपि दीपावलिसञ्ज्ञके यत्रयत्राह्नि स्वातीनक्षत्रयोगस्तस्यतस्य प्राशस्त्यातिशयः अस्यामेव निशिथोत्तरम् नगरस्त्रीभिः स्वगृहाङ्गणादलक्ष्मीनिःसारणम् कार्यम्।।

मिहिरचन्द्र कृत अनुवाद ---
इसके अनन्तर आश्विन की अमावस्या को प्रातःकाल अभ्यङ्ग करें। प्रदोष काल में दीपदान, लक्ष्मी पूजन आदि कहा है। 
उसमें यदि सूर्योदय से सूर्यास्त के अनन्तर एक घड़ी से अधिक रात्रि तक अमावस्या हो तो, कुछ सन्देह नहीं है। इसमें प्रातः काल अभ्यङ्ग, देवपूजा आदि करके अपराह्न में पार्वण श्राद्ध करके प्रदोषकाल में दीपदान उल्का प्रदर्शन , लक्ष्मी पूजन, करके भोजन करना। इस अमावस्या के दिन में बालक, वृद्ध आदि को छोड़कर कोई भोजन न करें, रात्रि में ही भोजन करें। यह विशेष वाचनिक है सो दर्शाया जाता है कि, दूसरे दिन (परले दिन ) या दोनों दिन प्रदोष व्यापिनी हो तो, दूसरी (परली) लेना। इस प्रकार दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के अभाव में भी दुसरी (परली) लेना। 
पुरुषार्थ चिन्तामणि में कहा है कि, पहले दिन व्याप्ति हो।
इस पक्ष में यदि आगे तीन प्रहर से अधिक अमावस्या आचार्य श्री कमलाकर भट्ट प्रणीत
निर्णय सिन्धु/प्रथम परिच्छेद/पूर्णिमा - अमावस्या तिथि विचार। ---

पौर्णमास्यमावास्ये तु सावित्रीव्रतम् विना परे ग्राह्ये। भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्णे कदाचन। वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्री व्रतमुत्तमम्। इति ब्रह्मवैवर्तात।

पूर्णिमा तिथि तथा अमावस्या तिथि सावित्री व्रत के विना परा ग्रहण करनी चाहिये। ब्रह्मवैवर्त पुराण का मत है कि,-- हेमुनिश्रेष्ठ, व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी नहीं करना चाहिये।


आचार्य काशीनाथ उपाध्याय कृत धर्मसिन्धु/द्वितीय परिच्छेद/ अथामावस्याभ्यङ्गनिर्णयः--

अथाश्विनामावस्यायाम् प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्।।
तत्र सूर्योदयम् व्याप्यास्तोत्तरम् घटिकाधिरात्रिव्यापिनि दर्शे सति न सन्देहः।।
अत्र प्रातरम्यङ्गदेवपूजनादिकम् कृत्वापराह्ने पार्वणश्राद्ध कृत्वा प्रदोष समये दीपदानोल्काप्रदर्शनलक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनम् कार्यम् ।। 
अत्र दर्शेबालवृद्धादिभिन्नेर्दिवा न भोक्तव्यम्।।
रात्रो भोक्तव्यमिति विशेषो वाचनिकः।।
तथा च पर दिने एव दिनद्वयेपि वा प्रदोषव्यापौपरा।।
पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा।। अभ्यङ्गस्नानादौ परा।।
एवमुभयत्र प्रदोषव्याप्त्यभावेपि पुरुषार्थचिन्तामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरिति पक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापिदर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्तवे लक्ष्मीपूजादिकमपि परत्रैवैत्युक्तम् ।।
एतन्मते उभयत्र प्रदोषव्याप्तिपक्षेपि परत्र दर्शस्य सार्धयामत्रयाधिव्याप्तित्वात्परैव युक्तेति भाति।।
चतुर्दश्यादिदिनत्रयेपि दीपावलिसञ्ज्ञके यत्रयत्राह्नि स्वातीनक्षत्रयोगस्तस्यतस्य प्राशस्त्यातिशयः अस्यामेव निशिथोत्तरम् नगरस्त्रीभिः स्वगृहाङ्गणादलक्ष्मीनिःसारणम् कार्यम्।।

मिहिरचन्द्र कृत अनुवाद ---
इसके अनन्तर आश्विन की अमावस्या को प्रातःकाल अभ्यङ्ग करें। प्रदोष काल में दीपदान, लक्ष्मी पूजन आदि कहा है। 
उसमें यदि सूर्योदय से सूर्यास्त के अनन्तर एक घड़ी से अधिक रात्रि तक अमावस्या हो तो, कुछ सन्देह नहीं है। इसमें प्रातः काल अभ्यङ्ग, देवपूजा आदि करके अपराह्न में पार्वण श्राद्ध करके प्रदोषकाल में दीपदान उल्का प्रदर्शन , लक्ष्मी पूजन, करके भोजन करना। इस अमावस्या के दिन में बालक, वृद्ध आदि को छोड़कर कोई भोजन न करें, रात्रि में ही भोजन करें। यह विशेष वाचनिक है सो दर्शाया जाता है कि, दूसरे दिन (परले दिन ) या दोनों दिन प्रदोष व्यापिनी हो तो, दूसरी (परली) लेना। इस प्रकार दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के अभाव में भी दुसरी (परली) लेना। 
पुरुषार्थ चिन्तामणि में कहा है कि, पहले दिन व्याप्ति हो।
इस पक्ष में यदि आगे तीन प्रहर से अधिक अमावस्या हो तो दर्श की अपेक्षा से प्रतिपदा की वृद्धि हो तो लक्ष्मी पूजन आदि भी दुसरे दिन (परले दिन) ही करें। इस मत में दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के पक्ष में भी दुसरे दिन (परले दिन) अमावस्या साढ़े तीन प्रहर से अधिक हो तो, इससे दूसरी (परली) ही युक्त है, यह प्रतीत होता है। दीपावली नामक चतुर्दशी आदि तीनों दिन मे जिस जिस दिन स्वाति नक्षत्र का योग हो उस उस दिन की प्रशंसा अधिक है। इसी अमावस्या को अर्धरात्रि के अनन्तर नगर की स्त्रियाँ अपने घर के आंगन में अलक्ष्मी (दारिद्र) का निस्तारण करें (निकालें)।।

धर्मसिन्धु 
पर दिने एव दिन द्वयेऽपिया प्रदोषव्याप्तौपरा। पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा। 

तिथि निर्णय 
इयम् प्रदो, व्यापिनी ग्राह्या, दिनद्वये सत्त्वाऽसत्त्वे परा।

पुरुषार्थ चिन्तामणी 
सदा साहाम्हमारभ्य प्रवृत्तोतरदिने किञचिन्नयुनयामत्रयम् अमावस्या तदत्तुरदिने यामत्रयमिता प्रतिपत्तदाऽमावस्याप्रयुक्त दीपदानलक्ष्मीपूजादिकम् पूर्वत्र। यदा तु द्वितीयदिने यामत्रयममावस्या तदुत्तररदिने सार्धमात्रयम् प्रतिपत्तदा परा।

अर्थात 
 अमावस्या के तीन प्रहर और प्रतिपदा के साढ़े तीन प्रहर समाप्त हो जाने के बाद अगले दिन लक्ष्मी पूजनादि करना चाहिए।
जिस दिन प्रदोषकाल में अमावस्या की सम्भावना कम हो शाम के समय अमावस्या और प्रदोष लग रही हो ; यानी, अमावस्या प्रतिपदा युक्त हो, उसी दिन लक्ष्मी-पूजा करनी चाहिए।

 *उक्त समस्त शास्त्र वचनों को दृष्टिगत रखते हुए दीपावली की लक्ष्मी-पूजन दिनांक 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को किया जाना ही उचित है।* 
 *यद्यपि 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को इन्दौर में प्रदोषकाल में अमावस्या मात्र 24 मिनट ही रहेगी, तथापि, सायंकाल में दीपदान कर प्रदोषकाल में, स्थिर वृषभ लग्न में लक्ष्मी पूजा विधि पूर्वक करें।* 
 *ऐसा संयोग पूर्व में भी 28 अक्टूबर 1962 मे, 17 अक्टूबर 1963 मे और 02 नवम्बर 2013 में हो चुका है। तब भी प्रदोषकाल में अल्पकालिक अमावस्या में ही लक्ष्मी पूजा की गई थी।* 
अतः किसी के बहकावे में न आकर *शास्त्र सम्मत दीपावली 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को ही मनाएँ।*


अमावस्या तिथि 31 अक्टूबर 2024 गुरुवार को दोपहर 03:52 से 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को रात्रि 06:06 बजे तक रहेगी। 
इन्दौर में प्रदोष काल सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 08:23 बजे तक रहेगा।
वृषभ लग्न रात्रि 06:35 से 08:33 बजे तक रहेगा।
इस प्रकार प्रदोषकाल में अमावस्या तिथि सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 06:06 बजे तक 24 मिनट रहेगी।
सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 06:06 बजे के बीच दीपमाला की पूजा कर, दीपदान कर, लक्ष्मी पूजा हेतु घी का दीपक प्रज्वलित कर ले फिर वृषभ लग्न में रात्रि 06:35 से 08:33 बजे के बीच लक्ष्मी पूजा करें।

स्वाति नक्षत्र 31 अक्टूबर उपरान्त 01 नवम्बर 2024 गुरुवार Friday को उत्तर रात्रि 00:44 बजे (12 बजकर 44 मिनट) से 01 उपरान्त 02 नवम्बर 2024 शुक्रवार Saturday को उत्तर रात्रि 03:30 बजे तक रहेगा।