भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नें स्वयम् को सुत्रात्मा प्रजापति और सरस्वती स्वरूप में प्रकट किया।
ये जैविक सृष्टि के रचियता हैं। प्रजापति की पत्नी (शक्ति) सरस्वती कहलाती है। प्रजापति भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
प्रजापति विश्वरूप (अर्थात ब्रह्माण्ड स्वरूप) हैं। इनकी आयु एक कल्प (चार अरब, बत्तीस करोड़, वर्ष) है। ये प्रथम जीव वैज्ञानिक तत्व हैं। विशाल अण्डाकार हैं। लेकिन शीर्ष चपटे होने के कारण चतुर्मुख कहलाते हैं।
इसलिए पुराणों में कथा है कि, पहले ब्रह्मा के पाँच मुख थे उन्हीं से उत्पन्न रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया तो उनके चार सिर रह गये। जबकि हिरण्यगर्भ दीर्घ गोलाकार या लगभग अण्डाकार है इसलिए पञ्चमुखी कहे गए हैं और प्रजापति भी अण्डाकार हैं लेकिन शिर्ष चपटा होने से चतुर्मुखी कहे गए हैं।
ये देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं। लेकिन शैवमत में एकरुद्र प्रजापति से पहले उत्पन्न होने के कारण महादेव मानेगये। (बादमें पुराणों में शंकरजी को महादेव कहने लगे।)
पञ्चमुखी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) चतुर्मुख प्रजापति -सरस्वती और (2) अर्धनारीश्वर स्वरूप नील लोहित वर्ण के पञ्चमुखी एकरुद्र,
(3) त्वष्टा-रचना के अलावा (4) सनक, (5) सनन्दन, (6) सनत्कुमार और (7) सनातन तथा (8) नारद ।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।
[सुचना - इन अर्धनारीश्वर एकरुद्र ने ही कालान्तर में स्वयम् को नर और नारी स्वरूपों में अलग-अलग विभाजित कर शंकर और उमा के स्वरूप में प्रकट किया। बादमें शंकर ने स्वयम् को दश रुद्रों के रूप में प्रकट किया और उमा भी दश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट हुई।
प्रजापतियों की तीन जोड़ी बतलाया गया है।
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
सूत्रात्मा प्रजापति के ही स्वरूप ओज (तीनों प्रजापति) और अणुरात्मा वाचस्पति के स्वरूप तेज (इन्द्र) अभिकरण अर्थात अधिनस्थ करण या निकटस्थ करण है। अधिनस्थ औजार या इंस्ट्रूमेंट।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से तीन देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये द्युलोक के/ स्वर्ग स्थानी प्रजापति हैं। धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी ।
इनके अलावा महारुद्र शंकर (शम्भु) और उमा तथा पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए।
महारुद्र शंकर जी ने स्वयम् को दश रुद्र स्वरूप में प्रकट किया जिनके नाम (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली हैं। इन्हीं के साथ उमा ने भी स्वयम् को दस रौद्रियों के रूप में प्रकट किया। जो रुद्रों की पत्नियाँ हुई। रुद्र- रौद्री (शंकर - उमा) मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं। ये अधिकांशतः हिमालय के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए थे। एकादश रुद्र भी कई प्रकार के हैं। इसलिए इन्हे आदि एकादश रुद्र लिखा है।
अतःएव एकरुद्र भी प्रजापति आदि के तुल्य हैं और शंकरजी भी दक्ष (प्रथम), रुचि और कर्दम आदि प्रजापतियों के तुल्य हुए। एवम् शेष दश रुद्र तो प्रजापति की सन्तानों (मरीचि, भृगु आदि) के तुल्य हुए।
साथ ही साकार पितरः अर्यमा और स्वधा ने स्वयम् षष्ठ पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अनल (५) सोम और (६) यम नामक साकार पितर हुए। अर्यमा, अनल, सोम और यम ये चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं। अर्यमा सहित ये सप्त पितरः कहलाते हैं।
दक्ष प्रजापति और प्रसुति से आठ भूस्थानी प्रजापति और हुए ये हैं (1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। दक्ष- प्रसुति सहित ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए इस लिए पुराणों में इन्हें नौ ब्रह्मा कहा गया है। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान हरियाणा में कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र गोड़ देश ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए ।
लोक - प्रकरण
आधिदैविक दृष्टि से द्युलोक में (1) (शतकृतु / शक्र) इन्द्र - शचि, (2) त्रिलोक में अग्नि-स्वधा, तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ। भूवर्लोक (अन्तरिक्ष) में (4) पितरः (अर्यमा - स्वधा) और (5) भूलोक में सोम- वर्चा और मतान्तर से स्वायम्भुव मनु- शतरूपा के रूप में जाने जाते है।
इन्द्र आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं। जबकि अग्नि वैराज देव (प्राकृतिक देवता) हैं।"
"प्रजापति के ब्रह्मज्ञानी शिष्य इन्द्र-शचि देवेन्द्र और देवराज हैं। इन्द्र के अधीन (द्वादश) आदित्य गण, (अष्ट) वसुगण, (एकादश) रुद्रगण हैं।
(1) प्रजापति, (2) इन्द्र, (3 से 14 तक) द्वादश आदित्य, (15 से 22 तक) अष्ट वसु तथा (23 से 33 तक) एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं।
द्वादश आदित्य (1) विष्णु, (2) सवितृ, (3) त्वष्टा, (4) इन्द्र, (5) वरुण, (6) विवस्वान, (7) पूषा, (8) भग, (9) अर्यमा, (10) मित्र, (11) अंशु और (12) धातृ।
अष्ट वसु 1) प्रभास, (2) प्रत्युष, (3) धर्म, (4) ध्रुव, (5) अर्क, (6) अनिल, (7) अनल और (8) अप् और
एकादश रुद्र (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली और (11) शम्भु (शंकर))
[कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर (1) दस्र और (2) नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।]
प्रजापति अजयन्त देव हैं और इन्द्र आजानज देव है। और शेष इकतीस देवता वैराज देव हैं।
(2) अग्नि-स्वधा - द्यु स्थानी देवता होते हुए भी स्वः में सूर्य, भूवः में विद्युत (तड़ित) और भूः में सप्तज्वालामय अग्नि के रूप में प्रकट होने वाले स्वर्ग अन्तरिक्ष और भू लोक में व्याप्त है।"
भूमि पर आदित्यों का वासस्थान कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वतमनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।
ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है - १ शुभा, २ ममता और ३ तारा।
इसे बुद्धि और बोध या बुद्धि और मेधा के रूप में समझा जाता है। आधिदैविक दृष्टि से इन्हे शक्तियों सहित अष्ट वसु और देवी आदि उनकी शक्तियों के नाम से जाना जाता है।
वसुगण मूलतः आदित्यों के सहचारी रहे लेकिन इनकी सन्तान पूर्ण भारतवर्ष में फैल गई।"
"पशुपति को अहंकार और अस्मिता के रूप में समझा जा सकता है। इन्हे आधिदैविक दृष्टि से शंकर और उमा के रूप में जानते हैं; जिनने स्वयम् शक्तियों/ रौद्रियों सहित एकादश रुद्र के रूप में प्रकट किया। ये अधिकांशतः हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए हैं।
वर्ण
ये सब सृष्टि के आदि पुरुष और स्त्रियाँ हैं।
ऐसा माना जाता है कि, स्वायम्भूव मन्वन्तर में जितने भी ब्राह्मण थे वे सब; (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।(4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति की सन्तान थे।
और जो क्षत्रिय थे वे स्वायम्भूव मनु - शतरूपा की सन्तान थे।
क्षात्र धर्म से ही पतित होकर कुछ लोग कृषि-पशुपालन करने लगे, वे वैश्य हो गये। और वैश्य कर्म से पतित होकर जो स्वर्णकार, धातुकर्मी ठठेरा, कुम्भकार (कुम्हार), शिल्पकार, चित्रकार, वैद्य, शल्यक्रिया करनेवाले नापित/ नाई, शस्त्र निर्माता लौहार , सुतार, रथकार आदि विश्वकर्म करने वाले कारीगर जो सभी वर्णों की सेवा करते थे वे शुद्र कहलाये।
इसलिए मुण्डन, उपनयन, विवाह और अन्त्येष्टि आदि संस्कारों में इनका महत्व ब्राह्मण के सहायक के रूप में होता है।
जुआ खेलने, नशा करने वाले मद्यप, बहेलिए, चिड़ीमार आदि मान्साहारी शुद्र पञ्चम कहलाये। इनसे भी पतित चाण्डाल कहलाये जो नगर के बाहर रहते थे।
जल प्रलय के बाद सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर में विवस्वान आदित्य के पुत्र वैवस्वत मनु (श्राद्ध देव और श्रद्धा) की सन्तान सभी सूर्य वंशिय क्षत्रिय माने जाते हैं। और उक्त क्रम में सभी वैश्य-शुद्र आदि हुए।
और वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों के शिष्य ब्राह्मण और विप्र हुए। यही शिष्य परम्परा गोत्र कहलाई।
गोत्र और प्रवर
एक ही गुरुकुल के कुल गुरु के समस्त शिष्य एक ही गोत्र के माने जाते थे।
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का गोत्र अलग हो जाता था लेकिन
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का प्रवर एक ही होता है। चूंकि मूलतः वे भी सगोत्रीय ही हुए इसलिए एक प्रवर वालों में भी परस्पर विवाह नहीं होता है।
गुरुकुल, वर्ण और आश्रम
जो व्यक्ति मानसिक या बौद्धिक अक्षमता वश किसी कारण गुरुकुल शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता था, वह पञ्चम वर्ण का कहलाता था।
वैदिक काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी के पुत्र पुत्रियाँ गुरुकुल से शिक्षित होते थे। लेकिन जो कर्मकार (कारीगरी) में कुशल हो जाते थे जो केवल वेदों और उपवेदों की शिक्षा लेकर गुरुकुल छोड़ देते थे, वे शुद्र बने और विशेषज्ञ न बन पाने के कारण विश्वकर्म / कारीगरी तक सीमित रहकर सेवा क्षेत्र में लग गए। और केवल वेदपाठ और गृह्य सुत्रों में उल्लेखित पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड और संस्कार करवाते थे। वे कर्मकाल में ही जनेऊ धारण करते थे। बाद में निकाल देते थे। उन्हें रोज जनेऊ बदलना पड़ती थी। वे शुद्र कहलाते थे।
जो स्वयम् भी नित्य पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड करते थे उन्हें नियम पूर्वक उपनयन संस्कार कर यज्ञोपवीत पहनाया जाता था। ये द्वीज कहलाते थे।
इनमें जो व्यवहार कुशल, कृषि -गोपालन आदि में पारङ्गत होते थे। अपने उत्पाद विक्रय करने के अलावा बाहर से उपभोक्ता वस्तुओं का आयात- निर्यात और विपणन तथा लेखाकर्म में पारङ्गत हो जाते थे ;अर्थात जो वेदाध्ययन के पश्चात नीति और व्यवहार, तथा लेखाकर्म, और सांख्यिकी (अंक गणित) का ज्ञान लेकर निकले वे वैश्य बनकर कृषि, पशुपालन और वाणिज्य में लग गए। वे वैश्य कहलाते थे।
जो वेदाध्ययन, नीति और व्यवहार, और उपवेदों में निपुण होकर धनुर्वेद विशेषज्ञ हो गये वे क्षत्रिय होकर सेना और नगरीय सुरक्षा में लग गए। जो शस्त्र विद्या में पारङ्गत होकर राष्ट्र और समाज की रक्षा का भार वहन करने का सङ्कल्प लेते थे वे क्षत्रिय कहलाते थे।
जो नित्यप्रति वेदाभ्यास करते थे, वे शिष्य विप्र बनकर निकलते थे।
जो विप्र वेदार्थ समझने हेतु उपवेदों के अतिरिक्त षड वेदाङ्ग का भलीभांति अध्ययन कर लेते थे। और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड तथा आरण्यकों और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे वे ब्राह्मण कहलाते थे।
अर्थात जो 1 ऋग्वेद, 2 यजुर्वेद, 3 सामवेद और 4 अथर्ववेद के अलावा वेदों के भाष्य ब्राह्मण ग्रन्थों (जिनमें- पूर्वभाग में कर्मकाण्ड और कर्म मीमांसा उत्तर भाग में व्यवहार, व्यवस्था का वर्णन आरण्यकों में और ज्ञान मीमांसा का वर्णन उपनिषदों में दिया गया है), उपवेद- 1 आयुर्वेद, 2 धनुर्वेद, 3 गान्धर्व वेद (सङ्गीत, नाट्य आदि), 4 शिल्प वेद - स्थापत्य वेद ( चारो उपवेद), तथा अर्थशास्त्र के अलावा 1 शिक्षा (उच्चारण), 2 व्याकरण, 3 निरुक्त (यास्क) (भाषाशासत्र, शब्द व्युत्पत्ति, निघण्टु/ शब्दकोश), 4 छन्दशास्त्र (पिङ्गल), 5 ज्योतिष और 6 कल्प ( १ धर्माधर्म, कार्य अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य उचित - अनुचित के विधि- विधान धर्म सूत्र, २ मण्डल और मण्डप निर्माण विधि विधान के लिए शुल्ब सूत्र, ३ बड़े यज्ञों के लिए श्रोत सुत्र, ४ संस्कारों, नित्य कर्म, पाक्षिक , मासिक और वार्षिक इष्टि, यज्ञों आदि के विधि - विधान हेतु गृह्यसूत्र) रूपी षडवेदाङ्ग का अध्ययन करके कर्मकाण्ड की मीमांसा - जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन, ब्रह्मसूत्रों अर्थात उपनिषदों की ज्ञान मीमांसा का बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सूत्र), सांख्यकारिकाओं और कपिल के सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा, पतञ्जली की कर्ममीमांसा का योग दर्शन, कणाद की तत्व मीमांसा का वैशेषिक दर्शन और गोतम की तर्क मीमांसा का न्याय दर्शन, वेदों के प्रति निरपेक्ष सन्देह वादियों का बौद्ध दर्शन, वेद विरोधियों का नास्तिक दर्शन, वेदों के प्रति नास्तिक अनिश्वरवादियों का जैन दर्शन सहित दर्शन शास्त्र में विशेषज्ञता प्राप्त कर आचार्य बने विप्र कहलाते थे। विप्रो में भी जो शुद्ध धर्मनिष्ठ, नित्य पञ्चमहायज्ञ सेवी, नित्य अष्टाङ्गयोग अभ्यासी होकर पूर्ण सदाचारी ब्रह्मचारी होता था वह ब्राह्मण कहलाता था।
ये ब्राह्मण ही वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल चलाते और नवीन वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान करते रहते थे, वे ऋषि कहलाते थे। ऋषि संन्यास आश्रम में सर्वत्यागी मुनि हो जाते थे।
जातियाँ
प्रवृत्ति, संस्कृति और आचरण के अनुसार देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, यक्ष, असुर, देत्य, दानव और राक्षस आदि वास्तविक अपरिवर्तनीय जातियाँ बनी। ये जन्मगत जातियाँ थी जिन्हें बदला नहीं जा सकता।
वर्तमान में प्रचलित जाति प्रथा
जातिप्रथा का आधार समान व्यवसाय रहा। इसलिए सर्व प्रथम वैश्यों और विश्वकर्माओं की जातियाँ बनी। जैसे - कृषक, माली, गोपाल (गवली), गड़रिया, स्वर्णकार, रत्नपारखी, ठठेरा, लौहार, सुतार, शिल्पकार, कुम्भकार (कुम्हार) राज मिस्त्री, वैद्य, नापित (नाई) (जो शल्य चिकित्सा भी करते थे।) आदि।
फिर राजन्य, सेनापति, सेना नायक, कोतवाल आदि क्षत्रिय जातियाँ बनी। अन्त में विप्रो में भी यज्ञ कर्ता अग्निहोत्री और शर्मा, ज्योतिष ज्ञाता जोशी, पौरहित्य करने वाले पुरोहित आदि जातियाँ बनी
फिर स्थान परिवर्तन (माइग्रेशन) के आधार पर जातियाँ बनी। जैसे हरियाणा के कुरुक्षेत्र के आसपास के गोड़ देश से निकले पञ्चगोड़ - आद्यगोड, गोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाड्य, सरयुपारीय, कान्यकुब्ज, जम्बु ब्राह्मण ,नार्मदीय, गुजराती, महाराष्ट्रीय, कन्नड़, तेलगु, तमिल, केरलीय, वनवासी भिल- भिलाला आदि।
एक ही गोत्र-प्रवर और एक ही ग्राम के निवासियों का परस्पर विवाह निषेध का कारण।
एक ही ग्राम के निवासियों को और एक ही गुरुकल या विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थियों को भ्रातृ भगिनी भाव रहना चाहिए
एक ही प्रकार से शिक्षित, एक ही प्रकार की रीति नीति पालन करने वालों में परस्पर विवाह होने पर भाषाई वर्ग और पन्थ - सम्प्रदाय उत्पन्न हो जाते हैं जिससे सामाजिक सद्भाव समाप्त हो दुरियाँ बढ़ती है।
जबकि आंशिक भिन्न परम्परा वालों के मेल मिलाप से ही स्वस्थ्य समाज का गठन होता है। परस्पर ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी का आदान-प्रदान होता है। इसलिए समान गोत्र - प्रवर के वर वधू और एक ही ग्राम के निवासियों में परस्पर विवाह निषेध किया गया है।
सपिण्ड
पिता की पन्द्रह पीढ़ी या कम से कम सात पीढ़ी और माता की तेरह पीढ़ी या कम से कम पाँच पीढ़ी के लोगों को सपिण्ड माना जाता है। इसलिए गुणसूत्र (जीन्स) साम्य होने के कारण जेनेटिक आधार पर सपिण्डों में विवाह निषेध किया गया है।
मनुस्मृति में समान जाति में विवाह को उचित बतलाया है। वहाँ जाति से तात्पर्य देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, नाग, गारुड़, यक्ष, असुर, दैत्य, दानव, राक्षस आदि जातियों को जाति मानकर कहा गया है। न कि, लोहार, सुतार, नागर, गोड़, आद्यगोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाढ्य, औदिच्छ, सरयुपारीय , कान्यकुब्ज, नार्मदीय, महाराष्ट्रीय, देशस्थ, कोकणस्थ, कराड़े, या अग्रवाल, महेश्वरी, नामक जातियों का।
वर्तमान में सजातीय विवाह एक प्रकार से सगोत्रीय विवाह का ही रूपान्तरण है। इसलिए यह भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।
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