शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

वेदों में तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। अमान्त मास प्रचलित थे।

*फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
वैदिक असमान विस्तार वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की सन्धि पर पूर्णिमा का चन्द्रमा होगा तो इससे १८०° पर स्थित नक्षत्र पर सूर्य होगा।
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)

*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
अर्थात वर्तमान में निरयन सौर वर्ष या सायन सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष को बराबर करने के लिए निर्धारित १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष वाला चक्र प्रचलित नहीं था।
महाभारत काल में हर अट्ठावन माह बाद उनसठवाँ और साठवाँ माह अधिक मास करते थे। ऐसे ही वैदिक काल में वर्षान्त पश्चात तेरहवाँ माह अधिक मास करते थे। सम्भवतः कितने वर्ष पश्चात करते थे यह स्पष्ट नहीं है।

इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। साथ ही उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि से भी इंगित करते थे। 

*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।* 
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।

तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। केवल उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि का ही उल्लेख है।

 *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
 *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।
ऐसे ही पारिश्रमिक वितरण में दशाह चलता था। सप्ताह शब्द भी मिलता है लेकिन उपयोग का उल्लेख नहीं है। वासर सूर्योदय से दुसरे सूर्योदय तक को कहते हैं, लेकिन ग्रहों के नाम वाले वार का उल्लेख नहीं है।
क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण मेंआसपास आठ-आठ अंश चोड़ी पट्टी में असमान आकृति वाले तारा मण्डलों को असमान भोगांश वाले नक्षत्र कहते थे। समान भोग वाले नक्षत्र नहीं थे। लेकिन सायन सौर मधु-माधव आदि मास निर्धारण हेतु विषुव वृत के तीस-तीस अंशों वाले अरे प्रयुक्त होते थे।
योग एवम् करण (तिथ्यार्ध) का उल्लेख नहीं है।
सूर्य से चन्द्रमा के बारह-बारह अंश के अन्तर पर तिथियाँ बदलती है। जैसे 348° से 360° तक अमावस्या रहती है। 00° से 12° अन्तर तक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, 12° से 24° तक द्वितीया, 24° से 36° तक तृतीया ....…. 168° से 180° तक पूर्णिमा। फिर 180° से 192° तक कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, 192° से 204° तक कृष्ण पक्ष की द्वितीया 204° से 216° तक कृष्ण पक्ष की तृतीया और पुनः 348° से 360° तक अमावस्या रहती है।
ऐसे ही सूर्य से चन्द्रमा के छः-छः अंश के अन्तर को करण कहते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें