रावण की लंका, रामसेतु निर्माण का संक्षिप्त विवरण।
*वाल्मीकि रामायण /किष्किन्धा काण्ड/ *एकचत्वारिशः सर्ग*/पाण्य वंशीय राजाओं के नगरद्वार पर लगे हुए सुवर्णमय कपाट दर्शन करोगे। जो मुक्तामणि यों से विभुषित एवं दिव्य है।( नोट - यहाँ से पाण्य देश की सीमा आरम्भ होती थी न कि, तंजोर नगर की।किन्तु इस प्रवेश द्वार को लेण्डमार्क के रुप में देखने भर को ही कहा है।पाण्यदेश/ तमिलनाड़ु में प्रवेश करने का निर्देश नही किया है। अर्थात पुर्वी घाँट की ओर नही बल्कि पश्चम घाँट की ओर ही जाने का अप्रत्यक्ष निर्देश है। शायद राक्षसों का प्रभाव लक्षद्वीप से नाशिक तक पश्चिम में ही अधिक था।कुछ लोग पाण्यदेश यानी तमिलनाड़ु देखकर ही उत्साहित होकर पुर्वीघाँट की ओर बढ़ने का अनुमान करते हैं। जबकि सुग्रीव ने देखते हुए आगे बढ़ने का निर्देश देते हैं प्रवेश का नही।)तत्पश्चात समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना।महर्षि अगस्त ने समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा सम्पन्न है।वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।- 19 &20"*वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धा काण्ड/पञ्चाशः सर्ग/*विन्द्याचल पर सीता जी की खोज करते करते अंगद, जाम्बवन्त जी और हनुमानजी सहित वानर विन्द्याचल के नैऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम) वाले शिखर पर जा पहूँचे।वहीँ रहते हुए उनका वह समय जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया।3खोजते खोजते उन्हे वहाँ एक गुफा दिखाई दी, जिसका द्वार बन्द नही था। अर्थात खुला था।- 07वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी।एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानर गण बहुत थक गये थे, पानी पीना चाहते थे। - 8"नाना प्रकार के वृक्षों से भरी उस गुफा में वे एक योजन तट एक दुसरे को पकड़े हुए गये। - 21*(एक योजन चलने पर) तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखाई दिया। और अन्धकार रहित वन देखा, वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमयी थे।* - 24*अर्थात गुफा आरपार खुला था।*"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/ त्रिपञ्चाशः सर्ग/*तदन्तर उन वानरों ने महासागर देखा। - 1वानरों का वह एकमास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लोटने का समय निश्चित किया था। - 2"वे एक दुसरे को बताकर कि, अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेशानुसार एक माह के भीतर जो काम कर लेना चाहिए था , वह न कर सकने के या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे भूमि पर गिर पड़े।- 5"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/षट्पञ्चाशः सर्ग/*पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास करने बैठे थे उस स्थान पर गृध्रराज सम्पाति आये। - 1 & 2" *वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/अष्टपञ्चाशः सर्ग/*सप्पाति जी ने कहा-एक दिन मेने भी देखा,दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रुपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था। - 15वह भामिनी 'हा राम ! हा राम! हा लक्ष्मण! की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती छटपटा रही थी। - 16श्रीराम का नाम लेनेसे मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी। अब मैं उस राक्षस का घर का पता बतलाता हूँ, सुनो। - 18रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। वह "लंङ्का नामवाली नगरी में निवास करता है।" - 19(ध्यान दें लंका को केवल नगरी कहा है। सिंहल द्वीप/ श्रीलंका जैसा बड़ा स्थान नही हो सकता।)*यहाँ से शतयोजन (अर्थात लगभग 1287 कि.मी.) के अन्तर पर समुद्र में एक द्वीप है, वहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी निर्माण किया है।' - 20(नोट- शत योजन को अनुवादक ने चारसो कोस लिखा है अर्थात 1287 कि.मी.।)वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ चौथा सर्ग देखें ---
किष्किन्धा से पश्चिम घाट पर ही चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93गस प्रकार वे सह्य और मलय को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103"*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकोनविश सर्ग/*समुद्र की शरण लेने की विभिषण की सलाह - 31विभिषण की सलाह पर सर्व सम्मति - 40श्रीराम समुद्र तट पर कुशा बिछाकर धरना देने बैठे। -41*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकविंश सर्ग/*इस प्रकार समुद्र तट पर तीन रात लेटे लेटे बीतने पर भी समुद्र देव प्रकट नही हुए ।- 11-12श्रीराम समुद्र पर कुपित हो गये।- 13श्रीराम ने अपने धनुष सेबड़े भयंकर बाण समुद्र पर छोड़े।- 27समुद्र मेंहुई हलचल को देख-लक्ष्मण ने श्री राम का धनुष पकड़ कर रोका ।- 33वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/द्वाविंश सर्ग/श्रीराम ने ब्रह्मास्त का संधान किया - 5तब समुद्र के मध्य सागर सवयम् उत्थित हुआ। - 17"समुद्र ने विश्वकर्मा पुत्र नल का परिचय दिया और बतलाया कि नल समस्त विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) का ज्ञाता है। - 45यह महोत्साही वानर पिता के समान योग्य है।मैं इसके कार्य को धारण करुँगा। - 46तब नल ने उठकर श्रीराम से बोला - 48मैं पिता के समान सामर्थ्य पुर्वक समुद्र पर सेतु निर्माण करुँगा। - 48समुद्र ने मुझे स्मरण करवा दिया है।मै बिना पुछे अपने गुणों को नही बतला सकता था। अतः चुप था।- 52मैं सागर पर सेतु निर्माण में सक्षम हूँ।अतः सभी वानर मिल कर सेतु निर्माण आज ही आरम्भ करदें। 53।वानर गण वन से बड़े बड़े वृक्ष और पर्वत शिखर / बड़े बड़े पत्थर/ चट्टानें ले आये।- 55महाकाय महाबली वानर यन्त्रों ( मशीनों) की सहायता से बड़े बड़े पर्वत शिखर / शिलाओं को तोड़ कर/ उखाड़ कर समुद् तक परिवहन (ट्रांस्पोर्ट) कर लाये। -60कुछ बड़े बड़े शिलाखण्डों से समुद्र पाटने लगे।कोई सुत पकड़े हुए था। - 61कोई नापने के लिये दण्ड पकड़े था,कोई सामग्री जुटाते थे।वृक्षों से सेतु बाँधा जा रहा था। - 64 & 65पहले दिन उन्होने चौदह योजन लंबा सेतु बाँधा। -69(नोट - तट वर्ती क्षेत्र में केवल भराव करने से काम चल गया अतः 180 कि.मी. पुल बन गया। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी हो जायेगी।)दुसरे दिन बीस का योजन सेतु तैयार हो गया - 69(अर्थात दुसरे दिन (20- 14 = 6 योजन सेतु बना।छः योजन अर्थात 77 कि.मी. पुल बना कर सेतु की कुल लम्बाई बीस योजन अर्थात 257 कि.मी. होगई। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी होगई।दुसरे दिन गति लगभग आधी ही रह गई।)तीसरे दिन कुल इक्कीस योजन का सेतु निर्माण कर लिया। - 70(अर्थात तीसरे दिन एक योजन यानी 12.87 कि.मी. सेतु बन पाया और सेतु की कुल लम्बाई 21 योजन = 270 कि.मी. हो गई।(नोट - गति कम पड़ना स्वाभाविक ही है।दुसरे दिन गति आधी रह गई और तीसरे दिन से तो एक एक योजन अर्थात प्रतिदिन 12.87 कि.मी. ही पुल बनेने लगा।)चौथे दिन वानरों ने बाईस योजन तक का सेतु बनाया। - 71(अर्थात एक योजन / 12.87 कि.मी.वृद्धि हुई और कुल22 योजन = 283 कि.मी. पुल बना।)पाँचवें दिन वानरों ने कुल 23 योजन सेतु बना लिया। - 72(अर्थात एक योजन वृद्धि कर सेतु की कुल लम्बाई 23 योजन = 296 कि.मी. होगई।)इस प्रकार विश्वकर्मा पुत्र नल ने ( पाँच दिन में वानरों की सहायता से भारत की मुख्य भूमि से रावण की लंका तक 23 योजन = लगभग 300 कि.मी. का ) सेतु समुद्र में तैयार कर दिया।नोट - इस प्रकार भारत की मुख्य भूमि पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कोजीकोड से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. का सेतु / पुल तैयार कर लिया।)सुचना - पुरातत्व विदों द्वारा केरल के कण्णूर से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप के बीच वास्तविक रामसेतु खोजा जाना चाहिए।(सूचना - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट जहाँ से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर लक्षद्वीप समुह के द्वीप पड़ते है। तथा पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी। जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में हो सकती है। कण्णूर और लक्ष्यद्वीप का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्ध भी सदा से रहा है। कण्णूर से सोलोमन के मन्दिर के लिए लकड़ियाँ जहाज द्वारा गई थी। ईराक के उर से व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।)(नोट - यह विशुद्ध विश्वकर्म / इंजीनियरिंग का कमाल था।न कि राम नाम लिखने से पत्थर तैराने का कोई चमत्कार। तैरते पिण्डों को बानध कर पुल बनाना भी इंजीनियरिंग ही है किन्तु यहाँ उस तकनीकी का प्रयोग नही हुआ।किन्तु नाम लिखने से फत्थर नही तैरते बल्कि जैविकीय गतिविधियों से निर्मित कुछ पाषाण नुमा संरचना समुद्र में तैरती हुई कई स्थानों में पायी। जाती है।इसमें कोई चमत्कार नही है।पाषाण नुमा संरचनाएँ जो बीच में पोली / खाली होती है उनमें हवा हरी रह जाती है।ऐसे पत्थरों का घनत्व एक ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर से कम होने के कारण वे भी बर्फ के समान तैरते हैं। )नोट --श्लोक 76 में सेतु की लम्बाई शत योजन और चौड़ाई दश योजन लिखा है। निश्चित ही यह श्लोक प्रक्षिप्त है क्यों कि, नई दिल्ली से आन्ध्रप्रदेश के चन्द्रपुर से आगे असिफाबाद तक की दुरी के बराबर सेतु की लम्बाई 1288 कि.मी. कोई मान भी लेतो 129 कि.मी. चौड़ा पुल तो मुर्खता सीमा के पार की सोच लगती है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दुरी भी 110 कि.मी. है।उससे भी बीस कि.मी.अधिक चौड़ा पुल तो अकल्पनीय है।अस्तु यह स्पष्ट है कि, दासता युग में सूफियों के इन्द्रजाल अर्थात वैज्ञानिक और कलात्मक जादुगरी से प्रभावित कुछ लोगों ने मिलकर पुराने ग्रन्थों में भी ऐसे चमत्कार बतलाने के उद्देश्य से ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक डाल दिये। जो मूल रचना से कतई मैल नही खाते। ऐसे हीश्लोक 78 में वानरों की संख्या सहत्र कोटि यानी एक अरब जनसंख्या बतलाई है।भारत की जनसंख्या के बराबर एक अरब वा्नर श्रीलंका में भी नही समा पाते।अस्तु शास्त्राध्ययन में स्वविवेक जागृत रखना होता है।" "खम्बात की खाड़ी के तट कोरोमण्डल दहेज के लूवारा ग्राम के परशुराम मन्दिर से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर लक्षद्वीप समुह का किल्तान द्वीप पड़ता है। तथा केरल के पश्चिमी घाँट के नीलगिरी के कोजीकोड के रामनाट्टुकारा और पन्थीराम्कवु से से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीन सौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है।अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी। जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में रावण की लंका हो सकती है।पुरे प्रकरण को पढ़कर भारत का नक्षा एटलस लेकर जाँचे।कि, भारत के पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर (केरल) से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. है। और गुजरात के खम्बात की खाड़ी से दहेज नामक स्थान से किल्तान की दुरी भी लगभग 1290 कि.मी. है।अस्तु लगभग किल्तान द्वीप के आसपास ही रावण की लंका रही होगी। लक्षद्वीप में किल्तान द्वीप राजधानी करवत्ती से उत्तर में है।अध्ययन कर पता लगाया जा सकता है कि किल्तान या करवत्ती या कोई डुबा हुआ द्वीप में से रावण की लंका कौनसा द्वीप था।यह कार्य पुरातत्व विभाग और पुरातत्व शास्त्रियों का कार्य है।रामेश्वरम कहाँ है --- परशुराम जी का मूल नाम राम है। परशु धारण करनें के कारण उनका नाम परशुराम पड़ गया। यह भी सम्भव है कि, अयोध्या नरेश श्री राम की ख्याति बड़नें के कारण विशिष्ठिकृत नाम के रूप में परशुराम नाम प्रचलित हुआ हो।रामायण में श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिङ्ग स्थापना का वर्णन नही है। किन्तु वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद के ग्रन्थ कम्ब रामायण के आधार पर यह मान्य हुआ। ऐसी लोक मान्यता है कि, केरल में त्रिशुर भी गुरुवयूर से 38 कि.मी दूर त्रिशुर के शिवलिङ्ग की स्थापना परशुराम जी ने की थी।अतः सम्भव है कि, कवि कम्बन ने त्रिशुर वाले रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग का वर्णन करनें में स्व स्थान तमिलनाड़ु में वर्णित कर दिया हो या बाद में किसी ने परिवर्तन किया हो। अतः त्रिशुर का परशुरामेश्वर की देखा-देखी ही तमिलनाडु में धनुषकोडी के निकट रामेश्वरम मान लिया गया।
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