गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

वैदिक नव संवत्सर

वेदिक युग में नवसंवत्सरोत्सव, वसन्तोत्सव, नव सस्येष्टि ये सभी उत्सव उस दिन मनाये जाते थे जिस दिन सुर्य ठीक भूमध्यरेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश.करता है। उस दिन दिन - रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सुर्यास्त होता है । सुर्योदय सुर्यास्त के समय सुर्य भूमध्य रेखा पर होने के कारण सुर्योदय ठीक पुर्व दिशा में और सुर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है।उस दिन मध्याह्न की छाँया देखकर स्व स्थान का अक्षांश देशान्तर ज्ञात करना आसान होता है। उक्त दिवस को महा विषुव, और वसन्त विषुव कहा जाता है। इसे ज्योतिषीय भाषा में सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं। मूलतः कलियुग संवत का आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति से होता है।

22 मार्च 1957 से भारत शासन ने भी भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर के रुप में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। 

पहले लगभग पुरे विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में वेद ही सर्वमान्य धर्म ग्रन्थ थे। चाहे सबने अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अलग-अलग अर्थ लगाये। लेकिन एशिया, यूरोप और पूर्वी अफ्रीका में अथर्ववेद और कृष्ण यजुर्वेद सर्वमान्य धर्मशास्त्र थे। जरथ्रुस्त के पहले ईरान में अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता प्रचलित था। इसी अवेस्ता की जेन्द टीका कर जुरथ्रस्थ ने जेन्दावेस्ता ग्रन्थ रचा।

इसलिए वसन्त विषुव 20/21 मार्च को नववर्ष मनाया जाता था। जमशेदी नवरोज नामक पारसी नववर्ष आज भी इसी दिन मनाते हैं। 

सऊदी अरब और ईराक में भी सायन मेष संक्रान्ति वाले माह के आसपास वाले दो माह वसन्त ऋतु आरम्भ के पु्र्व वाला माह और वसन्त विषुव से वसन्त ऋतु प्रारम्भ के बाद वाला माहों को रबीउल अव्वल और रबीउस्सानी कहते हैं।

चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है।

ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार 1975 ईस्वी के पहले यह प्रायः 20 मार्च को पड़ता था एवम् 1975 ई. के बाद आगामी हजारों लाखों वर्ष तक यह अधिकांशतः 21 मार्च को होता है और होगा।

चुँकि, ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष गणना आधारित केलेण्डर है तथा चार वर्षों में प्लुत वर्ष में एक दिन बढ़ा कर,तथा प्रति 100 वर्षों में प्लुत वर्ष नही करना जैसे सन 1900 ई. में फरवरी 28 दिन का ही था और प्रत्येक 400 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष करना जैसे फरवरी 2000ई. 29 दिन का था।और प्रत्यैक 4000 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष न करना इस प्रकार ग्रेगोरियन केलेण्डर में स्थाई रुप से एक दिन या एक तारीख का अन्तर हजारों लाखों वर्ष में ही आयेगा। तब सायन मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ने लगेगी।

नक्षत्रीय सौर संवत्सर ---

इसके अतिरिक्त वेदिक काल में ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा नाक्षत्रिय गणना आधारित वर्षगणना प्रचलित की। इस पद्यति में नाक्षत्रिय या निरयन मेष संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ होता है। आज भी पञ्जाब, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु, केरल आदि अनेक राज्यों में निरयन मेष संक्रान्ति से ही संवत्सरारम्भ होता है। मूलतः युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत निरयन मेष संक्रान्ति से ही आरम्भ होता है।

सन 285 ईस्वी में दिनांक 22 मार्च 285 ई. को सायन और निरयन मेष संक्रान्ति एकसाथ हुई थी। तब से लगभग हर 71 वर्ष में निरयन मेष संक्रान्ति एक दिनांक बाद में होते होते आजकल दिनांक 14 अप्रेल को होने लगी है।अर्थात 1735 वर्षों में 24 दिन का अन्तर पड़ गया है। सन 2189 में 22 अप्रेल को निरयन मेष संक्रान्ति आयेगी। ऐसे ही तथा 12890 वर्ष में पुरे छः मास का अन्तर पड़ जायेगा। और 25780 वर्ष में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ने से सायन कलियुग संवत 28882 और निरयन युधिष्ठिर संवत 28881 होगा यानि एक वर्ष का अन्तर होगा।


नक्षत्रीय सौर- चान्द्र संवत्सर 

उत्तर भारत में कुशाण राजाओं विशेषकर कनिष्क द्वारा और दक्षिण भारत में सातवाहन राजाओं विशेषकर शालिवाहन सातकर्णि द्वारा चलाये गये निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

निरयन मीन राशि में सुर्य हो तब अर्थात वर्तमान में लगभग 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जो अमावस्या होती है उसी समय से निरयन सौर संस्कृत शक संवत का वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष नया शकाब्ध आरम्भ होता है। किन्तु व्यवहार में उसके दुसरे दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्ध आरम्भ होता है।

जब दो संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े या यों कहें कि जब दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो वह क्षय मास कहलाता है सन 1983 ई. में आश्विन मास क्षय हुआ था। इसके पहले 1964 ई. में भी क्षय मास आया था। माघ मास को छोड़ कोई भी मास क्षय हो सकता है। क्षय मास वाले वर्ष में क्षय मास के पहले और बादमें अधिक मास पड़ते हैं। ऐसा प्रत्यैक 19 वर्ष, 122वर्ष और 141 वर्ष में होता है। 1963 ई. में 141 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था।सन 1964 ई. के बाद 1983 ई. में 19 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था और अब 122 वर्ष बाद वाला क्षय मास सन 2105 ईस्वी में पड़ेगा।

इसी 19 वर्ष, 122 वर्ष, 141 वर्षों के क्रम से निरयन सौर संस्कृत संवत्सर मे पञ्चाङ्ग के मास, तिथि, करण, नक्षत्र, और योग तथा सुर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहणों की आवृत्ति होती रहतीहै।

इसी प्रकार जब दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े या यों कहें कि अमावस्याओं के बीच कोई संक्रान्ति न पड़े तो अधिक मास होता है। ये चैत्र से कार्तिक तक कोई भी मास अधिकमास हो सकता है।

माघ मास न क्षय होता है न अधिक होता है।

ऐसे अधिक मास और क्षय मास के प्रावधान कर 354 दिन के चान्द्र वर्ष को 365.256363 दिन के निरयन सौर वर्ष से बराबरी कर ली जाती है।

अब चुँकि अभी निरयन मीन संक्रान्ति 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच पड़ती है इसलिये 15 मार्च से 13 अप्रेल के बीच ही शकाब्ध आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पड़ती है। लगभग 1130 वर्ष बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अप्रेल माह में ही पड़ा करेगी।

सुचना ---
पुराणों में लिखा है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की।
लेकिन जब चन्द्रमा की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि होना सम्भव ही नहीं है।
1 चन्द्रमा भूमि का उपग्रह है। इसलिए पहले भूमि बनी तभी उसका उपग्रह चन्द्रमा बन पाया।
 चन्द्रमा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि, किसी ग्रह या उल्का के भूमि के टकराव से भूमि का एक टुकड़ा टूट कर भूमि की परिक्रमा करने लगा जो चन्द्रमा कहलाया, और भूमि पर उस स्थान पर प्रशान्त महासागर बन गया।
2 पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा 
(क) चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से हुई।
(ख) चन्द्रमा की उत्पत्ति देवराज पुरन्दर इन्द्र और असुर राजा बलि के समय समुद्र मन्थन में हुई।
(ग) महर्षि अत्रि और अनुसुया का पुत्र चन्द्रमा हुआ।
तीनों सिद्धान्त यह मानते हैं कि, चन्द्रमा की उत्पत्ति सृष्टि उत्पत्ति के बहुत बाद में हुई।
तो चैत्र मास, शुक्ल पक्ष और प्रतिपदा तिथि भी चन्द्रमा की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है।

सुचना -

1 प्लुत वर्ष यानि अन्तिम माह में एक दिन अधिक होना । पहले फरवरी अन्तिम माह था। जुलियन सीजर ने जनवरी को प्रथम मास घोषित किया। अतः अन्तिम मास में एक दिन बढ़ाया गया।

2 भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के गोलाध्याय (यानि खगोल विज्ञान और भुगोल) में पुरे विश्व के लिये पुर्व पश्चिम दिशा भूमध्यरेखा पर ही मान्य है। वेध लेनें वाले के अक्षांश पर पुर्व पश्चिम मानने से पुर्व पश्चिम दिशा अर्थहीन हो जायेगी। क्यों कि प्रत्यैक देशान्तर के लिये तो पुर्व पश्चिम अलग अलग होती ही है। भारत वासियों का पुर्व और अमेरिका वासियों का पश्चिम लगभग एक ही होता है। ऐसे में यदि अलग अलग अक्षांशों पर उत्तराभिमुख खड़े हुए व्यक्ति द्वारा वेध लेनें वाले के 90° दाँयें बाँयें पुर्व पश्चिम मानें तो कम्युनिकेशन असम्भव सा होजायेगा। सभी अक्षांशों के पुर्व पश्चिम अलग अलग होंगें।

3 जब सुर्य को केन्द्र मानकर देखनें पर भूमि चित्रा नक्षत्र के सम्मुख दिखे यानि सुर्य, भूमि और चित्रा नक्षत्र का तारा एक पङ्क्ति में दिखे। केन्द्रीय ग्रह स्पष्ट में भूमि चित्रा नक्षत्र के योग तारा का भोग एक ही हो या जब चित्रा तारे से भूमि की युति हो तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष गणना लागु करने का प्रयोग काशी के बापुशास्त्री जी ने किया था और कई वर्षों तक सायन सौर संस्कृत पञ्चाङ्ग प्रकाशित किया। किन्तु धर्माचार्यों के असहयोग और लोकप्रिय नही होने के कारण उन्हें प्रकाशन बन्द करना पड़ा। खेर।

ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं 

कविता आदर्श नगर रोहतक हरियाणा के उदयीमान युवा कवि श्री अङ्कुर आनन्द द्वारा रचित है। जो उनके काव्यसंग्रह "कलम जब ठान लेती है" के पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित है। श्री अङ्कुर आनन्द भारत संचार निगम लिमिटेड में कार्यरत हैं।

इस काव्य संग्रह की एक प्रति श्री अंकुर आनन्द ने स्वयम् आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश जी को भेंट की है।

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