मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

ब्राह्मणों के शत्रु ब्राह्मण होना दुःख दाई।

यह सुनकर दुःख हुआ कि, भारत में जैन-बौद्ध प्रभाव कितना अन्दर तक धँसा हुआ है कि, जैनाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए। बौद्धाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए।
जैन पन्थ और बौद्ध पन्थ के आचार्यों ने सदा से लेकर आज तक यह स्वीकार किया कि, सनातन वैदिक धर्म का अस्तित्व ब्राह्मणों और आचार्यों के बलबूते पर ही सुरक्षित है। उनके प्रचार में सबसे बड़े बाधक ब्राह्मण और आचार्य ही हैं।
यह बात जरथ्रुस्त्र और सिकन्दर ने भी अनुभव की थी।
यही बात ईसाई मिशनरियों ने भी कही।
मुस्लिम और ईसाई आक्रांताओं ने सबसे अधिक प्रताड़ित और हत्या ब्राह्मणों की ही की।

लेकिन हमारी दुर्दशा के लिए ब्राह्मणों और आचार्यों को कोसने वाले अनुसूचित जाति के नवबौद्ध और जनजाति के जयस वाले, यादव कहे तो इतना दुःखद नहीं लगता जितना बौद्ध दर्शन से प्रभावित ब्राह्मणों का विरोध देखकर होता है।
ये अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का आकलन नही कर पाते, उनकी तत्कालीन समस्याओं, संघर्षों और विवशताओं को नहीं देख समझ पाते, और इन विवशताओं में लिए गए निर्णयों, और किये गए संशोधनों को नहीं समझ पाते इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या होगा।
जबकि, जैन-बौद्ध मत परिवर्तन कर संन्यासी बनने के डर से और आक्रांताओं के कारण बाल विवाह तथा विधवा जीवन में परिवर्तन का संशोधन, सति होने और जोहर करने की विवशता, रात्रि में विवाह करना, वार्षिक पूजा छुपकर करना आदि विवशताएँ विदेशी तक समझ गये।  उनके द्वारा किए गए अनुमोदन के कारण अब समझदार भारतीय भी मानने लगे हैं। लेकिन ब्राह्मण स्वयम् स्वीकार नहीं करते।
निन्दा  करेंगे लेकिन, स्वयम् करेंगे वही जो परम्परा है। वे स्वयम् बदलने को तैयार भी नहीं हैं।
जिन रूढ़ियों और सोच (चिन्तन) को आद्य शंकराचार्य जी जैसे तपस्वी और ज्ञानी को भी स्वीकार कर पञ्च देवोपासना स्वीकार करना पड़ी। यहाँ तक कि, यमोपासकों को भी उनकी उपासना के अतिरिक्त पञ्चदेवोपासना स्वीकारना पढ़ी। वैदिक - श्रोत्रियों के ब्राह्म धर्म और ब्राह्मण धर्म को स्मार्त पन्थ में ही समाविष्ट करना पड़ा।
उनके सामने अन्य कोई इतनी बड़ी विभूति नही हुई। तो इन आचार्यों ने एक विशेष प्रकार से सोचने और मान्यताओं वालों को संगठित करने का कार्य तोड़ने वाला कैसे माना जा सकता है?
जब एकादशी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, नृसिंह जयन्ती, आदि में जब स्मार्त पर्वकाल की बात करते हैं। व्रत की तिथि की अगली तिथि में पारण होना आवश्यक बतलाते हैं, तब पौराणिक लोग पौराणिक कथाओं के आधार पर मध्यरात्रि के बाद एकादशी लगे, या पचपन घटि के बाद एकादशी लगे, या छप्पन घटि के बाद एकादशी लगे तो दशमी विद्धा मान लेते हैं। और एकादशी के बजाय द्वादशी में उपवास करके त्रयोदशी में पारण करते हैं।
जन्माष्टमी में उदिया अष्टमी तिथि, सूर्योदय काल में रोहिणी नक्षत्र आवश्यक लगता है । सप्तमी वेध नहीं होना।
लेकिन स्मार्तों का विरोध करने के लिए दिपावली में चतुर्दशी वेध से कष्ट नहीं होता, उस समय पर्वकाल प्रदोषकाल व्यापी और महानिशिथ काल व्यापिनी अमावस्या चाहिए। शास्त्रोक्त मत चुभने और खलने लगे। यही स्थिति शंकराचार्य द्वारा अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के विरोध करने पर भी बनी थी। तब राजनीति शास्त्रों पर भारी पड़ रही थी।
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय ।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥
सुभाषित स्मरण हो आया।

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