तिथियों के व्रत क्यों किये जाते हैं और विशेष तिथियों पर ईश्वर भजन-किर्तन विशेष रूप से क्यों किये जाते हैं?
इसका कारण है भूमि के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध सूर्य और चन्द्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल होना।
इसी कारण गुरु ब्रहस्पति और शुक्र के अस्त होनें पर भी शुभ कार्य निषिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि उस समय भूमि के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध सूर्य के साथ साथ अस्त ग्रह ब्रहस्पति या शुक्र का बल कार्यरत हो जाता है।
तिथियाँ जिनके व्रत विशेष रूप से होते हैं।⤵️
सूर्य भूमि और चन्द्रमा में --- ⤵️
१ शुक्ल पक्ष की अष्टमी (एकाष्टका) तिथि और कृष्णपक्ष की अष्टमी (अष्टका) तिथियों में अष्टमी तिथि के मध्य में (साढ़े सप्तमी तिथि पर) समकोण त्रिभुज बनता है और सूर्य और चन्द्रमा भूमि पर ९०° का कोण बनाते हैं। चन्द्रमा आधा दिखता है आधा छुपा रहता है। तो भूमि पर बल समानान्तर चतुर्भुज के नियम से परिणामी बल सूर्य और चन्द्रमा के बीच से भूमि पर ४५° के कोण बनाने वाली रेखा पर होता है। इस लिए ये तिथियाँ तुलनात्मक अल्प महत्वपूर्ण रही।
२ शुक्ल पक्ष की एकादशी और कृष्णपक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्ति के समय सम बाहु / सम त्रिबाहु त्रिभुज बनता है और सूर्य और चन्द्रमा भूमि तीनों परस्पर १२०° - १२०° का कोण बनाते हैं। तो भूमि पर बल समानान्तर चतुर्भुज के नियम से परिणामी बल सूर्य और चन्द्रमा के बीच से भूमि पर ६०° के कोण बनाने वाली रेखा पर होता है। चन्द्रमा का दो तिहाई भाग दिखता है एक तिहाई भाग छुपा रहता है। इस तिथि को पौराणिक काल में ही महत्वपूर्ण माना गया।
संक्रान्ति के समान ही पूर्णिमा और अमावस्या तिथियाँ वैदिक काल से आज तक सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथियाँ रही है। क्योंकि,
३ पूर्णिमा तिथि के समाप्ति के समय पर भूमि के एक ओर सूर्य तो दूसरी ओर चन्द्रमा होता है।अर्थात भूमि को एक ओर सूर्य खिंचता है दूसरी ओर चन्द्रमा। इसी कारण चन्द्र ग्रहण के समय भोजनादि निषिद्ध हैं और पूरे ग्रहण काल में केवल जप, भजन - किर्तन में ही व्यतीत करनें का विधान है। सूर्य भूमि और चन्द्रमा तोनों सरल रेखा में होते हुए परस्पर १८०° का कोण बनाते हैं। पूर्ण चन्द्र दिखता है। व्रत - पर्व के साथ यह तिथि उत्सव - त्योहारों में भी महत्वपूर्ण रही है।
४ अमावस्या तिथि की समाप्ति के समय भी सूर्य भूमि और चन्द्रमा तोनों सरल रेखा में होते हुए परस्पर १८०° का कोण बनाते हैं। लेकिन भुमि के एक ही ओर पहले चन्द्रमा और बादमें सूर्य होता है। इसी कारण सूर्य ग्रहण की अमावस्या को भी भोजनादि के निषेध होते हैं और पूरे ग्रहण काल में केवल जप, भजन - किर्तन में ही व्यतीत करनें का विधान है। भूमि को एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों खिंचते हैं। चान्द्रमास, अधिक मास और क्षय मास तथा चान्द्रवर्ष का आरम्भ और समापन अमावस्या तिथि को ही होता है।
मतलब उक्त तिथियों पर भूमि के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध सूर्य और चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल विपरीत दिशा में काम करते हैं। इसलिए समुद्र में लघु ज्वार, दीर्घ ज्वार और भाटा होता है।
यही स्थिति मानव मन पर भी प्रभाव डालती है। निश्चयात्मिका बुद्धि कम होती है। मन की संकल्प शक्ति कमतर और विकल्प शक्ति प्रबल होते हैं। मन पर नियंत्रण कम हो जाता है। इस तथ्य को मनोविज्ञान भी स्वीकारता है।
अतः इन तिथियों पर पाचन कमजोर होनें से व्रत रखते हैं और मनःस्थिति ठीक नही होने के कारण एकाग्रता भङ्ग होती रहती है इसलिए सर्वव्यापी विष्णु का ध्यान में समय व्यतीत किया जाता है।
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व्रतों में कुछ विचित्रता।---
एकादशी का पारण विष्णु की तिथि द्वादशी में होता है और एकादशी के देवता विश्वेदेवाः हैं; न कि, विष्णु । एकादशी तिथि का विष्णु से प्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है।
यही स्थिति प्रदोष व्रत की भी है।
अष्टमी के देवता शिव हैं। और चतुर्दशी तिथि के देवता शंकर भगवान हैं। शिवरात्रि महानिशिथकाल व्यापी चतुर्दशी तिथि में मनाई जाती है। अर्थात जो चतुर्दशी तिथि अर्धरात्रि के २४ मिनट पहले से अर्धरात्रि के २४ मिनट बाद तक हो उस चतुर्दशी तिथि में ही शिवरात्रि मनती है।
जबकि प्रदोष व्रत का पारण तो शंकर भगवान की चतुर्दशी तिथि में ही होता है।
सूर्यास्त के बाद के दो घण्टे २४ मिनट प्रदोषकाल कहलाते हैं।
प्रदोषकाल व्यापी त्रयोदशी तिथि में प्रदोष किया जाता है।
जबकि त्रयोदशी तिथि के देवता तो कामदेव हैं। अतः प्रदोष व्रत का शंकर भगवान से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नही दिखता।
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वैदिक काल में व्रत - पर्व , उत्सव - त्योहार कैसे मनाते थे?
वैदिक काल में सायन सूर्य के मधु- माधव आदि मास की संक्रान्तियों तथा मधु माधवादि मास में पड़ने वाले चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर धार्मिक कृत्य - व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार आदि मनाये जाते थे।
*वैदिक काल के महीनों के नाम और अवधि।*
*क्रमांक - सूर्य की सायन राशि/ चान्द्र मास/ वैदिक मास/ मास का प्रारम्भ दिनांक (ईस्वी)/ और मास की अवधि* निम्नानुसार होते हैं।
क - उत्तरायण, उत्तर तोयन।
वसन्त ऋतु
१-मेष / मधु / 21 मार्च से / 31 दिन।
२-वृष / माधव/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।
ग्रीष्म ऋतु।
३-मिथुन / शुक्र/ 22 मई से / 31 दिन।
उत्तरायण, दक्षिण तोयन।
४-कर्क / शचि/ 22 जून से / 31 दिन।
वर्षा ऋतु
५-सिंह / नभस / 23 जुलाई से / 31 दिन।
६ कन्या / नभस्य / 23 अगस्त / 31 दिन।
दक्षिणायन, दक्षिण तोयन
शरद ऋतु
७-तुला / ईष / 23 सितम्बर से / 30 दिन।
८-वृश्चिक / उर्ज / 23 अक्टूबर से / 30 दिन।
हेमन्त ऋतु
९-धनु / सहस / 22 नवम्बर से /30 दिन।
दक्षिणायन, उत्तर तोयन
१०-मकर / सहस्य / 22 दिसम्बर से/ 29 दिन।
शिशिर ऋतु
११-कुम्भ / तपस / 20 जनवरी से /30 दिन।
१२-मीन / तपस्य / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।
(तीन वर्ष तक प्रत्येक वर्ष ३६५ दिन का होता है लेकिन चौथा वर्ष वर्ष ३६६ दिन का होता है।)
*"नक्षत्रों के देवता* ⤵️
1 *अश्विनी के अश्विनीकुमार* (दस्र और नासत्य आदित्य / सूर्यदेव और अश्विनी के पुत्र हैं),
2 *भरणी के यमराज* (आदित्य / सूर्यदेव और सरण्यु के पुत्र, यमुना जी के भाई।)
3 *कृतिका के अग्निदेव* । (अग्नि वसु)
4 *रोहिणी के ब्रह्मा जी* ।
5 *मृगशीर्ष के सोम देव* (सोम वसु। जिनका निवास मृगशीर्ष नक्षत्र/ हिरणी के ताराओं में माना गया है। )
6 *आर्द्रा के शिव* (रुद्र)।
7 *पुनर्वसु की अदिति* (आदित्यों की माता)।
8 *पुष्य के ब्रहस्पति* (देवताओं के आचार्य।) देवगुरु ब्रहस्पति देवता हैं।
(केवल विंशोत्तरी महादशा में पुष्य नक्षत्र के स्वामी शनि ग्रह बतलाये हैं। कर्मकाण्ड/ पूजा में पुष्य नक्षत्र के देवता ब्रहस्पति का ही महत्व है। कर्मकाण्ड में विंशोत्तरी महादशा के अनुसार पुष्य नक्षत्र के स्वामी शनि होनें का कोई महत्व नही है।)
9 *आश्लेषा के सर्प* । (सुरसा / कद्रु की सन्तान। ब्राह्मण ग्रन्थ और सुत्र रचना काल काल में सूर्य के आश्लेषा नक्षत्र में आने पर नाग पूजन होता था जो अब नाग पञ्चमी पर होता है।)
10 *मघा के पितरः* (सप्त पितरः 1 अग्निष्वात 2 बहिर्षद 3 कव्यवाह 4 अर्यमा 5 अनल , 6 सोम , 7 यम । पहले तीन निराकार और बादके चार साकार हैं।) (अर्यमा आदित्य भी है। यहाँ अर्यमा सप्त पितरः के मुखिया हैं।अनल और सोम वसु भी हैं।)
11 *पूर्वाफाल्गुनी के भग आदित्य*।
12 *उत्तराफाल्गुनी के अर्यमा आदित्य*।
13 *हस्त के सवितृ आदित्य* ।
14 *चित्रा के त्वष्टा आदित्य* ।
15 *स्वाती के वायुदेव (वसु* )
16 *विशाखा के इन्द्राग्नि* । (इन्द्र आदित्य और अग्नि वसु)
17 * अनुराधा के मित्र आदित्य* ।
18 *ज्यैष्ठा के वरुण आदित्य* । (मतान्तर से इन्द्र आदित्य।)
19 *मूल के निऋति* (राक्षसों के राजा)/ मतान्तर से निऋति को अलक्ष्मी अर्थात कालरात्रि भी मानते हैं।)
20 *पूर्वाषाढ़ा के अप् (जल वसु)*।
21 *उत्तराषाढ़ा के विश्वैदेवाः* ।
वेदों में १ प्रजापति, २ इन्द्र, (३ से १४ तक) द्वादश आदित्य, (१५ से २२ तक) अष्ट वसु, (२३ से ३३ तक) एकादश रुद्र सब मिलाकर तैंतीसों देवता विश्वैदेवाः कहलाते थे।*
पुराणों में कश्यप और विश्वा के दस पुत्र और पौत्रादि विश्वेदेव कहलाते हैं। (1 कृतु 2 दक्ष 3 श्रव 4 सत्य 5 काल 6 काम 7 मुनि 8 पुरुरवा 9 आर्द्रवसु 10 रोचमान मुख्य हैं। कहीँ कहीँ तीन तथा कहीँ तेरह वसु तो कहीँ तिरसठ विश्वैदेवाः भी मानें गये हैं।)
22 *अभिजित के विधि* (ब्रह्म अर्धात विधाता - (सवितृ और सावित्री)। )
23 *श्रवण के विष्णु आदित्य (वामन अवतार)।*
24 *धनिष्टा के अष्ट वसु* (1 प्रभास 2 प्रत्युष, 3 धर्म 4 ध्रुव 5 सोम 6 अनल 7 अनिल 8 आप या अपः)।
25 *शतभिषा (शततारका) के इन्द्र आदित्य* / *मतान्तर से वरुण आदित्य।*
26 *पूर्वाभाद्रपद के अजेकपात रुद्र/* (अज एक पाद या अज का एक चरण।)
27 *उत्तराभाद्रपद के अहिर्बुधन्य रुद्र।(* सर्पधर।)
28 *रेवती के पूषा आदित्य* ।
तदनुसार उक्त सायन सौर मास में निर्धारित पर्वकाल में देवता विशेष के नक्षत्र योग तारा के साथ चन्द्रमा होनें के दिन व्रत-पर्व, उत्सव - त्योहार मनाये जाते थे।
वैदिक काल में तिथियाँ प्रचलित नही थी।
केवल उपर्युक्त एकाष्टका - अष्टका, और पूर्णिमा - अमावस्या और सायन संक्रान्तियों में व्रत पर्व होते थे। । प्रतिपदा में इष्टि होती थी। प्रतिपदा, अष्टमी, पूर्णिमा और अमावस्या तिथियाँ ही प्रचलित थी।
"तिथियों के देवता -
1 *प्रतिपदा के अग्नि देव,*
2 *द्वितीय के ब्रह्मा जी,*
3 *तृतीया की गौरी देवी,*
4 *चतुर्थी के (शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के) ब्रह्मणस्पति और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के) गणपति ,*
5 *पञ्चमी के नागदेव,*
6 *षष्टी के कुमार कार्तिकेय* ,
7 *सप्तमी के सूर्य,(आदित्य)*
8 *अष्टमी के (शुक्ल पक्ष की अष्टमी के) शिव,* (कृष्णपक्ष की अष्टमी के) रुद्र/ भैरव।
9 *नवमी की दुर्गा देवी* ,
10 *दशमी के यमराज*
11 *एकादशी के विश्वेदेवाः,*
12 *द्वादशी के विष्णु भगवान,*
13 *तृयोदशी के कामदेव,*
14 *चतुर्दशी के शंकर ,*
15 *पूर्णिमा के चन्द्रमा* और
30 *अमावस्या के देवता पितरः*(सप्त पितर) हैं।
वैदिक काल में वेतन वितरण आदि व्यावसायिक कर्म में दस दिन का दशाह प्रचलित था। दो सूर्योदयों के बीच की अवधि को वासर कहते थे।
यदा-कदा सप्ताह शब्द भी आया है। लेकिन वहाँ प्रत्येक सात दिनों वाले सप्ताह के अर्थ में न होकर वर्तमान में भाद्रपद मास में होनें वाले भागवत सप्ताह जैसे अर्थ में उल्लेख है।
विगत दो हजार वर्ष से प्रचलित सप्ताह के वार वैदिक काल में प्रचलित नहीं थे।
अतः वारों का कोई व्रत आदि प्रचलित नही थे।
वार --
वार भी सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक रहता है।
वार का आरम्भ सूर्योदय होते ही होजाता है। इसके पहले नही। वार की समाप्ति अगले दिन के सूर्योदय होते ही होती है इसके पहले नही।जो लोग मध्यरात्रि बारह बजे वार बदलते हैं वे गलती करते हैं।मध्यरात्रि बारह बजे Day & Date बदलते हैं वार और तिथि नक्षत्र कुछ भी नहीं बदलते।
ग्रहों के अधिदेवता (मुख्य देवता) और प्रत्यधिदेवता (उपदेवता) जो वार के भी देवता माने जाते हैं। ⤵️
1 रविवार - सूर्य के अधिदेवता ईश्वर (ईशान/ शंकर) तथा प्रत्यधिदेवता अग्नि।
2 सोमवार - चन्द्रमा की अधिदेवता उमा तथा प्रत्यधिदेवता अप् (जल)।
3 मंगलवार - मङ्गल के अधिदेवता स्कन्द (कार्तिकेय) तथा प्रत्यधिदेवता पृथ्वी।
4 बुधवार - बुध के अधिदेवता और प्रत्यधिदेवता दोनो ही विष्णु हैं।
5 गुरुवार - ब्रहस्पति के अधिदेवता ब्रह्मा तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र।
6 शुक्रवार - शुक्र के अधिदेवता इन्द्र तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्राणी (शचि)।
7 शनिवार - शनि के अधिदेवता यम तथा प्रत्यधिदेवता प्रजापति।
8 राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधिदेवता सर्प।
9 केत के अधिदेवता चित्रगुप्त तथा प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा।
जो लोग सोमवार को शिवजी की, मालवा में बुधवार को विनायक / गजानन की, गुरुवार को विष्णु भगवान की, शुक्रवार को लक्ष्मी जी की आराधना उपासना करते हैं उसका मैल उक्त देवताओं से नही बैठता है।
महाराष्ट्र में विनायक सम्प्रदाय वाले मंगलवार को अष्टविनायक की उपासना करते हैं। मंगलवार को पड़ने वाली अङ्गारकी चतुर्थी को विशेष महत्व देते हैं।
*पौराणिक काल में ---
वैदिक काल के उत्तरायण को उत्तर गोल और दक्षिणायन को दक्षिण गोल नामकरण कर दिया गया। वैदिक काल में जो तोयन कहलाते थे उनको अयन कहने लगे। उत्तर तोयन को उत्तरायण नामकरण कर दिया और दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नामकरण कर दिया गया।
वैदिक ऋतुओं का काल सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, (वर्तमान में पाकिस्तान में हैं।) अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान,किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तुर्किस्तान, तिब्बत, तकलामकान (वर्तमान में चीन में) कश्मीर, पञ्जाब, हरियाणा, अर्थात आर्यावर्त को ध्यान में रख कर बनाई गई थी। वे अब चन्द्रवंशी दुष्यन्त - शकुन्तला पुत्र भरत चक्रवर्ती द्वारा शासित भरत खण्ड (लगभग वर्तमान भारत) के लिए लागू हो गई।
वर्षाकाल में दक्षिणायन हो जाने से शुभ कार्यों के मुहुर्त वर्षाकाल निषिद्ध हो गया।
पौराणिक काल में वैदिक काल के महीनों के नाम संशोधित कर दिए गये। या यों कहें कि,
पौराणिक काल में वैदिक महीनों के आरम्भ दिनांक और अवधि संशोधित कर दिए गये। इससे ऋतुओं का प्रारम्भ समय स्वतः एक महीने पहले हो गया।
चूँकि, सिद्धान्त ज्योतिष ग्रन्थ पौराणिक काल और उसके बाद में लिखे गये, अतः उनमें उक्त परिवर्तित व्यवस्था को ही लिखा गया। जो वेदाध्ययन नही कर पाये वर्तमान ज्योतिषियों के लिए प्रमाण हो गया।
पौराणिक काल में मासों के संशोधित आरम्भ दिनांक और अवधि निम्नानुसार है।
*क्रमांक - सूर्य की सायन राशि/ राष्ट्रीय शक केलेण्डर के मास/ पौराणिक मास/ आरम्भ दिनांक (ईस्वी)/ और अवधि।*
उत्तर गोल, उत्तरायण।
वसन्त ऋतु।
१-मेष / वैशाख / माधव / 21 मार्च से / 31 दिन।
ग्रीष्म ऋतु।
२-वृष / ज्येष्ठ / शुक्र/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।
३-मिथुन / आषाढ़ / शचि/ 22 मई से / 31 दिन।
उत्तर गोल, दक्षिणायन।
वर्षा ऋतु।
४-कर्क / श्रावण / नभस/ 22 जून से / 31 दिन।
५-सिंह / भाद्रपद / नभस्य / 23 जुलाई से / 31 दिन।
शरद ऋतु।
६ कन्या / आश्विन / ईष / 23 अगस्त / 31 दिन।
दक्षिण गोल, दक्षिणायन।
७-तुला / कार्तिक / ऊर्ज / 23 सितम्बर से / 30 दिन।
हेमन्त ऋतु।
८-वृश्चिक / मार्गशीर्ष / सहस / 23 अक्टूबर से / 30 दिन।
९ -धनु / पौष / सहस्य / 22 नवम्बर से / 30 दिन।
दक्षिण गोल, उत्तरायण।
शिशिर ऋतु।
१० -मकर / माघ / तपस / 22 दिसम्बर से / 29 दिन।
११ -कुम्भ / फाल्गुन / तपस्य / 20 जनवरी से / 30 दिन।
वसन्त ऋतु।
१२ -मीन /चैत्र /मधु / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।
सुचना --
जब सुर्य और भूमि के केन्द्रों की दूरी जिस अवधि में अधिक होती है उस शिघ्रोच्च (Apogee एपोजी) के समय 30° की कोणीय दूरी पार करने में भूमि को अधिक समय लगता है अतः उस अवधि में पड़ने वाला सौर मास 31 दिन से भी अधिक 32 दिन का होता है। इसके आसपास के दो -तीन मास भी 31 होते हैं। इससे विपरीत उससे 180° पर शीघ्रनीच (Perigee पेरिजी) वाला सौर मास 28 या 29 दिन का छोटा होता है। इसके आसपास के सौर मास भी 30- 30 दिन के होते हैं।
वर्तमान में 05 जनवरी को सुर्य सायन मकर 13°16' 20" या निरयन धनु 19° 08'25 " पर शिघ्रनीच का रहता है इस कारण यह मास 29 दिन का और इसके आसपास तीन महिनें 30-30 दिन के होते हैं। इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में यह मास क्षय नही होता।
इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क 13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के होते हैं।इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क 13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के होते हैं।इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में इस अवधि में ही कोई मास अधिक होता है।
निरयन सौर वर्ष और सायन सौर वर्ष में 25780 वर्षों में पुरे एक संवत्सर का अन्तर पड़ जाता है। इस अवधि में एक निरयन सौर संवत्सर से सायन सौर संवत्सर एक वर्ष अधिक होता है। अर्थात यदि निरयन सौर संवत्सर 25780 है तो सायन सौर संवत्सर 25781 होगा। या यों भी कह सकते हैं कि,जब सायन सौर युग संवत्सर
25781होगा तब निरयन सौर युग 25780 रहेगा।
लगभग 71 वर्षों में एक दिन का अन्तर एवम् 2148 वर्षों में एक मास का अन्तर पड़ जाता है। लगभग 4296 वर्षों में एक ऋतु का अन्तर, 6445 वर्षों में तीन मास का अन्तर पड़ता है।तथा 12890 वर्षों में एक अयन यानि छः मास का अन्तर पड़ जाता है।
भारतीय संवत्सर वैदिक काल से आज तक भी वसन्त विषुव (सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च) से ही बदलता है। लेकिन वर्तमान में ही अयनांश २४°१०' ३०" के लगभग होने से नाक्षत्रीय वर्षारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति प्रायः १४ अप्रेल को होने लगी है। अर्थात २१ मार्च से २४ दिन बाद १४ अप्रेल को होनें लगी है। सन २४३३ में निरयन मेष संक्रान्ति सायन वृष संक्रान्ति के साथ २१ अप्रेल को होनें लगेगी। तब संवत्सर आरम्भ के दिन निरयन मेष संक्रान्ति और निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के स्थान पर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा रहा करेगी।
चुँकि ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर गणनाधारित है अतः यही अन्तर ग्रेगोरियन केलेण्डर ईयर में भी लागु होता है। इस कारण लगभग 71 वर्ष में निरयन संक्रान्तियों की एक तारीख (Date) बढ़ जाती है। निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को होने लगती है।
वर्तमान में निरयन मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु मकर, कुम्भ और मीन मास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक निम्नानुसार है।
वर्तमान में निरयनमास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक--
१ मेष 14 अप्रेल से 30 दिन।
२ वृष 14 मई से 31 दिन।
३ मिथुन 15 जून से 32 दिन।
४ कर्क 16 जुलाई से 31 दिन।
५ सिंह 17 अगस्त से 31 दिन।
६ कन्या 17 सितम्बर से 30 दिन।
७ तुला 17 अक्टोबर से 30 दिन।
८ वृश्चिक 16 नवम्बर से 30 दिन।
९ धनु 16 दिसम्बर से 30 दिन।
१० मकर 14 जनवरी से 29 दिन।
११ कुम्भ 13 फरवरी से 30 दिन।
१२ मीन 14 मार्च से 31 दिन।
अधिकमास और क्षय मास करके उक्त मासों के साथ साथ चलने वाले चैत्र - वैशाखादि अमान्त चान्द्रमासों का प्रारम्भ, अर्थात अमावस्या का आरम्भ एवम शुक्ल प्रतिपदा का प्रारम्भ भी दो नाक्षत्रीय सौर मासारम्भ (निरयन सौर संक्रान्ति) के बीच ही चलते हैं।
१ मेष चैत्र 14 मार्च से 14 अप्रेल तक के बीच प्रारम्भ।
२ वृष वैशाख 14 अप्रेल से 14 मई तक के बीच प्रारम्भ।
३ मिथुन ज्येष्ठ 14 मई से 15 जून तक के बीच प्रारम्भ।
४ कर्क आषाढ़ 15 जून से 16 जुलाई तक के बीच प्रारम्भ।
५ सिंह श्रावण 16 जुलाई से 17 अगस्त तक के बीच प्रारम्भ।
६ कन्या भाद्रपद 17 अगस्त से 17 सितम्बर तक के बीच प्रारम्भ।
७ तुला आश्विन 17 सितम्बर से 17 अक्टोबर तक के बीच प्रारम्भ।
८ वृश्चिक कार्तिक 17 अक्टोबर से 16 नवम्बर तक के बीच प्रारम्भ।
९ धनु मार्गशीर्ष 16 नवम्बर से 16 दिसम्बर तक के बीच प्रारम्भ।
१० मकर पौष 16 दिसम्बर से 14 जनवरी तक के बीच प्रारम्भ।
११ कुम्भ माघ। 14 जनवरी से 13 फरवरी तक के बीच प्रारम्भ।
१२ मीन फाल्गुन 13 फरवरी से 14 मार्च तक के बीच प्रारम्भ।