शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

तन्त्र/ हटयोग के चक्रो का सम्बन्ध ग्रहों से।

१ महाराष्ट्र के गाणपत्य सम्प्रदाय में गणपति को मङ्गल (अग्नि) से सम्बन्धित माना है। कार्तिकेय को भी अग्नि पुत्र माना जाता है।
अग्नि प्रथम देवता और विष्णु अन्तिम देव ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण का कथन है। अग्नि की गति उर्ध्व है। अग्नि का सम्बन्ध प्रकाश / चेत से भी है।
 तदनुसार *कुण्डलिनी* को भूमिपुत्र *मङ्गल* से सम्बन्धित माना जा सकता है।
२ देव सेनापति (कार्तिकेय) के राजा इन्द्र - *नेपच्यून* को *मूलाधार* माना जा सकता है।
३ शुक्र को स्पष्ट रूप से शुक्र (वीर्य)  का प्रतीक माना जाता है। अतः स्वधा से सम्बन्धित मानकर *स्वाधिष्ठान* चक्र से *शुक्र* का सम्बन्ध मान सकते हैं।
४ ब्रहस्पति को जीव कहते हैं। गुरु का सम्बन्ध गुरुत्व बड़प्पन से है। जीवात्मा का वास भी हृदय में मान्य है। तदनुसार *अनाहत* चक्र का सम्बन्ध *ब्रहस्पति* से माना जा सकता है।
५ बुध बुद्धि का प्रतीक है और बुद्धि का स्थान मन से उपर है यह सर्वमान्य है। बुद्धि का स्थान सम्बन्ध आज्ञा चक्र से मान सकते हैं। तदनुसार *बुध* का सम्बन्ध *आज्ञा* चक्र से माना जा सकता है।
६ सूर्य को प्राण और आत्मा कहा गया है। अतः कम से कम सुत्रात्मा प्रजापति तो मानना ही पड़ेगा। लेकिन सूर्य को प्राण और आत्मा कहा गया है। अतः कम से कम सुत्रात्मा प्रजापति तो मानना ही पड़ेगा। लेकिन ब्रहस्पति को जीव कहते हैं। गुरु का सम्बन्ध गुरुत्व बड़प्पन से है।
अतः सूर्य को प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मानना होगा।
अतः सूर्य को प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मानना होगा।
तदनुसार *सहस्त्रार* चक्र को *सूर्य* से सम्बन्धित माना जा सकता है।


चन्द्रमा को स्पष्ट रूप से मन का प्रतीक कहा गया है।यह तो निर्विवाद है। लेकिन अष्ट ग्रहों में चन्द्रमा को नहीं लिया जा सकता।
बचे शनि और युरेनस
मणिपुर और विशुद्ध 
यदि शनि को विशुद्ध (न्याय कर्ता/ निष्पक्ष) मानें तो युरेनस (राहु) को मणिपुर चक्र मानना होगा।
एतदनुसार -- 
१ मूलाधार -नेपच्यून (देवेन्द्र) एवम् कुण्डलिनी- मङ्गल (अग्नि),
२ मणिपुरक युरेनस (असुरराज) एवम् स्वाधिष्ठान शुक्र (असुराचार्य) ,
३ अनाहत - ब्रहस्पति (जीव) एवम् विशुद्ध - शनि (निष्पक्ष)
४  सहस्त्रार - सूर्य (आत्म तत्व/ आकाश) एवम् आज्ञा - बुध (सूर्य का निकटतम ग्रह/ वायु)।

सुचना ---

ग्रह १ बुध, २ शुक्र, ३ भूमि, ४ मङ्गल, ५ ब्रहस्पति, ६ शनि, ७ युरेनस और ८ नेपच्यून हैं। भूमि के स्थान पर सूर्य को ले लें और चन्द्रमा को छोड़ दें तो भी  आठ ग्रह आठ चक्र है।
१ कुण्डलिनी, २ मूलाधार, ३ स्वाधिष्ठान, ४ मणिपुरक, ५ अनाहत, ६ विशुद्ध, ७ आज्ञा, ८ सहस्त्रार ।
इसे मुख्य और उप (सहायक) चक्र के रूप में ऐसे देखा जा सकता है।
१ मूलाधार- कुण्डलिनी,
२ मणिपुरक - स्वाधिष्ठान,
३ अनाहत - विशुद्ध 
४  सहस्त्रार - आज्ञा।

कुछ लोगों नें राहु और कुण्डलिनी को सर्प मानकर दोनों का सम्बन्ध स्थापित किया है। लेकिन फलित ज्योतिष की दृष्टि से राहु मोह और भ्रम का कारक है। जो कुण्डलिनी (तन्त्र मत में चित् शक्ति) से मैल नही खाता।
मेरे मत में युरेनस असुर (वत्रासुर) सर्प का प्रतीक है। लेकिन देवत तत्व के अनुसार नेपच्यून को देवेन्द्र पुरन्दर (इन्द्र) से और युरेनस को उसके समकक्ष असुर राज विरोचन से सम्बन्धित माना है।
अतः सर्प के तर्क से कुण्डलिनी को युरेनस से जोड़ना होगा।
लेकिन तन्त्र में कुण्डलिनी को चित् शक्ति मानने के तर्क को नकारा नही जा सकता। क्योंकि चक्र की अवधारणा तन्त्र की है। न कि, वैदिक। अतः उसकी व्याख्या तन्त्र के नियमों के अधीन ही होना चाहिए।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

हमारा वास्तविक स्वरूप/ वास्तविक मैं

  इड़ा, पिङ्गला, सुशुम्ना, स्थूल शरीर,लिङ्ग शरीर,सुक्ष्म शरीर,कारण शरीर, पञ्च इन्द्रियाँ,पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, अन्तःकरण चतुष्टय,
 [१ {मनसात्मा (मन - संकल्प)}, २ {लिङ्गात्मा (अहंकार - अस्मिता)}, 
३ {ज्ञानात्मा (बुद्धि - मेधा/ बोध), ४ {विज्ञानात्मा (चित्त - वृत्ति/चेत)}, 
{अभिकरण ५ {अणुरात्मा  (तेज- विद्युत), 
{६ सुत्रात्मा (ओज- आभा)}] है।
उक्त सभी तो जड़ प्रकृति के अङ्ग जड़ पदार्थ ही हैं।

अधिकरण [{ १ भुतात्मा (प्राण/ चेतना/ देही -धारयित्व/ धृति/ अवस्था}  और 
{ २ जीवात्मा (अपर पुरुष/जीव - अपरा प्रकृति/ आयु /जीवन)} मध्य स्थिति है। 
जबकि 

{प्रत्यगात्मा /अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति) अधिष्ठान है। प्रत्येक का प्रथक प्रथक स्वरूप है।
इनसे परे आत्म तत्व आरम्भ होते है।
[{प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति}, और इनसे परे
विश्वात्मा /ॐ, इससे पर परमात्मा (परम आत्म/ वास्तविक मैं) हम सबका मूल स्वरूप है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

महर्षि अगस्त का समुद्र का पानी पी जाना और विंध्याचल को झुके रहनें का आदेश की वास्तविकता।

वास्तव में उल्का टकराने से भूमि का झुकाव बढ़ जाने के कारण या अगस्त तारा का दक्षिण में खिसकने के परिणामस्वरूप या उसी समय अफ्रीका से टूटकर एक खण्ड जिसके उत्तर में सतपुड़ा पर्वत था आर्यावर्त वाली भूमि जिसका दक्षिण सीमा पर विन्यगिरि स्थित था उस विन्द्य गिरि से टकरा कर दक्षिण भारत का हिस्सा भारत में जुड़ने से नर्मदा घाँटी का समुद्र का पानी फैलकर अरब सागर और बङ्गाल की खाड़ी में चले जाना और उस स्थान पर विंध्याचल पर्वत बड़ा ऊँचा हो जाना फिर विन्याचल का अधिकतम (सीमान्त) ऊँचाई पा लेनें के बाद अचानक धँस जाना। बादमें और एशिया यूरोप से जुड़ गया यूराल पर्वत के रोकने के कारण ठीक इसी प्रकार उत्तर सागर के स्थान पर उत्तर गिरि बनना जो कुछ वर्षों बाद हिमाचल बन गया और अब हिमालय बन गया। अफ्रीका से आस्ट्रेलिया भी अलग हो गया। आज भी नर्मदा घाँटी और हिमालय में समुद्र के अवशेष मिलते हैं। और दोनों भाग अन्दर से पोले / खोखले माने जाते हैं।
इसी घटना को अगस्त मुनि के दक्षिण में जानें पर विन्द्याचल का झुकना और अगस्त द्वारा झुके रहनें का निर्देश के पालन में आजतक झुका रहना तथा अगस्त द्वारा समुद्र का पानी सोख लेना कहा जाता है।
जैसे आर्य आक्रमण की थ्योरी गड़ी गई उसी प्रकार विन्याचल और यूराल पर्वत के बीच के भाग को भी अफ्रीका का हिस्सा बतलाया गया। जबकि विंध्याचल और सतपुड़ा, उत्तर भारत और दक्षिण भारत की रचना में जमीन आसमान का अन्तर है।
सुचना - अगस्त तारा का दक्षिण में खिसकना और महिषासुर द्वारा खूर से भूमि को तेजी से घुमाना (मार्कण्डेय पुराण/ दुर्गा सप्तशती मध्यम चरित्र) की घटनाओं का मतलब  उल्का टकराने से भूमि का झुकाव बढ़ना और कुछ समय भूमि का अपनी धूरी पर तेजी से घूमना की घटना होना अधिक सम्भव है।  

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

खगोलीय घटना होनें के पहले सतर्कता बरतें।

खगोलीय घटना होनें के पहले सतर्कता बरतें। घटना के बाद स्नान -दान, यज्ञ-होम करें।

धर्मशास्त्र में एक अनोखी परम्परा है कि, सूर्य और चन्द्रमा और भूमि के परस्पर विशिष्ट योग निर्मित होनें पर उस योग बननें के पहले उस की सावधानियाँ बरती जाती है। और घटना घटित होने के बाद स्नान - दान, यज्ञ - होम करने का विधान है।
जैसे संक्रान्ति, सूर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहण तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी, एकादशी, पूर्णिमा और कृष्णपक्ष की पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी,अमावस्या तिथियों को उपास रखते हैं और दूसरे दिन स्नान - दान, यज्ञ - होम करते हैं।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

राष्ट्रीय शक केलेण्डर में सुधार के सुझाव।

भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर में निम्नलिखित सुधार अत्यावश्यक है। इन्हें शिघ्रातिशिघ्र लागू किया जाना उचित होगा।
(१) शक वर्ष के स्थान पर कलियुग संवत या युगाब्ध लागु किया जाए।

(२) महिनों के नाम चैत्र वैशाख के स्थान पर निम्नानुसार १ मधु, २ माधव, ३ शुक्र, ४ शचि, ५ नभस, ६ नभस्य, ७ ईष, ८ ऊर्ज, ९ सहस, १० सहस्य, ११ तपस और १२ तपस्य किये जाएँ।

(३) मासारम्भ के दिनांक ग्रेगोरियन केलेण्डर / C.E. के दिनांक निम्नानुसार हो।

१-  मधुमास  21 मार्च से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
२- माधव मास 21 अप्रेल से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
३-मिथुन /  शुक्र/ 22 मई से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
४- शचि मास  22 जून से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
वर्षा ऋतु 
५-  नभस मास 23 जुलाई से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
६ नभस्य मास 23 अगस्त से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
७- ईष मास 23 सितम्बर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
८-  उर्ज मास 23 अक्टूबर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
९-  सहस मास 22 नवम्बर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
१०- सहस्य मास 22 दिसम्बर प्रारम्भ होकर 29 दिन का मास रहेगा। 
११- तपस मास 20 जनवरी से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
१२-  तपस्य मास 19 फरवरी से प्रारम्भ होकर सामान्य वर्ष में 30 दिन का रहेगा और प्रति चौथे वर्ष  प्लूत वर्ष (लीप ईयर) में 31 दिन का रहेगा।

(४) इस प्रकार कलियुग संवत या युगाब्ध में उत्तरायण - दक्षिणायन, उत्तर तोयन - दक्षिण तोयन, और  १ वसन्त ऋतु, २ ग्रीष्म ऋतु, ३ वर्षा ऋतु, ४ शरद ऋतु, ५ हेमन्त ऋतु और ६ शिशिर ऋतु का प्रत्यक्ष सम्बन्ध जुड़ जाएगा।

(५) क - उत्तर गोल, उत्तरायण/ उत्तर तोयन।
वसन्त ऋतु 
१-मेष /  मधु / 21 मार्च से / 31 दिन। 
२-वृष /  माधव/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।  

ग्रीष्म ऋतु।
३-मिथुन /  शुक्र/ 22 मई से / 31 दिन। 

उत्तर गोल, दक्षिणायन/दक्षिण तोयन।
४-कर्क / शचि/  22 जून से / 31 दिन। 

वर्षा ऋतु 
५-सिंह /  नभस / 23 जुलाई से / 31 दिन। 
६ कन्या / नभस्य / 23 अगस्त / 31 दिन। 

 दक्षिण गोल, दक्षिणायन/दक्षिण तोयन 

शरद ऋतु
७-तुला / ईष / 23 सितम्बर से / 30 दिन। 
८-वृश्चिक /  उर्ज / 23 अक्टूबर से / 30 दिन। 

हेमन्त ऋतु 
९-धनु / सहस / 22 नवम्बर से /30 दिन। 

दक्षिण गोल, उत्तरायण/ उत्तर तोयन
१०-मकर / सहस्य / 22 दिसम्बर से/ 29 दिन। 

शिशिर ऋतु 
११-कुम्भ / तपस / 20 जनवरी से /30 दिन। 
१२-मीन / तपस्य / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।

(६) इससे प्राचीन भारतीय इतिहास समझने में आसानी होगी।
(७) भारतीय व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों को इस केलेण्डर से जोड़ कर एकरूपता लानें में सहायता मिलेगी।

ग्रेगोरियन केलेण्डर में सुधार का सुझाव।

ग्रेगोरियन केलेण्डर में सुधार कर वर्ष का प्रारम्भ वसन्त सम्पात दिवस ( वर्तमान केलेण्डर के अनुसार २१ मार्च) से करते हुए यदि --

१ - 21 मार्च को 01 मार्च कर दिया जाए। मधुमास 31 दिन 
२ - 21अप्रेल को 01 अप्रेल कर दिया जाए। माधवमास 31 दिन 
३ - 22 मई को 01 मई कर दिया जाए। शुक्रमास 31 दिन 
४ - 22 जून को 01 जून कर दिया जाए। शचिमास 31 दिन 
५ - 23 जुलाई को 01 जुलाई कर दिया जाए। नभसमास 31 दिन 
६ - 23 अगस्त को 01 अगस्त कर दिया जाए। नभस्यमास 31 दिन 
७ - 23 सितम्बर को 01 सितम्बर कर दिया जाए। ईषमास 31 दिन 
८ - 23 अक्टूबर को 01 अक्टूबर कर दिया जाए। ऊर्ज 30 दिन 
९ - 22 नवम्बर को 01 नवम्बर कर दिया जाए। सहसमास 30 दिन 
१० - 22 दिसम्बर को 01 दिसम्बर कर दिया जाए। सहस्यमास 29 दिन 
११ - 20 जनवरी को 01 जनवरी कर दिया जाए। तपसमास 30 दिन 
१२ - 19 फरवरी को 01 फरवरी कर दिया जाए। तपस्यमास 30या 31 दिन
तो ग्रेगोरियन केलेण्डर, एस्ट्रोनॉमिकल केलेण्डर के समान हो जाएगा।
उचित तो यह होगा कि, जूलाई को क्विंटिलिस और अगस्त को सेक्स्टिलिस पूर्ववत रोमन केलेण्डर के समान संख्यात्मक नाम दे दिए जायें तो और भी व्यावहारिक हो जाएगा।

मासारम्भ १८ से २२ दिन पहले करने होंगे। तथा वर्ष आरम्भ ८० या ८१ दिन बाद में होगा।

लेकिन इससे ग्रेगोरियन केलेण्डर एस्ट्रोनॉमिकल केलेण्डर से पूर्णतः जुड़ जायेगा।

रविवार, 20 नवंबर 2022

वैदिक व्रतोपवास का आधार।

तिथियों के व्रत क्यों किये जाते हैं और विशेष तिथियों पर ईश्वर भजन-किर्तन विशेष रूप से क्यों किये जाते हैं?

इसका कारण है भूमि के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध सूर्य और चन्द्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल होना। 
इसी कारण गुरु ब्रहस्पति और शुक्र के अस्त होनें पर भी शुभ कार्य निषिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि उस समय भूमि के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध सूर्य के साथ साथ अस्त ग्रह ब्रहस्पति या शुक्र का बल कार्यरत हो जाता है।

तिथियाँ जिनके व्रत विशेष रूप से होते हैं।⤵️

सूर्य भूमि और चन्द्रमा में --- ⤵️

शुक्ल पक्ष की अष्टमी (एकाष्टका) तिथि और कृष्णपक्ष की अष्टमी (अष्टका) तिथियों में अष्टमी तिथि के मध्य में (साढ़े सप्तमी तिथि पर) समकोण त्रिभुज बनता है और सूर्य और चन्द्रमा भूमि पर ९०° का कोण बनाते हैं। चन्द्रमा आधा दिखता है आधा छुपा रहता है। तो भूमि पर बल समानान्तर चतुर्भुज के नियम से परिणामी बल सूर्य और चन्द्रमा के बीच से भूमि पर ४५° के कोण बनाने वाली रेखा पर होता है। इस लिए ये तिथियाँ तुलनात्मक अल्प महत्वपूर्ण रही।

२ शुक्ल पक्ष की  एकादशी और कृष्णपक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्ति के समय सम बाहु / सम त्रिबाहु त्रिभुज बनता है और सूर्य और चन्द्रमा भूमि तीनों परस्पर १२०° - १२०° का कोण बनाते हैं। तो भूमि पर बल समानान्तर चतुर्भुज के नियम से परिणामी बल सूर्य और चन्द्रमा के बीच से भूमि पर ६०° के कोण बनाने वाली रेखा पर होता है। चन्द्रमा का दो तिहाई भाग दिखता है एक तिहाई भाग छुपा रहता है। इस तिथि को पौराणिक काल में ही महत्वपूर्ण माना गया।

संक्रान्ति के समान ही पूर्णिमा और अमावस्या तिथियाँ वैदिक काल से आज तक सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथियाँ रही है। क्योंकि, 

३ पूर्णिमा तिथि के समाप्ति के समय पर भूमि के एक ओर सूर्य तो दूसरी ओर चन्द्रमा होता है।अर्थात भूमि को एक ओर सूर्य खिंचता है दूसरी ओर चन्द्रमा। इसी कारण चन्द्र ग्रहण के समय भोजनादि निषिद्ध हैं और पूरे ग्रहण काल में केवल जप, भजन - किर्तन में ही व्यतीत करनें का विधान है। सूर्य भूमि और चन्द्रमा तोनों सरल रेखा में होते हुए परस्पर १८०° का कोण बनाते हैं। पूर्ण चन्द्र दिखता है। व्रत - पर्व के साथ यह तिथि उत्सव - त्योहारों में भी महत्वपूर्ण रही है।

४ अमावस्या तिथि की समाप्ति के समय भी सूर्य भूमि और चन्द्रमा तोनों सरल रेखा में होते हुए परस्पर १८०° का कोण बनाते हैं। लेकिन भुमि के एक ही ओर पहले चन्द्रमा और बादमें सूर्य होता है। इसी कारण सूर्य ग्रहण की अमावस्या को भी भोजनादि के निषेध होते हैं और पूरे ग्रहण काल में केवल जप, भजन - किर्तन में ही व्यतीत करनें का विधान है।  भूमि को एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों खिंचते हैं। चान्द्रमास, अधिक मास और क्षय मास तथा चान्द्रवर्ष का आरम्भ और समापन अमावस्या तिथि को ही होता है। 

मतलब उक्त तिथियों पर भूमि के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध सूर्य और चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल विपरीत दिशा में काम करते हैं। इसलिए समुद्र में लघु ज्वार, दीर्घ ज्वार और भाटा होता है।
यही स्थिति मानव मन पर भी प्रभाव डालती है। निश्चयात्मिका बुद्धि कम होती है। मन की संकल्प शक्ति कमतर और विकल्प शक्ति प्रबल होते हैं। मन पर नियंत्रण कम हो जाता है। इस तथ्य को मनोविज्ञान भी स्वीकारता है।

अतः इन तिथियों पर पाचन कमजोर होनें से व्रत रखते हैं और  मनःस्थिति ठीक नही होने के कारण एकाग्रता भङ्ग होती रहती है इसलिए सर्वव्यापी विष्णु का ध्यान में समय व्यतीत किया जाता है। 
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व्रतों में कुछ विचित्रता।---
एकादशी का पारण विष्णु की तिथि द्वादशी में होता है और एकादशी के देवता विश्वेदेवाः हैं; न कि, विष्णु । एकादशी तिथि का विष्णु से प्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है।
यही स्थिति प्रदोष व्रत की भी है।
अष्टमी के देवता शिव हैं। और चतुर्दशी तिथि के देवता शंकर भगवान हैं। शिवरात्रि महानिशिथकाल व्यापी चतुर्दशी तिथि में मनाई जाती है। अर्थात जो चतुर्दशी  तिथि अर्धरात्रि के २४ मिनट पहले से अर्धरात्रि के २४ मिनट बाद तक हो उस चतुर्दशी तिथि में ही शिवरात्रि मनती है।
जबकि प्रदोष व्रत का पारण तो शंकर भगवान की चतुर्दशी तिथि में ही होता है। 
सूर्यास्त के बाद के दो घण्टे २४ मिनट प्रदोषकाल कहलाते हैं।
प्रदोषकाल व्यापी त्रयोदशी तिथि में प्रदोष किया जाता है।
जबकि त्रयोदशी तिथि के देवता तो कामदेव हैं। अतः प्रदोष व्रत का शंकर भगवान से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नही दिखता।
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वैदिक काल में व्रत - पर्व , उत्सव - त्योहार कैसे मनाते थे?

वैदिक काल में सायन सूर्य के मधु- माधव आदि मास की संक्रान्तियों तथा मधु माधवादि मास में पड़ने वाले चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर धार्मिक कृत्य - व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार आदि मनाये जाते थे।

*वैदिक काल के महीनों के नाम और अवधि।* 
 *क्रमांक - सूर्य की सायन राशि/ चान्द्र मास/ वैदिक मास/ मास का प्रारम्भ दिनांक (ईस्वी)/ और मास की अवधि* निम्नानुसार होते हैं।

क - उत्तरायण, उत्तर तोयन।
वसन्त ऋतु 
१-मेष /  मधु / 21 मार्च से / 31 दिन। 
२-वृष /  माधव/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।  

ग्रीष्म ऋतु।
३-मिथुन /  शुक्र/ 22 मई से / 31 दिन। 

उत्तरायण, दक्षिण तोयन।
४-कर्क / शचि/  22 जून से / 31 दिन। 

वर्षा ऋतु 
५-सिंह /  नभस / 23 जुलाई से / 31 दिन। 
६ कन्या / नभस्य / 23 अगस्त / 31 दिन। 

दक्षिणायन, दक्षिण तोयन 

शरद ऋतु
७-तुला / ईष / 23 सितम्बर से / 30 दिन। 
८-वृश्चिक /  उर्ज / 23 अक्टूबर से / 30 दिन। 

हेमन्त ऋतु 
९-धनु / सहस / 22 नवम्बर से /30 दिन। 

दक्षिणायन, उत्तर तोयन
१०-मकर / सहस्य / 22 दिसम्बर से/ 29 दिन। 

शिशिर ऋतु 
११-कुम्भ / तपस / 20 जनवरी से /30 दिन। 
१२-मीन / तपस्य / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।

(तीन वर्ष तक प्रत्येक वर्ष ३६५ दिन का होता है लेकिन चौथा वर्ष वर्ष ३६६ दिन का होता है।)

 *"नक्षत्रों के देवता* ⤵️

1 *अश्विनी के अश्विनीकुमार* (दस्र और नासत्य आदित्य / सूर्यदेव और अश्विनी के पुत्र हैं),
2 *भरणी के यमराज* (आदित्य / सूर्यदेव और सरण्यु के पुत्र, यमुना जी के भाई।)
3 *कृतिका के अग्निदेव* । (अग्नि वसु)
4 *रोहिणी के ब्रह्मा जी* ।
5 *मृगशीर्ष के सोम देव*  (सोम वसु। जिनका निवास मृगशीर्ष नक्षत्र/ हिरणी के ताराओं में माना गया है। )
6 *आर्द्रा के शिव* (रुद्र)।
7 *पुनर्वसु की अदिति* (आदित्यों की माता)।
8 *पुष्य के ब्रहस्पति* (देवताओं के आचार्य।) देवगुरु ब्रहस्पति देवता हैं। 
(केवल विंशोत्तरी महादशा में पुष्य नक्षत्र के स्वामी शनि ग्रह बतलाये हैं। कर्मकाण्ड/ पूजा में पुष्य नक्षत्र के देवता ब्रहस्पति का ही महत्व है। कर्मकाण्ड में विंशोत्तरी महादशा के अनुसार पुष्य नक्षत्र के स्वामी शनि होनें का कोई महत्व नही है।)
9 *आश्लेषा के सर्प* । (सुरसा / कद्रु की सन्तान। ब्राह्मण ग्रन्थ और सुत्र रचना काल काल में सूर्य के आश्लेषा नक्षत्र में आने पर नाग पूजन होता था जो अब नाग पञ्चमी पर होता है।)
10 *मघा के पितरः* (सप्त पितरः  1 अग्निष्वात 2  बहिर्षद 3 कव्यवाह 4 अर्यमा 5  अनल , 6 सोम , 7 यम । पहले तीन निराकार और बादके चार साकार हैं।) (अर्यमा आदित्य भी है। यहाँ अर्यमा सप्त पितरः के मुखिया हैं।अनल और सोम वसु भी हैं।)
11 *पूर्वाफाल्गुनी के भग आदित्य*।
12 *उत्तराफाल्गुनी के अर्यमा आदित्य*
13 *हस्त के सवितृ आदित्य* ।
14 *चित्रा के त्वष्टा आदित्य* ।
15 *स्वाती के वायुदेव  (वसु* )
16 *विशाखा के इन्द्राग्नि* ।  (इन्द्र आदित्य और अग्नि वसु)
17 * अनुराधा के मित्र आदित्य* ।
18 *ज्यैष्ठा के वरुण आदित्य* । (मतान्तर से इन्द्र आदित्य।)
19 *मूल के निऋति* (राक्षसों के राजा)/ मतान्तर से निऋति को अलक्ष्मी अर्थात कालरात्रि भी मानते हैं।)
20 *पूर्वाषाढ़ा के अप् (जल वसु)*।
21 *उत्तराषाढ़ा के विश्वैदेवाः* । 
वेदों में १ प्रजापति, २ इन्द्र, (३ से १४ तक) द्वादश आदित्य, (१५ से २२ तक) अष्ट वसु, (२३ से ३३ तक) एकादश रुद्र सब मिलाकर तैंतीसों देवता विश्वैदेवाः कहलाते थे।* 
पुराणों में कश्यप और विश्वा के दस पुत्र और पौत्रादि विश्वेदेव कहलाते हैं। (1 कृतु 2 दक्ष 3 श्रव 4 सत्य 5 काल 6 काम 7 मुनि 8 पुरुरवा 9 आर्द्रवसु 10 रोचमान मुख्य हैं। कहीँ कहीँ तीन तथा कहीँ तेरह वसु तो कहीँ तिरसठ विश्वैदेवाः भी मानें गये हैं।)
22 *अभिजित के विधि* (ब्रह्म अर्धात विधाता - (सवितृ और सावित्री)। )
23 *श्रवण के विष्णु आदित्य (वामन अवतार)।* 
24 *धनिष्टा के अष्ट वसु* (1 प्रभास 2 प्रत्युष, 3 धर्म 4 ध्रुव 5 सोम 6 अनल  7 अनिल 8 आप या अपः)।
25 *शतभिषा (शततारका) के इन्द्र आदित्य* / *मतान्तर से वरुण आदित्य।* 
26 *पूर्वाभाद्रपद के  अजेकपात रुद्र/* (अज एक पाद या अज का एक चरण।)
27 *उत्तराभाद्रपद के अहिर्बुधन्य रुद्र।(* सर्पधर।)
28 *रेवती के पूषा आदित्य* ।

तदनुसार उक्त सायन सौर मास में निर्धारित पर्वकाल में देवता विशेष के नक्षत्र योग तारा के साथ चन्द्रमा होनें के दिन व्रत-पर्व, उत्सव - त्योहार मनाये जाते थे।

वैदिक काल में तिथियाँ प्रचलित नही थी।
केवल उपर्युक्त एकाष्टका - अष्टका, और पूर्णिमा - अमावस्या और सायन संक्रान्तियों में व्रत पर्व होते थे। । प्रतिपदा में इष्टि होती थी। प्रतिपदा, अष्टमी, पूर्णिमा और अमावस्या तिथियाँ ही प्रचलित थी।

"तिथियों के देवता -
1 *प्रतिपदा के अग्नि देव,* 
2 *द्वितीय के ब्रह्मा जी,* 
3 *तृतीया की गौरी देवी,* 
4 *चतुर्थी के (शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के) ब्रह्मणस्पति और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के) गणपति ,* 
5 *पञ्चमी के नागदेव,* 
6 *षष्टी के कुमार कार्तिकेय* , 
7 *सप्तमी के सूर्य,(आदित्य)* 
8 *अष्टमी के (शुक्ल पक्ष की अष्टमी के) शिव,* (कृष्णपक्ष की अष्टमी के) रुद्र/ भैरव।
9 *नवमी की दुर्गा देवी* , 
10 *दशमी के यमराज
11 *एकादशी के विश्वेदेवाः,* 
12 *द्वादशी के विष्णु भगवान,* 
13 *तृयोदशी के कामदेव,* 
14 *चतुर्दशी के शंकर ,* 
15 *पूर्णिमा के चन्द्रमा* और 
30 *अमावस्या के देवता पितरः*(सप्त पितर) हैं।

वैदिक काल में वेतन वितरण आदि व्यावसायिक कर्म में दस दिन का दशाह प्रचलित था। दो सूर्योदयों के बीच की अवधि को वासर कहते थे। 
यदा-कदा सप्ताह शब्द भी आया है। लेकिन वहाँ प्रत्येक सात दिनों वाले सप्ताह के अर्थ में न होकर वर्तमान में भाद्रपद मास में होनें वाले भागवत सप्ताह जैसे अर्थ में उल्लेख है।
विगत दो हजार वर्ष से प्रचलित सप्ताह के वार वैदिक काल में प्रचलित नहीं थे। 
अतः वारों का कोई व्रत आदि प्रचलित नही थे।

वार --
वार भी सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक रहता है।
वार का आरम्भ  सूर्योदय होते ही होजाता है। इसके पहले नही। वार की समाप्ति अगले दिन के सूर्योदय होते ही होती है इसके पहले नही।जो लोग मध्यरात्रि बारह बजे वार बदलते हैं वे गलती करते हैं।मध्यरात्रि बारह बजे Day & Date बदलते हैं वार और तिथि नक्षत्र कुछ भी नहीं बदलते।

ग्रहों के अधिदेवता (मुख्य देवता) और प्रत्यधिदेवता (उपदेवता)  जो वार के भी देवता माने जाते हैं। ⤵️

1 रविवार -  सूर्य  के अधिदेवता ईश्वर (ईशान/ शंकर) तथा  प्रत्यधिदेवता  अग्नि।
2 सोमवार - चन्द्रमा की अधिदेवता  उमा तथा प्रत्यधिदेवता अप्  (जल)।
3 मंगलवार  -  मङ्गल के अधिदेवता स्कन्द (कार्तिकेय) तथा प्रत्यधिदेवता पृथ्वी
4 बुधवार - बुध के अधिदेवता और प्रत्यधिदेवता दोनो ही विष्णु  हैं।
5 गुरुवार - ब्रहस्पति  के अधिदेवता ब्रह्मा तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र।
6 शुक्रवार - शुक्र के अधिदेवता इन्द्र तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्राणी (शचि)।
 7 शनिवार - शनि के अधिदेवता यम तथा प्रत्यधिदेवता प्रजापति
8 राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधिदेवता सर्प
9 केत के अधिदेवता चित्रगुप्त तथा प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा

जो लोग सोमवार को शिवजी की, मालवा में बुधवार को विनायक / गजानन की, गुरुवार को विष्णु भगवान की, शुक्रवार को लक्ष्मी जी की आराधना उपासना करते हैं उसका मैल उक्त देवताओं से नही बैठता है।
महाराष्ट्र में विनायक सम्प्रदाय वाले मंगलवार को अष्टविनायक की उपासना करते हैं। मंगलवार को पड़ने वाली अङ्गारकी चतुर्थी को विशेष महत्व देते हैं। 

*पौराणिक काल में ---
वैदिक काल के उत्तरायण को उत्तर गोल और दक्षिणायन को दक्षिण गोल नामकरण कर दिया गया। वैदिक काल में जो तोयन कहलाते थे उनको अयन कहने लगे। उत्तर तोयन को उत्तरायण नामकरण कर दिया और दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नामकरण कर दिया गया।
वैदिक ऋतुओं का काल सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, (वर्तमान में पाकिस्तान में हैं।) अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान,किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तुर्किस्तान, तिब्बत, तकलामकान (वर्तमान में चीन में) कश्मीर, पञ्जाब, हरियाणा, अर्थात आर्यावर्त को ध्यान में रख कर बनाई गई थी। वे अब चन्द्रवंशी दुष्यन्त - शकुन्तला पुत्र भरत चक्रवर्ती द्वारा शासित भरत खण्ड (लगभग वर्तमान भारत) के लिए लागू हो गई।
वर्षाकाल में दक्षिणायन हो जाने से शुभ कार्यों के मुहुर्त वर्षाकाल निषिद्ध हो गया। 

पौराणिक काल में वैदिक काल के महीनों के नाम  संशोधित कर दिए गये। या यों कहें कि, 
पौराणिक काल में वैदिक महीनों के आरम्भ दिनांक और अवधि संशोधित कर दिए गये। इससे ऋतुओं का प्रारम्भ समय स्वतः एक महीने पहले हो गया। 
चूँकि, सिद्धान्त ज्योतिष ग्रन्थ पौराणिक काल और उसके बाद में लिखे गये, अतः उनमें उक्त परिवर्तित व्यवस्था को ही लिखा गया। जो वेदाध्ययन नही कर पाये वर्तमान ज्योतिषियों के लिए प्रमाण हो गया।

पौराणिक काल में मासों के संशोधित आरम्भ दिनांक और अवधि निम्नानुसार है। 

 *क्रमांक - सूर्य की सायन राशि/ राष्ट्रीय शक केलेण्डर के मास/ पौराणिक मास/ आरम्भ दिनांक (ईस्वी)/ और अवधि।* 

उत्तर गोल, उत्तरायण।

वसन्त ऋतु।
१-मेष / वैशाख / माधव / 21 मार्च से / 31 दिन। 

ग्रीष्म ऋतु।
२-वृष / ज्येष्ठ / शुक्र/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।  
३-मिथुन / आषाढ़ / शचि/ 22 मई से / 31 दिन। 

उत्तर गोल, दक्षिणायन।

वर्षा ऋतु।
४-कर्क / श्रावण / नभस/  22 जून से / 31 दिन। 
५-सिंह / भाद्रपद / नभस्य / 23 जुलाई से / 31 दिन। 

शरद ऋतु।
कन्या / आश्विन / ईष / 23 अगस्त / 31 दिन। 

दक्षिण गोल, दक्षिणायन
७-तुला / कार्तिक / ऊर्ज / 23 सितम्बर से / 30 दिन। 

हेमन्त ऋतु।
८-वृश्चिक / मार्गशीर्ष / सहस / 23 अक्टूबर से / 30 दिन। 
९ -धनु / पौष / सहस्य / 22 नवम्बर से / 30 दिन।

दक्षिण गोल, उत्तरायण।

शिशिर ऋतु।
१० -मकर / माघ / तपस / 22 दिसम्बर से / 29 दिन। 
११ -कुम्भ / फाल्गुन / तपस्य / 20 जनवरी से / 30 दिन।

वसन्त ऋतु।
१२ -मीन /चैत्र /मधु / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।

सुचना -- 
जब सुर्य और भूमि के केन्द्रों की दूरी जिस अवधि में अधिक होती है उस शिघ्रोच्च   (Apogee एपोजी) के  समय 30° की कोणीय दूरी पार करने में भूमि को अधिक समय लगता है अतः उस अवधि में पड़ने वाला सौर मास 31 दिन से भी अधिक 32 दिन का होता है। इसके आसपास के दो -तीन मास भी 31 होते हैं। इससे विपरीत उससे 180° पर शीघ्रनीच (Perigee  पेरिजी) वाला सौर मास 28 या 29 दिन का छोटा होता है। इसके आसपास के सौर मास भी 30- 30 दिन के होते हैं।
वर्तमान में 05 जनवरी को सुर्य सायन मकर  13°16' 20" या निरयन धनु 19° 08'25 " पर शिघ्रनीच का रहता है इस कारण यह मास 29 दिन का और इसके आसपास  तीन महिनें 30-30 दिन के  होते हैं। इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में यह मास क्षय नही होता।
इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क  13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के  होते हैं।इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क  13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के  होते हैं।इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में इस अवधि में ही कोई  मास  अधिक  होता है।
निरयन सौर वर्ष और सायन सौर वर्ष में 25780 वर्षों में पुरे एक संवत्सर का अन्तर पड़ जाता है। इस अवधि में एक निरयन सौर संवत्सर से   सायन सौर संवत्सर एक वर्ष अधिक होता है। अर्थात यदि निरयन सौर संवत्सर 25780 है तो सायन सौर संवत्सर 25781 होगा। या यों भी कह सकते हैं कि,जब सायन सौर युग संवत्सर  
 25781होगा तब निरयन सौर युग 25780 रहेगा।
 लगभग 71 वर्षों में एक दिन का अन्तर एवम् 2148 वर्षों में एक मास का अन्तर पड़ जाता है। लगभग 4296 वर्षों में एक ऋतु का अन्तर, 6445 वर्षों में तीन मास का अन्तर पड़ता है।तथा 12890 वर्षों में एक अयन यानि छः मास का अन्तर पड़ जाता है। 
 भारतीय संवत्सर वैदिक काल से आज तक भी वसन्त विषुव (सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च) से ही बदलता है। लेकिन वर्तमान में ही अयनांश २४°१०' ३०" के लगभग होने से नाक्षत्रीय वर्षारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति प्रायः १४ अप्रेल को होने लगी है। अर्थात २१ मार्च से २४ दिन बाद १४ अप्रेल को होनें लगी है। सन २४३३ में निरयन मेष संक्रान्ति सायन वृष संक्रान्ति के साथ २१ अप्रेल को होनें लगेगी। तब संवत्सर आरम्भ के दिन निरयन मेष संक्रान्ति और निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के स्थान पर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा रहा करेगी।
चुँकि ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर गणनाधारित है अतः यही अन्तर ग्रेगोरियन केलेण्डर ईयर में भी लागु होता है। इस कारण लगभग 71 वर्ष में निरयन संक्रान्तियों की एक तारीख (Date) बढ़ जाती है। निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को होने लगती है।

वर्तमान में निरयन मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु मकर, कुम्भ और मीन मास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक निम्नानुसार है।

 वर्तमान में निरयनमास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक-- 

१ मेष         14 अप्रेल से          30 दिन।
२ वृष          14 मई से               31 दिन।
३ मिथुन     15 जून से             32 दिन। 
४ कर्क        16 जुलाई से         31 दिन।
५ सिंह        17 अगस्त से       31 दिन।
६ कन्या       17 सितम्बर से    30 दिन।
७ तुला         17 अक्टोबर से   30 दिन।
८ वृश्चिक      16 नवम्बर से      30 दिन।
९ धनु          16 दिसम्बर से    30 दिन।
१० मकर        14 जनवरी से      29 दिन।    
११ कुम्भ        13 फरवरी से      30 दिन।
१२ मीन          14 मार्च से            31 दिन।

अधिकमास और क्षय मास करके उक्त मासों के साथ साथ चलने वाले चैत्र - वैशाखादि अमान्त चान्द्रमासों का प्रारम्भ, अर्थात अमावस्या का आरम्भ एवम शुक्ल प्रतिपदा का प्रारम्भ भी दो नाक्षत्रीय सौर मासारम्भ (निरयन सौर संक्रान्ति) के बीच ही चलते हैं।

१ मेष   चैत्र        14 मार्च से  14 अप्रेल तक के बीच प्रारम्भ।
         
२  वृष   वैशाख    14 अप्रेल से   14 मई तक के बीच प्रारम्भ।
                     
३ मिथुन ज्येष्ठ      14 मई से  15 जून तक के बीच प्रारम्भ।
         
४ कर्क   आषाढ़   15 जून से 16 जुलाई तक  के बीच प्रारम्भ।
       
५ सिंह    श्रावण   16 जुलाई से 17 अगस्त तक  के बीच प्रारम्भ।
   
६ कन्या  भाद्रपद  17 अगस्त से 17 सितम्बर तक के बीच प्रारम्भ।
  
७ तुला    आश्विन  17 सितम्बर से 17 अक्टोबर तक के बीच प्रारम्भ।
 
८ वृश्चिक कार्तिक   17 अक्टोबर से 16 नवम्बर तक  के बीच प्रारम्भ।
 
९ धनु      मार्गशीर्ष   16 नवम्बर से 16 दिसम्बर तक  के बीच प्रारम्भ।
 
१० मकर   पौष     16 दिसम्बर से 14 जनवरी तक  के बीच प्रारम्भ।
       
११ कुम्भ   माघ।   14 जनवरी से 13 फरवरी तक  के बीच प्रारम्भ।
  
१२ मीन      फाल्गुन  13 फरवरी से  14 मार्च तक  के बीच प्रारम्भ।

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

दार्शनिक जिज्ञासाओं के उत्तर।

१ सत मतलब अस्ति (है), अस्तित्व (हैपन), सत्य, वास्तविक।
असत कुछ होता ही नही। जो है वह सत ही है।
सत ऋत (परमात्मा के संविधान) से भी उच्चतर है। ऋत विश्वात्मा ॐ के निकटतम है। परमात्मा ही सत है।
सत अक्षर ब्रह्म होते हुए भी; उस अक्षर ब्रह्म से भी परे साक्षात परमात्मा ही है।
सत के अलावा कुछ है ही नही। अतः जो कुछ दिख रहा है, अनुभव हो रहा है; वह सब वह परमात्मा है। अर्थात सत ही तो है।
अक्षर ब्रह्म तो प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष- प्रकृति) ब्रह्म (सवितृ- सावित्री) है।
इससे उत्कृष्ट प्रज्ञात्मा (परम दिव्य पुरुष- परा प्रकृति) परब्रह्म (विष्णु-माया) है। 
इससे उच्चतर विश्वात्मा - परमात्मा का ॐ संकल्प है। इससे उच्चतर और सर्वोच्च परम आत्मा/ परमात्मा ही है। जो एकमात्र सत है/ सत्य है।
सत सदैव एकसा, समरस, अपरिवर्तनशील, अक्षर, एकमेव, सर्वोत्कृष्ट, सर्वोच्च, सर्वोत्तम परमात्मा है।
जबकि ऋत परमात्मा का अर्थात सत का  अपरिवर्तनशील, अटल संविधान है। 
लेकिन ऋत में धर्म के समान बहुत अधिक परन्तुक  होनें से सदैव गतिशील ,अटल लेकिन अचल नही है। इसे एकसाथ पूर्णरूपेण समझ कर स्मरण रखना सबसे कठीन काम है। केवल लगभग आत्मज्ञ ही समझ पाते हैं।
शुन्य मतलब परम मध्य। न धनात्मक न ऋणात्मक। गुण साम्यावस्था।
अ शुन्य मतलब धनात्मक हो या ऋणात्मक लेकिन शुन्य से अनन्त के बीच की अवस्था। विषम, प्रकृति में विक्षेप की अवस्था ।

जो कुछ है सब सत ही है। यही इसका भौतिक स्वरूप है। जो कुछ है सब सत ही है, इसलिए सत के अतिरिक्त कुछ भी नही है, न सत के आगे कुछ है न सत के पीछे दाँये- बाँये, उपर- नीचे कुछ भी नहीं है। ऐसा समझा जा सकता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं भी तो सत ही है। नेति नेति।
सत स्थाई, स्थिर है इसीलिए सापेक्ष सबकुछ गतिशील है। इसलिए ऋत भी गतिशील है।
यही बात सत (परमात्मा) से असत (वास्तव में मिथ्या) जगत की उत्पत्ति और असत (केवल परमात्मा) से सत (वर्तमान स्वरूप में जगत) की उत्पत्ति है।
सत्य (परमात्मा) को जितना जान लिया उतने ही आप चेतन होते जाते हैं। और परमात्मा के निकट होते जाते हैं। आनन्दित रहते हैं। पूर्णतः जान लेनें पर परमात्मा ही रह जाता है।
परमात्मा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप उत्पन्न जैविक  और जड़ जगत रूपी यह सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है।
सृष्टि, स्थिति और लय उस परमात्मा का मौज है, लीला है।

बुधवार, 16 नवंबर 2022

अत्यावश्यक षडकर्म

निम्नांकित षडकर्म अनिवार्य है। इनमें से किसी को भी नही छोड़ा जा सकता।

क -शारीरिक गतिविधियाँ-
व्यायाम - अष्टाङ्ग योग के आसन और प्राणायाम,(शारीरिक व्यायाम) और मल्ल। प्रत्याहार (विचारों को दृषटाभाव से देखना, लेकिन अपनी ओर से कुछ भी नहीं करना।)
क्रीड़ा/खेलना - आउटडोर गेम्स।

ख -मानसिक गतिविधियाँ।
३ अष्टाङ्ग योग के धारणा और ध्यान (मानसिक आराम)।
४ पढ़ना - पुस्तक वाचन

पञ्चमहायज्ञ - इसमे उपर्युक्त सभी चीजें स्वतः सम्मिलित है 

1 -ब्रह्मयज्ञ - अध्ययन, चिन्तन - मनन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अध्यापन, जप। 

2 देवयज्ञ - दैनिक यज्ञ, सप्ताहिक यज्ञ, पाक्षिक पौर्णमास यज्ञ -अमावस्या के यज्ञ, मासिक हवन - सायन सौर संक्रान्तियों पर हवन, ऋतु के, अयन - तोयन के और वार्षिक यज्ञ और भजन, किर्तन, स्तवन।

3 नृ यज्ञ/ मनुष्य यज्ञ - मानव सेवा - निकटतम उपलब्ध दुर्बल, असहाय, पिड़ित, दरिद्र (गरीब), अस्वस्थ्य, रोगी, अपङ्ग, वृद्धों, बालकों और अबलाओं की सेवा - उन्हें आवश्यकतानुसार और योग्यतानुसार उनके जल, भोजन, वस्त्र,बिस्तर, निवास, मनोरञ्जन, औषधि, चिकित्सा, परिचर्या में तन, मन, धन से योगदान करना।

4 भूत यज्ञ - पेड़ - पौधे, पशु - पक्षी की नृयज्ञ के समान ही सेवा करना और अपना योगदान करना। पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में अपना योगदान करना।

5 पितृ यज्ञ - स्वयम् के और अन्य सभी के माता -पिता, दादा - दादी, नाना- नानी की नृ यज्ञ के समान सेवा करना। अपनी सन्तान और अन्य अनाथ, जरूरत मन्द बच्चों की सेवा- सहायता द्वारा उनके माता - पिता, पालकों की सहायता करना। अपने मृत बुजुर्गों की जन सेवा सम्बन्धित अपूर्ण इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करना। यथा - जल आपूर्ति (कुए- बावड़ी, तालाब, नदी, नहर की सफाई, विकास आदि), सदाव्रत, पथिक सेवा केन्द्र, धर्मशाला, विद्यालय, वाचनालय, औषधालय, चिकित्सालय आदि के निर्माण, व्यवस्थापन में सहयोग करना। 

धनार्जन - कमाना, बचाना, निवेश करना हम सबका राष्ट्रीय और सामाजिक कर्तव्य है।
हम कमाएंगे तो हमारे बुते पर दुसरे दुकानदार, उद्योग, कार्मिक, शासकीय सेवक सब कमा पायेंगे। और हमारी गृहस्थी के लिए तो आवश्यक है ही।

उक्त में से कुछ भी नही छोड़ा जा सकता है। सभी करना ही चाहिए।

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

*वैदिक कालीन संवत्सर व्यवस्था।*

*वैदिक कालीन संवत्सर व्यवस्था।* 
(श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित और हिन्दी समिति उ.प्र. शासन से प्रकाशित ग्रन्थ भारतीय ज्योतिष ग्रन्थ , श्री पाण्डुरङ्ग काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रन्थ भाग एवम् श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वैदकाल निर्णय ग्रन्थ के पृष्ठ ३७ से ६३ से उद्धृत) -

 *संवत्सर व्यवस्था -* 

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि, दिक - काल का संयुक्त वर्णन ही सम्भव है।
यथा राजनितिक भुगोल में आपनें मोर्यकालीन भारत या गुप्त कालीन भारत के नक्षे देखे होंगे। अर्थात स्थान के विवरण के साथ समय दर्शाना आवश्यक है। इसी प्रकार ग्रीनविच मीन टाइम मा भारतीय मानक समय में समय के साथ स्थान दर्शाना आवश्यक है। ऋतुएँ अक्षांश और सूर्य की सायन संक्रान्तियों पर आधारित होती है। अतः पहले वैदिक ऋषियों प्रजापतियों और राजन्यों का कार्यक्षेत्र समझ लिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वैदिक ग्रन्थों में इन्ही स्थानों (अक्षांशों) की ऋतुकाल के अनुसार वर्णन मिलना स्वाभाविक है। 
वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण के अनुसार हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।
क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति - १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति - देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) -- १३ महर्षि भृगु - ख्याति (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था । इसे गोड़ देश भी कहते हैं।
 
पञ्जाब - हरियाणा का मालव प्रान्त भी इससे लगा हुआ है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
मालवा प्रान्त से अफगानिस्तान तक और गुजरात से तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तिब्बत, मङ्गोलिया के दक्षिण में पश्चिमी चीन पर स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों का शासन था।अर्थात लगभग उत्तर अक्षांश २३° से ३५° विशेष क्षेत्र रहा।

(विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन ने भी इसी क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में सिहोर जिले के सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया था। उनके बाद विक्रमादित्य नें अवन्तिकापुरी (उज्जैन) को राजधानी बनाया। राजा भोज के काका श्री मुञ्जदेव नें धारानगरी (धार) बसायी और राजा भोज ने धार को राजधानी बनाया। मालवा के पठार का नामकरण भी उक्त मालव प्रान्त के शासकों द्वारा शासित होनें के आधार पर ही हुआ। खेर यह विषयान्तर होगया।)

*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)

*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)

इससे निम्नांकित तथ्य प्रमाणित होते हैं।
१ वैदिक संवत्सरारम्भ विषुव सम्पात यानी सायन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में २०/२१ मार्च) से होता था जिस दिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। दिनरात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
२इसी वसन्त सम्पात दिवस से
 उत्तरायण आरम्भ होता था।
३ वसन्त ऋतु का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वैदिक मास मधुमास का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।

*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।* 
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।

 *फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।* 
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)

*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)

इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। या पूर्णिमा अमावस्या, एकष्टका अष्टका तिथि से भी इंगित करते थे। 

*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।* 
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।

 *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
 *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।

*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्* 
 तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।

*ऋग्वेद में खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन*

*खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* -- इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 6 ।

*सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 7

*अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 8 ।

 *जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने प्राप्त किया और कोई न कर सका।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 9 ।
(भा.ज्यो. पृष्ठ 82)

ब्राह्मण ग्रन्थों में सूर्यग्रहण वर्णन --
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13, 6/6/8, 14/11/14एवम् 15, 23/16/5 में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है। 
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8, 14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।* 
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।* 
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)  
इससे सिद्ध होता है कि, महर्षि अत्रि ने सूर्यग्रहण और मौक्ष की ठीक ठीक गणना करना सीख लिया था।

*6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आते हैं। रीपीट होते रहते हैं।* 
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)  
इति वैदिक संवत्सर वर्णन।

बुधवार, 2 नवंबर 2022

भारतीय ज्योतिष - शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित भारतीय ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार ।

भारतीय ज्योतिष - (शंकर बालकृष्ण दीक्षित। हिन्दी समिति उ.प्र. शासन का  प्रकाशन) से उद्धृत -
पृष्ठ 40 एवम् 41
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 ।
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3 *अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*

पृष्ठ 44 एवम् 45  ।
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80  से प्रमाणित होता है कि, *देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
मैत्रायण्युपनिषद  में  उत्तरायण और  नारायण उपनिषद अनु 80 में *उदगयन शब्द  और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 

पृष्ठ 47 से -    तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1 में *वसन्त को प्रथम ऋतु  और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 3/10/4/1 में *हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*

पृष्ठ 48 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 में        अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
में *पवित्रादि मासों के नाम आये हैं।* 
तथा *शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 

 भारतीय ज्योतिष पृष्ठ 49 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1 में        अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन् पूतो मेध्यः यशो यशस्वानायुरमृतः ।  
में *पवित्रादि अर्धमासों के नाम आये हैं।* 
अर्थात शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष के समान  है।


पृष्ठ 49 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1 में        

अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु कहकर *तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।* 


पृष्ठ 50 तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में  तथा पृष्ठ 51  पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8 में     
में *फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और  उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।* 


पृष्ठ 59 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 में  *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 

तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 में *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 


पृष्ठ 64 तै.ब्रा. 1/5/3 में *दिन के पाँच विभाग -
प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्* 
पृष्ठ 65 शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में *सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।* 


भा.ज्यो. पृष्ठ 82 पर ऋग्वेद संहिता 5/40 में *खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* --

 5/40/ 6 इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।* 

  5/40/ 7 *सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की* 
 *जिस सूर्य को स्वर्भानु ने  अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।* 

5/40/ 8 *अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।* 
5/40/ 9 *जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने  प्राप्त किया और कोई न कर सका।* 

पृष्ठ 83  से 
 *6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आवर्तन होता हैं अर्थात रीपीट होते रहते हैं।* 

पृष्ठ 83  से 
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,  6/6/8,  14/11/14एवम् 15,  23/16/5  में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है। 
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8,  14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।* 
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।* 
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*

बुधवार, 19 अक्टूबर 2022

महाअसुर से पारसी ईश्वर अहुर मज्द। यह्व से यहुदियों और ईसाइयों के ईश्वर का नाम याहवेह (यहोवा)। एल पुरुरवा से यहुदियों और ईसाइयों का ईश्वर वाचक शब्द एल। एल पुरुरवा से इस्लाम का ईश्वर वाचक शब्द अल, अल्लाह, इलाही।।

अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर जेन्द व्याख्या असूरोपासक जरथुस्त्र द्वारा की गई। उस जेन्दावेस्ता के ग्रन्थ के आधार पर पारसी सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ इसलिए पारसी ईश्वर वरुण को महाअसुर अर्थात अहुरमज्द कहते है। अतः परसियों का ईश्वर महा असुर कहलाता है। वेदों में भी वरुण को महा असुर कहा है।मित्र देवता इनके साथी हैं।

ऋग्वेद में यह्व शब्द आया है। अग्नि को देवताओं में बड़ा बतलानें के लिए अग्नि को यह्व अर्थात महादेव कहा गया है।

चन्द्रमा के पुत्र बुध और वैवस्वत मनु की पुत्री इला का पुत्र पुरुरवा हुए। इला के पुत्र होनें के कारण पुरुरवा एल कहलाते हैं। एल मतलब इलापुत्र।

 सीरिया की अरामी या पुरानी अरामी या पश्चिम आरमेइक भाषा/ चाल्डियन या खाल्डियन भाषा में ऋग्वेद का यह्व शब्द याहवेह या यहोवा हो गया और एल शब्द तो यथावत एल ही रहा।
लेकिन, बेबीलोनिया की भाषा पूर्वी अरामी में एल के रूप अल,  अल्लाह, इलाही आदि बनें।

पश्चिम अरामी (या अरमाया) भाषा में यहुदी धर्मग्रन्थ तनख (बाइबल पुराना नियम) लिखा गया है। मूसा, दाउद और सुलेमान आदि और सम्भवतः इब्राहिम भी सीरिया की भाषा पश्चिमी या पुरानी अरामी ही बोलते थे। यीशु बेबीलोनिया की पूर्वी आरमेइक भाषा बोलते थे।

इब्राहिम नें एल  शब्द को ईश्वर वाचक कहा और उस ईश्वर का नाम याहवेह / यहोवा (यह्व)  बतलाया। इसलिए बाइबल में एल और यहोवा शब्द प्रचलित रहा लेकिन अरब प्रायद्वीप में अल, अल्लाह और इलाही शब्द ही प्रचलित रहे।

अरब में ईश्वर के लिए अल्लाह शब्द प्रचलित था जिसे मोहमद नें अपनाया। अतः कुरान में अल्लाह और इलाही ईश्वर वाचक शब्द हैं।

बाइबल में एल ईश्वर वाचक जाति वाचक सञ्ज्ञा  और यहोवा व्यक्ति वाचक सञ्ज्ञा के रूप में प्रयुक्त हुआ है। लेकिन कुरान में अल्लाह केवल जाति वाचक सञ्ज्ञा के रूप में ही प्रयोग हुआ है। कुरान में ईश्वर के लिए कोई व्यक्तिवाचक सञ्ज्ञा नही है, जैसे; बाइबल मे एल की व्यक्ति वाचक सञ्ज्ञा यहोवा है।

शनिवार, 15 अक्टूबर 2022

पुरुषार्थ नहीं पराक्रम सही शब्द है।

पुरुषार्थ नहीं पराक्रम सही शब्द है।
अन्तरात्मा / प्रत्यगात्मा को ही पुरुष और प्रकृति कहा जाता है।
इस पुरुष के निमित्त, पुरुष के लिए पुरुष के अर्थ जो धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष इन चारों लक्ष्यों में सफलता प्राप्त्यर्थ जो उपक्रम, पराक्रम किया जाता है उसे पुरुषार्थ यो पुरुष द्वारा की गई क्रिया/ कर्म नही कहा जा सकता।
अर्थात पुरुषार्थ का रूढ़ अर्थ पुरुष द्वारा की गई क्रिया/ कर्म  सरासर गलत ही है। 
उसके स्थान पर पराक्रम ही उचित शब्द है।
त्रिविक्रम और विक्रमादित्य शब्द में भी यही भाव है।

शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

दुर्गा सप्तशती में उल्लेखित देवियाँ और नवरात्र में वास्तविक पूज्य नौ देवियो के नाम।

दुर्गा सप्तशती प्रथमोऽध्याय श्लोक ५४ में जगतपति विष्णु की योगनिद्रा महामाया के प्रभाव को संसार की स्थिति का कारण कहा है।
श्लोक ५५ और ५६ में हरेष्चैशा महामाया को जगत का सम्मोहित कर्ता कहा है जो ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक हरण कर मोहित कर देती है।
श्लोक ५६ में महामाया को ही सृष्टि सृजनकर्ता कहा है।
श्लोक ५७-५८ में संसार बन्धन का का हेतु और प्रसन्न होनें पर मुक्ति का वरदान देने वाली और मुक्तेर्हेतुभूता पराविद्या कहा है। 
६४-६५ में उन्हें नित्य, जगन्मुर्ति, और सर्वमिदम् ततम् कहा है। उन्हे ही देवताओं के कार्यसिद्धि के लिए बहुदा उत्पन्न होनें वाली कहा है।
ये महामाया योगनिद्रा ही मूल देवी हैं। दुर्गा सप्तशती प्रथमोऽध्याय श्लोक ८९ एवम् ९० के अनुसार जिनका प्रथम अवतरण में मधुकेटभ के संहार हेतु हिरण्यगर्भ ब्रह्मा द्वारा जिनकी स्तुति करने पर जो श्रीहरि के देहकोश से प्रकट हो कर योगनिद्रा  दशभुजा महाकाली के रूप में प्रकट हुई। और श्री हरि नें योगनिद्रा से जागकर मधुकेटभ का वध कर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी का संकट दूर किया। ये महाकाली उत्तर चरित्र की ५/८८  कालिका (पार्वती) और ७/६, ७/१६ एवम् ७/२३ काली (चामुण्डा) से भिन्न हैं।
 जिनका द्वितीय अवतरण का वर्णन दुर्गा सप्तशती  मध्यम चरित्र के रूप में द्वितियोऽध्याय श्लोक ९ में उल्लेखित महिषासुर संहार हेतु श्रीहरि के मुख से और देवताओं के शरीर से निकले तेज के एकीकृत होनें पर  नारी के स्वरूप में प्रकट  महालक्ष्मी अवतार के नाम से द्वितियोऽध्याय श्लोक १३ में किया है। इन्हीं ने महिषासुर का वध किया था। 
उन्ही का तीसरा अवतार दुर्गासप्तशती उत्तर चरित्र में पञ्चमोऽध्याय श्लोक ८७ में उल्लेखित पार्वती के शरीर से कौशिकी के रूप में हुआ।
उत्तर चरित्र दुर्गा सप्तशती पञ्चमोनध्याय से त्रयोदशोऽध्याय तक में देवताओं की स्तुति करने पर शुम्भ निशुम्भ दैत्यों के संहार करने हेतु उमा पार्वती के शरीर कोश से कौशिकी स्वरूप में महासरस्वती अवतार धारण करनें का वर्णन है।  शुम्भ निशुम्भ वध में इन्ही कौशिकी देवी की सहायतार्थ प्रकट हुई क नौदुर्गाओं का उल्लेख है दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय से त्रयोदशोऽध्याय तक है।
पार्वती का उल्लेख दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय श्लोक ८५ में है।
दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय श्लोक ८८ के अनुसार पार्वती के शरीर कोष से कोशिकी के प्रकट होनें से पार्वती जी की देह काली पड़ गई।तब उन्ही का ही नया नाम/ रूप हिमालय में विचरण करने वाली कालिका हो गया।  ये कालिका पार्वती ही हैं और प्रथम चरित्र १/८९-९० में पूर्व कथित महाकाली से भिन्न है और आगे उत्तर चरित्र ७/६, ७/१६ एवम् ७/२३ में वर्णित काली (चामुण्डा)  से भी भिन्न हैं।

पार्वती के शरीर कोष से कोशिकी के प्रकटीकरण का उल्लेख दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय श्लोक  ८७ में है।
देवताओं के बाद कोशिकी को सर्वप्रथम चण्डमुण्ड ने देखा था। दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय श्लोक ८९)
 दुर्गासप्तशती  अष्मोटमोऽध्याय श्लोक २२ के अनुसार कौशिकी को चण्डी कहा है  
दुर्गासप्तशती  अष्मोटमोऽध्याय श्लोक २९ में कौशिकी को ही कात्यायनी भी कहा है।
 दुर्गासप्तशती  सप्तम और अष्टमोऽध्याय  के अनुसार वास्तविक नौदुर्गाओं का वर्णन --- ये देवताओं और अवतारों की शक्तियाँ है जिननें शुम्भ निशुम्भ युद्ध में कौशिकी की सहायता की। इनके नाम देव्याः कवच में भी आये हैं। दुर्गा सप्तशती अध्याय/ श्लोक संख्या  और देव्याकवच श्लोक संख्या दी जा रही है।

काली - दुर्गासप्तशती सप्तमोऽध्याय श्लोक ६ तथा ७/१६ एवम् ७/२३ में कौशिकी के क्रोध के कारण उनका रङ्ग काला पड़ गया, भौएँ टेड़ी हो गई। उनकी भृकुटी से काली उत्पन्न हुई। ये "काली देवी देवी मूलतः महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक  दक्षयज्ञ का भङ्ग और उनके क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप के अन्तर्गत अध्याय २८४ श्लोक २९,३० और विशेषकर ३१ में उल्लेखित भद्रकाली देवी ही हैं। ये काली देवी प्रथम चरित्र १/८९ - ९० की महाकाली अवतार और उत्तर चरित्र ५/८८ की कालिका (पार्वती) से भिन्न हैं।
चण्ड मुण्ड को मारकर उनके शिर कोशिकी को भेट करनें पर कोशिकी ने  काली का ही नाम चामुण्डा रखा दुर्गासप्तशती सप्तमोऽध्याय श्लोक २७। ये ही चामुण्डा देव्य कवच श्लोक ९ में और २० में है। श्लोक ४ की इन्हें ही कालरात्रि भी मान सकते हैं।

ब्राह्मी - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक१५ के अनुसार शुम्भ निशुम्भ वध में कोशिकी की सहायतार्थ हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की शक्ति ब्राह्मी आई। इसी का उल्लेख देव्य कवच श्लोक ११ में है। और १९ में ब्रह्माणी आया है। श्लोक ३ की ब्रह्मचारिणी भी मान सकते हैं।

माहेश्वरी - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक१६ शंकर जी की शक्ति उमा माहेश्वरी स्वरूप में आई। देव्य कवच श्लोक१० में और ईश्वरी श्लोक ११ में है। श्लोक ३ की शैलपुत्री भी मान सकते हैं। श्लोक ४ की स्कन्द माता भी मानी जा सकती है।

कौमारी -  दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक१७। कुमार कार्तिकेय की शक्ति देवसेना ही कौमारी के स्वरूप में आई।  
देव्य कवच श्लोक १० और १८ । 

वैष्णवी - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक १८। श्रीहरि की शक्ति वैष्णवी स्वरूप में आई।
 देव्य कवच श्लोक ९ और १९ में तथा लक्ष्मी नाम श्लोक १० ।

वाराही -  दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक १९। वराह अवतार की शक्ति वाराही स्वरूप में आई। देव्य कवच श्लोक ९ और १८ में है।

नारसिंही - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक २०। नृसिंह अवतार की शक्ति नारसिंही स्वरूप में आई। देव्याः कवच में यह नाम नही है।

ऐन्द्री - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक २१। इन्द्र की शक्ति शचि ऐन्द्री स्वरूप में आई।
 देव्याः कवच श्लोक ९ और १७ ।

चण्डिका शक्ति  - दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय श्लोक २३ के अनुसार कोशिकी को रोष उत्पन्न होनें पर उनकी देह से ही अनेक गिदड़ियों के समान आवाज करने वाली अत्यन्त भयानक स्वरूप में चण्डिका शक्ति प्रकट हुई। उनने  दूत बनाकर शुम्भ निशुम्भ देत्य के पास शंकरजी को दूत बनाकर भेजा। इसलिए शिवदूती कहलाती है।दुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्याय २८।
(अर्थात चण्डिका शक्ति को ही शिवदुती भी कहा है ८/२८।)। यह नाम देव्याः कवच में नही है।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

वास्तविक नौदुर्गा

उत्तर चरित्र दुर्गा सप्तशती पञ्चमोनध्याय ५ से त्रयोदशोऽध्याय तक में उमा पार्वती के कौशिकी स्वरूप में महासरस्वती अवतार धारण वर्णन के अन्तर्गत नौदुर्गाओं का उल्लेख।
पार्वती ५/८५ ।
पार्वती का ही नया नाम/ रूप हिमालय में विचरण करने वाली कालिका है। ५/८८।)

० कौशिकी ५/ ८७ ।
(जिन्हें सर्वप्रथम चण्डमुण्ड ने देखा था।५/८९)
 (कौशिकी को चण्डी कहा है ८/२२।) 
कौशिकी को ही कात्यायनी भी कहा है।८/२९ 
 तथा कौशिकी की नौदुर्गाओं का वर्णन जिननें शुम्भ निशुम्भ युद्ध में कौशिकी की सहायता की।
१ काली   ७/६ 
(तथा ७/१६ एवम् ७/२३।) 
(काली का ही नाम चामुण्डा भी ७/२७)
२ ब्राह्मी ८/१५। 
३माहेश्वरी८/१६। 
४ कौमारी ८/१७।  
५ वैष्णवी८/१८।
६ वाराही ८/१९।
७ नारसिंही८/२०।
८ ऐन्द्री ८/२१।  
९ चण्डिका शक्ति ८/२३
(चण्डिका शक्ति को ही शिवदुती भी कहा है ८/२८।)

रविवार, 25 सितंबर 2022

दिनांक, समय और स्थान तीनों का साथ साथ उल्लेख आवश्यक है।

१ देश (स्थान) और काल (दिनांक और समय) का उल्लेख एक साथ होना आवश्यक है।तीनों में से एक भी चीज नही लिखी तो समय या स्थान की कोई सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। 
जैसे आज दिनांक २५ सितम्बर २०२२ रविवार को २२:३० बजे राऊ (इन्दौर) में यह आलेख लिखा गया। 
पत्र लेखन और समाचार लेखन में यह बात प्रचलित है।
जैसे १४ /१५ अगस्त १९४७ को रात्रि ००:०० के पहले का भारत का नक्षे में हम पाकिस्तान और बांग्लादेश को भारत कहते हैं। और १४ /१५ अगस्त १९४७ को रात्रि ००:०० के बाद का भारत का नक्षे में भारत और पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान अलग अलग है। जबकि बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने के पश्चात वही क्षेत्र भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कहलाता है।
सिक्किम विलय के पूर्व भारत और सिक्किम दो देश थे जबकि आज सिक्किम भारत का प्रदेश है।
बर्लिन की दीवार बननें के पहले, और दीवार तोड़ने तक पूर्वी बर्लिन और पश्चिम बर्लिन थे। जबकि बर्लिन की दीवार बननें के पहले और दीवार तोड़ने के बाद केवल बर्लिन नगर है। अर्थात दिनांक और समय के बिना देश (स्थान) का कोई अर्थ नही।
२ उज्जैन (भारतवर्ष) पूर्व देशान्तर ७५°४६' में २१ मार्च को सुर्योदय के समय सायन मेष लग्न उदय हो रहा होता है तभी / ठीक उसी समय 
उज्जैन के ९०°पूर्व में परभद्राश्ववर्ष यमकोटि पत्तनम पूर्व देशान्तर १६५°४६' में मध्यान्ह हो रहा होता है और सायन कर्क लग्न उदित हो रहा होता है ।
उज्जैन के १८०° पर कुरुवर्ष सिद्धपुर (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप) पश्चिम देशान्तर १०४°१४' सूर्यास्त हो रहा होता है एवम सायन तुला लग्न उदित हो रहा होता है।
उज्जैन के २७०° पर यानी उज्जैन के ९०° पश्चिम में केतुमालवर्ष रोमक पत्तनम। (सहारा/ मोरिटेनिया का सिसिस्नेरोस) पश्चिम देशान्तर १४°१४' में मध्य रात्रि हो रही होती है और सायन मकर लग्न उदित हो रहा होता है।
अर्थात स्थान के बिना समय का कोई अर्थ नही होता।
अतः देश (स्थान) और काल (समय) का उल्लेख एक साथ होना आवश्यक है।

जहाँ भी लग्न का उल्लेख हो या स्थानीय सूर्योदय सूर्यास्त पर आधारित अभिजित मुहूर्त या विजय मुहुर्त, या ब्रह्म मुहूर्त (वाले दो घटि वाले मुहुर्त) या प्रदोष काल, या महानिशिथ काल या उषा काल,  या चौघड़िया आदि का उल्लेख आये वहाँ स्थान का नाम अत्यावश्यक है।
मैरे सभी सन्देशों में स्पष्ट लिखा है कि, ये मुहुर्त इन्दौर के लिए है। ये इन्दौर, राऊ, महू, बेटमा शिप्रा  (उज्जैन रोड पर) धरमपुरी साँवेर तक ही चलेंगे।
धार उज्जैन में लगभग दो मिनट खरगोन में एक मिनट का अन्तर पड़ता है।
लेकिन सब स्थानों पर नही चलेंगे। 

४  चौथी विशेष बात मुहुर्त में मुख्यता प्रातः काल/ मध्यान्ह काल/ प्रदोष काल/ महानिशिथ काल, उषा काल, अरुणोदय  या अभिजित मुहूर्त/ विजय मुहुर्त, ब्रह्म मुहूर्त, आदि दो घड़ि मुहुर्त का तथा इनके साथ वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ लग्न अर्थात स्थिर लग्न के साथ मिथुन, कन्या,धनु, और मीन लग्न अर्थात द्विस्वभाव लग्न अथव मेष, कर्क,तुला और मकर लग्न अर्थात चर लग्न के साथ मिथुन, कन्या,धनु, और मीन लग्न अर्थात द्विस्वभाव लग्न का ही महत्व है। 
धर्मशास्त्र में चौघड़िया का कोई महत्व नहीं है। यह केवल परम्परागत पद्धति है। 
पाँचवी विशेष बात यह है कि, मैंरे सन्देश में प्रायः गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय सूर्यास्त के आधार पर ही गणना अंकित रहती है। जहाँ कहीँ भी आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त या आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त पर आधारित गणना अंकित होंगे तो वहाँ मैं स्पष्ट उल्लेख करता हूँ।
सूर्योदय सूर्यास्त दो प्रकार के होते हैं।
 गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय सूर्यास्त। और दुसरा आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त।
आभासी दृश्य सूर्योदय की तुलना में यह गणितागत, वास्तविक , धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय बाद में होता है। जबकि आभारी दृश्य सूर्यास्त से  गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्यास्त पहले होता है। इसलिए गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त दिनमान छोटा और रात्रिमान बढ़ा होता है। जबकि आभासी दृष्य दिनमान बड़ा और रात्रिमान छोटा होता है।
यह वायु मण्डल में सूर्य का अप वर्तन होने के कारण होता है। जैसे पानी से भरी बाल्टी में पड़ा सिक्का उपर दिखता है और छड़ टेढ़ी दिखती है वैसे ही सूर्योदय के पहले सूर्य दिखने लगता है और सूर्यास्त के बाद भी सूर्य दिखता रहता है।


बुधवार, 21 सितंबर 2022

संघ, जनसंघ और भाजपा की कमजोरियाँ ।

वर्तमान संघ, जनसंघ और भाजपा को अपनी इन कमजोरियों से सबक लेकर कट्टर वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म को ही अपना आधार बनाकर समत्व वादी आर्थिक नीतियों और वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म हितेषी, संस्कृत और प्राचीन वैदिक संस्कृति और अभ्युत्थानम् धर्मस्य, विनाशाय च दुष्कृताम् तथा विप्र, धैनु, सुर, सन्त हितकारी और कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप को भारत राष्ट्र राज्य बनानें का लक्ष्य लेकर राष्ट्रवादी नीतियों वाले साहसिक निर्णय लेकर तुरन्त कार्यक्रम तैयार कर लागू करने वाला दल बनना चाहिए। अन्यथा निकट भविष्य में भा.ज.पा. कांग्रेस का रूपांतरित वर्ज़न से अधिक कुछ नहीं रहने वाली है।
अभी तो भाजपा की वास्तविकता यह है। ---
दासता मूलक और सनातन धर्म विरोधी कानूनों को स्वतन्त्र भारत में बनाए रखने, संविधान संशोधनों तथा सनातन धर्म विरोधी एवम् मुस्लिम पक्षधर नवीन कानूनों को लाने और बनाये रखने  का दोषी नेहरू था। न कि, गान्धी।
सावरकर पन्थियों का मानना है कि, सावरकर अपनी लाइन बड़ी नही कर पाये और  गान्धी की लाइन बड़ी होती रही इसके लिए गांधी ही दोषी हैं। उनको भ्रम है कि, सावरकर को गान्धी नें आगे नही बढ़ने दिया।
जबकि वास्तविकता यह है कि, इसमें पूर्ण रूपेण दोषी केवल सावरकर स्वयम् थे, न कि, गान्धी। सावरकर स्वयम् नास्तिक थे, और स्वयम् को नास्तिक ही कहते थे, वेदों, गौ, गंगा, ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म में उनकी आस्था नहीं थी। लेकिन भारतीय मूल के लोगों को हिन्दू कहते थे और ऐसे हिन्दुत्व की बात करते थे। सावरकर कभी कोई युक्ति संगत लोगों को अपील करे ऐसा कोई कार्यक्रम नही दे पाये। इस कारण सावरकर जनता में अपनी पैठ नही बना पाये।
जब कि, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, अशफाक उल्ला खां अपनी पैठ जनता में जमा पाये। जिननें अंग्रेजी खजाना लूटने और दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों की हत्या तक की। फिर भी जनता में उनकी पैठ थी। 
सुभाष चन्द्र बोस जन नेता बन गये। नेताजी ने आजाद हिन्द फौज बनाली, विदेशी सहयोग जुटा लिया। युद्ध भी जीते। सरकार भी बना ली।
कम्युनिस्टों नें नेवी में अपनी जबरदस्त पकड़ बना ली और हड़ताल तक करवानें में समर्थ रहे।
अम्बेडकर और जिन्ना तक ने अपनी जात बिरादरी में ही सही पर गहरी पैठ बना ली।
सरदार पटेल लोकप्रिय नेता रहे। पूर्ण जनमत उनके साथ रहा।
नेहरू नें गांधी के बल पर पैठ बना ली तो, 
लाला लाजपत राय, और प. मदनमोहन मालवीय की हिन्दू सभा और हिन्दू महासभा का नेतृत्व और उत्तराधिकार मिलने के बावजूद अकेले सावरकर को ही जन सहयोग क्यों नहीं मिला?
जो गलती आरम्भ में बाल ठाकरे ने की थी सबसे प्रमुख कारण वही थे।
सावरकर ने केवल न्यूज पेपर निकालने के अलावा जन सम्पर्क कभी नहीं रखा। भारत भ्रमण नही किया। महाराष्ट्र और मराठी तक सीमित रहे। शिवाजी के अलावा विक्रमादित्य, राजा भोज, पृथ्वीराज चौहान, छत्रसाल,  राणा सांगा, महाराणा प्रताप, राजेन्द्र चौल जैसे राजाओं का महिमा मण्डन नही किया। इसलिए केवल महाराष्ट्र के क्षेत्रीय नेता बन कर रह गये।
जिनका उत्तराधिकार मिला वे लाला लाजपतराय स्वयम् लाठियों से पीट पीट कर अंग्रेजों द्वारा बलिदान कर दिए गए लेकिन डटे रहे, डरे नही।
सावरकर एक बार जेल हो आये तो जेल की यातनाओं से इतना डर गये कि, उसी जेल यात्रा की यातनाओं को भुनाते रहे। लगातार आन्दोलन  चलाने का साहस नही जुटा पाये।  कहा भी है कि,"जो डर गया वो मर गया।"
सुभाष चन्द्र बोस कभी नही डरे, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, अशफाक उल्ला खान कभी नही डरे। बस केवल सावरकर ही डरे। जिन्हें वीर सावरकर कहलाना पसन्द था। लेकिन वीरता दिखाना नही।
सावरकर ने हिन्दू महासभा जैसे राष्ट्रीय दल को शिवसेना जैसा  छोटा स्थानीय दल बना दिया। इतने बड़े दल का नेतृत्व सम्हालना भी सबके वश में नही होता।
जिन सावरकर जी को वर्तमान में संघ परिवार अपना पितृ पुरुष घोषित करना पसन्द करता है वे ही सावरकर रा. स्व.से. संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार जी को खुलेआम अंग्रेजों का एजेण्ट और देशद्रोही कहते थे। सुभाष चन्द्र बोस सहयोग की आशा लेकर मिले  हेडगेवार जी नें सुभाष चन्द्र बोस को भी अंग्रेजों से लड़ना छोड़ हिन्दू एकता के लिए कार्य करने का गुरु मन्त्र देनें की कोशिश की तो सुभाष चन्द्र बोस अत्यन्त ही निराश होकर लौटे। हेडगेवार जी पर्व में पं. रामप्रसाद बिस्मिल चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह जी को भी अंग्रेजी शासन से आजादी का क्रान्तिकारी कार्यक्रम त्याग कर हिन्दू एकता के लिए काम करनें का उपदेश दे चुके थे। हेडगेवार जी नें भी कभी वेदों, गौ, गंगा, ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म को अपना लक्ष्य घोषित नही किया। वे भी भारतीय मूल के लोगों को हिन्दू कहते थे और ऐसे हिन्दुत्व की बात करते थे। 
फिर भी जनसंघ और भाजपा कभी  चन्द्रशेखर भगतसिंह, सुभाष चन्द्र बोस जैसे मार्क्सवादियों को अपना आदर्श बतलाते हैं, कभी सरदार पटेल जैसे गांधी वादियों अपना आदर्श बतलाते हैं,  (संकटकाल के बाद) कभी गांधीवादी समाजवाद को अपना अजेण्डा घोषित करते हैं। मोदीजी का गांधी जी के प्रति स्पष्ट आदर सम्मान प्रदर्शित कर अपना रथ बढ़ाते हैं।
इनके पास अपनी कोई विचारधारा ही नहीं है, अपना कोई कार्यक्रम भी नहीं है।
पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेई जी आजीवन नेहरू को फॉलो करते रहे और इन्दिरा गांधी की स्तुति तक कर चुके।
वर्तमान प्रधानमन्त्री मोदी जी भी जवाहर लाल नेहरू की वेशभूषा और व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। और नेहरू, नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह के घोषित कार्यक्रमों को फॉलो कर रहे हैं।
पं. दीनदयाल उपाध्याय के बाद  अटल बिहारी वाजपेई ने भी भारतीय जनसंघ की ऐसी ही  दुर्दशा कर दी थी कि, लोकसभा में दो सीट पर सिमट गये थे। फिर भी जनसंघी उनको वैसे ही पूजते रहे जैसे अभी मोदी जी को पूज रहे हैं।
संघ परिवार की विशेषता है कि, उननें केशव (बलिराम हेडगेवार) - माधव (सदाशिव गोलवलकर),
पं.दीनदयाल उपाध्याय- बलराज मधौक, अटल- अड़वानी,  मोदी - योगी की जोड़ी को पूजा। इनमें से केवल मोदी - योगी ही  इसलिए सफल दिख रहे हैं क्योंकि,विपक्ष में कोई दमदार विकल्प ही नही बचा इस कारण वे संयोग से सफल हो रहे हैं।
जबकि बैचारे नितिन जयराम गडकरी और हेमन्त बिस्वा सोरेन को भाजपा में वह महत्व नही मिला जिसके वे अधिकारी हैं।

रविवार, 18 सितंबर 2022

नवरात्र पूजन विधि

नवरात्र पूजन विधि
नवरात्र का नियम है कि, 
१ द्वितीया युक्त प्रतिपदा, उदिया तिथि में सूर्योदय से चार घण्टे के अन्दर ही स्थिर / द्विस्वभाव लग्न में घटस्थापना करना चाहिए ।
देवता के दाहिने हाथ की ओर तथा उपासक के बाँये हाथ की ओर घी का दीपक रखें। तथा देवता के बाँये हाथ की ओर तथा उपासक के दाहिने हाथ की ओर तेल का दीपक लगाएँ।
२ नवरात्र में नौ तिथियों का महत्व है। नवरात्र चाहे आठ दिन का हो या नौ दिन का हो या दस दिन का नवरात्र हो महत्वपूर्ण तिथियाँ हैं दिन नही। इसी प्रकार तिथि और नक्षत्र का योग उस तिथि का महत्व बढ़ा देते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण केवल तिथि ही है, नक्षत्र नही।
जो कर्म जिस तिथि में और जिस समय में बतलाया गया है उस तिथि और समय में ही हो। चाहे उस दिन कोई सा भी नक्षत्र पड़े या अपेक्षित नक्षत्र रहे या न रहे। ऐसे ही नवरात्र में वार, योग, चौघड़िया , राहुकाल आदि का भी कोई महत्व नहीं है। 
३ प्रति दिन पहले १०८ मनको वाली तुलसी की माला से दो माला गायत्री का मन्त्र जप करें। 
फिर गीता प्रेस गोरखपुर की दुर्गासप्तशती में बतलाई गई विधि अनुसार प्रतिपदा तिथि से चतुर्थी तिथि तक एक- एक बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ ही तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से एक माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें। ऋगवेदोक्त देवी सूक्त की व्याख्या अर्थात ब्राह्मण भाग श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् है। उसी अथर्वशीर्ष से निकला नवार्ण मन्त्र भी वैदिक मन्त्र ही है; तान्त्रिक मन्त्र नहीं है। अतः सात्विक उपासक तुलसी की १०८ मनकों की माला से ही जप करें। चाहे तो स्फटिक की माला भी प्रयोग कर सकते हैं। सकामोपासक राजसी उपासक रुद्राक्ष की माला का उपयोग करते हैं। तान्त्रिक तमोगुणी साधक मूंगा की माला से जप करते हैं।
और (ललिता) पञ्चमी से (दुर्गा) नवमी तक दो-दो बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ मे तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से दो माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें। 
कुल चौदह पाठ होंगे। जो दशांश हवन, शतांश श्राद्ध-तर्पण और सहस्त्रांश ब्राह्मण भोजन तथा भूल-चूक के लिए अतिरिक्त पाँच पाठ और पाँच माला नवार्ण मन्त्र जप किया जाता है। इसलिए कुल चौदह पाठ और चौदह माला हो जाती है।
४ यथा शक्ति यथा सामर्थ्य या तो नौ दिन तक रोज एक एक कन्या को भोजन कराएँ इस प्रकार नौ दिन में कुल नौ कन्याओं को भोजन कराएँ, या पहली तिथि में एक कन्या द्वितीया में दो कन्या, तृतीया में तीन कन्या ऐसे बढ़ते क्रम में इस प्रकार नौ दिन में ४५ कन्याओं को भोजन कराएँ या प्रत्येक तिथि को नौ-नौ कन्याओं को भोजन कराकर नौ दिन में कुल ८१ कन्याओं को भोजन कराएँ।
५ जो सक्षम है, पूर्ण स्वस्थ्य हैं, कर सकते हैं वे ही प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन व्रत उपवास करें। या नौ दिन न कर पाए तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि को व्रत, उपवास अवश्य ही रखें। यदि तीन दिन न कर पायें तो अष्टमी और नवमी को व्रत उपवास अवश्य करें। यदि दो दिन भी न कर पायें तो नवमी को तो व्रत उपवास अवश्य करें ही। निर्णय सिन्धु पृष्ठ ३४२ पर स्पष्ट निर्देश है कि, पूजा (सेवा) मुख्य है, (भोजन त्याग रूप लंघन) उपास/ उपवास गौण है। उपास/ उपवास पूजा का अङ्ग है। मुख्य तो पूजा ही है। उपास उसमें सहायक है।
मूलतः उपास का अर्थ समीप आसन लगाना या समीप बैठना और उपासना का अर्थ समीप होना या समीप रहना है। भोजन न करने को लङ्घन कहते हैं; उपास या उपवास नहीं कहते।
६ षष्टि तिथि में प्रदोषकाल में बेलपत्र पौधे के पास जाकर जो भी पत्तियाँ पहली बार दिखे उनको प्रणाम कर आव्हान करें / नीमन्त्रण दें कि, दुसरे दिन अर्थात कल सप्तमी तिथि में सरस्वती के रूप में पूजन करने हेतु हम आपका आव्हान करते हैं / निमन्त्रित करते हैं। सप्तमी तिथि में प्रातः काल उक्त बेलपत्र को नमस्कार, पूजन कर आमन्त्रित कर तोड़ लें और घर लेजाकर दुर्गासप्तशती पुस्तक में रखकर प्रतिपदा से नवमी तक सरस्वती के रूप में पूजा करें। बेलपत्र में लक्ष्मी का वास है, तान्त्रिक लोग बेलपत्र के स्थान पर देशी खेजड़ी अर्थात शमी वृक्ष की पत्ती रखकर पूजा करते हैं।
७ मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि महा सप्तमी कहाती है। सप्तमी तिथि मूल नक्षत्र में प्रातः पुनः  बेलपत्र  या शमी की उन्ही पत्तियों को प्रणाम कर आमन्त्रित कर तोड़ लें। और घर पर दुर्गासप्तशती की पोथी में लाकर सरस्वती के रूप में स्थापित कर पूजा करें। यह पोथी पाठ में काम नही आयेगी। अतः बिना फटी पुरानी पोथी लेना उचित है।
८ पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी महा अष्टमी कहलाती है। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी महा नवमी कहलाती है।
महा अष्टमी और महा नवमी की पूजा एक ही आसन पर बैठे बैठे ही बिना उठे ही करें। महाअष्टमी और महानवमी के सन्धि काल मे अष्टमी समाप्ति तक महाअष्टमी की पूजा करें फिर नवमी लगते ही महानवमी की पूजा करें।   
९ बलिदान मतलब धार्मिक कर अदायगी। कुष्माण्ड (भूरा कोला), मातुलिङ्ग (बिजोरा नींबू), आँवला, नारिकेल (नारियल), श्रङ्गार सामग्री, वस्त्राभूषण, अन्न - धन, गौ दान करनें को बलिदान कहते हैं। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी तिथि में सरस्वती के निमित्त बलिदान करें। फिर नवरात्र उत्थापन / उद्यापन करें। 
क्षत्रिय जन (सैनिक, पूलिस वाले, गार्ड आदि) लोहाभिसारण (शस्त्र पूजन) करते हैं।
१० दशमी तिथि दसरा/ विजया दशमी है। श्रवण नक्षत्र युक्त दशमी तिथि में प्रातः काल में दुर्गा सप्तशती में स्थापित सरस्वती अर्थात बेलपत्र या शमी के पत्तों का पूजन कर विसर्जन करें। विसर्जन में उक्त बेलपत्र ( या शमी की पत्तियों) का ही सरस्वती मान कर विसर्जन होता है पुस्तक का नहीं। फिर मध्याह्न  में अपराजिता का पूजन करें। 
विजया दशमी पर्वोत्सव पर अपराजिता की पूजा कर दसरा अर्थात दक्षिण दिशा की यात्रा करें।

सन्दर्भ ---

नवरात्र पूजन निर्णय - ठाकुर प्रसाद एण्ड संस द्वारा संवत २०२७ में प्रकाशित कमलाकर भट्ट प्रणीति ग्रन्थ निर्णय सिन्धु के अनुसार।

  प्रतिपदा तिथि उदयकाल में दो मुहुर्त (१ घण्टा ३६ सिनट) हो तो भी नवरात्र घटस्थापना में ग्राह्य है। 
 एक कला और अमावस्या युक्त प्रतिपदा तो नवरात्र घटस्थापना में कदापि न लें। - पृष्ठ ३२९, ३३१,

अधिक तिथि की स्थिति में शुद्ध तिथि होने से अमावस्या रहित प्रथम दिन ही लें। ऐसे ही क्षय तिथि की स्थिति में क्षण मात्र भी शुद्ध प्रतिपदा न हो तो अमावस्या युक्त प्रतिपदा भी ग्रहण करें।- पृष्ठ ३३०,

देवी का आवाहन, प्रवेश,पूजन और विसर्जन आदि समस्त कर्म प्रातः काल मे ही करें। - पृष्ठ ३३०,३३१ 

घटस्थापना सूर्योदय से १० नाड़ी (अर्थात ४ घण्टे) तक में करें। रात्रि में कदापि न करें।- पृष्ठ पर  ३३१, ३३५

महत्व केवल तिथि का है, तिथि देवता का शरीर है। (न दिन संख्या का, न करण का , न नक्षत्र का, न वार का, न योग का केवल तिथि का ही महत्व है शेष सब गौण हैं।) - पृष्ठ ३३१, ३३४,३४७, ३७२

प्रति तिथि में एक एक कन्या को भोजन कराएँ, या प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो, तृतीया को तीन ऐसे नवमी तिथि पर्यन्त बढ़ते क्रम से कन्या पूजन कर भोजन कराएँ। या प्रति तिथि नौ-नौ कन्याओं का पूजन कर भोजन कराएँ। - पृष्ठ ३३८

प्रतिपदा को जितनी पूजा करें, द्वितीया को उससे द्विगुणित, तृतीया को त्रिगुणित ऐसै ही नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि क्रम में पूजा, पाठ, जप आदि करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२

नवरात्र में पूजा ही प्रधान है, उपवास आदि तो उसका अङ्ग है।
तिथि के ह्रास में दोनो तिथियों के निमित्त पूजा करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२

संकल्प लेने के बाद या नवरात्र घटस्थापना होने के बाद सूतक होने पर सूतक में देवी पूजा और दान कर सकते हैं। निषेध नहीं है। लेकिन रजस्वला स्त्री दुसरे से पूजा करवाए - पृष्ठ ३४५

सौभाग्यवती/ सुहागिन स्त्री नवरात्र उपवास में भी श्रङ्गार कर सकती हैं, ताम्बूलादि चर्वणकर सकती है। (पान खा सकती है।) - पृष्ठ ३४५
नवरात्र में (सप्तमी को) मूल नक्षत्र प्रथम चरण में या मूल नक्षत्र में देवी का स्थापन करें । तथा (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र तक नित्य पूजन करें। (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र में विसर्जन करें। ए- पृष्ठ - ३४६

बङ्गाल, उड़िसा, असम आदि पूर्व और उत्तर पूर्व के प्रदेशों में नवरात्र के स्थान पर सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि में त्रिरात्र का महत्व है। उनके कार्यक्रम ललिता पञ्चमी से विजया दशमी तक चलते हैं। उसमें भी १ज्येष्ठा नक्षत्र, २ मूल नक्षत्र, ३ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र - ४ उत्तराषाढा नक्षत्र और ५ श्रवण नक्षत्र का विशेष महत्व है।


ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त षष्ठी तिथि में बिल्व का अभिमन्त्रण (आवाहन) करे। ३४६, ३४७, 
यदि सप्तमी को पत्रिका प्रवेश दिन के पूर्व दिन सायंकाल में षष्ठी तिथि का अभाव हो तो, अधिवासन करना चाहिए। सायंकाल में अत्यन्त असत्व में अधिवासन का लोप हो जाता है पृष्ठ - ३४७
नवपत्रिका कथनम पृष्ठ ३४८ - १रम्भा (केल के पत्ते/ केला फल के पौधे के पत्ते), २ कवी (दारु हल्दी) के पत्ते, ३ हरिद्रा (हल्दी/ हलदी) के पत्ते, ४ जयन्ती (मेउडी) के पत्ते, ५ बिल्व (बिल्वपत्र/ बेलफल के वृक्ष के पत्ते), ६ दाडिम (अनार) के पौधे के पत्ते , ७ अशोक / सीता अशोक वृक्ष के पत्ते, ८ मानवृक्ष (अमलतास) के पत्ते, ९ धान्य (चांवल) के पत्ते, ९

मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि में पत्रिका (उक्त कथित नव पत्रिका) का प्रवेश करें। (पत्ते तोड़कर घर लायें। सप्तशती पुस्तक में स्थापित करें।)
पूर्वाषाढ़ से युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम,उपोषण आदि करें। - पृष्ठ ३४६, ३४७

देवता का शरीर तिथि है और तिथि में नक्षत्र आश्रित है। इसलिए तिथि के बिना नक्षत्र में (आह्वान, स्थापना, पूजन, बलिदान, विसर्जन आदि) नही करते हैं।
तिथि नक्षत्र योग हो तो दोनों के युग्म काल में करें। किन्तु तिथि-नक्षत्र के योग का अभाव हो तो केवल तिथि का ग्रहण करना चाहिए। - ३४७, ३४८, ३७२

पत्रिका प्रवेश और स्थापना में षष्टियुक्त सप्तमी न लेकर उदिया सप्तमी अर्थात शुद्ध सप्तमी तिथि में पत्रिका प्रवेश और स्थापना करें‌। पृष्ठ ३४८
नवरात्र व्रत, उपवास, आवाहन, प्रवेश, स्थापना , पूजन, बलिदान, विसर्जन सब में एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि मिले तो उदिया तिथि ही ग्रहण करें। एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि न मिले तो ही पूर्वविद्धा तिथि ग्रहण करे। - पृष्ठ ३४८, ३५०

पत्रिका पूजन (पत्ते का पूजन) भी पूर्वाह्न में ही करें। मूल नक्षत्र हो या न हो। - पृष्ठ ३४८

जो प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करने में असमर्थ हो वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी तीन तिथियों में उपवास करें। पृष्ठ - ३४८, ३४९

दक्षिणाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा शुभ दात्री, पूर्वाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा जय वर्द्धिनी, पश्चिमाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा स्थापनार्थ सदा उत्तम है। किन्तु दुर्गा की उत्तराभिमुखी मुर्ति स्थापना कदापि न करें। - पृष्ठ ३५०

शारदीय नवरात्र में नवमी तिथि युक्त अष्टमी तिथि महाअष्टमी पूज्य होती है। - पृष्ठ ३५०

पहले दिन अष्टमी पूर्वाह्न व्यापि (मध्याह्न तक अष्टमी तिथि) हो तो ही पूर्वा अष्टमी तिथि ग्रहण करे। -३५५ 

यदि अष्टमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तक हो तो उसमें दुर्गोत्सव करें। पृष्ठ - ३५६

अष्टमी तिथि नवमी तिथि से युक्त हो तथा साथ में मूल नक्षत्र से युक्त हो तो महानवमी कहलाती है। यह योग अत्यन्त दुर्लभ है।- पृष्ठ ३५५, ३५७

उदिया नवमी तिथि तभी ग्रहण करे जब नवमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टा २४ मिनट) बाद तक रहे। - पृष्ठ ३६५

अष्टमी तिथि के अवशिष्ट भाग में और नवमी तिथि के पूर्व भाग में की हुई पूजा ही महाफल देने वाली है। 
अष्टमी पूजा मध्यरात्रि में महाविभव के विस्तार से करें। - पृष्ठ ३६६।

पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम, और उपवास करें - ३६७

प्रतिपदा से नवमी तकनीकी, या सप्तमी , अष्टमी और नवमी का व्रत उपवास का पारणा दशमी तिथि में करें। पृष्ठ- ३७२, ३७३

पारण में सूतक का निषेध नही है। पृष्ठ ३७४

मध्याह्न के दस पल (चार मिनट) बाद वाले प्रहर अपराह्न व्यापी दशमी तिथि को विजया दशमी कहते हैं।
यदि यह सूर्यास्त पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टे २४ मिनट) पश्चात तक अर्थात प्रदोष व्यापिनी भी मिले तो सर्वोत्तम। यदि यह श्रवण नक्षत्र युक्त हो तो भी पूर्व विद्धा न करें। - पृष्ठ ३७७

आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को जागरी पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा परा ग्रहण करें। - पृष्ठ ३७८
विशेष --- बङ्गालियों का मत है कि, मुख्य नवरात्र तो चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से रामनवमी तक होती है, लेकिन (किष्किन्धा में सुग्रीव आवास पर रहते) श्री राम ने आश्विन शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक) शक्ति पूजा कर विजया दशमी/ दसरा से शरद पूर्णिमा के बीच सीता जी की खोज हेतु दल भिजवाए थे। और रावण वध हेतु भी शक्ति पूजा की थी। इसलिए आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक)शारदीय नवरात्र में शक्ति पूजा की नव्य परम्परा प्रारम्भ हुई। इसलिए वे शारदीय नवरात्र को अकाल नवरात्र अर्थात असामयिक नवरात्र कहते हैं।


शनिवार, 17 सितंबर 2022

जैन सम्प्रदाय अनीश्वर वादी, रुद्र, रुद्र-गणों तथा यक्षों के उपासक और तन्त्र मार्गी नास्तिक श्रमण संघीय संस्कृति को मानते हैं।

जैन सम्प्रदाय अनीश्वर वादी, रुद्र, रुद्र-गणों तथा यक्षों के उपासक और तन्त्र मार्गी नास्तिक श्रमण संघीय संस्कृति को मानते  हैं।
भारत में वैदिक काल से दो परम्परा रही पहला प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग। 
१ प्रवृत्ति मार्ग का लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ और जीवन पद्यति वैदिक वर्णाश्रम और पञ्चमहायज्ञ सेवी थी। विष्णु परम पद की प्राप्ति मौक्ष पुरुषार्थ का ही एक रूप था। वर्तमान में स्मार्त वैष्णव इन्ही के प्रतिनिधि हैं। 
प्रवृत्ति मार्ग में १ दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, २ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, ३ कर्दम प्रजापति -  देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) --  ४  ४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति,५ महर्षि भृगु - ख्याति   ६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, ७ अत्रि - अनसुया, ८ पुलह - क्षमा, ९ पुलस्य - प्रीति, १० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा ११ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी के अतिरिक्त विदेह जनक  आदर्श मानें जाते हैं। 
२ निवृत्ति मार्ग भी लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ ही रहा लेकिन ये निसंकोच ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सीधे सन्यस्त हो जाते या ग्रहस्थ आश्रम से सीधे सन्यस्त हो जाते थे। इसी प्रकार अन्य यज्ञों की तुलना में केवल ब्रह्मयज्ञ को और ब्रह्मयज्ञ के ही भाग अष्टाङ्ग योग को अधिक महत्व देते हैं। अर्थात वर्णाश्रम व्यवस्था का पूर्णतः पालन नही करते हैं। लेकिन ये निवृत्ति मार्गी भी वेदों को ही प्रमाण मानते हैं, इसलिए आस्तिक ही माने जाते हैं। ये भी विष्णु परमपद, सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, इन्द्र, आदित्य गण, वसु गण, रुद्रों और अन्य देवताओं को आदर करते हैं । इस लिए ईश्वरवादी मानें जाते हैं। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, नारद, वामदेव, ऋषभदेव, कपिल देव, भरत चक्रवर्ती का संन्यास उपरान्त नाम जड़ भरत और  शुकदेव आदि इसी श्रेणी के निवृत्ति मार्गी रहे हैं।
इनके अलावा श्रमण मार्गी भी निवृत्त मान लिये गये। इनमें भी कई सम्प्रदाय रहे। वैदिक आस्तिकों में दो प्रकार हैं।
 ३ अथर्ववेदी - अथर्ववेद के ऋषि महर्षि अङ्गिरा हैं। अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण है। वस्तुतःअवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। जैसे ऋग्वेद में भी गाथाएँ है, वैसेही अवेस्ता के साथ भी गाथाएँ थी। इसलिए कुछ लोग इसे लुप्त इतिहास पुराण भी मानते हैं। दयानन्द सरस्वती भी ब्राह्मण ग्रन्थों को इतिहास पुराण ही मानते हैं।
महर्षि अङ्गिरा के शिष्य अथर्वाङ्गिरस और घोर आङ्गिरस के अनुयाई, अथर्ववेदी ब्राह्मण चरक जो अकेले ही होम, हवन करते हैं। ये कठोर तपस्वी, हठयोगी होते थे। अध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर भौतिक और सांसारिक जीवन को सफल बनाने के उपरान्त उन्मुक्त जीवन यापन करने में विश्वास रखते हैं। ये वेदत्रयि की व्यवस्थाओं को पूर्णतः पालन नही करते।
महाभारत के बाद और विशेषकर वर्तमान में ये लुप्तप्राय हैं महाराष्ट्र में थोड़े से बचे हैं। सम्भवतः श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि इसी मत के थे।
पारसियों धर्म की स्थापना के पहले ईरान में प्रचलित याजक मग ब्राह्मणों और मूर्ति पूजक मीढ नामक श्रमण जनसमुदाय के लोगों का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। ईराक  के असीरिया प्रान्त की असीरियाई संस्कृति और धर्म का इष्ट असुर था। इस असुर के उपासक दक्षिण पश्चिम ईरान के निवासी ज़रथ्रुष्ट ने अवेस्ता ब्राह्मण ग्रन्थ की जेन्द टीका लिख कर अवेस्ता में ही गड्डमड्ड कर दी और इसका नाम जेन्दावेस्ता रख दिया। अब जेन्दावेस्ता और गाथा पारसी धर्म ग्रन्थ है।
४ कृष्ण यजुर्वेदीय - शुक्ल यजुर्वेद शुद्ध वैदिक ग्रन्थ है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग भी मिश्रित माना गया है इसलिए कृष्ण यजुर्वेद को शुद्ध वेद नही माना जाता।
ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुरूप यज्ञ प्रधान है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद मूर्ति पूजा और अभिषेक की पद्धति स्वीकार करता है।
ऐसा माना जाता है कि, यजुर्वेद पर रावण ने भाष्य लिखा और उसे मूल संहिता में ही गड्ड मड्ड कर दिया।
तन्त्र की उत्पत्ति कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद से ही मानी जाती है।
आस्तिक ईश्वरवादी निवृत्ति मार्ग में दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ नागा साधु - ये पूर्ण आस्तिक, पूर्ण ईश्वरवादी, बाल ब्रह्मचारी या नैष्ठिक ब्रह्मचारी, कठोर तपस्वी संन्यासी होते हैं । रमण महर्षि भी लगभग इसी श्रेणी के सन्त थे।
२  वैरागी जिनके आदर्श भगवान शंकर रहे जो ग्रहस्थ होकर भी संन्यासी के समान ही रहते हैं। उदासीन भी इसी का एक मत है। इनको बाबाजी भी कहते हैं। रामानन्दी,कबीर, नानक, नानक पुत्र श्रीचन्द्रदेव आदि इनके उदाहरण है ।

तान्त्रिकों में भी दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ ईश्वरवादी - दत्तात्रेय के अनुयाई नाथ सम्प्रदाय के श्रमण।
ये  शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप, भगवान शंकरजी, दत्तात्रेय के अनुयाई भद्रकाली और भैरव के उपासक होते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, युक्तेश्वर गिरि, योगानन्द, विशुद्धानन्द, हेड़ाखान,  रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नीम करोली बाबा आदि इसी श्रेणी के हैं।
२ अनिश्वरवादी - ये बहुत कम पाये जाते हैं। इक्का- दुक्का हैं भी, लेकिन भगवाँ वस्त्र धारी होनें से नही पहचानें जाते हैं। कुछ लोग इन्हें सन्देह वादी मानते हैं। 
 ५ निरपेक्ष - वेदों को प्रमाण मानना है मानों, न मानना है मत मानों। यदि आपको ईश्वर सृष्टिकर्ता और नियन्ता लगता है तो मानों न लगता है तो मत मानों। इनका कोई आग्रह नहीं है। ये माध्यमिक बौद्ध कहलाते हैं।
६ नास्तिक और अनीश्वरवादी -- ये न वेदों को प्रमाण मानते हैं  ईश्वर को सृष्टि रचयिता और नियन्ता  भी नही मानते हैं।
१ पहले चार्वाक पन्थी थे जो वर्तमान में नही पाये जाते हैं।
२ वर्तमान में इस श्रेणी में केवल जैन ही पाये जाते हैं।
जैन रुद्रोपासक शैवपन्थ का ही एक रूप है। ये रुद्र, भैरव,(नाकोड़ा भैरव), भैरवी (पद्मावती), वीरभद्र, भद्रकाली, विनायक/ गजानन, मणिभद्र, कुबेर शीतला, धरनिन्द्र, घण्टाकर्ण महावीर आदि रुद्रगणों को देवताओं के समान पूजते हैं। लेकिन विष्णु विरोधी होने के कारण वैदिक देवताओं विष्णु और इन्द्र को तीर्थंकरों की सेवा करते हुए बतलाते हैं। 
तन्त्राचार्य राक्षसराज रावण को भावी तीर्थंकर मानते हैं।
पहले तो कोई अलग सम्प्रदाय नही था। इनकी गणना भी नास्तिकों और बौद्धों में ही होती थी। पार्श्वनाथ के अनुयाई वर्धमान महावीर स्वामी ने  सम्प्रदाय खड़ा कर नया नाम दिया जैन, ताकि, बौद्धों से प्रथक अस्तित्व दिखे।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

ऋतु का सम्बन्ध केवल सायन सौर संक्रान्तियों से ही नही अपितु भौगोलिक अक्षांशो से भी से है।

ऋतु का सम्बन्ध केवल सायन सौर संक्रान्तियों से ही नही अपितु भौगोलिक अक्षांशो से भी है। अर्थात देश-काल दोनों से है। क्योंकि समय की अवधारणा ही देश और काल/ दिक्काल से ही है।
सभी जानते हैं कि,
भूमध्य रेखा पर शिशिर ऋतु (ठण्ड) कभी नही होती।
ध्रुवों पर ग्रीष्म ऋतु (गर्मी) नही होती।
वर्षा ऋतु केवल मानसून क्षेत्रों में ही होती है। वह भी सब स्थानों में एक साथ नही अपितु अलग - अलग मानसून क्षेत्र में अलग - अलग समय होती है।
उत्तरी गोलार्ध और दक्षिणी गोलार्ध में ऋतुएँ परस्पर विपरीत होती है। पश्चिम यूरोप में वसन्त ऋतु और दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु का समय भिन्न भिन्न होता है।
वैदिक साहित्य ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्र ग्रन्थो में जो ऋतु चक्र बतलाया है वह आर्यावर्त के अनुकूल है। आर्यावर्त पञ्जाब - हरियाणा से कश्मीर वाले क्षेत्र कहलाता है इसके लिए यह ऋतु चक्र बिल्कुल सटीक है। उसे यदि कर्क रेखीय क्षेत्र और कर्क रेखा से  दक्षिणी अक्षांशो पर/ दक्षिण भारत में देखें तो अनुचित होगा। वहाँ बिल्कुल भिन्न अवधि रहेगी।
प. बाल गंगाधर तिलक, प. व्यंकटेश बापूजी केतकर, प.शंकर बालकृष्ण दीक्षित,पं. दीनानाथ शास्त्री चुलेट आदि भारत के कई वैदिक विद्वानों के अनुसार आर्यावर्त में वैदिक वसन्त ऋतु विषुव सम्पात / सायन मेष संक्रान्ति/ (२१ मार्च) से आरम्भ होती है और शरद ऋतु शरद सम्पात/ सायन तुला संक्रान्ति/ (२३ सितम्बर) से आरम्भ होती है।
जबकि पौराणिक काल में कर्क रेखा पर स्थित अवन्तिकापुरी/ उज्जैन को भारत का केन्द्र मानकर वसन्त ऋतु आरम्भ सायन मीन संक्रान्ति सायन मीन संक्रान्ति/ (१८ फरवरी) से होना बतलाया है और शरद ऋतु आरम्भ सायन कन्या संक्रान्ति / (२३ अगस्त) से होना बतलाया है।  महाभारत के पश्चात पुष्यमित्र शुंग से राजा भोज तक के पौराणिक काल  में रचित गणित ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थो में भी उज्जैन को केन्द्र मानकर तदनुसार गणना की गई। 
अतः दोनों ही पक्ष अपने अपने स्थान पर पूर्णतः सत्य हैं। इसमें किसी का खण्डन और किसी का समर्थन नही किया जा सकता।

इसी आधार पर वैदिक मधु- माधव मास आरम्भ की संक्रान्तियों में भी मतभेद पड़ गया। प्रथम पक्ष वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) से मधु मास आरम्भ मानता हैं। क्योंकि मधु- माधव मास में वसन्त ऋतु होती है। जबकि द्वितीय पक्ष सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से मधुमास आरम्भ मानता है और वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) को मधुमास समाप्त होना मानता है।
प्रथम पक्ष का तर्क है कि, जैसे पूर्णिमान्त मास पर आपत्ति उठाई जाती है कि, आधा चैत्र मास व्यतीत होने पर मध्य चैत्र मास संवत्सर आरम्भ बतलाना अनुचित लगता है वैसे ही वसन्त ऋतु के मध्य में संवत्सर आरम्भ में करना भी अनुचित है।
इसी न्याय के अनुसार वे वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक/ सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति (२१ मार्च से २३ सितम्बर तक) उत्तरायण मानते हैं। जिस अवधि में दिन बड़े और रात छोटी होती है। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक सायन तुला संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति तक/(२३ सितम्बर से २१ मार्च तक) दक्षिणायन मानते हैं।
इसके पक्ष में भाषा शास्त्रीय प्रमाण देते हैं उत्तर अयन यानी सूर्य की उत्तर में स्थिति और उत्तर में गति होना है। जबकि, 
द्वितीय पक्ष पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष उत्तर की ओर गति मान कर उत्तर परम क्रान्ति / सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) से दक्षिण परम क्रान्ति/ सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून) है तक उत्तरायण मानता है। प. दीनानाथ शास्त्री चुलेट इस अवधि को उत्तर तोयन प्रमाणित करते हैं। और दक्षिण परम क्रान्ति से उत्तर परम क्रान्ति तक अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति से सायन मकर संक्रान्ति तक (२२ जून से २२ दिसम्बर तक) की अवधि को दक्षिण तोयन कहते हैं। जिसे पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष दक्षिणायन कहते हैं।
 प्रथम पक्ष का तर्क यही है कि, उत्तरायण के मध्य से संवत्सर आरम्भ अनुचित है। आधा उत्तरायण मे संवत्सर में आरम्भ मानना उसी प्रकार अनुचित है जैसे मध्य चैत्र मास में संवत्सरारम्भ अनुचित है।

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र - वेराजदेवों, ऋषियों और मानवों का उत्पत्ति स्थल

हरियाणा का  धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र  (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें एवम् १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक,  ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति -  १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति -  देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) --  १३ महर्षि भृगु - ख्याति  (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था । 
इसे गोड़ देश भी कहते हैं। पञ्जाब - हरियाणा का मालव प्रान्त भी इससे लगा हुआ है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन जो सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर बसे थे, उनके पुत्र गन्धर्वसेन ने गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया। कहा जाता है कि, चूँकि,नबोवाहन पञ्जाब हरियाणा के मालवा प्रांत के राजा थे इसलिए उसकी स्मृति में मालवा के पठार का नाम मालवा रखा गया।
आद्यगोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़ आदि पञ्चगोड़ ब्राह्मण यहीँ उत्पन्न हुए थे। हमारे पूर्वज इस गोड़ देश/ ऋषि देश से श्रीनगर में बस गए इसलिए श्रीगोड़़ कहलाए। औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त होकर  मालवा आ गये तो मालवी श्रीगोड़़ कहलाये।
मैरे पूर्वजों की भूमि श्रीनगर के निकट देवगढ़ नामक स्थान है, इसलिए हमारे पूर्वज देवगढ़ के व्यास कहलाते थे। वहाँ जानें की बचपन से इच्छा रही है। पर अभी तक जा नही पाया।

बुधवार, 14 सितंबर 2022

भागवत पुराण, वायु पुराण, शिव पुराण, मार्कण्डेय पुराण, दुर्गासप्तशती की रचना बोपदेव ने राजा भोज के समय की।

राजा भोज के समय तेलंगाना के तेलंग ब्राह्मण बोपदेव वेदव्यास जी के नाम पर तीन पुराण - 
१ भागवत पुराण -भाद्रपद शुक्ल पक्ष में अष्टमी से पूर्णिमा तक मन्दिरों में भागवत सप्ताह सत्र आयोजित कर कथा वाचक पौराणिक पण्डित एक सप्ताह में भागवत कथा सुनाते हैं। 
२ वायु पुराण जिसका एक भाग शिव पुराण कहलाता है जो शैव सम्प्रदाय का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। आजकल श्रावण मास में और अन्य माहों में भी शिवपुराण के आयोजन प्रचलित हो गये हैं।
३ मार्कण्डेय पुराण जिसमें जिसका पाठ नवरात्र में होता है। शाक्तपन्थ और तन्त्रशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ दुर्गा सप्तशती है।
राजा भोज नें उनकी भाषा,शैली और काव्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि, यदि आप स्वयम् के नाम पर इसे लिखते तो मैं पुरस्कार देता। लेकिन महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर लिखकर आप जनता को धोखा दे रहे हैं इसलिए आप मृत्यु दण्ड के पात्र हैं।
चूंकि ब्राह्मण अवध्य होता है अतः मैं आपको देश निकाला का दण्ड देता हूँ।
इसी भागवत पुराण में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को कलियुग में जन्मा नौवा अवतार बतलाया है।
इसलिए आपके मित्र गलत होते हुए भी एकदम ग़लत नही है।
दोष उनका नही हमारे पोंगे पण्डितों का है जो इन मिथ्या ग्रन्थो का प्रचार कर रहे हैं।

भारत का नाम हिम वर्ष, नाभि वर्ष और भारत वर्ष तथा भरतखण्ड।

भारत का नामकरण - भारतवर्ष होना।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश/ प्रथम अध्याय / श्लोक ११ से ३३ के अनुसार जम्बूद्वीप के दक्षिण के भाग हिम वर्ष को ही कालान्तर में राजाओं के नाम पर नाभि वर्ष या अजनाभ वर्ष तथा भारतवर्ष नाम रखा गया।
स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत हुए। प्रियव्रत ने एक पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप का शासनाधिकार दिया।
आग्नीध्र ने अपने एक पुत्र नाभि या अजनाभ को जम्बूद्वीप के दक्षिण का भाग हिम वर्ष पर शासनाधिकार दिया।
इसी हिमवर्ष का नाम अजनाभ / नाभि नें नाभिवर्ष या अजनाभ वर्ष रखा।
अजनाभ/ नाभि ने अपने पुत्र ऋषभदेव को नाभि वर्ष का शासनाधिकार दिया। 
ऋषभदेव अपने पुत्र भरत चक्रवर्ती को नाभि वर्ष का शासनाधिकार दिया। इन्ही भरत ने हिमवर्ष या नाभिवर्ष का नाम भारत वर्ष रखा।
चन्द्रवंशी दुष्यन्त के शकुन्तला से उत्पन्न पुत्र भरत द्वारा शासित क्षेत्र भरतखण्ड कहलाता है।

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

समय की कमी - सत्य या आवश्यक कार्य केवल टालने की प्रवृत्ति?

समय की कमी - सत्य या आवश्यक कार्य केवल टालने की प्रवृत्ति?
प्रत्येक व्यक्ति दिनभर व्यर्थ की परिचर्चा में बहुत सा समय व्यतीत कर देता है। आदि से अन्त तक एक ही बात की बारम्बार पुनरावृत्ति करना, या अपनी त्रुटियों/गलतियों को स्वीकार कर सुधारनें का निश्चय करने के स्थान पर, नये नये आधारों और तर्कों से अपनी त्रुटियों/गलतियों को उचित ठहराया जानें का प्रयत्न करते रहने, और इसका प्रारुप तैयार करनें हेतु अत्यधिक सोच विचार करनें में हम अधिकतम समय, शक्ति और सामर्थ्य व्यर्थ करते हैं।
जबकि विश्व की विभूतियों नें इन विषयों पर न कभी विचार किया न चर्चा की। त्रुटि स्वीकारी, सुधारी या भविष्य के लिए सावधान रहे। जो भी कार्य किया पूर्ण जानकारी प्राप्त कर कुशलतापूर्वक एक ही प्रयास में पूर्ण किया। वे बारम्बार सुधारने की गुंजाइश नही रखते हैं। इसलिए सफल होते हैं।
जबकि,  वास्तविक कार्य के लिए हमारे पास प्राथमिकता ही नही रहती और हम व्यर्थ विचार और चर्चाओं में इतने मशगूल रहते हैं कि, उस वास्तविक कार्य करने के लिए समय ही नहीं रहता।
यदि वास्तव में समय की कमी होती तो बड़े-बड़े राजनेताओं, राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमन्त्री - मन्त्रियों, सचिवों, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के स्वामियों, चेयरपर्सन, सी.ई.ओ. संचालकों को तो कभी समय ही नही मिलता। लेकिन वे अपने कार्य विस्तार करते रहते हैं। कभी - कभार ही उलझन अनुभव करते हैं। उनके विचार प्रायः सुलझे हुए ही होते हैं।
लेकिन इससे विपरीत समय की कमी उन्हीं को रहती है जो उक्त लोगों की तुलना में नगण्य कार्य करते हैं।  कोई बड़ा व्यवसायी किसी छोटे व्यवसायी को उसके उद्यम के साथ कुछ पूरक उद्यम का सुझाव देता है तो छोटा व्यवसायी उत्तर देता है, इस काम से ही फुर्सत नही मिल पाती, टेमीज नी है भिया। कहाँ से करूँ, एकला पड़ जाता हूँ। जबकि वह यह भूल जाता है कि, सामनें वाला भी अकेला ही बहुत से उद्यम संचालित करते हुए नित नई प्रगति कर रहा है।
घर में बैठे अधिकांश कार्मिकों, गृहणियों, अकुशल श्रमिकों यहाँ तक कि, भिखारियों को कहते सुना जा सकता है कि, समय ही नही मिलता, टेम नी है भिया।