भारतीय ज्योतिष - (शंकर बालकृष्ण दीक्षित। हिन्दी समिति उ.प्र. शासन का प्रकाशन) से उद्धृत -
पृष्ठ 40 एवम् 41
वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 ।
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3 *अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
पृष्ठ 44 एवम् 45 ।
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80 से प्रमाणित होता है कि, *देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।*
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80 में *उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।*
पृष्ठ 47 से - तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1 में *वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1 में *हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
पृष्ठ 48 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 में अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
में *पवित्रादि मासों के नाम आये हैं।*
तथा *शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।*
भारतीय ज्योतिष पृष्ठ 49 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1 में अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन् पूतो मेध्यः यशो यशस्वानायुरमृतः ।
में *पवित्रादि अर्धमासों के नाम आये हैं।*
अर्थात शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष के समान है।
पृष्ठ 49 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1 में
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु कहकर *तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।*
पृष्ठ 50 तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8 में
में *फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
पृष्ठ 59 तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 में *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।*
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 में *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।*
पृष्ठ 64 तै.ब्रा. 1/5/3 में *दिन के पाँच विभाग -
प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्*
पृष्ठ 65 शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में *सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।*
भा.ज्यो. पृष्ठ 82 पर ऋग्वेद संहिता 5/40 में *खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* --
5/40/ 6 इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।*
5/40/ 7 *सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की*
*जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।*
5/40/ 8 *अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।*
5/40/ 9 *जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने प्राप्त किया और कोई न कर सका।*
पृष्ठ 83 से
*6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आवर्तन होता हैं अर्थात रीपीट होते रहते हैं।*
पृष्ठ 83 से
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13, 6/6/8, 14/11/14एवम् 15, 23/16/5 में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है।
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8, 14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।*
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।*
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें