ऋतु का सम्बन्ध केवल सायन सौर संक्रान्तियों से ही नही अपितु भौगोलिक अक्षांशो से भी है। अर्थात देश-काल दोनों से है। क्योंकि समय की अवधारणा ही देश और काल/ दिक्काल से ही है।
सभी जानते हैं कि,
भूमध्य रेखा पर शिशिर ऋतु (ठण्ड) कभी नही होती।
ध्रुवों पर ग्रीष्म ऋतु (गर्मी) नही होती।
वर्षा ऋतु केवल मानसून क्षेत्रों में ही होती है। वह भी सब स्थानों में एक साथ नही अपितु अलग - अलग मानसून क्षेत्र में अलग - अलग समय होती है।
उत्तरी गोलार्ध और दक्षिणी गोलार्ध में ऋतुएँ परस्पर विपरीत होती है। पश्चिम यूरोप में वसन्त ऋतु और दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु का समय भिन्न भिन्न होता है।
वैदिक साहित्य ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्र ग्रन्थो में जो ऋतु चक्र बतलाया है वह आर्यावर्त के अनुकूल है। आर्यावर्त पञ्जाब - हरियाणा से कश्मीर वाले क्षेत्र कहलाता है इसके लिए यह ऋतु चक्र बिल्कुल सटीक है। उसे यदि कर्क रेखीय क्षेत्र और कर्क रेखा से दक्षिणी अक्षांशो पर/ दक्षिण भारत में देखें तो अनुचित होगा। वहाँ बिल्कुल भिन्न अवधि रहेगी।
प. बाल गंगाधर तिलक, प. व्यंकटेश बापूजी केतकर, प.शंकर बालकृष्ण दीक्षित,पं. दीनानाथ शास्त्री चुलेट आदि भारत के कई वैदिक विद्वानों के अनुसार आर्यावर्त में वैदिक वसन्त ऋतु विषुव सम्पात / सायन मेष संक्रान्ति/ (२१ मार्च) से आरम्भ होती है और शरद ऋतु शरद सम्पात/ सायन तुला संक्रान्ति/ (२३ सितम्बर) से आरम्भ होती है।
जबकि पौराणिक काल में कर्क रेखा पर स्थित अवन्तिकापुरी/ उज्जैन को भारत का केन्द्र मानकर वसन्त ऋतु आरम्भ सायन मीन संक्रान्ति सायन मीन संक्रान्ति/ (१८ फरवरी) से होना बतलाया है और शरद ऋतु आरम्भ सायन कन्या संक्रान्ति / (२३ अगस्त) से होना बतलाया है। महाभारत के पश्चात पुष्यमित्र शुंग से राजा भोज तक के पौराणिक काल में रचित गणित ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थो में भी उज्जैन को केन्द्र मानकर तदनुसार गणना की गई।
अतः दोनों ही पक्ष अपने अपने स्थान पर पूर्णतः सत्य हैं। इसमें किसी का खण्डन और किसी का समर्थन नही किया जा सकता।
इसी आधार पर वैदिक मधु- माधव मास आरम्भ की संक्रान्तियों में भी मतभेद पड़ गया। प्रथम पक्ष वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) से मधु मास आरम्भ मानता हैं। क्योंकि मधु- माधव मास में वसन्त ऋतु होती है। जबकि द्वितीय पक्ष सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से मधुमास आरम्भ मानता है और वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) को मधुमास समाप्त होना मानता है।
प्रथम पक्ष का तर्क है कि, जैसे पूर्णिमान्त मास पर आपत्ति उठाई जाती है कि, आधा चैत्र मास व्यतीत होने पर मध्य चैत्र मास संवत्सर आरम्भ बतलाना अनुचित लगता है वैसे ही वसन्त ऋतु के मध्य में संवत्सर आरम्भ में करना भी अनुचित है।
इसी न्याय के अनुसार वे वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक/ सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति (२१ मार्च से २३ सितम्बर तक) उत्तरायण मानते हैं। जिस अवधि में दिन बड़े और रात छोटी होती है। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक सायन तुला संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति तक/(२३ सितम्बर से २१ मार्च तक) दक्षिणायन मानते हैं।
इसके पक्ष में भाषा शास्त्रीय प्रमाण देते हैं उत्तर अयन यानी सूर्य की उत्तर में स्थिति और उत्तर में गति होना है। जबकि,
द्वितीय पक्ष पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष उत्तर की ओर गति मान कर उत्तर परम क्रान्ति / सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) से दक्षिण परम क्रान्ति/ सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून) है तक उत्तरायण मानता है। प. दीनानाथ शास्त्री चुलेट इस अवधि को उत्तर तोयन प्रमाणित करते हैं। और दक्षिण परम क्रान्ति से उत्तर परम क्रान्ति तक अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति से सायन मकर संक्रान्ति तक (२२ जून से २२ दिसम्बर तक) की अवधि को दक्षिण तोयन कहते हैं। जिसे पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष दक्षिणायन कहते हैं।
प्रथम पक्ष का तर्क यही है कि, उत्तरायण के मध्य से संवत्सर आरम्भ अनुचित है। आधा उत्तरायण मे संवत्सर में आरम्भ मानना उसी प्रकार अनुचित है जैसे मध्य चैत्र मास में संवत्सरारम्भ अनुचित है।
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