जैन सम्प्रदाय अनीश्वर वादी, रुद्र, रुद्र-गणों तथा यक्षों के उपासक और तन्त्र मार्गी नास्तिक श्रमण संघीय संस्कृति को मानते हैं।
भारत में वैदिक काल से दो परम्परा रही पहला प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग।
१ प्रवृत्ति मार्ग का लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ और जीवन पद्यति वैदिक वर्णाश्रम और पञ्चमहायज्ञ सेवी थी। विष्णु परम पद की प्राप्ति मौक्ष पुरुषार्थ का ही एक रूप था। वर्तमान में स्मार्त वैष्णव इन्ही के प्रतिनिधि हैं।
प्रवृत्ति मार्ग में १ दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, २ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, ३ कर्दम प्रजापति - देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) -- ४ ४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति,५ महर्षि भृगु - ख्याति ६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, ७ अत्रि - अनसुया, ८ पुलह - क्षमा, ९ पुलस्य - प्रीति, १० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा ११ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी के अतिरिक्त विदेह जनक आदर्श मानें जाते हैं।
२ निवृत्ति मार्ग भी लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ ही रहा लेकिन ये निसंकोच ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सीधे सन्यस्त हो जाते या ग्रहस्थ आश्रम से सीधे सन्यस्त हो जाते थे। इसी प्रकार अन्य यज्ञों की तुलना में केवल ब्रह्मयज्ञ को और ब्रह्मयज्ञ के ही भाग अष्टाङ्ग योग को अधिक महत्व देते हैं। अर्थात वर्णाश्रम व्यवस्था का पूर्णतः पालन नही करते हैं। लेकिन ये निवृत्ति मार्गी भी वेदों को ही प्रमाण मानते हैं, इसलिए आस्तिक ही माने जाते हैं। ये भी विष्णु परमपद, सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, इन्द्र, आदित्य गण, वसु गण, रुद्रों और अन्य देवताओं को आदर करते हैं । इस लिए ईश्वरवादी मानें जाते हैं। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, नारद, वामदेव, ऋषभदेव, कपिल देव, भरत चक्रवर्ती का संन्यास उपरान्त नाम जड़ भरत और शुकदेव आदि इसी श्रेणी के निवृत्ति मार्गी रहे हैं।
इनके अलावा श्रमण मार्गी भी निवृत्त मान लिये गये। इनमें भी कई सम्प्रदाय रहे। वैदिक आस्तिकों में दो प्रकार हैं।
३ अथर्ववेदी - अथर्ववेद के ऋषि महर्षि अङ्गिरा हैं। अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण है। वस्तुतःअवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। जैसे ऋग्वेद में भी गाथाएँ है, वैसेही अवेस्ता के साथ भी गाथाएँ थी। इसलिए कुछ लोग इसे लुप्त इतिहास पुराण भी मानते हैं। दयानन्द सरस्वती भी ब्राह्मण ग्रन्थों को इतिहास पुराण ही मानते हैं।
महर्षि अङ्गिरा के शिष्य अथर्वाङ्गिरस और घोर आङ्गिरस के अनुयाई, अथर्ववेदी ब्राह्मण चरक जो अकेले ही होम, हवन करते हैं। ये कठोर तपस्वी, हठयोगी होते थे। अध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर भौतिक और सांसारिक जीवन को सफल बनाने के उपरान्त उन्मुक्त जीवन यापन करने में विश्वास रखते हैं। ये वेदत्रयि की व्यवस्थाओं को पूर्णतः पालन नही करते।
महाभारत के बाद और विशेषकर वर्तमान में ये लुप्तप्राय हैं महाराष्ट्र में थोड़े से बचे हैं। सम्भवतः श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि इसी मत के थे।
पारसियों धर्म की स्थापना के पहले ईरान में प्रचलित याजक मग ब्राह्मणों और मूर्ति पूजक मीढ नामक श्रमण जनसमुदाय के लोगों का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। ईराक के असीरिया प्रान्त की असीरियाई संस्कृति और धर्म का इष्ट असुर था। इस असुर के उपासक दक्षिण पश्चिम ईरान के निवासी ज़रथ्रुष्ट ने अवेस्ता ब्राह्मण ग्रन्थ की जेन्द टीका लिख कर अवेस्ता में ही गड्डमड्ड कर दी और इसका नाम जेन्दावेस्ता रख दिया। अब जेन्दावेस्ता और गाथा पारसी धर्म ग्रन्थ है।
४ कृष्ण यजुर्वेदीय - शुक्ल यजुर्वेद शुद्ध वैदिक ग्रन्थ है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग भी मिश्रित माना गया है इसलिए कृष्ण यजुर्वेद को शुद्ध वेद नही माना जाता।
ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुरूप यज्ञ प्रधान है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद मूर्ति पूजा और अभिषेक की पद्धति स्वीकार करता है।
ऐसा माना जाता है कि, यजुर्वेद पर रावण ने भाष्य लिखा और उसे मूल संहिता में ही गड्ड मड्ड कर दिया।
तन्त्र की उत्पत्ति कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद से ही मानी जाती है।
आस्तिक ईश्वरवादी निवृत्ति मार्ग में दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ नागा साधु - ये पूर्ण आस्तिक, पूर्ण ईश्वरवादी, बाल ब्रह्मचारी या नैष्ठिक ब्रह्मचारी, कठोर तपस्वी संन्यासी होते हैं । रमण महर्षि भी लगभग इसी श्रेणी के सन्त थे।
२ वैरागी जिनके आदर्श भगवान शंकर रहे जो ग्रहस्थ होकर भी संन्यासी के समान ही रहते हैं। उदासीन भी इसी का एक मत है। इनको बाबाजी भी कहते हैं। रामानन्दी,कबीर, नानक, नानक पुत्र श्रीचन्द्रदेव आदि इनके उदाहरण है ।
तान्त्रिकों में भी दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ ईश्वरवादी - दत्तात्रेय के अनुयाई नाथ सम्प्रदाय के श्रमण।
ये शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप, भगवान शंकरजी, दत्तात्रेय के अनुयाई भद्रकाली और भैरव के उपासक होते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, युक्तेश्वर गिरि, योगानन्द, विशुद्धानन्द, हेड़ाखान, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नीम करोली बाबा आदि इसी श्रेणी के हैं।
२ अनिश्वरवादी - ये बहुत कम पाये जाते हैं। इक्का- दुक्का हैं भी, लेकिन भगवाँ वस्त्र धारी होनें से नही पहचानें जाते हैं। कुछ लोग इन्हें सन्देह वादी मानते हैं।
५ निरपेक्ष - वेदों को प्रमाण मानना है मानों, न मानना है मत मानों। यदि आपको ईश्वर सृष्टिकर्ता और नियन्ता लगता है तो मानों न लगता है तो मत मानों। इनका कोई आग्रह नहीं है। ये माध्यमिक बौद्ध कहलाते हैं।
६ नास्तिक और अनीश्वरवादी -- ये न वेदों को प्रमाण मानते हैं ईश्वर को सृष्टि रचयिता और नियन्ता भी नही मानते हैं।
१ पहले चार्वाक पन्थी थे जो वर्तमान में नही पाये जाते हैं।
२ वर्तमान में इस श्रेणी में केवल जैन ही पाये जाते हैं।
जैन रुद्रोपासक शैवपन्थ का ही एक रूप है। ये रुद्र, भैरव,(नाकोड़ा भैरव), भैरवी (पद्मावती), वीरभद्र, भद्रकाली, विनायक/ गजानन, मणिभद्र, कुबेर शीतला, धरनिन्द्र, घण्टाकर्ण महावीर आदि रुद्रगणों को देवताओं के समान पूजते हैं। लेकिन विष्णु विरोधी होने के कारण वैदिक देवताओं विष्णु और इन्द्र को तीर्थंकरों की सेवा करते हुए बतलाते हैं।
तन्त्राचार्य राक्षसराज रावण को भावी तीर्थंकर मानते हैं।
पहले तो कोई अलग सम्प्रदाय नही था। इनकी गणना भी नास्तिकों और बौद्धों में ही होती थी। पार्श्वनाथ के अनुयाई वर्धमान महावीर स्वामी ने सम्प्रदाय खड़ा कर नया नाम दिया जैन, ताकि, बौद्धों से प्रथक अस्तित्व दिखे।
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