१ महाराष्ट्र के गाणपत्य सम्प्रदाय में गणपति को मङ्गल (अग्नि) से सम्बन्धित माना है। कार्तिकेय को भी अग्नि पुत्र माना जाता है।
अग्नि प्रथम देवता और विष्णु अन्तिम देव ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण का कथन है। अग्नि की गति उर्ध्व है। अग्नि का सम्बन्ध प्रकाश / चेत से भी है।
तदनुसार *कुण्डलिनी* को भूमिपुत्र *मङ्गल* से सम्बन्धित माना जा सकता है।
२ देव सेनापति (कार्तिकेय) के राजा इन्द्र - *नेपच्यून* को *मूलाधार* माना जा सकता है।
३ शुक्र को स्पष्ट रूप से शुक्र (वीर्य) का प्रतीक माना जाता है। अतः स्वधा से सम्बन्धित मानकर *स्वाधिष्ठान* चक्र से *शुक्र* का सम्बन्ध मान सकते हैं।
४ ब्रहस्पति को जीव कहते हैं। गुरु का सम्बन्ध गुरुत्व बड़प्पन से है। जीवात्मा का वास भी हृदय में मान्य है। तदनुसार *अनाहत* चक्र का सम्बन्ध *ब्रहस्पति* से माना जा सकता है।
५ बुध बुद्धि का प्रतीक है और बुद्धि का स्थान मन से उपर है यह सर्वमान्य है। बुद्धि का स्थान सम्बन्ध आज्ञा चक्र से मान सकते हैं। तदनुसार *बुध* का सम्बन्ध *आज्ञा* चक्र से माना जा सकता है।
६ सूर्य को प्राण और आत्मा कहा गया है। अतः कम से कम सुत्रात्मा प्रजापति तो मानना ही पड़ेगा। लेकिन सूर्य को प्राण और आत्मा कहा गया है। अतः कम से कम सुत्रात्मा प्रजापति तो मानना ही पड़ेगा। लेकिन ब्रहस्पति को जीव कहते हैं। गुरु का सम्बन्ध गुरुत्व बड़प्पन से है।
अतः सूर्य को प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मानना होगा।
अतः सूर्य को प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मानना होगा।
तदनुसार *सहस्त्रार* चक्र को *सूर्य* से सम्बन्धित माना जा सकता है।
चन्द्रमा को स्पष्ट रूप से मन का प्रतीक कहा गया है।यह तो निर्विवाद है। लेकिन अष्ट ग्रहों में चन्द्रमा को नहीं लिया जा सकता।
बचे शनि और युरेनस
मणिपुर और विशुद्ध
यदि शनि को विशुद्ध (न्याय कर्ता/ निष्पक्ष) मानें तो युरेनस (राहु) को मणिपुर चक्र मानना होगा।
एतदनुसार --
१ मूलाधार -नेपच्यून (देवेन्द्र) एवम् कुण्डलिनी- मङ्गल (अग्नि),
२ मणिपुरक युरेनस (असुरराज) एवम् स्वाधिष्ठान शुक्र (असुराचार्य) ,
३ अनाहत - ब्रहस्पति (जीव) एवम् विशुद्ध - शनि (निष्पक्ष)
४ सहस्त्रार - सूर्य (आत्म तत्व/ आकाश) एवम् आज्ञा - बुध (सूर्य का निकटतम ग्रह/ वायु)।
सुचना ---
ग्रह १ बुध, २ शुक्र, ३ भूमि, ४ मङ्गल, ५ ब्रहस्पति, ६ शनि, ७ युरेनस और ८ नेपच्यून हैं। भूमि के स्थान पर सूर्य को ले लें और चन्द्रमा को छोड़ दें तो भी आठ ग्रह आठ चक्र है।
१ कुण्डलिनी, २ मूलाधार, ३ स्वाधिष्ठान, ४ मणिपुरक, ५ अनाहत, ६ विशुद्ध, ७ आज्ञा, ८ सहस्त्रार ।
इसे मुख्य और उप (सहायक) चक्र के रूप में ऐसे देखा जा सकता है।
१ मूलाधार- कुण्डलिनी,
२ मणिपुरक - स्वाधिष्ठान,
३ अनाहत - विशुद्ध
४ सहस्त्रार - आज्ञा।
कुछ लोगों नें राहु और कुण्डलिनी को सर्प मानकर दोनों का सम्बन्ध स्थापित किया है। लेकिन फलित ज्योतिष की दृष्टि से राहु मोह और भ्रम का कारक है। जो कुण्डलिनी (तन्त्र मत में चित् शक्ति) से मैल नही खाता।
मेरे मत में युरेनस असुर (वत्रासुर) सर्प का प्रतीक है। लेकिन देवत तत्व के अनुसार नेपच्यून को देवेन्द्र पुरन्दर (इन्द्र) से और युरेनस को उसके समकक्ष असुर राज विरोचन से सम्बन्धित माना है।
अतः सर्प के तर्क से कुण्डलिनी को युरेनस से जोड़ना होगा।
लेकिन तन्त्र में कुण्डलिनी को चित् शक्ति मानने के तर्क को नकारा नही जा सकता। क्योंकि चक्र की अवधारणा तन्त्र की है। न कि, वैदिक। अतः उसकी व्याख्या तन्त्र के नियमों के अधीन ही होना चाहिए।
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