(श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित और हिन्दी समिति उ.प्र. शासन से प्रकाशित ग्रन्थ भारतीय ज्योतिष ग्रन्थ , श्री पाण्डुरङ्ग काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रन्थ भाग एवम् श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वैदकाल निर्णय ग्रन्थ के पृष्ठ ३७ से ६३ से उद्धृत) -
*संवत्सर व्यवस्था -*
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि, दिक - काल का संयुक्त वर्णन ही सम्भव है।
यथा राजनितिक भुगोल में आपनें मोर्यकालीन भारत या गुप्त कालीन भारत के नक्षे देखे होंगे। अर्थात स्थान के विवरण के साथ समय दर्शाना आवश्यक है। इसी प्रकार ग्रीनविच मीन टाइम मा भारतीय मानक समय में समय के साथ स्थान दर्शाना आवश्यक है। ऋतुएँ अक्षांश और सूर्य की सायन संक्रान्तियों पर आधारित होती है। अतः पहले वैदिक ऋषियों प्रजापतियों और राजन्यों का कार्यक्षेत्र समझ लिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वैदिक ग्रन्थों में इन्ही स्थानों (अक्षांशों) की ऋतुकाल के अनुसार वर्णन मिलना स्वाभाविक है।
वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण के अनुसार हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।
क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति - १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति - देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) -- १३ महर्षि भृगु - ख्याति (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था । इसे गोड़ देश भी कहते हैं।
पञ्जाब - हरियाणा का मालव प्रान्त भी इससे लगा हुआ है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
मालवा प्रान्त से अफगानिस्तान तक और गुजरात से तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तिब्बत, मङ्गोलिया के दक्षिण में पश्चिमी चीन पर स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों का शासन था।अर्थात लगभग उत्तर अक्षांश २३° से ३५° विशेष क्षेत्र रहा।
(विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन ने भी इसी क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में सिहोर जिले के सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया था। उनके बाद विक्रमादित्य नें अवन्तिकापुरी (उज्जैन) को राजधानी बनाया। राजा भोज के काका श्री मुञ्जदेव नें धारानगरी (धार) बसायी और राजा भोज ने धार को राजधानी बनाया। मालवा के पठार का नामकरण भी उक्त मालव प्रान्त के शासकों द्वारा शासित होनें के आधार पर ही हुआ। खेर यह विषयान्तर होगया।)
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।*
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।*
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)
*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।*
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
इससे निम्नांकित तथ्य प्रमाणित होते हैं।
१ वैदिक संवत्सरारम्भ विषुव सम्पात यानी सायन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में २०/२१ मार्च) से होता था जिस दिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। दिनरात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
२इसी वसन्त सम्पात दिवस से
उत्तरायण आरम्भ होता था।
३ वसन्त ऋतु का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वैदिक मास मधुमास का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।*
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।
*फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)
*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। या पूर्णिमा अमावस्या, एकष्टका अष्टका तिथि से भी इंगित करते थे।
*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।*
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।*
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।
*कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।*
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
*कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।*
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।
*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्*
तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।*
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।
*ऋग्वेद में खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन*
*खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* -- इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 6 ।
*सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 7
*अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 8 ।
*जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने प्राप्त किया और कोई न कर सका।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 9 ।
(भा.ज्यो. पृष्ठ 82)
ब्राह्मण ग्रन्थों में सूर्यग्रहण वर्णन --
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13, 6/6/8, 14/11/14एवम् 15, 23/16/5 में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है।
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8, 14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।*
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।*
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)
इससे सिद्ध होता है कि, महर्षि अत्रि ने सूर्यग्रहण और मौक्ष की ठीक ठीक गणना करना सीख लिया था।
*6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आते हैं। रीपीट होते रहते हैं।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)
इति वैदिक संवत्सर वर्णन।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें