ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20,
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20,
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01 एवम् 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06 एवम् 07
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम् स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।
कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 ,
ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद 06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02
तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति। उध इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं -- 01 आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज, 02 जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और 03 उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न। 01
(सुचना -- यहाँ पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)
सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।
उस इस ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।02
अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा रहती है।
एवम्
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 05/मन्त्र 29
भोक्तारम् यज्ञतपसाम् , सर्वलोकमहेश्वरम् ;
सुहृदम् सर्वभूतानाम् , ज्ञात्वा माम् शान्तिमृच्छति।
मुझको सब यज्ञों और तपों का भोगनेवाला , सर्वलोकों के ईश्वर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और जगदीश्वर विराट अपरब्रह्म (जीवात्मा) का भी ईश्वर होनें से महेश्वर 【विधाता ब्रह्म, प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा)】तथा सम्पुर्ण भूतप्राणियों का सुहृद (अकारणकरुणाकरण, दयानिधि, और प्रेमी) जानकर शान्ति को प्राप्त होते हैं।
परब्रह्म और प्रत्यगात्मा का देहमें साथ साथ रहना और प्रत्यगात्मा द्वारा कर्म करना और भोग भोगना भी देखें।
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय03/मन्त्र20
कठोपनिषद 1/02/20 ,
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्,
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्,
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
इस जीवधारि के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा सुक्ष्मतम भी है और महा से अतिमहा भी है। आत्मा/ प्रज्ञात्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामनारहित, जो जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है; यह जानने वाला अकृत पुरुष ; जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है वे ही जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जान पाते हैं।
(सुचना --
जन्तु यानि जीवधारी।
बुद्धिगुहा के केन्द्र अर्थात चित्त में निहित।
निहित अर्थात रहने वाला प्रज्ञात्मा ही देहधारी तत्व है। अतः प्रज्ञात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है।
इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान आदि का भी कारण होने से अणोरणीयान् अर्थात सुक्ष्मातिसुक्ष्म कहा है।
जीवात्मा अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यगात्मा ब्रह्म होता है; किन्तु उस प्रत्यगात्मा ब्रह्म से भी परे, अति महा (महान) प्रज्ञात्मा परब्रह्म है अतः उन्हे परम ब्रह्म कहा है।
बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा ब्रह्म होता है। और जिससे आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। अतः उसे परब्रह्म कहते हैं।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं अतः उन्हे धारणकर्ता भी नही कहा जा सकता। अतः जीवनधारक प्रज्ञात्मा ही कही जा सकता है।
क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाला, जो जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही सब क्रियाएँ है उसे अक्रत कहते हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
वे ही देखपाते है अर्थात वे ही जान पाते है। ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।)
हमारे अन्तःकरण के बुद्धि आकाश में दो तत्व या देव एक देवता रहते हैं; उपनिषदों में कहागया है कि समान वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। उनमें से एक तो वृक्ष के मिठे फलों को खाता है जबकि दुसरा पक्षी केवल दृष्टाभाव से देखता रहता है।
इसमें दृष्टा पक्षी हमारा वास्तविक स्वरूप प्रज्ञात्मा परब्रह्म है। इस अवस्था में सर्वव्यापी भाव होनें के कारण अहन्ता ममता (मैं मेरा) के लिए कोई अवकाश (स्थान) ही नही रहता। सर्वखल्विदम् ब्रह्म वाला भाव रहता है। यह छुपा हुआ कुटस्थ रहता है। ज्ञान प्रकाश से ही स्वयम् को प्रकट करता है। यह गुणातीत है, क्षेत्रज्ञ है, पुर्ण है परम गति है। मतलब यहाँ आकर गति अर्थात कर्म और कर्म फल समाप्त हो जाते हैं।
हमारा वास्तविक स्वरूप तो यही है।
किन्तु बिनु हरिकृपा मिलहिं नही सन्ता। और बिन गुरु ज्ञान न होई सिद्धान्त से योग्य पात्र / योग्य शिष्य नही बन जाते तब तक गुरु सामने हो तो भी गुरु से साक्षात्कार नही हो पाता। योग्य होते ही गुरु के उपदेश स्थाई प्रभाव से समझ आ जाते हैं। और हम आत्मस्थ हो जाते हैं।
किन्तु जबतक हम उक्त अवस्था तक न पहूँचें तबतक हम प्रत्यगात्मा ब्रह्म महा आकाश, क्षेत्र की अवस्था में रहते हैं।
यह भी सर्वगुण सम्पन्न है। कालातीत, प्रकृति में स्थित, सुख-दुःख का कारण, (सुख-दुःख हेतु) है, उपदृष्टा, अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), भर्ता-भोक्ता, महेश्वर है। भूतों के नष्ट होनें पर भी नष्ट नही होता है। यह गतिमान है। उपर नीचे होता रहता है। जबतक प्रज्ञात्मा की ओर झुकाव तो उस समय मे आत्मज्ञता अनुभव करता है। पुर्णता अनुभव करता है। इसकारण निर्भय, निर्विकार, निर्वेर रहता है। वहीँ स्थिर रहना भी चाहता है। किन्तु अचानक संस्कार जोर पकड़ते हैं और रजोगुण जोर पकड़ता है।और यह जीवभाव की ओर झुक जाता है।और स्वयम् को जीवात्मा अपरब्रह्म मानकर क्रियाशील होजाता है। यह स्वयम् को क्षर (क्षरणशील/ खिरने वाला/ अपुर्ण होनें के भय से आक्रान्त) हो जाता है।उस अवस्था में यह प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता होता है।
गुण सङ्गानुसार ( सत्वरज तम गुणों के जिस काम्बिनेशन के साथ होता है तदनुसार) योनि प्राप्त करता है। मरणोपरान्त जो योनि प्राप्त होती है वह तो है ही। पर इसी देह में रहते भी हम अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। जिस योनि में रहते मरेंगे उसी योनि में जन्मेंगे।
कई बार हम प्रज्ञात्मा की ओर झुकाव के चलते ब्राह्मण होते हैं। कभी करुणामय होनें से परहित रक्षक क्षत्रिय होजाते हैं। कभी व्यवहार में लेनदेन बराबर करनें में जैसे विवाह आदि में किसको क्या देना कितना देना आदि विचारों में मग्न होकर वैष्य होते हैं। कभी स्वयम् को दीनहीन मानकर जिससे काम पड़ जाये उसकी सेवा में तत्पर होकर शुद्र होजाते हैं। कभी बदले की भावना से म्लेच्छ होजाते हैं। किसी को हानि पहूँचाने के संकल्प के साथ असुर हो जाते हैं। भोग लिप्सा में तदनुरूप योनि में होते हैं। जैसे अति भुख में भोजन करते समय पशुवत सब भरलेते हैं। भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान नही रहे तो शुकर योनि में पहूँच जाते है। पुण्य उदय होजाये तो शुकर से अचानक देवता भी बन जाते हैं।
यही सब माया का प्रभाव है। इसीलिए मार्कण्डेयपुराण में महर्षि मेधातिथि कहते हैं -
ज्ञानिनामपि चेतान्सि, देवी भगवती हि सा , बलादाकृष्य मोहाय, महामाय प्रयच्छति।
दुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय के श्लोक 55-56
भगवान नारायण को भी योगनिन्द्रा को वश में करनें वाली भगवती; भगवान विष्णु की महामाया ज्ञानियों के चित्त को बलपुर्वक खीँचकर मोह में डाल देती है।
श्रीमद्भगवद्गीता २/६२ और ३/३७ में में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि, रजोगुण प्रधान होनें पर, मैं भाव उत्पन्न होनें पर हम जिस जिस प्रकार के सोच-विचार, चिन्तन करते हैं, उसी भाव, उस विषय में हमारी आसक्ति (लगाव) हो जाता है। फि उस विषय भोग/ वस्तु आदि की हमें कामना (प्राप्त करने की इच्छा) होनें लगती है। इस प्रकार काम का उदय होता है। यह काम ही सबसे बड़ा शत्रु है। काम्य वस्तु विषय प्राप्त हो जाए तो उससे ममत्व (ममता/ मैरापन) हो जाता है। और काम्य वस्तु प्राप्त होनें के बाद छिनने पर या काम्य वस्तु/ विषय प्राप्ति में विघ्न पड़ने पर विघ्नकारक पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में सही- गलत, उचित -अनुचित का बोध समाप्त हो जाता है, अर्थात मोह वश बुद्धि में मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ भाव में बुद्धि स्थिर नही रह पाती अतः विवेक समाप्त हो जाता है। और मनुष्य का पतन हो जाता है।
ऋग्वेदोक्त देवी सुक्त में देवी वाक अम्भृणी (वागाम्भृणी) ने बहुश्रुत के प्रति कहा है--
यम् कामये तम् तमुग्रम् कृणोमि,
तम् ब्रह्माणम् तमृषिम् तम् सुमेधाम्।
मन्त्र 5
मैं जिस-जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उसको सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ। उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान-सम्पन्न ऋषि (जिन्हे प्त्यक्ष ज्ञान हो ऐसे आत्मज्ञानी- ब्रह्मज्ञानी ऋषि) तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ।
इसमें हमारा हट भी क्या करेगा ? अतः समर्पण ही सर्वश्रेष्ठ विधि है। उचित यही है कि, अहन्ता (मैं भाव) आते ही हरिशरण ग्रहण कर लें। वे ही अपनी माया समेट सकते हैं।
मतलब हम जो अपनें दम पर सफलता या अपनी गलती से असफलता मानकर सुखी दुःखी होते हैं वास्तव में उसमें हमारे कर्मों का आभास होता है। जैसे स्वीच ऑन किया, पंखा घुमनें लगा अब उसे अन् चाहे भी चलना ही पड़ेगा। इसके पहले पंखा चाह कर भी नही घूम सकता , स्वीच बन्द किया पंखा बन्द हो गया अब पंखा चाहकर भी घुमता नही रह सकता।
यही स्थिति हमारे शरीर, इन्द्रियों, मन - संकल्प, अहंकार - अस्मिता, बुद्धि - मेधा (स्मरण शक्ति) , चित्त - चेत आदि वृत्तियाँ , तेज - विद्युत, और ओज - कान्ति आदि से सम्पन्न होने वाले कर्मों की भी है। जबतक स्वीच ऑन है तभी तक अपनें आप ही प्रकृति के गुण अपने अपने गुणों में व्यव्हार कर रहे हैं बरत रहे हैं इसमें हमारे कर्म है ही कहाँ? जब कर्म हमारे नही तो फल भी हमारे नही हुए।
वस्तुतः अध्यात्मिक स्वरूप में हम प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या आधिदैविक स्वरूप में परब्रह्म (विष्ण-माया) हैं ।
किन्तु प्रज्ञात्मा होते हुए भी हम पहले बतलाये अनुसार स्वयम् को अध्यात्मिक रूप से प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष -प्रकृति) आधिदैविक रूप में सवितृ- सावित्री या श्रीहरि - कमलासना ) मानलेनें के कारण तु और मैं, यह- वह के आभासी जगत का अनुभव कर रहे हैं। और माया से लड़ रहे हैं। ठण्ड का आभास हुआ तो ताप लिया औढ़ लिया, गर्मी लगी तो पंखा झेल लिया बरसात से बचनें के लिए छाता लगा लिया या छत के नीचे आ गये। यह सब प्रकृति से लड़ना ही तो है। प्रकृति (माया) के वार से बचनें के लिये ढाल खोजनें में ही पुरा जीवन लग जाता है।
प्रकृति को माया को जिनने माँ मान लिया वे तो उसी की गोद में ही बैठ गये। और निवेदन करते हैं हे माँ हम और कुछ नही जानते, न जानना चाहते हैं, न और कुछ चाहते हैं, हमें तो और कुछ नही चाहिए, हमें पिताजी (विष्णु परमपद) के चरणों में (गोद में) डाल दीजिये बस और वे माता महामाया भी वात्सल्यमयी होकर पुत्र को श्री विष्णु चरण रूपी श्रेयमार्ग पर डालकर हमारा कल्याण कर देती है।
यह वेदिकों का मायावाद है। यही भक्ति मार्ग है। जहाँ लक्ष्य - मोक्ष पुरुषार्थ है और मार्ग - समर्पण। यह समर्पण तभी आता है जब हमें अपने प्रभु का बोध हो, हमें उनका ज्ञान हो कि हमारे प्रभु विष्णु है, वही ॐ हैं, वही परमात्मा हैं। और उनकी ही माया विद्या रूप में हमें उनतक पहूँचाने वाली है। इसी के लिए अन्तःकरण शुद्धि हेतु पञ्चमहायज्ञ का आलम्बन लेना है। पञ्चमहायज्ञ में ज्ञानयज्ञ के अन्तर्गत ही अष्टाङ्गयोग, जप -तप आदि सब आते हैं। ये कोई अलग विधाएँ नही है।
ज्ञानि भक्त का समर्पण कैसा होता है ? -- ज्ञानि भक्त के भाव ऐसे होते है -- हे प्रभु हर फेसला तेरा मुझे मञ्जूर है। जाँहि विधि राखे राम ताँहि विधि रहिये। है प्रभु मैं बस और बस आपका ही हूँ। न मैं आपके अलावा कुछ जानता समझता हूँ और न जानना समझना चाहता हूँ। बस तु ही तु है नाथ बस तु ही तु है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें