रविवार, 11 जून 2023

वास्तु और मुहूर्त।

वास्तुशास्त्र में ७० % भाग भूमि चयन का और ३०% भाग भवन निर्माण का होता है।
वास्तुशास्त्र और मुहुर्त उचित अनुचित दर्शाते हैं शुभ-अशुभ नही।
एक अच्छा आर्किटेक्ट सच्चा वास्तुशास्त्री होता है और एक अच्छा वास्तुविद ही अच्छा आर्किटेक्ट हो सकता है।
यदि भूखण्ड के उत्तर पूर्व में ढाल है, खुला है तो दक्षिण पश्चिम स्वतः उँचा होगा। परिणाम स्वरूप भूखण्ड और फर्श पर सदैव प्रातः काल की धूप मिलेगी। और सायंकाल की धुप से फर्श गर्म नही होगा।
यदि वायव्य कोण (उत्तर पश्चिम) खुला है और आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) में हवनकुण्ड, रसोई आदि है तो, गर्मी और धुँआ बाहर निकल जाएगा; न घर गर्म होगा न घर में धुँआ भरेगा। यही वास्तुशास्त्र/ आर्किटेक्चर है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर की छत उँची होनी चाहिए, मध्म भाग में खुला चौक होना चाहिए, जिसके चारों ओर कमरे हों जिसके दर्वाजे चौक में खुलना चाहिए। बाहर की ओर चारों ओर गलियारे हो, और खिड़कियाँ गलियारों में खुलना चाहिए ताकि, वायु का सहज आवागमन बना रहे और घर की गरम हवा उजालदान (वेण्टिलेटर) से निकल सके। पंखे से भी हवा ठण्डी मिले। ए.सी. की आवश्यकता ही न पड़े।
सम्भव हो तो मुख्यद्वार के अलावा पार्श्व में भी एक द्वार होना चाहिए, मतलब कॉलोनी ऐसे डिज़ाइन हो कि, प्रत्येक मकान कार्नर वाला हो। मूख्य सड़क घर के पूर्व में हो अर्थात मुख्य द्वार पूर्व में हो और  तथा छोटी सड़क उत्तर या दक्षिण में हो। उत्तर वाली सड़क के मकान को ईशान कोण खुला मिलेगा तथा दक्षिण में छोटी सड़क वाले मकान को ठण्ड में भी घर में धूप मिलेगी। पश्चिम में पिछवाड़ा होना अच्छा रहता है। जहाँ दिनभर धूप रहने से गन्दगी और सीलन नही रहती। 
ऐसे तार्किक और वैज्ञानिक आधार वाले वास्तुशास्त्र को अल्पज्ञों नें शुभाशुभ से जोड़ कर ढकोसला बना दिया।

ऐसे ही मुहुर्त किसी कार्य के लिए अनुकूल और उचित समय को कहते हैं न कि, शुभ समय को।
किसी कार्य विशेष के लिए उचित अनुचित काल दर्शक मुहुर्त शास्त्र कहलाता है। न कि, शुभाशुभ काल दर्शक।
वर्षा ऋतु में समारोह करना दुष्कर कार्य है, अतः वर्षा ऋतु में विवाह आदि निषिद्ध हैं, यह मुहुर्त है। 
वैदिक काल में अमावस्या का दुसरा दिन अर्थात प्रतिपदा, एकाष्टका अर्थात शुक्ल पक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा,अमावस्या, अर्धचन्द्र दिवस अष्टका अर्थात कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथियों का ही उल्लेख मिलता है। दस दिनों का दशाह शब्द अवष्य मिलता है; लेकिन, वारों का उल्लेख नही मिलता है। एक निश्चित रेखिक आकृति बनानें वाले २७ और अट्ठाइस तारा समुह को नक्षत्र कहते थे, जो असमान भोगांश वाले, वास्तविक नक्षत्र थे, न कि, १३°२०' के निश्चित भोगांश वाले वर्तमान काल्पनिक नक्षत्र। राशियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। 
जब सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर आकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता था, वसन्त विषुव दिवस से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास आरम्भ होता था। उस दिन दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति जब सूर्य ठीक कर्क रेखा पर होता था, जब सबसे बड़े दिन और  सबसे छोटी रात होती है, उज्जैन में ठीक मध्याह्न में वृक्षों की छाँया सबसे छोटी होती है मनुष्य की छाँव उसके कदमों मे होती है, उस दिन उत्तर तोयन होता था।
जब सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर आकर दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करता था, शरद विषुव दिवस से दक्षिणायन, शरद ऋतु और ईष मास आरम्भ होता था। उस दिन दिन रात बराबर होते हैं, दक्षिण ध्रुव पर सूर्योदय होता है, उत्तर ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति जब सूर्य ठीक मकर रेखा पर होता था, जब सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात होती है, उस दिन दक्षिण तोयन होता था।
सूर्य की सायन संक्रान्तियों से मधु, माधव, शुक्र, शचि, नभः, नभस्य, ईष, उर्ज, सहस, सहस्य, तपः,और तपस्य मासारम्भ होते थे; जिसे व्यवहार में अगले सूर्योदय से प्रारम्भ मानते थे।  सायन सौर मास और असमान भोगांश वाले वास्तविक नक्षत्र में चन्द्रमा स्थित होनें पर, अथवा सायन सौर मास और प्रतिपदा, एकाष्टका, पूर्णिमा, अष्टका या पूर्णिमा को  व्रत, पर्व, उत्सव मनाये जाते थे।
तदनुसार दक्षिण भारत में बसने, मध्य भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण पौराणिकों नें सायन मकर संक्रांति से अर्थात उत्तरायण प्रारम्भ किया गया, अर्थात दक्षिण तोयन को उत्तरायण नाम देकर, उत्तरायण तीन माह पहले ही प्रारम्भ करने लगे, सायन मीन अर्थात तपस्य मास को मधुमास नाम देकर वसन्तादि ऋतुएँ एक माह पहले प्रारम्भ की गई। सायन सौर मासों के स्थान पर चान्द्रमासों को महत्व दिया गया। चैत्र वैशाख आदि अमान्त मास के स्थान पर पूर्णिमान्त मास लागु किया गया। व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार तिथियों से मनानें लगे। ता कि, मध्यभारत और दक्षिण भारत में वैदिक उत्तरायण में होने वाले वर्षाकाल में मुहुर्त टाले जा सके। और वर्षा के पहले और बाद में विवाह आदि होने लगे।
इस प्रकार वर्तमान मुहुर्तशास्त्र का जन्म हुआ, जिनमें वैदिक परम्परा का पूर्ण लोप कर दिया गया।
ऐसे ही मात्र चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर गुण मिलान कहाँ तक उचित है उसका आधार क्या है कोई नहीं जानता। बस मिलाना है, लोगों की श्रद्धा है इसलिए बतलाना पड़ता है।
बारह भाव (खानों) में से पाँच भाव (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश भाव) में मंगल हो तो कुण्डली मांगलिक कहलाती है। यह दोष वर की कुण्डली में हो तो वधु के जीवन पर संकट होना माना जाता है और वधु की कुण्डली में हो तो वर के  जीवन को संकट होता है ऐसा कहा जाता है। क्योंकि इन भावों में बैठा मंगल या तो जीवनसाथी के भाव यानी सप्तम भाव या परिवार के भाव (द्वितीय भाव) पर दृष्टि डालता है या सप्तम भाव में ही स्थित होता है।
इस दोष का परिहार (दोष हरण) यह है कि, वर की कुण्डली में मांगलिक दोष हो तो वधु भी ऐसी ही ढूंढो जिसकी कुण्डली में मांगलिक दोष हो। या वधू की कुण्डली में मांगलिक दोष हो तो वर ऐसा ढूंढो जिसकी कुण्डली में मांगलिक दोष हो। यदि इन (1,4,7,8,12) भावों में मंगल न हो तो शनि हो, या सूर्य या राहु-केतु में से कोई एक तो हो ही।
साधारण ज्योतिषी यह नहीं जानते कि मंगल यदि मेष (स्वग्रही), कर्क (नीच), वृश्चिक (स्वग्रही) या मकर (उच्च) राशि में स्थित हो तो भी कुण्डली का मांगलिक दोष हरण हो जाता है। ऐसे ही सामने वाले (वर/वधु) की कुण्डली में तृतीय, षष्ट या एकादश स्थान पर भी मंगल हो, शनि हो, या सूर्य या राहु-केतु में से कोई एक हो तो भी सामने वाले (वर/वधु) की कुण्डली के मांगलिक दोष का परिहार (परिहरण) हो जाता है।
इतने में से कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है। न मिले तो सामने वाले की कुण्डली में चन्द्रमा से इन्ही भावों में मंगल शनि आदि कोई ग्रह होगा तो भी चलेगा। कुछ तो सूर्य से भी इन भावों में मंगल हो तो परिहार मान लेते हैं।
ये कुछ भी न मिले तो वधु की अधिक अवस्था (पच्चीस से अधिक) होगई तो भी चलेगा। और फिर पण्डित जी पूजा करवा कर मंगल को शान्त (चूप) कर ही देंगे।
हर सत्ताइस दिन में से औसत 24 घण्टा 17 मिनट 9.317 सेकण्ड तक चन्द्रमा एक नक्षत्र पर रहता है।
यह भी वास्तविक वैदिक नक्षत्र नहीं है। वैदिक नक्षत्र के भोगांश अलग-अलग होते हैं, एक समान नहीं फिर भी यदि एक अकेले चन्द्रमा के नक्षत्र में स्थिति और उक्त मांगलिक दोष के आधार पर ही वैवाहिक जीवन जाँचा जा सकता है तो कुण्डली बनवाना व्यर्थ है।
जन्म समय में चन्द्रमा जिस राशि में हो उससे बारहवीं राशि, उसी राशि और दूसरी राशि में शनि का भ्रमण चल रहा हो तो साढ़ेसाती कहलाती है। अर्थात साढ़ेसात वर्ष तक समय अशुभ ही रहेगा। समुद्र में बहकर किसी टापू पर रहने वाले, सुरंग में दब जाने वाले, कैंसर जैसे रोग और कोमा में पड़े लोगों को छोड़ दो तो मैंने तो किसी के जीवन में लगातार साढ़े सात वर्ष भी ऐसा कोई संकट नहीं देखा। अधिकांश को तो साढ़े सात घण्टे का भी लगातार कोई कष्ट नहीं होता है।
इसी प्रकार जन्म समय में चन्द्रमा जिस राशि में हो उससे चतुर्थ या अष्टम् राशि में शनि का भ्रमण चल रहा हो तो ढय्या कहलाती है। अर्थात ढाई वर्ष तक समय अशुभ ही रहेगा। 
मतलब केवल चन्द्रमा हर सत्ताइस दिन में से लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है उस अवधि में जन्मे  सबका ही समय एक समान बीतेगा। हर चौबीस घंटे में लगभग डेढ़ घण्टा से ढाई घण्टे के बीच एक ही लग्न में जन्मे लोगों का ग्रहों का भ्रमण (गोचर) समान ही होगा। उनका भी समय एक सा नहीं होता तो सवा दो दिन में जन्मे लोगों का समय एक समान कैसे हो सकता है?

मुहूर्त में ही काम करना हो तो बहुत पहले से प्लान करना पड़ती है।
विवाह में लड़की के गुरु ब्रहस्पति शुभ अशुभ पूरे साल तक रहते हैं इसलिए दो-तीन साल पहले से विचार करना चाहिए।
मुण्डन संस्कार का विचार भी जन्म के बाद ही कर लेना चाहिए, उपनयन (जनेऊ) संस्कार के विचार भी जन्म के तीन- चार वर्ष बाद ही कर लेना चाहिए। गृहारम्भ का विचार सालभर पहले और गृह प्रवेश का विचार गृहारंभ के बाद ही कर लेना चाहिए।
वाहध कृय, दुकान खोलने आदि के विचार लगभग चार-छः महिने पहले ही करना चाहिए।

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