सोमवार, 19 जून 2023

सृष्टि का कारण।

सृष्टि की रचना ही क्यों हुई ? प्रथम जीव या मनुष्य को जन्म ही क्यों लेना पड़ा ? जबकि, प्रथम जीव/ मनुष्य के जन्म के पूर्व तो संचित तो था ही नहीं, तो प्रारब्ध कैसा ? प्रथम जन्में जीव/ मनुष्य का प्रारब्ध कैसे निर्धारित हुआ होगा? हमें इस आवागमन के चक्कर में क्यों पड़ना पड़ा?
ऐसे और भी बहुत से प्रश्न बन सकते हैं।
आइये इसपर विचार करते हैं।

 सृष्टि की रचना ही क्यों हुई ? प्रथम जीव/ मनुष्य को जन्म ही क्यों लेना पड़ा ?

तार्किक के लिए यह विश्व का सबसे कठीन प्रश्न और भक्त के लिए यह सबसे सबसे सरल प्रश्न है।
परमात्मा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप उत्पन्न जैविक  और जड़ जगत रूपी यह सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है।
सृष्टि, स्थिति और लय उस परमात्मा का मौज है, लीला है। 

पूरुष सूक्त,उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, अस्यवामिय सूक्त तथा नासदीय सूक्त कहते है कि,.....

परमात्मा के ॐ संकल्प के साथ ही शाश्वत अमर चेतना नें चेतन से जड़त्व की और स्वतः यात्रा आरम्भ की। तीन चौथाई शाश्वत अमर चेतना बनी रही जबकि, एक चौथाई में ही अर्थात कल्याण स्वरूप ॐ संकल्प में प्रकट जड़-चेतन जगत उत्पन्न हुआ। उसमें भी विशेषता यह है कि, जड़ जगत से चेतन जगत थोड़ा सा (दशाङ्गलम्) वाह्य (बाहर) है। 
(जैसे भूमि पर जन्तु वनस्पति भूतल से उपर हैं। चाहे वे गहरे समुद्र में हो या ज्वालामुखी में हो लेकिन अधिकांशतः भूतल पर ही है। कुछेक भूमि के अन्दर भी रहते है पर वे भी भूतल पर आते रहते हैं।)

फिर इस ॐ संकल्प ने भी स्वयम् को ही (औरकम चेतन स्वरूप में अर्थात)  प्रज्ञात्मा  स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक रूप से यह परब्रह्म कहलाता है। ये प्रज्ञात्मा/ परब्रह्म ही नियन्ता हैं। 
प्रज्ञात्मा को समझने के लिए  दिव्य परम पुरुष तथा परा प्रकृति के युग्म के रूप में बतलाया जाता है। दिव्य परम  पुरुष-परा प्रकृति को  विष्णु और माया के आधिदैविक युग्म में बतलाया गया है। ये परमेश्वर हैं।
यहाँ विष्णु और माया का स्वरूप सूर्य और प्रकाश के रूप में समझा जाता है। या आकाश और व्याप्ति के अर्थ में समझ सकते हैं। अर्थात प्रथम सगुण स्वरूप और उसका गुण। पौराणिक इन्हें शालिग्राम के रूप में तुलसी क्यारी में रखकर पूजते हैं।

प्रज्ञात्मा परब्रह्म नें स्वयम् को प्रत्यगात्मा  स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से ब्रह्म कहा जाता है। प्रत्यगात्मा/ ब्रह्म विधाता ये हैं। इनका विधान ऋत है।
प्रत्यगात्मा को पुरुष और प्रकृति के रूप में जाना जाता है।  जिसे आधिदैविक दृष्टि से सवितृ- सावित्री कहा जाता है। ये महेश्वर हैं, महाकाश हैं।
पौराणिकों के श्री हरि और  कमला देवी (कमलासना) ये ही हैं। इन्हें पुष्कर के ब्रह्म सावित्री के रूप में भी पूजा जाता है। इनकी विशेषता है कि, दोनों को अलग-अलग कमल पर खड़े हुए  बतलाया जाता है।
यह प्रथम चिन्तनीय स्वरूप है। भौतिक वैज्ञानिक भाषा में तरङ्गाकार या कूटाकृति के रूप में समझ सकते हैं। वैसे यह भी वास्तविक सत्य नहीं है।
प्रत्येक जड़-चेतन का व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा ही है। अर्थात ये प्रत्येक की इण्डिविज्वलिटि है।

प्रत्यगात्मा नें स्वयम् को औरकम चेतन स्वरूप जीवात्मा के रूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से अपरब्रह्म कहा जाता है। जीवात्मा/ अपरब्रह्म को विराट कहा जाता है। 
ये प्रथम साकार स्वरूप हैं। इन्हें पूर्णतः तरङ्गाकार और दीर्घ गोलाकार (लगभग तरङ्गों से बना अण्डाकार स्वरूप) में समझा जा सकता है। 
समझने के लिए जीवात्मा को अपर पुरुष और अपरा प्रकृति या जीव और आयु के अध्यात्मिक युग्म के रूप में बतलाया जाता है। इसे ही नारायण-श्री, लक्ष्मी के आधिदैविक युग्म में बतलाया गया है। ये जगदीश्वर हैं, महाकाल हैं। अर्जून को महाभारत में इस स्वरूप के दर्शन हुए थे।
जैसे इण्टरनेट जेनेरेशन करनें वाला  ऑस्सीलेटर (Oscillator) का क्वार्ट्ज (Quartz)/ क्रिस्टल (Crystal)  वाईव्रेट होता रहता है। और फ्रिक्वेंसी क्रिएट करता है। 
वैसे ही प्रत्यगात्मा भी कभी प्रज्ञात्म भाव की ओर झुकता है कभी जीवभाव की ओर झुकता है। 
जैसे केरियर (Carrier) का काम करने वाली इन्टरनेट तरङ्गे ध्वनि पिक्सल आदि सिग्लन को वहन करती है वैसे ही प्रत्यगात्मा भी जीवभाव को प्राप्त होकर कर्मफलों को एक जन्म से दुसरे जन्म तक वहन करता है।
गुरु पर पूर्ण समर्पण/ ईश्वर प्राणिधान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय, विवेक पूर्वक एकाग्र चिन्तन और अभ्यास से इसे प्रज्ञात्मभाव में स्थिर रखा जा सकता है। फिर गुरुमुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण से आत्मज्ञान होते ही जीवभाव का लय हो कर प्रज्ञात्म भाव में स्थित हो जाता है। यही सद्योमुक्ति है।
अर्थात सद्योमुक्त स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप में देखता है जबकि, बन्धन में बन्धा स्वयम् को अधिक से अधिक जीवात्मा समझता है। 
निम्न श्रेणी के जीव स्वयम् को सुत्रात्मा, विज्ञानात्मा, ज्ञानात्मा, लिङ्गात्मा, मनसात्मा या स्व तक समझते हैं। यही आर्यत्व और म्लैच्छत्व में भेद प्रकट करता है।
(ध्यान रखें एक ही परिवार में आर्य और म्लैच्छ, देवता और असूर, ऋषि-मुनि और मतिभ्रमित सभी प्रकार के जन हो सकते हैं। इसे जातिगत दृष्टि से न देखा जाये। उदाहरण हिरण्यकशिपु और प्रहलाद एक ही परिवार के सदस्य थे तथा विश्रवा, रावण और विभिषण सब एक ही परिवार के सदस्य थे।)

जीवात्मा ने स्वयम् को भूतात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से हिरण्यगर्भ कहा जाता है। वास्तविक विश्वकर्मा या आदि विश्वकर्मा भूतात्मा हिरण्यगर्भ ही हैं।  इन्हें दीर्घ गोलाकार रूप में समझा जा सकता है। भूतात्मा को प्राण (चेतना) और धारयित्व (धृति) के रूप में जाना जाता है।
आधिदैविक दृष्टि से ये त्वष्टा और रचना कहलाते हैं। त्वष्टा ने ही सृष्टि के गोले सुतार की भाँति घड़े थे। ये (केवल) ईश्वर हैं अर्थात ईश्वरत्व के अधिकार की दृष्टि से ये सबसे छोटे अधिकारी हैं। ये महादिक हैं।
त्वष्टा-रचना तथा प्रजापति के अलावा हिरण्यगर्भ की मानस सन्तान  सनक,सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन,नारद तथा अर्धनारीश्वर एकरुद्र कहे गये हैं।

भूतात्मा वें स्वयम् को सुत्रात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक दृष्टि से इन्हें प्रजापति कहा जाता है। ये ब्रह्माण्ड स्वरूपी हैं अतः इन्हें (वास्तविक) विश्वरूप कहा जाता है। 
सुत्रात्मा को ओज- आभा या रेतधा-स्वधा के रूप में जाना जाता है। प्रजापति को दक्ष प्रजापति (प्रथम)- प्रसूति, रुचि प्रजापति-आकुति और कर्दम प्रजापति-देवहुति के रूप में जानते हैं। ये ही मैथुनिक सृष्टि के आरम्भ कर्ता हैं। 
 दक्ष प्रजापति (प्रथम)- प्रसूति, रुचि प्रजापति-आकुति, कर्दम प्रजापति-देवहुति के अलावा प्रजापति की मानस सन्तान मरीचि-सम्भूति, भृगु-ख्याति, अङ्गिरा-स्मृति, वशिष्ठ-उर्ज्जा, अत्रि-अनसुया, पुलह-क्षमा, पुलस्त्य-प्रीति तथा स्वायम्भूव मनु- शतरूपा नामक भूस्थानि प्रजापति गण हुए। 
तथा रुद्र- रौद्री (शंकर-उमा),तथा पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति (देवता) हुए।
इन्द्र- शचि, अग्नि-स्वाहा, धर्म- (धर्म की तेरह पत्नियाँ) श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि,मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति नामक  पत्नियाँ देवलोक/ स्वः स्थानी प्रजापति (स्वर्ग के देवगण) हुए।
इन सबने मिलकर मैथुनिक सृष्टि का आरम्भ किया।

इस प्रकार चेतना की अल्पचेतना या जड़ता की और यात्रा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप सृष्टि की रचना  हुई । इसी क्रम में प्रथम जीव या मनुष्य जन्मा।
उसका न कोई सञ्चित था न प्रारब्ध था। वह सीधा ऋत से सञ्चालित था। 
किन्तु उसने  जीव भाव की ओर झुकाव द्वारा कर्मफल सञ्चित कर लिया। जो आगामी जन्म के लिए प्रारब्ध भी बना। और चक्र आरम्भ हो गया। इस प्रकार कर्मासक्ति और कर्मफलासक्ति के माध्यम से सञ्चित बढ़ते गये और प्रारब्ध बनता गया।

प्रथम जन्में जीव अधिकांश तो निवृत्त होगये। अर्थात वे अन्तरात्मा से जीवभाव की और प्रवृत्त ही नहीं हुए। अतः उनका कोई कर्म बना ही नहीं।
इस कारण प्रत्यगात्मा से भी निचले स्तर जीवात्मा का विकास हुआ। तब भी अधिकांश तो निवृत्त ही रहे। इसी बात को पुराणों में कहा जाता है कि, नारद जी ने न उन्हें निवृत्ति की ओर प्रेरित कर दिया जो प्रवृत्त हुए अपनी अपनी जाति-प्रजाति के प्रजापति ही रहे। उनके द्वारा किये गये कर्मानुसार उनके आगामी जन्म हुए।
उस समय चूँकि, जनसंख्या नगण्य थी। और पालक स्वयम् ईश्वर थे, अतः  कोई संघर्ष या क्लेश था ही नहीं। वे अपने राजा स्वयम् थे। स्वानुशासित थे। पर धीरे धीरे कामना, लगाव/ आसक्ति, बढ़ती गई, जीव अहन्ता-ममता की ओर अग्रसर होता गया।
इसका वर्णन सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त और सृष्टि उत्पत्ति क्रम और कर्म के वर्णन में उपलब्ध है।

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