पुज्य गुरुदेव आचार्य स्व.श्री भास्करराव गजानन राव करमलकर से मुझे वैदों के विषय में बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ, और वैदिक शब्दों के अर्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ। वे पहले सुतार गली इन्दौर में निवास करते थे और बी.टी.आई. आलिराजपुर में प्राचार्य पद पर पदस्थ थे। बाद में उन्होंने सुदामा नगर इन्दौर निवास स्थान बनाया।
वे मुझे उनके पुज्य पिताश्री का वचन हमेशा बतलाया करते थे कि,
*" जिन्हें एकबार बुद्ध का भूत लग गया, वे उससे कभी उबर नहीं पाते हैं।"*
अर्थात जिन्हें सन्देह करनें की आदत लग जाए, सोच- विचार - चिन्तन कर सांसारिक जीवन की समस्याओं का हल खोजते खोजते जिन्हें जगजीवनराम (जगत, जीव और ब्रह्म) के विषय में भी अध्ययन कर चिन्तन करके निष्कर्ष निकालने की आदत पड़ जाए, वे कभी सोचना बन्द नही करपाते। और सत्य का साक्षात्कार रूपी वैदिक दर्शन तभी प्राप्त होता है जब सोचना बन्द कर दिया जाए। लेकिन इसलिए ऐसे संशयात्मा सदा उलझे ही रहते हैं।
यही बात श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, संशयात्मा विनश्यति ४/४० एवम्
बहुत से शास्त्रों के अध्ययन से तेरी बुद्धि विचलित हो गई है।२/४२ से ४४ तक एवम् २/५३ ।
ये लोग अहंकार पर ही ध्यान केंद्रित रखते हैं, अहंकार का ही पुनर्जन्म मानते हैं। अहंकार से मुक्त होने के लिए, अन्तः करण शुद्धि हेतु यज्ञ, योग, तप रूपी दैहिक कर्म अर्थात भौतिक साधन खोजते रहते हैं।
अहंकार का वास्तविक अस्तित्व ही नही है, तो उसकी चिन्ता क्या? और चिन्तन क्यों?
ऐसे ही उपकरण, वाह्य करण, अन्तः करण, अभिकरण, अधिकरण सभी करण हैं तो जड़ पदार्थ ही ना? ये कभी शुद्ध हो ही नही सकते। शुद्ध तो केवल आत्मा/ परमात्मा ही है, जो कभी अशुद्ध होता ही नही, इसलिए उसे शुद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं होती।
वे माध्यमिक , योगाचारी और वज्रयानी बौद्ध यह नही समझ पाते हैं कि, नाश उसी का होता है जो वस्तुतः है ही नही। तो अहंकार के नाश की चिन्ता क्यों ? अन्तःकरण शुद्धि की चिन्ता क्यों?
इन जड़ पदार्थों की चिन्ता पालकर जड़त्व ही प्राप्त होना है; चेतन नही। इससे तो केवल निद्रा आलस्य रूप तमोगुण ही बढ़ेगा।
परम चेतन को स्मरण रखें तो चैतन्य बना रहे।
जो भजे हरि को सदा, वही परम पद पाएगा,वही परम पद पाएगा।
जबकि, श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट बतलाया है कि, सृष्टि के आदि में प्रजापति ने सृष्टि रचकर देवताओं और मनुष्यों को कहा कि, हे मनुष्यों, तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, इसके बदले देवता तुम्हें भोग्य पदार्थ प्रदान करेंगे। यज्ञ किये बगेर भोग निश्चय ही चोरी है। अध्याय ३/१०
अर्थात पेड़,पौधे, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, कीट-पतङ्ग से लेकर मानव, और देवयोनियों सहित सम्पूर्ण जगत की सेवा रूप पूरे पर्यावरण की रक्षा और सुचारू व्यवस्था बनाए रखने के लिए पञ्चमहायज्ञ करें। ऐसे ही छटे अध्याय श्लोक ११ से ३२ तक में अष्टाङ्गयोग के ध्यान योग का उपदेश दिया है, सृष्टि उत्पत्ति के लिए तो स्वयम् प्रजापति , हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और नारायण तक को तप करना पड़ा। मतलब यज्ञ, योग और तप ये तो सबके लिए अत्यावश्यक कर्तव्य हैं। इनके न करनें में दोष है, करना तो है ही।
इन लोगों के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक ३४ में सत्सङ्ग करने की विधि बतलाकर सत्सङ्ग करने का उपदेश दिया था ।
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