सोमवार, 19 जून 2023

वेदान्तियों का काल

निम्बार्काचार्य (स्वाभाविक भेदाभेद)(ईसापूर्व ३०९६ ई.पू. वैदुर्यपत्तनम/ मुंगीपैठन -ओरङ्गाबाद महाराष्ट्र )

आद्य शंकराचार्य जी का सही समय ५०९ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व का है।
कुछ लोगों के मतानुसार शंकराचार्य (अद्वैत) (कलियुग संवत २६३१ अर्थात ईसापूर्व ५०७ ई. पू. कालड़ी केरल में जन्में और  कलियुग संवत २६६३ अर्थात ४७५ ई.पू. केदारनाथ उत्तराखण्ड) में देह त्याग किया।
कामकोटि पीठके ३८वें आचार्य चिदम्बरम वासी श्री विश्वजी के पुत्र आचार्य श्री अभिनवशंकर जी ७८७ ईस्वी से ८४० ईस्वी तक ५३ वर्ष विद्यमान रहे। वे ३० वर्ष तक जगन्नाथ पुरी के गोवर्धन मठ के शंकराचार्य के पद पर रहे।इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 
वर्तमान इतिहासकार इन्हीं शंकराचार्य अभिनवशंकर जी को आद्य शंकराचार्य बतलाते हैं और उनका काल ७८८ - ८२० ई. का बताते हैं। 

वसुगुप्त का शिव सुत्रोक्त त्रिक दर्शन (८६०ई. से ९२५ई.) ।

रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) परम्परा अनुसार रामानुजाचार्य का जन्म १२५७ ईसापूर्व श्रीपेरंबदूर में हुआ और देहत्याग ११३७ ईसापूर्व में श्रीरङ्गम तमिलनाडु में हुआ। 
लेकिन आधुनिक मतानुसार १०१७ श्रीपेरंबदूर से ११३७ श्रीरङ्गम।

मध्वाचार्य (द्वैत)(१२३८ पाजक (उडुपी) से १३१७ उडुपी कर्नाटक)

रामानन्दाचार्य (भक्ति आन्दोलन) (१४०० प्रयागराज से १४७६ वाराणसी)

वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैत) (१४७९ चम्पारण रायपुर से १५३१ वाराणसी)

श्री कृष्ण चेतन्य महाप्रभु (अचिन्त्य भेदाभेद)(१४८६ नवद्वीप से १५३४ जगन्नाथ पुरी)

विभिन्न मत - सम्प्रदायों की आवश्यकता और प्रासङ्गिकता को सिद्ध करने के लिए यों कहा जा सकता है कि,
निम्बार्काचार्य जी के वैदिक संहिताओं, उपनिषदों  के आधार पर प्रस्तुत स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन के द्वैधिभाव से असन्तुष्ट जनों के लिए और बौद्धों और जैनों द्वारा भटकाये गये वैदिक लोगों को वेद विरोधी भटकाव से रोक कर वापस वैदिक मत में लाने के लिए शंकराचार्य जी ने वैदिक संहिताओं, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराणादि स्मृतियों के आधार पर अद्वैत वेदान्त दर्शन प्रस्तुत कर लोगों को  बचाया।
वसुगुप्त (८६०ई. से ९२५ई.) ।
इससे अप्रसन्न तान्त्रिकों नें सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा और शुन्यवाद एवम विज्ञान वाद मिला कर अद्वैत वेदान्त का भ्रमोत्पादक त्रिक दर्शन वसुगुप्त ने सतहत्तर श्लोक का शिव सुत्र रचकर दिया (८६०ई.-९२५ई.) । जिससे वैदिक देवता शिव के नाम के कारण आस्तिक जन भी सन्तुष्ट रहें।
अभिनव गुप्त (९५० ईस्वी कश्मीर से १०१६ ईस्वी तक मंगम कश्मीर ) ने विभिन्न आगम सिद्धान्तों और पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ रूप में मान्य अनुत्तरषडर्धक्रम (त्रिक) परम्परा में पद्धति और प्रक्रिया का ग्रन्थ तन्त्रालोक रचा।
इस प्रयास को देखकर दृविड़ आलवार सन्त यामुनाचार्य ने ब्राह्मण रामानुजाचार्य को प्रस्तुत किया जिननें कृष्ण यजुर्वेद, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराण को आधार बनाकर कर वैष्णव भक्ति प्रधान तथा सरल विशिष्टाद्वैत दर्शन प्रस्तुत किया।
उक्त अति शास्त्रिय मत समझ न पानें वाले आस्तिक वैष्णव भक्त जनों को सन्तुष्ट रखनें के लिए मध्वाचार्य जी ने भक्ति प्रधान द्वैतवाद प्रस्तुत किया।
रामानुज सम्प्रदाय के अनुयाई रामानन्दाचार्य नें  निर्गुण ब्रह्म मत प्रचारक कबीरदास जी उनके शिष्य/ अनुयाई नानक देव,सगुण मतावलम्बी और विभिन्न जातियों में उत्पन्न सन्त रविदास आदि अनेक सन्तों और वैष्णव भक्तों की श्रंखला खड़ी करदी।
लेकिन कुछ तान्त्रिक प्रवृत्ति के वैष्णव लोगों को त्रिक दर्शन पसन्द आनें लगा तो वल्लभाचार्य जी नें त्रिक दर्शन का वैष्णव स्वरूप शुद्धाद्वेत दर्शन प्रस्तुत कर दिया।  
उसी समय बङ्गाल में श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु ने भजनानन्दियों के लिए न्याय दर्शन के आधार पर अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन प्रस्तुत किया।
तो इन सबके बाद सबसे सफल 
इस प्रकार वेदिक धर्म रक्षार्थ सभी नें अपने स्तर पर प्रयत्न किया

सभी आस्तिक दर्शनों का आधार वेद ही होनें से पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग, और भक्ति भाव में सभी समान रूप से आस्थावान हैं यह कोई साम्य नही हुआ। क्योंकि मतभेद तत्व मीमांसा या ज्ञान मीमांसा में ही है। नीति दर्शन और उपासना पद्यति अविवादित विषय है।

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