१ सत मतलब अस्ति (है), अस्तित्व (हैपन), सत्य, वास्तविक।
असत कुछ होता ही नही। जो है वह सत ही है।
सत ऋत (परमात्मा के संविधान) से भी उच्चतर है। ऋत विश्वात्मा ॐ के निकटतम है। परमात्मा ही सत है।
सत अक्षर ब्रह्म होते हुए भी उससे भी परे साक्षात परमात्मा ही है।
सत के अलावा कुछ है ही नही अतः जो कुछ दिख रहा है, अनुभव हो रहा है वह सब वह परमात्मा अर्थात सत ही तो है।
अक्षर ब्रह्म तो प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष- प्रकृति) ब्रह्म (सवितृ- सावित्री) है।
इससे उत्कृष्ट प्रज्ञात्मा (परम दिव्य पुरुष- परा प्रकृति) परब्रह्म (विष्णु-माया) है।
इससे उच्चतर विश्वात्मा - परमात्मा का ॐ संकल्प है। इससे उच्चतर और सर्वोच्च परम आत्मा/ परमात्मा ही है। जो एकमात्र सत / सत्य है।
सत सदैव एकसा, समरस, अपरिवर्तनशील, अक्षर एकमेव, सर्वोत्कृष्ट, सर्वोच्च, सर्वोत्तम परमात्मा है।
जबकि अपरिवर्तनशील परमात्मा अर्थात सत का अपरिवर्तनशील, अटल संविधान ऋत है। लेकिन ऋत में धर्म के समान यदि और परन्तुक बहुत होनें से सदैव गतिशील ,अटल लेकिन अचल नही है। इसे एकसाथ पूर्णरूपेण समझ कर स्मरण रखना सबसे कठीन काम है। केवल लगभग आत्मज्ञ ही समझ पाते हैं।
शुन्य मतलब परम मध्य। न धनात्मक न ऋणात्मक। गुण साम्यावस्था।
अ शुन्य मतलब धनात्मक हो या ऋणात्मक लेकिन शुन्य से अनन्त के बीच की अवस्था। विषम, प्रकृति में विक्षेप की अवस्था ।
जो कुछ है सब सत ही है। यही इसका भौतिक स्वरूप है। जो कुछ है सब सत ही है, इसलिए सत के अतिरिक्त कुछ भी नही है, न सत के आगे कुछ है न सत के पीछे दाँये- बाँये, उपर- नीचे कुछ भी नहीं है। ऐसा समझा जा सकता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं भी तो सत ही है। नेति नेति।
सत स्थाई, स्थिर है इसीलिए सापेक्ष सबकुछ गतिशील है। इसलिए ऋत भी गतिशील है।
यही बात सत (परमात्मा) से असत (वास्तव में मिथ्या) जगत की उत्पत्ति और असत (केवल परमात्मा) से सत (वर्तमान स्वरूप में जगत) की उत्पत्ति है।
सत्य (परमात्मा) को जितना जान लिया उतने ही आप चेतन होते जाते हैं। और परमात्मा के निकट होते जाते हैं। आनन्दित रहते हैं। पूर्णतः जान लेनें पर परमात्मा ही रह जाता है।
परमात्मा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप उत्पन्न जैविक और जड़ जगत रूपी यह सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है।
सृष्टि, स्थिति और लय उस परमात्मा का मौज है, लीला है।
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