शुक्रवार, 30 जून 2023

महाभारत के अनुसार श्रीकृष्ण की एक पत्नी रुक्मिणी, पुराणों के अनुसार अष्टभार्या।

श्रीकृष्ण की पत्नियाँ
महर्षि श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास  अर्थात वेदव्यास जी की मुख्य, सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रामाणिक रचना महाभारत को ही माना जाता है। 
कहा जाता है कि, वेदव्यास जी ने पहले अत्यन्त गूढ़ भाषा में आठ हजार आठ सौ श्लोक मन में रचकर बाद में ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने का विचार किया। इन  अत्यन्त गूढ़ भाषा में रचित आठ हजार आठ श्लोकों के विषय में स्वयम् वेदव्यास जी नें लिखा है कि, इन श्लोकों के अर्थ  केवल मैं ( अर्थात स्वयम् वेदव्यास जी) और उनके पुत्र शुकदेव जी ही जानते हैं और शायद उनके शिष्य सुत जी कुछ के अर्थ जानते हों। 

लिपिबद्ध करने तैयारी होनें तक वेदव्यास जी बत्तीस हजार श्लोक बनाकर शुकदेव जी, सुतजी और वैशम्पायनजी को सुना चुके थे। यह जय संहिता कहलाती है। बत्तीस हजार श्लोक की जय संहिता का अर्थ वेदव्यास जी, शुकदेव जी, सुतजी और वैशम्पायनजी जी जानते थे। जिनमें से बहुत से कूट स्व. श्री ग. वा. कविश्वर जी नें महाभारत के तेरह वर्ष, महाभारत के गूढ़ रहस्य और गीता तत्व मीमांसा पुस्तक में उद्घाटित किये।
बाद में गणपति जी नें लिपिबद्ध करना स्वीकार कर लिया तो वेदव्यास जी ने विस्तृत ग्रन्थ की रचना की। जिसका नाम महाभारत रखा।
इस कारण कुछ लोगों की मान्यता है कि, वेदव्यास जी ने बत्तीस हजार श्लोक का जय संहता नामक इतिहास ग्रन्थ रचा था। जिसे बाद में वैशम्पायनजी नें विस्तार किया। और सुत जी ने वर्तमान एक लाख श्लोकों का महाभारत बना दिया। लेकिन इस मत का कोई आधार सिद्ध नहीं कर पाया।
विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर जी की रचना मानी जाती है। अन्य पुराणों के रचना काल भिन्न-भिन्न हैं। अतः अठारह पुराणों के रचयिता वेदव्यास को मानना केवल मान्यता तक सीमित है, प्रामाणिक नही है।
कुछ पुराणों के बारे में देवीभागवत के टीकाकार नें रहस्योद्घाटन किया था कि, तेलङ्गाना के विद्वान कवि बोपदेव श्रीमद्भागवत पुराण और वायु पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण नामक ग्रन्थ वेदव्यास जी के नाम से रच कर धारानगरी के राजा भोज (प्रथम) की राज्यसभा में पुरस्कार की आशा से उपस्थित हुए। लेकिन राजाभोज नें कहा कि, यदि ये ग्रन्थ आप अपने नाम से ही रचते तो मैं आपकी भरपूर प्रशंसा करता और भरपूर पुरस्कार से पुरस्कृत करता। लेकिन आपने महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर अपने मत को प्रकाशित कर घोर निन्दनीय और दण्डनीय प्रज्ञा अपराध किया है, अतः आपके इस कृत्य की घोर निन्दा करते हुए ब्राह्मण होनें के कारण आपको मृत्यु दण्ड के स्थान पर देश-निकाला के दण्ड से दण्डित   करता हूँ। 
भविष्य पुराण में अधिकांश घटनाओं का उल्लेख भूतकाल में किया गया है, जो स्पष्ट करता है कि, भविष्य पुराण समय समय पर संशोधित और परिवर्धित होता रहा। ऐसे ही अन्य पुराणों में भी महाभारत के बहुत बाद की घटनाओं का वर्णन भूतकाल में लिखा गया है। जिससे उनके रचनाकाल का अनुमान हो सकता है। अस्तु पुराणों में कथित तथ्यों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
महाभारत में जहाँ श्रीकृष्ण की एकमात्र भार्या के रूप में रुक्मिणी और उनके पुत्र प्रद्युम्न का नामोल्लेख ही मिलता है। न सत्रसेन यादव की पुत्री सत्यभामा का न जाम्बवन्त जी की पुत्री जाम्बवन्ती का न अन्य पाँच पत्नियों का। जबकि पुराणों में १ रुक्मणि, २ जाम्बवन्ती, ३ सत्यभामा, ४ कालिन्दी (यमुना नदी), ५ मित्रबिन्दा, ६ सत्या, ७ भद्रा और ८ लक्ष्मणा  अष्टभार्याओं का नामोल्लेख पाया जाता है। जिसका कोई आधार सिद्ध नहीं होता है।
अधिकांशतः पुराणों में भी केवल रुक्मिणी को ही श्रीकृष्ण की पट्टमहिषि (हिन्दी में पटरानी) कहा गया है लेकिन कई कथाकार आठ पटरानियों का उल्लेख करते हैं, जो निराधार है।

पुराणों की तो स्थिति यह है कि, ब्रह्मवैवर्त पुराण में तो श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी वृषभानु पुत्री राधा को बतला दिया और कहा गया कि, ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण के शैशव अवस्था में ही एकान्त वन में लेजाकर श्रीकृष्ण और उनसे चार वर्ष बढ़ी राधा का विवाह करवा दिया था। जिसे बाद में दोनों ही भूल गए। प्रामाणिक बतलाने के लिए यह वर्णन गर्गसंहिता में भी चिपका दिया गया।
फिर आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि, बाद में  श्रीकृष्ण की पालक माता और मौसी यशोदा जी के भाई रायण के साथ उसी राधा का विवाह होना बतला दिया। तदनुसार राधा श्रीकृष्ण की मामी हो गई। इसको उचित ठहराने के लिए गौलोक में रायण को श्रीकृष्ण का अंश बतला दिया गया। यदि रायण श्रीकृष्ण का अंश था तो रायण श्रीकृष्ण का पुत्रवत हुआ। तदनुसार राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधू हुई। 
ब्रह्मवैवर्त पुराण में  राधा और अन्य गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की कामक्रिड़ाओं के वर्णन पढ़कर आपको लगेगा कि, वात्स्यायन के कामशास्त्र पर आधारित कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। इससे अधिक अश्लील वर्णन अन्यत्र मिलना कठिन है।
महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, श्रीकृष्ण ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था (वय) में मथुरा चले गये थे और बाद में कभी ब्रज - गोकुल क्षेत्र में नहीं लौटे। इसनी कम अवस्था के बालक पर गोपियों के प्रति कामुकता का वर्णन पुराणों को अविश्वसनीय सिद्ध करता है।

पुराणों में लिखा कि,भौमासुर (नरकासुर) को प्राग्ज्योतिषपुर में मार कर भौमासुर (नरकासुर) द्वारा कैद की गई सौलह हजार कन्याओं को मुक्त कराया। उन राजकुमारियों नें मन ही मन श्रीकृष्ण का पति के रूप में वरण कर लिया। उन सोलह हजार राजकुमारियों ने श्रीकृष्ण से कहा कि, मातृ- पितृ कुल द्वारा नही अपनायें जानें, और इस कारण कोई विवाह भी नही करेगा उन कन्याओं की इस प्रार्थना पर सामाजिक कर्तव्य को देखते हुए श्रीकृष्ण नें इन सोलह हजार कन्याओं से अलग-अलग रूप धरकर एक साथ विवाह कर लिया। इसे शास्त्रीय जामा पहनाने के लिए कथावाचकों नें सोलह हजार रानियों को वैदिक ऋचाएँ बतलाना शुरू कर दिया। इनके अलावा भी सौ और राजकुमारियों से विवाह का भी उल्लेख किया जाता है।
जबकि श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ने विवाह उपरान्त भी श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति के उद्देश्य से बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। तब जाकर प्रद्युम्न को जन्म दिया।
श्रीमद्भागवत पुराण कथा में नाच - गान करवाने वाले, श्रीकृष्ण जन्मोत्सव और रुक्मिणी विवाह की नाट्य लीला करवा कर दहेज देने के नाम पर हजारों रुपए कमाने वाले कथावाचक तो श्रीकृष्ण की एकमात्र पटरानी के स्थान पर आठ पटरानियाँ बतलाने लगे हैं। पट्ट महिषी या पटरानी वह होती है जो राज्य सभा में राज सिंहासन पर राजन के साथ विराजित होती है। अब एक राजा आठ पटरानियों के साथ राजसिंहासन पर कैसे बैठेगा! यह तो कथावाचक ही समझा सकते हैं।
उनके चेले (श्रोता) उनसे आगे बढ़कर सोशल मीडिया में श्रीकृष्ण की एक हजार एक सौ आठ पटरानियाँ बतलाने लगे हैं। अब उन्हें तो केवल ईश्वर ही ज्ञान प्रदान कर सकतें हैं।
अब ईश्वर ही धर्म की रक्षा करने में समर्थ हैं।

रविवार, 25 जून 2023

नमस्ते - नमस्ते, नमस्कार - नमस्कार, प्रणाम - शुभाशीर्वाद, और राम- राम - जय रामजी की का कोई विकल्प नहीं है।

नमस्ते - नमस्ते, नमस्कार - नमस्कार, प्रणाम - शुभाशीर्वाद, और राम- राम - जय रामजी की का कोई विकल्प नहीं है।
नमस्ते ऐसा अभिवादन है जो छोटे बड़ों के लिए नमन, बराबर वालों के लिए परस्पर अभिवादन और छोटों के लिए बड़ों को दिया गया उत्तर तीनों स्थानों पर वैदिक शास्त्रों में उपयोग किया गया है।
प्रमाण हेतु महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थ प्रकाश पढ़ियेगा। सभी आर्यसमाजी केवल नमस्ते का ही प्रयोग करते हैं।
आपने भी शालेय शिक्षण के समय अपने अध्यापकों को नमस्ते ही बोला होगा।
प्रातः उठकर और रात में सोनें के पहले संस्कारित बच्चे और युवा; बड़ों के चरण स्पर्श कर प्रणाम बोलते हैं। बड़े शुभाशीर्वाद या शुभाशीष कहकर उत्तर देते हैं।

आगन्तुक हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं तो आप भी उसके उत्तर में हाथ जोड़कर नमस्कार बोलते हैं। 
ग्रामीण परस्पर अभी भी हाथ जोड़कर राम-राम बोलकर ही परस्पर अभिवादन करते हैं। सामने वाला भी हाथ जोड़कर राम-राम बोलकर या जय श्रीराम बोल कर उत्तर देता है।

फोन पर हेलो शुरु हुआ, और कान्वेंट स्कुल और अंग्रेजी माध्यम शालाओं ने गुड मॉर्निंग सिखाया।
मोबाइल मैसेजिंग और विशेषकर व्हाट्सएप नें अकारण गुड मार्निंग और सु प्रभात प्रारम्भ करवा दिया।
हमारे यहाँ प्रातः काल शुभ ही माना जाता है, कोई आतंक नही था, अतः गुड मॉर्निंग/ सुप्रभात और गुडनाईट/ शुभरात्रि का चलन कभी रहा ही नही।

जो स्वाभाविक रूप से चल रहा था, उसे ही ही चलने देना ही उचित होगा।

ॐ वेदमन्त्र है। इसलिए ॐ का उच्चारण करते समय भी ध्यान रखना चाहिए कि, स्नान किये हुए, शुद्ध- पवित्र अवस्था में, स्वस्थ चित्त से, तीन सेकण्ड ओ तो एक सेकण्ड म् और म् को भी म्....... लम्बित स्वर में ही उच्चारण अर्थात उच्चारण में समय तीन अनुपात एक के नियम का पालन किया जाना चाहिए।
इस लिए ॐ और हरिॐ के विकल्प उचित नही है।
ॐ का उच्चारण नियमानुसार मर्यादा में ही किया जाना चाहिए। जैसे राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान को चाहे जब, चाहे जहाँ, और हर स्थिति में नहीं गाया जाना चाहिए ठीक वैसे ही नियम वेद मन्त्रों के लिए है।

जय श्री राम भी इसलिए उचित नही है क्योंकि, परम्परा यह है कि, राम- राम का उत्तर राम- राम या जय राम जी की बोल कर दिया जाता है। अतः नवीन प्रयोगों के बजाय परम्परा पालन ही उचित है।

सुसंस्कृत नगरीय व्यक्ति हेलो के स्थान पर नमस्ते से ही फोन वार्ता  और ई-मेल, प्रारम्भ कर नमस्ते से ही समाप्त करते हैं।
किसी ग्रामीण को फोन लगाएंगे तो वह सहज रूप से हेलो का उत्तर राम-राम बोलकर ही देगा। और स्वयम् फोन लगाएगा तो भी राम-राम ही बोलेगा।
अर्थात भारत में हेलो का भी परम्परागत विकल्प पहले से उपलब्ध है। उसके लिए किसी आई. टी. सेल को ए.सी. चेम्बर में बैठकर खोज करने की आवश्यकता नहीं है।
ये ए.सी.चेम्बर में बैठकर योजनाएं बनाने वाले नेता और अधिकारी तथा मीडियाकर्मी ही ऐसे बे सिर पैर के सुझाव देते रहते हैं कि, गुड मॉर्निंग की जगह जय श्रीराम, गुड नाईट की जगह सीताराम, ओके की जगह ओम का इस्तेमाल करें। तथा फोन पर हेलो के स्थान पर हरि ॐ बोलें।

सोमवार, 19 जून 2023

संशयात्मा विनश्यति।

पुज्य गुरुदेव आचार्य स्व.श्री भास्करराव गजानन राव करमलकर  से मुझे वैदों के विषय में बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ, और वैदिक शब्दों के अर्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ। वे पहले सुतार गली इन्दौर में निवास करते थे और बी.टी.आई. आलिराजपुर में प्राचार्य पद पर पदस्थ थे। बाद में उन्होंने सुदामा नगर इन्दौर निवास स्थान बनाया।
वे मुझे उनके पुज्य पिताश्री का वचन हमेशा बतलाया करते थे कि, 
*" जिन्हें एकबार बुद्ध का भूत लग गया, वे उससे कभी उबर नहीं पाते हैं।"
अर्थात जिन्हें सन्देह करनें की आदत लग जाए, सोच- विचार - चिन्तन कर सांसारिक जीवन की समस्याओं का हल खोजते खोजते जिन्हें जगजीवनराम (जगत, जीव और ब्रह्म) के विषय में भी अध्ययन कर चिन्तन करके निष्कर्ष निकालने की आदत पड़ जाए, वे कभी सोचना बन्द नही करपाते। और सत्य का साक्षात्कार रूपी वैदिक दर्शन तभी प्राप्त होता है जब सोचना बन्द कर दिया जाए। लेकिन इसलिए ऐसे संशयात्मा सदा उलझे ही रहते हैं।
यही बात श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, संशयात्मा विनश्यति ४/४० एवम्
बहुत से शास्त्रों के अध्ययन से तेरी बुद्धि विचलित हो गई है।२/४२ से ४४ तक एवम् २/५३
ये लोग अहंकार पर ही ध्यान केंद्रित रखते हैं, अहंकार का ही पुनर्जन्म मानते हैं। अहंकार से मुक्त होने के लिए, अन्तः करण शुद्धि हेतु यज्ञ, योग, तप रूपी दैहिक कर्म अर्थात भौतिक साधन खोजते रहते हैं। 
अहंकार का वास्तविक अस्तित्व ही नही है, तो उसकी चिन्ता क्या? और चिन्तन क्यों? 
ऐसे ही उपकरण, वाह्य करण, अन्तः करण, अभिकरण, अधिकरण सभी करण हैं तो जड़ पदार्थ ही ना? ये कभी शुद्ध हो ही नही सकते। शुद्ध तो केवल आत्मा/ परमात्मा ही है, जो कभी अशुद्ध होता ही नही, इसलिए उसे शुद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं होती।
वे माध्यमिक , योगाचारी और वज्रयानी बौद्ध यह नही समझ पाते हैं कि, नाश उसी का होता है जो वस्तुतः है ही नही। तो अहंकार के नाश की चिन्ता क्यों ? अन्तःकरण शुद्धि की चिन्ता क्यों?
इन जड़ पदार्थों की चिन्ता पालकर जड़त्व ही प्राप्त होना है; चेतन नही। इससे तो केवल निद्रा आलस्य रूप तमोगुण ही बढ़ेगा।
परम चेतन को स्मरण रखें तो चैतन्य बना रहे। 
जो भजे हरि को सदा, वही परम पद पाएगा,वही परम पद पाएगा।
जबकि, श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट बतलाया है कि, सृष्टि के आदि में प्रजापति ने सृष्टि रचकर देवताओं और मनुष्यों को कहा कि, हे मनुष्यों, तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, इसके बदले देवता तुम्हें भोग्य पदार्थ प्रदान करेंगे। यज्ञ किये बगेर भोग निश्चय ही चोरी है। अध्याय ३/१०
अर्थात पेड़,पौधे, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, कीट-पतङ्ग से लेकर मानव, और देवयोनियों सहित सम्पूर्ण जगत की सेवा रूप पूरे पर्यावरण की रक्षा और सुचारू व्यवस्था बनाए रखने के लिए पञ्चमहायज्ञ करें। ऐसे ही छटे अध्याय श्लोक ११ से ३२ तक में अष्टाङ्गयोग के ध्यान योग का उपदेश दिया है, सृष्टि उत्पत्ति के लिए तो स्वयम्  प्रजापति , हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और नारायण तक को तप करना पड़ा। मतलब यज्ञ, योग और तप ये तो सबके लिए अत्यावश्यक कर्तव्य हैं। इनके न करनें में दोष है, करना तो है ही।
इन लोगों के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक ३४ में सत्सङ्ग करने की विधि बतलाकर सत्सङ्ग करने का उपदेश दिया था ।

सृष्टि का कारण।

सृष्टि की रचना ही क्यों हुई ? प्रथम जीव या मनुष्य को जन्म ही क्यों लेना पड़ा ? जबकि, प्रथम जीव/ मनुष्य के जन्म के पूर्व तो संचित तो था ही नहीं, तो प्रारब्ध कैसा ? प्रथम जन्में जीव/ मनुष्य का प्रारब्ध कैसे निर्धारित हुआ होगा? हमें इस आवागमन के चक्कर में क्यों पड़ना पड़ा?
ऐसे और भी बहुत से प्रश्न बन सकते हैं।
आइये इसपर विचार करते हैं।

 सृष्टि की रचना ही क्यों हुई ? प्रथम जीव/ मनुष्य को जन्म ही क्यों लेना पड़ा ?

तार्किक के लिए यह विश्व का सबसे कठीन प्रश्न और भक्त के लिए यह सबसे सबसे सरल प्रश्न है।
परमात्मा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप उत्पन्न जैविक  और जड़ जगत रूपी यह सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है।
सृष्टि, स्थिति और लय उस परमात्मा का मौज है, लीला है। 

पूरुष सूक्त,उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, अस्यवामिय सूक्त तथा नासदीय सूक्त कहते है कि,.....

परमात्मा के ॐ संकल्प के साथ ही शाश्वत अमर चेतना नें चेतन से जड़त्व की और स्वतः यात्रा आरम्भ की। तीन चौथाई शाश्वत अमर चेतना बनी रही जबकि, एक चौथाई में ही अर्थात कल्याण स्वरूप ॐ संकल्प में प्रकट जड़-चेतन जगत उत्पन्न हुआ। उसमें भी विशेषता यह है कि, जड़ जगत से चेतन जगत थोड़ा सा (दशाङ्गलम्) वाह्य (बाहर) है। 
(जैसे भूमि पर जन्तु वनस्पति भूतल से उपर हैं। चाहे वे गहरे समुद्र में हो या ज्वालामुखी में हो लेकिन अधिकांशतः भूतल पर ही है। कुछेक भूमि के अन्दर भी रहते है पर वे भी भूतल पर आते रहते हैं।)

फिर इस ॐ संकल्प ने भी स्वयम् को ही (औरकम चेतन स्वरूप में अर्थात)  प्रज्ञात्मा  स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक रूप से यह परब्रह्म कहलाता है। ये प्रज्ञात्मा/ परब्रह्म ही नियन्ता हैं। 
प्रज्ञात्मा को समझने के लिए  दिव्य परम पुरुष तथा परा प्रकृति के युग्म के रूप में बतलाया जाता है। दिव्य परम  पुरुष-परा प्रकृति को  विष्णु और माया के आधिदैविक युग्म में बतलाया गया है। ये परमेश्वर हैं।
यहाँ विष्णु और माया का स्वरूप सूर्य और प्रकाश के रूप में समझा जाता है। या आकाश और व्याप्ति के अर्थ में समझ सकते हैं। अर्थात प्रथम सगुण स्वरूप और उसका गुण। पौराणिक इन्हें शालिग्राम के रूप में तुलसी क्यारी में रखकर पूजते हैं।

प्रज्ञात्मा परब्रह्म नें स्वयम् को प्रत्यगात्मा  स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से ब्रह्म कहा जाता है। प्रत्यगात्मा/ ब्रह्म विधाता ये हैं। इनका विधान ऋत है।
प्रत्यगात्मा को पुरुष और प्रकृति के रूप में जाना जाता है।  जिसे आधिदैविक दृष्टि से सवितृ- सावित्री कहा जाता है। ये महेश्वर हैं, महाकाश हैं।
पौराणिकों के श्री हरि और  कमला देवी (कमलासना) ये ही हैं। इन्हें पुष्कर के ब्रह्म सावित्री के रूप में भी पूजा जाता है। इनकी विशेषता है कि, दोनों को अलग-अलग कमल पर खड़े हुए  बतलाया जाता है।
यह प्रथम चिन्तनीय स्वरूप है। भौतिक वैज्ञानिक भाषा में तरङ्गाकार या कूटाकृति के रूप में समझ सकते हैं। वैसे यह भी वास्तविक सत्य नहीं है।
प्रत्येक जड़-चेतन का व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा ही है। अर्थात ये प्रत्येक की इण्डिविज्वलिटि है।

प्रत्यगात्मा नें स्वयम् को औरकम चेतन स्वरूप जीवात्मा के रूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से अपरब्रह्म कहा जाता है। जीवात्मा/ अपरब्रह्म को विराट कहा जाता है। 
ये प्रथम साकार स्वरूप हैं। इन्हें पूर्णतः तरङ्गाकार और दीर्घ गोलाकार (लगभग तरङ्गों से बना अण्डाकार स्वरूप) में समझा जा सकता है। 
समझने के लिए जीवात्मा को अपर पुरुष और अपरा प्रकृति या जीव और आयु के अध्यात्मिक युग्म के रूप में बतलाया जाता है। इसे ही नारायण-श्री, लक्ष्मी के आधिदैविक युग्म में बतलाया गया है। ये जगदीश्वर हैं, महाकाल हैं। अर्जून को महाभारत में इस स्वरूप के दर्शन हुए थे।
जैसे इण्टरनेट जेनेरेशन करनें वाला  ऑस्सीलेटर (Oscillator) का क्वार्ट्ज (Quartz)/ क्रिस्टल (Crystal)  वाईव्रेट होता रहता है। और फ्रिक्वेंसी क्रिएट करता है। 
वैसे ही प्रत्यगात्मा भी कभी प्रज्ञात्म भाव की ओर झुकता है कभी जीवभाव की ओर झुकता है। 
जैसे केरियर (Carrier) का काम करने वाली इन्टरनेट तरङ्गे ध्वनि पिक्सल आदि सिग्लन को वहन करती है वैसे ही प्रत्यगात्मा भी जीवभाव को प्राप्त होकर कर्मफलों को एक जन्म से दुसरे जन्म तक वहन करता है।
गुरु पर पूर्ण समर्पण/ ईश्वर प्राणिधान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय, विवेक पूर्वक एकाग्र चिन्तन और अभ्यास से इसे प्रज्ञात्मभाव में स्थिर रखा जा सकता है। फिर गुरुमुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण से आत्मज्ञान होते ही जीवभाव का लय हो कर प्रज्ञात्म भाव में स्थित हो जाता है। यही सद्योमुक्ति है।
अर्थात सद्योमुक्त स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप में देखता है जबकि, बन्धन में बन्धा स्वयम् को अधिक से अधिक जीवात्मा समझता है। 
निम्न श्रेणी के जीव स्वयम् को सुत्रात्मा, विज्ञानात्मा, ज्ञानात्मा, लिङ्गात्मा, मनसात्मा या स्व तक समझते हैं। यही आर्यत्व और म्लैच्छत्व में भेद प्रकट करता है।
(ध्यान रखें एक ही परिवार में आर्य और म्लैच्छ, देवता और असूर, ऋषि-मुनि और मतिभ्रमित सभी प्रकार के जन हो सकते हैं। इसे जातिगत दृष्टि से न देखा जाये। उदाहरण हिरण्यकशिपु और प्रहलाद एक ही परिवार के सदस्य थे तथा विश्रवा, रावण और विभिषण सब एक ही परिवार के सदस्य थे।)

जीवात्मा ने स्वयम् को भूतात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से हिरण्यगर्भ कहा जाता है। वास्तविक विश्वकर्मा या आदि विश्वकर्मा भूतात्मा हिरण्यगर्भ ही हैं।  इन्हें दीर्घ गोलाकार रूप में समझा जा सकता है। भूतात्मा को प्राण (चेतना) और धारयित्व (धृति) के रूप में जाना जाता है।
आधिदैविक दृष्टि से ये त्वष्टा और रचना कहलाते हैं। त्वष्टा ने ही सृष्टि के गोले सुतार की भाँति घड़े थे। ये (केवल) ईश्वर हैं अर्थात ईश्वरत्व के अधिकार की दृष्टि से ये सबसे छोटे अधिकारी हैं। ये महादिक हैं।
त्वष्टा-रचना तथा प्रजापति के अलावा हिरण्यगर्भ की मानस सन्तान  सनक,सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन,नारद तथा अर्धनारीश्वर एकरुद्र कहे गये हैं।

भूतात्मा वें स्वयम् को सुत्रात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक दृष्टि से इन्हें प्रजापति कहा जाता है। ये ब्रह्माण्ड स्वरूपी हैं अतः इन्हें (वास्तविक) विश्वरूप कहा जाता है। 
सुत्रात्मा को ओज- आभा या रेतधा-स्वधा के रूप में जाना जाता है। प्रजापति को दक्ष प्रजापति (प्रथम)- प्रसूति, रुचि प्रजापति-आकुति और कर्दम प्रजापति-देवहुति के रूप में जानते हैं। ये ही मैथुनिक सृष्टि के आरम्भ कर्ता हैं। 
 दक्ष प्रजापति (प्रथम)- प्रसूति, रुचि प्रजापति-आकुति, कर्दम प्रजापति-देवहुति के अलावा प्रजापति की मानस सन्तान मरीचि-सम्भूति, भृगु-ख्याति, अङ्गिरा-स्मृति, वशिष्ठ-उर्ज्जा, अत्रि-अनसुया, पुलह-क्षमा, पुलस्त्य-प्रीति तथा स्वायम्भूव मनु- शतरूपा नामक भूस्थानि प्रजापति गण हुए। 
तथा रुद्र- रौद्री (शंकर-उमा),तथा पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति (देवता) हुए।
इन्द्र- शचि, अग्नि-स्वाहा, धर्म- (धर्म की तेरह पत्नियाँ) श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि,मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति नामक  पत्नियाँ देवलोक/ स्वः स्थानी प्रजापति (स्वर्ग के देवगण) हुए।
इन सबने मिलकर मैथुनिक सृष्टि का आरम्भ किया।

इस प्रकार चेतना की अल्पचेतना या जड़ता की और यात्रा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप सृष्टि की रचना  हुई । इसी क्रम में प्रथम जीव या मनुष्य जन्मा।
उसका न कोई सञ्चित था न प्रारब्ध था। वह सीधा ऋत से सञ्चालित था। 
किन्तु उसने  जीव भाव की ओर झुकाव द्वारा कर्मफल सञ्चित कर लिया। जो आगामी जन्म के लिए प्रारब्ध भी बना। और चक्र आरम्भ हो गया। इस प्रकार कर्मासक्ति और कर्मफलासक्ति के माध्यम से सञ्चित बढ़ते गये और प्रारब्ध बनता गया।

प्रथम जन्में जीव अधिकांश तो निवृत्त होगये। अर्थात वे अन्तरात्मा से जीवभाव की और प्रवृत्त ही नहीं हुए। अतः उनका कोई कर्म बना ही नहीं।
इस कारण प्रत्यगात्मा से भी निचले स्तर जीवात्मा का विकास हुआ। तब भी अधिकांश तो निवृत्त ही रहे। इसी बात को पुराणों में कहा जाता है कि, नारद जी ने न उन्हें निवृत्ति की ओर प्रेरित कर दिया जो प्रवृत्त हुए अपनी अपनी जाति-प्रजाति के प्रजापति ही रहे। उनके द्वारा किये गये कर्मानुसार उनके आगामी जन्म हुए।
उस समय चूँकि, जनसंख्या नगण्य थी। और पालक स्वयम् ईश्वर थे, अतः  कोई संघर्ष या क्लेश था ही नहीं। वे अपने राजा स्वयम् थे। स्वानुशासित थे। पर धीरे धीरे कामना, लगाव/ आसक्ति, बढ़ती गई, जीव अहन्ता-ममता की ओर अग्रसर होता गया।
इसका वर्णन सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त और सृष्टि उत्पत्ति क्रम और कर्म के वर्णन में उपलब्ध है।

वेदान्तियों का काल

निम्बार्काचार्य (स्वाभाविक भेदाभेद)(ईसापूर्व ३०९६ ई.पू. वैदुर्यपत्तनम/ मुंगीपैठन -ओरङ्गाबाद महाराष्ट्र )

आद्य शंकराचार्य जी का सही समय ५०९ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व का है।
कुछ लोगों के मतानुसार शंकराचार्य (अद्वैत) (कलियुग संवत २६३१ अर्थात ईसापूर्व ५०७ ई. पू. कालड़ी केरल में जन्में और  कलियुग संवत २६६३ अर्थात ४७५ ई.पू. केदारनाथ उत्तराखण्ड) में देह त्याग किया।
कामकोटि पीठके ३८वें आचार्य चिदम्बरम वासी श्री विश्वजी के पुत्र आचार्य श्री अभिनवशंकर जी ७८७ ईस्वी से ८४० ईस्वी तक ५३ वर्ष विद्यमान रहे। वे ३० वर्ष तक जगन्नाथ पुरी के गोवर्धन मठ के शंकराचार्य के पद पर रहे।इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 
वर्तमान इतिहासकार इन्हीं शंकराचार्य अभिनवशंकर जी को आद्य शंकराचार्य बतलाते हैं और उनका काल ७८८ - ८२० ई. का बताते हैं। 

वसुगुप्त का शिव सुत्रोक्त त्रिक दर्शन (८६०ई. से ९२५ई.) ।

रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) परम्परा अनुसार रामानुजाचार्य का जन्म १२५७ ईसापूर्व श्रीपेरंबदूर में हुआ और देहत्याग ११३७ ईसापूर्व में श्रीरङ्गम तमिलनाडु में हुआ। 
लेकिन आधुनिक मतानुसार १०१७ श्रीपेरंबदूर से ११३७ श्रीरङ्गम।

मध्वाचार्य (द्वैत)(१२३८ पाजक (उडुपी) से १३१७ उडुपी कर्नाटक)

रामानन्दाचार्य (भक्ति आन्दोलन) (१४०० प्रयागराज से १४७६ वाराणसी)

वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैत) (१४७९ चम्पारण रायपुर से १५३१ वाराणसी)

श्री कृष्ण चेतन्य महाप्रभु (अचिन्त्य भेदाभेद)(१४८६ नवद्वीप से १५३४ जगन्नाथ पुरी)

विभिन्न मत - सम्प्रदायों की आवश्यकता और प्रासङ्गिकता को सिद्ध करने के लिए यों कहा जा सकता है कि,
निम्बार्काचार्य जी के वैदिक संहिताओं, उपनिषदों  के आधार पर प्रस्तुत स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन के द्वैधिभाव से असन्तुष्ट जनों के लिए और बौद्धों और जैनों द्वारा भटकाये गये वैदिक लोगों को वेद विरोधी भटकाव से रोक कर वापस वैदिक मत में लाने के लिए शंकराचार्य जी ने वैदिक संहिताओं, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराणादि स्मृतियों के आधार पर अद्वैत वेदान्त दर्शन प्रस्तुत कर लोगों को  बचाया।
वसुगुप्त (८६०ई. से ९२५ई.) ।
इससे अप्रसन्न तान्त्रिकों नें सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा और शुन्यवाद एवम विज्ञान वाद मिला कर अद्वैत वेदान्त का भ्रमोत्पादक त्रिक दर्शन वसुगुप्त ने सतहत्तर श्लोक का शिव सुत्र रचकर दिया (८६०ई.-९२५ई.) । जिससे वैदिक देवता शिव के नाम के कारण आस्तिक जन भी सन्तुष्ट रहें।
अभिनव गुप्त (९५० ईस्वी कश्मीर से १०१६ ईस्वी तक मंगम कश्मीर ) ने विभिन्न आगम सिद्धान्तों और पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ रूप में मान्य अनुत्तरषडर्धक्रम (त्रिक) परम्परा में पद्धति और प्रक्रिया का ग्रन्थ तन्त्रालोक रचा।
इस प्रयास को देखकर दृविड़ आलवार सन्त यामुनाचार्य ने ब्राह्मण रामानुजाचार्य को प्रस्तुत किया जिननें कृष्ण यजुर्वेद, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराण को आधार बनाकर कर वैष्णव भक्ति प्रधान तथा सरल विशिष्टाद्वैत दर्शन प्रस्तुत किया।
उक्त अति शास्त्रिय मत समझ न पानें वाले आस्तिक वैष्णव भक्त जनों को सन्तुष्ट रखनें के लिए मध्वाचार्य जी ने भक्ति प्रधान द्वैतवाद प्रस्तुत किया।
रामानुज सम्प्रदाय के अनुयाई रामानन्दाचार्य नें  निर्गुण ब्रह्म मत प्रचारक कबीरदास जी उनके शिष्य/ अनुयाई नानक देव,सगुण मतावलम्बी और विभिन्न जातियों में उत्पन्न सन्त रविदास आदि अनेक सन्तों और वैष्णव भक्तों की श्रंखला खड़ी करदी।
लेकिन कुछ तान्त्रिक प्रवृत्ति के वैष्णव लोगों को त्रिक दर्शन पसन्द आनें लगा तो वल्लभाचार्य जी नें त्रिक दर्शन का वैष्णव स्वरूप शुद्धाद्वेत दर्शन प्रस्तुत कर दिया।  
उसी समय बङ्गाल में श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु ने भजनानन्दियों के लिए न्याय दर्शन के आधार पर अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन प्रस्तुत किया।
तो इन सबके बाद सबसे सफल 
इस प्रकार वेदिक धर्म रक्षार्थ सभी नें अपने स्तर पर प्रयत्न किया

सभी आस्तिक दर्शनों का आधार वेद ही होनें से पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग, और भक्ति भाव में सभी समान रूप से आस्थावान हैं यह कोई साम्य नही हुआ। क्योंकि मतभेद तत्व मीमांसा या ज्ञान मीमांसा में ही है। नीति दर्शन और उपासना पद्यति अविवादित विषय है।

आचार्य, गुरु और शिष्य

 उपनिषद और श्रीमद्भभग्वद्गीता भी आत्मज्ञ के पास शिष्यभाव से जाकर पुछने पर गुरु द्वारा ज्ञान प्रदान करने पर ही आत्मज्ञान होने का ही निर्देश करते हैं।
क्योंकि, ज्ञान किसी कर्म का फल नही।
वह गुमा हुआ चौथा साँथी तु स्वयम् है कहानी के समान हमारा वास्तविक स्वरूप जो हम भूले हुए हैं और जीवभाव से ग्रस्त है उसके निवारणार्थ ही शिष्य को गुरु के पास जाने का निर्देश है।
 केनोपनिषद में तो स्पष्ट ही कहा है कि, शिष्य गुरु से किस प्रकार प्रश्न करेगा और गुर क्या उत्तर देगा।
कठोपनिषद में यम नचिकेता को उपदेश देते हैं तब नचिकेता को ज्ञान हुआ। प्रश्नोपनिषद में पिप्पलाद सबके संशय और भ्रम निवारण कर ज्ञान देते हैं।
मुण्डकोपनिषद में अङ्गिरा शौनक को ज्ञान प्रदान करते हैं।
तैत्तरीयोपनिषद में गुरुकुल और आचार्य शिष्य की सामुहिक प्रार्थना का उल्लेख है।
छान्दोग्योपनिषद और वृहदारण्यकोपनिषद में तो कई कहानियाँ है जिसमें एक आचार्य दुसरे आचार्य के पास ज्ञान प्राप्त्यर्थ जाकर पुछता है और आचार्य उसे ज्ञान प्रदान करते हैं।
इसके अलावा भी छान्दोग्योपनिषद में अग्नि और वायु को ज्ञान नही हुआ जबकि, यक्ष रूपी ब्रह्म प्रत्यक्ष थे। किन्तु भगवती उमा के कथन मात्र से इन्द्र को तत्काल स्मृति/ ज्ञान हो गया।

प्रज्ञात्मा प्रत्यगात्मा और जीवात्मा में सम्बन्ध।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01 एवम् 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06 एवम् 07

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 

ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02

तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति। उध इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं -- 01 आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज, 02 जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और 03 उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न। 01
(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।
उस इस ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।02
अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा रहती है।
 एवम् 
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 05/मन्त्र 29 
भोक्तारम् यज्ञतपसाम् , सर्वलोकमहेश्वरम् ;
सुहृदम् सर्वभूतानाम् , ज्ञात्वा माम् शान्तिमृच्छति।
मुझको सब यज्ञों और तपों का भोगनेवाला , सर्वलोकों के ईश्वर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और जगदीश्वर विराट अपरब्रह्म (जीवात्मा) का भी ईश्वर होनें से महेश्वर 【विधाता ब्रह्म, प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा)】तथा सम्पुर्ण भूतप्राणियों का सुहृद (अकारणकरुणाकरण, दयानिधि, और प्रेमी) जानकर शान्ति को प्राप्त होते हैं।

परब्रह्म और प्रत्यगात्मा का देहमें साथ साथ रहना और  प्रत्यगात्मा द्वारा कर्म करना और भोग भोगना भी देखें।

श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय03/मन्त्र20
कठोपनिषद 1/02/20 , 

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः

इस जीवधारि के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञात्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामनारहित, जो जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है; यह जानने वाला अकृत पुरुष ;  जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है वे ही जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जान पाते हैं।

(सुचना --  
जन्तु यानि जीवधारी।
बुद्धिगुहा के केन्द्र अर्थात चित्त में निहित।
निहित अर्थात रहने वाला प्रज्ञात्मा ही देहधारी तत्व है। अतः प्रज्ञात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है।
इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान आदि का भी कारण होने से अणोरणीयान् अर्थात सुक्ष्मातिसुक्ष्म कहा है।
जीवात्मा अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यगात्मा ब्रह्म होता है; किन्तु उस प्रत्यगात्मा ब्रह्म से भी परे, अति महा (महान) प्रज्ञात्मा परब्रह्म है अतः उन्हे परम ब्रह्म कहा है। 
बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा ब्रह्म होता है। और जिससे  आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। अतः उसे परब्रह्म कहते हैं।

परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं अतः उन्हे धारणकर्ता भी नही कहा जा सकता। अतः जीवनधारक प्रज्ञात्मा ही कही जा सकता है।

क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाला, जो जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही सब क्रियाएँ  है उसे अक्रत कहते हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
वे ही देखपाते है अर्थात वे ही जान पाते है। ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।)

हमारे अन्तःकरण के बुद्धि आकाश में दो तत्व या देव एक देवता रहते हैं; उपनिषदों में कहागया है कि समान वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। उनमें से एक तो वृक्ष के मिठे फलों को खाता है जबकि दुसरा पक्षी केवल दृष्टाभाव से देखता रहता है।
इसमें दृष्टा पक्षी हमारा वास्तविक स्वरूप प्रज्ञात्मा परब्रह्म हैइस अवस्था में सर्वव्यापी भाव होनें के कारण अहन्ता ममता (मैं मेरा) के लिए कोई अवकाश (स्थान) ही नही रहता। सर्वखल्विदम् ब्रह्म वाला भाव रहता है। यह  छुपा हुआ कुटस्थ रहता है। ज्ञान प्रकाश से ही स्वयम् को प्रकट करता है। यह गुणातीत है,  क्षेत्रज्ञ है, पुर्ण है परम गति है। मतलब यहाँ आकर गति अर्थात कर्म और कर्म फल समाप्त हो जाते हैं।
हमारा वास्तविक स्वरूप तो यही है।
किन्तु बिनु हरिकृपा मिलहिं नही सन्ता। और बिन गुरु ज्ञान न होई सिद्धान्त से योग्य पात्र / योग्य शिष्य नही बन जाते तब तक गुरु सामने हो तो भी गुरु से साक्षात्कार नही हो पाता। योग्य होते ही गुरु के उपदेश स्थाई प्रभाव से समझ आ जाते हैं। और हम आत्मस्थ हो जाते हैं।
किन्तु जबतक हम उक्त अवस्था तक न पहूँचें तबतक हम प्रत्यगात्मा ब्रह्म महा आकाश, क्षेत्र की अवस्था में रहते हैं।
यह भी सर्वगुण सम्पन्न है। कालातीत, प्रकृति में स्थित, सुख-दुःख का कारण, (सुख-दुःख हेतु) है, उपदृष्टा, अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), भर्ता-भोक्ता, महेश्वर है। भूतों के नष्ट होनें पर भी नष्ट नही होता है। यह गतिमान है। उपर नीचे होता रहता है। जबतक प्रज्ञात्मा की ओर झुकाव तो उस समय मे आत्मज्ञता अनुभव करता है। पुर्णता अनुभव करता है। इसकारण निर्भय, निर्विकार, निर्वेर रहता है। वहीँ स्थिर रहना भी चाहता है। किन्तु अचानक संस्कार जोर पकड़ते हैं और रजोगुण जोर पकड़ता है।और यह जीवभाव की ओर झुक जाता है।और स्वयम् को  जीवात्मा अपरब्रह्म मानकर क्रियाशील होजाता है। यह स्वयम् को क्षर (क्षरणशील/ खिरने वाला/ अपुर्ण होनें के भय से आक्रान्त) हो जाता है।उस अवस्था में यह प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता होता है। 
गुण सङ्गानुसार ( सत्वरज तम गुणों के जिस काम्बिनेशन के साथ होता है तदनुसार) योनि प्राप्त करता है। मरणोपरान्त जो योनि प्राप्त होती है वह तो है ही। पर इसी देह में रहते भी हम अनेक योनियों में भटकते रहते हैंजिस योनि में रहते मरेंगे उसी योनि में जन्मेंगे।
कई बार हम प्रज्ञात्मा की ओर झुकाव के चलते ब्राह्मण होते हैं। कभी करुणामय होनें से परहित रक्षक क्षत्रिय होजाते हैं। कभी व्यवहार में लेनदेन बराबर करनें में जैसे विवाह आदि में किसको क्या देना कितना देना आदि विचारों में मग्न होकर वैष्य होते हैं। कभी स्वयम् को दीनहीन मानकर जिससे काम पड़ जाये उसकी सेवा में तत्पर होकर शुद्र होजाते हैं। कभी बदले की भावना से म्लेच्छ होजाते हैं। किसी को हानि पहूँचाने के संकल्प के साथ असुर हो जाते हैं। भोग लिप्सा में तदनुरूप योनि में होते हैं। जैसे अति भुख में भोजन करते समय पशुवत सब भरलेते हैं। भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान नही रहे तो शुकर योनि में पहूँच जाते है। पुण्य उदय होजाये तो शुकर से अचानक देवता भी बन जाते हैं।
यही सब माया का प्रभाव है। इसीलिए मार्कण्डेयपुराण में महर्षि मेधातिथि कहते हैं  - 
ज्ञानिनामपि चेतान्सि, देवी भगवती हि सा , बलादाकृष्य मोहाय, महामाय प्रयच्छति। 
दुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय के श्लोक 55-56
भगवान नारायण को भी योगनिन्द्रा को वश में करनें वाली भगवती; भगवान विष्णु की महामाया ज्ञानियों के चित्त को बलपुर्वक खीँचकर मोह में डाल देती है।
श्रीमद्भगवद्गीता २/६२ और ३/३७ में में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि, रजोगुण प्रधान होनें पर, मैं भाव उत्पन्न होनें पर हम जिस जिस प्रकार के सोच-विचार, चिन्तन करते हैं, उसी भाव, उस विषय में हमारी आसक्ति (लगाव) हो जाता है। फि उस विषय भोग/ वस्तु आदि की हमें कामना (प्राप्त करने की इच्छा) होनें लगती है। इस प्रकार काम का उदय होता है। यह काम ही सबसे बड़ा शत्रु है। काम्य वस्तु विषय प्राप्त हो जाए तो उससे ममत्व (ममता/ मैरापन) हो जाता है। और काम्य वस्तु प्राप्त होनें के बाद छिनने पर या काम्य वस्तु/ विषय प्राप्ति में विघ्न पड़ने पर विघ्नकारक पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में सही- गलत, उचित -अनुचित का बोध समाप्त हो जाता है, अर्थात मोह वश बुद्धि में मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ भाव में बुद्धि स्थिर नही रह पाती अतः विवेक समाप्त हो जाता है। और मनुष्य का पतन हो जाता है।

ऋग्वेदोक्त देवी सुक्त में देवी वाक अम्भृणी (वागाम्भृणी) ने बहुश्रुत के प्रति कहा है--
यम् कामये तम् तमुग्रम् कृणोमि,
तम् ब्रह्माणम् तमृषिम् तम् सुमेधाम्। 
मन्त्र 5
मैं जिस-जिस पुरुष की रक्षा  करना चाहती हूँ, उस-उसको सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ। उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान-सम्पन्न ऋषि (जिन्हे प्त्यक्ष ज्ञान हो ऐसे आत्मज्ञानी- ब्रह्मज्ञानी ऋषि) तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ। 

इसमें हमारा हट भी क्या करेगा ? अतः समर्पण ही सर्वश्रेष्ठ विधि है। उचित यही है कि, अहन्ता (मैं भाव) आते ही हरिशरण ग्रहण कर लें। वे ही अपनी माया समेट सकते हैं।

मतलब हम जो अपनें दम पर सफलता या अपनी गलती से असफलता मानकर सुखी दुःखी होते हैं वास्तव में उसमें हमारे कर्मों का आभास होता है। जैसे स्वीच ऑन किया, पंखा घुमनें लगा अब उसे अन् चाहे भी चलना ही पड़ेगा। इसके पहले पंखा चाह कर भी नही घूम सकता , स्वीच बन्द किया पंखा बन्द हो गया अब पंखा चाहकर भी घुमता नही रह सकता। 
यही स्थिति हमारे शरीर, इन्द्रियों, मन - संकल्प, अहंकार - अस्मिता, बुद्धि - मेधा (स्मरण शक्ति) , चित्त - चेत आदि वृत्तियाँ , तेज - विद्युत, और ओज - कान्ति आदि से सम्पन्न होने वाले कर्मों की भी है। जबतक स्वीच ऑन है तभी तक अपनें आप ही प्रकृति के गुण अपने अपने गुणों में व्यव्हार कर रहे हैं बरत रहे हैं इसमें हमारे कर्म है ही कहाँ? जब कर्म हमारे नही तो फल भी हमारे नही हुए।

वस्तुतः अध्यात्मिक स्वरूप में हम प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या आधिदैविक स्वरूप में परब्रह्म (विष्ण-माया) हैं ।
किन्तु प्रज्ञात्मा होते हुए भी हम पहले बतलाये अनुसार स्वयम् को अध्यात्मिक रूप से प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष -प्रकृति) आधिदैविक रूप में सवितृ- सावित्री या श्रीहरि - कमलासना ) मानलेनें के कारण तु और मैं, यह- वह के आभासी जगत का अनुभव कर रहे हैं। और माया से लड़ रहे हैं। ठण्ड का आभास हुआ तो ताप लिया औढ़ लिया, गर्मी लगी तो पंखा झेल लिया बरसात से बचनें के लिए छाता लगा लिया या छत के नीचे आ गये। यह सब प्रकृति से लड़ना ही तो है। प्रकृति (माया) के वार से बचनें के लिये ढाल खोजनें में ही पुरा जीवन लग जाता है।
प्रकृति को माया को जिनने माँ मान लिया वे तो उसी की गोद में ही बैठ गये। और निवेदन करते हैं हे माँ    हम और कुछ नही जानते, न जानना चाहते हैं, न और कुछ चाहते हैं, हमें तो और कुछ नही चाहिए, हमें पिताजी (विष्णु परमपद) के चरणों में (गोद में) डाल दीजिये बस और वे माता महामाया भी वात्सल्यमयी होकर पुत्र को श्री विष्णु चरण रूपी श्रेयमार्ग पर डालकर हमारा कल्याण कर देती है।
यह वेदिकों का मायावाद है। यही भक्ति मार्ग है। जहाँ लक्ष्य - मोक्ष पुरुषार्थ है और मार्ग - समर्पण। यह समर्पण तभी आता है जब हमें अपने प्रभु का बोध हो, हमें उनका ज्ञान हो कि हमारे प्रभु विष्णु है, वही ॐ हैं, वही परमात्मा हैं। और उनकी ही माया विद्या रूप में हमें उनतक पहूँचाने वाली है। इसी के लिए अन्तःकरण शुद्धि हेतु पञ्चमहायज्ञ का आलम्बन लेना है। पञ्चमहायज्ञ में ज्ञानयज्ञ के अन्तर्गत ही अष्टाङ्गयोग, जप -तप आदि सब आते हैं। ये कोई अलग विधाएँ नही है।

ज्ञानि भक्त का समर्पण कैसा होता है ? -- ज्ञानि भक्त के भाव ऐसे होते है -- हे प्रभु  हर फेसला तेरा मुझे मञ्जूर है। जाँहि विधि राखे राम ताँहि विधि रहिये।  है प्रभु मैं बस और बस आपका ही हूँ। न मैं आपके अलावा कुछ जानता समझता हूँ और न जानना समझना चाहता हूँ। बस तु ही तु है नाथ बस तु ही तु है।

अद्वैत दर्शन या अभेद दर्शन और त्रेत दर्शन

१ वैदिक अभेद दर्शन और अद्वैत वेदान्त दर्शन परमात्मा को निमित्तोपादन कारण मानना। अर्थात ईशावास्यम् इदम सर्वम् और  सर्व खल्विदम् ब्रह्म (सबकुछ परमात्मा ही है इसको) स्वीकारने वाला दर्शन ही वैदिक अभेद दर्शन और अद्वैत वेदान्त दर्शन होता है।
अभेद दर्शन/अद्वैत वादी के अनुसार जीव और जगत परमात्मा के ही स्वरूप हैं। जीव और जगत परमात्मा से भिन्न नही है और आत्मा अनेक नही है, बल्कि आत्मा एक ही है, जो परमात्मा से अभिन्न है।
वैदिक अभेद दर्शन का आधार ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मन्त्र संहिताओं के सुक्त और अध्याय हैं। इसमें वैदिक अभेद दर्शन शुद्ध तात्विक दर्शन है। 
अद्वैत वेदान्त दर्शन तात्विक दर्शन को ही तार्किक ढङ्ग से समझानें का प्रयास है। ये मुख्य रूप से उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता (महाभारत भीष्म पर्व अध्याय २५ से ४३) तथा विष्णु पुराण आदि के आधार पर बनें उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र यानी ब्रह्मसुत्र) पर आधारित है। 
अद्वैत दर्शन के मुख्य आचार्य आद्यशंकराचार्य जी हैं। अन्य आचार्य सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र), हस्तमालकाचार्य, पद्मपादाचार्य, त्रोटकाचार्य, वाचस्पति मिश्र आदि हैं।
जैसे सूर्य का प्रकाश है वैसे ही परमात्मा के विष्णु स्वरूप की शक्ति  माया है। माया परमात्मा की परा प्रकृति है, स्व भाव है। अतः जगत भी परमात्मा से अभिन्न है। इसलिए भक्ति भाव से जगत को परमात्मा की लीला कहा जाता है।
जीवभाव मात्र भाव है, जैसे व्यक्ति मे माता या पिता और सन्तान, पति, या पत्नी, सत्ताधीश और प्रजा (शासक और शासित) जैसे अनेक भाव एक साथ रहते हैं ऐसे ही आत्मभाव और जीवभाव दोनों साथ साथ रहते हैं। जिस समय जो प्रधान रूप से उभर कर प्रत्यक्ष होता है, उस समय व्यक्ति के व्यवहार में झलकता है। जो सदैव आत्मभाव में ही रमता हो वह जीवन्मुक्त है।


२ भेदाभेद या द्वैताद्वैत वादी - इनके मुख्य आचार्य निम्बार्काचार्य हैं। वे उपनिषदों, ब्रह्मसुत्र, और पुराणों के आधार पर मानते हैं कि, वेदों में अभेद, अद्वैत और भेद या द्वैत दोनों ही प्रकार के मन्त्र हैं। इसलिए दोनों ही मान्य हैं।
  
३ त्रेतवाद या विशिष्टाद्वैत वाद --- आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का दर्शन त्रेतवाद कहलाता है। इसका मुख्य आधार कृष्ण यजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद है।
रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत दर्शन स्मृतियों अर्थात रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण आदि पूराणों सहित वेदान्त अर्थात उपनिषदों और ब्रह्म सुत्र के आधार पर ही अपना मतवाद प्रस्तुत करता है। 
विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के मुख्य आचार्य रामानुजाचार्य  का विशिष्टाद्वैत दर्शन और आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती का त्रेतवाद भी लगभग लगभग  समान ही है।

ये सर्वोच्च सत्ता परब्रह्म परमेश्वर, अनेकजीव और जगत (प्रकृति) तीनों को अनादि, अविनाशी मानते हैं। इनके अनुसार जगत के अन्तर्गत जीव अर्थात शरीर के अन्दर जीव और जीव में ब्रह्म का वास होता है। यही विशिष्टाद्वैत दर्शन है।
विशिष्टाद्वैत/ त्रेतवाद में परब्रह्म को परमेश्वर अर्थात सर्वोच्च शासक माना जाता है। लेकिन परब्रह्म परमेश्वर को तानाशाह नहीं माना जाता है। परब्रह्म परमेश्वर सर्वसमर्थ और सर्वज्ञ माना जाता है, जबकि जीव को अल्प सामर्थ्यवान और अल्पज्ञ माना जाता है। जगत को जड़ मानते हैं। इस प्रकार जीव और जगत दोनों ही परब्रह्म परमेश्वर के अधीन मानते हैं।

४ त्रेतवाद का ही एक रूप त्रिक दर्शन है जिसे प्रत्यभिज्ञा दर्शन या कश्मीरी शैव दर्शन भी कहते हैं; जिसके मुख्य आचार्य वसुगुप्त,और उनके शिष्य कल्लट, सोमनन्द  तथा सोमानन्द के पुत्र और शिष्य उत्पलाचार्य,  उत्पलाचार्य के शिष्य अभिनव गुप्त हैं। अभिनव गुप्त नें प्रत्यभिज्ञा दर्शन सुव्यवस्थित व्याख्या प्रस्तुत की। बौद्धधर्म के माध्यमिक दर्शन (नागार्जुन और कुमारलात के शुन्यवाद), योगाचार (आचार्य मैत्रेयनाथ, असङ्ग और वसुबन्धु और कुमारलात के विज्ञान वाद) और आचार्य बोधिसत्व मञ्जुश्री के वज्रयान शाखा का ही उत्तरवर्ती स्वरूप कश्मीरी शैव दर्शन त्रिक दर्शन है, जिसमें वज्रयान के तन्त्र को उपनिषदों (वेदान्त) से जोड़ने का प्रयास किया गया । ये शिव को परब्रह्म परमेश्वर मानते हैं।
शुद्धाद्वेत  दर्शन के मुख्य आचार्य वल्लभाचार्य जी हैं। शुद्धाद्वेत दर्शन त्रिक दर्शन का वैष्णव स्वरूप है। ये श्रीकृष्ण को परब्रह्म परमेश्वर मानते हैं। शुद्धाद्वेत दर्शन का मुख्य आधार श्रीमद्भागवत पुराण, अन्य पुराण, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र है।
त्रिक दर्शन और शुद्धाद्वेत दोनों दर्शन परमेश्वर शिव या कृष्ण के अलावा विभिन्न श्रेणियों वाली अनेक जीवात्मा मानते है  परब्रह्म  परमेश्वर (विष्णु या शिव), जीवात्मा तथा  जगत को अनादि अनश्वर मानते हैं, परब्रह्म परमेश्वर, जीवात्मा और जगत को स्वतन्त्र और प्रथक-प्रथक मानते हैं। लेकिन ये दर्शन स्वयम् को शुद्ध अद्वैत दर्शन मानते हैं। लेकिन परब्रह्म के अलावा विभिभिन्न स्तरों वाली अनेक जीवात्मा और जगत को अनादि, अविनाशी मानने वाले दर्शन को अभेद वादी या अद्वैत वादी नही कहा जा सकता।
त्रिक दर्शन तो इब्राहीमी मजहबों के समान शिव  की तानाशाही (स्वतन्त्र इच्छा) स्वीकार्य करता है। 

५ त्रेतवाद का ही एक रूप द्वैतवाद है। इसके आचार्य मध्वाचार्य हैं। ये विशिष्टाद्वैतवादियों, शुद्धाद्वेत वादियों और त्रेत वादी प्रत्यभिज्ञा वादियों के समान भ्रमित न करते हुए स्वयं को सत्यनिष्ठा के साथ द्वैतवादी मानते हैं क्योंकि ये परब्रह्म परमेश्वर, जीव और जगत को अनादि, अनश्वर और प्रथक-प्रथक सत्ता मानते हैं। ये उपनिषदों और पुराणों के आधार पर अपना मत सिद्ध करते हैं।



सत्य परमात्मा, ऋत विश्वात्मा और जगत की उत्पत्ति परमात्मा की लीला।

१ सत मतलब अस्ति (है), अस्तित्व (हैपन), सत्य, वास्तविक।
असत कुछ होता ही नही। जो है वह सत ही है।
सत ऋत (परमात्मा के संविधान) से भी उच्चतर है। ऋत विश्वात्मा ॐ के निकटतम है। परमात्मा ही सत है।
सत अक्षर ब्रह्म होते हुए भी उससे भी परे साक्षात परमात्मा ही है।
सत के अलावा कुछ है ही नही अतः जो कुछ दिख रहा है, अनुभव हो रहा है वह सब वह परमात्मा अर्थात सत ही तो है।
अक्षर ब्रह्म तो प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष- प्रकृति) ब्रह्म (सवितृ- सावित्री) है।
इससे उत्कृष्ट प्रज्ञात्मा (परम दिव्य पुरुष- परा प्रकृति) परब्रह्म (विष्णु-माया) है। 
इससे उच्चतर विश्वात्मा - परमात्मा का ॐ संकल्प है। इससे उच्चतर और सर्वोच्च परम आत्मा/ परमात्मा ही है। जो एकमात्र सत / सत्य है।
सत सदैव एकसा, समरस, अपरिवर्तनशील, अक्षर एकमेव, सर्वोत्कृष्ट, सर्वोच्च, सर्वोत्तम परमात्मा है।
जबकि अपरिवर्तनशील परमात्मा अर्थात सत का अपरिवर्तनशील, अटल संविधान ऋत है। लेकिन ऋत में धर्म के समान यदि और परन्तुक बहुत होनें से सदैव गतिशील ,अटल लेकिन अचल नही है। इसे एकसाथ पूर्णरूपेण समझ कर स्मरण रखना सबसे कठीन काम है। केवल लगभग आत्मज्ञ ही समझ पाते हैं।

शुन्य मतलब परम मध्य। न धनात्मक न ऋणात्मक। गुण साम्यावस्था।

अ शुन्य मतलब धनात्मक हो या ऋणात्मक लेकिन शुन्य से अनन्त के बीच की अवस्था। विषम, प्रकृति में विक्षेप की अवस्था ।

जो कुछ है सब सत ही है। यही इसका भौतिक स्वरूप है। जो कुछ है सब सत ही है, इसलिए सत के अतिरिक्त कुछ भी नही है, न सत के आगे कुछ है न सत के पीछे दाँये- बाँये, उपर- नीचे कुछ भी नहीं है। ऐसा समझा जा सकता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं भी तो सत ही है। नेति नेति।
सत स्थाई, स्थिर है इसीलिए सापेक्ष सबकुछ गतिशील है। इसलिए ऋत भी गतिशील है।
यही बात सत (परमात्मा) से असत (वास्तव में मिथ्या) जगत की उत्पत्ति और असत (केवल परमात्मा) से सत (वर्तमान स्वरूप में जगत) की उत्पत्ति है।
सत्य (परमात्मा) को जितना जान लिया उतने ही आप चेतन होते जाते हैं। और परमात्मा के निकट होते जाते हैं। आनन्दित रहते हैं। पूर्णतः जान लेनें पर परमात्मा ही रह जाता है।
परमात्मा के ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप उत्पन्न जैविक  और जड़ जगत रूपी यह सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है।
सृष्टि, स्थिति और लय उस परमात्मा का मौज है, लीला है।

शुक्रवार, 16 जून 2023

मैरा धर्म दर्शन

वेदिक साहित्य के बाद मैरे विचार  (१) पूर्व मीमांसा दर्शन - शबर स्वामी, कुमारील भट्ट और मण्डन मिश्र और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी। की विचारधारा। (माध्वाचार्य को नही पढ़ा।)
उत्तर मीमांसा दर्शन - आद्य शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य, और वाचस्पति मिश्र की विचारधारा।
श्रीमद्भगवद्गीता - ग.वा. कविश्वर और रामसुखदास जी महाराज की विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित है।

गुरुवार, 15 जून 2023

निर्गुण स्वरूप में राम नाम के उपासक, वेद, वर्णाश्रम धर्म के पक्षधर,अहिन्सा वादी, गौरक्षक, और जातिप्रथा विरोधी तथा इस्लाम का कड़ा खण्डन करने वाले कबीर


श्री कुमार अवधेश सिंह जी की फेसबुक वाल से प्राप्त जानकारी के अनुसार ---
कबीर दास इस्लामिक सुन्नत, रोजा, नमाज़, कलमा, काबा, बांग और ईद पर क़ुरबानी का स्पष्ट खंडन करते थे। सिखों के प्रसिद्ध ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में कबीर साहिब के इस्लाम संबंधी चिंतन को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।  
मुझे भी उनका यह मत उचित ही प्रतीत होता है।

१. सुन्नत का खंडन 

 काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पदत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥
                                                       सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 477

अर्थात कबीर जी कहते हैं ओ काजी तो कौनसी किताब का बखान करता है। पढ़ते हुऐ, विचरते हुऐ सब को ऐसे मार दिया जिनको पता ही नहीं चला। जो धर्म के प्रेम में सख्ती के साथ मेरी सुन्नत करेगा सो मैं नहीं कराऊँगा। यदि खुदा सुन्नत करने ही से ही मुसलमान करेगा तो अपने आप लिंग नहीं कट जायेगा। यदि सुन्नत करने से ही मुस्लमान होगा तो औरत का क्या करोगे? अर्थात कुछ नहीं और अर्धांगि नारी को छोड़ते नहीं इसलिए हिन्दू ही रहना अच्छा है। ओ काजी! क़ुरान को छोड़! राम भज। तू बड़ा भारी अत्याचार कर रहा है, मैंने तो राम की टेक पकड़ ली हैं, मुस्लमान सभी हार कर पछता रहे है। 

२. रोजा, नमाज़, कलमा, काबा का खंडन 
रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥

सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 480
अर्थात मुसलमान रोजा रखते हैं और नमाज़ गुजारते है। कलमा पढ़ते है।  और कबीर जी कहते  हैं  इन किसी से बहिश्त न होगी। इस घट (शरीर) के अंदर ही सत्तर काबा के अगर कोई विचार कर देखे तो।

कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥
सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥

सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 1375
अर्थात कबीर जी कहते हैं मैं हज करने काबे जा रहा था आगे खुदा मिल गया , वह खुदा मुझसे लड़ पड़ा और बोला ओ कबीर तुझे किसने बहका दिया।

३. हिंसा (क़ुरबानी) का खंडन 

जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥
मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥ तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥

सन्दर्भ विलास प्रभाती कबीर पृष्ठ 1350

अर्थात कबीर जी कहते है ओ मुसलमानों। जब तुम सब में एक ही खुदा बताते हो तो तुम मुर्गी को क्यों मारते हो। ओ मुल्ला! खुदा का न्याय विचार कर कह। तेरे मन का भ्रम नहीं गया है। पकड़ करके जीव ले आया, उसकी देह को नाश कर दिया, कहो मिटटी को ही तो बिस्मिल किया।  तेरा ऐसा करने से तेरा पाक उजू क्या, मुह धोना क्या, मस्जिद में सिजदा करने से क्या, अर्थात  हिंसा करने से तेरे सभी काम बेकार हैं।

कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥

सन्दर्भ विलास प्रभाती कबीर पृष्ठ 1377

अर्थात कबीर जी कहते हैं जो प्राणी भांग, मछली और शराब पीते हैं, उनके तीर्थ व्रत नेम करने पर भी सभी रसातल को जायेंगे।

 रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥
आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥
काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥
खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥

सन्दर्भ रास आगा कबीर पृष्ठ 483

अर्थात ओ काजी साहिब तू रोजा रखता हैं अल्लाह को याद करता है, स्वाद के कारण जीवों को मारता है। अपना देखता हैं दूसरों को नहीं देखता हैं। क्यों समय बर्बाद कर रहा हैं। तेरे ही अंदर तेरा एक खुदा हैं। सोच विचार के नहीं देखता हैं। ओ दिन के पागल खबर नहीं करता हैं इसलिए तेरा यह जन्म व्यर्थ है।

४. बांग का खंडन

कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥
जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥

सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 1374

अर्थात कबीर जी कहते हैं की ओ मुल्ला। खुदा बहरा नहीं जो ऊपर चढ़ कर बांग दे रहा है। जिस कारण तू बांग दे रहा हैं उसको दिल ही में तलाश कर।


इसके ठीक विपरीत कबीर साहिब श्री राम के गुणगान करते और गौसेवा के लिए प्रेरणा देते मिलते है। प्रमाण देखिये-

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।गले राम की जेवडी ज़ित खैंचे तित जाऊँ।।”
कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाती।तेल घटया बाती बुझी, सोवेगा दिन राति।।”
” जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।”
साधो देखो जग बौराना,सांची कहौं तो मारन धावै,झूठे जग पतियाना।

अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि !!
!! ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही !!

श्री राम जी के गुणगान के अनेक प्रमाण कबीर रचनावली में मिलते है। बहुत कम लोग जानते है कि कबीर दास ने गौरक्षा के लिए अपना विवाह करवाने से मना कर दिया था। उनके वधुपक्ष वाले उनके विवाह में गोमांस परोसने की योजना बना रहे थे। कबीर दास गौप्रेमी थे। उन्होंने स्पष्ट कह दिया। अगर गौमाता कटी तो वह विवाह नहीं करेंगे। अंत में कबीर दास ने वह गौ एक ब्राह्मण को दे दी। तब जाकर उनका विवाह संपन्न हुआ। 

इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि दलित संत वेद, तीर्थ, जप, राम-कृष्ण,यज्ञपवीत, गौरक्षा आदि वैदिक परम्पराओं में अटूट विश्वास रखते थे एवं इस्लाम की मान्यताओं के कटु आलोचक थे।

कबीर की साधना ---
कबीर की योग साधना वज्रयानी बौद्ध मत के चौरासी सिद्धों और नौ नाथों की परम्परा का अनुसरण है।
इसीकारण कबीर की साधना पद्यति में में योग और भक्ति गड्ड-मड्ड लगती है। लेकिन यज्ञ और मीमांसा दर्शन पर ध्यान नही दिया गया है। जातिप्रथा का कट्टर विरोध के मूल में भी सिद्धों की परम्परा ही है। उनकी भाषा भी सिद्धों के अनुरूप ही है।

कबीर का दर्शन --- 

कबीर के मत में *ब्रह्म एक ही है लेकिन माया के कारण हीं वह अनेक रूपों में दिखायी पड़ता है* ।
 
यह संसार कागद की पुड़िया, 
बुंद परे गलि जाना है।

कबीर का *जीव माया रहित होकर ही ब्रह्म हो जाता है। जगत भी जीव और ब्रह्म से पृथक सत्ता नहीं है। एक ओर जहॉं जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर वह पंचभौतिक रूपों में जीव के अस्तित्व का नियामक है। इस तरह एक बिन्दु पर ब्रह्म, जीव और जगत एक-दूसरे से अभिन्न हो जाते हैं।* इसी आधार पर कबीर का अद्वैत दर्शन प्रमाणित होता है।

 रज गुण, तम गुण, सत गुण कहिबे, य सव तेरी माया।
चौथे पद को जो जन चिन्हे तिनहि परमु पद पाया।

कबीरदास जी के अनुसार *निर्गुण में ही गुण और गुण में ही निर्गुण समाया हुआ है। परस्पराबलम्बन के कारण ब्रह्म की सत्ता रूपात्मक जगत से पृथक नहीं रह पाती इसलिए वह निर्गुण होकर भी इस सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है।* 

नाति सरूप वरण नहीं जाके धटि-धटि रहया समायो ।
कबीर का *ब्रह्म निर्गुण और अद्वैत होकर भी भक्ति का विषय बनता है इसलिए वह अद्वैत ब्रह्म और सगुण के बीच का ब्रह्म है।* 
उनके अनुसार *यह जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। वह उस एक अकेले ब्रह्म का ही फैलाव है।*

 कबीर कहते हैं
एके राम देख्या सबहि में, कहे कबीर मनमाना।
माटि  एक  भेख  धरि नाना, तामें ब्रह्म समाना।

 


बुधवार, 14 जून 2023

यूरोपीयों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अनुसंधान और फ्रायड का मनोविश्लेषण का आधार भारतीय ग्रन्थ।

१ सभी विधाओं के मुख्य विज्ञानियों के नाम और उनके शोध का वर्ष देखिये। जिससे सिद्ध हो जाएगा कि, यूरोपीय सभी नये आविष्कार सन १५०० ईस्वी के बाद ही हुए। जब यूरोपियों का भारत से सीधा सम्पर्क हुआ। महाभारत के बाद, विशेष कर विक्रमादित्य के बाद और वास्को डि गामा के पहले वे अरबियों, तिब्बती और चीनियों के माध्यम से भारतीय ज्ञान से परिचित थे।

२ लोगों को केवल अंग्रेजी राज याद है वे पुर्तगालियों के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं, उससे कम  फ्रांसीसियों के बारे मे जानते हैं। लेकिन जर्मनों के बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि जर्मनी का प्रत्यक्ष शासन भारत पर नही रहा। लोग जर्मन बौद्धिकता से अपरिचित हैं। जर्मनों नें वैदिक ग्रन्थों और संस्कृत के ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर दानवी सभ्यता की परम्परा अनुसार वैदिक ज्ञान को आधुनिक तकनीक में बदल दिया।

३ जन साधारण के दिमाग में भरा है कि, मेक्समूलर द्वारा वेदों के अनुवाद के बाद ही यूरोपीय वैदिक विज्ञान से परिचित हुए। जबकि, मेक्समूलर नें सनातन वैदिक भारतियों को भ्रमित करने का काम अधिक किया और अप्रत्यक्षतः बौद्धों की महत्ता बखानी। जिसका प्रभाव आजतक भारतियों पर है।
 सत्रहवीं सदी तक सम्पूर्ण यूरोपीय विद्वान वैदिक विज्ञान से परिचित हो चुके थे। 

हमारे शास्त्रों में स्वभाव को तीन भागों में विभाजित माना है। ठीक वैसे ही फ्रायड द्वारा स्वभाव और व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटना कोई संयोग नही लगता।- 

स्व से स्व भाव अर्थात स्वभाव हुआ। स्वभाव तीन प्रकार के होते हैं।

तीन प्रकार का स्व भाव---
1 सात्विक स्व भाव या वैकारिक स्व भाव अर्थात स्वाहा अर्थात आधिदैविक शक्ति । 
स्वाहा --  श्रद्धा, भक्ति, ईश्वर प्रणिधान, स्व का त्याग, समर्पण, त्याग, वैराग्य ये स्वाहा के ही परिणाम हैं।
आधिदैविक शक्ति -- आधिदैविक शक्ति  मतलब वैराज देवताओं अर्थात व्यापक आकाश, वायु, सूर्य, विद्युत, अग्नि, जल, भूमि आदि प्राकृतिक देवताओं से जुड़ी सामर्थ्य है।

मनोविज्ञान के मनोविश्लेषण में  वैकारिक स्व भाव अर्थात  (आधिदैविक शक्ति) स्वाहा मतलब स्व का हनन (सुपर इगो) है। इसमें व्यक्ति नैतिक हो जाता है। इस समय इसकी प्रकृति (सम आधि) आधिदेविक साक्षात्कार वाली होती है।

2  राजस स्व भाव या तेजस स्व भाव अर्थात वषट अर्थात अध्यात्मिक शक्ति।
वषट अर्थात मस्तिष्क सम्बन्धी। (ध्यान दें - न्यास में शिखाये वोषट बोलते हैं।) वषट से बुद्धिवादी, तार्किक, गणितीय, वैज्ञानिक सोच होती है। वषट से ही वोषट, वौषट आदि शब्द बनें हैं।
अध्यात्मिक शक्ति अर्थात अध्यात्म मतलब देहेन्द्रिय से अन्तर्वर्ती या इन्द्रियों से अन्तः प्रवेश करते करते आत्म तक पहूँचने से प्राप्त सामर्थ्य है । 

मनोविज्ञान के मनोविश्लेषण में  तेजस स्व भाव अर्थात (अध्यात्मिक शक्ति) वषट (इगो) मतलब मस्तिष्क सम्बन्धी इसमे व्यक्ति अध्यात्मिक (माध्यमिक) (सब कांशियस) प्रवृत्ति का तार्किक और अत्यन्त सक्रिय होता है। सबके सामने सात्विक एकान्त में राजसी स्वभाव होता है।

3 तामस स्व भाव या भूतादिक स्व भाव अर्थात स्वधा  अर्थात अधिभौतिक शक्ति।
स्व धा मतलब स्व का धारण, स्व वादी धारणा, आत्म केन्द्रित, स्वयम् की सुख सुविधा प्रधान मानसिकता, कामना।  
आधिभौतिक शक्ति अर्थात भौतिक विज्ञान में अध्ययन की जाने वाली उर्जा।

मनोविज्ञान के मनोविश्लेषण में  भूतादिक स्व भाव अर्थात (अधिभौतिक शक्ति)। स्वधा मतलब स्व का धारण (इड / कामना) है। 
इसमें व्यक्ति अत्यल्प नैतिक रह जाता है। इस समय इसकी प्रकृति अधिभौतिक तामसिक (अन कांशियस) (निष्क्रियता, निद्रा, आलस्य) प्रधान वाली होती है। नैतिकता इसके लिए गौण और स्वार्थ, लौभ, दैहिक सुख प्रधान होते हैं। काम से कामना (इड) और कामना से वासना (लिबिडो) ध्यान रखियेगा। फ्रायड के दर्शन के इसी भाग की कटु आलोचना होती है

1 (क) सात्विक स्व भाव या वैकारिक स्व भाव अर्थात स्वाहा अर्थात आधिदैविक शक्ति से प्रत्यक्ष या प्रकट स्वभाव हुआ।

मनो विश्लेषण के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण ---  प्रत्यक्ष या प्रकट स्वभाव पूर्ण सचेत अवस्था है। पूर्ण जागृत अवस्था है। ऐसी स्थिति तभी बनती है जब चित्त सम अवस्था सम आधि में हो। इस लिए इसे कांशियस (चेतन) कहा गया।

2 (क) राजस स्व भाव या तेजस स्व भाव अर्थात वषट अर्थात अध्यात्मिक शक्ति से अर्धप्रत्यक्ष या अर्धप्रकट स्वभाव हुआ। स्वप्नावस्था, मोहित अवस्था और सम्मोहन अवस्था इसके साक्षात उदाहरण हैं।

मनो विश्लेषण के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण --- अर्धप्रत्यक्ष/ अर्ध प्रकट स्वभाव अर्धचेत अवस्था है। मनोराज्यम्/ कल्पना में खोया/ मोहित/ सम्मोहित अवस्था है। यह तन्द्रा अवस्था है। ऐसी स्थिति तभी बनती है जब चित्त अर्ध जाग्रत और अर्ध सुप्त अवस्था में हो। इस लिए इसे सबकांशियस (अर्ध चेतन) कहा गया। अधिकांश परिकल्पनाएँ (अधम्शन्स) इसी अवस्था में होती है।

3 (क) तामस स्व भाव या भूतादिक स्व भाव अर्थात स्वधा अर्थात अधिभौतिक शक्ति से परोक्ष या अप्रत्यक्ष या अप्रकट स्वभाव हुआ।

मनो विश्लेषण के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण ---अप्रत्यक्ष या अप्रकट स्वभाव तम समाधि या योग निद्रा अवस्था है या पूर्ण सुषुप्त अवस्था है। ऐसी स्थिति में भी चित्त सम अवस्था सम आधि में ही होता है लेकिन चेतन नही होता/ सचेत नही होता। तम समाधि इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इस लिए इसे अन् कांशियस (अचेतन) कहा गया। सम्पूर्ण संस्कार इसी अवस्था में व्यवस्थित (सेट) होते हैं।

मनो विश्लेषण के सम्बन्ध में संक्षिप्त स्पष्टीकरण --- मनोविज्ञान में - 
१ स्वाहा को सुपर इगो कहा गया है -  प्रत्यक्ष/ प्रकट स्वभाव को कांशियस कहा गया है।  
२ वषट को इगो कहा गया है -  अर्धप्रत्यक्ष/ अर्धप्रकट स्वभाव को सब कांशियस कहा गया है। और 
३ स्वधा  को इड (कामना) कहा गया है - परोक्ष/ अप्रकट स्वभाव को अन् कांशियस कहा गया है।


रविवार, 11 जून 2023

वास्तु और मुहूर्त।

वास्तुशास्त्र में ७० % भाग भूमि चयन का और ३०% भाग भवन निर्माण का होता है।
वास्तुशास्त्र और मुहुर्त उचित अनुचित दर्शाते हैं शुभ-अशुभ नही।
एक अच्छा आर्किटेक्ट सच्चा वास्तुशास्त्री होता है और एक अच्छा वास्तुविद ही अच्छा आर्किटेक्ट हो सकता है।
यदि भूखण्ड के उत्तर पूर्व में ढाल है, खुला है तो दक्षिण पश्चिम स्वतः उँचा होगा। परिणाम स्वरूप भूखण्ड और फर्श पर सदैव प्रातः काल की धूप मिलेगी। और सायंकाल की धुप से फर्श गर्म नही होगा।
यदि वायव्य कोण (उत्तर पश्चिम) खुला है और आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) में हवनकुण्ड, रसोई आदि है तो, गर्मी और धुँआ बाहर निकल जाएगा; न घर गर्म होगा न घर में धुँआ भरेगा। यही वास्तुशास्त्र/ आर्किटेक्चर है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर की छत उँची होनी चाहिए, मध्म भाग में खुला चौक होना चाहिए, जिसके चारों ओर कमरे हों जिसके दर्वाजे चौक में खुलना चाहिए। बाहर की ओर चारों ओर गलियारे हो, और खिड़कियाँ गलियारों में खुलना चाहिए ताकि, वायु का सहज आवागमन बना रहे और घर की गरम हवा उजालदान (वेण्टिलेटर) से निकल सके। पंखे से भी हवा ठण्डी मिले। ए.सी. की आवश्यकता ही न पड़े।
सम्भव हो तो मुख्यद्वार के अलावा पार्श्व में भी एक द्वार होना चाहिए, मतलब कॉलोनी ऐसे डिज़ाइन हो कि, प्रत्येक मकान कार्नर वाला हो। मूख्य सड़क घर के पूर्व में हो अर्थात मुख्य द्वार पूर्व में हो और  तथा छोटी सड़क उत्तर या दक्षिण में हो। उत्तर वाली सड़क के मकान को ईशान कोण खुला मिलेगा तथा दक्षिण में छोटी सड़क वाले मकान को ठण्ड में भी घर में धूप मिलेगी। पश्चिम में पिछवाड़ा होना अच्छा रहता है। जहाँ दिनभर धूप रहने से गन्दगी और सीलन नही रहती। 
ऐसे तार्किक और वैज्ञानिक आधार वाले वास्तुशास्त्र को अल्पज्ञों नें शुभाशुभ से जोड़ कर ढकोसला बना दिया।

ऐसे ही मुहुर्त किसी कार्य के लिए अनुकूल और उचित समय को कहते हैं न कि, शुभ समय को।
किसी कार्य विशेष के लिए उचित अनुचित काल दर्शक मुहुर्त शास्त्र कहलाता है। न कि, शुभाशुभ काल दर्शक।
वर्षा ऋतु में समारोह करना दुष्कर कार्य है, अतः वर्षा ऋतु में विवाह आदि निषिद्ध हैं, यह मुहुर्त है। 
वैदिक काल में अमावस्या का दुसरा दिन अर्थात प्रतिपदा, एकाष्टका अर्थात शुक्ल पक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा,अमावस्या, अर्धचन्द्र दिवस अष्टका अर्थात कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथियों का ही उल्लेख मिलता है। दस दिनों का दशाह शब्द अवष्य मिलता है; लेकिन, वारों का उल्लेख नही मिलता है। एक निश्चित रेखिक आकृति बनानें वाले २७ और अट्ठाइस तारा समुह को नक्षत्र कहते थे, जो असमान भोगांश वाले, वास्तविक नक्षत्र थे, न कि, १३°२०' के निश्चित भोगांश वाले वर्तमान काल्पनिक नक्षत्र। राशियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। 
जब सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर आकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता था, वसन्त विषुव दिवस से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास आरम्भ होता था। उस दिन दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति जब सूर्य ठीक कर्क रेखा पर होता था, जब सबसे बड़े दिन और  सबसे छोटी रात होती है, उज्जैन में ठीक मध्याह्न में वृक्षों की छाँया सबसे छोटी होती है मनुष्य की छाँव उसके कदमों मे होती है, उस दिन उत्तर तोयन होता था।
जब सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर आकर दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करता था, शरद विषुव दिवस से दक्षिणायन, शरद ऋतु और ईष मास आरम्भ होता था। उस दिन दिन रात बराबर होते हैं, दक्षिण ध्रुव पर सूर्योदय होता है, उत्तर ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति जब सूर्य ठीक मकर रेखा पर होता था, जब सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात होती है, उस दिन दक्षिण तोयन होता था।
सूर्य की सायन संक्रान्तियों से मधु, माधव, शुक्र, शचि, नभः, नभस्य, ईष, उर्ज, सहस, सहस्य, तपः,और तपस्य मासारम्भ होते थे; जिसे व्यवहार में अगले सूर्योदय से प्रारम्भ मानते थे।  सायन सौर मास और असमान भोगांश वाले वास्तविक नक्षत्र में चन्द्रमा स्थित होनें पर, अथवा सायन सौर मास और प्रतिपदा, एकाष्टका, पूर्णिमा, अष्टका या पूर्णिमा को  व्रत, पर्व, उत्सव मनाये जाते थे।
तदनुसार दक्षिण भारत में बसने, मध्य भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण पौराणिकों नें सायन मकर संक्रांति से अर्थात उत्तरायण प्रारम्भ किया गया, अर्थात दक्षिण तोयन को उत्तरायण नाम देकर, उत्तरायण तीन माह पहले ही प्रारम्भ करने लगे, सायन मीन अर्थात तपस्य मास को मधुमास नाम देकर वसन्तादि ऋतुएँ एक माह पहले प्रारम्भ की गई। सायन सौर मासों के स्थान पर चान्द्रमासों को महत्व दिया गया। चैत्र वैशाख आदि अमान्त मास के स्थान पर पूर्णिमान्त मास लागु किया गया। व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार तिथियों से मनानें लगे। ता कि, मध्यभारत और दक्षिण भारत में वैदिक उत्तरायण में होने वाले वर्षाकाल में मुहुर्त टाले जा सके। और वर्षा के पहले और बाद में विवाह आदि होने लगे।
इस प्रकार वर्तमान मुहुर्तशास्त्र का जन्म हुआ, जिनमें वैदिक परम्परा का पूर्ण लोप कर दिया गया।
ऐसे ही मात्र चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर गुण मिलान कहाँ तक उचित है उसका आधार क्या है कोई नहीं जानता। बस मिलाना है, लोगों की श्रद्धा है इसलिए बतलाना पड़ता है।
बारह भाव (खानों) में से पाँच भाव (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश भाव) में मंगल हो तो कुण्डली मांगलिक कहलाती है। यह दोष वर की कुण्डली में हो तो वधु के जीवन पर संकट होना माना जाता है और वधु की कुण्डली में हो तो वर के  जीवन को संकट होता है ऐसा कहा जाता है। क्योंकि इन भावों में बैठा मंगल या तो जीवनसाथी के भाव यानी सप्तम भाव या परिवार के भाव (द्वितीय भाव) पर दृष्टि डालता है या सप्तम भाव में ही स्थित होता है।
इस दोष का परिहार (दोष हरण) यह है कि, वर की कुण्डली में मांगलिक दोष हो तो वधु भी ऐसी ही ढूंढो जिसकी कुण्डली में मांगलिक दोष हो। या वधू की कुण्डली में मांगलिक दोष हो तो वर ऐसा ढूंढो जिसकी कुण्डली में मांगलिक दोष हो। यदि इन (1,4,7,8,12) भावों में मंगल न हो तो शनि हो, या सूर्य या राहु-केतु में से कोई एक तो हो ही।
साधारण ज्योतिषी यह नहीं जानते कि मंगल यदि मेष (स्वग्रही), कर्क (नीच), वृश्चिक (स्वग्रही) या मकर (उच्च) राशि में स्थित हो तो भी कुण्डली का मांगलिक दोष हरण हो जाता है। ऐसे ही सामने वाले (वर/वधु) की कुण्डली में तृतीय, षष्ट या एकादश स्थान पर भी मंगल हो, शनि हो, या सूर्य या राहु-केतु में से कोई एक हो तो भी सामने वाले (वर/वधु) की कुण्डली के मांगलिक दोष का परिहार (परिहरण) हो जाता है।
इतने में से कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है। न मिले तो सामने वाले की कुण्डली में चन्द्रमा से इन्ही भावों में मंगल शनि आदि कोई ग्रह होगा तो भी चलेगा। कुछ तो सूर्य से भी इन भावों में मंगल हो तो परिहार मान लेते हैं।
ये कुछ भी न मिले तो वधु की अधिक अवस्था (पच्चीस से अधिक) होगई तो भी चलेगा। और फिर पण्डित जी पूजा करवा कर मंगल को शान्त (चूप) कर ही देंगे।
हर सत्ताइस दिन में से औसत 24 घण्टा 17 मिनट 9.317 सेकण्ड तक चन्द्रमा एक नक्षत्र पर रहता है।
यह भी वास्तविक वैदिक नक्षत्र नहीं है। वैदिक नक्षत्र के भोगांश अलग-अलग होते हैं, एक समान नहीं फिर भी यदि एक अकेले चन्द्रमा के नक्षत्र में स्थिति और उक्त मांगलिक दोष के आधार पर ही वैवाहिक जीवन जाँचा जा सकता है तो कुण्डली बनवाना व्यर्थ है।
जन्म समय में चन्द्रमा जिस राशि में हो उससे बारहवीं राशि, उसी राशि और दूसरी राशि में शनि का भ्रमण चल रहा हो तो साढ़ेसाती कहलाती है। अर्थात साढ़ेसात वर्ष तक समय अशुभ ही रहेगा। समुद्र में बहकर किसी टापू पर रहने वाले, सुरंग में दब जाने वाले, कैंसर जैसे रोग और कोमा में पड़े लोगों को छोड़ दो तो मैंने तो किसी के जीवन में लगातार साढ़े सात वर्ष भी ऐसा कोई संकट नहीं देखा। अधिकांश को तो साढ़े सात घण्टे का भी लगातार कोई कष्ट नहीं होता है।
इसी प्रकार जन्म समय में चन्द्रमा जिस राशि में हो उससे चतुर्थ या अष्टम् राशि में शनि का भ्रमण चल रहा हो तो ढय्या कहलाती है। अर्थात ढाई वर्ष तक समय अशुभ ही रहेगा। 
मतलब केवल चन्द्रमा हर सत्ताइस दिन में से लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है उस अवधि में जन्मे  सबका ही समय एक समान बीतेगा। हर चौबीस घंटे में लगभग डेढ़ घण्टा से ढाई घण्टे के बीच एक ही लग्न में जन्मे लोगों का ग्रहों का भ्रमण (गोचर) समान ही होगा। उनका भी समय एक सा नहीं होता तो सवा दो दिन में जन्मे लोगों का समय एक समान कैसे हो सकता है?

मुहूर्त में ही काम करना हो तो बहुत पहले से प्लान करना पड़ती है।
विवाह में लड़की के गुरु ब्रहस्पति शुभ अशुभ पूरे साल तक रहते हैं इसलिए दो-तीन साल पहले से विचार करना चाहिए।
मुण्डन संस्कार का विचार भी जन्म के बाद ही कर लेना चाहिए, उपनयन (जनेऊ) संस्कार के विचार भी जन्म के तीन- चार वर्ष बाद ही कर लेना चाहिए। गृहारम्भ का विचार सालभर पहले और गृह प्रवेश का विचार गृहारंभ के बाद ही कर लेना चाहिए।
वाहध कृय, दुकान खोलने आदि के विचार लगभग चार-छः महिने पहले ही करना चाहिए।

शुक्रवार, 9 जून 2023

यात्रा मुहुर्त में विशेष योगिनी, दिशाशूल, कालराहु और चन्द्रमा का विचार

योगिनी तिथि से चलती है।

योगिनी सुखदा वामे, 
पृष्ठे वाञ्छित दायिनी;
दक्षिणे धन हन्त्रीच, सम्मुखेमरणप्रदा।

प्रतिपदा और नवमी को पूर्व में योगिनी रहती है अतः पूर्व और दक्षिण और आग्नेय (दक्षिण पूर्व) की यात्रा न करें।
उत्तर की यात्रा सुखद और पश्चिम की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।
ऐसे ही आगे भी समझें ---
तृतीया एकादशी को आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) में योगिनी होती है। अतः आग्नेय और नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम) तथा दक्षिण में यात्रा न करें।
ईशान की यात्रा सुखद और वायव्य की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

पञ्चमी और त्रयोदशी को दक्षिण में योगिनी होती है। अतः दक्षिण, पश्चिम और नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम) में यात्रा वर्जित है।
पूर्व की यात्रा सुखद और उत्तर की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

चतुर्थी एवम् द्वादशी को नैऋत्य में योगिनी होती है। अतः नैऋत्य, वायव्य (उत्तर पश्चिम) तथा दक्षिण में यात्रा न करें।
आग्नेय की यात्रा सुखद और ईशान की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

षष्ठी और चतुर्दशी को पश्चिम में योगिनी होती है। अतः पश्चिम, उत्तर और वायव्य (उत्तर पश्चिम) में यात्रा वर्जित है।
दक्षिण की यात्रा सुखद और पूर्व की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

सप्तमी और पूर्णिमा को वायव्य कोण में योगिनी होती है। अतः वायव्य, ईशान (उत्तर पूर्व) और उत्तर में यात्रा न करें।
नैऋत्य की यात्रा सुखद और आग्नेय की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

द्वितीया और दशमी तिथि को उत्तर में योगिनी होती है। अतः उत्तर, पूर्व और ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) दिशा में यात्रा वर्जित है।
पश्चिम की यात्रा सुखद और दक्षिण की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

अष्टमी और अमावस्या को ईशान कोण में योगिनी होती है। अतः ईशान कोण (उत्तर- पूर्व), आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) और पूर्व दिशा में यात्रा की यात्रा वर्जित है।
वायव्य की यात्रा सुखद और नैऋत्य की यात्रा वाञ्छित दायिनी रहेगी।

दिशाशूल वार से चलते हैं।

दिशा"शूल वामगतम् कृत्वा,"
पृष्ठदा योगिनी यदा, चन्द्रश्चाभिमुखम्गच्छेत्, नरः सर्वार्थम् भागभवेत्।
ध्यान रखें वार सूर्योदय से सूर्योदय तक चलता है। सूर्योदय से ही प्रारम्भ होता है और सूर्योदय से ही बदलता है। रात बारह बजे Day & Date (डे और डेट) ही बदलते हैं।
तिथि, नक्षत्र और चन्द्रमा की राशि का प्रारम्भ और समाप्ति का समय लाहिरी अयनांश या चित्रा पक्षीय अयनांश वाली दृगतुल्य पञ्चाङ्ग से ही देखें।
सोमवार एवम् शनिवार को पूर्व दिशा में दिशा शूल रहता है अतः सोमवार एवम् शनिवार को पूर्व दिशा की यात्रा वर्जित है। और दक्षिण की यात्रा शुभद रहती है।
ऐसे ही आगे भी समझें--
गुरुवार को दक्षिण में दिशा शूल और पूर्व में शुभ।
रविवार और शुक्रवार को पश्चिम में दिशा शूल और दक्षिण में शुभ।
मंगलवार और बुधवार को उत्तर में दिशाशूल और पश्चिम में शुभ।

काल राहु-- 
काल राहु भी वार से चलते हैं।

काल राहु यात्रायाम् अग्रे पृष्ठे च वर्ज्यः।

शनिवार को पूर्व में कालराहु होता है अतः पूर्व और पश्चिम की यात्रा निषेध।
शुक्रवार को आग्नेय (दक्षिण - पूर्व) में कालराहु होता है अतः आग्नेय (दक्षिण - पूर्व) और वायव्य (उत्तर - पश्चिम) में यात्रा वर्जित है।
गुरुवार को दक्षिण में कालराहु होता है दक्षिण और उत्तर में यात्रा वर्जित है।
बुधवार को नैऋत्य (दक्षिण - पश्चिम) में कालराहु होता है अतः नैऋत्य (दक्षिण - पश्चिम) और ईशान (उत्तर - पूर्व) में यात्रा वर्जित है।
मंगलवार को पश्चिम में कालराहु होता है अतः पश्चिम और पूर्व में यात्रा वर्जित है।
सोमवार को वायव्य (उत्तर पश्चिम) में कालराहु होता है अतः वायव्य (उत्तर - पश्चिम) और नैऋत्य (दक्षिण - पश्चिम) की यात्रा वर्जित है।
रविवार को उत्तर में कालराहु होता है अतः उत्तर और दक्षिण की यात्रा वर्जित है।
(सुचना - ईशान कोण (उत्तर - पूर्व) में कालराहु नही होता है।)

चन्द्रमा -
चन्द्रमा का विचार चन्द्रमा के राशियों में भ्रमण पर आधारित है।

सम्मुखेचार्थ लाभाय, 
दक्षिणे सुख सम्पदा;
पृष्ठतः प्राण नाशाय, 
वामे चन्द्रे धन क्षयः।

आग्नेय राशियों मेष,सिंह और धनु के चन्द्रमा के समय चन्द्रमा पूर्व में रहता है। 
अतः पूर्व की यात्रा से अर्थलाभ और दक्षिण की यात्रा से सुख-सम्पदा प्राप्ति होती है।
पश्चिम की यात्रा प्राण नाशक और उत्तर की यात्रा में धनक्षय का भय रहता है।

पृथ्वी तत्वीय राशियों वृष, कन्या और मकर के चन्द्रमा के समय चन्द्रमा दक्षिण में रहता है। 
अतः दक्षिण की यात्रा से अर्थलाभ और पश्चिम की यात्रा से सुख-सम्पदा प्राप्ति होती है।
उत्तर की यात्रा प्राण नाशक और पूर्व की यात्रा में धनक्षय का भय रहता है।

वायव्य राशियों मिथुन, तुला और कुम्भ के चन्द्रमा के समय चन्द्रमा पश्चिम में रहता है। 
अतः पश्चिम की यात्रा से अर्थलाभ और उत्तर की यात्रा से सुख-सम्पदा प्राप्ति होती है।
पूर्व की यात्रा प्राण नाशक और दक्षिण की यात्रा में धनक्षय का भय रहता है।

जलीय राशियों कर्क, वृश्चिक और मीन के चन्द्रमा के समय चन्द्रमा उत्तर में रहता है। 
अतः उत्तर  की यात्रा से अर्थलाभ और पूर्व की यात्रा से सुख-सम्पदा प्राप्ति होती है।
दक्षिण की यात्रा प्राण नाशक और पश्चिम की यात्रा में धनक्षय का भय रहता है।

गुरुवार, 8 जून 2023

बौद्ध मत

महायान सम्प्रदाय ---
प्रथम संगीति ईसापूर्व ४४३ से ४४२ ईसापूर्व में मगधसम्राट अजातशत्रु ने महाकाश्यप की अध्यक्षता में आयोजित की थी। 
प्रथम बौद्ध संगीति में-
१ सुत्त पिटक का संकलन आनंद ने किया।
 २ विनय पिटक का संकलन उपाली ने किया।
महायान सम्प्रदाय के माध्यमिक/ शुन्यवादी और योगाचार/ विज्ञानवादी दोनों महायान सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं। ये चीन जापान और कोरिया में पाये जाते हैं।

१ *माध्यमिक मत* के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। *शून्यवाद* का यह शुन्यवाद के शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है। शुन्यवाद के  प्रवर्तक नागार्जुन २०० ईस्वी।  माध्यमिक सुत्त पिटक और विनय पिटक को ही आधार मानते हैं।

२ *योगाचार* मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। प्रवर्तक मैत्रेय (३०० ईस्वी) हैं  और विकास - असङ्ग और वसुबन्धु  ने किया। योगाचारी/ विज्ञानवादी भी सुत्त पिटक और विनय पिटक को ही आधार मानते हैं।


हीनयान सम्प्रदाय - या थेरवाद --
अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में आयोजित तीसरी बौद्ध संगीति में २४९ ईसापूर्व में मोगलीपुत्त तिस्सा ने अभिधम्म पिटक की रचना की थी। इनके अनुयाई थेरवादी कहलाते है। ये ब्रह्मदेश/ म्यांमार और श्रीलंका में पाये जाते हैं। नव बौद्ध भी थेरवादी हैं।

३ *वैभाषिक* मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य *प्रत्यक्षवाद* अथवा " *सर्वास्तित्ववाद* " कहते हैं। वैभाषिक अभिधम्म पिटक को ही आधार मानते हैं।

४ *सैत्रांतिक* मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे *बाह्यानुमेयवाद* कहते हैं।सैत्रांतिक मत का विकास कुमारलात ने किया।सैत्रांतिक मत का प्रचार श्रीलंका में अधिक सेहै।
सैत्रांतिक अभिधम्म पिटक को ही आधार मानते हैं।

५ वज्रयान बौद्ध पन्थ के आचार्य बोधिसत्व मञ्जुश्री के उग्र अवतार भैरव माने जाते हैं। यह परम तान्त्रिक मत है। वज्रयानी बौद्ध तिब्बत में पाये जाते हैं।


दिन-रात के मुहुर्तों के नाम, अवधि और शुभाशुभ

*दिन-रात के मुहूर्तों के नाम, समयावधि और शुभाशुभ की जानकारी* --  
दिनांक २१ मार्च और २३ सितम्बर को भारतीय मध्याह्न रेखा पर स्थित स्थानों के लिए समयावधि (यथा विंध्यवासिनी मन्दिर मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश में।)

1 -- *रुद्र मुहूर्त*  सूर्योदय समय से (06:00 से 06:48 तक) । फल - अशुभ । 

2 -- *अही मुहूर्त* (सर्प) (06:48 से 07:36 तक)। फल - अशुभ । 

3 -- *मित्र मुहूर्त* (07:36 से 08:24 तक)। शुभ।

4-- *पितृ मुहूर्त* (08:24 से09:12 तक)। अशुभ।

5 -- *वसु मुहूर्त* (09:12 से 10:00 तक) । शुभ।
6 -- *वराह मुहूर्त* (10:00 से 10:48 तक)। शुभ

7 -- *विश्वेदेवा मुहूर्त* (10:48 से 11:36 तक) । शुभ।

8 -- *विधि मुहूर्त*  (11:36 से 12:24 तक)। सोमवार और शुक्रवार को छोड़कर शुभ । 

9 -- *सुतमुखी मुहूर्त* (12:24 से 13:12 तक ) शुभ। 
(सतमुखी का अर्थ - "बकरी / सारथी-चेहरा"।)

10 -- *पुरुहूत मुहूर्त* 13:12 से 14:00 तक)। अशुभ। 
(पुरुहूत का अर्थ "कई प्रसाद")

11 -- *वाहिनी मुहूर्त* ("रथ के कब्जे में") (14:00 से 14:48 तक)। अशुभ।   (तारा मण्डल -मिथुन?)

12 -- *नक्तनकरा मुहूर्त* ("नाइट मेकर") (14:48 से 15:36 तक)। अशुभ। योगतारा --"नाइट मेकर"।

13 -- *वरुण मुहूर्त* (15:36 से 16:24 तक)। शुभ। "ऑल-लिवेलपिंग नाइट स्काई" ।
14 -- *अर्यमन् मुहूर्त* ("बड़प्पन के कब्जे") । 16:24 से 17:12 तक)। रविवार को छोड़कर शुभ।

15 -- *भग मुहूर्त* (17:12 से 18:00 सूर्यास्त तक)। अशुभ।

16 -- *गिरीश मुहूर्त* (सूर्यास्त 18:00 से 18:48 तक)। शुभ।

17 -- *अजेकपाद मुहूर्त*  (18:48 से 19:36 तक)। अशुभ।

18 -- *अहिर्बुध्न्य मुहूर्त*  (19:36 से 20:24 तक)। शुभ।

19 -- *पुष्य मुहूर्त* (20:24 से 21:12 तक)। शुभ।

20 -- *अश्विनी मुहूर्त* (21:12 से 22:00 तक)। (अश्विनी)। शुभ।

21 -- *यम मुहूर्त* (22:00 से 22:48 तक) । अशुभ।

22 -- *अग्नि मुहूर्त* (22:48 से 23:36 तक)। शुभ।

23 -- *विधातृ मुहूर्त* (23:36 से 00:24 तक)। शुभ

24 -- *कन्द मुहूर्त*  (00:24 से 01:12 तक)। शुभ।
(कन्द का अर्थ"आभूषण" कोरोना बोरेलिस)

25 -- *अदिति मुहूर्त*  (01:12 से 02:00 तक) ।

26 -- *जीव मुहूर्त* (02:00  से 02:48 तक ) । 

27 -- *विष्णु मुहूर्त*  (02:48 से 03:36 तक)। Auspicious ।

28 -- *द्युमद्गद्युति मुहूर्त*  (03:36 से 04:24 तक) ।

29 -- *ब्रह्म मुहूर्त* (04:24 से 05:12 तक) ।

30 -- *समुद्र मुहुर्त*  (05:12 से 06:00 तक)।



 तैत्तिरीय-ब्राह्मण में 15 मुहूर्तों के नामों का उल्लेख इस प्रकार है:

संज्ञानम
विज्ञानम
प्रज्ञानम
जानद
अभिजानत
संकल्पमानम
प्रकल्पमानम
उपकल्पमानम
उपकप्तम
kptam
श्रेयो
वसीया
आयत
संभूतम
भूतम |
शतपथ ब्राह्मण एक मुहूर्त को एक दिन के 1/15वें भाग के रूप में वर्णित करता है:

मंगलवार, 6 जून 2023

गृहारम्भ मुहूर्त

ग्रहारम्भ मुहूर्त, नीव भरनें और प्रथम शिलान्यास का मुहूर्त ---

 *गृहारम्भ मुहूर्त* 
 *गृहारम्भ मुहूर्त अर्थात भूमि पूजन कर नीव खोदनें का मुहूर्त ---* 

शुभ मास --- सौर मास मेष के सुर्य में (चैत्र मास भी चलेगा), वैशाख मास, वृष के सुर्य में (ज्यैष्ठ मास भी चलेगा), कर्क के सुर्य में (आषाढ़ मास भी चलेगा), श्रावण मास, सिंह के सुर्य में (भाद्रपद मास भी चलेगा), तुला के सुर्य में (आश्विन मास भी चलेगा) कार्तिक मास, मार्गशीर्ष मास, पौष मास, माघ मास, और फाल्गुन मास में।इनके अतिरिक्त नारद के अनुसार ज्यैष्ठ, कार्तिक, और माघ मास भी शुभ कहा है।

शुभ तिथियाँ --(चन्द्र दर्शन के बाद) शुक्लपक्ष की द्वितीया, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों पक्षों की तृतीया, पञ्चमी, (षष्टि), सप्तमी, [अष्टमी], दशमी, एकादशी, {द्वादशी}, तृयोदशी, एवम् शुक्ल पक्ष में पुर्णिमा तिथि में।

(गृहप्रवेश में निषिद्ध -- सुर्य गतांश --- सुर्य की राशि (सौर मास के) गतांश 0,3,12 और 21 अर्थात अग्नि बाण छोड़कर। मूलतः ये गृह प्रवेश में निषिद्ध है, लेकिन, आजकल ले ऑउट खीँचनें में लकड़ी की खूँटियाँ प्रयोग की जाती है। और  हत्थे वाले गेती-फावड़े की पूजा की जाती है। अतः अग्नि बाण का निषेध बतलाता गया है।) 


शुभ वार --- सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, और शनिवार में।
 शुभ नक्षत्र ---वृष वास्तुचक्र अनुसार,वेध रहित चन्द्रमा इन नक्षत्रों में ---
रोहिणी, मृगशिर्ष, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा,शतभिषा,उत्तराभाद्रपद, और रेवती नक्षत्र में।
भू शयन --- भू शयन यानी सुर्य नक्षत्र से गिन कर पाँचवा, सातवाँ,नौवाँ, बारहवाँ ,उन्नीसवाँ और 26 वाँ चन्द्र नक्षत्र छोड़ कर।

गुरु अस्त और शुक्र अस्त के तीन दिन आगे पीछे सहित गुरु अस्त और शुक्र अस्त अवधि छोड़कर।
व्यतिपात और वैधृतिपात योग छोड़कर, भद्रा (विष्टि करण) छोड़ कर।
(स्थिर लग्न में) अर्थात श्री वृष लग्न, सिंह लग्न, वृश्चिक लग्न (या फिर द्विस्वभाव लग्न में) यानी मिथुन लग्न, कन्या लग्न, धनु लग्न, और मीन लग्न में भूमिपुजन कर नीव खोदना आरम्भ करें।

 *नीव भरनें का मुहूर्त ---* 

नीव भरनें में और प्रथम बार शिलान्यास प्रकरण में ---

शुभ मास --- सौर मास मेष के सुर्य में (चैत्र मास भी चलेगा), वैशाख मास, वृष के सुर्य में (ज्यैष्ठ मास भी चलेगा), कर्क के सुर्य में (आषाढ़ मास भी चलेगा), श्रावण मास, सिंह के सुर्य में (भाद्रपद मास भी चलेगा), तुला के सुर्य में (आश्विन मास भी चलेगा) कार्तिक मास, मार्गशीर्ष मास, पौष मास, माघ मास, और फाल्गुन मास में।इनके अतिरिक्त नारद के अनुसार ज्यैष्ठ, कार्तिक, और माघ मास भी शुभ कहा है।

शुभ तिथियाँ --(चन्द्र दर्शन के बाद) शुक्लपक्ष की द्वितीया, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों पक्षों की तृतीया, पञ्चमी, (षष्टि), सप्तमी, [अष्टमी], दशमी, एकादशी, {द्वादशी}, तृयोदशी, एवम् शुक्ल पक्ष में पुर्णिमा तिथि में।

सुर्य गतांश --- सुर्य की राशि (सौर मास के) गतांश 02°, 11°, 20°, 29° अर्थात वर्तमान अंश 03°, 12°, 21° और 30° अर्थात अग्नि बाण छोड़कर,
मंगलवार को पड़ने वाला पञ्चक, और धनिष्ठा नक्षत्र छोड़कर।
शुभ वार --- सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, और शनिवार में।

शुभ नक्षत्र ---वृष वास्तुचक्र अनुसार,वेध रहित चन्द्रमा इन नक्षत्रों में ---
रोहिणी, मृगशिर्ष, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, _धनिष्ठा_ ,शतभिषा, उत्तराभाद्रपद, और रेवती नक्षत्र में।
(धनिष्ठा नक्षत्र में अग्नि भय भी बतलाया जाता है।)
भू शयन --- भू शयन यानी सुर्य नक्षत्र से गिन कर पाँचवा, सातवाँ,नौवाँ, बारहवाँ ,उन्नीसवाँ और 26 वाँ चन्द्र नक्षत्र छोड़ कर।
 *केवल नीव भरनें के समय के शुभ नक्षत्र ---*
अश्विनी, भरणी, रोहिणी, मृगशिर्ष, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पुर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, अनुराधा,मूल, पुर्वाषाढ़ा,उत्तराषाढ़ा, श्रवण, पुर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद,और रेवती नक्षत्र में।
गुरु अस्त और शुक्र अस्त के तीन दिन आगे पीछे सहित गुरु अस्त और शुक्र अस्त अवधि छोड़कर।
व्यतिपात और वैधृतिपात योग छोड़कर, भद्रा (विष्टि करण) छोड़ कर।
(स्थिर लग्न में) अर्थात श्री वृष लग्न, सिंह लग्न, वृश्चिक लग्न (या फिर द्विस्वभाव लग्न में) यानी मिथुन लग्न, कन्या लग्न, धनु लग्न, और मीन लग्न में।
भूमिपुजन कर नीव खोद कर नीव भरना और शिलान्यास करें।

(मुहूर्त शास्त्र में वार अनुकूल न मिलने की स्थिति में अनुकूल वार का होरा में कार्य कर सकते हैं।)
(मुहूर्त शास्त्र में चौघड़िया का कोई महत्व नही है। कालराहू भी यात्रा और संस्कार प्रकरण में टाल देना उचित मानते हैं। पर आवश्यक नही है।)

मृत्यु बाण, अग्निबाण, राजबाण, चोरबाण,रोगबाण तथा पञ्चक की परिभाषा, प्रभाव और निवारण आदि

मृत्यु बाण सूर्य गतांश ०१°, १०°, १९°, २८° हो तो मृत्यु बाण होता है।
शनिवार को पड़ने वाला पञ्चक मृत्यु पञ्चक कहलाता है। 

अग्निबाण सूर्य गतांश ०२°, ११°, २०°, २९° हो तो अग्नि बाण होता है।
मंगलवार को पड़ने वाला पञ्चक अग्नि पञ्चक कहलाता है।
धनिष्ठा नक्षत्र में अग्नि का भय रहता है।

राजबाण/ नृपबाण सूर्य गतांश ०४°, १३°, २२° हो तो नृपबाण/ राज बाण होता है।
सोमवार को पड़ने वाला पञ्चक राज पञ्चक कहलाता है।

चोरबाण सूर्य गतांश ०६°, १५°, २४° हो तो चोर बाण होता है।
शुक्रवार को पड़ने वाला पञ्चक चोर पञ्चक कहलाता है।

रोगबाण सूर्य गतांश ०८°, १७°, २६° हो तो रोग बाण होता है।
रविवार को पड़ने वाला पञ्चक रोग पञ्चक कहलाता है।
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में रोग बढ़ने की संभावना रहती है।

 *मुहूर्त - चिंतामणि* के अनुसार ---
'अग्नि-चौरभयं रोगो राजपीडा धनक्षतिः।
संग्रहे तृण-काष्ठानां कृते वस्वादि-पञ्चके।।'-
 *अर्थात* :- पञ्चक में तिनकों और काष्ठों के संग्रह से अग्निभय, चोरभय, रोगभय, राजभय एवं धनहानि संभव है।

*पञ्चक के नक्षत्रों का प्रभाव* ---
1. धनिष्ठा नक्षत्र में अग्नि का भय रहता है।
2. शतभिषा नक्षत्र में कलह होने की संभावना रहती है।
3. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में रोग बढ़ने की संभावना रहती है।
4. उतरा भाद्रपद में धन के रूप में दंड होता है।
5. रेवती नक्षत्र में धन हानि की संभावना रहती है।
 
१लकड़ी एकत्र करना या खरीदना, 
२ मकान पर छत डलवाना, 
३ शव जलाना, 
४ पलंग या चारपाई बनवाना और 
५ दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना।

 *पञ्चक के प्रकार  ---* 
रविवार को पड़ने वाला पञ्चक रोग पञ्चक कहलाता है।
सोमवार को पड़ने वाला पञ्चक राज पञ्चक कहलाता है।
मंगलवार को पड़ने वाला पञ्चक अग्नि पञ्चक कहलाता है।
शुक्रवार को पड़ने वाला पञ्चक चोर पञ्चक कहलाता है।
शनिवार को पड़ने वाला पञ्चक मृत्यु पञ्चक कहलाता है। 
६ इसके अलावा बुधवार और गुरुवार को पड़ने वाले पञ्चक में ऊपर दी गई बातों का पालन करना जरूरी नहीं माना गया है।
ध्यान रखें कि, वार सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक रहते हैं। और सूर्योदय से ही बदलते हैं। रात बारह बजे डे एवम् डेट (Day & Date) ही बदलते हैं।
तिथि और नक्षत्र लाहिरी अयनांश या चित्रा पक्षीय अयनांश वाली दृगतुल्य पञ्चाङ्ग से ही देखें।

पञ्चक में जन्म मृत्यु का प्रभाव ---
यदि धनिष्ठा में जन्म-मरण हो, तो उस गांव-नगर में पांच और जन्म-मरण होता है। शतभिषा में हो तो उसी कुल में, पूर्वा में हो तो उसी मुहल्ले-टोले में, उत्तरा में हो तो उसी घर में और रेवती में हो तो दूसरे गांव-नगर में पांच बच्चों का जन्म एवं पांच लोगों की मृत्यु संभव है। 

 *समाधान* ---
यदि लकड़ी खरीदना अनिवार्य हो तो पञ्चक काल समाप्त होने पर गायत्री माता के नाम का हवन कराएं। यदि मकान पर छत डलवाना अनिवार्य हो तो मजदूरों को मिठाई खिलने के पश्चात ही छत डलवाने का कार्य करें। 

यदि पञ्चक काल में शव दाह करना अनिवार्य हो तो शव दाह करते समय पांच अलग पुतले बनाकर उन्हें भी अवश्य जलाएं। इसी तरह यदि पञ्चक काल में पलंग या चारपाई लाना जरूरी हो तो पञ्चक काल की समाप्ति के पश्चात ही इस पलंग या चारपाई का प्रयोग करें। अंत में यह कि यदि पञ्चक काल में दक्षिण दिशा की यात्रा करना अनिवार्य हो तो हनुमान मंदिर में फल चढ़ाकर यात्रा प्रारंभ कर सकते हैं। ऐसा करने से पञ्चक दोष दूर हो जाता है।

पञ्चक में मृत्यु होनें पर गरुड़ पुराण के अनुसार  समाधान ---

१ शव के साथ आटे, बेसन या कुश (सूखी घास) से बने पांच पुतले अर्थी पर रखकर इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार किया जाता है। ऐसा करने से पञ्चक दोष समाप्त हो जाता है।
 
 २ अगर पंचक में किसी की मृत्यु हो जाए तो उसमें कुछ सावधानियां बरतना चाहिए। सबसे पहले तो दाह-संस्कार संबंधित नक्षत्र के मंत्र से आहुति देकर नक्षत्र के मध्यकाल में किया जा सकता है। नियमपूर्वक दी गई आहुति पुण्यफल प्रदान करती हैं। साथ ही अगर संभव हो दाह संस्कार तीर्थस्थल में किया जाए तो उत्तम गति मिलती है।

शनिवार, 3 जून 2023

पूजा

वैदिक भाषा में पूज धातु सेवा के अर्थ में प्रयोग होती है।
जैसे माता- पिता बच्चों का लालन पालन नियमित और योग्य तौर तरीके से शास्त्रोक्त विधि से कुशलतापूर्वक करेंगे तो ही बच्चा स्वस्थ,सुघड़ और सुसंस्कृत होगा अन्यथा परिणाम विपरीत होंगे।
यदि व्यक्ति बिमारों, अपङ्गो, पाल्य पशु - पक्षियों, वनस्पतियों का और  गुरुजनों की सेवा नियमित और योग्य तौर तरीके से कुशलतापूर्वक करेंगे तो ही माता - पिता, बिमारों, अपङ्गो, पाल्य पशु - पक्षियों, वनस्पतियों का और  गुरुजनों के शुभाशीर्वाद स्वतः प्राप्त होंगे।
यही वास्तविक पूजा है। लेकिन इसे शास्त्रोक्त विधि से नियम पूर्वक ही की जाना चाहिए।
जिस कार्य की विधि- निषेध जिस शास्त्र में वर्णित हो, उसी विधि को शास्त्रोक्त विधि कहते हैं।