श्रीकृष्ण की पत्नियाँ
महर्षि श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात वेदव्यास जी की मुख्य, सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रामाणिक रचना महाभारत को ही माना जाता है।
कहा जाता है कि, वेदव्यास जी ने पहले अत्यन्त गूढ़ भाषा में आठ हजार आठ सौ श्लोक मन में रचकर बाद में ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने का विचार किया। इन अत्यन्त गूढ़ भाषा में रचित आठ हजार आठ श्लोकों के विषय में स्वयम् वेदव्यास जी नें लिखा है कि, इन श्लोकों के अर्थ केवल मैं ( अर्थात स्वयम् वेदव्यास जी) और उनके पुत्र शुकदेव जी ही जानते हैं और शायद उनके शिष्य सुत जी कुछ के अर्थ जानते हों।
लिपिबद्ध करने तैयारी होनें तक वेदव्यास जी बत्तीस हजार श्लोक बनाकर शुकदेव जी, सुतजी और वैशम्पायनजी को सुना चुके थे। यह जय संहिता कहलाती है। बत्तीस हजार श्लोक की जय संहिता का अर्थ वेदव्यास जी, शुकदेव जी, सुतजी और वैशम्पायनजी जी जानते थे। जिनमें से बहुत से कूट स्व. श्री ग. वा. कविश्वर जी नें महाभारत के तेरह वर्ष, महाभारत के गूढ़ रहस्य और गीता तत्व मीमांसा पुस्तक में उद्घाटित किये।
बाद में गणपति जी नें लिपिबद्ध करना स्वीकार कर लिया तो वेदव्यास जी ने विस्तृत ग्रन्थ की रचना की। जिसका नाम महाभारत रखा।
इस कारण कुछ लोगों की मान्यता है कि, वेदव्यास जी ने बत्तीस हजार श्लोक का जय संहता नामक इतिहास ग्रन्थ रचा था। जिसे बाद में वैशम्पायनजी नें विस्तार किया। और सुत जी ने वर्तमान एक लाख श्लोकों का महाभारत बना दिया। लेकिन इस मत का कोई आधार सिद्ध नहीं कर पाया।
विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर जी की रचना मानी जाती है। अन्य पुराणों के रचना काल भिन्न-भिन्न हैं। अतः अठारह पुराणों के रचयिता वेदव्यास को मानना केवल मान्यता तक सीमित है, प्रामाणिक नही है।
कुछ पुराणों के बारे में देवीभागवत के टीकाकार नें रहस्योद्घाटन किया था कि, तेलङ्गाना के विद्वान कवि बोपदेव श्रीमद्भागवत पुराण और वायु पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण नामक ग्रन्थ वेदव्यास जी के नाम से रच कर धारानगरी के राजा भोज (प्रथम) की राज्यसभा में पुरस्कार की आशा से उपस्थित हुए। लेकिन राजाभोज नें कहा कि, यदि ये ग्रन्थ आप अपने नाम से ही रचते तो मैं आपकी भरपूर प्रशंसा करता और भरपूर पुरस्कार से पुरस्कृत करता। लेकिन आपने महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर अपने मत को प्रकाशित कर घोर निन्दनीय और दण्डनीय प्रज्ञा अपराध किया है, अतः आपके इस कृत्य की घोर निन्दा करते हुए ब्राह्मण होनें के कारण आपको मृत्यु दण्ड के स्थान पर देश-निकाला के दण्ड से दण्डित करता हूँ।
भविष्य पुराण में अधिकांश घटनाओं का उल्लेख भूतकाल में किया गया है, जो स्पष्ट करता है कि, भविष्य पुराण समय समय पर संशोधित और परिवर्धित होता रहा। ऐसे ही अन्य पुराणों में भी महाभारत के बहुत बाद की घटनाओं का वर्णन भूतकाल में लिखा गया है। जिससे उनके रचनाकाल का अनुमान हो सकता है। अस्तु पुराणों में कथित तथ्यों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
महाभारत में जहाँ श्रीकृष्ण की एकमात्र भार्या के रूप में रुक्मिणी और उनके पुत्र प्रद्युम्न का नामोल्लेख ही मिलता है। न सत्रसेन यादव की पुत्री सत्यभामा का न जाम्बवन्त जी की पुत्री जाम्बवन्ती का न अन्य पाँच पत्नियों का। जबकि पुराणों में १ रुक्मणि, २ जाम्बवन्ती, ३ सत्यभामा, ४ कालिन्दी (यमुना नदी), ५ मित्रबिन्दा, ६ सत्या, ७ भद्रा और ८ लक्ष्मणा अष्टभार्याओं का नामोल्लेख पाया जाता है। जिसका कोई आधार सिद्ध नहीं होता है।
अधिकांशतः पुराणों में भी केवल रुक्मिणी को ही श्रीकृष्ण की पट्टमहिषि (हिन्दी में पटरानी) कहा गया है लेकिन कई कथाकार आठ पटरानियों का उल्लेख करते हैं, जो निराधार है।
पुराणों की तो स्थिति यह है कि, ब्रह्मवैवर्त पुराण में तो श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी वृषभानु पुत्री राधा को बतला दिया और कहा गया कि, ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण के शैशव अवस्था में ही एकान्त वन में लेजाकर श्रीकृष्ण और उनसे चार वर्ष बढ़ी राधा का विवाह करवा दिया था। जिसे बाद में दोनों ही भूल गए। प्रामाणिक बतलाने के लिए यह वर्णन गर्गसंहिता में भी चिपका दिया गया।
फिर आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि, बाद में श्रीकृष्ण की पालक माता और मौसी यशोदा जी के भाई रायण के साथ उसी राधा का विवाह होना बतला दिया। तदनुसार राधा श्रीकृष्ण की मामी हो गई। इसको उचित ठहराने के लिए गौलोक में रायण को श्रीकृष्ण का अंश बतला दिया गया। यदि रायण श्रीकृष्ण का अंश था तो रायण श्रीकृष्ण का पुत्रवत हुआ। तदनुसार राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधू हुई।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा और अन्य गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की कामक्रिड़ाओं के वर्णन पढ़कर आपको लगेगा कि, वात्स्यायन के कामशास्त्र पर आधारित कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। इससे अधिक अश्लील वर्णन अन्यत्र मिलना कठिन है।
महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, श्रीकृष्ण ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था (वय) में मथुरा चले गये थे और बाद में कभी ब्रज - गोकुल क्षेत्र में नहीं लौटे। इसनी कम अवस्था के बालक पर गोपियों के प्रति कामुकता का वर्णन पुराणों को अविश्वसनीय सिद्ध करता है।
पुराणों में लिखा कि,भौमासुर (नरकासुर) को प्राग्ज्योतिषपुर में मार कर भौमासुर (नरकासुर) द्वारा कैद की गई सौलह हजार कन्याओं को मुक्त कराया। उन राजकुमारियों नें मन ही मन श्रीकृष्ण का पति के रूप में वरण कर लिया। उन सोलह हजार राजकुमारियों ने श्रीकृष्ण से कहा कि, मातृ- पितृ कुल द्वारा नही अपनायें जानें, और इस कारण कोई विवाह भी नही करेगा उन कन्याओं की इस प्रार्थना पर सामाजिक कर्तव्य को देखते हुए श्रीकृष्ण नें इन सोलह हजार कन्याओं से अलग-अलग रूप धरकर एक साथ विवाह कर लिया। इसे शास्त्रीय जामा पहनाने के लिए कथावाचकों नें सोलह हजार रानियों को वैदिक ऋचाएँ बतलाना शुरू कर दिया। इनके अलावा भी सौ और राजकुमारियों से विवाह का भी उल्लेख किया जाता है।
जबकि श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ने विवाह उपरान्त भी श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति के उद्देश्य से बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। तब जाकर प्रद्युम्न को जन्म दिया।
श्रीमद्भागवत पुराण कथा में नाच - गान करवाने वाले, श्रीकृष्ण जन्मोत्सव और रुक्मिणी विवाह की नाट्य लीला करवा कर दहेज देने के नाम पर हजारों रुपए कमाने वाले कथावाचक तो श्रीकृष्ण की एकमात्र पटरानी के स्थान पर आठ पटरानियाँ बतलाने लगे हैं। पट्ट महिषी या पटरानी वह होती है जो राज्य सभा में राज सिंहासन पर राजन के साथ विराजित होती है। अब एक राजा आठ पटरानियों के साथ राजसिंहासन पर कैसे बैठेगा! यह तो कथावाचक ही समझा सकते हैं।
उनके चेले (श्रोता) उनसे आगे बढ़कर सोशल मीडिया में श्रीकृष्ण की एक हजार एक सौ आठ पटरानियाँ बतलाने लगे हैं। अब उन्हें तो केवल ईश्वर ही ज्ञान प्रदान कर सकतें हैं।
अब ईश्वर ही धर्म की रक्षा करने में समर्थ हैं।