शनिवार, 30 दिसंबर 2023

सायन राशियों का स्वभाव निर्धारित नहीं किया जा सकता।

संहिता ज्योतिष स्कन्द और होरा शास्त्र या जातक शास्त्र अर्थात फलित ज्योतिष में क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण में अधिकतम नौ-नौ अंश तक चौड़ी अर्थात कुल अठारह अंश चौड़ी पट्टी वाले परिपथ स्थिर भचक्र में ही सत्ताइस नक्षत्रों या अधिक नक्षत्रों या तेरह आर्याओं या बारह राशियों के तारामंडल का ही स्वभाव निर्धारित किया जा सकता है। अतः संहिताओं और फलित ग्रन्थों में स्थिर राशियों और नक्षत्रों के ही स्वभाव बतलाये हैं।
कोई भी व्यक्ति जिस स्थान पर बैठता है तदनुसार चर्चा और व्यवहार करता है। देवस्थान में धार्मिक आचरण, कार्यस्थल पर अपने व्यवसाय का आचरण स्वाभाविक है। ऐसे ही ग्रहों का अपना स्वभाव तो है लेकिन जिस तारामण्डल अर्थात नक्षत्र या राशि में रहता है उस नक्षत्र या राशि के स्वभाव अनुकूल उस ग्रह का प्रदर्शन बदल जाता है।
वास्तविकता में सायन पद्यति में राशियाँ और नक्षत्र होते ही नहीं। सायन गणना में केवल भोगांश/ विशुवांश में ही ग्रह स्थिति दर्शाई जाती है।
क्योंकि यदि सायन भोगांश को तीस अंश से विभाजित कर राशियों में दर्शाया जाए और उन राशियों में ग्रह दर्शाये जाएँ तो सन २८५ में जो मेष राशि का तारा मण्डल था वही मेष राशि का तारा मण्डल ईस्वी पूर्व ४०१२ में मिथुन राशि का तारा मण्डल था, ईसापूर्व १८६४ में वृष राशि का तारा मण्डल था सन २८५ ईस्वी में मेष राशि का तारा मण्डल था और ईस्वी सन २४३३ में मीन राशि का तारा मण्डल होगा और ईस्वी सन ६९५२ में कुम्भ राशि का तारा मण्डल हो जाएगा।
उस तारा मण्डल अर्थात नक्षत्र या राशि का स्वभाव तो नियत ही रहेगा लेकिन सायन राशि का स्वभाव नियत नहीं रह सकता।
अतः सायन राशियों का स्वभाव निर्धारित नहीं किया जा सकता।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

वैदिक सनातनधर्मियों के केलेण्डर (पञ्चाङ्ग)।

🙏🏼 ॐ विष्णवै नमः।🙏🏼

सनातन वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति में प्रचलित ज्योतिष पत्रक/ केलेण्डर युगाब्ध जिसकी अनुशासन केलेण्डर रिफार्म्स कमेटी 1955 ने भी की थी, लेकिन चाचा नेहरू ने जिसे राष्ट्रीय शक केलेण्डर के नाम से प्रचलित करवा दिया। फिर भी राष्ट्रीय केलेण्डर के दिनांकों को बैंकों, शैक्षणिक आदि शासकीय कार्यों में गत वर्ष मान्यता दी गई। परिणाम स्वरूप शासकीय कार्यों में ग्रेगोरियन केलेण्डर ही प्रचलित रहा। और टी.वी. तथा सिनेमा नें 31 दिसम्बर की धूमधाम का व्यापक प्रचार कर दिया।---

नव कलियुग संवत और वैदिक उत्तर गोल का प्रारम्भ। 
*20 मार्च 2024 को पूर्वाह्न 08:36 बजे प्रातः वसन्त विषुव अर्थात सायन मेष संक्रान्ति होगी।* 
*इसी समय से वैदिक संवत्सर/ संवत बदलकर कलियुग संवत 5125 प्रारम्भ हो जाएगा। जो व्यवहार में अगले दिन 21 मार्च 2024 को सूर्योदय से लागू होगा।* 
*देवताओं का सूर्योदय तथा पितरों का सूर्यास्त होगा। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त हो जाएगा। इसलिये वैदिक उत्तर गोल प्रारम्भ होगा।* 
सूर्य भूमध्य रेखा पर पहूँच कर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करेगा। पूरे विश्व में दिन-रात बराबर होगें। सूर्योदय ठीक पूर्वदिशा में और सूर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होगा। ठीक मध्याह्न में भूमध्य रेखा पर खड़े बिजली आदि के खम्बों की छाया लुप्त हो जाएगी। आगामी शरद विषुव अर्थात सायन तुला संक्रान्ति तक सूर्य उत्तरी गोलार्ध में रह कर संचरण करेगा, इसलिए; सायन मेष संक्रान्ति 20 मार्च से सायन तुला संक्रान्ति 22 सितम्बर तक की अवधि को उत्तर गोल कहते हैं।
उत्तरगोल-दक्षिण गोल, उत्तरायण-दक्षिणायन, षड् ऋतुएँ इसी केलेण्डर में हो सकती है।

इसके पश्चात अगला नव संवत्सर *20 मार्च 2025 को अपराह्न 02:31 बजे दोपहर मे (14:21 बजे) वसन्त विषुव अर्थात सायन मेष संक्रान्ति होगी।* 
*इसी समय से वैदिक संवत्सर/ संवत बदलकर कलियुग संवत 5126 प्रारम्भ हो जाएगा। जो व्यवहार में अगले दिन 21 मार्च 2025 के सूर्योदय से लागू होगा।*


सनातन धर्म का दुसरा केलेण्डर/पञ्चाङ्ग युधिष्ठिर संवत जो अलग-अलग नामों से पञ्जाब - हरियाणा - हिमाचल प्रदेश -जम्मू और उत्तराखण्ड और  के कुछ भागों में विक्रम संवत के नाम से , बङ्गाल - उड़ीसा - असम - मणिपुर में , तमिलनाडु एवम केरल में स्थानीय नामों से प्रचलित है।
युधिष्ठिर संवत 5162 का प्रारम्भ समय, निरयन मेष संक्रान्ति; जब सूर्य के केन्द्र से भूमि चित्रा तारे के समक्ष होगी, अर्थात भूकेन्द्र से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर 13 अप्रैल 2024 को अपराह्न 09:03 बजे (21:03 बजे) रात में होगी। इसे ही सम्राट विक्रमादित्य ने अपने राज्यारोहण के समय पुनः लागू किया था। लेकिन इस केलेण्डर का सम्बन्ध अयन और ऋतुओं से न होकर आकाश के तारामंडल में निर्मित सत्ताइस नक्षत्रों या अर्वाचीन अठासी नक्षत्रों (कांस्टिलेशन) और तेरह अरों/ राशियों (साइन Sign) में सूर्य की स्थिति से है। फिर भी पौराणिक काल में प्रत्येक 30° का एक मास निर्धारित कर दिया गया। लगभग 72वर्ष में एक दिन का अन्तर, 2148 वर्ष में  30° के एक मास का अन्तर और 4296 वर्ष में 60° की एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है। और 12890 वर्ष में 180° के एक गोल/ अयन का अन्तर पड़ जाता है। तदनुसार लगभग 8593 वर्ष में चार माह के मौसम अर्थात 120° का अन्तर पड़ जाता है। अर्थात 25780 निरयन सौर वर्ष और 25781 सायन सौर वर्ष में अहर्गण (दिनों की संख्या) बराबर होंगे।

पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू में प्रचलित विक्रम संवत 2081 का प्रारम्भ भी निरयन मेष संक्रान्ति से 13 अप्रैल 2024 को अपराह्न 09:03 बजे (21:03 बजे) रात से होगा और व्यवहार में दिनांक 14 अप्रैल 2024 को सूर्योदय से विक्रम संवत 2081 का प्रारम्भ होगा। 
यह काल गणना क्षेत्रीय नाम परिवर्तन के साथ बङ्गाल, उड़िसा, असम, तमिलनाडु, केरल आदि प्रदेशों में इसी समय नव संवत्सर प्रारम्भ के रूप में प्रचलित है। आप 14/15जनवरी को जो मकर संक्रान्ति मनाते हैं वह इस केलेण्डर (पञ्चाङ्ग) के दशम मास / पञ्जाब हरियाणा में निरयन सौर माघ मास का प्रारम्भ और तमिलनाडु और केरल में मकर मास का शुभारम्भ है।
प्राचीन सनातन धर्म में ये दोनों ज्योतिष पत्रक/ पञ्चाङ्ग/ केलेण्डर प्रचलित थे।

पहले शकों  और बाद में भी तुर्कों - अफगानों के अधीन रहने कारण वैदिक परम्परा से भ्रष्ट हुए वर्तमान भारतीय लोगों का शकाब्द ---
शक संवत 1946 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सूर्योदय से 09 अप्रेल को प्रारम्भ होगा जिसे कर्नाटक , आन्ध्र प्रदेश - तेलङ्गाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सातवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णी नें पेठण (महाराष्ट्र) विजय की खुशी में शालिवाहन शकाब्द के नाम से चलाया था और उत्तर भारत में कुषाण वंश के क्षत्रप कनिष्क प्रथम नें मथुरा विजय के उपलक्ष्य में पेशावर (वर्तमान पाकिस्तान) से शक संवत चलाया था। वर्तमान में हिन्दू इसे ही अपना धार्मिक पञ्चाङ्ग/ केलेण्डर मानने लगे हैं। यह न तो गोल/ अयन और ऋतुओं से सम्बन्धित है, न नक्षत्रों से है बल्कि केवल चन्द्रकलाओं से सम्बन्धित है। फिर भी 28 से 38 मास में एक अधिक मास करके और क्रमशः 19 वर्ष, फिर 122 वर्ष, फिर 141 वर्ष में एक क्षयमास और उसी वर्ष में क्षय मास के पहले और बाद में एक-एक अधिक मास करनें से 30° वाले निरयन सौर मास और 360° वाले निरयन सौर युधिष्ठिर संवत्सर/ विक्रम संवत के साथ-साथ चलता रहता है। अतः शकाब्द में भी 2148 वर्ष में एक मास का अन्तर और 4296 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है। अतः ऋतुओं से शकाब्द का कोई सम्बन्ध नहीं है। 
शके 1945 के अन्तिम दिन अमान्त फाल्गुन कृष्ण अमावस्या अर्थात पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या के समाप्ति 08 अप्रैल 2024 को अपराह्न 11:50 बजे (23:50बजे ) रात्रि में होगा, अतः व्यवहार में दुसरे दिन 09 अप्रैल 2024 को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के सूर्योदय समय से शक संवत 1946 का प्रारम्भ होगा। इसे हिन्दू पर्व गुड़ी पड़वा भी कहते हैं। जो लोग यह भ्रम पाले बैठे हैं कि, गुड़ी पड़वा हमेशा वसन्त ऋतु में ही आती है, वे अपना भ्रम निवारण करलें।
वर्तमान में तो अंग्रेजो द्वारा मैकाल शिक्षा प्रणाली द्वारा बनाए गए दासों द्वारा 31 दिसम्बर/ 01 जनवरी को नव वर्ष बतलाया जा रहा है। उनसे मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। 

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

आद्य शंकराचार्य का समय

आद्य शंकराचार्य जी का सही समय ५०९ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व का है।
कामकोटि पीठके ३८वें आचार्य चिदम्बरम वासी श्री विश्वजी के पुत्र आचार्य श्री अभिनवशंकर जी ७८७ ईस्वी से ८४० ईस्वी तक ५३ वर्ष विद्यमान रहे। वे ३० वर्ष तक जगन्नाथ पुरी के गोवर्धन मठ के शंकराचार्य के पद पर रहे।इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 
वर्तमान इतिहासकार इन्हीं शंकराचार्य अभिनवशंकर जी को आद्य शंकराचार्य बतलाते हैं और उनका काल ७८८ - ८२० ई. का बताते हैं। 

भागवत पुराण किसकी रचना है?

जब परीक्षित अभिमन्यु पत्नी उत्तरा गर्भ में थे, उसके बहुत पहले शुकदेव जी का ब्रह्मलोक प्रयाण हो चुका था। यह बात महाभारत युद्ध समाप्त होकर युधिष्ठिर के राज्याभिषेक होने के पश्चात धर्मनीति जिज्ञासु युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को शर शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह ने कही। प्रमाण देखें--- महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

शुकदेव जी के ब्रह्मलोक प्रयाण के बहुत बाद में परीक्षित जन्में तो परीक्षित की मृत्यु के समय शुकदेव जी भागवत कथा सुनाने कैसे आ गये, यह बात शुकदेव जी के पिता वेदव्यास जी कैसे लिख सकते हैं? मतलब आश्चर्य तो यह भी है कि, परीक्षित की मृत्यु तक भी पाण्डु और धृतराष्ट्र के जैविक पिता वेदव्यास जी तीसरी पीढ़ी के समाप्ति कैसे तक जीवित थे! और न केवल जीवित रहे अपितु पुराणों की रचना कर रहे थे! यह विचारणीय है।

आराधना - उपासना की उचित विधि।

बुद्धिमानी इसमें है कि, प्रारम्भ से ही लक्ष्य और दृष्टि परम पर हीरखते हुए स्थिर गति बनाए रखें।
मुर्ख प्रारम्भ बड़ी तीव्रता पूर्वक करते हैं। दृष्टि केवल अगली सीढ़ी पर रखते हैं। वह सीढ़ी चढ़ने पर फिर अगली सीढ़ी दिखती है। ऐसे आधे रास्ते में ही घबरा जाते हैं।
न वापस होनें के न आगे बढ़ने की क्षमता दिखाई देती है। तो हताश होकर बैठ जाते हैं।
तप और ध्यान की तीन विधियाँ है, 
१ आसुरी वृत्ति वाले राक्षस और जैन काम, क्रोध आदि षड अरियों से संघर्ष कर विजेता होना चाहते हैं, लेकिन दलदल से बाहर निकलने के लिए जितने हाथ-पैर चलाओगे उतना ही धँसते जाओगे।
२ राजसी विधि - दुनिया जमाने की जानकारी एकत्र कर, ये भी करलूँ, वो भी करलूँ, इसको छोड़ा, उसको पकड़ा इसी में जीवन बिता देते हैं।
३ सात्विक विधि - समर्पण भाव से अपने कर्तव्य कर्म करते रहो, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ एकनिष्ठ हो लगन लगाकर मगन (मग्न) रहो।
कहाँ क्या हो रहा है इसकी चिन्ता प्रभु पर छोड़ दो।
दुनियादारी प्रभु देखेंगे हम केवल प्रभु को देखेंगे ‌
बस ये ही तीन नीतियां धर्म, संस्कृति, व्यक्तिगत जीलन, सामाजिक जीवन, राजनीति, अर्थ नीति, सब जगह समान है।

आत्मसुधार में ही भारत और सनातन धर्म का उद्धार।

जिनमें विद्वता और ज्ञान है वे मिलकर, अपने तीज-त्योहारों, पर्वोत्स्वों का इतिहास ज्ञात कर उनके निरयन और सायन सूर्य कें अंशादि ज्ञात करके सौर केलेण्डर से व्रत-पर्वोत्सव मनाना प्रारम्भ कर दें।
 विधर्मी और विदेशियों का मूँह बन्द करने के लिए उचित विकल्प यह है कि, हम ब्रह्म (वेदों) की ओर चलें, आत्मसुधार करें, भोजन, पानी, उर्जा, मशीनरी, शस्त्रास्त्र में उत्पादन बढ़ाकर प्रतिस्पर्धा करके निर्यात बढ़ाकर आर्थिक सुदृढ़ हों। स्वतः सबके मूँह बन्द हो जाएँगे।
पहले विश्वास दृढ़ करेंगे, तभी कुछ कर पाएँगे। क्योंकि, रक्षात्मक खेलने वाला हमेशा पीछे ही रहता है। कभी जीत नही सकता।
जब हमारे पूर्वजों ने उनके पूर्वजों के कृतित्व का सत्यानाश कर दिया तो, हम अपने पूर्वजों की गलतियों को क्यों ढोते चलें, इसके बजाय हर स्तर पर सुधार करते करते सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ें।
 हम स्वयम् को इतना सक्षम सिद्ध कर दें कि, कोई आँख उठाकर बात भी न कर पाए।
खदेड़ने की राजनीति राजपूतों की थी। क्या हुआ। पीठ फेरी और पीछे-पीछे वापस हमारे साथ ही आ गये।
शिवाजी ने कभी दिल्ली पर आक्रमण नही किया। क्या हुआ मुगलों का पतन यूरोपीयों के हाथों हुआ और मराठे सब ओर से घीर गये।
चन्द्रगुप्त मौर्य नें स्वयम् को इतना सक्षम किया कि, अशोक अ शोक हो गया। लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य का अपना कुछ नही था। चाणक्य नें ध्यान देना कम किया तो चन्द्रगुप्त मौर्य जैन संन्यासी हो गया। यही दोष अशोक को भी ले डुबा; उसे बुद्धु बना दिया और वापस जस के तस हो गये।
यदि वह स्वयम् बौद्धिक सक्षम होता तो आज इतिहास उल्टा होता।

सोमवार, 25 दिसंबर 2023

क्या क्रिसमस और उत्तरायण (सायन मकर) संक्रान्ति में कोई सम्बन्ध है?

आजकल एक प्रवृत्ति देखी जा रही है कि, इब्राहीमी पन्थ के आदम को आदिदेव (अर्धनारीश्वर महारुद्र) शंकर बतलाना, राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों को नबी (एल यहोवा या अल्लाह का दूत) बतलाना, क्रिसमस को सायन मकर संक्रान्ति/ उत्तरायण संक्रान्ति (22दिसम्बर) से जोड़ना, क्रिसमस ट्री के शंकु आकार को लोहिड़ी के शंकु आकार से जोड़ना, यीशु और प्रेषित मोहमद को विष्णु का अवतार बतलाना आदि-आदि।

वस्तुतः सृष्टि उत्पत्ति का सुत्र पर ध्यान केन्द्रित नहीं होने पर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से सर्वप्रथम अर्धनारीश्वर स्वरूप नीललोहित वर्णी महारुद्र प्रकट हुए। हिरण्यगर्भ के आदेश पर महारुद्र नें नर रूप और नारी रूप में अलग-अलग शरीर धारण किया, जिन्हें शंकर और उमा कहा जाता है।सनक, सनन्दन, सनत्कुमार , सनातन, प्रजापति, और नारद आदि बाद में हुए। इसलिए शंकर जी को आदिदेव कहते हैं।
प्रजापति ने इन्द्र - शचि, अग्नि - स्वाहा, पितर:- स्वधा, तथा धर्म एवम् दक्ष प्रथम - प्रसुति, रुचि - आकुति, कर्दम- देवहूति तथा स्वायम्भूव मनु-शतरूपा आदि को उत्पन्न किया। तत्पश्चात प्रजापति के कहने पर पुरुष स्वरूप शंकर जी से दस रुद्र और नारी स्वरूप उमा से दस रोद्रियाँ हुई। ये ही ग्यारह रुद्र गण कहलाते हैं। जो अष्टमूर्ति रुद्र से भिन्न है। 
इसके बाद प्रजापति ने 1 मरीची, 2 भृगु, 3 अङ्गिरा, 4 वशिष्ट, 5 अत्रि, 6 पुलह,7 पुलस्य, 8 कृतु आदि आठ प्रजापतियों को उत्पन्न किया। दक्ष और प्रसुति की पुत्रियों 1 सम्भूति, 2 ख्याति, 3 स्मृति, 4 ऊर्ज्जा, 5 अनसुया, 6 क्षमा, 7 प्रीति, 8 सन्तति से क्रमशः उक्त आठ प्रजापतियों का विवाह हुआ। जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। और स्वायम्भूव मनु की सन्तान क्षत्रिय कहलाई। धर्म ने भी दक्ष- प्रसुति की दस कन्याओं से विवाह किया।

अत्रि-अनसुया के पुत्र सोम, दत्तात्रेय और दुर्वासा हुए।
सोम नें ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर बुध को जन्म दिया। 
बुध का विवाह स्वायम्भूव मनु की पुत्री इला (इळा) से हुआ। बुध और इला से पुरुरवा का जन्म हुआ। इला का पुत्र होने के कारण पुरुरवा को एल कहते हैं। और अरबी में इलाही कहते हैं। अरामी भाषा में इसी एल, इलाही और अल्लाह को ईश्वर वाचक शब्द माना जाता है।
पुरुरवा ने इराक के उर नगर में जन्मी और बड़ी होकर इन्द्र दरबार की नर्तकी बनी उर्वशी अप्सरा से कुछ अवधि के लिए सशर्त विवाह किया। ऐसे विवाह मुताविवाह कहलाता है। जब उर्वशी गर्भवती थी तब समयावधि पूर्ण होने पर उर्वशी वापस उर चली गई। और पुत्र जन्म होने पर पुत्र को पुरुरवा को सौंप कर इन्द्र दरबार में नर्तकी का कार्य ग्रहण कर लिया।
पुरुरवा ने पुत्र का नाम आयु रखा।  
आयु को दक्षिण-पूर्वी टर्की के पठार में युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में पाला। जहाँ बड़ा होने पर उसे स्वर्भानु (राहु) की पुत्री स्वर्भानवी (प्रभा) नें और सीरिया के नागवंशी ने पुरुरवा को ईश्वर मान कर उसकी आज्ञा पालन की प्रवृत्ति के विरुद्ध भड़काया। आयु नें पुरुरवा के आदेश के विरुद्ध बुद्धि वृक्ष का अधपका फल खा लिया। इससे नाराज होकर पुरुरवा ने आयु को देश निकाला दे दिया। आयु वहाँ से जल मार्ग से सिंहल द्वीप पहूँचा। फिर कुछ समय बाद केरल होते हुए, सिन्ध, अफगानिस्तान, ईरान होते हुए इराक पहूँचा।

यहुदी धर्मग्रन्थ तनख (तोराह) जिसे बाइबल पुराना नियम कहते हैं की प्रथम पुस्तक बेरेशित (उत्पत्ति) में उल्लेख है कि, एल याहवेह के द्वारा आदम को उत्पन्न कर, उसकी बाँयी पसली से हव्वा को उत्पन्न किया। आदम को बुद्धि वृक्ष और अमरता के वृक्ष के फल खाने का इन्कार किया था। आदम ने सर्प (नागवंशी) के कहने पर बुद्धि वृक्ष का फल खा लिया तो याहवेह नें आदम को अदन वाटिका के पूर्वी द्वार से निकाल दिया ऐसा लिखा है।

दम मतलब प्राण, शरीर में जबतक प्राण है उसी अवधि को आयु कहते हैं। आयु को अरबों नें आदम कहा। सीरिया के लोग सूर कहलाते हैं। ये कश्यप ऋषि की पत्नी सुरसा की सन्तान होने से सर्प / नाग वंशीय कहलाते हैं। सीरियाई (नाग) द्वारा आदम को भड़काया गया। ज्ञातव्य है कि, कश्यप और दीति की पुत्री और हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका का भी नाम सुरसा और होलिका था। सिंहिका के वंशज सिंहल द्वीप में बसे।

आयु और स्वर्भानवी (आदम और हव्वा) के वंश में प्रतापी राजा नहूष एक प्रतापी राजा हुआ। जिसने शंकर जी की पुत्री अशोक सुन्दरी से विवाह किया। इसे अस्थाई रूप से स्वर्ग का शासक नियुक्त किया लेकिन सप्तर्षियों से पालकी उठवा कर इन्द्राणी के पास जाने के कारण पतित होकर सर्प वंश में परिगणित किया जाने लगा। इसी नहूष को टर्की, सीरिया, इराक (मेसोपोटामिया) के जल प्रलय का नायक न्यूहु कहा जाता है। नहूष और अशोक सुन्दरी के वंशज ययाति हुए ।इनकी ध्वजा पर मोर का चिह्न बना था इसलिए मोरध्वज कहलाते हैं। ययाति वेदमन्त्रों के आदेश का पालन न कर पाने के कारण ब्राह्मण धर्म से बाहर हो गये थे इसलिए यहुदी, ईसाई अब्राह्म या अब्राहम कहते हैं और मुस्लिम इब्राहीम कहते हैं। 
रब्बी परम्परा में ययाति (इब्राहीम) को प्रथम नबी माना जाता है।
वास्तविकता में सनातन और इब्राहिमी मत में इस प्रकार सम्बन्ध है।
भविष्य पुराण के अनुसार यीशु जन्म से बारह वर्ष तक इज्राइल में रहे। बारह वर्ष से तीस वर्ष तक की अवस्था (वय) में भारत में तक्षशिला में बौद्ध शिक्षा ग्रहण की, और तीस से तैंतीस वर्ष तक इज्राइल में रहे। 
यीशु को शुक्रवार दोपहर मे क्रूस पर चढ़ाया गया और सूर्यास्त से यहुदियों का शनिवार लग जाता जिस दिन वे कोई कार्य नहीं करते थे इसलिए यीशु को शुक्रवार के सूर्यास्त पूर्व ही क्रूस उतार लिया गया। यीशु को उनके शिष्यों ने क्रूस से उतार कर गुफा में रखा और गुफा में ही चिकित्सा की गई और शनिवार के सूर्यास्त के बाद (यहुदियों का रविवार लग जाने पर) रातों रात उठाकर दुसरे स्थान पर ले गए, जहाँ, रविवार को दिन में यीशु ने खड़े होकर प्रवचन दिए। फिर शिष्यों ने यीशु को पुनः भारत में कश्मीर में पहलगाम अपने पुराने साथियों के पास ले आये। यीशु इसम् मुकाम में भी रहे और यूसा आसफ की दरगाह में आज भी उनका शव गड़ा हुआ है। 

बाइबल पढ़ेंगे तो उसमें यीशु के जन्म के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण दो ही साक्ष है ।
प्रथम यीशु के जन्म के समय इज्राइल में जनगणना चल रही थी। इसलिए जनगणना के लिए बाइबल पुराना नियम में यहुदी कैलेण्डर के अनुसार नियम बतलाया है।जनगणना वर्ष की गणना तो सटीक हो गई इससे वर्ष तो सही माना जा सकता है। लेकिन उसमें भी माह में अन्तर हो सकता है। क्योंकि बाइबल में यीशु के जन्म समय का न तो ठीक ठीक मौसम बतलाया है, न आकाशीय ग्रह स्थिति।
और
दुसरा जब यीशु जन्मे तो पूर्व के ज्योतिषियों को एक चमकदार तारा दिखा जिसके पीछे पीछे वे वहाँ पहूँचे, जहाँ ठीक (ख स्वस्तिक) सिर पर तारा दिखाई दे रहा था। सम्भवतः वे बेबीलोन ईराक के ज्योतिषी होंगे। जिनने लोबान भेंट किया। भारतीय होते तो प्रसूता के लिए अजवायन, हल्दी और सोंठ और मेवों के लड्डु ले जाते। जैसे कि, जन्माष्टमी को बनाते हैं।
उन ज्योतिषियों ने भी आकाश में तारों और ग्रहों की ठीक-ठीक स्थिति का वर्णन नहीं किया। केवल एक तारे के आधार पर सटीक गणना सम्भव नहीं है।
लगभग तीन हजार वर्ष पहले तक की सटीक गणना करने वाले एस्ट्रोनॉमीकल सॉफ्टवेयर अभी कुछ वर्ष ही तैयार हुए हैं।
इस तारे को अलग-अलग लोगों ने विभिन्न धूमकेतु मान कर गणना की है। इसलिए पहले लगभग दो हजार वर्ष पहले की ग्रह स्थिति की जो गणना की गई उसे सही नहीं माना जा सकता। 
फिर कुछ ज्योतिषियों नें तो इस तारे को शुक्र ग्रह मान लिया, तो किसी नें ब्रहस्पति शुक्र युति तो किसी ने मंगल शुक्र पूर्ण युति मान कर गणना की। तो किसी ने किसी तारे से गुरु ब्रहस्पति की युति मान कर गणना की।
अतः इस आधार पर की गई गणना सही नहीं मानी जा सकती।
इस लिए मुझे इनमें से किसी भी गणना को आधार मानना उचित नहीं लगता।
जो जन्मा उसका जन्मदिन तो होगा ही। चाहे कभी भी हो। यीशु भी होमो सेपियन्स थे। अतः जन्में भी और मरे भी। तो उनका जन्मदिन 25 दिसम्बर भी हो सकता है।
जब पण्डित मदनमोहन मालवीय जी और अटल बिहारी वाजपेई 25 दिसम्बर को पैदा हो सकते हैं तो; यीशु 25 दिसम्बर को पैदा क्यों नहीं हो सकते।
वस्तुतः क्रिसमस को उत्तरायण संक्रान्ति के साथ जोड़कर सनातन धर्मियों को मुर्ख बना कर उनसे क्रिसमस पर्व मनवाने के कुचक्र रचे जा रहे हैं।

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

स्मार्त - वैष्णव जन्माष्टमी और एकादशी व्रत।

वेद, आरण्यकों-उपनिषदों सहित ब्राह्मण ग्रन्थों, और शुल्बसुत्र, श्रोत सुत्र, गृह्यसुत्र (पास्कल गृह्यसुत्र की विधि से ही शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण सभी कर्मकाण्ड, मुण्मन, उपनयन, विवाह आदि समस्त संस्कार करते हैं।), मनु आदि के धर्मसुत्र (जिसके आधार पर मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि स्मृतियाँ बनी है); उनका स्पष्ट निर्देश है कि, १ किसी भी व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाते समय उस व्रत- पर्व, उत्सव-त्योहार का पर्वकाल जिस दिन उस तिथि में रहे उसी दिन व्रत- पर्व, उत्सव-त्योहार मनाये जाएँ। इसलिए हम हमेशा मध्यरात्रि में अष्टमी होती है उसी दिन जन्माष्टमी मनाते हैं, उदिया तिथि या रोहिणी नक्षत्र की परवाह तब करते हैं जब ऐसा दो दिन हो। या दोनों दिन न हो।
२ ऐसे ही प्रत्येक व्रत की तिथि में अगली तिथि में पारण होना आवश्यक है। अगली तिथि में ही, क्योंकि व्रत तिथि का किया जाता है न कि, अगले दिन में।
इस बार आज द्वादशी तिथि क्षय है। कल सूर्योदय पश्चात द्वादशी तिथि रहेगी ही नहीं अतः द्वादशी में पारण नहीं हो सकता।
इसलिए दिनांक २२ दिसम्बर २०२३ शुक्रवार को स्मार्त एकादशी व्रत था।
महाभारतकार (वेदव्यासजी) नें महाभारत में प्रथम बार भागवत धर्म चलाया। जिसको केवल कथावाचक पौराणिक लोग ही मानते थे। फिर दक्षिण भारतीय आचार्यों (निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य - मध्वाचार्य के अनुयाई नदीहा बङ्गाल केश्रीकृष्ण चैतन्य, और रायपुर छत्तीसगढ़ के वल्लभाचार्य) ने अपनाया ‌ इसलिए इनके अनुयाई जिनने उनके आचार्यों से दीक्षा लेकर दाहिनी भुजा पर शंङ्ख- चक्र गुदवा कर कण्ठी धारण कर रखी है, केवल वे 
निम्बार्क सम्प्रदाय के महाभागवत ही मध्यरात्रि के बाद एकादशी लगे तो तीसरे दिन चाहे उदिया तिथि द्वादशी तिथि हो तो भी द्वादशी में एकादशी का व्रत करते हैं। या 
रामानुज सम्प्रदाय के भागवत सूर्योदय के बाद २२ घण्टे बाद एकादशी लगे तो तीसरे दिन चाहे उदिया तिथि द्वादशी तिथि हो तो भी द्वादशी में एकादशी का व्रत करते हैं।  
पौराणिक सूर्योदय के 22 घण्टे 24 मिनट बाद एकादशी लगे तो तीसरे दिन चाहे उदिया तिथि द्वादशी तिथि हो तोभी द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं।
इसी बात को प्रकारान्तर से लिखता हूँ ---
रामानुज सम्प्रदाय के भागवत सूर्योदय के दो घण्टे पहले एकादशी लगे तो दुसरे दिन चाहे उदिया तिथि द्वादशी तिथि हो तो भी द्वादशी में एकादशी का व्रत करते हैं।  
पौराणिक सूर्योदय के 01 घण्टा 36 मिनट पहले एकादशी तिथि लगे तो दुसरे दिन चाहे उदिया तिथि द्वादशी तिथि हो तो भी द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं।

कभी किसी के मस्तिष्क में यह प्रश्न क्यों नहीं उठता कि, हम वैदिक मन्त्रों से कर्मकाण्ड, यज्ञ- होम, यहाँ तक कि, मूर्ति पूजा तक में पुरुष सुक्त के सोलह मन्त्रों से षोडशोपचार पूजन करते हैं तो, केवल एकादशी व्रत में ही श्रोत-स्मार्त परम्परा क्यों छोड़ देते हैं? और पौराणिक प्रमाण क्यों खोजते हैं? या श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने के लिए श्रोत-स्मार्त परम्परा क्यों छोड़ देते हैं? जबकि अन्य सभी व्रत,पर्व, उत्सव और त्योहार तो पर्वकालिन तिथि में ही करते हैं। केवल जन्माष्टमी और एकादशी को ही उदिया तिथि क्यों याद आती है? और तो और द्वादशी तिथि में भी एकादशी व्रत क्यों करते हैं?
इन सब का उत्तर है, बाबाओं और कथावाचकों के चक्कर में। बाबाओं और कथावाचकों को शास्त्रीय ज्ञान नहीं होता केवल अपने पन्थ- सम्प्रदाय की परम्पराओं की जानकारी मात्र रहती है।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

रुद्र गण

माना जाता है कि, शंकरजी के नेतृत्व में दस और लोग पश्चिम एशिया या मध्य एशिया से आये थे। जो पशुओं के रक्षक/ ग्वाले/ गड़रिया वेश में रहते थे और पशुओं की रक्षा का कार्य करते थे इसलिए पशुपति कहलाए। ईरान में मीढ संस्कृति में उनको मान दिया इसलिए मीढीश कहलाते हैं।हिमालय के प्रमथ गणों के नायक होने के कारण शंकर जी गणपति कहलाते हैं। और बाद में अपने पुत्र विनायक को गणपति पद सोपने के कारण महा गणाधिपति कहलाते हैं। उस समय गौवंश मुख्य सम्पत्ति माना जाता था इसलिए निधिपति कहलाते हैं। इसी कारण निधिपति कुबेर शंकर जी के मित्र माने जाते हैं। सत्यनिष्ठा पूर्वक सबकी सेवा करने, औषध विज्ञान, शल्यक्रिया और विष विज्ञान के ज्ञाता होने तथा सङ्गीतज्ञ और नाट्यशास्त्र में प्रवीण (अभिनेता) होने से सबके प्रिय होने से प्रियपति कहलाते हैं।  सैन्यकर्म और कोतवाली कर्म (पौलिस के कार्य) में प्रवीण से इन ग्यारहों की गणना रुद्र देवताओं में होने लगी। यह सम्भव है कि, ये समस्त गुण एक ही में न होकर दस अलग-अलग रुद्रों में हो।

रुद्र सुक्त में सैनिक, पूलिस, वनवासी, गिरिवासी, पगड़ी धारी, पशुपालक, लुटेरे, सेंधमार, आतङ्की, सर्पधारी/ सपेरे, सर्प, बिच्छू जैसे विषैले जीवों, घोंघा (पाइला) आदि सभी रुलाने वालों की गणना अनेक रुद्र में की गई है और प्रार्थना की गई है कि, हे रुद्र हमें मत मारो, हमारे परिवार जनों को और बच्चों को मत मारो, हमारी गौओंको और पशुओं को मत मारो, अपना धनुष पर चढ़ा बाण नीचे करलो, हमारी रक्षा करो आदि आदि। जैनों में धनुष पर बाण सन्धान कर नीचे की ओर किये एक गण को मन्दिर के द्वार पर रक्षक के रूप में दर्शाया जाता है।

शुद्र और अनार्य

शुद्र वर्ण तो सेवकों को कहा जाता है।
विश्वकर्मा लोग सुनार, सुतार, लोहार,नापित, शिल्पकार और वैद्य तथा कुम्भकार सभी शुद्र माने जाते थे। ये सभी समाज में आवश्यक सेवाओं के प्रदाता  होने के कारण राज्य सभा में भी अपने प्रतिनिधि भेजते थे। अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, ऋभुगण आदि कर्मदेवों को देवताओं में शुद्र माना जाता है। समाज इन्हें अपनी- अपनी उपज में से इन्हें भाग देते आये हैं। अर्थात ये लोग यज्ञभाग के अधिकारी रहे थे।

 मछुआरे जो  पालकी उठाने वाले कहार का कार्य भी करते थे तथा श्रीराम के मित्र भी थे मतलब अछूत होने का तो प्रश्न ही नहीं। तथा वनवासियों को भी अछूत नहीं माना जाता था। लेकिन इन लोगों को अनार्य (असंस्कृत/ संस्कार हीन) माना जाता था। ये नगर या ग्राम के अन्तिम सीरे पर नदी, तालाब आदि के किनारे रहते थे। लेकिन इनकी गणना नगर/ ग्राम वासियों में ही होती थी।
अंग्रेजी युग तक माच, रामलीला जैसे मञ्चन का कार्य निम्नवर्ग के लोग ही करते थे। ग्वाले गडरिये बाँसुरी, इकतारा और रावण हत्था बजाते थे।उस समय मैला साफ करने और चर्मकार जातियाँ नहीं थी। लगभग ये ही कार्य रुद्रगण भी करते थे। इसके साथ बलिष्ठ होने से लठेत जैसे रक्षक का कार्य भी करते थे। रथ हाँकना, पालकी ढोना, कृषि श्रमिक, चौकीदार, जैसे कार्य करते थे। लेकिन मान्साहारी, मदिरा - ताड़ी आदि का व्यसन, द्यूतक्रीड़ा, परस्पर लड़ाई-झगड़ा करना आदि शोक के कारण ये अनार्य माने जाते थे।

व्रत-उपवास क्यों

सूर्य भूमि और चन्द्रमा में अमावस्या को ०००° का कोण बनता है। एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी) को ९०° का कोण बनता है। शुक्ल पक्ष की एकादशी को १२०° का कोण बनता है। पूर्णिमा को १८०° का कोण बनता है। अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी) को २७०° का कोण बनता है। कृष्ण पक्ष की एकादशी को ३००° का कोण बनता है। इस लिए इन्ही तिथियों में व्रतोपवास अधिक होते हैं।
कारण कि, बल समानान्तर चतुर्भुज के सिद्धान्त से परिणामी बल उर्ध्व दिशा में खींचता है। इस कारण भौतिक कार्यों और भोजन पाचन में असुविधा जनक होता है। और विचलित मन को स्थिर करने हेतु आराधना उपासना का सहारा सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

दशावतार में द्वापरयुग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास हों

कृपया एक विचारणीय विषय पर गौर कीजिएगा।⤵️

श्री *राम* के पहले परशु *राम* हुए।
 श्री *कृष्ण* के पहले श्री *कृष्ण* द्वैपायन व्यास हुए।

श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश किया। जिसकी जानकारी भू वासियों में केवल १ श्रीकृष्ण (वक्ता) २ अर्जुन (श्रोता) ३ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास (ज्ञाता) ४ सञ्जय (साक्षी) को ही थी। सञ्जय ने भीष्म के शर शैय्या पतन के दुसरे दिन (अवकाश दिवस) पर हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र को भीष्मपर्व की पूरी घटनाएं सूनाई, इसी के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता भी सुनाई। इस प्रकार केवल पाँच लोग ही श्रीमद्भगवद्गीता प्रवचन जानते थे।
लेकिन पूज्यपाद महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के द्वारा रचित जय संहिता/ भारत और बाद में उनके शिष्यों द्वारा विस्तृत में प्रस्तुत महाभारत ग्रन्थ के माध्यम से जन जन तक पहूँची।

श्रीराम ने रावण के अत्याचारों से सबको मुक्त किया। श्री परशुराम ने कार्तवीर्य सहस्तार्जुन का कुल सहित नाश कर जनता को उनके द्वारा फैलाये अनाचार से मुक्त किया।

लेकिन भगवान बलभद्र (बलराम) की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।
जबकि भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास की उपलब्धियाँ अनेक हैं।

तो द्वापरयुग के दो अवतारों में श्रीकृष्ण के साथ भगवान बलभद्र के स्थान भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को मिलना चाहिए।

सतयुग में चार (श्रीमत्स्य, श्रीकुर्म, श्री वराह और श्रीनृसिंह), त्रेता में तीन (श्री वामन, श्री परशुराम और श्रीराम) ऐसे ही द्वापरयुग में दो श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास और श्रीकृष्ण होने चाहिए। पौराणिकों नें श्री बलराम और श्रीकृष्ण लिखा है। और कलियुग में केवल एक भगवान श्री कल्कि होंगे।

भागवत पुराण में उल्लेख के अनुसार और संकल्प बोले जानेवाले (श्री बोद्धावतारे) तथा पञ्चाङ्गो में लिखे जानेंवाले चौवीस अवतारों में से इक्कीसवें और दशावतारों में नौवे अवतार श्री बुद्ध नामक को माना जाता हैं। गोवर्धन मठ जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द जी सरस्वती का मत है कि, बिहार में गया के निकट किकट नामक स्थान पर आश्विन शुक्ल दशमी (विजयादशमी/ दशहरे) (मतान्तर से पौष शुक्ल सप्तमी) के दिन पिता अजिन (या मतान्तर से हेमसदन) के घर माता अञ्जना के गर्भ से भगवान श्री बुद्ध का अवतार हुआ ऐसा मानते हैं।
श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि संयोगवश इन्ही बुद्ध के मतावलम्बी सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या की थी। लेकिन बाद में वे श्रमण परम्परा में शान्तिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की नास्तिक परम्परा के प्रति आकर्षित हुए। वहाँ वे गणधर बुद्ध कहलाये। इसी कारण लोगों ने श्री बुद्ध और गणधर गोतम बुद्ध दोनों को एक ही मान लिया।
बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति। - श्रीमद्भागवत पुराण 
इसलिए श्री बुद्ध को तो चौबीस अवतारों में भी नहीं मानता।


बुधवार, 20 दिसंबर 2023

काल का आधिदैविक रूप तथा महाकाल रुद्र मूर्ति में अन्तर।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ११ श्लोक ३२


"श्री भगवानुवाच

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे

येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।
 "

हिन्दी अनुवाद 
 ।।11.32।।श्रीभगवान् बोले -- मैं लोकों का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ। मैं जिस लिये बढ़ा हूँ वह सुन? इस समय मैं लोकों का संहार करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ? इससे तेरे बिना भी ( अर्थात् तेरे युद्ध न करनेपर भी ) ये सब भीष्म? द्रोण और कर्ण प्रभृति शूरवीर -- योद्धालोग जिनसे तुझे आशङ्का हो रही है एवं जो प्रतिपक्षियों की प्रत्येक सेना में अलग-अलग डटे हुए हैं -- नहीं रहेंगे।


विश्वरूप के नाम से प्रचारित किया जाने वाला चित्र परब्रह्म (विष्णु- माया) या  ब्रह्म (जगत के सृजेता, प्रेरक और रक्षक सवितृ- सावित्री) का नहीं अपितु श्रीमद्भगवद्गीता ११/३२ में अर्जुन को बतलाया गया काल रूप का है। और मूलतः काल अपर ब्रह्म (नारायण- श्री लक्ष्मी) का है।

उज्जैन में दक्षिण मुखी महाकाल ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजितमहाकाल मूलतः ; अष्टमूर्ति रुद्र की महाकाल नाम से प्रसिद्ध एक मूर्ति काल भैरव स्वरूप का  है। 

ग्रहण में वैध, एकादशी पारण में हरिवासर की व्यवस्था क्यों की गई?

वास्तविकता यह है कि, वैदिक काल में प्रतिदिन वैध लेकर ही दिन निर्धारित होते थे। लेकिन उस समय तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, शुक्ल पक्ष की अष्टमी (अर्धचन्द) अर्थात एकाष्टका, पूर्णिमा (पूर्ण चन्द्र), कृष्ण पक्ष की अष्टमी (अर्धचन्द) अर्थात अष्टका और अमावस्या (बिना चन्द्रमा वाली रात) के नाम ही मिलते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ काल में, सुत्र ग्रन्थों के रचना काल में भी यही प्रचलन रहा रामायण में भी प्रक्षिप्त अंशों में ही तिथि वर्णन है। लेकिन महाभारत में प्रथम बार तिथियों का उल्लेख है। लेकिन महाभारत काल में भी वर्तमान प्रचलित शक संवत में अपनाया गया १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष में क्षयमास तथा अट्ठाइस से अड़तीस मास में अधिकमास वाला संवत्सर चक्र प्रचलित नहीं था। उस समय हर अट्ठावन माह पश्चात दो अधिक मास की ऋतु होती थी।
तब तक पञ्चाङ्ग गणित सर्वसाधारण की समझ से परे हो चुका था। युधिष्ठिर और भीष्म का पक्ष दुर्योधन को समझ नहीं आ रहा था, यह इसका प्रमाण है।
महाभारत में सभी ज्ञानी विज्ञानी मर-खप गये। विद्वानों का कोई संरक्षक नही रहा। वैध लेने की विद्या बहुत कम लोगों तक सिमट कर रह गई। लोग पुरोहितों से पूछ कर व्रत-उपवास करने लगे।
वैध के अभाव में ज्योतिर्गणना गलत होने लगी। ग्रहों की सूर्य और भूमि से दूरी बढ़ गई लेकिन अनुसन्धान के अभाव में पीढ़ी दर पीढ़ी सूर्यसिद्धान्त में उल्लेखित उन्ही ही पुराने आंकड़ोंं के आधार पर पञ्चाङ्ग बनती रही। भास्कराचार्य ने वैध लेकर सूर्यसिद्धान्त से आये ग्रह स्थिति में बीज संस्कार कर शुद्ध करने की विधि बतलाई। उसके बाद अकबर के समय गणेश देवज्ञ ने कुछ वैध लिए। और वही बीज संस्कार सुझाव दिया। लेकिन परिवर्तित मूल आंकड़ों का यथावत ग्रहण करने से गलती बढ़ती गई।
व्यंकटेश बापूजी केतकर नें ग्रह गणितम् और वैजयन्ती रचकर पर्याप्त सुधार किया है। लेकिन फिर भी आजतक जबलपुर के लाला रामस्वरूप और उज्जैन के महाकाल पञ्चाङ्ग जैसे पञ्चाङ्ग सूर्यसिद्धान्त के करण ग्रन्थ मकरन्द या अकबर के समय गणेश देवज्ञ रचित ग्रह लाघव ग्रन्थ के आधार पर बन रहे हैं।
इन पञ्चाङ्गों में तिथियों के प्रारम्भ/ समाप्ति काल में नौ घण्टे से अधिक का अन्तर ग्रहों में १०° से २०° तक का अन्तर, उदयास्त और वक्री - मार्गी में कई दिनों का अन्तर देखने में आता है।
इसी कारण चन्द्र ग्रहण में नौ घण्टे और सूर्य ग्रहण में बारह घण्टे पहले से वैध लगना, कान्ति मालिन्य चन्द्र ग्रहण और सूर पर से बुध - शुक्र और मङ्गल के पार गमन को ग्रहण न मानना तथा एकादशी पारण में द्वादशी का एक चौथाई भाग हरिवासर मानने की प्रथा डाल दी। ताकि, गलती से भी व्रत भङ्ग न हो।

रविवार, 10 दिसंबर 2023

सनातन धर्म में बहुदेव वाद क्यों है? एकेश्वर वाद क्यों नहीं?

सनातन धर्म में बहुदेव वाद क्यों है? एकेश्वर वाद क्यों नहीं?

यह प्रश्न ही जरथ्रुस्त्र और इब्राहिम अवधारणा पर आधारित है। 
 जरथ्रुस्त्र और इब्राहिमी अवधारणा यह है कि, सातवें आसमान या किसी लोक विशेष में सिंहासन पर विराजमान और आज्ञाकारी फरिश्तों से घिरे हुए एक शक्तिमान व्यक्तित्व ज़मीं और आसमां पर नियन्त्रण करता है। जिसे वे अहुरमज्द, एल, याहवेह/ यहोवा या इलाही - अल्लाह नाम से पुकारते हैं।
लेकिन उसमें भी अन्य फरिश्तों से अधिक शक्तिशाली एक फरिश्ता विद्रोही है, जो सबको उस शक्तिमान व्यक्तित्व के आदेशों की अवहेलना करने के लिए भड़काता रहता है , जिसे वे, अङ्गिरामेन्यु/ इब्लिस आदि नामों और शैतान की उपाधि से पुकारते हैं।
बाइबल नया नियम के अनुसार परमपिता परमेश्वर यहोवा, पवित्र आत्मा परमेश्वर (फरिश्ता) और यीशु परमेश्वर ये तीन ईश्वर हैं। लेकिन वे भी परमपिता परमेश्वर यहोवा को ही सर्वोच्च और सर्वोपरि मानते हैं। 
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले तक ईरान में मूर्तिपूजा होती थी, जरथ्रुस्त्र का मानना था कि, मग- मीढ संस्कृति के ईरानी मुर्तियों में ईश्वर देखते हैं जो ईश्वरत्व में किसी और को सम्मिलित करने के समान होने से अनुचित है। अतः उनने पारसी पन्थ चलाकर  मूर्ति पूजा बन्द करवा दी। ऐसे ही लगभग एक हजार चार सौ वर्ष पहले तक अरब में भी मूर्ति पूजा होती थी, जिसे शिर्क मानकर प्रेषित मोहमद साहब ने बन्द करवा दी।
बाइबल के तीन परमेश्वर का खण्डन और मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रेषित मोहम्मद ने भी विरोध किया। और इस्लाम में इसे उन्हें अल्लाह के साथ शरीक होना (शिर्क) बतला कर दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया।

इसी अवधारणा के आधार पर ये लोग ऐसा भ्रम पालते हैं कि, सनातन धर्म में भी अनेक ईश्वर प्रचलित हैं। जबकि, कोई भी वैदिक धर्मग्रन्थ ओर सनातन धर्म का कोई भी शास्त्र में ईश्वर पद पर पदासीन एकाधिक व्यक्तियों की कल्पना से भी परिचित नहीं हैं। इसलिए इसका विरोध भी नहीं है। क्योंकि सनातन धर्म में ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि, ईश्वरत्व एक व्यवस्था है।
मुख्य बात तो यह है कि, सनातन धर्म में परमात्मा मुख्य लक्ष्य है। परमेश्वर पद भी तीसरे क्रम पर आता है। क्योंकि, ईश्वर मतलब शासक, नियन्ता, नियन्त्रण कर्ता। जब सृष्टि हुई तब जाकर ईश्वर की आवश्यकता हुई।  फिर सनातन धर्म में ईश्वर या शासक नामक कोई व्यक्ति की अवधारणा ही नहीं है। बल्कि सीधे स्वानुशासन की व्यवस्था है।
वेदों में परमात्मा के द्वारा सृष्टि उत्पत्ति के साथ ही ऋत के अनुसार सृष्टि संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था स्थापित कर दी। जिसमें न परमात्मा स्वयम् कोई कर्म करता है, न प्रकृति को कुछ करना पड़ता है। बल्कि यह प्राकृतिक व्यवस्था कार्य-कारण वाद की अवधारणा से मैल खाती है, जिसमें ऋत के अनुसार नियमित क्रम में सृष्टि का विकास, संचालन और विनाश स्वतः होता रहता है। इसमें कोई भी कर्ता नहीं है।
सनातन धर्म का ईश्वर कोई व्यक्तित्व नही होकर अमुर्त है; जैसे भारत शासन।
भारत में शासक नामक कोई व्यक्ति नहीं बल्कि, लोकतांत्रिक सांवैधानिक व्यवस्था है; वैसे ही सनातन धर्म का ईश्वर भी ऋत के संविधान से संचालित प्राकृतिक स्वसंचालित व्यवस्था है। 

सृष्टि उत्पत्ति क्रम में प्रारम्भिक चरण में प्रकट हुए तत्वों का विवेचन ---

1 परमात्मा के बारे में कुछ भी सोच पाना भी सम्भव नहीं है, जो भी, जितना भी सोचा जा सकता है वह भी नगण्य ही है अतः नेति-नेति कहा गया है।
2 विश्वात्मा ॐ के बारे में भी कुछ सोच पाना लगभग सम्भव नही है। हमारी सोच उसके सामने बहुत सीमित है। 
3 प्रज्ञात्मा परब्रह्म को हम सर्वव्यापी विष्णु और उसकी शक्ति माया के रूप में आंशिक समझ रखते हैं। वस्तुतः सत असत अनिर्वचनीय माया ही इतनी विकट है कि, माया को समझना ही इतना कठिन है कि, समस्त बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी उसे हम जानते हैं ऐसा नहीं कहते, तो विष्णु के बारे में क्या और कैसे सोचा जा सकता है। फिर भी सच्चिदानन्द, अनादि-अनन्त, अकारण करुणाकरन, कल्याण स्वरूप आदि कहा जाता है। इसके लिए ॐ तत्सत्, सच्चिदानन्द आदि वाक्य प्रसिद्ध हैं। 
परब्रह्म (विष्णु- माया) के इक्षण (इच्छा) से ही सृष्टि के सृजक, प्रेरक और रक्षक (सञ्चालक) सवितृ हुए। इसलिए विष्णु  को परमेश्वर कहते हैं। विष्णु का अर्थ ही सर्वव्याप्त होता है। सर्वव्यापी की कोई सीमा नहीं होती अतः विष्णु का कोई आकार, प्रकार, शेप-साइज कुछ नहीं है। फिर भी ऐसा कहा जाता है कि, परमेश्वर विष्णु के हाथ में 90×4 =360 अरों का नियति चक्र है। यहाँ स्पष्ट है कि, 360° के इस संवत्सर चक्र का ही वर्णन है। इस संवत्सर चक्र  के अनुसार ही सब कार्य स्वतः होते रहते हैं।

4 ब्रह्म देव प्रत्गात्मा ब्रह्म जिन्हें हम सवितृ और उनकी शक्ति सावित्री के रूप में जानते हैं ये ही पौराणिक श्रीहरि और कमलासना देवी के रूप में दर्शाई जाती है। ये सर्वगुण सम्पन्न हैं। इनके बारे में भी सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म, सर्व खल्विदम् ब्रह्म आदि वाक्य प्रसिद्ध हैं। ये व्यक्तित्व के कारण कहे जा सकते हैं।  चूंकि सवितृ का अर्थ सृष्टि के जनक, प्रेरक और रक्षक ये ही हैं इसलिए इन्हें महेश्वर कहते हैं। 
स्वाभाविक रूप से लगभग अनन्त स्वरूप ही हैं। ये भी सीमित नहीं हैं। अतः साकार भी नहीं कहे जा सकते। ये महा आकाश स्वरूप होने से लगभग सर्व व्यापी हैं। अभी तक महाकाल का उद्भव नहीं हुआ, अतः ब्रह्म (सवितृ) तक के सभी तत्व कालातीत हैं।

5 जीवात्मा अपर ब्रह्म हैं, जिन्हें पौराणिक नारायण और श्री लक्ष्मी के रूप में वर्णन करते हैं। अपरब्रह्म तरङ्गाकार स्वरूप में प्रथम साकार तत्व हैं। नारायण शब्द का अर्थ ही है कि, ये स्वयम् की शक्ति त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति पर अयन करते हैं। अर्थात त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति में विचरते हैं। या यों कह लें कि ये त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति में स्थित हैं। ये ही महाकाल हैं। इन्हें जगदीश या जगदीश्वर कहते हैं। 
जैसा कि, कहा गया है। इन्हें भी कोई व्यक्ति नहीं कहा जा सकता।
6 जीवात्मा अपरब्रह्म से व्युत्पन्न भूतात्मा हिरण्यगर्भ प्रथम साकार स्वरूप दीर्घगोलाकार (अण्डाकार) स्वरूप में हैं। अण्डाकार को पञ्चमुखी कहा जाता है। सृष्टि के समस्त ब्रह्माण्डों के रचयिता ये ही हैं। इसलिए इन्हें विश्वकर्मा कहते हैं। इन्हें हम त्वष्टा और उनकी शक्ति रचना के रूप में जानते समझते हैं। ऋग्वेद के अनुसार त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्ड के सभी गोलों को सुतार की भाँति घड़ा। लोक कल्पना अनुरूप इन्हें ईश्वर श्रेणी का देव कहा जाता है। हिरण्यगर्भ साकार (दीर्घगोलाकार) हैं, अतः इन्हें भी व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। ये भी लगभग अमुर्त शक्ति के समान ही हैं। या अधिकतम इनकी तुलना सूर्य से ही कर सकते हैं। वस्तुतः हिरण्यगर्भ समस्त सृष्टि का केन्द्र है।
7 भूतात्मा हिरण्यगर्भ से व्युत्पन्न सुत्रात्मा प्रजापति प्रथम व्यक्ति हैं। लेकिन इन्हें ईश्वर नहीं कहते हैं। प्रजापति को प्रायः हम दक्ष(प्रथम)- प्रसुति, रुचि - आकुति और कर्दम- देवहूति नामक प्रजापतियों के रूप में भी जानते हैं। सुत्रात्मा प्रजापति का लोक स्वर्ग है। जहाँ इन्द्र, आदित्य गण और वसुगण रहते हैं।

यहाँ वेदों में विष्णु को परमपद कहा है। इन्हें परमेश्वर भी कहा है, जबकि, सवितृ को महेश्वर, विष्णु पुराण में नारायण का लोक शिशुमार चक्र अर्थात उर्सामाइनर में माना गया है, यह नारायण का लोक है, वास स्थान नहीं। लोक का मतलब जो स्थान जिससे प्रकाशित हो। अर्थात शिशुमार चक्र नारायण से प्रकाशित है। नारायण को जगदीश्वर कहते हैं। और हिरण्यगर्भ (त्वष्टा- रचना) को ईश्वर लिखा है। हिरण्यगर्भ का लोक ब्रह्मलोक है अर्थात ब्रह्मलोक हिरण्यगर्भ से प्रकाशित है, यह ध्रुव तारा के भी उपर उत्तर में है। ब्रह्मलोक भी हिरण्यगर्भ का लोक है, वास स्थान नहीं।
सुत्रात्मा प्रजापति को हम दक्ष- प्रसुति, रुचि-आकुति और कर्दम- देवहूति के रूप में जानते हैं। ये गोलाकार हैं। अतः इन्हें चतुर्मुखी मानते हैं। ये सबके पितामह, देवताओं के प्रमुख, गुरु और मार्गदर्शक हैं। ये ईश्वर नहीं कहलाते हैं।
विशेष --- 
लोक शब्द की व्याख्या इस आलेख का विषय तो नहीं है, लेकिन तथ्यों को स्पष्ट करने हेतु आवश्यक जान पड़ा अतः प्रस्तुत है, लोक शब्द का तात्पर्य --
पौराणिकों नें वेदव्यासजी की गूढ़ वाक्य रचना को आदर्श मान कर पुराणों को रूपकात्मक भाषा शैली में रचा। इस कारण पुराणों को प्रायः कोई भी सही ढङ्ग से नहीं समझ पाता है। इस कारण अनेक भ्रम पैदा हुए। जैसे वैकुण्ठ में क्षीर सागर में नारायण का वास आदि। उसी का दुसरा उदाहरण है--
हमारे सूर्य का वैदिक नाम मार्तण्ड है। जिसे कश्यप और अदिति के आठ पुत्र अष्टादित्यों में से एक माना जाता है।
मार्तण्ड शब्द में मृत्यु शब्द सन्निहित है। इस मार्तण्ड आदित्य के पुत्र यम और पुत्री यमी माने गए हैं। भूमि पर सर्व प्रथम मरने वाले व्यक्ति यम की शक्ति मृत्यु है। यम इस मृत्युलोक के शासक हैं।
जो लोक मार्तण्ड से प्रकाशित होता है उसे मृत्यु लोक कहते हैं।
यह तथ्य लोक शब्द की व्याख्या सिद्ध कर देता है। लेकिन लोगों ने गलत अर्थ लगाया कि, जहाँ मृत्यु का वास हो वह मृत्यु लोक है।
अतः सिद्ध है कि, जो लोक जिस देवता से आलोकित होता है, उस देवता का लोक कहा जाता है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि, ये दिव्य तत्व देवता प्रकाश स्वरूप हैं। और जिस लोक के केन्द्र हैं उसी के नाम पर लोक कहलाता है।

अर्थात सनातन धर्म में ईश्वर पद है, जिसकी उक्त श्रेणियाँ है। ये ठीक वैसे ही हैं; जैसे, पहले राजा होते थे , राजा के अधीन प्रधान मन्त्री होते थे, वैसे  विष्णु राजा हैं, तो सवितृ महामन्त्री। उनके अधीन सेनापति  की नारायण से और उप मन्त्री की हिरण्यगर्भ से तुलना कर सकते हैं।
या गणतन्त्र में राष्ट्रपति विष्णु आदि तथा प्रधान मन्त्री, मन्त्री सवितृ और मुख्य सचीव नारायण इस प्रकार से तुलना कर सकते हैं।
तात्पर्य केवल इतना है कि, ये केवल पदनाम हैं। और स्वाभाविक है कि, पदासीन व्यक्ति बदलते रहते हैं। 
चूँकि विष्णु को परमपद कहा गया है, सवितृ पद तक महाकाल की उत्पत्ति ही नहीं हुई, नारायण स्वयम् महाकाल हैं अतः विष्णु कालातीत हैं और सवितृ और नारायण और की भी कालावधि नही बतलाई जा सकती। हिरण्यगर्भ की कालावधि दो परार्ध है, जिसमें से प्रथम परार्ध व्यतीत हो चुका है। ये थे ईश्वरीय पद ।


जबकि, प्रजापति , इन्द्र, आदित्य, वसु और रुद्र आदि देवता तो विष्णु परमपद को देखने के लिए भी तरसते हैं। इनमें से कोई भी ईश्वरत्व प्राप्त पद नहीं है।
देव गण जिसमें प्रजापति देवों में सबसे वरिष्ठ होने से महादेव हैं। इनका लोक स्वर्ग लोक है। उसके बाद देवराज इन्द्र, ये भी पदनाम ही हैं। जैसे वर्तमान इन्द्र का नाम पुरन्दर है। इन्द्र, आदित्य और वसुगणों का वास स्थान प्रजापति का लोक सुवर्ग अर्थात स्वर्ग कहलाता है जो सूर्य के उसपार उत्तर में है। रुद्र का लोक अन्तरिक्ष है। देवगण प्रशासन के पदाधिकारी हैं। इन्हें ईश्वर नहीं कहा जाता।
इसके अलावा एक विवादित शब्द भगवान है। ईश्वर श्रेणी के देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक को भगवन शब्द से सम्बोधित किया जाता है। मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव और अतिथि देवो भव। अतः इन सब को भी भगवन् शब्द से सम्बोधित करते हैं।
भगवन शब्द ऐश्वर्यशाली के अर्थ में प्रयोग होता है न कि, ईश्वर के अर्थ में।
सनातन धर्म का ईश्वर एक पद नाम है, जबकि पारसी और इब्राहिमी पन्थ का ईश्वर एक व्यक्ति होता है।
इस प्रकार पारसी पन्थ और इब्राहिमी पन्थ के ईश्वर से सनातन धर्म के ईश्वर का अर्थ एकदम भिन्न होने से दोनों शब्दों की तुलना नहीं हो सकती।
 
अब आप कहेंगे कि, उक्त सबकी आराधना-उपासना क्यों होती है?
तो इसका उत्तर है कि, इब्राहीमी पन्थों में भी यहुदियों तक तो फरिश्तों को सिजदा करने का उल्लेख बाइबल पुराना नियम में है।
सनातन धर्म में चूंकि, उक्त सभी देवता आदरणीय और पूज्य हैं, मानवों द्वारा सेवनीय अर्थात सेवा करने योग्य हैं, इसलिए सभी की पूजा-अर्चना, और आराधना-उपासना होती है।
सकामोपासक को तो किसी जिस प्रकार का कार्य होता है, उसी से प्रार्थना करना स्वाभाविक ही है। जैसे बाल हिन्सा, घरेलू हिन्सा, नारी के विरुद्ध योन अपराध, चोरी-डकैती, आगजनी सब से सुरक्षा हेतु अलग-अलग विभागों से सहायता मांगी जाती है, सबका हेल्पलाइन नम्बर अलग-अलग होता है। ऐसे ही अलग-अलग कामना के लिए अलग-अलग देवताओं की अलग-अलग विधि से पूजा आराधना की जाती है।

बहुदेव वाद और बहुत से ईश्वर में आकाश-पाताल का अन्तर है। अतः सनातन धर्म में बहुत से ईश्वर हैं यह मानना नीरी मुर्खता है।

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

ब्राह्म धर्म से ब्राह्मण धर्म, प्रजापात्य धर्म ,आर्ष धर्म, मानव धर्म, भारतीय धर्म से बने सनातन धर्म के सम्प्रदायों की उत्पत्ति।


सर्वप्रथम वैदिक संहिताओं पर आधारित ब्राह्मधर्म रहा। ब्रह्म से ब्रह्म ही निकलता है इसलिए वेद मन्त्रों को भी ब्रह्म कहते हैं। इसलिए वेदों पर आधारित धर्म ब्राह्म धर्म कहलाता है।
फिर वैदिक संहिताओं की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में की गई। ब्राह्मण ग्रन्थों पर आधारित धर्म ब्राह्मण धर्म कहलाता है।
प्रजापति द्वारा ऋषियों को उपदेशित धर्म होने से प्राजापत्य धर्म, ऋषियों द्वारा आचरित होने से आर्ष धर्म कहलाता है। और स्वायम्भूव मनु के धर्मसुत्र पर आधारित होने से मानव धर्म भी कहलाता है।
सदा से है, सदा सहने वाला शाश्वत धर्म है, इसलिए सनातन धर्म कहलाता है।
ब्राह्मण ग्रन्थोंके अन्तिम भाग में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम सम्बधी उल्लेख वाले अध्याय आरण्यक कहलाते हैं। इन आरण्यकों में भी जिन अन्तिम अध्यायों में परमात्मा के ब्रह्म, ईश्वर, जीव और जगत स्वरूप का वर्णन है वे उपनिषद कहलाते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड को स्पष्ट करने हेतु बड़े यज्ञों के विधि-विधान श्रोत सुत्र, गृहस्थ धर्म के नित्यकर्म, संस्कार, व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार आदि के विधि-विधान के लिए गृह्यसुत्र, यज्ञ कर्म हेतु वेदी (जिसे आजकल हवन कुण्ड कहते हैं।), मण्डप, सृष्टि और ब्रह्माण्ड तथा देवताओं के लोक के नक्षे बना कर उसमें देवताओं का आह्वान, स्थापना, पूजन हेतु मण्डल निर्माण आदि के विधि-विधान हेतु शुल्बसुत्र तथा आचरण संहिता के रूप में कार्य-अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण हेतु धर्मसुत्र रचे गये। इन्हीं धर्मसुत्रों के आधार पर सामाजिक-राजनीतिक, शासक- शासित, राजा- प्रजा सम्बन्धित विधि-विधान हेतु मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति आदि स्मृति ग्रन्थ रचे गए जो अलग अलग राज्यों के संविधान बने।
 ब्राह्मण ग्रन्थों और सुत्रों में उल्लेखित कर्मकाण्ड सम्बन्धित वचनों की एकरूपता दर्शाने वाली मीमांसा जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन में और आरण्यकों-उपनिषदों में परमात्मा के ब्रह्म, ईश्वर, जीव और जगत स्वरूप के विषय में उल्लेखों की एकरूपता दर्शाने हेतु बादरायण नें उत्तर मीमांसा दर्शन अर्थात ब्रह्म सुत्र रचा, जिसे शारीरिक सुत्र भी कहते हैं।
सुत्र ग्रन्थों को सरल रूप में समझाने हेतु निबन्ध ग्रन्थ रचे गए। वैदिक इतिहास-पुराण और गाथाएँ लुप्त हो गये थे। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण रचकर और बाद में वेदव्यास जी नें जय संहिता रचकर इतिहास के ग्रन्थों की रचना की। वेदव्यास जी की 8800 श्लोक वाली जय संहिता अत्यन्त गूढ़ वाक्यों वाली थी जिसे केवल वेदव्यास जी स्वयम्, उनके सुपुत्र शुकदेव जी ही पूर्णतः समझते थे और कुछ भाग सञ्जय समझते थे।
अत: जय संहिता को सरल करने हेतु उनने 24,000 श्लोक का भारत ग्रन्थ रचा। भारत ग्रन्थ का विस्तार वेदव्यासजी के शिष्य वैशम्पायनजी नें कर जनमेजय के नागयज्ञ में सुनाया। नागयज्ञ में ही उक्त भारत इतिहास ग्रन्थ को रोमहर्षण जी के पुत्र उग्रश्रवा जी ने भी सुना। उग्रश्रवा जी ने शौनक ऋषि को विस्तार पूर्वक भारत ग्रन्थ सुनाया। वहीँ शौनक आश्रम में उपस्थित ऋषियों ने मिलकर इस 24,000 श्लोक के भारत ग्रन्थ को विस्तृत कर लगभग एक लाख श्लोक का महाभारत ग्रन्थ के रूप में सम्पादित कर दिया। यह बात महाभारत ग्रन्थ के आदिपर्व में उपक्रम अध्याय में उल्लेखित है। बस थोड़ा समझना पड़ता है।
इसी समय वेदव्यासजी के पिता महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण रचा।
भारत में वैदिक ब्राह्म धर्म में ही दो मत प्रारम्भ से ही चल रहे थे। पहला - दक्ष प्रजापति प्रथम और स्वायम्भूव मनु द्वारा स्थापित वर्णाश्रम धर्म या प्रवृत्ति मार्ग और दुसरा - सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन तथा नारद जी द्वारा प्रवर्तित निवृत्त मार्ग।
सनक-सनन्दन के निवृत्ति मार्ग से ही बाद में स्वायम्भूव मनु के वंशज ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती तथा बाहुबली ने श्रमण परम्परा  प्रारम्भ की।
सिद्ध सम्प्रदाय इसी श्रमण परम्परा से निकला।
किन्तु शंकरजी ने भारत में ग‌हस्थ रहकर भी श्रमण परम्परा वाला वैरागी सम्प्रदाय प्रवर्तन कर दिया। उन्ही के अनुयाई दधीचि ऋषि और शुक्राचार्य जी  शैवपन्थ के प्रवर्तक हुए। तथा शुक्राचार्य जी के पुत्र त्वष्टा नें शाक्त सम्प्रदाय की नीव रखी।
नाथ सम्प्रदाय सिद्ध सम्प्रदाय से ही निकला है।

प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय की राजधानी हरिद्वार के निकट कनखल थी। और हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र भी उन्ही का राज्यक्षेत्र में था। बादमें यही भाग गोड़ देश और मालवा नाम से भी प्रसिद्ध रहा।और दक्ष द्वितीय की पत्नी असीक्नी से उमा का जन्म हुआ। 
उमा ने शंकरजी को पति रूप में वरण किया। दक्ष द्वितीय ने अनिच्छा पूर्वक विवाह तो कर दिया लेकिन उनके मन में दामाद शंकर जी के प्रति कोई सम्मान नहीं था। क्योंकि शंकर जी न तो प्रजापति के पुत्र दक्ष प्रथम द्वारा स्थापित वर्णाश्रम व्यवस्था को मानते थे न स्वायम्भूव मनु के मानव धर्मसुत्र की व्यवस्था स्वीकार करते थे। दधीचि आदि कुछ ऋषि शंकरजी के अनुयाई हो चुके थे। 
दक्ष द्वितीय ने कनखल में हो रहे यज्ञ में शंकर जी को नहीं बुलाया। यह जानकर उमा नें शंकर जी के समक्ष इसपर आपत्ति प्रकट की, लेकिन शंकर जी ने उमा को समझाया कि, सृष्टि के आदि में ही प्रजापति ने यज्ञ व्यवस्था रची। लेकिन यज्ञ में रुद्र को यज्ञभाग नही देने की व्यवस्था की। इसलिए तुम्हारे पिता ने मुझे नही बुलाया तथा वे यज्ञभाग भी नही देंगे। उनका यह कार्य धर्मोचित है। लेकिन उमा सन्तुष्ट नहीं हुई और बिना बुलाए यज्ञ में जाने लगी तो शंकरजी भी रुद्र गणों को साथ लेकर उमा के साथ यज्ञस्थल पर गये। उमा ने यज्ञ में जाकर शंकर जी के लिए भी यज्ञभाग की मांग की। महर्षि दधीचि ने भी समर्थन किया। लेकिन दक्ष द्वितीय न माने, अन्य किसी देवता या ऋषि ने भी दक्ष का विरोध नही किया किसी ने उमा का समर्थन भी नहीं किया तो, उमा उग्र हो गई।
उमा के समर्थन में शंकर जी की आज्ञा से वीरभद्र और भद्रकाली ने यज्ञ विध्वंस कर दिया और वीरभद्र ने दक्ष द्वितीय का सिर धड़ से अलग कर दिया। 
बाद में प्रजापति ने यज्ञ नियमों में संशोधन कर रुद्र को यज्ञभाग देने की व्यवस्था की। तब सन्तुष्ट होकर तन्त्र, विष विज्ञान, औषधियों से चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा के विद्वान शंकर जी ने ही अपने श्वसुर दक्ष द्वितीय का सिर पुनः जोड़ दिया। इसमें बकरे के सिर के कुछ भागों का भी उपयोग किया। इस कारण दक्ष की आवाज बदल गई और अ स्पष्ट हो गई। फिर शंकर और उमा सहर्ष वापस आदि कैलाश लौट गए। यह कथा महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक  में उल्लेखित है।
इस प्रकार बल पूर्वक रुद्र को यज्ञभाग देने की परम्परा के साथ शैव सम्प्रदाय और शंकर जी की पूजा आराधना का प्रारम्भ हुआ।
उधर अरब के इराक में असूरों से नाराज़ हो कर शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य जी यमन में बस गए और शुक्राचार्य जी ने यमन से सऊदी अरब के मक्का तथा अफ्रीका महाद्वीप तक कई शिव मन्दिर स्थापित किये।
अथर्ववेदीय घोर आङ्गीरस नें भी केवल अष्टाङ्गयोग के माध्यम से अध्यात्मिक विकास पर बल दिया।  यह मत वर्तमान में सिद्ध सम्प्रदाय कहलाता है।

युनान के पास क्रीट में शुक्राचार्य जी के पुत्र त्वष्टा नें कई देवी मन्दिरों की स्थापना कर शाक्त पन्थ की स्थापना की। 
उक्त दोनों शैव और शाक्त मत चीनी/ तिब्बती रेशम व्यापारियों के माध्यम से तिब्बत तक पहूँचा। जहाँ से वाराणसी में शैव पन्थ पहूँचा और उत्तर पूर्व राज्यों में शाक्त पन्थ पहूँचा। 
श्रीकृष्ण नें साम्ब की कुष्टरोग चिकित्सा हेतु ईरान से अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता की विधि से सूर्य उपासना करने वाले मग ब्राह्मणों को बुलाया। उनने कोणार्क उड़िसा में अथर्ववेदीय यज्ञ कर साम्ब की चिकित्सा की। कुछ मग ब्राह्मण गोवा के आसपास कोंकण पट्टी और महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मणों के साथ रच बस गये। इनके प्रभाव से राजस्थान में सौर मत प्रचलित हुआ।

श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि नें वेदिक यज्ञ परम्परा का विरोध प्रारम्भ किया। और 
अरिष्टनेमि के शिष्यों ने उन्हें नेमिनाथ नाम दिया और अवैदिक निवृत्ति मार्ग की स्थापना की जो वर्तमान में जैन सम्प्रदाय कहलाता है।
इसी श्रमण परम्परा में कुछ सिद्ध अर्हत कहलाते थे तो कुछ बुद्ध कहलाते थे।
कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ भी इसी बुद्ध परम्परा में हुए। लेकिन सिद्धार्थ ने गोतम बुद्ध के नाम से श्रमण मत परम्परा में प्रथक बौद्ध सम्प्रदाय प्रवर्तन किया।
बौद्ध धर्म की महायान शाखा के नागार्जुन के शुन्यवाद से प्रभावित शैव आचार्यों ने त्रिक शैव सम्प्रदाय बना दिया जिसे कश्मीरी शैव दर्शन के नाम से जाना जाता है।
जो शाक्त पन्थी बौद्ध आचार्यों के सम्पर्क में आए उनने वज्रयान सम्प्रदाय बना दिया।  

आद्य शंकराचार्य जी ने स्मार्त मत  के अनुसार शैव, शाक्त , गाणपत्य, सौर, और वैष्णव सम्प्रदायों की खीँच-तान को समाप्त कर इन सब को मिलाकर पाँचो देवों की अलग अलग पञ्चायत बना कर उनमें एक को इष्ट देव मानकर शेष चार को समभाव से पूजा करने की पञ्चदेवोपासना पद्यति विकसित कर दी। तब से श्रोत यज्ञ, योग के साथ पञ्चदेवोपासना भी स्मार्तों ने अपना ली। वर्तमान स्मार्त जन पञ्चदेवोपासक हैं। 

श्रीकृष्ण की नारायणी सेना के महाभारत युद्ध से बचे-खुचे सैनिकों नें दक्षिण भारत में महाभारत को प्रमुख धर्मग्रंथ मानकर एवम् श्रीकृष्ण को इष्टदेव मानते हुए महाभारतोक्त भागवत धर्म के रूप में भागवत सम्प्रदाय स्थापित कर दिया।  
 
जबकि उक्त भागवतो में भी फिर मतभेद होकर ---
रामानुजाचार्य ने विष्णु पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर तथा श्रीकृष्ण को इष्टदेव मानकर विशिष्टद्वैत वादी रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय चलाया।
निम्बार्काचार्य ने भागवत पुराण को प्रमुख धर्मग्रंथ मानकर और राधाकृष्ण को इष्ट मानकर भेदाभेद वादी परम भागवत निम्बार्क सम्प्रदाय चलाया।
मध्वाचार्य नें द्वैत वादी भागवत सम्प्रदाय स्थापित किया। इनका भी मुख्य धर्मग्रन्थ भागवत तथा इष्टदेव राधा कृष्ण हैं।
मध्व के अनुयाई श्रीकृष्ण चैतन्य ने भागवत पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर तथा राधा कृष्ण को इष्ट मानकर अचिन्त्यभेदाभेद वादी गोड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय प्रचलित किया। और 
वल्लभाचार्य ने भी भागवत पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर और राधा कृष्ण को इष्ट मानकर त्रिक दर्शन के वैष्णव प्रारूप में पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय स्थापित किया। वर्तमान में अधिकांश श्रीकृष्ण मन्दिर इन्हीं वल्लभ सम्प्रदाय के अधीन है।

केवल स्मार्त जन ही पञ्चदेवोपासना करते हैं, अतः वे एकादशी व्रत भी करते हैं, रामनवमी और जन्माष्टमी व्रत भी करते हैं, शिवरात्रि भी मनाते हैं, नवरात्र भी करते हैं, गणेश चतुर्थी भी मनाते हैं और सूर्य षष्ठी भी मनाते हैं। जबकि,
भागवत जन केवल एकादशी व्रत ही करते हैं, भागवत जनरामनवमी और जन्माष्टमी व्रत भी करते हैं लेकिन प्रदोष व्रत और शिववरात्रि व्रत नहीं करते।
शैव प्रदोष व्रत और शिवरात्रि करते हैं लेकिन एकादशी व्रत, जन्माष्टमी व्रत आदि नहीं करते। वर्तमान में ऐसे कट्टर वैष्णव शैव अत्यल्प ही बचे है। 

पहले राजस्थान में सौर मत प्रचलित था, अब नहीं है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में गाणपत्य बचें हैं, लेकिन दोनों प्रदेशों के गाणपत्य सम्प्रदाय में भी अन्तर है। तमिलनाडु में ऊच्चिष्ठ गणपति के उपासक हैं तो, महाराष्ट्र में अष्ट विनायक और सिद्धिविनायक के उपासक हैं।
ऐसे ही शैव पन्थ में भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के शैव परम्परा में अन्तर है। 
शाक्त पन्थ में बङ्गाल में काली उपासना, धुनुची नृत्य करते हैं तो, गुजरात में अम्बा पूजन और गरबा नृत्य करते हैं।
ऐसे ही वैष्णवों के सभी सम्प्रदायों में भी भिन्न-भिन्न परम्परा प्रचलित है।

प्रत्येक व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार का एक निर्धारित पर्वकाल होता है, यथा हनुमान जयन्ती सूर्योदय व्यापिनी चैत्र पूर्णिमा में होती है। और शारदीय नवरात्र में घटस्थापना सूर्योदय से चार घण्टे (दस घटि) के अन्दर करते हैं। रामनवमी, गणेश चतुर्थी, भैरव अष्टमी मध्याह्न व्यापिनी तिथि में मनाते हैं। नृसिंह जयन्ती सूर्यास्त व्यापिनी चतुर्दशी में मनाई जाती है, तो जन्माष्टमी मध्यरात्रि व्यापीनी अष्टमी तिथि में मनाते हैं। ऐसे ही श्राद्ध तिथि कुतप काल व्यापीनी तिथि में ही करते हैं। शारदीय नवरात्र में सभी कर्म प्रातः काल व्यापीनी तिथि में होते हैं लेकिन, विजया दशमी/ दसरा पर्व मध्याह्न व्यापिनी आश्विन शुक्ल दशमी में होता है, कोजागरी पूर्णिमा /लक्ष्मी पूजा प्रदोष व्यापिनी आश्विन पूर्णिमा में और दीपावली पर भी दीप पूजन और दीपदान सायम् काल में सन्ध्या काल में करते हैं; तो लक्ष्मी पूजा प्रदोष काल में करते हैं, उसमें भी स्थिर वृषभ लग्न सर्वश्रेष्ठ।  दीपावली में ही काली पूजा महानिशिथ काल में ही करते हैं।
स्मार्त जन इन पर्वकालिन तिथि में और पर्वकाल में ही, स्थापना, पूजा आदि कर्म करते हैं। इसमें किसी भी पन्थ का हट अनुचित ही माना जाएगा।लेकिन फिर भी 
महाभारतोक्त भागवत पन्थ और दक्षिण भारतीय वैष्णवाचार्यों के रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य और निम्बार्काचार्य आदि के अनुयाइयों के सम्प्रदाय में दशमी वैध के आधार पर एकादशी व्रत के कई प्रकार गढ़े गए, परिणाम स्वरूप भागवत जन अधिकांशतः द्वादशी तिथि में एकादशी व्रत करते हैं।और ऐसे ही
1 दक्षिण भारत में सूर्योदय के समय निरयन सिंह राशि में सूर्य और चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में होने पर श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाना। 
2 उत्तर भारत में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण पक्ष की उदिया अष्टमी तिथि, सूर्योदय के समय रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा हो और अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की उदिया अष्टमी तिथि हो श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।  ऐसे विभिन्न मतभेद हैं। 

वैदिक काल में वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से संवत्सर परिवर्तन होता था, उत्तरायण-दक्षिणायन, उत्तर गोल-दक्षिण गोल, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुएँ तथा मधु-माधव, शुक्र-शचि, नभः, नभस्य, ईष-उर्ज, सहस-सहस्य, तपः -तपस्य सभी मास सायन सौर संक्रान्ति से ही बदलते थे। अयन, गोल और श्रतुएँ तो आज भी सायन सौर संक्रान्ति से ही बदलते हैं। लेकिन 
संवत्सर परिवर्तन और मास परिवर्तन अब सायन सौर संक्रान्ति से नहीं होते हैं। बल्कि,
पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में जिस दिन सूर्योदय से सूर्योदय के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो उस दिन विक्रम संवत बदलते हैं। 
बङ्गाल ,उड़िसा, असम में जिस मध्यरात्रि से मध्य रात्रि के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो उस दिन संवत  बदलते हैं। 
तमिलनाडु में जिस दिन सूर्यास्त से दुसरे दिन सूर्यास्त के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो तब से संवत बदलते हैं। तो 
 केरल में सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद (अर्थात अठारह घटि) बाद से दुसरे दिन के सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद (अर्थात अठारह घटि) बाद के बीच निरयन सिंह संक्रान्ति लगे तब से कोलम संवत बदलते हैं। अठारह घटि का वास्तविक अर्थ है दिनमान का 3/5 वाँ भाग। लेकिन लकीर के फकीर सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद वाला अर्थ ही ग्रहण करते हैं।
उक्त प्रदेशों में निरयन मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क आदि राशियों मे सूर्य के अनुसार मास चलते हैं। ये माह परिवर्तन भी उपर्युक्त नियमानुसार निरयन संक्रान्ति से ही बदलते हैं।
लेकिन  
उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में अमान्त चान्द्रमासों के अनुसार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय से संवत्सर बदलते हैं। इसमें भी महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्द बदलते है। तो,
उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत बदलते हैं और गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत बदलते हैं। लेकिन इन सभी प्रदेशों में चैत्र वैशाख आदि चान्द्रमास मास ही चलते हैं। उसमें भी 
उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से माह बदलते हैं तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से माह बदलते हैं।
तमिलनाडु और केरल में निरयन मेष- वृषभादि मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं। तो बङ्गाल ,उड़िसा और असम में निरयन मेष- वृषभादि मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से भी व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं और चान्द्रमासों में तिथि के साथ चन्द्रमा के नक्षत्र के योग को भी महत्व देते हुए व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं। जैसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की अष्टमी और रोहिणी नक्षत्र योग में जन्माष्टमी मनाते हैं। तो नवरात्र में आश्विन शुक्ल पक्ष में षष्टी तिथि- ज्येष्ठा नक्षत्र योग में सायम् काल मे बिल्वपत्र को निमन्त्रण करते हैं। सप्तमी तिथि में मूल नक्षत्र में महा सप्तमी में सरस्वती आह्वान और स्थापना, अष्टमी तिथि में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में महा अष्टमी में सरस्वती पूजा, नवमी तिथि में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में महा नवमी में बलिदान , और दशमी तिथि में श्रवण नक्षत्र में विजयादशमी में सरस्वती विसर्जन करते हैं। जबकि स्मार्त केवल तिथि को ही महत्वपूर्ण मानते हैं।
ऐसे ही स्मार्त-वैष्णव एकादशी व्रत और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत में भी ऐसे ही मतभेद चलते हैं।
स्मार्त जन सूर्योदय से सूर्योदय के बीच  व्रत-उपवास रखते हैं, सूर्योदय वैध ही मानते हैं और पर्वकाल में पूजन करते हैं।  इस लिए वे एकादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं और एकादशी व्रत का पारण एक चौथाई द्वादशी व्यतीत होने के बाद अर्थात हरिवासर व्यतीत होने के बाद द्वादशी तिथि में  प्रातः काल मिले तो प्रातः काल में पारण करते हैं; अन्यथा हरिवासर व्यतीत होने के बाद ही लेकिन द्वादशी तिथि में ही एकादशी व्रत का पारण करते हैं।
स्मार्त जन एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में आवश्यक रूप से करते हैं। इसलिए वे प्रदोष व्रत नहीं कर पाते हैं।
मध्यरात्रि में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में ही मध्यरात्रि में स्मार्त जन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। और जन्माष्टमी के दुसरे दिन गोकुल अष्टमी पर नन्दोत्सव करते हैं।

महाभारतोक्त भागवत जिन्हें पौराणिक वैष्णव भी कहते हैं वे सूर्योदय के बाद 22 घण्टे 24 मिनट तक (अर्थात 56 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं। 
महाभारतोक्त भागवत / पौराणिक वैष्णव सूर्योदय समय अमान्त श्रावण, पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में ही मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
जन्माष्टमी में सप्तमी वैध का कोई निषेध नही है इसलिए क्षय तिथि में सप्तमी युक्त अष्टमी मे, सूर्योदय कालिन अष्टमी तिथि नही होने पर भी सभी सम्प्रदाय जन्माष्टमी मनाते हैं।
रामानुज सम्प्रदाय के शंख चक्रांकित भागवत जन सूर्योदय के बाद 22 घण्टे तक (अर्थात 55 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं।

दक्षिण भारतीय शंख चक्रांकित रामानुज पन्थी तो सूर्योदय के समय निरयन सिंह राशि के सूर्य में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
उत्तर भारतीय शंख चक्रांकित रामानुज पन्थी सूर्योदय समय अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। यदि रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि एक मिनट भी उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
विशेष ---
जन्माष्टमी में सप्तमी वैध का कोई निषेध नही है इसलिए क्षय तिथि में सप्तमी युक्त अष्टमी मे, सूर्योदय कालिन अष्टमी तिथि नही होने पर सभी सभी वैष्णव सम्प्रदाय भी सप्तमी युक्त अष्टमी मे ही जन्माष्टमी मनाते हैं।
शंख चक्रांकित पूष्टि मार्गी वल्लभ सम्प्रदाय,शंख चक्रांकित मध्व सम्प्रदाय,  श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का गोड़ीय सम्प्रदाय आदि के शंख चक्रांकित भागवत जन सभी उक्त पचपन घटि वैध मानते हैं अतः सूर्योदय के बाद 22 घण्टे तक (अर्थात 55 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं।
अमान्त श्रावण, पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। यदि रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
लेकिन
निम्बार्क सम्प्रदाय के परमभागवत पैंतालीस घटि वैध मानते हैं अतः मध्यरात्रि के बाद या सूर्योदय के बाद 20 घण्टे तक (अर्थात 45 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन द्वादशी तिथि में एकादशी व्रत करते हैं। (चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो ही नहीं फिर भी द्वादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं।
अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
इस कारण भारत में अधिकांश व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार दो-दो दिन मनाते हैं।