बुधवार, 20 दिसंबर 2023

ग्रहण में वैध, एकादशी पारण में हरिवासर की व्यवस्था क्यों की गई?

वास्तविकता यह है कि, वैदिक काल में प्रतिदिन वैध लेकर ही दिन निर्धारित होते थे। लेकिन उस समय तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, शुक्ल पक्ष की अष्टमी (अर्धचन्द) अर्थात एकाष्टका, पूर्णिमा (पूर्ण चन्द्र), कृष्ण पक्ष की अष्टमी (अर्धचन्द) अर्थात अष्टका और अमावस्या (बिना चन्द्रमा वाली रात) के नाम ही मिलते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ काल में, सुत्र ग्रन्थों के रचना काल में भी यही प्रचलन रहा रामायण में भी प्रक्षिप्त अंशों में ही तिथि वर्णन है। लेकिन महाभारत में प्रथम बार तिथियों का उल्लेख है। लेकिन महाभारत काल में भी वर्तमान प्रचलित शक संवत में अपनाया गया १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष में क्षयमास तथा अट्ठाइस से अड़तीस मास में अधिकमास वाला संवत्सर चक्र प्रचलित नहीं था। उस समय हर अट्ठावन माह पश्चात दो अधिक मास की ऋतु होती थी।
तब तक पञ्चाङ्ग गणित सर्वसाधारण की समझ से परे हो चुका था। युधिष्ठिर और भीष्म का पक्ष दुर्योधन को समझ नहीं आ रहा था, यह इसका प्रमाण है।
महाभारत में सभी ज्ञानी विज्ञानी मर-खप गये। विद्वानों का कोई संरक्षक नही रहा। वैध लेने की विद्या बहुत कम लोगों तक सिमट कर रह गई। लोग पुरोहितों से पूछ कर व्रत-उपवास करने लगे।
वैध के अभाव में ज्योतिर्गणना गलत होने लगी। ग्रहों की सूर्य और भूमि से दूरी बढ़ गई लेकिन अनुसन्धान के अभाव में पीढ़ी दर पीढ़ी सूर्यसिद्धान्त में उल्लेखित उन्ही ही पुराने आंकड़ोंं के आधार पर पञ्चाङ्ग बनती रही। भास्कराचार्य ने वैध लेकर सूर्यसिद्धान्त से आये ग्रह स्थिति में बीज संस्कार कर शुद्ध करने की विधि बतलाई। उसके बाद अकबर के समय गणेश देवज्ञ ने कुछ वैध लिए। और वही बीज संस्कार सुझाव दिया। लेकिन परिवर्तित मूल आंकड़ों का यथावत ग्रहण करने से गलती बढ़ती गई।
व्यंकटेश बापूजी केतकर नें ग्रह गणितम् और वैजयन्ती रचकर पर्याप्त सुधार किया है। लेकिन फिर भी आजतक जबलपुर के लाला रामस्वरूप और उज्जैन के महाकाल पञ्चाङ्ग जैसे पञ्चाङ्ग सूर्यसिद्धान्त के करण ग्रन्थ मकरन्द या अकबर के समय गणेश देवज्ञ रचित ग्रह लाघव ग्रन्थ के आधार पर बन रहे हैं।
इन पञ्चाङ्गों में तिथियों के प्रारम्भ/ समाप्ति काल में नौ घण्टे से अधिक का अन्तर ग्रहों में १०° से २०° तक का अन्तर, उदयास्त और वक्री - मार्गी में कई दिनों का अन्तर देखने में आता है।
इसी कारण चन्द्र ग्रहण में नौ घण्टे और सूर्य ग्रहण में बारह घण्टे पहले से वैध लगना, कान्ति मालिन्य चन्द्र ग्रहण और सूर पर से बुध - शुक्र और मङ्गल के पार गमन को ग्रहण न मानना तथा एकादशी पारण में द्वादशी का एक चौथाई भाग हरिवासर मानने की प्रथा डाल दी। ताकि, गलती से भी व्रत भङ्ग न हो।

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