रविवार, 10 दिसंबर 2023

सनातन धर्म में बहुदेव वाद क्यों है? एकेश्वर वाद क्यों नहीं?

सनातन धर्म में बहुदेव वाद क्यों है? एकेश्वर वाद क्यों नहीं?

यह प्रश्न ही जरथ्रुस्त्र और इब्राहिम अवधारणा पर आधारित है। 
 जरथ्रुस्त्र और इब्राहिमी अवधारणा यह है कि, सातवें आसमान या किसी लोक विशेष में सिंहासन पर विराजमान और आज्ञाकारी फरिश्तों से घिरे हुए एक शक्तिमान व्यक्तित्व ज़मीं और आसमां पर नियन्त्रण करता है। जिसे वे अहुरमज्द, एल, याहवेह/ यहोवा या इलाही - अल्लाह नाम से पुकारते हैं।
लेकिन उसमें भी अन्य फरिश्तों से अधिक शक्तिशाली एक फरिश्ता विद्रोही है, जो सबको उस शक्तिमान व्यक्तित्व के आदेशों की अवहेलना करने के लिए भड़काता रहता है , जिसे वे, अङ्गिरामेन्यु/ इब्लिस आदि नामों और शैतान की उपाधि से पुकारते हैं।
बाइबल नया नियम के अनुसार परमपिता परमेश्वर यहोवा, पवित्र आत्मा परमेश्वर (फरिश्ता) और यीशु परमेश्वर ये तीन ईश्वर हैं। लेकिन वे भी परमपिता परमेश्वर यहोवा को ही सर्वोच्च और सर्वोपरि मानते हैं। 
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले तक ईरान में मूर्तिपूजा होती थी, जरथ्रुस्त्र का मानना था कि, मग- मीढ संस्कृति के ईरानी मुर्तियों में ईश्वर देखते हैं जो ईश्वरत्व में किसी और को सम्मिलित करने के समान होने से अनुचित है। अतः उनने पारसी पन्थ चलाकर  मूर्ति पूजा बन्द करवा दी। ऐसे ही लगभग एक हजार चार सौ वर्ष पहले तक अरब में भी मूर्ति पूजा होती थी, जिसे शिर्क मानकर प्रेषित मोहमद साहब ने बन्द करवा दी।
बाइबल के तीन परमेश्वर का खण्डन और मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रेषित मोहम्मद ने भी विरोध किया। और इस्लाम में इसे उन्हें अल्लाह के साथ शरीक होना (शिर्क) बतला कर दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया।

इसी अवधारणा के आधार पर ये लोग ऐसा भ्रम पालते हैं कि, सनातन धर्म में भी अनेक ईश्वर प्रचलित हैं। जबकि, कोई भी वैदिक धर्मग्रन्थ ओर सनातन धर्म का कोई भी शास्त्र में ईश्वर पद पर पदासीन एकाधिक व्यक्तियों की कल्पना से भी परिचित नहीं हैं। इसलिए इसका विरोध भी नहीं है। क्योंकि सनातन धर्म में ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि, ईश्वरत्व एक व्यवस्था है।
मुख्य बात तो यह है कि, सनातन धर्म में परमात्मा मुख्य लक्ष्य है। परमेश्वर पद भी तीसरे क्रम पर आता है। क्योंकि, ईश्वर मतलब शासक, नियन्ता, नियन्त्रण कर्ता। जब सृष्टि हुई तब जाकर ईश्वर की आवश्यकता हुई।  फिर सनातन धर्म में ईश्वर या शासक नामक कोई व्यक्ति की अवधारणा ही नहीं है। बल्कि सीधे स्वानुशासन की व्यवस्था है।
वेदों में परमात्मा के द्वारा सृष्टि उत्पत्ति के साथ ही ऋत के अनुसार सृष्टि संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था स्थापित कर दी। जिसमें न परमात्मा स्वयम् कोई कर्म करता है, न प्रकृति को कुछ करना पड़ता है। बल्कि यह प्राकृतिक व्यवस्था कार्य-कारण वाद की अवधारणा से मैल खाती है, जिसमें ऋत के अनुसार नियमित क्रम में सृष्टि का विकास, संचालन और विनाश स्वतः होता रहता है। इसमें कोई भी कर्ता नहीं है।
सनातन धर्म का ईश्वर कोई व्यक्तित्व नही होकर अमुर्त है; जैसे भारत शासन।
भारत में शासक नामक कोई व्यक्ति नहीं बल्कि, लोकतांत्रिक सांवैधानिक व्यवस्था है; वैसे ही सनातन धर्म का ईश्वर भी ऋत के संविधान से संचालित प्राकृतिक स्वसंचालित व्यवस्था है। 

सृष्टि उत्पत्ति क्रम में प्रारम्भिक चरण में प्रकट हुए तत्वों का विवेचन ---

1 परमात्मा के बारे में कुछ भी सोच पाना भी सम्भव नहीं है, जो भी, जितना भी सोचा जा सकता है वह भी नगण्य ही है अतः नेति-नेति कहा गया है।
2 विश्वात्मा ॐ के बारे में भी कुछ सोच पाना लगभग सम्भव नही है। हमारी सोच उसके सामने बहुत सीमित है। 
3 प्रज्ञात्मा परब्रह्म को हम सर्वव्यापी विष्णु और उसकी शक्ति माया के रूप में आंशिक समझ रखते हैं। वस्तुतः सत असत अनिर्वचनीय माया ही इतनी विकट है कि, माया को समझना ही इतना कठिन है कि, समस्त बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी उसे हम जानते हैं ऐसा नहीं कहते, तो विष्णु के बारे में क्या और कैसे सोचा जा सकता है। फिर भी सच्चिदानन्द, अनादि-अनन्त, अकारण करुणाकरन, कल्याण स्वरूप आदि कहा जाता है। इसके लिए ॐ तत्सत्, सच्चिदानन्द आदि वाक्य प्रसिद्ध हैं। 
परब्रह्म (विष्णु- माया) के इक्षण (इच्छा) से ही सृष्टि के सृजक, प्रेरक और रक्षक (सञ्चालक) सवितृ हुए। इसलिए विष्णु  को परमेश्वर कहते हैं। विष्णु का अर्थ ही सर्वव्याप्त होता है। सर्वव्यापी की कोई सीमा नहीं होती अतः विष्णु का कोई आकार, प्रकार, शेप-साइज कुछ नहीं है। फिर भी ऐसा कहा जाता है कि, परमेश्वर विष्णु के हाथ में 90×4 =360 अरों का नियति चक्र है। यहाँ स्पष्ट है कि, 360° के इस संवत्सर चक्र का ही वर्णन है। इस संवत्सर चक्र  के अनुसार ही सब कार्य स्वतः होते रहते हैं।

4 ब्रह्म देव प्रत्गात्मा ब्रह्म जिन्हें हम सवितृ और उनकी शक्ति सावित्री के रूप में जानते हैं ये ही पौराणिक श्रीहरि और कमलासना देवी के रूप में दर्शाई जाती है। ये सर्वगुण सम्पन्न हैं। इनके बारे में भी सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म, सर्व खल्विदम् ब्रह्म आदि वाक्य प्रसिद्ध हैं। ये व्यक्तित्व के कारण कहे जा सकते हैं।  चूंकि सवितृ का अर्थ सृष्टि के जनक, प्रेरक और रक्षक ये ही हैं इसलिए इन्हें महेश्वर कहते हैं। 
स्वाभाविक रूप से लगभग अनन्त स्वरूप ही हैं। ये भी सीमित नहीं हैं। अतः साकार भी नहीं कहे जा सकते। ये महा आकाश स्वरूप होने से लगभग सर्व व्यापी हैं। अभी तक महाकाल का उद्भव नहीं हुआ, अतः ब्रह्म (सवितृ) तक के सभी तत्व कालातीत हैं।

5 जीवात्मा अपर ब्रह्म हैं, जिन्हें पौराणिक नारायण और श्री लक्ष्मी के रूप में वर्णन करते हैं। अपरब्रह्म तरङ्गाकार स्वरूप में प्रथम साकार तत्व हैं। नारायण शब्द का अर्थ ही है कि, ये स्वयम् की शक्ति त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति पर अयन करते हैं। अर्थात त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति में विचरते हैं। या यों कह लें कि ये त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति में स्थित हैं। ये ही महाकाल हैं। इन्हें जगदीश या जगदीश्वर कहते हैं। 
जैसा कि, कहा गया है। इन्हें भी कोई व्यक्ति नहीं कहा जा सकता।
6 जीवात्मा अपरब्रह्म से व्युत्पन्न भूतात्मा हिरण्यगर्भ प्रथम साकार स्वरूप दीर्घगोलाकार (अण्डाकार) स्वरूप में हैं। अण्डाकार को पञ्चमुखी कहा जाता है। सृष्टि के समस्त ब्रह्माण्डों के रचयिता ये ही हैं। इसलिए इन्हें विश्वकर्मा कहते हैं। इन्हें हम त्वष्टा और उनकी शक्ति रचना के रूप में जानते समझते हैं। ऋग्वेद के अनुसार त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्ड के सभी गोलों को सुतार की भाँति घड़ा। लोक कल्पना अनुरूप इन्हें ईश्वर श्रेणी का देव कहा जाता है। हिरण्यगर्भ साकार (दीर्घगोलाकार) हैं, अतः इन्हें भी व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। ये भी लगभग अमुर्त शक्ति के समान ही हैं। या अधिकतम इनकी तुलना सूर्य से ही कर सकते हैं। वस्तुतः हिरण्यगर्भ समस्त सृष्टि का केन्द्र है।
7 भूतात्मा हिरण्यगर्भ से व्युत्पन्न सुत्रात्मा प्रजापति प्रथम व्यक्ति हैं। लेकिन इन्हें ईश्वर नहीं कहते हैं। प्रजापति को प्रायः हम दक्ष(प्रथम)- प्रसुति, रुचि - आकुति और कर्दम- देवहूति नामक प्रजापतियों के रूप में भी जानते हैं। सुत्रात्मा प्रजापति का लोक स्वर्ग है। जहाँ इन्द्र, आदित्य गण और वसुगण रहते हैं।

यहाँ वेदों में विष्णु को परमपद कहा है। इन्हें परमेश्वर भी कहा है, जबकि, सवितृ को महेश्वर, विष्णु पुराण में नारायण का लोक शिशुमार चक्र अर्थात उर्सामाइनर में माना गया है, यह नारायण का लोक है, वास स्थान नहीं। लोक का मतलब जो स्थान जिससे प्रकाशित हो। अर्थात शिशुमार चक्र नारायण से प्रकाशित है। नारायण को जगदीश्वर कहते हैं। और हिरण्यगर्भ (त्वष्टा- रचना) को ईश्वर लिखा है। हिरण्यगर्भ का लोक ब्रह्मलोक है अर्थात ब्रह्मलोक हिरण्यगर्भ से प्रकाशित है, यह ध्रुव तारा के भी उपर उत्तर में है। ब्रह्मलोक भी हिरण्यगर्भ का लोक है, वास स्थान नहीं।
सुत्रात्मा प्रजापति को हम दक्ष- प्रसुति, रुचि-आकुति और कर्दम- देवहूति के रूप में जानते हैं। ये गोलाकार हैं। अतः इन्हें चतुर्मुखी मानते हैं। ये सबके पितामह, देवताओं के प्रमुख, गुरु और मार्गदर्शक हैं। ये ईश्वर नहीं कहलाते हैं।
विशेष --- 
लोक शब्द की व्याख्या इस आलेख का विषय तो नहीं है, लेकिन तथ्यों को स्पष्ट करने हेतु आवश्यक जान पड़ा अतः प्रस्तुत है, लोक शब्द का तात्पर्य --
पौराणिकों नें वेदव्यासजी की गूढ़ वाक्य रचना को आदर्श मान कर पुराणों को रूपकात्मक भाषा शैली में रचा। इस कारण पुराणों को प्रायः कोई भी सही ढङ्ग से नहीं समझ पाता है। इस कारण अनेक भ्रम पैदा हुए। जैसे वैकुण्ठ में क्षीर सागर में नारायण का वास आदि। उसी का दुसरा उदाहरण है--
हमारे सूर्य का वैदिक नाम मार्तण्ड है। जिसे कश्यप और अदिति के आठ पुत्र अष्टादित्यों में से एक माना जाता है।
मार्तण्ड शब्द में मृत्यु शब्द सन्निहित है। इस मार्तण्ड आदित्य के पुत्र यम और पुत्री यमी माने गए हैं। भूमि पर सर्व प्रथम मरने वाले व्यक्ति यम की शक्ति मृत्यु है। यम इस मृत्युलोक के शासक हैं।
जो लोक मार्तण्ड से प्रकाशित होता है उसे मृत्यु लोक कहते हैं।
यह तथ्य लोक शब्द की व्याख्या सिद्ध कर देता है। लेकिन लोगों ने गलत अर्थ लगाया कि, जहाँ मृत्यु का वास हो वह मृत्यु लोक है।
अतः सिद्ध है कि, जो लोक जिस देवता से आलोकित होता है, उस देवता का लोक कहा जाता है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि, ये दिव्य तत्व देवता प्रकाश स्वरूप हैं। और जिस लोक के केन्द्र हैं उसी के नाम पर लोक कहलाता है।

अर्थात सनातन धर्म में ईश्वर पद है, जिसकी उक्त श्रेणियाँ है। ये ठीक वैसे ही हैं; जैसे, पहले राजा होते थे , राजा के अधीन प्रधान मन्त्री होते थे, वैसे  विष्णु राजा हैं, तो सवितृ महामन्त्री। उनके अधीन सेनापति  की नारायण से और उप मन्त्री की हिरण्यगर्भ से तुलना कर सकते हैं।
या गणतन्त्र में राष्ट्रपति विष्णु आदि तथा प्रधान मन्त्री, मन्त्री सवितृ और मुख्य सचीव नारायण इस प्रकार से तुलना कर सकते हैं।
तात्पर्य केवल इतना है कि, ये केवल पदनाम हैं। और स्वाभाविक है कि, पदासीन व्यक्ति बदलते रहते हैं। 
चूँकि विष्णु को परमपद कहा गया है, सवितृ पद तक महाकाल की उत्पत्ति ही नहीं हुई, नारायण स्वयम् महाकाल हैं अतः विष्णु कालातीत हैं और सवितृ और नारायण और की भी कालावधि नही बतलाई जा सकती। हिरण्यगर्भ की कालावधि दो परार्ध है, जिसमें से प्रथम परार्ध व्यतीत हो चुका है। ये थे ईश्वरीय पद ।


जबकि, प्रजापति , इन्द्र, आदित्य, वसु और रुद्र आदि देवता तो विष्णु परमपद को देखने के लिए भी तरसते हैं। इनमें से कोई भी ईश्वरत्व प्राप्त पद नहीं है।
देव गण जिसमें प्रजापति देवों में सबसे वरिष्ठ होने से महादेव हैं। इनका लोक स्वर्ग लोक है। उसके बाद देवराज इन्द्र, ये भी पदनाम ही हैं। जैसे वर्तमान इन्द्र का नाम पुरन्दर है। इन्द्र, आदित्य और वसुगणों का वास स्थान प्रजापति का लोक सुवर्ग अर्थात स्वर्ग कहलाता है जो सूर्य के उसपार उत्तर में है। रुद्र का लोक अन्तरिक्ष है। देवगण प्रशासन के पदाधिकारी हैं। इन्हें ईश्वर नहीं कहा जाता।
इसके अलावा एक विवादित शब्द भगवान है। ईश्वर श्रेणी के देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक को भगवन शब्द से सम्बोधित किया जाता है। मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव और अतिथि देवो भव। अतः इन सब को भी भगवन् शब्द से सम्बोधित करते हैं।
भगवन शब्द ऐश्वर्यशाली के अर्थ में प्रयोग होता है न कि, ईश्वर के अर्थ में।
सनातन धर्म का ईश्वर एक पद नाम है, जबकि पारसी और इब्राहिमी पन्थ का ईश्वर एक व्यक्ति होता है।
इस प्रकार पारसी पन्थ और इब्राहिमी पन्थ के ईश्वर से सनातन धर्म के ईश्वर का अर्थ एकदम भिन्न होने से दोनों शब्दों की तुलना नहीं हो सकती।
 
अब आप कहेंगे कि, उक्त सबकी आराधना-उपासना क्यों होती है?
तो इसका उत्तर है कि, इब्राहीमी पन्थों में भी यहुदियों तक तो फरिश्तों को सिजदा करने का उल्लेख बाइबल पुराना नियम में है।
सनातन धर्म में चूंकि, उक्त सभी देवता आदरणीय और पूज्य हैं, मानवों द्वारा सेवनीय अर्थात सेवा करने योग्य हैं, इसलिए सभी की पूजा-अर्चना, और आराधना-उपासना होती है।
सकामोपासक को तो किसी जिस प्रकार का कार्य होता है, उसी से प्रार्थना करना स्वाभाविक ही है। जैसे बाल हिन्सा, घरेलू हिन्सा, नारी के विरुद्ध योन अपराध, चोरी-डकैती, आगजनी सब से सुरक्षा हेतु अलग-अलग विभागों से सहायता मांगी जाती है, सबका हेल्पलाइन नम्बर अलग-अलग होता है। ऐसे ही अलग-अलग कामना के लिए अलग-अलग देवताओं की अलग-अलग विधि से पूजा आराधना की जाती है।

बहुदेव वाद और बहुत से ईश्वर में आकाश-पाताल का अन्तर है। अतः सनातन धर्म में बहुत से ईश्वर हैं यह मानना नीरी मुर्खता है।

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