सर्वप्रथम वैदिक संहिताओं पर आधारित ब्राह्मधर्म रहा। ब्रह्म से ब्रह्म ही निकलता है इसलिए वेद मन्त्रों को भी ब्रह्म कहते हैं। इसलिए वेदों पर आधारित धर्म ब्राह्म धर्म कहलाता है।
फिर वैदिक संहिताओं की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में की गई। ब्राह्मण ग्रन्थों पर आधारित धर्म ब्राह्मण धर्म कहलाता है।
प्रजापति द्वारा ऋषियों को उपदेशित धर्म होने से प्राजापत्य धर्म, ऋषियों द्वारा आचरित होने से आर्ष धर्म कहलाता है। और स्वायम्भूव मनु के धर्मसुत्र पर आधारित होने से मानव धर्म भी कहलाता है।
सदा से है, सदा सहने वाला शाश्वत धर्म है, इसलिए सनातन धर्म कहलाता है।
ब्राह्मण ग्रन्थोंके अन्तिम भाग में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम सम्बधी उल्लेख वाले अध्याय आरण्यक कहलाते हैं। इन आरण्यकों में भी जिन अन्तिम अध्यायों में परमात्मा के ब्रह्म, ईश्वर, जीव और जगत स्वरूप का वर्णन है वे उपनिषद कहलाते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड को स्पष्ट करने हेतु बड़े यज्ञों के विधि-विधान श्रोत सुत्र, गृहस्थ धर्म के नित्यकर्म, संस्कार, व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार आदि के विधि-विधान के लिए गृह्यसुत्र, यज्ञ कर्म हेतु वेदी (जिसे आजकल हवन कुण्ड कहते हैं।), मण्डप, सृष्टि और ब्रह्माण्ड तथा देवताओं के लोक के नक्षे बना कर उसमें देवताओं का आह्वान, स्थापना, पूजन हेतु मण्डल निर्माण आदि के विधि-विधान हेतु शुल्बसुत्र तथा आचरण संहिता के रूप में कार्य-अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण हेतु धर्मसुत्र रचे गये। इन्हीं धर्मसुत्रों के आधार पर सामाजिक-राजनीतिक, शासक- शासित, राजा- प्रजा सम्बन्धित विधि-विधान हेतु मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति आदि स्मृति ग्रन्थ रचे गए जो अलग अलग राज्यों के संविधान बने।
ब्राह्मण ग्रन्थों और सुत्रों में उल्लेखित कर्मकाण्ड सम्बन्धित वचनों की एकरूपता दर्शाने वाली मीमांसा जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन में और आरण्यकों-उपनिषदों में परमात्मा के ब्रह्म, ईश्वर, जीव और जगत स्वरूप के विषय में उल्लेखों की एकरूपता दर्शाने हेतु बादरायण नें उत्तर मीमांसा दर्शन अर्थात ब्रह्म सुत्र रचा, जिसे शारीरिक सुत्र भी कहते हैं।
सुत्र ग्रन्थों को सरल रूप में समझाने हेतु निबन्ध ग्रन्थ रचे गए। वैदिक इतिहास-पुराण और गाथाएँ लुप्त हो गये थे। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण रचकर और बाद में वेदव्यास जी नें जय संहिता रचकर इतिहास के ग्रन्थों की रचना की। वेदव्यास जी की 8800 श्लोक वाली जय संहिता अत्यन्त गूढ़ वाक्यों वाली थी जिसे केवल वेदव्यास जी स्वयम्, उनके सुपुत्र शुकदेव जी ही पूर्णतः समझते थे और कुछ भाग सञ्जय समझते थे।
अत: जय संहिता को सरल करने हेतु उनने 24,000 श्लोक का भारत ग्रन्थ रचा। भारत ग्रन्थ का विस्तार वेदव्यासजी के शिष्य वैशम्पायनजी नें कर जनमेजय के नागयज्ञ में सुनाया। नागयज्ञ में ही उक्त भारत इतिहास ग्रन्थ को रोमहर्षण जी के पुत्र उग्रश्रवा जी ने भी सुना। उग्रश्रवा जी ने शौनक ऋषि को विस्तार पूर्वक भारत ग्रन्थ सुनाया। वहीँ शौनक आश्रम में उपस्थित ऋषियों ने मिलकर इस 24,000 श्लोक के भारत ग्रन्थ को विस्तृत कर लगभग एक लाख श्लोक का महाभारत ग्रन्थ के रूप में सम्पादित कर दिया। यह बात महाभारत ग्रन्थ के आदिपर्व में उपक्रम अध्याय में उल्लेखित है। बस थोड़ा समझना पड़ता है।
इसी समय वेदव्यासजी के पिता महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण रचा।
भारत में वैदिक ब्राह्म धर्म में ही दो मत प्रारम्भ से ही चल रहे थे। पहला - दक्ष प्रजापति प्रथम और स्वायम्भूव मनु द्वारा स्थापित वर्णाश्रम धर्म या प्रवृत्ति मार्ग और दुसरा - सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन तथा नारद जी द्वारा प्रवर्तित निवृत्त मार्ग।
सनक-सनन्दन के निवृत्ति मार्ग से ही बाद में स्वायम्भूव मनु के वंशज ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती तथा बाहुबली ने श्रमण परम्परा प्रारम्भ की।
सिद्ध सम्प्रदाय इसी श्रमण परम्परा से निकला।
किन्तु शंकरजी ने भारत में गहस्थ रहकर भी श्रमण परम्परा वाला वैरागी सम्प्रदाय प्रवर्तन कर दिया। उन्ही के अनुयाई दधीचि ऋषि और शुक्राचार्य जी शैवपन्थ के प्रवर्तक हुए। तथा शुक्राचार्य जी के पुत्र त्वष्टा नें शाक्त सम्प्रदाय की नीव रखी।
नाथ सम्प्रदाय सिद्ध सम्प्रदाय से ही निकला है।
प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय की राजधानी हरिद्वार के निकट कनखल थी। और हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र भी उन्ही का राज्यक्षेत्र में था। बादमें यही भाग गोड़ देश और मालवा नाम से भी प्रसिद्ध रहा।और दक्ष द्वितीय की पत्नी असीक्नी से उमा का जन्म हुआ।
उमा ने शंकरजी को पति रूप में वरण किया। दक्ष द्वितीय ने अनिच्छा पूर्वक विवाह तो कर दिया लेकिन उनके मन में दामाद शंकर जी के प्रति कोई सम्मान नहीं था। क्योंकि शंकर जी न तो प्रजापति के पुत्र दक्ष प्रथम द्वारा स्थापित वर्णाश्रम व्यवस्था को मानते थे न स्वायम्भूव मनु के मानव धर्मसुत्र की व्यवस्था स्वीकार करते थे। दधीचि आदि कुछ ऋषि शंकरजी के अनुयाई हो चुके थे।
दक्ष द्वितीय ने कनखल में हो रहे यज्ञ में शंकर जी को नहीं बुलाया। यह जानकर उमा नें शंकर जी के समक्ष इसपर आपत्ति प्रकट की, लेकिन शंकर जी ने उमा को समझाया कि, सृष्टि के आदि में ही प्रजापति ने यज्ञ व्यवस्था रची। लेकिन यज्ञ में रुद्र को यज्ञभाग नही देने की व्यवस्था की। इसलिए तुम्हारे पिता ने मुझे नही बुलाया तथा वे यज्ञभाग भी नही देंगे। उनका यह कार्य धर्मोचित है। लेकिन उमा सन्तुष्ट नहीं हुई और बिना बुलाए यज्ञ में जाने लगी तो शंकरजी भी रुद्र गणों को साथ लेकर उमा के साथ यज्ञस्थल पर गये। उमा ने यज्ञ में जाकर शंकर जी के लिए भी यज्ञभाग की मांग की। महर्षि दधीचि ने भी समर्थन किया। लेकिन दक्ष द्वितीय न माने, अन्य किसी देवता या ऋषि ने भी दक्ष का विरोध नही किया किसी ने उमा का समर्थन भी नहीं किया तो, उमा उग्र हो गई।
उमा के समर्थन में शंकर जी की आज्ञा से वीरभद्र और भद्रकाली ने यज्ञ विध्वंस कर दिया और वीरभद्र ने दक्ष द्वितीय का सिर धड़ से अलग कर दिया।
बाद में प्रजापति ने यज्ञ नियमों में संशोधन कर रुद्र को यज्ञभाग देने की व्यवस्था की। तब सन्तुष्ट होकर तन्त्र, विष विज्ञान, औषधियों से चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा के विद्वान शंकर जी ने ही अपने श्वसुर दक्ष द्वितीय का सिर पुनः जोड़ दिया। इसमें बकरे के सिर के कुछ भागों का भी उपयोग किया। इस कारण दक्ष की आवाज बदल गई और अ स्पष्ट हो गई। फिर शंकर और उमा सहर्ष वापस आदि कैलाश लौट गए। यह कथा महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक में उल्लेखित है।
इस प्रकार बल पूर्वक रुद्र को यज्ञभाग देने की परम्परा के साथ शैव सम्प्रदाय और शंकर जी की पूजा आराधना का प्रारम्भ हुआ।
उधर अरब के इराक में असूरों से नाराज़ हो कर शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य जी यमन में बस गए और शुक्राचार्य जी ने यमन से सऊदी अरब के मक्का तथा अफ्रीका महाद्वीप तक कई शिव मन्दिर स्थापित किये।
अथर्ववेदीय घोर आङ्गीरस नें भी केवल अष्टाङ्गयोग के माध्यम से अध्यात्मिक विकास पर बल दिया। यह मत वर्तमान में सिद्ध सम्प्रदाय कहलाता है।
युनान के पास क्रीट में शुक्राचार्य जी के पुत्र त्वष्टा नें कई देवी मन्दिरों की स्थापना कर शाक्त पन्थ की स्थापना की।
उक्त दोनों शैव और शाक्त मत चीनी/ तिब्बती रेशम व्यापारियों के माध्यम से तिब्बत तक पहूँचा। जहाँ से वाराणसी में शैव पन्थ पहूँचा और उत्तर पूर्व राज्यों में शाक्त पन्थ पहूँचा।
श्रीकृष्ण नें साम्ब की कुष्टरोग चिकित्सा हेतु ईरान से अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता की विधि से सूर्य उपासना करने वाले मग ब्राह्मणों को बुलाया। उनने कोणार्क उड़िसा में अथर्ववेदीय यज्ञ कर साम्ब की चिकित्सा की। कुछ मग ब्राह्मण गोवा के आसपास कोंकण पट्टी और महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मणों के साथ रच बस गये। इनके प्रभाव से राजस्थान में सौर मत प्रचलित हुआ।
श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि नें वेदिक यज्ञ परम्परा का विरोध प्रारम्भ किया। और
अरिष्टनेमि के शिष्यों ने उन्हें नेमिनाथ नाम दिया और अवैदिक निवृत्ति मार्ग की स्थापना की जो वर्तमान में जैन सम्प्रदाय कहलाता है।
इसी श्रमण परम्परा में कुछ सिद्ध अर्हत कहलाते थे तो कुछ बुद्ध कहलाते थे।
कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ भी इसी बुद्ध परम्परा में हुए। लेकिन सिद्धार्थ ने गोतम बुद्ध के नाम से श्रमण मत परम्परा में प्रथक बौद्ध सम्प्रदाय प्रवर्तन किया।
बौद्ध धर्म की महायान शाखा के नागार्जुन के शुन्यवाद से प्रभावित शैव आचार्यों ने त्रिक शैव सम्प्रदाय बना दिया जिसे कश्मीरी शैव दर्शन के नाम से जाना जाता है।
जो शाक्त पन्थी बौद्ध आचार्यों के सम्पर्क में आए उनने वज्रयान सम्प्रदाय बना दिया।
आद्य शंकराचार्य जी ने स्मार्त मत के अनुसार शैव, शाक्त , गाणपत्य, सौर, और वैष्णव सम्प्रदायों की खीँच-तान को समाप्त कर इन सब को मिलाकर पाँचो देवों की अलग अलग पञ्चायत बना कर उनमें एक को इष्ट देव मानकर शेष चार को समभाव से पूजा करने की पञ्चदेवोपासना पद्यति विकसित कर दी। तब से श्रोत यज्ञ, योग के साथ पञ्चदेवोपासना भी स्मार्तों ने अपना ली। वर्तमान स्मार्त जन पञ्चदेवोपासक हैं।
श्रीकृष्ण की नारायणी सेना के महाभारत युद्ध से बचे-खुचे सैनिकों नें दक्षिण भारत में महाभारत को प्रमुख धर्मग्रंथ मानकर एवम् श्रीकृष्ण को इष्टदेव मानते हुए महाभारतोक्त भागवत धर्म के रूप में भागवत सम्प्रदाय स्थापित कर दिया।
जबकि उक्त भागवतो में भी फिर मतभेद होकर ---
रामानुजाचार्य ने विष्णु पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर तथा श्रीकृष्ण को इष्टदेव मानकर विशिष्टद्वैत वादी रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय चलाया।
निम्बार्काचार्य ने भागवत पुराण को प्रमुख धर्मग्रंथ मानकर और राधाकृष्ण को इष्ट मानकर भेदाभेद वादी परम भागवत निम्बार्क सम्प्रदाय चलाया।
मध्वाचार्य नें द्वैत वादी भागवत सम्प्रदाय स्थापित किया। इनका भी मुख्य धर्मग्रन्थ भागवत तथा इष्टदेव राधा कृष्ण हैं।
मध्व के अनुयाई श्रीकृष्ण चैतन्य ने भागवत पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर तथा राधा कृष्ण को इष्ट मानकर अचिन्त्यभेदाभेद वादी गोड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय प्रचलित किया। और
वल्लभाचार्य ने भी भागवत पुराण को प्रमुख धर्म ग्रंथ मानकर और राधा कृष्ण को इष्ट मानकर त्रिक दर्शन के वैष्णव प्रारूप में पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय स्थापित किया। वर्तमान में अधिकांश श्रीकृष्ण मन्दिर इन्हीं वल्लभ सम्प्रदाय के अधीन है।
केवल स्मार्त जन ही पञ्चदेवोपासना करते हैं, अतः वे एकादशी व्रत भी करते हैं, रामनवमी और जन्माष्टमी व्रत भी करते हैं, शिवरात्रि भी मनाते हैं, नवरात्र भी करते हैं, गणेश चतुर्थी भी मनाते हैं और सूर्य षष्ठी भी मनाते हैं। जबकि,
भागवत जन केवल एकादशी व्रत ही करते हैं, भागवत जनरामनवमी और जन्माष्टमी व्रत भी करते हैं लेकिन प्रदोष व्रत और शिववरात्रि व्रत नहीं करते।
शैव प्रदोष व्रत और शिवरात्रि करते हैं लेकिन एकादशी व्रत, जन्माष्टमी व्रत आदि नहीं करते। वर्तमान में ऐसे कट्टर वैष्णव शैव अत्यल्प ही बचे है।
पहले राजस्थान में सौर मत प्रचलित था, अब नहीं है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में गाणपत्य बचें हैं, लेकिन दोनों प्रदेशों के गाणपत्य सम्प्रदाय में भी अन्तर है। तमिलनाडु में ऊच्चिष्ठ गणपति के उपासक हैं तो, महाराष्ट्र में अष्ट विनायक और सिद्धिविनायक के उपासक हैं।
ऐसे ही शैव पन्थ में भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के शैव परम्परा में अन्तर है।
शाक्त पन्थ में बङ्गाल में काली उपासना, धुनुची नृत्य करते हैं तो, गुजरात में अम्बा पूजन और गरबा नृत्य करते हैं।
ऐसे ही वैष्णवों के सभी सम्प्रदायों में भी भिन्न-भिन्न परम्परा प्रचलित है।
प्रत्येक व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार का एक निर्धारित पर्वकाल होता है, यथा हनुमान जयन्ती सूर्योदय व्यापिनी चैत्र पूर्णिमा में होती है। और शारदीय नवरात्र में घटस्थापना सूर्योदय से चार घण्टे (दस घटि) के अन्दर करते हैं। रामनवमी, गणेश चतुर्थी, भैरव अष्टमी मध्याह्न व्यापिनी तिथि में मनाते हैं। नृसिंह जयन्ती सूर्यास्त व्यापिनी चतुर्दशी में मनाई जाती है, तो जन्माष्टमी मध्यरात्रि व्यापीनी अष्टमी तिथि में मनाते हैं। ऐसे ही श्राद्ध तिथि कुतप काल व्यापीनी तिथि में ही करते हैं। शारदीय नवरात्र में सभी कर्म प्रातः काल व्यापीनी तिथि में होते हैं लेकिन, विजया दशमी/ दसरा पर्व मध्याह्न व्यापिनी आश्विन शुक्ल दशमी में होता है, कोजागरी पूर्णिमा /लक्ष्मी पूजा प्रदोष व्यापिनी आश्विन पूर्णिमा में और दीपावली पर भी दीप पूजन और दीपदान सायम् काल में सन्ध्या काल में करते हैं; तो लक्ष्मी पूजा प्रदोष काल में करते हैं, उसमें भी स्थिर वृषभ लग्न सर्वश्रेष्ठ। दीपावली में ही काली पूजा महानिशिथ काल में ही करते हैं।
स्मार्त जन इन पर्वकालिन तिथि में और पर्वकाल में ही, स्थापना, पूजा आदि कर्म करते हैं। इसमें किसी भी पन्थ का हट अनुचित ही माना जाएगा।लेकिन फिर भी
महाभारतोक्त भागवत पन्थ और दक्षिण भारतीय वैष्णवाचार्यों के रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य और निम्बार्काचार्य आदि के अनुयाइयों के सम्प्रदाय में दशमी वैध के आधार पर एकादशी व्रत के कई प्रकार गढ़े गए, परिणाम स्वरूप भागवत जन अधिकांशतः द्वादशी तिथि में एकादशी व्रत करते हैं।और ऐसे ही
1 दक्षिण भारत में सूर्योदय के समय निरयन सिंह राशि में सूर्य और चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में होने पर श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाना।
2 उत्तर भारत में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण पक्ष की उदिया अष्टमी तिथि, सूर्योदय के समय रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा हो और अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की उदिया अष्टमी तिथि हो श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। ऐसे विभिन्न मतभेद हैं।
वैदिक काल में वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से संवत्सर परिवर्तन होता था, उत्तरायण-दक्षिणायन, उत्तर गोल-दक्षिण गोल, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुएँ तथा मधु-माधव, शुक्र-शचि, नभः, नभस्य, ईष-उर्ज, सहस-सहस्य, तपः -तपस्य सभी मास सायन सौर संक्रान्ति से ही बदलते थे। अयन, गोल और श्रतुएँ तो आज भी सायन सौर संक्रान्ति से ही बदलते हैं। लेकिन
संवत्सर परिवर्तन और मास परिवर्तन अब सायन सौर संक्रान्ति से नहीं होते हैं। बल्कि,
पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में जिस दिन सूर्योदय से सूर्योदय के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो उस दिन विक्रम संवत बदलते हैं।
बङ्गाल ,उड़िसा, असम में जिस मध्यरात्रि से मध्य रात्रि के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो उस दिन संवत बदलते हैं।
तमिलनाडु में जिस दिन सूर्यास्त से दुसरे दिन सूर्यास्त के बीच निरयन मेष संक्रान्ति हो तब से संवत बदलते हैं। तो
केरल में सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद (अर्थात अठारह घटि) बाद से दुसरे दिन के सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद (अर्थात अठारह घटि) बाद के बीच निरयन सिंह संक्रान्ति लगे तब से कोलम संवत बदलते हैं। अठारह घटि का वास्तविक अर्थ है दिनमान का 3/5 वाँ भाग। लेकिन लकीर के फकीर सूर्योदय के बाद 07 घण्टे 24 मिनट बाद वाला अर्थ ही ग्रहण करते हैं।
उक्त प्रदेशों में निरयन मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क आदि राशियों मे सूर्य के अनुसार मास चलते हैं। ये माह परिवर्तन भी उपर्युक्त नियमानुसार निरयन संक्रान्ति से ही बदलते हैं।
लेकिन
उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में अमान्त चान्द्रमासों के अनुसार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय से संवत्सर बदलते हैं। इसमें भी महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्द बदलते है। तो,
उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत बदलते हैं और गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत बदलते हैं। लेकिन इन सभी प्रदेशों में चैत्र वैशाख आदि चान्द्रमास मास ही चलते हैं। उसमें भी
उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से माह बदलते हैं तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से माह बदलते हैं।
तमिलनाडु और केरल में निरयन मेष- वृषभादि मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं। तो बङ्गाल ,उड़िसा और असम में निरयन मेष- वृषभादि मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से भी व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं और चान्द्रमासों में तिथि के साथ चन्द्रमा के नक्षत्र के योग को भी महत्व देते हुए व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार मनाते हैं। जैसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की अष्टमी और रोहिणी नक्षत्र योग में जन्माष्टमी मनाते हैं। तो नवरात्र में आश्विन शुक्ल पक्ष में षष्टी तिथि- ज्येष्ठा नक्षत्र योग में सायम् काल मे बिल्वपत्र को निमन्त्रण करते हैं। सप्तमी तिथि में मूल नक्षत्र में महा सप्तमी में सरस्वती आह्वान और स्थापना, अष्टमी तिथि में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में महा अष्टमी में सरस्वती पूजा, नवमी तिथि में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में महा नवमी में बलिदान , और दशमी तिथि में श्रवण नक्षत्र में विजयादशमी में सरस्वती विसर्जन करते हैं। जबकि स्मार्त केवल तिथि को ही महत्वपूर्ण मानते हैं।
ऐसे ही स्मार्त-वैष्णव एकादशी व्रत और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत में भी ऐसे ही मतभेद चलते हैं।
स्मार्त जन सूर्योदय से सूर्योदय के बीच व्रत-उपवास रखते हैं, सूर्योदय वैध ही मानते हैं और पर्वकाल में पूजन करते हैं। इस लिए वे एकादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं और एकादशी व्रत का पारण एक चौथाई द्वादशी व्यतीत होने के बाद अर्थात हरिवासर व्यतीत होने के बाद द्वादशी तिथि में प्रातः काल मिले तो प्रातः काल में पारण करते हैं; अन्यथा हरिवासर व्यतीत होने के बाद ही लेकिन द्वादशी तिथि में ही एकादशी व्रत का पारण करते हैं।
स्मार्त जन एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में आवश्यक रूप से करते हैं। इसलिए वे प्रदोष व्रत नहीं कर पाते हैं।
मध्यरात्रि में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में ही मध्यरात्रि में स्मार्त जन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। और जन्माष्टमी के दुसरे दिन गोकुल अष्टमी पर नन्दोत्सव करते हैं।
महाभारतोक्त भागवत जिन्हें पौराणिक वैष्णव भी कहते हैं वे सूर्योदय के बाद 22 घण्टे 24 मिनट तक (अर्थात 56 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं।
महाभारतोक्त भागवत / पौराणिक वैष्णव सूर्योदय समय अमान्त श्रावण, पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में ही मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
जन्माष्टमी में सप्तमी वैध का कोई निषेध नही है इसलिए क्षय तिथि में सप्तमी युक्त अष्टमी मे, सूर्योदय कालिन अष्टमी तिथि नही होने पर भी सभी सम्प्रदाय जन्माष्टमी मनाते हैं।
रामानुज सम्प्रदाय के शंख चक्रांकित भागवत जन सूर्योदय के बाद 22 घण्टे तक (अर्थात 55 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं।
दक्षिण भारतीय शंख चक्रांकित रामानुज पन्थी तो सूर्योदय के समय निरयन सिंह राशि के सूर्य में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
उत्तर भारतीय शंख चक्रांकित रामानुज पन्थी सूर्योदय समय अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। यदि रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि एक मिनट भी उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
विशेष ---
जन्माष्टमी में सप्तमी वैध का कोई निषेध नही है इसलिए क्षय तिथि में सप्तमी युक्त अष्टमी मे, सूर्योदय कालिन अष्टमी तिथि नही होने पर सभी सभी वैष्णव सम्प्रदाय भी सप्तमी युक्त अष्टमी मे ही जन्माष्टमी मनाते हैं।
शंख चक्रांकित पूष्टि मार्गी वल्लभ सम्प्रदाय,शंख चक्रांकित मध्व सम्प्रदाय, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का गोड़ीय सम्प्रदाय आदि के शंख चक्रांकित भागवत जन सभी उक्त पचपन घटि वैध मानते हैं अतः सूर्योदय के बाद 22 घण्टे तक (अर्थात 55 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन एकादशी व्रत करते हैं चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो या द्वादशी तिथि हो। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं।
अमान्त श्रावण, पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। यदि रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
लेकिन
निम्बार्क सम्प्रदाय के परमभागवत पैंतालीस घटि वैध मानते हैं अतः मध्यरात्रि के बाद या सूर्योदय के बाद 20 घण्टे तक (अर्थात 45 घटि तक) दशमी तिथि रहे और उसके बाद एकादशी लगे तो दुसरे दिन सूर्योदय पश्चात एकादशी व्रत न करते हुए तीसरे दिन द्वादशी तिथि में एकादशी व्रत करते हैं। (चाहे उस दिन एकादशी तिथि हो ही नहीं फिर भी द्वादशी तिथि में ही एकादशी का व्रत करते हैं। इस कारण भागवत जन प्रायः द्वादशी तिथि का ही उपास करते हैं।
अमान्त श्रावण (पूर्णिमान्त भाद्रपद) कृष्ण अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। उनके लिए रोहिणी नक्षत्र प्रमुख है, अष्टमी तिथि नहीं। रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि उपलब्ध हो तो सभी भागवत जन उसी दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
इस कारण भारत में अधिकांश व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार दो-दो दिन मनाते हैं।
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