शुद्र वर्ण तो सेवकों को कहा जाता है।
विश्वकर्मा लोग सुनार, सुतार, लोहार,नापित, शिल्पकार और वैद्य तथा कुम्भकार सभी शुद्र माने जाते थे। ये सभी समाज में आवश्यक सेवाओं के प्रदाता होने के कारण राज्य सभा में भी अपने प्रतिनिधि भेजते थे। अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, ऋभुगण आदि कर्मदेवों को देवताओं में शुद्र माना जाता है। समाज इन्हें अपनी- अपनी उपज में से इन्हें भाग देते आये हैं। अर्थात ये लोग यज्ञभाग के अधिकारी रहे थे।
मछुआरे जो पालकी उठाने वाले कहार का कार्य भी करते थे तथा श्रीराम के मित्र भी थे मतलब अछूत होने का तो प्रश्न ही नहीं। तथा वनवासियों को भी अछूत नहीं माना जाता था। लेकिन इन लोगों को अनार्य (असंस्कृत/ संस्कार हीन) माना जाता था। ये नगर या ग्राम के अन्तिम सीरे पर नदी, तालाब आदि के किनारे रहते थे। लेकिन इनकी गणना नगर/ ग्राम वासियों में ही होती थी।
अंग्रेजी युग तक माच, रामलीला जैसे मञ्चन का कार्य निम्नवर्ग के लोग ही करते थे। ग्वाले गडरिये बाँसुरी, इकतारा और रावण हत्था बजाते थे।उस समय मैला साफ करने और चर्मकार जातियाँ नहीं थी। लगभग ये ही कार्य रुद्रगण भी करते थे। इसके साथ बलिष्ठ होने से लठेत जैसे रक्षक का कार्य भी करते थे। रथ हाँकना, पालकी ढोना, कृषि श्रमिक, चौकीदार, जैसे कार्य करते थे। लेकिन मान्साहारी, मदिरा - ताड़ी आदि का व्यसन, द्यूतक्रीड़ा, परस्पर लड़ाई-झगड़ा करना आदि शोक के कारण ये अनार्य माने जाते थे।
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