श्री *राम* के पहले परशु *राम* हुए।
श्री *कृष्ण* के पहले श्री *कृष्ण* द्वैपायन व्यास हुए।
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश किया। जिसकी जानकारी भू वासियों में केवल १ श्रीकृष्ण (वक्ता) २ अर्जुन (श्रोता) ३ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास (ज्ञाता) ४ सञ्जय (साक्षी) को ही थी। सञ्जय ने भीष्म के शर शैय्या पतन के दुसरे दिन (अवकाश दिवस) पर हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र को भीष्मपर्व की पूरी घटनाएं सूनाई, इसी के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता भी सुनाई। इस प्रकार केवल पाँच लोग ही श्रीमद्भगवद्गीता प्रवचन जानते थे।
लेकिन पूज्यपाद महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के द्वारा रचित जय संहिता/ भारत और बाद में उनके शिष्यों द्वारा विस्तृत में प्रस्तुत महाभारत ग्रन्थ के माध्यम से जन जन तक पहूँची।
श्रीराम ने रावण के अत्याचारों से सबको मुक्त किया। श्री परशुराम ने कार्तवीर्य सहस्तार्जुन का कुल सहित नाश कर जनता को उनके द्वारा फैलाये अनाचार से मुक्त किया।
लेकिन भगवान बलभद्र (बलराम) की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।
जबकि भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास की उपलब्धियाँ अनेक हैं।
तो द्वापरयुग के दो अवतारों में श्रीकृष्ण के साथ भगवान बलभद्र के स्थान भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को मिलना चाहिए।
सतयुग में चार (श्रीमत्स्य, श्रीकुर्म, श्री वराह और श्रीनृसिंह), त्रेता में तीन (श्री वामन, श्री परशुराम और श्रीराम) ऐसे ही द्वापरयुग में दो श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास और श्रीकृष्ण होने चाहिए। पौराणिकों नें श्री बलराम और श्रीकृष्ण लिखा है। और कलियुग में केवल एक भगवान श्री कल्कि होंगे।
भागवत पुराण में उल्लेख के अनुसार और संकल्प बोले जानेवाले (श्री बोद्धावतारे) तथा पञ्चाङ्गो में लिखे जानेंवाले चौवीस अवतारों में से इक्कीसवें और दशावतारों में नौवे अवतार श्री बुद्ध नामक को माना जाता हैं। गोवर्धन मठ जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द जी सरस्वती का मत है कि, बिहार में गया के निकट किकट नामक स्थान पर आश्विन शुक्ल दशमी (विजयादशमी/ दशहरे) (मतान्तर से पौष शुक्ल सप्तमी) के दिन पिता अजिन (या मतान्तर से हेमसदन) के घर माता अञ्जना के गर्भ से भगवान श्री बुद्ध का अवतार हुआ ऐसा मानते हैं।
श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि संयोगवश इन्ही बुद्ध के मतावलम्बी सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या की थी। लेकिन बाद में वे श्रमण परम्परा में शान्तिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की नास्तिक परम्परा के प्रति आकर्षित हुए। वहाँ वे गणधर बुद्ध कहलाये। इसी कारण लोगों ने श्री बुद्ध और गणधर गोतम बुद्ध दोनों को एक ही मान लिया।
बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति। - श्रीमद्भागवत पुराण
इसलिए श्री बुद्ध को तो चौबीस अवतारों में भी नहीं मानता।
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