ललिता पञ्चमी के दिन कामनाओं की देवी शाक्त सम्प्रदाय की प्रमुख इष्ट षोडषी त्रिपुर सुन्दरी ललिता देवी का प्रादुर्भाव कामदेव के शरीर की राख से भाण्डा नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था। इन्हें शंकर जी के उपर बैठा हुआ दर्शाया जाता है।
वेदों में जो महत्व वाक देवी का है, वही महत्व पौराणिकों में नारायण की योगनिद्रा देवी का है। और वही महत्व शाक्त सम्प्रदाय में त्रिपुर सुन्दरी का है। लेकिन श्रीविद्या के तान्त्रिक उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है।
ललिता पञ्चमी के दिन ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ विशेष तौर पर किया किया जाता है।
देव्य अथर्वशीर्ष के मन्त्र
ऋग्वेद मण्डल 10 के 125 वे सूक्त - वाक सूक्त या देवी सूक्तम की व्याख्या रूप देव्य अथर्वशीर्ष के मन्त्र संख्या और अर्थ सहित।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित दूर्गा सप्तशती से उद्धृत -
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ।। देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 14
काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा - वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल-वर्ण और माया (ह्रीं) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ।
ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष, और बाण धारण करने वाली हैं । ये श्रीमहाविद्या हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है ।
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 18
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 19
वियत्-आकाश (ह) तथा 'ई'कार से युक्त, वीतिहोत्र -अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र से सुशोभित जो देवीका बीज है, वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान का सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता) है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान- क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।) ।
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् । सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥ देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 20
वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र' - दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्णमन्त्र उपासकों को परमानन्द एवं मोक्षप्रदाता है ।
[इस मन्त्रका अर्थ- हे चैतन्यस्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सत्यस्वरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम निरन्तर आपका ध्यान करते हैं । हे महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।]
का जप किया जाता है।⤵️
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं *क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल* ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।
इसे तान्त्रिक लोग कादी मन्त्र के रूप में जानते हैं। इसे ही विकृत कर भिन्न-भिन्न अक्षरों का क्रम बदलकर कादी-हादी आदि सात रूपों में जपते हैं।
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