गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

सुसंस्कृत पञ्च महायज्ञ कर्ता में ही निरहंकारिता होती है

संस्कारित व्यक्ति वह है, जिसे पञ्च महायज्ञ करने के संस्कार हो।
पञ्चमहायज्ञ कर्ता में अहंकार इसलिए नहीं होता क्योंकि वह जीवनभर  
1 पुराने लोगों के ज्ञान और पराक्रम से प्राप्त ज्ञान प्राप्त होने और सुख सुविधाओं को भोग पाने का ऋषि ऋण जानते हुए अगली पीढ़ी के लिए स्वयम् भी कुछ देकर जाने की भावना से ऋषि ऋण उतारने के लिए वेदाध्ययन- अध्यापन करना, शास्त्राध्ययन-अध्यापन करना, सत्सङ्ग करना, त्रिकाल सन्ध्या करना, अष्टाङ्ग योग साधना करना, दैनिक अग्निहोत्र करके ब्रह्मज्ञज्ञ करता रहता है। उसे अहंकार हो ही नहीं सकता।
देवताओं, पञ्च महाभूतों की कृपा से निशुल्क प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों के अत्यावश्यक दोहन के लिए भी देव ऋण से उऋण होने के लिए देव यज्ञ कर सदैव स्वाहा करने के पश्चात बोलता हैकि,
 इदम् विष्णवै, न मम्। इदम ब्रह्मणे, न मम्। इदम सवित्राय, न मम। इदम् नारायणाय, न मम्।  इदम हिरण्यगर्भाये, न मम्। इदम त्वष्टाये, न मम। इदम् प्रजापतये, न मम। इदम् वाचस्पतत्यै न मम्। इदम् इन्द्रायै, न मम्। इदम् ब्रह्मणस्पत्यै, न मम। इदम आदित्यायै, न मम। इदम् ब्रहस्पतयै, न मम। इदम् वसवै, न मम् । इदम् पशुपतयै, न मम। इदम् रुद्रायै, न मम। इदम् गाणपत्यै, न मम् इदम् सोमाय, न मम्। इदम् सदसस्पतयै, न मम्। इदम् मही देव्यायै, न मम्। इदम् भारती देव्यायै, न मम्। इदम सरस्वत्यै, न मम।इदम् ईळायै, न मम।
जो इतनी बार स्व का हनन करने हेतु स्वाहा बोले और साथ में कहता जाए कि, यह मैरा नहीं है। उसे स्वप्न में भी अहंकार कहाँ से होगा?
मानव समाज से जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सहयोग के बलबूते पर ही जीवन सफल हुआ यह जानकार नृऋण से उऋण होने हेतु अतिथियों की व्यवस्था करना, बुजुर्गो, असहायों, असमर्थों, रूग्ण जनों, बालको, अबलाओं, गुरुकुलों और संन्यासियों की सेवा सहायता करके अतिथि यज्ञ / मानव यज्ञ/ नृयज्ञ सम्पन्न करने वाले को अहंकार कैसा?
सूर्य, ताराओं, चन्द्रमा, आकाश, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि, जल, भूमि, गौ, वृषभ, अजा, आदि पशु-पक्षियों और पैड़-पौधे से लेकर, कवक- शैवाल तक और अदृश्य सुक्ष्म जीवियों की सहायता से श्वसन,पानी, भोजन,  आवास, दूध- सब्जी , अनाज आदि प्राप्त करने का ऋण जानकर उक्त सबकी यथायोग्य सेवार्थ पर्यावरण स्वच्छता, गृह से लेकर नगर तक और बाग-बगीचे , नदी -तालाब, कुए-बावड़ी, वन आदि सबकी स्वच्छता रखना, वृक्षारोपण, पेड़-पौधों को खाद-पानी, निन्दाई- गुड़ाई, कटनी-छटनी कर उन्हें रोग मुक्त रखना, पशु- पक्षियों को भोजन, दाना- पानी,छाँव, आवास देना, सेवा सुश्रुषा करके भूत यज्ञ करने वाले को अहंकार पालने की समय ही कहाँ रहेगा।

दिवंगत मात-पिता, दादा- दादी, नाना- नानी,ताऊ, काका-भुआ, ताई-काकी,  भाई- बहन, भाभी आदि पितृपक्ष की सात पीढ़ी और मातृ पक्ष की पाँच पीढ़ी के दिवंगत नर-नारियों का तथा आस-पड़ोसी, जाने-अनजाने, सेवकों, स्वामियों की ब्रह्म भोज, कन्या भोजन, गौदान, कुए- बावड़ी, तालाब , बाग-बगीचे, धर्मशाला- सदाव्रत खोलने, शाला, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औषधालय, चिकित्सालय आदि बनवाने की अपूर्ण अभिलाषा और अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु यथा शक्ति समुचित सहयोग, अर्थ और श्रमदान करके सबका श्राद्ध-तर्पण कर पितृ यज्ञ करने वाले और उक्त समस्त धर्म कर्म पूर्ण करने अधिकारी होने के लिए अगली पीढ़ी को जन्म देकर उनका समुचित पालन-पोषण, शिक्षण, स्वास्थ्य चर्या कर बढ़ा कर सुदृढ़, सक्षम और संस्कारवान बनाने वाले को अहंकार कैसा?

यह है ब्राह्म धर्म है - वैदिक धर्म। इसे ब्राह्मण धर्म भी कहते हैं।
इसमें केवल वामाचारी, तान्त्रिकों, नास्तिकों, अधर्मियों और पैशाच धर्मियों को ही आपत्ति हो सकती है।
इसमें न मन्दिर है, न मूर्ति पूजा, न मान- मन्नत, न टोने-टोटके केवल अपने-अपने कर्तव्य पूर्ण करना है।
स्वाभाविक है देवगण और देवता भी उनके कर्तव्य पूर्ण कर आपकी आवश्यकताएँ पू्ण करेंगे।

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