सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

धर्मशास्त्रोक्त मत और कुल परम्परा में भेद हो तो क्या करें?

धर्मशास्त्रोक्त मत और कुल परम्परा में भेद हो तो क्या करें?
आर्य समाज को छोड़कर सनातनी धर्म के शेष सभी पन्थ और आचार्यगण कुल परम्परा का भी समादर करते हैं।
मैरे द्वारा प्रेषित व्रत,पर्व, उत्सव और त्योहार आचार्य हेमाद्रिपंत की चतुर्वर्ग चिन्तामणी, सायणाचार्य के बड़े भाई माध्वाचार्य के ग्रन्थ कालमाधव, आचार्य कमलाकर भट्ट रचित निर्णय सिन्धु और निर्णयसिन्धु के निर्णयों पर आधारित काशीनाथ शास्त्री उपाध्याय पांडुरंग रचित धर्मसिन्धु ग्रन्थों पर आधारित और वेधशाला से प्रमाणित वेदतुल्य / दृक्तुल्य केतकी अयनांश वाली पञ्चाङ्गों पर आधारित रहते हैं।
नवरात्र में भी कुछ नियम हैं। मालवा-निमाड़ अंचल में बङ्गाल, उड़िसा, असम, मेघालय, मणिपुर आदि पूर्वी और उत्तर पूर्वी भारत में प्रचलित गोड़ मत अप्रचलित है, और बहुत से विषयों में आचार्य हेमाद्रिपंत नें चतुर्वर्ग चिन्तामणी में आचार्य कमलाकर भट्ट ने निर्णय सिन्धु ग्रन्थ में गोड़ मत को गलत सिद्ध किया है इसलिए उसपर चर्चा नहीं करेंगे।
लेकिन इन आचार्यों ने भी कुल परम्परा को उस कुल के लोगों को मानने पर आपत्तिजनक नहीं माना है।
वास्तव में कुल परम्परा देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार तत्कालीन परिस्थियाँ रहने तक के लिए उस समय के कुलपति द्वारा शास्त्रीय पद्यति में आवश्यकता अनुसार संशोधित किया गया था। लेकिन अब वे केवल रूढ़ि बन चुकी है। जबकि,
वैज्ञानिक आधारों और दीर्घकालिक अनुभवों को जाँच परखकर शास्त्रीय नियम निर्धारित किए गए थे। जो उस मत, पन्थ और सम्प्रदाय को मानने वालों पर समान रूप से लागू होते हैं।

उदाहरणार्थ नवरात्र में देवकर्म होने के कारण देवी सम्बन्धित पूजा आदि कार्यों में प्रातः काल को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। द्वितीय क्रम पर पर्वकाल को। यथा दीपावली के पाँच दिनों में दीपदान प्रदोषकाल में ही उपयुक्त है।
दसरा (दशहरा) पर अभिजित मुहूर्त और विजय मुहूर्त का महत्व है।
काली पूजा और भैरव पूजा में प्रदोषकाल से भी अधिक महत्वपूर्ण महानिशिथ काल माना गया है।

 सप्तमी, अष्टमी और नवमी तीनों तिथियों में व्रत रखकर देवी पूजन करने का शास्त्रीय नियम है। शास्त्रोक्त मतानुसार महाष्टमी और महानवमी की संधि पूजा अष्टमी समाप्ति के चोबीस मिनट पहले से नवमी प्रारम्भ होने के चोबीस मिनट बाद तक के एक मुहूर्त काल में ही संधि पूजा होनी चाहिए। उसके अलावा नवमी को व्रत रखना और नवमी तिथि में देवी पूजन आवश्यक कहा गया है।
लेकिन कुल परम्परा में कुछ लोग पञ्चमी पूजते हैं, कुछ षष्ठी पूजते हैं, कुछ सप्तमी पूजते हैं।
 कोई अष्टमी ही पूजते हैं तो कोई नवमी ही पूजते हैं । 
उसपर भी कुछ प्रातः काल में पूजा करते हैं तो कुछ सायंकाल में तो कुछ रात्रि में पूजते हैं।
दीपावली में धन तेरस को धन्वन्तरि पूजन के स्थान पर धन की पूजा करते हैं। रूप चौदस को चतुर्दशी तिथि के उत्तरार्ध में दीपावली के दिन के सूर्योदय से पहले अरुणोदय काल (सूर्योदय से 01 घण्टा 36 मिनट पहले) तेलाभ्यङ्ग स्नान कर उदयीमान चन्द्रमा को अर्घ्य देकर पूजन करने के स्थान पर चान्दी की पूजा करते हैं।
दीपावली को प्रदोषकाल (सूर्यास्त से 02 घण्टे 24 मिनट के बीच) में दीपदान कर प्रदोषकाल में स्थिर वृषभ लग्न में लक्ष्मी पूजा करने का शास्त्रीय नियम है। और काली उपासकों को महानिशिथ काल (ठीक मध्यरात्रि से 24 मिनट पहले से 24 मिनट बाद तक के बीच) में महाकाली पूजन किया जाने का विधान है। लेकिन कोई प्रातः काल में, कोई दोपहर में चौघड़िया देखकर लक्ष्मी पूजा करते हैं।
सबकी परम्परा अलग-अलग है। आचार्य, शास्त्री और सदाचारी पुरोहित तो शास्त्रीय मत ही बतलाएंगे। अच्छी पञ्चाङ्गों में भी शास्त्रीय मत ही प्रकाशित होता है।
लेकिन लोभ-लालच वश या लोकिक परम्पराओं के सम्मान में पञ्चाङ्ग प्रकाशक और पुरोहित विभिन्न मुहूर्त बतलाने को बाध्य हैं।

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