सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

पुराणों के अनुसार श्राद्ध कर्म में मदिरा, मत्स्य और मान्स का प्रयोग होता था

*पुराणों के अनुसार श्राद्ध कर्म में मदिरा, मत्स्य और मान्स का प्रयोग होता था।* 

*विष्णु पुराण/तृतीय अंश/ सौलहवाँ अध्याय/ श्लोक 1, 2 एवम् 3 से* ---
श्राद्ध कर्म में विहित और अविहित वस्तुओं का विचार के अन्तर्गत *मत्स्य, मान्स और प्राकृतिक मदिरा मधु के द्वारा श्राद्ध करने का विधान* ।

और्व उवाच 
हविष्यमत्स्यमान्सैस्तु शशस्य नकुलस्य च।
सौकरच्छागलैणेयरौरगवैर्गवयेन च।।१।।
औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः।
प्रयान्ति तृप्तिम् मान्सैस्तु नित्यम् वार्घीणसामिषै।।२।।
अर्थात ---
और्व बोले -- हविष्यान्न, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शुकर (सूअर), छाग, कस्तुरी मृग, कृष्ण मृग, गवय (नीलगाय/ वनगाय) और भेड़ प्रजाति का पशु मेष (मेढ़ा) के मान्सों से तथा देशी गौ के दूध, दहीँ, मक्खन और घी आदि गव्य से पितृगण क्रमशः एक-एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं। और वार्घ्रीणस पक्षी के मान्स से सदा तृप्त रहते हैं। 1 एवम 2
खड्गमान्समवीवात्र कालशांक तथा मधु।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर।।3
हे नरेश्वर! श्राद्ध कर्म में गेण्डे का मान्स, कालकाश और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक है।

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

महा तपस्वी नारायण का श्रीकृष्ण अवतार और आद्यशक्ति योगमाया का एकांशना अवतार

अर्थात विष्णु पुराण,पञ्चम अंश/ प्रथम अध्याय/ श्लोक 60 से 82 तक में उल्लेख के अनुसार
 
क्षीर सागर के तट पर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के नेतृत्व में नारायण की स्तुति करने पर प्रकट होकर नारायण ने देवताओं के समक्ष एक श्वेत और एक कृष्ण केश उखाड़कर भूमि पर पटके और कहा ये दोनों पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्यों का नाश करेंगे।
देवगण भी अपने अपने अंश से अवतार लेकर दैत्यों से युद्ध करें। श्लोक 60 से 63 तक।
वसुदेव के घर देवकी के आठवें गर्भ से यह श्याम केश अवतार लेगा। और कालनेमी के अवतार कंस का वध करेगा। श्लोक  64-65
फिर नारायण ने  योगनिद्रा को आदेश दिया कि, शेष नामक मैरा अंश अपने अंशांश से देवकी के सातवें गर्भ में स्थित होगा। उसे वसुदेव की दुसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर देना। और लोग समझेंगे कि, देवकी का गर्भपात हो गया। रोहिणी के गर्भ में संकर्षित होने से वह संकर्षण कहलाएगा। श्लोक 72 से 76 तक।
तदन्तर मैं देवकी के आठवें गर्भ में स्थित होऊँगा। उस समय तू यशोदा के गर्भ से चली जाना। श्लोक 77 तक।
श्लोक 78 --- वर्षा ऋतु में नभस मास  (प्रकारान्तर से अमान्त श्रावण मास) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को निशा (रात्रि) में जन्म लूँगा। और तू नवमी को उत्पन्न होगी। श्लोक 78
 वासूदेव जी मुझे यशोदा जी के शयन गृह में ले जाएंगे और तुझे देवकी के शयनगृह में लेजाएँगे।
कंस द्वारा शिला पर पटकने पर तू आकाश मे स्थित हो जाएगी। श्लोक 79 एवम् 80
इन्द्र तुम्हें प्रणाम करेगा। फिर तुम्हें भगिनी रूप से स्वीकार करेगा। श्लोक 81 
तू शुम्भ-निशुम्भ आदि सहस्रों दैत्यों का संहार कर समस्त पृथ्वी को सुशोभित करेगी। श्लोक 82

विष्णु पुराण,पञ्चम अंश/ तृतीय अध्याय/ श्लोक 26 और 27  में उल्लेख के अनुसार

योग निद्रा को कन्स द्वारा पाषाण शिला पर पटकने के प्रयत्न के समय कन्स के हाथ से छूटकर योगनिद्रा देवी आकाश में शस्त्र युक्त, अष्टभुजा देवी के स्वरूप में प्रकट हुई। श्लोक 26
 और कन्स को फटकारते हुए कहा कि, तेरा वध करने वाला अन्यत्र जन्म ले चुका है। श्लोक 27

मिर्जापुर उत्तरप्रदेश मे स्थित *महामाया, योगमाया आद्य शक्ति, एकानंशा, विन्ध्यवासनी देवी* का मन्दिर है।
वैष्णव परंपरा में महामाया, योगमाया *आद्य शक्ति* , एकानंशा देवी को  *नारायणी* की संज्ञा दी गई है, और वह विष्णु की माया की शक्तियों के अवतार के रूप में कार्य करती हैं। 
देवी भागवत पुराण में देवी को देवी दुर्गा का परोपकारी पहलू माना गया है। 
शाक्त उन्हें आदि शक्ति का रूप मानते हैं। 
पुराणों के अनुसार *उनका जन्म यादव परिवार में नंद और माता यशोदा की बेटी के रूप में हुआ* था। जिन्हें कन्स ने देवकी - वसुदेव पुत्री समझ कर चट्टान पर पटक कर मारना चाहा, तो वे आकाशीय विद्युत बनकर विन्द्याचल पर स्थित हो गई।

भारतीय मानक समय मेरिडियन रेखा इस मन्दिर के निकट से ही गुजरती है। यहाँ मानक समय और स्थानीय समय में मात्र 16 सेकण्ड का ही अन्तर है।

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

स्वयम् भी सानन्द रहो। दुसरों का भी आनन्दवर्धन करो।

हाल कैसा है जनाब का?
इस प्रश्न के चार प्रकार के उत्तर होते हैं।
1 - जी रहा हूँ और पी रहा हूँ।

2 - टाटा स्काई का विज्ञापन था, 
दामाद - फूफाजी कैसे है?
बस जी रहा हूँ ‌। 
फूफी कैसी है?
गूजर गई।
नौकरी कैसी चल रही है?
छूट गई।
दामाद क्रिकेट मेच देखने लगता है ।

3 - फिल्म बार्डर से - चिट्ठी आती है!
करनाल वाले मामाजी गुजर गये, बाकी सब ठीक है।
गाय ने बछड़ा दिया था, पैदा होते ही मर गया बेचारा, बाकी सब ठीक है।
मुन्नी का बुखार चार दिन से उतर नहीं रहा,बाकी सब ठीक है।
मुन्ना गिर गया था, हाथ की हड्डी टूट गई, बाकी... सब ठीक है। 

4 - फिल्म मेरे अपने - हाल-चाल ठीक-ठाक है। आपकी कृपा से सब ठीक-ठाक है। 😁 

मैंरा उत्तर फिल्म मेरे अपने की स्टाइल में रहता है।

वेदों में तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। अमान्त मास प्रचलित थे।

*फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
वैदिक असमान विस्तार वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की सन्धि पर पूर्णिमा का चन्द्रमा होगा तो इससे १८०° पर स्थित नक्षत्र पर सूर्य होगा।
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)

*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
अर्थात वर्तमान में निरयन सौर वर्ष या सायन सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष को बराबर करने के लिए निर्धारित १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष वाला चक्र प्रचलित नहीं था।
महाभारत काल में हर अट्ठावन माह बाद उनसठवाँ और साठवाँ माह अधिक मास करते थे। ऐसे ही वैदिक काल में वर्षान्त पश्चात तेरहवाँ माह अधिक मास करते थे। सम्भवतः कितने वर्ष पश्चात करते थे यह स्पष्ट नहीं है।

इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। साथ ही उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि से भी इंगित करते थे। 

*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।* 
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।

तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। केवल उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि का ही उल्लेख है।

 *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
 *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।
ऐसे ही पारिश्रमिक वितरण में दशाह चलता था। सप्ताह शब्द भी मिलता है लेकिन उपयोग का उल्लेख नहीं है। वासर सूर्योदय से दुसरे सूर्योदय तक को कहते हैं, लेकिन ग्रहों के नाम वाले वार का उल्लेख नहीं है।
क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण मेंआसपास आठ-आठ अंश चोड़ी पट्टी में असमान आकृति वाले तारा मण्डलों को असमान भोगांश वाले नक्षत्र कहते थे। समान भोग वाले नक्षत्र नहीं थे। लेकिन सायन सौर मधु-माधव आदि मास निर्धारण हेतु विषुव वृत के तीस-तीस अंशों वाले अरे प्रयुक्त होते थे।
योग एवम् करण (तिथ्यार्ध) का उल्लेख नहीं है।
सूर्य से चन्द्रमा के बारह-बारह अंश के अन्तर पर तिथियाँ बदलती है। जैसे 348° से 360° तक अमावस्या रहती है। 00° से 12° अन्तर तक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, 12° से 24° तक द्वितीया, 24° से 36° तक तृतीया ....…. 168° से 180° तक पूर्णिमा। फिर 180° से 192° तक कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, 192° से 204° तक कृष्ण पक्ष की द्वितीया 204° से 216° तक कृष्ण पक्ष की तृतीया और पुनः 348° से 360° तक अमावस्या रहती है।
ऐसे ही सूर्य से चन्द्रमा के छः-छः अंश के अन्तर को करण कहते हैं।

वैदिक उत्तरायण वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक होता है।


 *संवत्सर व्यवस्था -* 
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। - 
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)

*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।

*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।* 
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।
वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति। जो प्रायः 20/21 मार्च को होती है। और शरद सम्पात अर्थात सायन तुला संक्रान्ति जो प्रायः 22/23 सितम्बर को होती है।
अतः वैदिक उत्तरायण 21 मार्च से 22 सितम्बर तक होता है। इसे उत्तरगोल भी कहते हैं।
और वैदिक दक्षिणायन 23 सितम्बर से 19/20 मार्च तक होता है। इसे दक्षिण गोल भी कहते हैं।


उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति प्रायः 22/ 23 जून को होती है। और दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति प्रायः 22 दिसम्बर को होती है।
उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 23 जून से दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति 21 दिसम्बर तक वैदिक उत्तर तोयन कहते हैं। पौराणिक काल में इसे दक्षिणायन कहा जाने लगा।
दक्षिण परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर से उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 22 जून तक वैदिक दक्षिण तोयन होता है। पौराणिक काल में इसे उत्तरायण कहा जाने लगा।
इसलिए 

जनमेजय को जय संहिता सुनाई थी न कि, भागवत पुराण।

श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यासजी के पुत्र श्री शुकदेव जी कैशोर्य अवस्था तक पहूँचने के पूर्व ही ब्रह्मलोक को सिधार गए।
यह बात भीष्म पितामह ने शर शैय्या पर लेटे युधिष्ठिर जी को कही थी। जबकि, उस समय परिक्षित जी अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में ही थे।
कृपया महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

तो परिक्षित की मृत्यु के समय कैसे आ गए?

वास्तव में परिक्षित जी को श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास जी की मूल रचना जय संहिता जो बाद में महाभारत कहलाई सुनाई गई थी।

प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय की पुत्री सती पार्वती ने दक्ष यज्ञ में आत्मदाह नहीं किया। वे जीवित ही शंकर जी के साथ कैलाश लौटी थी।

कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड,शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८४ पृष्ठ ५१६६ या संक्षिप्त महाभारत का पृष्ठ १२८१ देखें।
महाभारत में  उल्लेखित दक्षयज्ञ विध्वंस की कथा के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय  द्वारा किए गए यज्ञ में सभी देवताओं और ऋषियों को बुलाया लेकिन शंकर पार्वती को नहीं बुलाया।
देवताओं को समुह में जाते देख पार्वती ने शंकर जी से पुछा, तब शंकर जी ने पार्वती को बतलाया कि, दक्ष (द्वितीय) यज्ञ कर रहे हैं, उसमें उनके निमन्त्रण / आह्वान पर देवता यज्ञभाग लेने जा रहे हैं।
पार्वती द्वारा यह आपत्ति जताई कि, आप रुद्र को यज्ञभाग लेने हेतु क्यों आमन्त्रित नहीं किया गया।
तब शंकर जी बतलाते हैं कि, इसमें दक्ष का कोई दोष नहीं है। सृष्टि के आदि में प्रजापति ब्रह्मा ने रुद्र को यज्ञभाग न देने का विधान किया गया था। इसलिए मुझे नहीं बुलाया।
दक्ष द्वारा यज्ञ में न बुलाने और यज्ञभाग न देने की जानकारी से रुष्ट पार्वती (न कि, सती) को साथ लेकर स्वयम् शंकर जी दक्ष यज्ञ स्थल पर गये। वहाँ पार्वती अपनी नाराज़गी प्रकट करती है। केवल दधीचि पार्वती का समर्थन करते हैं। शेष सब मौन ही रहते हैं। दक्ष पर पार्वती के रोष का कोई प्रभाव न देखकर पार्वती जी और रुष्ट हो गई। इसे देखकर शंकरजी ने वीरभद्र और भद्रकाली का आह्वान किया। और वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस का आदेश दिया। वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस कर दक्ष द्वितीय का सिर काट दिया। और देवताओं को भी प्रताड़ित किया।
फिर प्रजापति ब्रह्मा ने नियमों में संशोधन कर भविष्य में रुद्र को यज्ञभाग देने का नियम बना दिया तब, शंकर जी ने दक्ष द्वितीय को पुनर्जीवित किया। और सहर्ष पार्वती जी को लेकर वापस लौट गए।

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

अथर्ववेदोक्त दिन और रात्रि के प्रमुख मुहूर्त और पौराणिक काल विभाजन

जहाँ भी घटि शब्द आए मतलब दिनमान या  रात्रि मान ÷30=घटि। जो लगभग 24 मिनट रहेगा।
जहाँ भी मुहूर्त शब्द आए मतलब दिनमान या रात्रि मान ÷15=मुहूर्त। लगभग 48 मिनट रहेगा।

 अभिजित मुहूर्त अर्थात दिन का आठवाँ मुहूर्त ।मध्याह्न से एक घटि (लगभग 24 मिनट) पहले से एक घटि (लगभग 24 मिनट) बाद तक। या सूर्योदय से लगभग 05 घण्टे 36 मिनट से 06 घण्टे 24 मिनट तक)

 विजय मुहूर्त मतलब दिन का ग्यारहवाँ मुहूर्त।
(दिनमान ×2/3) + सूर्योदय = विजय मुहूर्त प्रारम्भ समय। (सूर्योदय पश्चात लगभग 08 घण्टे से 08 घण्टे 24 मिनट तक।)
(दिनमान ×11/15) + सूर्योदय = विजय मुहूर्त समाप्ति समय।

 गोधूलि ऋतु पर निर्भर है। 
 हेमन्त ऋतु में सूर्यास्त के समय जब पूरा सूर्य बिम्ब दिख रहा हो। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का अर्धबिम्ब अस्त हो चुका हो और अर्धबिम्ब उपर दिख रहा हो। (मध्याङ्ग सूर्यास्त)। और वर्षा ऋतु में जब सूर्य बिम्ब पूर्ण अस्त हो चुका हो।
ऐसे ही एक विषय में मत मतान्तरयह भी है कि,
या तो 1 सूर्यास्त से एक मुहूर्त पहले से सूर्यास्त तक।
या 2 सूर्यास्त से एक घटि पहले से सूर्यास्त से एक घटि बाद तक। या 3 सूर्यास्त से एक मुहूर्त बाद तक।

 सायाह्न सन्ध्या --- सूर्यास्त से तीन घटि तक।
(रात्रिमान ÷10)+सूर्यास्त समय = सायाह्न सन्ध्या समाप्ति समय। (अर्थात सूर्यास्त से सूर्यास्त पश्चात लगभग 01 घण्टा 12 मिनट तक।)

 निशिता मुहूर्त --- मध्यरात्रि के एक घटि पहले से एक घटि बाद तक। या सूर्यास्त से लगभग 05 घण्टे 36 मिनट से 06 घण्टे 24 मिनट तक)

 ब्रह्म मुहूर्त --- अगले सूर्योदय से दो मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त पहले तक। (चार घटि पहले से दो घटि पहले तक। ) (अर्थात अगले सूर्योदय से लगभग 01 घण्टा 36 मिनट से 00 घण्टा 48 मिनट पहले तक )

 प्रातः सन्ध्या --- अगले सूर्योदय से तीन घटि पहले से सूर्योदय तक। (अर्थात अगले सूर्योदय से लगभग 00 घण्टा 48 मिनट पहले से प्रारम्भ होकर सूर्योदय तक।)


काल विभाजन का अन्य प्रकार। ---

सूर्योदय से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) तक प्रातः काल।

सूर्योदय पश्चात तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) से छः मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) तक सङ्गव काल।

सूर्योदय पश्चात छः मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) से नौ मुहूर्त ( 07 घण्टे 12 मिनट) तक कप मध्याह्न काल।

सूर्योदय पश्चात नौ मुहूर्त (04 घण्टे 48 मिनट) से बारह मुहूर्त ( 09 घण्टे 36 मिनट) तक अपराह्न काल।

सूर्योदय पश्चात बारह मुहूर्त (09 घण्टे 36 मिनट) से पन्द्रह मुहूर्त ( 12 घण्टे 00 मिनट) तक सायाह्न काल।

सूर्यास्त से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) तक प्रदोषकाल।

फिर सूर्यास्त से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) से सात मुहूर्त (05 घण्टे 36 मिनट) तक रात्रि काल । 

सूर्यास्त से सात मुहूर्त (05 घण्टे 36 मिनट) से आठवाँ मुहूर्त (06घण्टे 12 मिनट) तक निशिता काल। 
अर्थात मध्यरात्रि से एक घटि पहले से एक घटि बाद तक निशिता काल।

सूर्यास्त से आठ मुहूर्त (06 घण्टे 12 मिनट) से तेरह मुहूर्त (10 घण्टे 24 मिनट) तक रात्रि काल।

सूर्यास्त से तेरह मुहूर्त (10 घण्टे 24 मिनट) से सूर्योदय तक अरुणोदय काल।

पुनः सूर्यास्त से पाँच मुहूर्त (03 घण्टे 12 मिनट) से पाँचवाँ एक मुहूर्त सूर् का निशिता काल। अर्थात मध्यरात्रि से एक घटि पहले से एक घटि बाद तक निशिता काल।

विष्णु पुराण के अनुसार काल विभाजन के अन्तर्गत 

"काल चतुष्टय : रात्रि व्यतीत होते समय
 *सूर्योदय पूर्व 4 घण्टे से 2 घण्टे पहले तक ब्राह्म मुहूर्त रहता है।* 

 *सूर्योदय पूर्व 2 घण्टे से 1 घण्टा 12 मिनट पहले तक उषःकाल रहता है।* 

*सूर्योदय पूर्व 1 घण्टा 12 मिनट से 00 घण्टे 48 मिनट पहले तक अरुणोदय रहता है।* 

 *सूर्योदय पूर्व 00 घण्टे 48 मिनट से अगले सूर्योदय तक प्रातः काल रहता है।*


गीताप्रेस गोरखपुर की व्रत परिचय पुस्तक सर्व सुलभ है इसके पृष्ठ 17 पर भी विष्णु पुराण का कालचतुष्टय सम्बन्धित उद्धरण दिया गया है तथा लिखा गया है:

"काल चतुष्टय : 
रात्रि व्यतीत होते समय 55 घटी पर उष:काल,
 57 पर अरुणोदय, 
58 पर प्रातःकाल और 
60 पर सूर्योदय होता है।
 इसके पहले पाँच घड़ी का (अर्थात दो घण्टे का) समय 'ब्राह्म मुहूर्त' ईश्वर चिन्तन का है।

अर्थात अगले दिन के सूर्योदय से चार घण्टे पहले से दो घण्टे पहले तक के दो घण्टे का समय ब्राह्म मुहूर्त होता है।
यह अथर्ववेदोक्त ब्रह्म मुहूर्त से भिन्न हैं।

अगले दिन के सूर्योदय से 02 घण्टे पहले से 01 घण्टा 12 मिनट पहले तक 48 मिनट का समय अरुणोदय काल होता है।

अगले दिन के सूर्योदय से 01 घण्टा 12 पहले से 00 घण्टा 48 मिनट पहले तक के 24 मिनट का समय अरुणोदय काल होता है।

अगले दिन के सूर्योदय से दो घण्टे पहले से 00 घण्टा 48 मिनट पहले से सूर्योदय तक 48 मिनट का समय प्रातः काल होता है।


दिन के विभाग -
*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्* 
 तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

रावण की लंका, रामसेतु निर्माण का संक्षिप्त विवरण।

रावण की लंका, रामसेतु निर्माण का संक्षिप्त विवरण। 
*वाल्मीकि रामायण /किष्किन्धा काण्ड/ *एकचत्वारिशः सर्ग*/पाण्य वंशीय राजाओं के नगरद्वार पर लगे हुए सुवर्णमय कपाट दर्शन करोगे। जो मुक्तामणि यों से विभुषित एवं दिव्य है।( नोट - यहाँ से पाण्य देश की सीमा आरम्भ होती थी न कि, तंजोर नगर की।किन्तु इस प्रवेश द्वार को  लेण्डमार्क के रुप में देखने भर को ही कहा है।पाण्यदेश/ तमिलनाड़ु में प्रवेश करने का निर्देश नही किया है। अर्थात पुर्वी घाँट की ओर नही बल्कि पश्चम घाँट की ओर ही जाने का अप्रत्यक्ष निर्देश है। शायद राक्षसों का प्रभाव लक्षद्वीप से नाशिक तक पश्चिम में ही अधिक था।कुछ लोग पाण्यदेश यानी तमिलनाड़ु देखकर ही उत्साहित होकर पुर्वीघाँट की ओर बढ़ने का अनुमान करते हैं। जबकि सुग्रीव ने देखते हुए आगे बढ़ने का निर्देश देते हैं प्रवेश का नही।)तत्पश्चात समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना।महर्षि अगस्त ने  समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा सम्पन्न है।वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।- 19 &20"*वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धा काण्ड/पञ्चाशः सर्ग/*विन्द्याचल  पर सीता जी की खोज करते करते अंगद, जाम्बवन्त जी और  हनुमानजी सहित वानर विन्द्याचल के नैऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम) वाले शिखर पर जा पहूँचे।वहीँ रहते हुए उनका वह समय जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया।3खोजते खोजते उन्हे वहाँ एक गुफा दिखाई दी, जिसका द्वार बन्द नही था। अर्थात खुला था।- 07वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी।एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानर गण बहुत थक गये थे, पानी पीना चाहते थे। - 8"नाना प्रकार के वृक्षों से भरी उस गुफा में वे एक योजन तट एक दुसरे को पकड़े हुए गये। - 21*(एक योजन चलने पर) तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखाई दिया। और अन्धकार रहित वन देखा, वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमयी थे।* - 24*अर्थात गुफा आरपार खुला था।*"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/ त्रिपञ्चाशः सर्ग/*तदन्तर उन वानरों ने महासागर देखा। - 1वानरों का वह एकमास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लोटने का समय निश्चित किया था।  - 2"वे एक दुसरे को बताकर कि, अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेशानुसार एक माह के भीतर जो काम कर लेना चाहिए था , वह न कर सकने के  या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे भूमि पर गिर पड़े।- 5"*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/षट्पञ्चाशः सर्ग/*पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास करने बैठे थे उस स्थान पर गृध्रराज सम्पाति आये। - 1 & 2" *वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/अष्टपञ्चाशः सर्ग/*सप्पाति जी ने कहा-एक दिन मेने भी देखा,दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रुपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था। - 15वह भामिनी 'हा राम ! हा राम! हा लक्ष्मण! की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती छटपटा रही थी। - 16श्रीराम का नाम लेनेसे मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी। अब मैं उस राक्षस का घर का पता बतलाता हूँ, सुनो। - 18रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। वह "लंङ्का नामवाली नगरी में निवास करता है।" - 19(ध्यान दें लंका को केवल नगरी कहा है। सिंहल द्वीप/ श्रीलंका जैसा बड़ा स्थान नही हो सकता।)*यहाँ से शतयोजन (अर्थात लगभग 1287 कि.मी.) के अन्तर पर समुद्र में एक द्वीप है, वहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी निर्माण किया है।' - 20(नोट- शत योजन को अनुवादक ने  चारसो कोस लिखा है अर्थात 1287 कि.मी.।)
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ चौथा सर्ग देखें ---
किष्किन्धा से पश्चिम घाट पर ही चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93गस प्रकार वे सह्य और मलय  को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103"*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकोनविश सर्ग/*समुद्र की शरण लेने की विभिषण की सलाह - 31विभिषण की सलाह पर सर्व सम्मति - 40श्रीराम समुद्र तट पर कुशा बिछाकर धरना देने बैठे। -41*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकविंश सर्ग/*इस प्रकार समुद्र तट पर  तीन रात लेटे लेटे बीतने पर भी समुद्र देव प्रकट नही हुए ।- 11-12श्रीराम समुद्र पर कुपित हो गये।- 13श्रीराम ने अपने धनुष सेबड़े भयंकर बाण समुद्र पर छोड़े।-  27समुद्र मेंहुई हलचल को देख-लक्ष्मण ने श्री राम का धनुष पकड़ कर रोका ।- 33वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/द्वाविंश सर्ग/श्रीराम ने ब्रह्मास्त का संधान किया -  5तब समुद्र के मध्य सागर सवयम् उत्थित हुआ। - 17"समुद्र ने विश्वकर्मा पुत्र नल का परिचय दिया और बतलाया कि नल समस्त विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) का ज्ञाता है। - 45यह महोत्साही वानर पिता के समान योग्य है।मैं इसके कार्य को धारण करुँगा। - 46तब नल ने उठकर श्रीराम से बोला - 48मैं पिता के समान सामर्थ्य पुर्वक समुद्र पर सेतु निर्माण करुँगा। -  48समुद्र ने मुझे स्मरण करवा दिया है।मै बिना पुछे अपने गुणों को नही बतला सकता था।  अतः चुप था।- 52मैं सागर पर सेतु निर्माण में सक्षम हूँ।अतः सभी वानर मिल कर सेतु निर्माण आज ही आरम्भ करदें। 53।वानर गण वन से बड़े बड़े वृक्ष और पर्वत शिखर / बड़े बड़े पत्थर/ चट्टानें ले आये।- 55महाकाय  महाबली वानर यन्त्रों ( मशीनों) की सहायता से बड़े बड़े पर्वत शिखर / शिलाओं को तोड़ कर/ उखाड़ कर समुद् तक परिवहन (ट्रांस्पोर्ट) कर लाये। -60कुछ बड़े बड़े शिलाखण्डों से समुद्र पाटने लगे।कोई सुत पकड़े हुए था। - 61कोई नापने के लिये दण्ड पकड़े था,कोई सामग्री जुटाते थे।वृक्षों से सेतु बाँधा जा रहा था। -  64 & 65पहले दिन उन्होने चौदह योजन लंबा सेतु बाँधा। -69(नोट - तट वर्ती क्षेत्र में केवल भराव करने से काम चल गया अतः  180 कि.मी. पुल बन गया। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी हो जायेगी।)दुसरे दिन बीस का योजन सेतु तैयार हो गया  - 69(अर्थात दुसरे दिन (20- 14 = 6 योजन  सेतु बना।छः  योजन अर्थात 77 कि.मी. पुल बना कर सेतु की कुल लम्बाई बीस योजन अर्थात 257 कि.मी. होगई। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी होगई।दुसरे दिन गति लगभग आधी ही रह गई।)तीसरे दिन कुल इक्कीस योजन का सेतु निर्माण कर लिया। - 70(अर्थात तीसरे दिन एक योजन  यानी 12.87 कि.मी. सेतु बन पाया और सेतु की कुल लम्बाई 21 योजन = 270 कि.मी. हो गई।(नोट - गति कम पड़ना स्वाभाविक ही है।दुसरे दिन गति आधी रह गई और तीसरे दिन से तो  एक एक योजन अर्थात  प्रतिदिन 12.87 कि.मी. ही पुल  बनेने लगा।)चौथे दिन वानरों ने बाईस योजन तक का सेतु बनाया। - 71(अर्थात एक योजन / 12.87 कि.मी.वृद्धि हुई और कुल22 योजन =   283 कि.मी. पुल बना।)पाँचवें दिन वानरों ने कुल 23 योजन सेतु बना लिया। - 72(अर्थात एक योजन वृद्धि कर सेतु की कुल लम्बाई 23 योजन = 296 कि.मी. होगई।)इस प्रकार विश्वकर्मा पुत्र नल ने  ( पाँच दिन में वानरों की सहायता से भारत की मुख्य भूमि से रावण की लंका तक   23 योजन = लगभग 300 कि.मी. का )  सेतु समुद्र में  तैयार कर दिया।नोट - इस प्रकार भारत की मुख्य भूमि पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कोजीकोड से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. का सेतु / पुल तैयार कर लिया।)सुचना - पुरातत्व विदों द्वारा केरल के कण्णूर से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप के बीच वास्तविक रामसेतु खोजा जाना चाहिए।(सूचना - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट जहाँ से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  के द्वीप पड़ते है। तथा  पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर  से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में हो सकती है। कण्णूर और लक्ष्यद्वीप का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्ध भी सदा से रहा है। कण्णूर से सोलोमन के मन्दिर के लिए लकड़ियाँ जहाज द्वारा गई थी।   ईराक के उर से व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।)(नोट - यह विशुद्ध विश्वकर्म / इंजीनियरिंग का कमाल था।न कि राम नाम लिखने से पत्थर तैराने का  कोई चमत्कार। तैरते पिण्डों को बानध कर पुल बनाना भी इंजीनियरिंग ही है किन्तु यहाँ उस तकनीकी का प्रयोग नही हुआ।किन्तु नाम लिखने से फत्थर नही तैरते बल्कि जैविकीय गतिविधियों से निर्मित कुछ पाषाण नुमा संरचना समुद्र में तैरती हुई कई स्थानों में पायी। जाती है।इसमें कोई चमत्कार नही है।पाषाण नुमा संरचनाएँ जो बीच में पोली / खाली होती है उनमें हवा हरी रह जाती है।ऐसे पत्थरों का घनत्व एक ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर से कम होने के कारण वे भी बर्फ के समान तैरते हैं। )नोट --श्लोक 76 में सेतु की लम्बाई शत योजन और चौड़ाई दश योजन लिखा है। निश्चित ही यह श्लोक प्रक्षिप्त है क्यों कि,  नई दिल्ली से आन्ध्रप्रदेश के चन्द्रपुर से आगे असिफाबाद तक की दुरी के बराबर  सेतु की लम्बाई 1288 कि.मी. कोई मान भी लेतो 129 कि.मी. चौड़ा पुल तो मुर्खता सीमा के पार की सोच लगती है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दुरी भी 110 कि.मी. है।उससे भी बीस कि.मी.अधिक चौड़ा पुल तो अकल्पनीय है।अस्तु यह स्पष्ट है कि, दासता युग में सूफियों के इन्द्रजाल अर्थात वैज्ञानिक और कलात्मक जादुगरी से प्रभावित कुछ लोगों ने मिलकर पुराने ग्रन्थों में भी ऐसे चमत्कार बतलाने के उद्देश्य से ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक डाल दिये। जो मूल रचना से कतई मैल नही खाते। ऐसे हीश्लोक 78 में वानरों की संख्या सहत्र कोटि यानी एक अरब जनसंख्या बतलाई है।भारत की जनसंख्या के बराबर एक अरब वा्नर  श्रीलंका में भी नही समा पाते।अस्तु शास्त्राध्ययन में स्वविवेक जागृत रखना होता है।" "खम्बात की खाड़ी के तट कोरोमण्डल दहेज के लूवारा ग्राम के परशुराम मन्दिर  से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  का किल्तान द्वीप पड़ता है। तथा केरल के  पश्चिमी घाँट के  नीलगिरी के कोजीकोड के रामनाट्टुकारा और पन्थीराम्कवु से से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीन सौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है।अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में रावण की लंका हो सकती है।पुरे प्रकरण को पढ़कर भारत का नक्षा  एटलस  लेकर जाँचे।कि,  भारत के पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर (केरल) से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. है। और गुजरात के खम्बात की खाड़ी से दहेज नामक स्थान से किल्तान की दुरी भी लगभग 1290 कि.मी. है।अस्तु लगभग किल्तान द्वीप के आसपास ही रावण की लंका रही होगी। लक्षद्वीप में किल्तान द्वीप राजधानी करवत्ती से उत्तर में है।अध्ययन कर पता लगाया जा सकता है कि किल्तान या करवत्ती या कोई डुबा हुआ द्वीप में से रावण की लंका कौनसा द्वीप था।यह कार्य पुरातत्व विभाग और पुरातत्व शास्त्रियों का कार्य है।रामेश्वरम कहाँ है --- परशुराम जी का मूल नाम राम है। परशु धारण करनें के कारण उनका नाम परशुराम पड़ गया। यह भी सम्भव है कि, अयोध्या नरेश श्री राम की ख्याति बड़नें के कारण विशिष्ठिकृत नाम के रूप में परशुराम नाम प्रचलित हुआ हो।रामायण में श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिङ्ग स्थापना का वर्णन नही है। किन्तु वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद के ग्रन्थ कम्ब रामायण के आधार पर यह मान्य हुआ। ऐसी लोक मान्यता है कि, केरल में त्रिशुर भी गुरुवयूर से 38 कि.मी दूर त्रिशुर के शिवलिङ्ग की स्थापना परशुराम जी ने की थी।अतः सम्भव है कि, कवि कम्बन ने त्रिशुर वाले रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग का वर्णन करनें में स्व स्थान तमिलनाड़ु में वर्णित कर दिया हो या बाद में किसी ने परिवर्तन किया हो। अतः त्रिशुर का परशुरामेश्वर की देखा-देखी ही तमिलनाडु में धनुषकोडी के निकट रामेश्वरम मान लिया गया।

श्रीरामचरित्र के सच और लोक मान्यताओं में आकाश पाताल का अन्तर है।

 
कृपया देखें -- वाल्मीकि रामायण/ बालकाण्ड/ उनचासवाँ सर्ग/ श्लोक 19 से 21 तक। विशेषकर श्लोक 17 और 18
श्री रामचन्द्र जी ने तपस्या कर रही अहिल्या के चरण छूकर प्रणाम माता जी कहा, लेकिन लोग कहते हैं कि, पत्थर बनी अहिल्या को श्री रामचन्द्र जी ने पैर के अङ्गुष्ठ से छुआ।

कर्नाटक -केरल और लक्ष्यद्वीप का मानचित्र (नक्षा) लेकर वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धाकाण्ड/ पचासवाँ सर्ग/ श्लोक ३,7-8, 21, 24, तिरेपनवाँ सर्ग/ श्लोक 1, 2, 5 एवम् छप्पनवाँ सर्ग / श्लोक 1 एवम् 2, तथा अट्ठावनवाँ सर्ग/ श्लोक 15 से 20 तक, इकतालीसवाँ सर्ग/ श्लोक 19 एवम् 20 और युद्ध काण्ड/ सर्ग/श्लोक 70 -71 , और 92 से 94 तथा 103 एवम् एक सौ एकसौ इक्कीसवाँ सर्ग / श्लोक 17, 45 से 48, 52-53,55,60-61,64-65,69, 71 एवम् 72 पढ़ने पर निश्चित ही समझ आ जाएगा कि, 
*हनुमान जी भरुच के पास से समुद्र पार कर लंका गये थे। लोग धनुषकोडी के पास बतलाते हैं।* 
 *रावण की लंका लक्ष्यद्वीप के स्थान पर श्रीलंका मानते है़। श्री रामचन्द्र जी द्वारा कोझीकोड (केरल) से किल्तान द्वीप तक राम सेतु बनवाया था, लेकिन ,लोग तथाकथित एडम ब्रिज को राम सेतु मानते हैं।* 

 *रावण ने वेदाध्ययन किया था ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन लोग रावण को वेदज्ञ मानते हैं।* 
तैत्तिरीय संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण का सम्बन्ध श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी के शिष्य वैशम्पायनजी जी से है, यह वर्णन सर्वत्र उपलब्ध है। 
लेकिन लोग कहते हैं कि, यजुर्वेद पर रावण ने भाष्य किया था, और उस भाष्य और यजुर्वेद को गड्ड-मड्ड कर दिया इसलिए इसे कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं। जो दक्षिण भारत में कर्मकाण्ड का आधार है।
*रावण अधर्मी तान्त्रिक था यह उल्लेख किष्किन्धाकाण्ड और युद्ध काण्ड में कई बार मिलता है। लेकिन लोग उसे महान शिवभक्त कहते हैं। *
 
वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धाकाण्ड/ इकतालीसवाँ सर्ग/श्लोक 19-20 देखें ---
 *दक्षिणापथ पर सीताजी की खोज कर्ता दल को स्पष्ट निर्देश देते हैं कि, (तञ्जावुर में) पाण्ड्यदेश का सूचना पट्ट देखकर दक्षिण में आगे बढ़ जाना। (पाण्ड्यदेश में प्रवेश न करना।)* 

 और वाल्मीकि रामायण/ युद्धकाण्ड/ चौथा सर्ग देखें --- *किष्किन्धा से पश्चिम घाट पर ही चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70
श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71 
श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92 
महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93 
इस प्रकार वे सह्य और मलय को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94 
उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103* 
*श्री रामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये ही नहीं और न कहीं भी कोई शिवलिङ्ग स्थापित किया, लेकिन लोग रामेश्वरम श्री रामचन्द्र जी द्वारा स्थापित बतलाते हैं।* 

 *रावण को सिविल इंजीनियरिंग का भी ज्ञान नहीं था, नल नील द्वारा पाँच दिन में राम सेतु तैयार कर दिया इसपर उसे घोर आश्चर्य हुआ। गुप्तचर बतलाते रहे, लेकिन वह उपहास करते हुए दारु पी कर रंगरेलियां करता रहा। ऐसे मुर्ख को राजनीति का पण्डित कहते हैं।* 

वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ बानवेंवाँ सर्ग/ श्लोक 66-67 के अनुसार 
 *मेघनाद वध से दुःखी और क्रुद्ध रावण को दी गई राय के आधार पर अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को रावण द्वारा पूर्ण तैयारी से श्री रामचन्द्र जी के विरुद्ध युद्ध होना निश्चित हुआ।* 
और 
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ आठवाँ सर्ग/ श्लोक 17-23 के अनुसार
 *अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को सन्ध्या समय हुए इस अन्तिम युद्ध में ही श्री रामचन्द्र जी द्वारा रावण की छाती पर मारा बाण रावण का हृदय वेधता हुआ आर-पार हो गया और पहले धरती में धँस गया। फिर तरकस मे लौट आया।* 
 *रावण की मृत्यु होते ही रावण की मृत शरीर रथ से धरती पर गिर पड़ा।*
*अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ब्रह्मास्त्र से हृदय विदीर्ण हो जाने से रावण तत्काल ही मर गया, लेकिन लोग कहते हैं कि, रावण आश्विन शुक्ल दशमी को मरा और उसके मरने से पहले श्रीरामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने भेजा।* 

ऐसे ही
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ चौबीसवाँ सर्ग/ श्लोक १ देखें ---
*श्री रामचन्द्र जी वनवास पूर्ण कर चैत्र शुक्ल पञ्चमी को भरद्वाज आश्रम पहूँचे और चैत्र शुक्ल षष्ठी को अयोध्या पहुँचे। लेकिन* 
 *लोग कहते हैं कि, श्री अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण अमावस्या को रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनाई जाती है।*

*ऐसे ही सप्रमाण शास्त्र मत पहले ही भेज चुका हूँ। कि,* 

 *दीपावली लक्ष्मी पूजा 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को है लेकिन* 
*लोग 31 अक्टूबर 2024 गुरुवार को ही मनाएंगे।*

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

ब्राह्मणों के शत्रु ब्राह्मण होना दुःख दाई।

यह सुनकर दुःख हुआ कि, भारत में जैन-बौद्ध प्रभाव कितना अन्दर तक धँसा हुआ है कि, जैनाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए। बौद्धाचार्य अधिकतर ब्राह्मण हुए।
जैन पन्थ और बौद्ध पन्थ के आचार्यों ने सदा से लेकर आज तक यह स्वीकार किया कि, सनातन वैदिक धर्म का अस्तित्व ब्राह्मणों और आचार्यों के बलबूते पर ही सुरक्षित है। उनके प्रचार में सबसे बड़े बाधक ब्राह्मण और आचार्य ही हैं।
यह बात जरथ्रुस्त्र और सिकन्दर ने भी अनुभव की थी।
यही बात ईसाई मिशनरियों ने भी कही।
मुस्लिम और ईसाई आक्रांताओं ने सबसे अधिक प्रताड़ित और हत्या ब्राह्मणों की ही की।

लेकिन हमारी दुर्दशा के लिए ब्राह्मणों और आचार्यों को कोसने वाले अनुसूचित जाति के नवबौद्ध और जनजाति के जयस वाले, यादव कहे तो इतना दुःखद नहीं लगता जितना बौद्ध दर्शन से प्रभावित ब्राह्मणों का विरोध देखकर होता है।
ये अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का आकलन नही कर पाते, उनकी तत्कालीन समस्याओं, संघर्षों और विवशताओं को नहीं देख समझ पाते, और इन विवशताओं में लिए गए निर्णयों, और किये गए संशोधनों को नहीं समझ पाते इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या होगा।
जबकि, जैन-बौद्ध मत परिवर्तन कर संन्यासी बनने के डर से और आक्रांताओं के कारण बाल विवाह तथा विधवा जीवन में परिवर्तन का संशोधन, सति होने और जोहर करने की विवशता, रात्रि में विवाह करना, वार्षिक पूजा छुपकर करना आदि विवशताएँ विदेशी तक समझ गये।  उनके द्वारा किए गए अनुमोदन के कारण अब समझदार भारतीय भी मानने लगे हैं। लेकिन ब्राह्मण स्वयम् स्वीकार नहीं करते।
निन्दा  करेंगे लेकिन, स्वयम् करेंगे वही जो परम्परा है। वे स्वयम् बदलने को तैयार भी नहीं हैं।
जिन रूढ़ियों और सोच (चिन्तन) को आद्य शंकराचार्य जी जैसे तपस्वी और ज्ञानी को भी स्वीकार कर पञ्च देवोपासना स्वीकार करना पड़ी। यहाँ तक कि, यमोपासकों को भी उनकी उपासना के अतिरिक्त पञ्चदेवोपासना स्वीकारना पढ़ी। वैदिक - श्रोत्रियों के ब्राह्म धर्म और ब्राह्मण धर्म को स्मार्त पन्थ में ही समाविष्ट करना पड़ा।
उनके सामने अन्य कोई इतनी बड़ी विभूति नही हुई। तो इन आचार्यों ने एक विशेष प्रकार से सोचने और मान्यताओं वालों को संगठित करने का कार्य तोड़ने वाला कैसे माना जा सकता है?
जब एकादशी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, नृसिंह जयन्ती, आदि में जब स्मार्त पर्वकाल की बात करते हैं। व्रत की तिथि की अगली तिथि में पारण होना आवश्यक बतलाते हैं, तब पौराणिक लोग पौराणिक कथाओं के आधार पर मध्यरात्रि के बाद एकादशी लगे, या पचपन घटि के बाद एकादशी लगे, या छप्पन घटि के बाद एकादशी लगे तो दशमी विद्धा मान लेते हैं। और एकादशी के बजाय द्वादशी में उपवास करके त्रयोदशी में पारण करते हैं।
जन्माष्टमी में उदिया अष्टमी तिथि, सूर्योदय काल में रोहिणी नक्षत्र आवश्यक लगता है । सप्तमी वेध नहीं होना।
लेकिन स्मार्तों का विरोध करने के लिए दिपावली में चतुर्दशी वेध से कष्ट नहीं होता, उस समय पर्वकाल प्रदोषकाल व्यापी और महानिशिथ काल व्यापिनी अमावस्या चाहिए। शास्त्रोक्त मत चुभने और खलने लगे। यही स्थिति शंकराचार्य द्वारा अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के विरोध करने पर भी बनी थी। तब राजनीति शास्त्रों पर भारी पड़ रही थी।
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय ।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥
सुभाषित स्मरण हो आया।

भारतीय व्यावसायिक पद्यति।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में पण्डितों का कार्यकाल, क्षत्रियों की कचहरी, किसानों का अन्न भण्डार, व्यापारी की दुकान, मूर्तिकार, चित्रकार, सुनार, लोहार, सुतार, कुम्भकार, दर्जी आदि विश्वकर्माओं और वैद्य (फिजिशियन), नाई (सर्जन) आदि सबके वर्कशाप आदि घर में आगे ही होती थी ।
भारतीय शास्त्र भारतीय रीति-नीति के अनुसार बने हैं।
इसलिए दो अलग-अलग पूजा की आवश्यकता ही नहीं होती थी।

अंग्रेजी व्यवस्था ने घर से दूर ऑफिस और बाजार कर दिये।
इसलिए समस्या खड़ी हुई।

दीपावली पूजन

आचार्य श्री कमलाकर भट्ट प्रणीत
निर्णय सिन्धु/प्रथम परिच्छेद/पूर्णिमा - अमावस्या तिथि विचार। ---

पौर्णमास्यमावास्ये तु सावित्रीव्रतम् विना परे ग्राह्ये। भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्णे कदाचन। वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्री व्रतमुत्तमम्। इति ब्रह्मवैवर्तात।

पूर्णिमा तिथि तथा अमावस्या तिथि सावित्री व्रत के विना परा ग्रहण करनी चाहिये। ब्रह्मवैवर्त पुराण का मत है कि,-- हेमुनिश्रेष्ठ, व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी नहीं करना चाहिये।


आचार्य काशीनाथ उपाध्याय कृत धर्मसिन्धु/द्वितीय परिच्छेद/ अथामावस्याभ्यङ्गनिर्णयः--

अथाश्विनामावस्यायाम् प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्।।
तत्र सूर्योदयम् व्याप्यास्तोत्तरम् घटिकाधिरात्रिव्यापिनि दर्शे सति न सन्देहः।।
अत्र प्रातरम्यङ्गदेवपूजनादिकम् कृत्वापराह्ने पार्वणश्राद्ध कृत्वा प्रदोष समये दीपदानोल्काप्रदर्शनलक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनम् कार्यम् ।। 
अत्र दर्शेबालवृद्धादिभिन्नेर्दिवा न भोक्तव्यम्।।
रात्रो भोक्तव्यमिति विशेषो वाचनिकः।।
तथा च पर दिने एव दिनद्वयेपि वा प्रदोषव्यापौपरा।।
पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा।। अभ्यङ्गस्नानादौ परा।।
एवमुभयत्र प्रदोषव्याप्त्यभावेपि पुरुषार्थचिन्तामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरिति पक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापिदर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्तवे लक्ष्मीपूजादिकमपि परत्रैवैत्युक्तम् ।।
एतन्मते उभयत्र प्रदोषव्याप्तिपक्षेपि परत्र दर्शस्य सार्धयामत्रयाधिव्याप्तित्वात्परैव युक्तेति भाति।।
चतुर्दश्यादिदिनत्रयेपि दीपावलिसञ्ज्ञके यत्रयत्राह्नि स्वातीनक्षत्रयोगस्तस्यतस्य प्राशस्त्यातिशयः अस्यामेव निशिथोत्तरम् नगरस्त्रीभिः स्वगृहाङ्गणादलक्ष्मीनिःसारणम् कार्यम्।।

मिहिरचन्द्र कृत अनुवाद ---
इसके अनन्तर आश्विन की अमावस्या को प्रातःकाल अभ्यङ्ग करें। प्रदोष काल में दीपदान, लक्ष्मी पूजन आदि कहा है। 
उसमें यदि सूर्योदय से सूर्यास्त के अनन्तर एक घड़ी से अधिक रात्रि तक अमावस्या हो तो, कुछ सन्देह नहीं है। इसमें प्रातः काल अभ्यङ्ग, देवपूजा आदि करके अपराह्न में पार्वण श्राद्ध करके प्रदोषकाल में दीपदान उल्का प्रदर्शन , लक्ष्मी पूजन, करके भोजन करना। इस अमावस्या के दिन में बालक, वृद्ध आदि को छोड़कर कोई भोजन न करें, रात्रि में ही भोजन करें। यह विशेष वाचनिक है सो दर्शाया जाता है कि, दूसरे दिन (परले दिन ) या दोनों दिन प्रदोष व्यापिनी हो तो, दूसरी (परली) लेना। इस प्रकार दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के अभाव में भी दुसरी (परली) लेना। 
पुरुषार्थ चिन्तामणि में कहा है कि, पहले दिन व्याप्ति हो।
इस पक्ष में यदि आगे तीन प्रहर से अधिक अमावस्या आचार्य श्री कमलाकर भट्ट प्रणीत
निर्णय सिन्धु/प्रथम परिच्छेद/पूर्णिमा - अमावस्या तिथि विचार। ---

पौर्णमास्यमावास्ये तु सावित्रीव्रतम् विना परे ग्राह्ये। भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्णे कदाचन। वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्री व्रतमुत्तमम्। इति ब्रह्मवैवर्तात।

पूर्णिमा तिथि तथा अमावस्या तिथि सावित्री व्रत के विना परा ग्रहण करनी चाहिये। ब्रह्मवैवर्त पुराण का मत है कि,-- हेमुनिश्रेष्ठ, व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी नहीं करना चाहिये।


आचार्य काशीनाथ उपाध्याय कृत धर्मसिन्धु/द्वितीय परिच्छेद/ अथामावस्याभ्यङ्गनिर्णयः--

अथाश्विनामावस्यायाम् प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्।।
तत्र सूर्योदयम् व्याप्यास्तोत्तरम् घटिकाधिरात्रिव्यापिनि दर्शे सति न सन्देहः।।
अत्र प्रातरम्यङ्गदेवपूजनादिकम् कृत्वापराह्ने पार्वणश्राद्ध कृत्वा प्रदोष समये दीपदानोल्काप्रदर्शनलक्ष्मीपूजनानि कृत्वा भोजनम् कार्यम् ।। 
अत्र दर्शेबालवृद्धादिभिन्नेर्दिवा न भोक्तव्यम्।।
रात्रो भोक्तव्यमिति विशेषो वाचनिकः।।
तथा च पर दिने एव दिनद्वयेपि वा प्रदोषव्यापौपरा।।
पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा।। अभ्यङ्गस्नानादौ परा।।
एवमुभयत्र प्रदोषव्याप्त्यभावेपि पुरुषार्थचिन्तामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरिति पक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापिदर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्तवे लक्ष्मीपूजादिकमपि परत्रैवैत्युक्तम् ।।
एतन्मते उभयत्र प्रदोषव्याप्तिपक्षेपि परत्र दर्शस्य सार्धयामत्रयाधिव्याप्तित्वात्परैव युक्तेति भाति।।
चतुर्दश्यादिदिनत्रयेपि दीपावलिसञ्ज्ञके यत्रयत्राह्नि स्वातीनक्षत्रयोगस्तस्यतस्य प्राशस्त्यातिशयः अस्यामेव निशिथोत्तरम् नगरस्त्रीभिः स्वगृहाङ्गणादलक्ष्मीनिःसारणम् कार्यम्।।

मिहिरचन्द्र कृत अनुवाद ---
इसके अनन्तर आश्विन की अमावस्या को प्रातःकाल अभ्यङ्ग करें। प्रदोष काल में दीपदान, लक्ष्मी पूजन आदि कहा है। 
उसमें यदि सूर्योदय से सूर्यास्त के अनन्तर एक घड़ी से अधिक रात्रि तक अमावस्या हो तो, कुछ सन्देह नहीं है। इसमें प्रातः काल अभ्यङ्ग, देवपूजा आदि करके अपराह्न में पार्वण श्राद्ध करके प्रदोषकाल में दीपदान उल्का प्रदर्शन , लक्ष्मी पूजन, करके भोजन करना। इस अमावस्या के दिन में बालक, वृद्ध आदि को छोड़कर कोई भोजन न करें, रात्रि में ही भोजन करें। यह विशेष वाचनिक है सो दर्शाया जाता है कि, दूसरे दिन (परले दिन ) या दोनों दिन प्रदोष व्यापिनी हो तो, दूसरी (परली) लेना। इस प्रकार दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के अभाव में भी दुसरी (परली) लेना। 
पुरुषार्थ चिन्तामणि में कहा है कि, पहले दिन व्याप्ति हो।
इस पक्ष में यदि आगे तीन प्रहर से अधिक अमावस्या हो तो दर्श की अपेक्षा से प्रतिपदा की वृद्धि हो तो लक्ष्मी पूजन आदि भी दुसरे दिन (परले दिन) ही करें। इस मत में दोनों दिन प्रदोष व्याप्ति के पक्ष में भी दुसरे दिन (परले दिन) अमावस्या साढ़े तीन प्रहर से अधिक हो तो, इससे दूसरी (परली) ही युक्त है, यह प्रतीत होता है। दीपावली नामक चतुर्दशी आदि तीनों दिन मे जिस जिस दिन स्वाति नक्षत्र का योग हो उस उस दिन की प्रशंसा अधिक है। इसी अमावस्या को अर्धरात्रि के अनन्तर नगर की स्त्रियाँ अपने घर के आंगन में अलक्ष्मी (दारिद्र) का निस्तारण करें (निकालें)।।

धर्मसिन्धु 
पर दिने एव दिन द्वयेऽपिया प्रदोषव्याप्तौपरा। पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा। 

तिथि निर्णय 
इयम् प्रदो, व्यापिनी ग्राह्या, दिनद्वये सत्त्वाऽसत्त्वे परा।

पुरुषार्थ चिन्तामणी 
सदा साहाम्हमारभ्य प्रवृत्तोतरदिने किञचिन्नयुनयामत्रयम् अमावस्या तदत्तुरदिने यामत्रयमिता प्रतिपत्तदाऽमावस्याप्रयुक्त दीपदानलक्ष्मीपूजादिकम् पूर्वत्र। यदा तु द्वितीयदिने यामत्रयममावस्या तदुत्तररदिने सार्धमात्रयम् प्रतिपत्तदा परा।

अर्थात 
 अमावस्या के तीन प्रहर और प्रतिपदा के साढ़े तीन प्रहर समाप्त हो जाने के बाद अगले दिन लक्ष्मी पूजनादि करना चाहिए।
जिस दिन प्रदोषकाल में अमावस्या की सम्भावना कम हो शाम के समय अमावस्या और प्रदोष लग रही हो ; यानी, अमावस्या प्रतिपदा युक्त हो, उसी दिन लक्ष्मी-पूजा करनी चाहिए।

 *उक्त समस्त शास्त्र वचनों को दृष्टिगत रखते हुए दीपावली की लक्ष्मी-पूजन दिनांक 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को किया जाना ही उचित है।* 
 *यद्यपि 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को इन्दौर में प्रदोषकाल में अमावस्या मात्र 24 मिनट ही रहेगी, तथापि, सायंकाल में दीपदान कर प्रदोषकाल में, स्थिर वृषभ लग्न में लक्ष्मी पूजा विधि पूर्वक करें।* 
 *ऐसा संयोग पूर्व में भी 28 अक्टूबर 1962 मे, 17 अक्टूबर 1963 मे और 02 नवम्बर 2013 में हो चुका है। तब भी प्रदोषकाल में अल्पकालिक अमावस्या में ही लक्ष्मी पूजा की गई थी।* 
अतः किसी के बहकावे में न आकर *शास्त्र सम्मत दीपावली 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को ही मनाएँ।*


अमावस्या तिथि 31 अक्टूबर 2024 गुरुवार को दोपहर 03:52 से 01 नवम्बर 2024 शुक्रवार को रात्रि 06:06 बजे तक रहेगी। 
इन्दौर में प्रदोष काल सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 08:23 बजे तक रहेगा।
वृषभ लग्न रात्रि 06:35 से 08:33 बजे तक रहेगा।
इस प्रकार प्रदोषकाल में अमावस्या तिथि सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 06:06 बजे तक 24 मिनट रहेगी।
सूर्यास्त समय 05:52 बजे से रात्रि 06:06 बजे के बीच दीपमाला की पूजा कर, दीपदान कर, लक्ष्मी पूजा हेतु घी का दीपक प्रज्वलित कर ले फिर वृषभ लग्न में रात्रि 06:35 से 08:33 बजे के बीच लक्ष्मी पूजा करें।

स्वाति नक्षत्र 31 अक्टूबर उपरान्त 01 नवम्बर 2024 गुरुवार Friday को उत्तर रात्रि 00:44 बजे (12 बजकर 44 मिनट) से 01 उपरान्त 02 नवम्बर 2024 शुक्रवार Saturday को उत्तर रात्रि 03:30 बजे तक रहेगा।

रावण वध तिथि अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या है और श्री रामचन्द्र जी के वनवास से अयोध्या लौटने की तिथि चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि है।


गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पौराणिक ग्रन्थों पर कोई सन्देह नहीं करता है।
महर्षि वाल्मीकि श्री रामचन्द्र जी के राज्यक्षेत्र में ही रहते थे। इसलिए ही गर्भवती सीता जी को उन्होंने वाल्मीकि आश्रम में ही भेजा था। जहाँ कुश और लव जन्में और शिक्षित-प्रशिक्षित हुए। महर्षि वाल्मीकि ने कुश और लव को स्वरचित रामायण कण्ठस्थ करवाई और श्री रामचन्द्र जी के अश्वमेध यज्ञ में कुश और लव ने जा कर सुनाई। श्री रामचन्द्र जी ने उनकी कथा का अनुमोदन किया।
अतः वाल्मीकि रामायण में लिखे श्री रामचन्द्र जी के इतिहास पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता।
अतः कोई भी यदि वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित तथ्य से भिन्न मत व्यक्त करे तो वह अमान्य ही होगा।


अयोध्या काण्ड द्वितीय सर्ग श्लोक 12 में---कल प्रातः पुष्य नक्षत्र में मैं युवराज के पद पर नियुक्त करूंगा।
अयोध्या काण्ड तृतीय सर्ग श्लोक 4 में स्पष्ट वर्णन है कि, यह चैत्र मास है। श्रीरामचन्द्र जी को युवराज पद पर अभिषेक की तैयारी का निर्देश दिया। 
श्लोक 15 में कल स्वस्तिवाचन होगा। कहा है।
चतुर्थ सर्ग श्लोक 21 में आज पुनर्वसु नक्षत्र है। कल पुष्य नक्षत्र रहेगा।
आगे श्लोक 22 में पुनः कहा है कि,
 इसलिए पुष्य नक्षत्र में तुम (युवराज पद पर) अपना अभिषेक करा लो। कल पुष्य नक्षत्र में मैं अवश्य युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक कर दूंगा।

स्पष्ट है कि, श्री रामचन्द्र जी का युवराज पद पर अभिषेक चैत्र मास में पुष्य नक्षत्र में होना निश्चित था। चैत्र मास में पुष्य नक्षत्र चैत्र शुक्ल नवमी या दशमी को ही होता है।

षष्ट सर्ग श्लोक 2 से 4 तक श्री रामचन्द्र जी ने भगवान नारायण के निमित्त अग्निहोत्र कर आहुति दी। और यज्ञ शेष हविष्य ग्रहण किया ।
(मतलब भगवान श्री रामचन्द्र जी नारायण उपासना करते थे।)


विजया दशमी (दसरा) के बाद तो सुग्रीव ने वानर दलों को बुलवा कर सीता जी की खोज हेतु भेजा। उनके पास पुष्पक विमान नहीं था। वानर दलों तक सन्देश जाने और उनके एकत्र होने, उन्हें कार्य समझाने का समय जोड़ें।

अङ्गद के नेतृत्व में हनुमानजी, जामवन्त जी आदि विंध्याचल पहूँचे, वहाँ पूरे एक महीने खोज की। वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धाकाण्ड/पचासवाँ सर्ग/श्लोक 3

उसके बाद स्वयम्प्रभा की गुफा में प्रवेश कर भोजन आदि ग्रहण कर थकान दूर की।

स्वयम्प्रभा की गुफा से विन्द्याचल के दक्षिण पश्चिम मे पहुँचे जहाँ से एक ओर विन्द्याचल दुसरी ओर सतपुड़ा पर्वत और सामने (अरब) सागर दिख रहा था ऐसा स्थान खम्बात की खाड़ी के तट पर भरुच क्षेत्र में है।  वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धाकाण्ड/ तिरेपनवाँ सर्ग/श्लोक 1 एवम्  2

भरूच के पास पर्वत शिखर पर सम्पाति मिले। उन्होंने पूरी जानकारी ली, फिर वहाँ से 1287 किलोमीटर दक्षिण में (लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप पर) रावण की लंका में अशोक वाटिका में सीता जी का होने की सूचना दी।  वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धाकाण्ड/ तिरेपनवाँ सर्ग / श्लोक  15 से 20 

तब हनुमान जी ने लंका के लिए छलांग लगाई।

फिर हनुमान जी लंका में अशोक वाटिका में सीता जी से मिले, विभिषण से मिले, लंका जलाई, निकुम्भला के मन्दिर और मूर्तियाँ तोड़ी। फिर सीता जी का सन्देश लेकर वानर दल वहाँ से वापस लौटकर किश्किन्धा पहूँचे। सुग्रीव और श्री रामचन्द्र जी को सीता जी की जानकारी दी और सन्देश दिया।

तब जाकर श्रीरामचन्द्र जी और सुग्रीव ने युद्ध का निर्णय किया। फिर सेना तैयार की गई, पहाड़ खोदने और वृक्ष उखाड़ने/ काटने के बड़े-बड़े यन्त्र लेकर पश्चिम घाट पर यात्रा करके केरल के कोझिकोड पहुँचे। तीन दिन समुद्र से प्रार्थना कर मार्गदर्शन मांगा। तब समुद्र ने मार्गदर्शन दिया। और नल-नील का परिचय दिया। तब सेतु निर्माण प्रारम्भ हुआ। वाल्मीकि रामायण/युद्ध काण्ड/ बाईसवाँ सर्ग/ श्लोक 45 से 65

फिर नल-नील के नेतृत्व में केरल के कोझिकोड से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप तक तीन सौ किलोमीटर का रामसेतु पाँच दिन में बनाया। वाल्मीकि रामायण/युद्ध काण्ड/ बाईसवाँ सर्ग/ श्लोक  69 से 72

तब वानर सेना ने रावण की लंका में प्रवेश किया।

तब अवलोकन और अध्ययन कर रावण पर आक्रमण किया।

वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ बानवेंवाँ सर्ग/ श्लोक 66-67 के अनुसार 
मेघनाद वध से दुःखी और क्रुद्ध रावण को दी गई राय के आधार पर अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को  रावण द्वारा पूर्ण तैयारी से श्री रामचन्द्र जी के विरुद्ध युद्ध होना निश्चित हुआ।
और 
वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ आठवाँ सर्ग/ श्लोक 17-23 के अनुसार
अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को सन्ध्या समय हुए इस अन्तिम युद्ध में ही श्री रामचन्द्र जी द्वारा रावण की छाती पर मारा बाण रावण का हृदय वेधता हुआ आर-पार हो गया और पहले धरती में धँस गया। फिर तरकस मे लौट आया।
रावण की मृत्यु होते ही रावण की मृत शरीर रथ से धरती पर गिर पड़ा।
अतः श्री रामचन्द्र जी द्वारा लक्ष्मण जी को रावण के पास राजनीति सीखने की बात शुद्ध गप्प है।
तत्पश्चात्  रावण की अन्त्येष्टि और विभिषण का राज्याभिषेक के उपरान्त विभिषण सीता जी को लेकर आया। उसके बाद ही श्री रामचन्द्र जी को पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या के लिए रवाना हुआ।
चैत्र शुक्ल पञ्चमी के दिन श्री रामचन्द्र जी सीता जी और लक्ष्मण जी तथा हनुमान जी, सुग्रीव सहित महर्षि भरद्वाज के आश्रम पर पहूँचे। दुसरे दिन भरत द्वारा विनय करने पर चैत्र शुक्ल पष्ठी के दिन श्री रामचन्द्र जी सीता जी और लक्ष्मण जी तथा हनुमान जी, सुग्रीव सहित अयोध्या पहूँचे। वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/ एकसौ चौबीसवाँ सर्ग/ श्लोक १

अतः *रावण वध तिथि अमान्त फाल्गुन/पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या है। आश्विन शुक्ल दशमी (दशहरा) नहीं है।* 
और
*श्री रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने की तिथि चैत्र शुक्ल पष्ठी है; अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण दीपावली को नहीं।* 
ये सब बाबा वाक्य जो हम बचपन से सुनते आये कितने गलत थे।
मतलब हमें हमारे शास्त्रों का अध्ययन नहीं होने के कारण न तो अपने व्रत-पर्व, उत्सव और त्योहारों का समुचित कारण ज्ञात है, न व्रत-पर्व, उत्सव और त्योहार मनाने की सही विधि भी ज्ञात नहीं है।

सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

धर्मशास्त्रोक्त मत और कुल परम्परा में भेद हो तो क्या करें?

धर्मशास्त्रोक्त मत और कुल परम्परा में भेद हो तो क्या करें?
आर्य समाज को छोड़कर सनातनी धर्म के शेष सभी पन्थ और आचार्यगण कुल परम्परा का भी समादर करते हैं।
मैरे द्वारा प्रेषित व्रत,पर्व, उत्सव और त्योहार आचार्य हेमाद्रिपंत की चतुर्वर्ग चिन्तामणी, सायणाचार्य के बड़े भाई माध्वाचार्य के ग्रन्थ कालमाधव, आचार्य कमलाकर भट्ट रचित निर्णय सिन्धु और निर्णयसिन्धु के निर्णयों पर आधारित काशीनाथ शास्त्री उपाध्याय पांडुरंग रचित धर्मसिन्धु ग्रन्थों पर आधारित और वेधशाला से प्रमाणित वेदतुल्य / दृक्तुल्य केतकी अयनांश वाली पञ्चाङ्गों पर आधारित रहते हैं।
नवरात्र में भी कुछ नियम हैं। मालवा-निमाड़ अंचल में बङ्गाल, उड़िसा, असम, मेघालय, मणिपुर आदि पूर्वी और उत्तर पूर्वी भारत में प्रचलित गोड़ मत अप्रचलित है, और बहुत से विषयों में आचार्य हेमाद्रिपंत नें चतुर्वर्ग चिन्तामणी में आचार्य कमलाकर भट्ट ने निर्णय सिन्धु ग्रन्थ में गोड़ मत को गलत सिद्ध किया है इसलिए उसपर चर्चा नहीं करेंगे।
लेकिन इन आचार्यों ने भी कुल परम्परा को उस कुल के लोगों को मानने पर आपत्तिजनक नहीं माना है।
वास्तव में कुल परम्परा देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार तत्कालीन परिस्थियाँ रहने तक के लिए उस समय के कुलपति द्वारा शास्त्रीय पद्यति में आवश्यकता अनुसार संशोधित किया गया था। लेकिन अब वे केवल रूढ़ि बन चुकी है। जबकि,
वैज्ञानिक आधारों और दीर्घकालिक अनुभवों को जाँच परखकर शास्त्रीय नियम निर्धारित किए गए थे। जो उस मत, पन्थ और सम्प्रदाय को मानने वालों पर समान रूप से लागू होते हैं।

उदाहरणार्थ नवरात्र में देवकर्म होने के कारण देवी सम्बन्धित पूजा आदि कार्यों में प्रातः काल को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। द्वितीय क्रम पर पर्वकाल को। यथा दीपावली के पाँच दिनों में दीपदान प्रदोषकाल में ही उपयुक्त है।
दसरा (दशहरा) पर अभिजित मुहूर्त और विजय मुहूर्त का महत्व है।
काली पूजा और भैरव पूजा में प्रदोषकाल से भी अधिक महत्वपूर्ण महानिशिथ काल माना गया है।

 सप्तमी, अष्टमी और नवमी तीनों तिथियों में व्रत रखकर देवी पूजन करने का शास्त्रीय नियम है। शास्त्रोक्त मतानुसार महाष्टमी और महानवमी की संधि पूजा अष्टमी समाप्ति के चोबीस मिनट पहले से नवमी प्रारम्भ होने के चोबीस मिनट बाद तक के एक मुहूर्त काल में ही संधि पूजा होनी चाहिए। उसके अलावा नवमी को व्रत रखना और नवमी तिथि में देवी पूजन आवश्यक कहा गया है।
लेकिन कुल परम्परा में कुछ लोग पञ्चमी पूजते हैं, कुछ षष्ठी पूजते हैं, कुछ सप्तमी पूजते हैं।
 कोई अष्टमी ही पूजते हैं तो कोई नवमी ही पूजते हैं । 
उसपर भी कुछ प्रातः काल में पूजा करते हैं तो कुछ सायंकाल में तो कुछ रात्रि में पूजते हैं।
दीपावली में धन तेरस को धन्वन्तरि पूजन के स्थान पर धन की पूजा करते हैं। रूप चौदस को चतुर्दशी तिथि के उत्तरार्ध में दीपावली के दिन के सूर्योदय से पहले अरुणोदय काल (सूर्योदय से 01 घण्टा 36 मिनट पहले) तेलाभ्यङ्ग स्नान कर उदयीमान चन्द्रमा को अर्घ्य देकर पूजन करने के स्थान पर चान्दी की पूजा करते हैं।
दीपावली को प्रदोषकाल (सूर्यास्त से 02 घण्टे 24 मिनट के बीच) में दीपदान कर प्रदोषकाल में स्थिर वृषभ लग्न में लक्ष्मी पूजा करने का शास्त्रीय नियम है। और काली उपासकों को महानिशिथ काल (ठीक मध्यरात्रि से 24 मिनट पहले से 24 मिनट बाद तक के बीच) में महाकाली पूजन किया जाने का विधान है। लेकिन कोई प्रातः काल में, कोई दोपहर में चौघड़िया देखकर लक्ष्मी पूजा करते हैं।
सबकी परम्परा अलग-अलग है। आचार्य, शास्त्री और सदाचारी पुरोहित तो शास्त्रीय मत ही बतलाएंगे। अच्छी पञ्चाङ्गों में भी शास्त्रीय मत ही प्रकाशित होता है।
लेकिन लोभ-लालच वश या लोकिक परम्पराओं के सम्मान में पञ्चाङ्ग प्रकाशक और पुरोहित विभिन्न मुहूर्त बतलाने को बाध्य हैं।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

ललिता पञ्चमी व्रत।

गुजराज, महाराष्ट्र और आंशिक रूप से कर्नाटक में प्रचलित देवी त्रिपुर सुन्दरी की पूजा का पर्व ललिता पञ्चमी व्रत 07 अक्टूबर 2024 सोमवार को है।

ललिता पञ्चमी के दिन कामनाओं की देवी शाक्त सम्प्रदाय की प्रमुख इष्ट षोडषी त्रिपुर सुन्दरी ललिता देवी का प्रादुर्भाव कामदेव के शरीर की राख से भाण्डा नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था। इन्हें शंकर जी के उपर बैठा हुआ दर्शाया जाता है। 
वेदों में जो महत्व वाक देवी का है, वही महत्व पौराणिकों में नारायण की योगनिद्रा देवी का है। और वही महत्व शाक्त सम्प्रदाय में त्रिपुर सुन्दरी का है। लेकिन श्रीविद्या के तान्त्रिक उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है।
ललिता पञ्चमी के दिन ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ विशेष तौर पर किया किया जाता है। 
देव्य अथर्वशीर्ष के मन्त्र 
ऋग्वेद मण्डल 10 के 125 वे सूक्त - वाक सूक्त या देवी सूक्तम की व्याख्या रूप देव्य अथर्वशीर्ष के मन्त्र संख्या और अर्थ सहित।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित दूर्गा सप्तशती से उद्धृत -

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः । 
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ।। देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 14

काम (), योनि (), कमला (), वज्रपाणि-इन्द्र (), गुहा (ह्रीं), , -वर्ण, मातरिश्वा - वायु (), अभ्र (), इन्द्र (), पुनः गुहा (ह्रीं), , , -वर्ण और माया (ह्रीं) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ।

ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष, और बाण धारण करने वाली हैं । ये श्रीमहाविद्या हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है । 
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् । 
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 18
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 19
वियत्-आकाश () तथा 'ई'कार से युक्त, वीतिहोत्र -अग्नि () सहित, अर्धचन्द्र से सुशोभित जो देवीका बीज है, वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान का सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता) है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान- क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।) । 
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।        सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः। 
          विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥ देव्य अथर्वशीर्ष मन्त्र 20

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (), 'अवाम श्रोत्र' - दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्णमन्त्र उपासकों को परमानन्द  एवं मोक्षप्रदाता है । 

[इस मन्त्रका अर्थ- हे चैतन्यस्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सत्यस्वरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम निरन्तर आपका ध्यान करते हैं । हे महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।]
का जप किया जाता है।⤵️
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं *क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल* ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।

इसे तान्त्रिक लोग कादी मन्त्र के रूप में जानते हैं। इसे ही विकृत कर भिन्न-भिन्न अक्षरों का क्रम बदलकर कादी-हादी आदि सात रूपों में जपते हैं।

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

सुसंस्कृत पञ्च महायज्ञ कर्ता में ही निरहंकारिता होती है

संस्कारित व्यक्ति वह है, जिसे पञ्च महायज्ञ करने के संस्कार हो।
पञ्चमहायज्ञ कर्ता में अहंकार इसलिए नहीं होता क्योंकि वह जीवनभर  
1 पुराने लोगों के ज्ञान और पराक्रम से प्राप्त ज्ञान प्राप्त होने और सुख सुविधाओं को भोग पाने का ऋषि ऋण जानते हुए अगली पीढ़ी के लिए स्वयम् भी कुछ देकर जाने की भावना से ऋषि ऋण उतारने के लिए वेदाध्ययन- अध्यापन करना, शास्त्राध्ययन-अध्यापन करना, सत्सङ्ग करना, त्रिकाल सन्ध्या करना, अष्टाङ्ग योग साधना करना, दैनिक अग्निहोत्र करके ब्रह्मज्ञज्ञ करता रहता है। उसे अहंकार हो ही नहीं सकता।
देवताओं, पञ्च महाभूतों की कृपा से निशुल्क प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों के अत्यावश्यक दोहन के लिए भी देव ऋण से उऋण होने के लिए देव यज्ञ कर सदैव स्वाहा करने के पश्चात बोलता हैकि,
 इदम् विष्णवै, न मम्। इदम ब्रह्मणे, न मम्। इदम सवित्राय, न मम। इदम् नारायणाय, न मम्।  इदम हिरण्यगर्भाये, न मम्। इदम त्वष्टाये, न मम। इदम् प्रजापतये, न मम। इदम् वाचस्पतत्यै न मम्। इदम् इन्द्रायै, न मम्। इदम् ब्रह्मणस्पत्यै, न मम। इदम आदित्यायै, न मम। इदम् ब्रहस्पतयै, न मम। इदम् वसवै, न मम् । इदम् पशुपतयै, न मम। इदम् रुद्रायै, न मम। इदम् गाणपत्यै, न मम् इदम् सोमाय, न मम्। इदम् सदसस्पतयै, न मम्। इदम् मही देव्यायै, न मम्। इदम् भारती देव्यायै, न मम्। इदम सरस्वत्यै, न मम।इदम् ईळायै, न मम।
जो इतनी बार स्व का हनन करने हेतु स्वाहा बोले और साथ में कहता जाए कि, यह मैरा नहीं है। उसे स्वप्न में भी अहंकार कहाँ से होगा?
मानव समाज से जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सहयोग के बलबूते पर ही जीवन सफल हुआ यह जानकार नृऋण से उऋण होने हेतु अतिथियों की व्यवस्था करना, बुजुर्गो, असहायों, असमर्थों, रूग्ण जनों, बालको, अबलाओं, गुरुकुलों और संन्यासियों की सेवा सहायता करके अतिथि यज्ञ / मानव यज्ञ/ नृयज्ञ सम्पन्न करने वाले को अहंकार कैसा?
सूर्य, ताराओं, चन्द्रमा, आकाश, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि, जल, भूमि, गौ, वृषभ, अजा, आदि पशु-पक्षियों और पैड़-पौधे से लेकर, कवक- शैवाल तक और अदृश्य सुक्ष्म जीवियों की सहायता से श्वसन,पानी, भोजन,  आवास, दूध- सब्जी , अनाज आदि प्राप्त करने का ऋण जानकर उक्त सबकी यथायोग्य सेवार्थ पर्यावरण स्वच्छता, गृह से लेकर नगर तक और बाग-बगीचे , नदी -तालाब, कुए-बावड़ी, वन आदि सबकी स्वच्छता रखना, वृक्षारोपण, पेड़-पौधों को खाद-पानी, निन्दाई- गुड़ाई, कटनी-छटनी कर उन्हें रोग मुक्त रखना, पशु- पक्षियों को भोजन, दाना- पानी,छाँव, आवास देना, सेवा सुश्रुषा करके भूत यज्ञ करने वाले को अहंकार पालने की समय ही कहाँ रहेगा।

दिवंगत मात-पिता, दादा- दादी, नाना- नानी,ताऊ, काका-भुआ, ताई-काकी,  भाई- बहन, भाभी आदि पितृपक्ष की सात पीढ़ी और मातृ पक्ष की पाँच पीढ़ी के दिवंगत नर-नारियों का तथा आस-पड़ोसी, जाने-अनजाने, सेवकों, स्वामियों की ब्रह्म भोज, कन्या भोजन, गौदान, कुए- बावड़ी, तालाब , बाग-बगीचे, धर्मशाला- सदाव्रत खोलने, शाला, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औषधालय, चिकित्सालय आदि बनवाने की अपूर्ण अभिलाषा और अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु यथा शक्ति समुचित सहयोग, अर्थ और श्रमदान करके सबका श्राद्ध-तर्पण कर पितृ यज्ञ करने वाले और उक्त समस्त धर्म कर्म पूर्ण करने अधिकारी होने के लिए अगली पीढ़ी को जन्म देकर उनका समुचित पालन-पोषण, शिक्षण, स्वास्थ्य चर्या कर बढ़ा कर सुदृढ़, सक्षम और संस्कारवान बनाने वाले को अहंकार कैसा?

यह है ब्राह्म धर्म है - वैदिक धर्म। इसे ब्राह्मण धर्म भी कहते हैं।
इसमें केवल वामाचारी, तान्त्रिकों, नास्तिकों, अधर्मियों और पैशाच धर्मियों को ही आपत्ति हो सकती है।
इसमें न मन्दिर है, न मूर्ति पूजा, न मान- मन्नत, न टोने-टोटके केवल अपने-अपने कर्तव्य पूर्ण करना है।
स्वाभाविक है देवगण और देवता भी उनके कर्तव्य पूर्ण कर आपकी आवश्यकताएँ पू्ण करेंगे।

श्राद्ध कर्म की विस्तृत जानकारी त्रयंम्बकेश्वर तीर्थ पूरोहित श्री भूषण साम्ब शिखरे नासिक के अनुसार ।

यह सन्देश मुझे  नासिक जिला - त्र्यंबकेश्वर के तिर्थ पुरोहित श्री भूषण साम्भ शिखरे महोदय द्वारा प्रेषित किया गया। 
यह पूरा संकलन एवम् सम्पादन जबलपुर के श्री अरुण शास्त्री जी का है।
सन्देश अग्रेषित है। इसमें मेरा किञ्चित भी योगदान नही है। न ही ये मेरे विचार हैं।
लेकिन आस्थावान जनों की जिज्ञासा शान्त करनें की दृष्टि से अग्रेषित किया गया है।

#श्राद्ध_की_परिभाषा---------!!
पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है-उसे श्राद्ध कहतेहै--
#श्रद्धया_पितृन्_उद्दिष्य_विधिना_क्रियते_यत्कर्म_तत्_श्राद्धम्!

श्रद्धा से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है!

#श्रद्धार्थमिदं_श्राद्धम्--#श्रद्धया_कृतं_सम्पादितं_श्रद्धया_दीयते_यस्मात्_तच्छ्राद्धम्**#तथा_श्रद्धादौ_इदं_श्राद्धम्।

अर्थात अपने मृत पितृगणों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कर्मविशेषं को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है।
इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं!जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों ,पुराणों ,वीरमित्रोदय ,श्राद्धकल्पलता, श्राद्ध तत्व ,पितृदयिता आदि अनेक ग्रंथो में प्राप्त होता है।

महर्षि पराशर के अनुसार देश,काल तथा पात्र में हविष्यादि विधिद्वार जो कर्म तिल(यव)और दर्भ (कुश)तथा मन्त्रो से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध है।
 महर्षि वृहस्पति तथा श्राद्ध तत्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के अनुसार--
जिस कर्म विशेष में दुग्ध-घृत-मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाए हुये)उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए,उसे श्राद्ध कहते है!
इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा हुआ है--देश काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाए उसे श्राद्ध कहते है। #देशे_काले_च_पात्रे_विधिना_हविषा_च_यत्।
#तिलैर्दर्भैश्च_मन्त्रैश्च_श्राद्धम्_स्याच्छ्रद्धया_युतम्।।
#संस्कृतं_व्यंजनाद्यं_च_पयोमधुघृतान्वितम्।
#श्रद्धया_दीयते_यस्माच्छ्राद्धं_तेन_निगद्यते।।
#देशे_काले_च_पात्रे_च_श्रद्धया_विधिना_च_यत्।
#पितृनुद्दिष्य_विप्रेभ्यो_दत्तं_श्राद्धमुदाहृतम्।।
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#श्राद्ध_कर्ता_का_भी_कल्याण--!!
जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध कर्ता है,वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार चक्र में नही आता ।
#योनेन_विधिना_श्राद्धं_कुर्याद्_वै_शान्तमानस:!
#व्यपेतकल्मषो_नित्यं_याति_नावर्तते_पुनः!!
 अतः प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये भी श्राद्ध करना चाहिये।
इस संसार मे श्राद्ध करने वाले के लिये श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नही है।
इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा की गयी है----:
#श्राद्धात्_परतरं_नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम्।
#तस्मात्_सर्वप्रयत्नेन_श्राद्धं_कुर्याद्विचक्षण:!!
 अर्थात-इस जगत में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नही है,अतः वुद्धिमान मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
इतना ही नही ,श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु बढ़ा देता है,पुत्र प्रदानकर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है,धन-धान्य की वृद्धि करता है, शरीर मे बल पौरुष की वृद्धि का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है!
यथा--: #आयु:#पुत्रान्_यथा_स्वर्गं_कीर्तिं_पुष्टिं_बलं_श्रियम्।
#पशून्_सौख्यं_धनं_धान्यं_प्राप्नुयायात्_पितृपूजनात्।।

प्रश्न नही स्वाध्याय करे
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||---#श्राद्ध_से_मुक्ति---||
इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुखमय तो बनाता ही है, परलोक भी सुधारता है और अंत मे मुक्ति भी प्रदान करता है--
#आयु:प्रजां_धनं_विद्यां_स्वर्गं_मोक्षं_सुखानि_च ।
#प्रयच्छन्ति_तथा_राज्यं_पितरःश्राद्ध_तर्पिता:।।
मार्कण्डेय पुराण
 अर्थात श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्ध कर्ता को दीर्घ आयु ,सन्तति,धन, विद्या,राज्य ,सुख,स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते है।
अत्रि संहिता का वचन है--जो पुत्र भ्राता पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकर्म (श्रद्धानुष्ठान)-में संलग्न रहते हैं ,वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं।
#पुत्रो_व_भ्रातरो_वापि_दौहित्र:#पौत्रकस्तथा!
#पितृकार्ये_प्रसक्ता_ये_ते_यान्ति_परमां_गतिम्।।(सुमन्तु)
यहां तक लिखा है कि जो श्राद्ध कर्ता है ,जो उसके विधि विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है प्रेरित करता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है --इन सबको श्राद्ध का पुण्य फल अवश्य प्राप्त होता है। #उपदेष्टा_नुमन्ता_च_लोके_तुल्य_फलौ_स्मृतौ--बृहस्पति
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#श्राद्ध_न_करने_से_हानि----इसलिये श्राद्ध अवश्य करे||

 शास्त्र ने श्राद्ध न करने से होनेवाली जो हानि बताई है उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते है।
अतः श्राद्ध तत्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिये तत्पर रहना अत्यंत आवश्यक है।
यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी नही ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न जल)कैसे ले जा सकते है?
उस समय उसके सगे सम्बन्धी श्राद्ध विधि से जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है।शास्त्र ने मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है, सर्वप्रथम शवयात्रा के अंतर्गत छ:पिंड दिए जाते है
 जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत -पिशाचों द्वारा होनेवाली वाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
इसके साथ ही दशगात्र में दिए जानेवाले दश पिंडो के द्वारा जीव को आतिवाहक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है।
 मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई ।
अब आगे उसे पाथेय (रास्ते के भोजन --अन्न जल आदि--)की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तम षोडसी में दिए जाने वाले पिण्डदान से उसे प्राप्त होता है।यदि सगे -सम्बन्धी पुत्र -पौत्रादि न दे तो भूख-प्यास से उसे वहां महादारुण दुख होता है----:::
 #लोकांतरेषु_ये_तोयं_लभन्ते_नान्यमेव_च।
#दत्तं_न_वंशजैर्येषां ते_व्यथां_यान्ति_दारुणम्।---सुमन्तु..
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 #श्राद्ध_न_करने_वाले_को_कष्ट---।
श्राद्ध न करने वाले को भी पग पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है।
 मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करनेवाले अपने सगे सम्बन्धियो का रक्त चूसने लगता हैं----:
 #श्राद्धं_न_कुरुते_मोहात्_तस्य_रक्तं_पिवन्ति_ते--ब्र-पु--
साथ ही साथ वह श्राप भी देते हैं---
#पितरस्तस्य_शापं_दत्वा_प्रयान्ति_च-नागरखण्ड-!
 फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही सहन करना पड़ता है।उस परिवार में पुत्र नही उत्पन्न होता ,कोई निरोग नही रहता,लंबी आयु नही होती,किसी तरह का कल्याण प्राप्त नही होता और मरने के बाद नरक भी जाना पड़ता है।
#न_तत्र_वीरा_जायन्ते_नारोग्यं_न_शतायुष:।
#न_च_श्रेयोधिगच्छन्ति_यत्र_श्राद्धं_विवर्जितम्--हारीत--
#श्राद्धमेतन्न_कुर्वाणो_नरकं_प्रति_पद्यते--विष्णु स् ---
 उपनिषद् में भी कहा गया है--#देवपितृ_कार्याभ्यां_न_प्रमदितव्यम्--तै-उप-१-११-१अर्थात देवता तथा पितृ कार्यो में मनुष्य को कदापि प्रमाद नही करना चाहिये।
प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।
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#पितरों_को_श्राद्ध_प्राप्ति_कैसे_होती_है?
 यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियां पितरों को कैसे मिलती है, क्योकि विभिन्न कर्मो के अनुसार मृत्यु के वाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है।
कोई देवता,कोई पितर, कोई प्रेत ,कोई हाथी, कोई चींटी ,कोई वृक्ष, कोई तृण,!

श्राद्ध में दिए गए छोटे से छोटे पिंड से हाथी का पेट कैसे भरेगा?
इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिंड को कैसे खा सकती है?
देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ?

इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम गोत्र के माध्यम से विश्वेदेव एवं अग्निश्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कब्य को पितरों प्राप्त करा देते हैं।
 यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया तो दिया गया अन्न उसे वहां अमृत रूप होकर प्राप्त हो जाता है।मनुष्य योनि में अन्न रूप में तथा पशु योनि में तृण रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है।नागादि योनियों में वायु रूप से ,यक्ष योनि में पान रूप से,तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थो के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है---
#नाममन्त्रास्तथा_देशा_भवन्तरगतानपि ।
#प्राणिन:#प्रीणयन्त्येते_तदाहारत्वमांगतान्।।
#देवो_यदि_पिता_जात:#शुभकर्मानुयोगत:!
#तस्यान्नममृतं_भूत्वा_देवत्वेप्यनुगच्छति ।।
#मर्तयत्वे_ह्यन्नरूपेण_पशुत्वे_च_तृणं_भवेत्।
#श्राद्धान्नं_वायुरूपेण_नागत्वे_प्युपतिष्ठति।।
#पानं_भवति_यक्षत्वे_नाना_भोगकरं_तथा--÷
 जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न- किसीप्रकार ढूढ ही लेता है,उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी न- किसी प्रकार पहुंचा ही देता है।
नाम गोत्र,ह्रदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्प पूर्वक दिए हुए पदार्थो को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुंचा देता है।
जीव चाहे सैकड़ो योनियों को भी पार क्यो न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
#यथा_गोष्ठे_प्रणष्टां वै_वत्सोविंदेतमातरम्।
#तथा_तं_नयते_मन्त्रोजंतुर्यत्रावतिष्ठते।।
#नामगोत्रं_च_मन्त्रश्च_दत्तमन्नंनयन्ति तम्।
#अपि_योनि_शतं_प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति।
 #नामगोत्रंपितृणाम्_तु_प्रापकं_हव्यकव्ययो:!
श्राद्धस्यमन्त्रस्तस्तत्त्वमुप_लभ्येत्भक्तित:!!
#अग्निश्वात्तादयस्तेषामधिपत्येव्यवस्थिता:!
#नाम_गोत्रास्तथा_देशा_भवन्त्युद्भवतामपि!!
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#ब्राह्मण_भोजन_से_भी_श्राद्ध_की_पूर्णता!!
सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रकिया है---१पिण्डदान और २-ब्राह्मण भोजन
मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वे मन्त्रो द्वारा बुलाये जाने पर उन -उन लोको से तत्क्षण श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं।
सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्मकणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं।वेद ने बताया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है----:
#इममोदनंनिदधे_ब्राह्मणेषु_विष्टारिणम्_लोकजितं_स्वर्गम्।अथर्व-४-३४-८)
(इमं ओदनम् )इस ओदनोपलक्षित भोजन को (ब्राह्मणेषु नि दधे)ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूं ।यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्ग लोक को जीतने वाला है।
इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनु ने लिखा है---:
#यस्यास्येनसदास्न्नती_हव्यानित्रिदिवौकस:!
#कव्यानिचैवपितरः#किं_भूतमधिकं_तत:!
अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर क़व्य को ग्रहण करते हैं।
पितरों के लिये लिखा है-कि ये अपने कर्मवश अंतरिक्ष मे वायवीय शरीर धारण कर रहते हैं।अंतरिक्ष मे रहनेवाला इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है-----यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है।
ये मनोजव होते हैं अर्थात इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है।ये स्मरण से ही श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं।इनको सब लोग इसलिये नही देख पाते क्योकि इनका शरीर वायवीय होता है--!
#तस्य_तेपितरः#श्रुत्वाश्राद्धकालमुपस्थितम्।
#अन्योन्यंमनसा_ध्यात्वा_सम्पतन्तिमनोजवा:!!
#ब्राह्मणैस्तेसहास्नन्तिपितरो_ह्यन्तरिक्षगा:!
#वायुभूतास्तुतिष्ठन्ति_भुक्त्वायान्ति_परांगतिम्।कूर्म-उ वि२२!३-४
इस विषय मे मनुस्मृति में भी कहा गया है--श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों में पितर  गुप्त रुप सेनिवास करते है।
प्राणवायु की भांति उनके चलते समय चलते हैं और वैठते समय वैठते है।श्राद्धकाल मे निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप या वायु रूप में पितर आते हैं-----!:
#निमंत्रितान्_हि_पितरउपतिष्ठन्तितान्_द्विजान्।
#वायुबच्चानुगच्छन्ति_तथासीनानुपासते।।मनु-३/१८९
मृत्यु के उपरांत पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नही पाता।शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि----:
#तिर_इव_वैपितरो_मनुष्येभ्य:"(२!३!४!२१)
अर्थात सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यो से छिपे हुए से होते हैं।अतएव सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ये जल अग्नि तथा वायु प्रधान होते हैं, इसलिये लोक -लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नही हो.
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#धना_भाव_मे_भी_श्राद्ध_की_सम्पन्नता???

धन की परिस्थिति सबकी एक -सी नही रहती । कभी कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है,इस दृष्टि से शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है --
यदि अन्न खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध कर देना चाहिये--- #तस्माच्छ्राद्धंनरो_भक्त्या_शाकै_रपि_यथा_विधि--!
यदि शाक खरीदने में भी असमर्थ हो तो तृण काष्ठ आदि को वेचकर द्रव्य एकत्रित करें और उन पैसों से शाक ख़रीदकर श्राद्ध करे--
#तृणकाष्ठार्जनंकृत्वा_प्रार्थयित्वा_वराटकम्।
#करोति_पितृ_कार्याणि_ततो_लक्षगुणो_भवेत्।।-
अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है-अतः फल लाख गुना होता है।
--देशविशेष और कालविशेष के कारण लकड़ियाँ भी नही मिलती !ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया है कि घास से श्राद्ध हो सकता है। घास काटकर गाय को खिला दे।यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है ।इसके साथ ही इसने इस सम्बंध की एक छोटी सी घटना प्रस्तुत की है--
 एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यंत ग्रस्त था!उसके पास इतना पैसा नही था कि शाक खरीदा जा सके ।इस तरह वह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह नही था।आज ही श्राद्ध तिथि थी।'"कुतप काल "भीआ पहुंचा था।इस काल के वीतने पर श्राद्ध नही हो सकता था।वेचारा घबरा गया--रो पड़ा--श्राद्ध करे तो कैसे करें??एक विद्वान ने उसे सुझाया --अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरो के नाम पर गाय को खिला दे ।वह दौड़ गया और घासकाटकर गायों को खिला दी ।इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देवलोक की प्राप्ति हुई --
#एतत्_पुण्य_प्रसादेन_गतोसौसुरमन्दिरम्-
 ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि घास का भी मिलना सम्भव नही होता।तब श्राद्ध कैसे करें??
शास्त्र ने इसका समाधान यह किया है कि श्राद्धकर्ता को देश कालवश जब घास का भी मिलना सम्भव न हो ,तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाये।दोनों भुजाओं को उठाकर निम्नलिखित श्लोक से पितरो की प्रार्थना करे--
#न_मेस्ति_वित्तं_न_धनं_च_नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं_स्वपितृन्नतोस्मि।
#तृप्यन्तु_भक्त्या_पितरो_मयेतौ_कृतौ_भुजौ वर्तम्नि_मारुतस्य!!
 अर्थात हे मेरे पितृगण ।मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है ,न धान्य आदि है।हाँ मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति  है।में इन्ही के द्वारा तृप्त करना चाहता हूं।आप तृप्त हो जाये।मैंने(शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप )दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

         #यह_स्मरण_अवश्य_रखे!!
 श्राद्ध कार्य मे साधन धन सम्पन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य (कंजूसी) नही करनी चाहिये---
#वित्तशाठ्यम्_न_समाचरेत्।अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
 उपयुक्त अनुकल्पो से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी- न- किसी तरह श्राद्ध को अवश्य करे।शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दों में श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है।
 श्राद्ध करे ही---
#अतोमूलै:#फलैर्वापितथाप्युदकतर्पणै:#पितृतृप्तिंप्रकुर्वीत् -------!!
श्राद्ध छोड़े नही---
#नैव_श्राद्धम्_विवर्जयेत्।
||व्यर्थ कुछ लिखने से अच्छा है कुछ सार्थक लिखे||
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#श्राद्ध_के_अधिकारी_कौन???
पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है।बहुत पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह की सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये।
विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है।यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है।यदि पुत्र अलग-अलग हो तो उन्हें वार्षिक श्राध्द अलग अलग करना चाहिये----!:
#मृते_पितरि_पुत्रेणक्रिया_कार्या_विधानत:!
#वहव:स्युर्यदापुत्रा:#पितुरेकत्रवासिनः।।

#सर्वेषां_तु_मतं_कृत्वा_ज्येष्ठे_नैव_तु_यत्कृतम्।
#द्रव्येण_चाविभक्तेनसर्वेरैव_कृतं_भवेत्।।---वीरमित्रोदय श्रा0प्र०में प्रचेता का वचन)

#एकादशाद्या:क्रमशो ज्येष्ठस्य विधिवत् क्रिया:।
क़ुर्युर्नैकेकश: श्राद्धमाब्दिकं तु प्रथक् प्रथक्।।--उपरोक्त--

: यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यस्थाये प्राप्त है।स्मृतिसंग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध के अधिकारी पुत्र पौत्र प्रपौत्र दौहित्र(पुत्री का पुत्र)भाई भतीजा भानजा पिता पत्नि माता पुत्र वधु वहिन सपिंड(स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक का परिवार)तथा सोदक (आठवी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के परिवार) कहे गए हैं!यथा----: मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यंतं सपिंडा:,अष्टमारभ्य चतुर्दशपुरूषपर्यंतं सोदका:,पंचदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:।पित्रादयस्त्रयश्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रय:।।

सप्तम:स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यम् वुधै:स्मृतम्। 
सापिंड्यम् सोदकं चैव सगौत्रम् वै क्रमात्।।

एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्।।--लघवाश्वलायन स्मृति--२०/८२-८४)

कहे गए है--इनमें पूर्व -पूर्व के न रहने पर क्रमश: बाद के लोगो का श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है।
 पुत्र पौत्राश्च तत्पुत्रः पुत्रिका पुत्र एव च।
पत्नि भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा!!

भगिनी भागिनेयश्च सपिंड: सोदकस्तथा।
असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदा:स्मृताः।।(स्मृति-सं०,श्राध्द०कल्प०)

 विष्णुपुराण के वचन अनुसार पुत्र पौत्र प्रपौत्र भाई भतीजा अथवा अपनी सपिंड सन्तति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्ध क्रिया करने अधिकारी होता है।यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदक की सन्तति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा समानोदक को इसका अधिकार है।मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर स्त्री ही इस क्रिया को करे अथवा(यदि स्त्री भी न हो तो)साथियों में से ही कोई करे या बाँधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके प्रेत कर्म करावे।

पुत्र:पौत्र:प्रपौत्रोवा भ्राता वा भ्रातृसन्तति:!
सापिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते!!

तेषामभावे सर्वेषां समानोदक सन्तति:!
मातृपक्ष सपिंडेन सम्बद्धा ये जलेन वा ।

कुलद्वेपि चोच्छिन्नो स्त्रिभि: कार्या: क्रिया नृप!!
सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया:!उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनी पति:!!

 हेमाद्रि के अनुसार पिता की पिण्डदानादि क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिये।
(पुत्र के अभाव में पत्नी करे पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिये-)
पितु:पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदक क्रिया।
पुत्राभावे तु पत्नीस्यात् पत्न्यभावे तु सोदर:(हेमाद्रि में शंख का वचन)
 मार्कण्डेय पुराण में बताया गया है कि चूंकि राजा सभी वर्णों का बन्धु होता है।अतः सभी श्राद्धाधिकारी जनों के अभाव होने पर राजा उसमृत व्यक्ति के धन से उसके जाति के बांधवों द्वारा भलीभांति दाह आदि सभी और्ध्वदैहिक क्रिया कराये।।--।।

सर्वाभावे तु नृपति:कारयेत तस्य रिक्वत:!
तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्या: सकला:क्रिया:!!

||सर्वेषामेव वर्णानां वांधवो नृपतिर्यत:||
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शास्त्रों में श्राद्ध के अनेक भेद है, किंतु यहाँ उन्ही श्राद्धों को उल्लेखित किया जाता है ,जो अत्यंत आवश्यक और अनुष्ठेय है---
मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गये है--
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते--!!
नित्य नैमित्तिक और काम्य -भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं||

यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है--नित्य,नैमित्तिक, काम्य,वृद्धि और पार्वण--
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम्।
#पार्वणम् चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं वुधै||
प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राध्द कहते हैं।इसमें विश्वेदेव नही होते तथा अशक्तावश्था में केवल जलप्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है---:

#अहन्यहनि यच्छ्राद्धम् तन्नित्यमिति कीर्तितम्!
#वैश्विदेवविहीनं तदशक्तावुदकेन तु!!
तथा एकोदिष्ट श्राद्धको नैमित्तिक श्राध्द कहते हैं, इसमें भी विश्वेदेव नही होते ।किसी कामना की पूर्ति निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध को काम्यश्राद्ध कहते हैं!
वृद्धिकाल में पुत्रजन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य मे जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृध्दि श्राद्ध (नांदिश्राद्ध)कहते हैं।पितृपक्ष, अमावश्या ,अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव (विश्वेदेव सहित) श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं||
 विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्यपुराण नित्य,नैमित्तिक, वृद्धि,पार्वण ,सपिण्डन, गोष्ठी ,शुद्धयर्थ कर्मांग,दैविक,यात्रार्थ,तथा पुष्ट्यर्थ --ये द्वादश प्रकार के श्राद्ध बताये गये है----÷
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्।
#पार्वणम् चेति विज्ञेयं गोष्ठीम् शुद्धयर्थमष्टकम्।।

#कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्!
#यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम्।।

--------ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गये है ।प्रायः सभी श्राद्धों का अंतर्भाव उपर्युक्त पञ्चश्राद्धों में हो जाता है।
जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्ड का पितृपिण्डो में सम्मेलन किया जाये,उसे सपिण्डन श्राध्द कहते है।
समूहोंमें जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है ,उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं।गर्भाधान, सीमन्तोनयन,तथा पुंसवन आदि संस्कारो के समय जो श्राध्द किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ठ हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो श्राध्द किया जाता है, उसे दैविक श्राध्द कहते हैं!तीर्थ के उद्देश्य से देशांतर जाने के समय घृतद्वारा जो श्राद्धकिया जाता है ,उसे यात्रार्थश्राध्द कहते है!शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिये जो श्राद्ध किया जाता है,उसे पुष्ट्यर्थश्राध्द कहते हैं।

उपर्युक्त सभी श्राद्ध श्रोत स्मार्त्त --भेद से दो प्रकार के होते है।पिण्डपितृयाग--÷÷
(अमावश्यायां पिण्डपितृयाग:--(इस वचन के अनुसार पिंडपितृयाग "अमावश्या के लिए होता है ।इस याग को करने का अधिकार केवल अग्निहोत्री को है)को श्रोतश्राद्ध कहते हैं-और-एकोदिष्ट ,पार्वण ,तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरणतक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्ध के ९६अवसर है।बारह मास की अमावश्याएँ ,सत्ययुग,त्रेतादि,युगों की प्रारम्भ की चार युगादि तिथियाँ,मनुओं के आरंभ की चौदह,मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियाँ, बारह वैधृति योग,बारह व्यतीपात योग,पंद्रह महालय श्राद्ध(पितृपक्ष)पांच अष्टका,पांच अनवष्टका,तथा पांच पूर्वेद्यु:--ये ९६अवसर श्राद्ध के लिये है--||

#अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालया:!
#अष्टकान्वष्टकापूर्वेद्यु:श्राद्धैर्नवतिश्च षट्||
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#मृत्युतिथि_तथा_पितृपक्ष_में_श्राद्ध_करना_आवश्यक---||वर्तमान समय मे अधिकांश मन