महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब के मालव प्रान्त से आकर गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था।बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य उनसे रुष्ट थे। उनने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने उनपर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है। इस कथा में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
गन्धर्वसेन के पुत्र भृतहरि और विक्रमसेन (विक्रमादित्य) और पुत्री मैनावती थी। मैनावती के पुत्र गोपीचन्द थे। भृतहरि की पत्नी पिङ्गला से अलाका, शंख नामक पुत्र हुए।
भविष्य पुराण के अनुसार विक्रमादित्य का जन्म कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत होनें पर अर्थात 101 ईसापूर्व हुआ था। और उनने शतवर्ष राज्य किया।
गन्धर्वसेन की मृत्यु पश्चात शकों के भारत पर आक्रमण के होंसले बुलन्द होगये। महाराज भृतहरि के समय भी अनेकबार शक आक्रमण हुए जिनका सामना उनके छोटेभाई विक्रमसेन (विक्रमादित्य) नें किया।
कलियुग संवत 3068 अर्थात34 ईस्वी में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ के अनुसार करुर नामक स्थान पर शकों को परास्त कर शक विजय कर उज्जैन का राज्य सम्भाला। राज्यारोहण के उपलक्ष्य में कलियुग संवत 3044 आरम्भ दिन में निरयन मेष संक्रान्ति को अर्थात 57 ईसापूर्व में विक्रमादित्य नें विक्रम संवत चलाया।
कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के युधिष्ठिर के वंशज राजा हिरण्य की मृत्यु निस्सन्तान रहते होजानें के कारण अवन्ति नरेश विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य सोपा था। नेपाल के राजवंशावली के अनुसार - नेपाल के राजा अंशुवर्धन के समय विक्रमादित्य नेपाल भी गये थे।
विक्रमादित्य ने अलग अलग देश और संस्कृति की पाँच पत्नियाँ थी मलयावती, मदनलेखा,पद्मिनी, चेल्ल, और चिल्लमहादेवी। जिनसे पुत्र विक्रम चरित और विनयपाल तथा विद्योत्तमा प्रियमञ्जरी और वसुन्धरा हुई।
विक्रमादित्य के राजपुरोहित त्रिविक्रम एवम् वसुमित्र थे। विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति एवम् चन्द्र बतलायें गये हैं। भट्टमात्र जो नौरत्नों में से एक वेतालभट्ट भी कहलाते हैं वे विक्रमादित्य के मित्र थे।
1आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, 2 ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर, 3 महाकवि कालीदास, 4 व्याकरणाचार्य वररुचि, 5 तन्त्राचार्य वेतालभट्ट, 6 अमरकोश अर्थात संस्कृत शब्दकोश रचियता। अमरसिंह, 7 शंकु 8 क्षपणक और 9 घटखर्पर विक्रमादित्य के शासन के नौरत्न थे।
भविष्य पुराण और स्कन्दपुराण तथा तुर्की के शहर इस्ताम्बुल के पुस्तकालय मकतब - ए - सुल्तानिया में रखी अरब के अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में उल्लेख के अनुसार ईरान,अरब, ईराक, सीरिया, टर्की, मिश्र देशों पर विक्रमादित्य की विजय का उल्लेख है और अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में विक्रमादित्य से सम्बन्धित शिलालेख का उल्लेख है; जिसमे विक्रमादित्य को उदार, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, प्रत्यैक व्यक्ति का हितचिन्तक और हितकारी कहकर विक्रमादित्य के शासन काल में जन्में और जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को सौभाग्यशाली कहा है। साथ ही कहा है विक्रमादित्य नें मिश्र, टर्की, सीरिया, ईराक, सऊदी अरब, यमन और ईरान में वेदिकधर्म के प्रकाण्ड पण्डित विद्वानों को भेजकर ज्ञानप्रकाश फैलाया।
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