मंगलवार, 7 मई 2024

निरन्तर स्मरण बनये रखना ही ध्यान है, भक्ति साध्य है, लक्ष्य है; साधन नही।

निरन्तर स्मरण बनये रखना ही ध्यान है, न कि; नाम जप, नाम स्मरण । भक्ति साध्य है, लक्ष्य है; साधन नही। भक्ति न भजन-कीर्तन है, न नाम जप।  

वैदिक शास्त्रीय नियम तो यह है कि, धर्म पालन युक्त सदाचारी जीवन जीते हुए पञ्च महायज्ञ और अष्टाङ्ग योग के आचरण द्वारा प्रत्येक श्वास प्रश्वास स्वयम् की जानकारी में  और नियन्त्रण में ही लेते छोड़ते हुए,देह के समस्त आन्तरिक तन्त्र (सिस्टम) और संस्थान स्वयम् के नियन्त्रण में रखते हुए संचालित होते हुए नियमित , संयमित और सजग जीवन जीना। इसके साथ ही ईशावास्यम् इदम सर्वम्। सर्व खल्विदम् ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि का बोध सहित ध्यान हर पल होना चाहिए, हर श्वास-प्रवास के साथ सोऽहम् का ध्यान रहना ही चाहिए। यही ज्ञान है;  मानव देह का सदुपयोग भी यही है।
प्रत्येक श्वास प्रश्वास आपकी जानकारी में आपके नियन्त्रण में ही चले देह के समस्त आन्तरिक तन्त्र (सिस्टम) और संस्थान आपके नियन्त्रण में हो इसके लिए अष्टाङ्ग योग आवश्यक है। सम्पूर्ण जीवन ऋत के अनुकूल हो इसलिए पञ्च महायज्ञ आवश्यक है।

लोग बोलते हैं सन्त कहते हैं कि,
यदि भावना सही है तो क्रिया में गलती भी क्षमा हो जाती है।
तो भाई सन्तों की बात मानकर अच्छी भावना से गरम प्रेस पर हाथ रखकर देख लेना; अकल ठिकाने आ जाएगी।
वैदिक ऋषि मुर्ख नहीं थे जिनने सभी क्रिया विधि और निषेध जारी किये।

लोग बोलते हैं सन्त कहते हैं नाम जप करो। इससे ही पञ्च महायज्ञ की पूर्ति हो जाएगी। शायद उनके अनुसार तो केवल नाम जप से अष्टाङ्ग योग भी हो ही जाता होगा। और नाम जप करके लोग स्वस्थ्य,सुघड़, सुन्दर हो गये होंगे पर मुझे तो एक भी नहीं दिखा।
जबकि श्रीकृष्ण ने "श्रीमद्भगवद्गीता 06/35 में कहा है कि,
हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है  (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र  (यह) अभ्यास और वैराग्य से  वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से ही काबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35

【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के गुणों और लीलाओं का भजन - कीर्तन, भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन श्रवण, मनन, चिन्तन तथा प्रणायाम पूर्वक जप अर्थात श्वास- प्रश्वास पर भी ध्यान देना और फिर सजगता पूर्वक ॐ या गायत्री मन्त्र के अर्थ और भाव को भी ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण सजगता पूर्वक जप करना  इत्यादिक चेष्ठाओं से है। यह बात श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से वर्णित है। बल्कि निष्काम कर्म युक्त बुद्धियोग के लिए से यही साधन बतलाया है।* 】"
स्वामी रामसुखदास जी महाराज के अनुसार नाम लेना मतलब करुण पुकार करना। "हे नाथ मेरे नाथ मैं आपको न भूलूँ।" "मैं केवल आपका ही हूँ।"
"मैरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।"
जप से उनका तात्पर्य तोता रटन्त नही है। करुण पुकार करना है।

सन्त सम्प्रदाय के लोग तो राधा नामक स्त्री को श्रीकृष्ण की प्रेयसी और पत्नी मानने है। जबकि, यह निर्विवाद सत्य है कि, ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था (उम्र) में श्रीकृष्ण कन्स के निमन्त्रण पर अक्रूर जी के साथ मथुरा चले गए थे और फिर वापस ब्रज, गोकुल, बरसाना में कभी नहीं आये। 
अब ग्यारह वर्ष के बालक की प्रेमिका होना और कामक्रीड़ा करना विचारणीय विषय है।
जबकि राधा का विवाह नन्दराय जी के साले अर्थात यशोदा माता के भाई रायण से हुआ था। न कि, श्रीकृष्ण से। तो राधा तो श्रीकृष्ण की मामी हुई ना।

ये सब कथा जयदेव के गीत गोविन्दम रचने के बाद कथा वाचकों ने गर्ग संहिता में डाल दी। फिर ब्रह्म वैवर्त पुराण में तो इतनी अति अश्लीलता के साथ वर्णन किया कि, कथावाचकों के मोज- मस्ती को रास-लीला नाम दे सके।
वह बात और है कि, ये नकली कथा न महाभारत में है और न भागवत पुराण में है। दोनों ग्रन्थों में राधा का नाम तक नहीं है।
महाभारत में तो श्रीकृष्ण की एक ही पत्नी रुक्मिणी ही बतलाई है।

महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक के अनुसार तो शंकर जी पार्वती सहित दक्ष-यज्ञ से सहर्ष कैलाश लौटे थे। सती पार्वती ने आत्मदाह किया ही नहीं।
इन महन्तो और कथावाचकों के अनुसार तो शंकर जी के दो विवाह हुए पहला प्रणेताओं की पौत्री और दक्ष द्वितीय और असीक्नी की पुत्री सती के साथ 
फिर दक्ष यज्ञ में सती ने आत्मदाह कर लिया तो  हिमाचल/ हिमावन - मेनावती की पुत्री (और अर्यमा की नातिन)पार्वती के रूप में सती का दुसरा जन्म  हुआ, फिर शंकर जी का दुसरा विवाह  पार्वती के साथ हुआ। देवी- देवता की आयु तो एक मन्वन्तर होती है। इसलिए बीच मे मरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। देवता ऋत के विरुद्ध नहीं कोई कार्य नहीं करते हैं। लेकिन इनके अनुसार तो देवता भी बीच में ही मर जाते हैं और उनका पुनर्जन्म भी होता है। 
जबकि महाभारत के अनुसार यह ग़लत है। न दक्षपुत्री ने आत्मदाह किया न उनका पुनर्जन्म हुआ।

रामचरितमानस और शिव पुराण के अनुसार श्री राम वनवास के समय सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम के समक्ष जाना भी मानते हैं इस कारण शंकर जी ने मानसिक रूप से सती का त्याग कर दिया। इस प्रकार सती देवी को अल्पज्ञ, और अविवेकी सिद्ध किया गया, और शंकर जी को असहाय पति घोषित कर दिया। जबकि महाभारत के अनुसार यह भी ग़लत है‌ ऐसा कुछ नहीं हुआ। 
पुराणों के अनुसार भस्मीभूत सती के शव को कन्धे पर लाद कर शंकर जी विक्षिप्त हो पूरे भारतवर्ष का चक्कर लगाते हैं। जब देह भस्म हो गई तो शव कहाँ से आया? फिर जब देह ही नहीं बची तो विष्णु जी सती के भस्मीभूत देह के ५१ टुकड़े करने का प्रश्न ही नहीं उठता। ये टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे, वहा शक्तिपीठ बनना भी ग़लत सिद्ध हो जाता है। ये पौराणिक कहना चाहते हैं कि, भगवान शंकर जैसे देवता पगला जाते हैं। और भगवान विष्णु भी उन्हें ठीक नहीं कर पाये। बल्कि उन्हें चुपके से कन्धे पर टंगे भस्मीभूत देह के ५१ टुकड़े करना पड़ता है। जबकि महाभारत के अनुसार सती ने आत्मदाह किया ही नहीं अतः यह भी ग़लत है ऐसा कुछ नहीं हुआ।

महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/अध्याय 332-333 में शर शैय्या पर लेटे भीष्म युधिष्ठिर को बतलाते हैं कि, बहुत समय पहले वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्मलोक को सिधार गए। ध्यान दीजिएगा कि, महाभारत युद्ध के समय परीक्षित उत्तरा के गर्भ में ही थे। और उसके बहुत पहले शुकदेव जी ब्रह्मलोक सिधार चुके थे। 
महन्त और कथावाचक सन्त तो श्रीमद्भागवत पुराण को शुकदेव जी का परीक्षित को दिया प्रवचन बतलाते हैं। जबकि कितना विचित्र लगता है कि, महाभारत के लगभग चालीस वर्ष से अधिक समय बाद और शुकदेव जी के ब्रह्मलोक सिधारने के भी कम से कम अस्सी वर्ष बाद वे ही शुकदेव जी परीक्षित को भागवत पुराण सुनाने कहाँ से और कैसे आगये? मतलब ये पौराणिक महन्त, कथावाचक और तथाकथित सन्त कहना चाहते हैं कि, भागवत पुराण लिखते समय वेदव्यास जी सठिया गए थे। जिन्हें अपने पुत्र का ब्रह्मलोक सिधारना याद नहीं रहा ‌

सन्त बनकर घूम रहे ऐसे कथावाचकों और महन्तो से और इनकी मन गड़न्त कथाओं और सिद्धान्तों से तो भगवान ही बचाए। ऐसे सन्तों की बात मानने केवल नास्तिकता ही बढ़ेगी। लाभ तो सम्भव ही नहीं।

संस्कृत ग्रंथों में नाम से अधिक विशेषणो को महत्व दिया गया है। 
श्रीकृष्ण काले थे इसलिए उन्हें कृष्ण या श्याम कहा।
पता नहीं उनका नाम कन्हैया था या और कुछ! लगभग कोई नहीं जानता।
किसी के मन मे कृष्ण बोलने या सुनने से मुरलीधर का स्मरण हुआ, या गिरधर का या चक्रधर का या गीता प्रवचन कर्ता का या वस्त्रावतार का, या कूटनीतिक का या दुर्योधन को दिखाये विराट स्वरूप का, या अर्जून को दिखाये जगतरूप का (विभूति वर्णन का), या काल स्वरूप का या चतुर्भुज रूप का यह उसकी तत्कालीन भावावस्था पर निर्भर होता है। दुसरा कोई निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता कि, वह क्या देख रहा हैं।  ऐसे ही राम बोले तो परशुराम समझें, श्रीरामचन्द्र जी समझें या बलराम समझें? इसलिए नाम स्मरण करते समय वाच्य और वाच्यार्थ अलग-अलग हो सकते हैं।
विशेषण में यह समस्या नहीं रहती इसलिए संस्कृत शास्त्रों में विशेषण का प्रयोग अधिक किया गया।
इसीलिए प्रणायाम में परमात्मा के प्राचीनतम नाम ॐ (प्रणव) का ही ध्यान पूर्वक उच्चारण होता है।
योगाचार्य केवल प्रणव को ही केन्द्रित करके लिखते बोलते हैं कि, प्रणव ॐ में ही वाच्य से वाच्यार्थ का ही बोध होता है। इसलिए ध्यान नहीं भटकता।
इसलिए प्रणव ॐ के जप के अलावा अन्य नाम जप करने से भाव स्थिर हो यह अनिवार्य नहीं है।
लेकिन श्रद्धा पूर्वक लीला श्रवण, लीला कथन, लीला स्मरण में भावनात्मक तल्लीनता आती है। मन प्रसन्न होता है, श्रद्धा बढ़ती है। इसलिए वेदों में त्रिविक्रम विष्णु , इन्द्र अग्नि आदि के पराक्रम का वर्णन मिलता है।
इसलिए ईश्वर प्राणिधान में भी गुणों का वर्णन या प्रकारान्तर से पौराणिक पद्यति से लीला श्रवण-कथन- चिन्तन- मनन अधिक उपयोगी है।

नाम स्मरण और स्मरण में अन्तर समझना चाहिए। सतत स्मरण रखना अर्थात लगातार याद रखना ही ध्यान है।

स्मरण करना अर्थात याद करना या नाम रटना ध्यान नहीं है। तोता भी राम-राम बोलता है। वह कोई जप नहीं करता। अतः बार-बार एक नाम लेने को याद करना (स्मरण/ ध्यान) कैसे माना जा सकता है?
बगुला एकाग्र चित्त हो मछली की गतिविधियों को ध्यान रखकर मौका पड़ते ही खा लेता है। वह कोई ध्यान नहीं करता। ऐसे ही एक आसन पर बैठकर शरीर और संसार की स्मृति बनी रहे तो काहेका ध्यान? यह तो केवल दिखावा मात्र है।

वैदिक साहित्य में नामजप का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। ॐ के ध्यान का ही उल्लेख है न कि, ओ३म,ओ३म रटने का।
ध्रुव और प्रहलाद तक की कथा में भी मन्त्र ध्यान का ही उल्लेख किया गया है।
नाम जप का प्रथम बार उल्लेख महर्षि वाल्मीकि की कथा में भी नहीं आता है। किन्तु कथावाचकों नें मन से जोड़ लिया।

कबीर दास जी भी कह गए हैं कि, 
माला फेरत जुग भया, गया न मन का मैल, कर का मनका डारि के मन का मनका फेर।
और
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पण्डित भया न कोई, 
ढाई आखर प्रेम का 
पढ़े सो पण्डित होय।

नाम स्मरण और स्मरण दोनों अलग-अलग बातें हैं।
याद रखना ध्यान है, याद करना नही। स्मरण रखना ध्यान है। स्मरण करना नही अर्थात नाम रटना या केवल वाचिक मन्त्र जप कोई ध्यान नहीं है।

बेहोशी में किया गया कोई भी कर्म वास्तविक में कुछ अन्य कर्म ही होता है। गुणों के प्रति सजगता आवश्यक है तभी भक्ति और प्रेम होता है।
 देह और इन्द्रियों द्वारा की गई क्रिया संकल्पित कर्म तभी कहलाता है जब, जो किया जा रहा है, उसी का भाव चित्त में हो, विचार बुद्धि में हो, संकल्प/ इच्छा मन में हो। अन्यथा बैठे हैं जप कर रहे है लेकिन, दिमाग घर गृहस्थी में, स्कूल/ कॉलेज में ऑफिस में/ कम्पनी में/ दुकान/ व्यवसाय में/ राजनीति में या खेल में चला गया। योजना बनना शुरू हो गई। इसको यह कह देना था , उसको यह कह कर गलत किया, वहाँ, यह करना है, अभी जाकर पहले यही करूँगा। तो काहेका ध्यान?

यदि इसको स्मरण कहा जाए तो ऐसा स्मरण करने और न करने में क्या अन्तर है। 
यही स्थिति पढ़ाई करते समय, व्यायाम करते समय, ध्यान के नाम पर बैठते समय हो तो वह न तो पढ़ाई है, न व्यायाम है, और न ही ध्यान है। 
ऐसे में ही विद्यार्थी पढ़ते समय या ध्यान के लिए बैठकर सो जाते हैं, और ड्राइवर एक्सिडेंट करते हैं। 
जबतक कर्ता भाव है तब-तब ध्यान हो ही नहीं सकता।
किसी विचार, भाव या मनोदशा को लगातार संकल्पित निश्चित अवधि तक एक सी बनी रहना ध्यान है। बाकी आडम्बर है।
यदि कोई भी कार्य जो सजगता पूर्वक ,ध्यान पूर्वक नहीं किया जाता है तो, उस क्रिया  या कार्य को वह कर्म नहीं कहा जा सकता जिसे करने का दिखावा किया जा रहा है। ऐसे मे कर्म वही कहलाएगा जिसके विचारों में खोये थे। जो संकल्प उठ रहे थे।
नाम जप करते समय यदि पुछा जाए कि, आपका मोबाइल कहाँ रखा है? तो यह पढ़ते ही आपका ध्यान आपके मोबाइल पर केन्द्रित हो गया होगा। तब न पठन, न ध्यान, न आप न मैं कोई नहीं बचा था। बस मोबाइल ही रह गया था। लेकिन नाम जप चालू है।
उस समय धारणा थी मोबाइल की, मोबाइल को चित्त में धारण कर लिया। यदि यही अवस्था लम्बे समय तक रहे तो यह मोबाइल का ध्यान कहलाएगा न कि, नाम जप।
मैं संहिताओं को ही आधार मानकर चलता हूँ। क्योंकि मुझे वृहदारण्यकोपनिषद और छान्दोग्योपनिषद् में भी कल्याण और श्रेय शब्द के विषय में महर्षि याज्ञवल्क्य और महर्षि औषस्तिपाद में मतभेद दिखा । दोनों ऋषि एक दूसरे के शब्द को तुच्छ और अपने शब्द को श्रेष्ठ और सही सिद्ध करते हैं।
इसलिए मैं पारिभाषिक शब्दावली प्रयोग नहीं करता। यह उचित नहीं है कि, मैं किसी और सन्दर्भ में कहूँ और आप दूसरे सन्दर्भ में समझें। ऐसे में तो दोनों अपनी-अपनी जगह सही होते हुए भी परस्पर विरुद्ध जाएँगे। क्योंकि सबलोग पारिभाषिक शब्दों के अलग-अलग अर्थ लगाते हैं।
मैंने जिसे भक्ति कहा वह साध्य है, लक्ष्य है; साधन नहीं। वैदों में भक्ति मार्ग नहीं, लक्ष्य हैसाधन नहीं, साध्य है।
भक्ति मार्ग महाभारत ग्रन्थ में उल्लेखित वेदव्यास जी का भागवत धर्म की देन है।आजकल लोग भजन-किर्तन को भक्ति समझने लगे हैं। यह गलत है।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

भावार्थ - 
जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उसी प्रकार भजता हूं, क्योंकि सब मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते है।

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