पाँच वर्ष की अवस्था से बीस वर्ष तक की वय में गुरुकुल में अनुशासित जीवन जीते हुए पूर्ण श्रद्धा, समर्पण, निष्ठा और लगन पूर्वक विद्याध्ययन करना। फिर
बीस से तीस वर्ष की अवस्था तक धर्म पालन सहित, निष्ठा लगन बुद्धि - चातुर्य सहित कठोर परिश्रम पूर्वक धनार्जन। और उसके बाद
धैर्य पूर्वक स्थायित्व के साथ परिवार, मोहल्ले, ग्राम, नगर, राज्य, देश और समाज की व्यवस्था सम्हालते हुए जिस समाज से लिया उसकी वैसी ही सेवा करते हुए यथा सामर्थ्य पचास/ साठ/ पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक आजीविका चलाना। उसके बाद
अपने ज्ञान और अनुभव से बिना अपने-पराये का भेद किये त्याग और तपस्या पूर्वक नई पीढ़ी को योग्य बनाने की सेवा करना और हरि भजन करना।
बस
गुरुकुल, श्रद्धा, समर्पण, अनुशासन, त्याग और तपस्या छूट गये।
बीस-पच्चीस साल की उम्र तक पढ़ाई कम ढीठाई अधिक।
तीस- चालित साल की उम्र तक सुख- चैन, घर- परिवार सबको त्याग कर पैसे के पीछे भागना।
साठ- पैंसठ वर्षायु तक घर परिवार के लिए एशो-आराम के संसाधन जुटाना।
फिर बीमार, लूंज-पूंज, अपङ्ग होकर आराम फरमाना।
यह आज की जीन्दगी है।
या तो व्यवस्था में परिवर्तन की क्रान्ति में सहयोगी बनें या अव्यस्था के शिकार होकर संघर्ष करते-करते मर जाएँ।
या तो सुखी सन्तुष्ट जीवन जी लो या आधुनिक जीवनशैली अपनाकर आत्मघात करलो।
मर्जी है आपकी। आखिर जीवन है आपका।
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