शुक्रवार, 17 मई 2024

पञ्च महायज्ञ

वेदोक्त धर्म / वर्णाश्रम धर्म/ ब्राह्मण ग्रन्थो ,आरण्यकों, उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्म धर्म/विभिन्न धर्म सुत्रों और याज्ञवल्क्य स्मृति आदि द्वारा बतलाये गये आर्ष धर्म/मानव धर्य शास्त्र और मनुस्मृति द्वारा बतलाये गये मानव धर्म/सनातन वेदिक धर्म के अनुसार
*पञ्चमहायज्ञ -* 
1सन्ध्योपासना, वेदाध्यन, अध्यापन, गायत्रीमंत्र जप, अष्टाङ्ग योगाभ्यास रुपी *ब्रह्म यज्ञ* ।
2 जप, भजन, किर्तन, देव आव्हान पुर्वक अग्निहोत्र रुपी *देवयज्ञ*।
3 अतिथि, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, सन्यासियों ,बिमार, दुःखी, वृद्धों, बेसहाराओं और जरुरतमंदों की सेवा सुश्रुषा करना, सामाजिक दायित्व निर्वहन कर *नृयज्ञ* / मानव यज्ञ/ अतिथि यज्ञ।
4 बलिवैश्वदेव कर्म - गौ बलि - (गौ आदि पाल्य पशु), श्वान बलि - (कुत्ता आदि सड़क के पशु), काक बलि - (कौवा आदि पक्षी), देव बलि -(यक्ष,गन्धर्व आदि योनियों में भटक रहे जीवों के लिये), पिपीलिकादि बलि - चीटियों, मछलियों आदि छोटे जीवों और पैड़पोधों की सेवासुश्रषा कर *भूत यज्ञ* करना।
5 - माता- पिता, बुजुर्गों, पास पड़ोसियों, रिश्तेदारों की सेवासुश्रुषा करना, तर्पण, नित्य श्राद्ध करना, सन्तान उत्पन्न करना आदि के माध्यम से *पित्र यज्ञ* करना।
 06 *स्मार्त-पुर्त कर्म* (घर तथा आसपास साफ सफाई करना, गन्दगी होने से रोकना; कुवे, बावड़ी, तालाब, नहर खुदवाना; बाग - बगिचे, वन-उपवन लगाना; सड़क/ मार्ग बनवाना, मार्गावरोध दूर करना, प्रकाश व्यवस्था करना; धर्मशाला, ,अतिथि शाला, बस स्टाप, बनवाना; विद्यालय, पुस्तकालय बनवाना; औषधालय बनवाना, जिन्हे हम आजकल केन्द्र, प्रदेश, जिला और स्थानीय शासन प्रशासन के भरोसे छोड़े बैठे है वे कार्य करना और उसमें सहयोग देना। *ये हमारे धार्मिक कर्त्तव्य हैं।*
इनको छोड़ कर वर्तमान में *जैन बौद्धों से होड़ कर मिश्र, युनान, अरब देशों से जैनों द्वारा अपनायी गयी मुर्तिपुजा और कबर / समाधियों की पुजा के लिये बड़े / छोटे ढेरों मन्दिर, समाधियाँ/ छत्रियाँ (दरगाह/ मकबरे) बनवा लिये* और उनके लिये *पाञ्चरात्र आदि आगम / तन्त्र शास्त्र रचडाले*। उन्ही में आपके द्वारा प्रेषित नियम - मुर्तिपुजा, प्रतिमा ध्यान, और सकामोपासना रुपी प्रार्थना के विधान रचे।
और कमी थी तो *यक्ष पुजक जैनों* से भी आगे बड़कर समयमत के *दक्षिण पन्थी समय मत तन्त्रशास्त्र*, *कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण रचित शाबरी, डाबरी वाममार्गी कौलमत के तन्त्रशास्त्र* रचडाले। और *अघोरियों को सन्त का दर्जा देकर पुज्य मानलिया*। *ये सब महा अधर्म है।*
*मुर्तिपुजा के दोष -*
1- *वेद विरोधी* - न तस्य प्रतिमा अस्ति यजुर्वेद 32/3 परमात्मा की कोई प्रतिमा नही है के विरुद्ध प्रतिमा गड़ना फिर पुजना। वास्तव में पुजा मतलब सेवा होता है। केवल पर्यावरण का ध्यान रख कर भूमि की सेवासुश्रुषा कर सकते हैं। जड़ प्रतिमा की सेवा कैसे करोगे? और उससे क्या सार्थकता?
2- *सर्वव्यापी/ सर्वव्यापक / सर्वव्याप्त परमात्मा की कोई सीमा/ लिमिट नही होती इसलिये परमात्मा का कोई आकार, रुप और परिसीमा / शेप नही होता।*
 ऐसे परमात्मा की प्रतिमा/ मुर्ति कैसे बनाओगे। अर्थात *परमात्मा की मुर्ति गड़ना/ प्रतिमा निर्माण करना, में सहयोगी होना, प्रतिमा निर्माण का कारण बनना ( कोई पुजता है इसलिये कलाकार बना कर बेंचता है), प्रतिमा बनवाना सभी धार्मिक दृष्टि से अपराध है/ पाप है।*
3 - *अपरिमित सर्वव्याप्त को अति सिमित बतलाना* - ईश्वर यहाँ इस मुर्ति/ प्रतिमा में है, इसके बाहर आसपास , मन्दिर के बाहर आसपास नही है यह मानना और मानने की प्रेरणा बनना। इस कारण लोग मन्दिर के बाहर निशंक अपराध/ पापकर्म करते हैं। क्यों कि वे समझते हैं कि वहाँ कोई देखने वाला नही है।
4 - विभिन्न *देवताओं को ईष्ट मान कर उन्हे ईश्वर , महेश्वर, जगदीश्वर, परमेश्वर मानना।* यहाँ तक कि, सन्तोषी माता जैसे नवीन देवी- देवता गड़ लेना, और परब्रह्म परमेश्वर, विष्णु - माया हैं।
 उल्लेखनीय है कि, वेदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों ,आरण्यकों, और उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म , विधाता, सवितृ (हरि) - सावित्री (कमला) महेश्वर तथा अपरब्रह्म विराट नारायण - श्रीलक्ष्मी आदि जगदीश्वर हैं। सर्वेश्वर और परमेश्वर नही हैं।
तथा हिरण्यगर्भ ( विश्वकर्मा), त्वष्टा- रचना भी ईश्वर श्रेणी के देवता हैं।

 इनके अलावा
 प्रजापति रुचि- आकुति एवम् दक्ष (प्रथम) -प्रसुति,स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, ब्रहस्पति, इन्द्र- शचि आदि *जन्मजात अजयन्त देवों* , ब्रह्मणस्पति- द्वादश आदित्य, वाचस्पति - अष्टवसु, पशुपति - एकादश रुद्र आदि *प्राकृतिक वैराज देवों* हैं।

जबकि *अजयन्त देव, वैराज देव आदि परमेश्वर के शासन के प्रशासकीय अङ्ग / अधिकारी हैं।* स्वयम् शासक, नियन्ता/ नही है।
इनके अलावा - 

अनेकरुद्र - भैरव, काली, शीतला आदि *रौद्रदेवता*, रामदेवजी, तेजाजी आदि *लोक देवताओं* की श्रेणी में आते हैं। 

इन सबके मन्दिर बनाये गये और पुजा की जाने लगी।
 
5- इन उपर्युक्त देवी- देवताओं के उपासकों द्वारा अपने अपने *सम्प्रदाय बनाकर स्वयम् को श्रेष्ठ तथा अन्यों को निष्कृष्ट सिद्ध कर आपसी फुट परस्ती पैदा करना।*
6 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को भी असहाय समझकर उनको बच्चा समझकर उनका पालन पोषण करने जैसे भाव से पूजा (सेवा) करना।*
7 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को मुर्ख ,अज्ञानी समझ कर उन्हे अपनी आवश्यकता बतला कर उस आवश्यकता की पुर्ति का उपाय समझाना।* (कि उसको ऐसा करके मेरे लिए ऐसा करदे।) इस प्रकार *निष्काम स्तुति- प्रार्थना को सकामोपासना में बदलना।*
8- *माता-पिता, गुरु की सेवासुश्रुषा न कर उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
9 - *सुर्य, नक्षत्रों, सप्तर्षि, ध्रुवतारा, ग्रहों, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, नदि, पहाड़ जैसे प्रत्यक्ष होते हुए उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
10 - *माता पिता का अनादर करना जबकि शास्त्रानुसार पुत्र का गुरु पिता होता ही है। पुत्री की गुरु भी पिता तथा विवाह पश्चात पति ही गुरु होता है।*
 फिर भी किसी पन्थ विशेष के उस सम्प्रदाय/ पन्थ के महन्त, मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर को ईश्वर तुल्य समझना, और माता- पिता ,पति, सास श्वसुर, बुजुर्गों , बिमारों, बच्चों को छोड़कर उन महन्तो मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर की आज्ञानुसार *उनकी उचित अनुचित सेवासुश्रुषा करना।*
 और उस पन्थ/ सम्प्रदाय के मन्दिर, मुर्ति, के सम्मुख सभी गिड़गिड़ाना।

11 और.अन्त में उन महन्त, *मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर के मत परिवर्तन पर या मन्दिर/ प्रतिमा/मुर्ति या प्रतीक के भञ्जन करने वाले असुर के प्रति श्रद्धावन्त होकर उनके पन्थ/ सम्प्रदाय/ मजहब के प्रति आस्थावन्त हो अपने वर्णाश्रम के स्वधर्म और राष्ट्रधर्म का त्याग कर असुरों का दास होना।* 
 और आसुरी धर्म पालन करना।
मुर्तिपुजा के ये सब परिणाम हमें प्रत्यक्ष दिख रहे हैं।

*अतः आपके द्वारा प्रेषित प्रक्रिया व्यर्थ आडम्बर मात्र है।*














वेदोक्त धर्म / वर्णाश्रम धर्म/ ब्राह्मण ग्रन्थो ,आरण्यकों, उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्म धर्म/विभिन्न धर्म सुत्रों और याज्ञवल्क्य स्मृति आदि द्वारा बतलाये गये आर्ष धर्म/मानव धर्य शास्त्र और मनुस्मृति द्वारा बतलाये गये मानव धर्म/सनातन वेदिक धर्म के अनुसार
*पञ्चमहायज्ञ -* 
1सन्ध्योपासना, वेदाध्यन, अध्यापन, गायत्रीमंत्र जप, अष्टाङ्ग योगाभ्यास रुपी *ब्रह्म यज्ञ* ।
2 जप, भजन, किर्तन, देव आव्हान पुर्वक अग्निहोत्र रुपी *देवयज्ञ*।
3 अतिथि, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, सन्यासियों ,बिमार, दुःखी, वृद्धों, बेसहाराओं और जरुरतमंदों की सेवा सुश्रुषा करना, सामाजिक दायित्व निर्वहन कर *नृयज्ञ* / मानव यज्ञ/ अतिथि यज्ञ।
4 बलिवैश्वदेव कर्म - गौ बलि - (गौ आदि पाल्य पशु), श्वान बलि - (कुत्ता आदि सड़क के पशु), काक बलि - (कौवा आदि पक्षी), देव बलि -(यक्ष,गन्धर्व आदि योनियों में भटक रहे जीवों के लिये), पिपीलिकादि बलि - चीटियों, मछलियों आदि छोटे जीवों और पैड़पोधों की सेवासुश्रषा कर *भूत यज्ञ* करना।
5 - माता- पिता, बुजुर्गों, पास पड़ोसियों, रिश्तेदारों की सेवासुश्रुषा करना, तर्पण, नित्य श्राद्ध करना, सन्तान उत्पन्न करना आदि के माध्यम से *पित्र यज्ञ* करना।
 06 *स्मार्त-पुर्त कर्म* (घर तथा आसपास साफ सफाई करना, गन्दगी होने से रोकना; कुवे, बावड़ी, तालाब, नहर खुदवाना; बाग - बगिचे, वन-उपवन लगाना; सड़क/ मार्ग बनवाना, मार्गावरोध दूर करना, प्रकाश व्यवस्था करना; धर्मशाला, ,अतिथि शाला, बस स्टाप, बनवाना; विद्यालय, पुस्तकालय बनवाना; औषधालय बनवाना, जिन्हे हम आजकल केन्द्र, प्रदेश, जिला और स्थानीय शासन प्रशासन के भरोसे छोड़े बैठे है वे कार्य करना और उसमें सहयोग देना। *ये हमारे धार्मिक कर्त्तव्य हैं।*
इनको छोड़ कर वर्तमान में *जैन बौद्धों से होड़ कर मिश्र, युनान, अरब देशों से जैनों द्वारा अपनायी गयी मुर्तिपुजा और कबर / समाधियों की पुजा के लिये बड़े / छोटे ढेरों मन्दिर, समाधियाँ/ छत्रियाँ (दरगाह/ मकबरे) बनवा लिये* और उनके लिये *पाञ्चरात्र आदि आगम / तन्त्र शास्त्र रचडाले*। उन्ही में आपके द्वारा प्रेषित नियम - मुर्तिपुजा, प्रतिमा ध्यान, और सकामोपासना रुपी प्रार्थना के विधान रचे।
और कमी थी तो *यक्ष पुजक जैनों* से भी आगे बड़कर समयमत के *दक्षिण पन्थी समय मत तन्त्रशास्त्र*, *कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण रचित शाबरी, डाबरी वाममार्गी कौलमत के तन्त्रशास्त्र* रचडाले। और *अघोरियों को सन्त का दर्जा देकर पुज्य मानलिया*। *ये सब महा अधर्म है।*
*मुर्तिपुजा के दोष -*
1- *वेद विरोधी* - न तस्य प्रतिमा अस्ति यजुर्वेद 32/3 परमात्मा की कोई प्रतिमा नही है के विरुद्ध प्रतिमा गड़ना फिर पुजना। वास्तव में पुजा मतलब सेवा होता है। केवल पर्यावरण का ध्यान रख कर भूमि की सेवासुश्रुषा कर सकते हैं। जड़ प्रतिमा की सेवा कैसे करोगे? और उससे क्या सार्थकता?
2- *सर्वव्यापी/ सर्वव्यापक / सर्वव्याप्त परमात्मा की कोई सीमा/ लिमिट नही होती इसलिये परमात्मा का कोई आकार, रुप और परिसीमा / शेप नही होता।*
 ऐसे परमात्मा की प्रतिमा/ मुर्ति कैसे बनाओगे। अर्थात *परमात्मा की मुर्ति गड़ना/ प्रतिमा निर्माण करना, में सहयोगी होना, प्रतिमा निर्माण का कारण बनना ( कोई पुजता है इसलिये कलाकार बना कर बेंचता है), प्रतिमा बनवाना सभी धार्मिक दृष्टि से अपराध है/ पाप है।*
3 - *अपरिमित सर्वव्याप्त को अति सिमित बतलाना* - ईश्वर यहाँ इस मुर्ति/ प्रतिमा में है, इसके बाहर आसपास , मन्दिर के बाहर आसपास नही है यह मानना और मानने की प्रेरणा बनना। इस कारण लोग मन्दिर के बाहर निशंक अपराध/ पापकर्म करते हैं। क्यों कि वे समझते हैं कि वहाँ कोई देखने वाला नही है।
4 - विभिन्न *देवताओं को ईष्ट मान कर उन्हे ईश्वर , महेश्वर, जगदीश्वर, परमेश्वर मानना।* यहाँ तक कि, सन्तोषी माता जैसे नवीन देवी- देवता गड़ लेना, और परब्रह्म परमेश्वर, विष्णु - माया हैं।
 उल्लेखनीय है कि, वेदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों ,आरण्यकों, और उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म , विधाता, सवितृ (हरि) - सावित्री (कमला) महेश्वर तथा अपरब्रह्म विराट नारायण - श्रीलक्ष्मी आदि जगदीश्वर हैं। सर्वेश्वर और परमेश्वर नही हैं।
तथा हिरण्यगर्भ ( विश्वकर्मा), त्वष्टा- रचना भी ईश्वर श्रेणी के देवता हैं।

 इनके अलावा
 प्रजापति रुचि- आकुति एवम् दक्ष (प्रथम) -प्रसुति,स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, ब्रहस्पति, इन्द्र- शचि आदि *जन्मजात अजयन्त देवों* , ब्रह्मणस्पति- द्वादश आदित्य, वाचस्पति - अष्टवसु, पशुपति - एकादश रुद्र आदि *प्राकृतिक वैराज देवों* हैं।

जबकि *अजयन्त देव, वैराज देव आदि परमेश्वर के शासन के प्रशासकीय अङ्ग / अधिकारी हैं।* स्वयम् शासक, नियन्ता/ नही है।
इनके अलावा - 

अनेकरुद्र - भैरव, काली, शीतला आदि *रौद्रदेवता*, रामदेवजी, तेजाजी आदि *लोक देवताओं* की श्रेणी में आते हैं। 

इन सबके मन्दिर बनाये गये और पुजा की जाने लगी।
 
5- इन उपर्युक्त देवी- देवताओं के उपासकों द्वारा अपने अपने *सम्प्रदाय बनाकर स्वयम् को श्रेष्ठ तथा अन्यों को निष्कृष्ट सिद्ध कर आपसी फुट परस्ती पैदा करना।*
6 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को भी असहाय समझकर उनको बच्चा समझकर उनका पालन पोषण करने जैसे भाव से पूजा (सेवा) करना।*
7 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को मुर्ख ,अज्ञानी समझ कर उन्हे अपनी आवश्यकता बतला कर उस आवश्यकता की पुर्ति का उपाय समझाना।* (कि उसको ऐसा करके मेरे लिए ऐसा करदे।) इस प्रकार *निष्काम स्तुति- प्रार्थना को सकामोपासना में बदलना।*
8- *माता-पिता, गुरु की सेवासुश्रुषा न कर उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
9 - *सुर्य, नक्षत्रों, सप्तर्षि, ध्रुवतारा, ग्रहों, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, नदि, पहाड़ जैसे प्रत्यक्ष होते हुए उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
10 - *माता पिता का अनादर करना जबकि शास्त्रानुसार पुत्र का गुरु पिता होता ही है। पुत्री की गुरु भी पिता तथा विवाह पश्चात पति ही गुरु होता है।*
 फिर भी किसी पन्थ विशेष के उस सम्प्रदाय/ पन्थ के महन्त, मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर को ईश्वर तुल्य समझना, और माता- पिता ,पति, सास श्वसुर, बुजुर्गों , बिमारों, बच्चों को छोड़कर उन महन्तो मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर की आज्ञानुसार *उनकी उचित अनुचित सेवासुश्रुषा करना।*
 और उस पन्थ/ सम्प्रदाय के मन्दिर, मुर्ति, के सम्मुख सभी गिड़गिड़ाना।

11 और.अन्त में उन महन्त, *मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर के मत परिवर्तन पर या मन्दिर/ प्रतिमा/मुर्ति या प्रतीक के भञ्जन करने वाले असुर के प्रति श्रद्धावन्त होकर उनके पन्थ/ सम्प्रदाय/ मजहब के प्रति आस्थावन्त हो अपने वर्णाश्रम के स्वधर्म और राष्ट्रधर्म का त्याग कर असुरों का दास होना।* 
 और आसुरी धर्म पालन करना।
मुर्तिपुजा के ये सब परिणाम हमें प्रत्यक्ष दिख रहे हैं।

*अतः आपके द्वारा प्रेषित प्रक्रिया व्यर्थ आडम्बर मात्र है।*

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