लगभग सभी पञ्चाङ्गकारों में सर्वसम्मति है कि, वसन्त सम्पात (सायन मेष संक्रान्ति 20 मार्च), उत्तर परम क्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति 23 जून), शरद सम्पात (सायन तुला संक्रान्ति 23 सितम्बर) और दक्षिण परम क्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर) के आधार पर ही संवत्सर प्रारम्भ, अयन प्रारम्भ और ऋतुओं का निर्धारण होता आया है।
जब भूमि से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर रहता है तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से वसन्त सम्पात 24°12'07" हो जाने के कारण सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) और निरयन मेष संक्रान्ति (13 अप्रेल) में लगभग 24 दिन का अन्तर हो गया है।
वर्तमान में अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या निरयन मीन संक्रान्ति से निरयन मेष संक्रान्ति (14 मार्च से 14 अप्रैल) के बीच पड़ती है।
शक संवत प्रारम्भ अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का प्रारम्भ; अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या की समाप्ति से होता है।
इस कारण चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) निरयन मीन संक्रान्ति से निरयन मेष संक्रान्ति (14 मार्च से 14 अप्रैल) के बीच कभी भी होती रहती है।
अर्थात, गुड़ी पड़वा वसन्त सम्पात के 07 दिन पहले से लेकर वसन्त सम्पात के 24 दिन बाद तक आगे पीछे होती रहती है, इसलिए चान्द्र-सौर शकाब्द के चैत्र-वैशाख आदि मास ऋतु बद्ध नही है।
ईसापूर्व 4012 में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन कुम्भ संक्रान्ति साथ साथ (21 जनवरी को) शिशिर ऋतु में होती थी; तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) शिशिर ऋतु में पड़ती थी। तथा
ईसा पूर्व 1864 में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति साथ साथ (19 फरवरी) को होती थी। तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) पौराणिक वसन्त ऋतु के प्रारम्भ में पड़ती थी।
22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात, निरयन मेषादि बिन्दु पर होने से सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों साथ साथ हुई , अर्थात वसन्त ऋतु में तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) वसन्त ऋतु में पड़ी । तथा
2433 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन वृषभ संक्रान्ति साथ साथ (21 अप्रैल )को होगी अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) पौराणिक ग्रीष्म ऋतु में पड़ेगी । और
4582 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मिथुन संक्रान्ति साथ साथ (22 मई को) होगी तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) ग्रीष्म ऋतु में पड़ेगी।
इसी बात को प्रकारान्तर से समझते हैं ---
जब सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होता है तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन संक्रान्ति क्या थी और क्या होगी?---
ईसापूर्व 4012 मे निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन मिथुन संक्रान्ति हुई थी। तब निरयन मेष संक्रान्ति २२ मई को पड़ी थी।
ईसापूर्व 1864 मे निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन वृषभ संक्रान्ति हुई थी। तब निरयन मेष संक्रान्ति २1 अप्रेल को पड़ती थी।
22 मार्च 285 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मेष संक्रान्ति साथ साथ हुई थी। तब निरयन और सायन दोनों मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ी थी।
आगामी सन 2433 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन मीन संक्रान्ति होगी। तब निरयन मेष संक्रान्ति 18/19 फरवरी को होगी।
आगामी सन 4585 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन कुम्भ संक्रान्ति होगी। तब निरयन मेष संक्रान्ति 21 जनवरी को होगी।
22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात, निरयन मेषादि बिन्दु पर होने से सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों साथ साथ हुई थी तब से आज तो मात्र 24 दिन का ही अन्तर होने से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) वसन्त ऋतु में ही आ रही है।
अतः यह कथन गलत है कि, चैत्रशुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) हमेशा वसन्त ऋतु में ही आती है।
जबकि वैदिक युगाब्ध (कलियुग संवत) का प्रारम्भ हमेशा वसन्त सम्पात से (सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च) को वसन्त ऋतु में ही होता है; क्योंकि यजुर्वेदोक्त मधु-माधवादि सायन सौर मास ऋतुओं के आधार हैं।
मधु-माधव की वसन्त, शुक्र-शचि की ग्रीष्म, नभः - नभस्य की वर्षा, ईष-उर्ज की शरद, सहस- सहस्य की हेमन्त और तपः - तपस्य की शिशिर ऋतु निश्चित/ नियत है।
राष्ट्रीय शक पञ्चाङ्ग केलेण्डर में इन्ही माहों के चैत्र -वैशाखादि नाम किये गए हैं, जिससे चान्द्र-सौर चैत्रादि मास में और राष्ट्रीय केलेण्डर के चैत्र-वैशाख आदि मासों मे भ्रम होता है। ऐसे ही राष्ट्रीय शक केलेण्डर के चैत्रादि मासों मे तथा पञ्जाबी निरयन सौर वैशाख आदि मासों में भी भ्रम पैदा होता है। राष्ट्रीय केलेण्डर में माहों प्रारम्भ दिनांक और माह की अवधि में भी एक-दो दिन की गलती है। लेकिन फिर भी राष्ट्रीय शक केलेण्डर का प्रारम्भ वसन्त ऋतु में ही होता है; इसलिए चैत्र-वैशाख मास वाले चान्द्र-सौर शकाब्द पञ्चाङ्ग से राष्ट्रीय शक केलेण्डर लाख गुणा अच्छा है।
न वैशाखी (14 अप्रैल) को न चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) को बल्कि वसन्त सम्पात, सायन मेष संक्रान्ति पर (21 मार्च को) ही निम्नलिखित घटनाएँ होती है; ---
उत्तरायण, उत्तर गोल, वसन्त ऋतु, मधुमास, दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय ठीक पूर्व दिशा में होता है। सूर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय, दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। उत्तर गोलार्ध में दिनमान बढ़ जाता है रात्रि मान कम हो जाता है; दक्षिणी गोलार्ध में रात्रि मान बढ़ जाता है दिनमान कम हो जाता है।
भूमध्य रेखा पर मध्याह्न में छाया लोप हो जाता है। क्योंकि उस समय वहाँ सूर्य ठीक सिर पर होता है। ऐसा न निरयन मेष संक्रान्ति के दिन होता है न चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को।
विशेष सुचना ---
वर्तमान मन्दोच्च (भूमि से सूर्य की सर्वाधिक दूरी) सायन १०३°१७'५६" पर है। अर्थात सायन कर्क १३°१७'५६" पर होने की स्थिति के कारण शचि मास सबसे बड़ा और सहस्य मास सबसे छोटा होता है।
ऐसे ही निरयन सौर गणनानुसार मन्दोच्च निरयन ७९°०८'४९" पर अर्थात मिथुन १९°०८'४९" पर चल रहा है। इस कारण निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा और निरयन धनु मास सबसे छोटा होता है। क्योंकि जब सूर्य से भूमि की दूरी सर्वाधिक होती है तब भूमि की अंशात्मक कोणीय गति कम हो जाती है। इस कारण 30 अंश पार करने में समय अधिक लगता है।
निरयन सौर युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत के विषय में विशेष जानकारी। ---
वैशाखी / निरयन मेष संक्रान्ति (14 अप्रैल) से प्रारम्भ होने वाले निरयन सौर वर्ष प्रत्येक 72 वर्ष में एक दिनांक बाद में प्रारम्भ होता है।
2149 वर्ष में एक माह (30°) तथा 4297 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है।
25780 निरयन सौर वर्ष में 25781 सायन सौर वर्ष हो जाते हैं। अर्थात पूरे एक वर्ष का अन्तर हो जाता है।
अतः निरयन सौर संवत के मेष वृषभादि मास ऋतु आधारित नहीं है। इन्हीं मासों को पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में निरयन सौर वैशाख आदि मास कहते हैं।
इसी निरयन सौर संवत और मासों पर आधारित चान्द्र-सौर शकाब्द और चैत्र वैशाख आदि चान्द्रमास भी ऋतु आधारित नहीं है, क्योंकि
औसत सायन सौर वर्ष ३६५.२४२१९ दिन का होता है। एवम्
नाक्षत्रीय सौर वर्ष (या निरयन सौर वर्ष) ३६५.२५६३६३ दिन का होता है।
जबकि औसत शुद्ध चान्द्र वर्ष ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। अर्थात सौर वर्ष मसे चान्द्रवर्ष 11दिन छोटा होता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले चान्द्र-सौर शकाब्द के बारे में विशेष जानकारी ---
औसत शुद्ध चान्द्र वर्ष ३५४.३६७०६८ दिन का होता है।
अर्थात शुद्ध चान्द्रवर्ष सौर वर्ष से लगभग ग्यारह दिन छोटा होता है। इसी कारण प्रत्येक तीसरे वर्ष २८ माह से ३२ माह १५ दिन के बाद एक चान्द्रमास अधिक होता है । परिणाम स्वरूप अधिक मास वाला औसत चान्द्रवर्ष ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है। फिर भी
क्रमशः १९ वर्ष में उसके बाद १२२ वर्ष में और उसके बाद १४१ वर्ष में क्षय मास होता है। इससे पुनः सौर वर्ष और चान्द्रवर्ष में एक रूपता बनी रहती है।
निरयन सौर गणनानुसार मन्दोच्च निरयन ७९°०८'४९" पर अर्थात मिथुन १९°०८'४९" पर चल रहा है। इस कारण निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा और निरयन धनु मास सबसे छोटा होता है।
इस कारण वर्तमान में अधिकांशतः फाल्गुन और चैत्र से कार्तिक मास तक के माह ही अधिक होते हैं।
मार्गशीर्ष मास कभी कभार ही क्षय होता है। पौष और माघ मास कभी क्षय नही होता, शेष कोई भी मास क्षय होता है।
प्रत्येक क्षय मास के पहले वाला माह और क्षय मास के बाद वाला माह अधिक होता है। कभी कभी एक माह पहले या बाद में अधिक मास पड़ता है। इस प्रकार हर क्षय वर्ष में संवत्सर में तेरह महीने होते हैं। अर्थात क्षय मास वाला वर्ष भी अधिक मास वाले वर्ष के समान ही ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है।
*संसर्प मास एवं अहंस्पति मास ---*
*जिस वर्ष क्षय मास हो, उस वर्ष 2 अधिमास अवश्य होते हैं- क्षय मास के पूर्व आने वाले अधिक मास को संसर्प मास कहते हैं। संसर्प मास में मुंडन, व्रतबंध (जनेऊ), विवाह, अग्न्याधान, यज्ञोत्सव एवं राज्याभिषेकादि वर्जित हैं। अन्य पूजा आदि कार्यों के लिए यह स्वीकार्य है। क्षय मास के अनन्तर पड़ने वाले अधिक मास को अहंस्पति मास कहते हैं।"*
इस प्रकार चान्द्र-सौर वर्ष कोभी निरयन सौर संवत के साथ-साथ कर लिया जाता है। लेकिन सायन सौर मास से तारतम्य नहीं बिठाया जाता।
जिन दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या हो तो अधिक मास होता है। अथवा यह कहें कि, दो अमावस्या के बीच कोई संक्रान्ति नही पड़े तो वह चान्द्रमास अधिकमास कहलाता है। और
जब दो अमावस्या के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो क्षय मास होता है। या यों कहें कि, जब दो संक्रान्ति के बीच कोई अमावस्या न पड़े तो क्षयमास होता है।
ऐसा ही सायन सौर संक्रान्तियों के साथ चान्द्रमासों को जोड़कर सायन सौर संस्कृत चान्द्र-सौर संवत की पञ्चाङ्ग भी बनाया गया है। जो अभी लोगों को अल्पज्ञात है। वर्तमान में ऐसा एकमात्र पञ्चाङ्ग श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् ग्रेटर नोएडा से निकलता है।
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