वैदिक दर्शन में सहायक के रूप में वरीयता क्रम में सांख्य कारिकाएँ और महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन- महर्षि पतञ्जली का योगदर्शन, महर्षि गौतम का न्याय दर्शन- महर्षि कणाद का वैशेषिक दर्शन को मान्यता देते हैं। ये दर्शन उक्त ग्रन्थों के आशय को समझने में सहायक होते हैं। लेकिन इनमें जो भाग वैदिक संहिताओं के अनुकूल है वहीं भाग मान्य है। शेष भाग त्याज्य है।
इसके अलावा धर्मसूत्रों के आधार पर बने मनुस्मृति - याज्ञवल्क्य स्मृति आदि स्मृतियों को ही धर्मग्रन्थ के समान ही मानते हैं। लेकिन इनमें भी जो भाग वैदिक संहिताओं के अनुकूल है वहीं भाग मान्य है। शेष भाग त्याज्य है।
वाल्मीकी रामायण और श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास रचित महाभारत को इतिहास के ग्रन्थ मानते हैं। चुँकि, वाल्मीकी रामायण - महाभारत में धर्मपालन कैसे किया जाता है, धर्म पालन में आई दुविधाओं और कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है इसकी सोदाहरण विषद, अच्छी और प्रामाणिक जानकारी है इसलिए वाल्मीकी रामायण - महाभारत को धार्मिक ग्रन्थ कहते हैं, लेकिन धर्मगन्थ नही कहते।
वाल्मीकी रामायण-महाभारत के प्राचीन इतिहास में सहायक ग्रन्थ के रूप में केवल महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण को पुराण के रूप में मान्यता देते हैं।
तथाकथित वेदव्यासजी कृत अन्य पुराणों- उप पुराणों और पौराणिक ग्रन्थों में अनेक विरोधाभासी और बहुत सी अनर्गल बातों का समावेश होने के कारण सनातन वैदिक धर्मी इन्हें प्रामाणिक नहीं मानते। लेकिन पौराणिक- महाभागवत, सौर, शैव, शाक्त और गाणपत्य आदि सम्प्रदायों में अपने अपने पुराणों की अधिमान्यता है।
ऋग्वेद में दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें कही हैं जिसे लोग भूल जाते हैं।
(1) "ऋग्वेद प्रथम मण्डल के बाइसवें सुक्त का बीसवाँ मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि,
तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। ऋग्वेद 1/22/20 (पृष्ठ 43) ।
विष्णु परम पद है, चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा, इन्द्र, द्वादश आदित्य, अष्ट वसु और (शिव-शंकर- शंम्भ- महादेव सहित) एकादश रुद्र ये तैंतीस देवता भी विष्णु परमपद को देखते हैं। अर्थात विष्णु परमपद के दर्शन को लालायित रहते हैं। ऋग्वेद 1/22/20 (पृष्ठ 43) ।
(2) तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमं पदम्। ऋग्वेद 1/22/ 21
विष्णु का जो परम पद है, उसे कर्मकुशल जाग्रत रहने वाले ज्ञानी सम्यक प्रकाशित हुआ देखते हैं। 21
अर्थात विष्णु का परम पद द्युलोक में फैले हुए प्रकाश के समान ज्ञानी देवता सदा देखते हैं। ऋग्वेद 1/22/ 21
दोनों मन्त्रों से सिद्ध है कि, विष्णु का पद परमपद है और शेष देवता हैं।
ऋग्वेद प्रथम मण्डल के एक-सौ पचपनवें सुक्त का छटा मन्त्र कहता है कि,
चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभि श्चक्रं न वृत्तं व्यतीरवीविपत। वृहच्छरीरो विमिमान ऋक्कभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम्। ऋग्वेद 1/155/6
यह विष्णु बीतने वाले काल के चार गुणा नब्भे अर्थात तीन सौ साठ अवयवों को अपनी प्रेरणा से गोल चक्र के समान घुमाता है। तब बड़े शरीर वाला सदा तरुण रहने के कारण कभी भी कुमार न होने वाला यह विष्णु काल को नापता हुआ स्तुतियों से आकर्षित होकर यज्ञ की तरफ आता है।
अर्थात विष्णु के नियन्त्रण में 90×4 (= 360) अरों का नियति चक्र है। कालचक्र या नियति चक्र का नियन्त्रण विष्णु के हाथों में है।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब परब्रह्म विष्णु ने एक से बहुत होने का निश्चय किया तभी विष्णु की कल्पना में सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक घटना और समस्त घटनाएँ घट गई। यह ठीक ऐसा ही है जैसे फिल्म की शुटिंग तो पहले ही हो जाती है वैसे ही सृष्टि की सम्पूर्ण घटनाएँ घट चुकी है और हम इसमें लगाव होने के कारण लिप्त भाव से अनुभव कर रहे हैं। जबकि ज्ञानी दृष्टा भाव से केवल देखता रहता है। लिप्त नहीं होता।
साधारण व्यक्ति भावुक दर्शक की भाँति; स्वयम् को पात्र होने का भ्रम पालकर कभी सुखी- कभी दुःखी होते हुए किसी पात्र विशेष की भूमिका मैं ही निबाह रहा हूँ ऐसा समझ लेता है। ऐसे ही जगत में भी भूमिका मैं निभा रहा हूँ और मैं भोग रहा हूँ; ऐसा समझता है। जबकि ज्ञानी तटस्थ भाव से देख अपनी भूमिका (रोल) को निर्वाह करते हैं। क्योंकि, ज्ञानी जन जानते हैं कि, यह माया है, इसलिए इस संसार में मन लगाकर लिप्त होने के बजाय वे तटस्थ होकर केवल शरीर से अपनी भूमिका निबाहते हुए देखते रहते हैं।
पूरी सृष्टि का क्रम नियत है, यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में काल रूप दर्शन देने के समय कही थी।
ऐसे ही शुक्ल यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम और द्वितीय मन्त्र भी अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवन जीने की कला सिखाते हैं। प्रथम मन्त्र के प्रथम वाक्यांश के आधार पर इसे ईशावास्योपनिषद कहते हैं।
प्रथम मन्त्र में तीन बातें कही हैं ---
1 "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।"
ईशावास्यम् इदम् सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
अर्थात इस सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी है वह ईश (परमात्मा) से व्याप्त है, (यह जान समझ लो)।
जब परमात्मा नें सृष्टि उत्पत्ति का ॐ संकल्प किया तब अन्य तो कुछ था ही नहीं, अतः परमात्मा नें स्वयम् को ही चेतन प्रकृति (जीव जगत) और अष्टधा जड़ प्रकृति (जगत) के रूप में प्रकट किया। यही बात श्रीमद्भगवद्गीता में भी कही है।
कुछ लोग मानते हैं कि, चेतन जीवात्मा और अष्टधा जड़ प्रकृति भी अनादि हैं। यदि ये जीवात्मा और अष्टधा जड़ प्रकृति भी अनादि अनन्त होते तो परमात्मा सर्वव्यापी कैसे हो सकते हैं? यदि अन्य पदार्थ का एक कण भी विद्यमान हो; तो, परमात्मा सर्वव्याप्त नहीं कहे जा सकते।
दुसरी बात कही है कि, तेन त्यक्तेन भूंजीथा अर्थात उसे त्याग पू्र्वक भोग करें।
अर्थात अष्टधा प्रकृति रूप जड़ जगत जीव के भरण-पोषण रूप भोग के लिए ही बना है, अतः इस जगत का उपयोग-उपभोग तो करें लेकिन इसमें लगाव न रखें, आसक्त न हो, इसमें ही लीन न हो जाएँ, लौ लगाना है तो ईश्वर से लगाओ।
तीसरी बात कही है कि, मा गृधः कस्यस्वीत् धनम्। अर्थात किसी के भी धन का लोभ मत करो। अर्थात अपनी सम्पत्ति पर भी स्वामित्व और आधिपत्य (कब्जे) का भाव न रखें।
जिस हिरण्यगर्भ पञ्चमुखी ब्रह्मा ने इस जगत के/ ब्रह्माण्ड को बढ़ाई की भाँति गढ़ा, वह जगत ही उसके शयन काल में उसमें ही लय हो जाता है। जब यह जगत और इसके पदार्थ अपने सृजेता के नही हुए तो हमारे-तुम्हारे क्या होंगे। जब उसी के नहीं हैं तो हम क्यों अपने नाम करने का, स्वामीत्व आधिपत्य का भ्रम पालें। अतः किसी भी चीज की इच्छा न रखें।
दुसरे मन्त्र में कहा है,
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः |
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||
कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजीविशेत शरदम् समाः अर्थात कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||
इसके अतिरिक्त तेरे पास कोई मार्ग नहीं है। जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।
अर्थात अकर्मण्यता पूर्वक जीवन निर्वाह सम्भव नहीं है, और निरुद्देश्य कर्म करने का भी कोई औचित्य नहीं है, लेकिन फलाशा व्यर्थ है। क्योंकि फल इच्छा करने से फल प्राप्त नहीं होता। बल्कि कर्म का फल तो होगा ही। उससे तो आप बच ही नहीं सकते। तो इच्छा करना तो व्यर्थ ही है ना।
संकल्प सहित किये गए सकाम कर्म बान्धते हैं और ज्ञान खोलता है, छुड़ाता है,मुक्त करता है।
बिना संकल्प के, मैं पन के बिना किये गए निष्काम कर्मों से केवल अन्तःकरण शुद्ध होता है।
मैं- मेरा और हम- हमारा, तु- तेरा, तुम- तुम्हारा, वे- उनका वाले भाव से किए गए कर्म ही बान्धते हैं। इसके बिना मै- मैरा के भाव के बगैर, बिना कामना के, सत उद्देश्य से किये जाने वाले शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से करने पर बन्धनकारी नहीं होते।
वैदिक ग्रन्थों के अनुसार किसी भी एक कर्म से दुसरा कर्म नष्ट नहीं होता। प्रत्येक भले-बुरे कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है।
यदि गलती से तेज चलते दो व्यक्ति आपस में टकरा जाए और एक गिर जाए, लेकिन किसी प्रकार की कोई क्षति न हो और दुसरा व्यक्ति गिरे व्यक्ति से क्षमा प्रार्थना करते हुए उठने में सहायता करे तो क्या गिरने वाला क्षमा नहीं करेगा? यह हुआ छोटे मोटे पाप का प्रायश्चित।
जैसे शैशव, निन्द्रा, स्वप्न, सम्मोहन अवस्था में किया गया अपराध का ज्ञान होने पर जिसके प्रति अपराध हुआ है उससे क्षमा प्रार्थना करने पर और उस व्यक्ति द्वारा क्षमा किया जाने पर उस पाप का शमन हो जाता है, वैसे ही विभिन्न साधारण पापों के प्रायश्चित बतलाये गए हैं।
जिसमें वरिष्ठों का समुचित मान-सम्मान न करना, वचन भङ्ग, पंक्ति भेद, पैर छू जाना, अशालीन भाषा, पर्याप्त दान न कर पाना, पर्याप्त दक्षिणा न देना, पारिश्रमिक कम देना या नही देना, कर्ज चुकाये बिना मृत्यु होना आदि के प्रायश्चित बतलाये हैं। जिससे इन पापों का शमन होता है।
लेकिन सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय न होकर जानबूझकर, केवल स्वार्थवश मच्छर की हत्या का प्रायश्चित भी नहीं हो सकता।
कुछ छोटे मोटे पापों के प्रायश्चित के विषय में कुछ स्थानों में उल्लेख है कि, पर्वकाल में तीर्थ स्नान, तीर्थ में दान आदि प्रायश्चित भी हैं। जिसे पौराणिकों और कथावाचकों नें गङ्गास्नान से पाप धुलना मान लिया।
पौराणिक तो कहते हैं कि, जिसने जीवन भर पाप किया और केवल एक बार ही हरि, नारायण, राम, कृष्ण आदि कोई भी नाम ले लेता है तो उस एकबार नाम लेने मात्र से वैकुण्ठ से भगवान विष्णु के पार्षद आते हैं और यम दूतों को भगाकर उसे वैकुण्ठ लेजाते हैं; तो फिर सदाचार पूर्वक वर्णाश्रम धर्म पालन, पञ्चमहायज्ञ क्यों किये जाएँ। पुराणों के इस मिथ्या और असत्य ज्ञान के फलस्वरूप आजकल अधिकांश जन दुराचारी होगये हैं।
वस्तुतः जीवनभर जो सोचोगे तदनुसार वही कर्म करोगे अतः अन्त समय में भी वही स्मरण होगा।
पौराणिक कथा के आधार पर एक व्यक्ति ने पुत्र का नाम नारायण रख दिया। सोचा जीवनभर कुछ भी करलो, अन्त में पुत्र का नाम याद आता ही है, अतः सब पाप धुल जाएंगे और वैकुण्ठ में सीट पक्की।
अब वह निरंकुश हो गया, उसे पाप कर्म करने में ही रुचि हो गई। मरते समय चार-पाँच बार नारायण, नारायण कह कर पुत्र को पुकारा, लेकिन आखिर दुष्ट का पुत्र था, उसने भी सुनी-अनसुनी कर दी। तब क्रोधित हो कर उस पापी ने पुत्र को तीन चार गन्दी गालियाँ और वैसे ही उसकी मृत्यु हो गई। पौराणिक चालबाजी धरी रह गई।
अतः यह भ्रम छोड़ कर केवल शास्त्रोंक्त वचनानुसार सद्भावना, सद्विचार, सत्य भाषण, सत्कर्म, सदाचार पूर्वक जीवन यापन ही एकमात्र सतपथ है। यही वैदिक सनातन धर्म है।
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