जैसे वैदिक कर्मकाण्ड के लिए अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ के सुत्र ग्रन्थ और सुत्र ग्रन्थों के अनुसार कर्मकाण्ड भास्कर, संस्कार भास्कर जैसे निबन्ध ग्रन्थ बनें वैसे ही
ऐसे ही प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए तन्त्रोक विधि से क्रियाएँ करने हेतु अपने-अपने आगम ग्रन्थ रचे गए। मूर्तिपूजा की विधि पुराणों और आगम ग्रन्थों में ही मिलती है।
शंकराचार्य जी ने चारों मठों को चार वेदों से सम्बन्धित बतलाया। वैसे उसका कोई प्रामाणिक आधार तो नहीं था लेकिन दिशाओं के अनुसार और प्रथम मठाधीश सुरेश्वराचार्य, हस्तमालकाचार्य, त्रोटकाचार्य, पद्मपादाचार्य की रुचि को भी आंशिक रूप से आधार मान सकते हैं।
जब आद्य शंकराचार्य जी ने श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों की शुद्धि कर सनातन धर्म में वापसी करवाई तो,
इन पूर्व श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों नें प्राचीन ऋषियों की वर्णाश्रम व्यवस्था नही अपनाई। वानप्रस्थों के समान आश्रम न बनाते हुए अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इष्टदेव का चयन कर अपने- अपने मठ स्थापित किए। मठों में अपने इष्ट का मन्दिर बनवाया या कुछ नें पञ्चदेवोपासना हेतु तदनुसार मन्दिर बनवाये। श्रमणों और बौद्धों के मठ अधिग्रहित कर शिवलिंग के समान पत्थर (नाम भूल रहा हूँ) को ही शिवलिंग बना लिया।
इन पूर्व श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों नें श्रमण/ बौद्ध/ जैन / तान्त्रिक परम्परानुसार ही अपने-अपने मठों के लिए संविधान बनाया जिसे आम्नाय कहते हैं। हर एक आम्नाय का एक आगम ग्रन्थ तैयार किया। जिसमें मठ व्यवस्था, पूजा विधि, पूजारी चयन आदि नियम हैं।
इन्हीं लोगों नें अपने-अपने मतानुसार पुराण रचे और शास्त्रों में संशोधन कर दिये।
प्रत्येक आम्नाय को एक वेद से जोड़ा गया जैसे शंकराचार्य जी ने किया था।
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