लग्न मूलतः सायन गणना से ही आता है। उसमें अयनांश घटाकर निरयन बनाना पड़ता है।
ऐसे ही
नाक्षत्रीय पद्यति में तो तारामण्डल (नक्षत्र) बतलाया जाता है। इनका उपयोग संहिता ज्योतिष में ही होता है। फलित ज्योतिष/ होरा शास्त्र में नहीं होता।
आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में तेरह तारामण्डल को राशियाँ मान जाता है और अठासी तारामण्डल को नक्षत्र (Constilation) कह सकते हैं। भारत में पहले अट्ठाइस नक्षत्र माने जाते थे, लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र क्रान्तिवृत से काफी दूर हो गया इसलिए अब सत्ताइस नक्षत्र ही चलते हैं।
सूर्य सिद्धान्त और वराहमिहिर दोनों के अनुसार कल्पारम्भ में भू-मध्य रेखा और उज्जैन के देशान्तर रेखा के काट पर वसन्त सम्पात का उदय हो रहा था। उस समय सभी ग्रह वसन्त सम्पात (सायन मेषादि बिन्दु) पर ही थे।
चूंकि उस समय अयनांश भी शुन्य ही था अतः निरयन सायन दोनों स्थितियाँ समान ही थी। तदनुसार उस समय चित्रा तारा पश्चिम में अस्त हो रहा था। अतः चित्रा तारे को नक्षत्र मण्डल के मध्य में (180°) पर माना जाता है। और चित्रा तारे से 180° पर अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ माना जाता है। इसे निरयन मेषादि बिन्दु भी कहा जाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें