बुधवार, 29 मई 2024

आचार्य बादरायण रचित उत्तर मीमांसा दर्शन को ब्रह्मसूत्र और बादरायण को वेदव्यास कैसे माना जाने लगा।

 वेद मन्त्रों को ब्रह्म और उपनिषद के मन्त्रों को ब्रह्म सूत्र कहते हैं। उत्तर मीमांसा दर्शन में उपनिषदों के मन्त्रों की ही व्याख्या की गई है इसलिए उपनिषद और श्रीमद्भगवद्गीता में कई श्लोक तो उपनिषदों के ही हैं और कई श्लोक उपनिषद के मन्त्रों की व्याख्या है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता को उपनिषद का सार कहते हैं। उत्तर मीमांसा दर्शन को भी प्रस्थानत्रयी में स्थान देकर श्रीमद्भगवद्गीता को उपनिषद और उत्तर मीमांसा दर्शन को भी ब्रह्म सूत्र कहने लगे।

आचार्य जैमिनी श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात वेदव्यास जी के शिष्य थे। वेदव्यास जी ने जैमिनी को सामवेद की शिक्षा दी थी। महाभारत में प्रथक से जैमीनीयाश्वमेधपर्व है। 
आचार्य जैमिनी ने भी पूर्व मीमांसा दर्शन में आचार्य बादरी और आचार्य बादरायण का उल्लेख किया है।  आचार्य बादरायण के मत का खण्डन भी किया है। आचार्य जैमिनी अपने गुरु को बादरायण क्यों कहते? साथ ही जैमिनी ने अपने गुरु के मत का खण्डन क्यों करते ?

चूंकि आचार्य जैमिनी ने भी पूर्व मीमांसा दर्शन में आचार्य बादरी और आचार्य बादरायण के मत का उल्लेख और खण्डन किया है और आचार्य बादरायण ने उत्तर मीमांसा दर्शन में आचार्य जैमिनी के मत का खण्डन किया है अतः आचार्य जैमिनी और आचार्य बादरायण दोनों समकालीन सिद्ध हुए।
आचार्य बादरायण ने उत्तर मीमांसा दर्शन मे ही  श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों को स्मृतिच लिखकर सन्दर्भित किया है। इसलिए निश्चित तौर पर महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता के बाद का ग्रन्थ है।
यहाँ तक कि, उत्तर मीमांसा दर्शन में विष्णु पुराण आदि पुराणों के वाक्य भी सन्दर्भित किये हैं। बौद्ध परम्परा - शुन्यवाद और विज्ञानवाद तथा जैन परम्परा के सिद्धान्तों का भी खण्डन किया गया है। इससे प्रमाणित होता है कि, श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि का नेमीनाथ के रूप में सन्यस्त होकर अपना मत प्रचलित करने के भी बहुत बाद उनके मत के व्यापक प्रचार-प्रसार हो जाने के भी बाद उत्तर मीमांसा दर्शन रचा गया।

उत्तर मीमांसा दर्शन के भाष्यकार आचार्य वाचस्पति मिश्र ने आचार्य बादरायण को व्यास की उपाधि से विभूषित किया। इससे आचार्य बादरायण को वेदव्यास समझा जाने लगा।
उत्तर मीमांसा दर्शन का नाम ब्रह्म सूत्र तो भाष्यकारों का दिया हुआ है। वैसे ही शारीरिक सूत्र, भिक्षु सूत्र आदि नाम भी बाद के ही हैं।
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा शब्द से ब्रह्म सूत्र नाम पड़ा। जो वैद मन्त्रों में प्रथम पद में जिस देवता का नाम आता है उस मन्त्र उस देवता को ही उस मन्त्र का देवता मानने की परिपाटी है। इसी परिपाटी में अथातो ब्रह्म जिज्ञासा वाक्य के आधार पर उत्तर मीमांसा दर्शन को ब्रह्म सूत्र कहा गया।
 बौद्ध परम्परा के बाद देह के अन्तर्वर्ती तत्वों के विवेचन को अध्यात्म कहा जाने लगा। उत्तर मीमांसा दर्शन अध्यात्म विषयक होने से शारीरिक सूत्र नाम पड़ा।
विज्ञान भिक्षु द्वारा भाष्य होने के कारण भिक्षु सूत्र नाम पड़ा।

शनिवार, 18 मई 2024

मण्डन मिश्र की माहिष्मती कहाँ थी?

पहले गणराज्यों की सीमा नदियों या पर्वत से ही बनती थी।
काशी और अयोध्या की सीमा निर्धारण सरयू नदी करती थी।
मिथिला की सीमाओं पर गण्डक, गङ्गा और कोशी नदियाँ थी। अध्यात्म रामायण के अनुसार महर्षि विश्वामित्र के साथ श्री राम के जनकपुरी में शिव धनुष देखने जाते समय गोतम आश्रम में तपस्यारत गोतम पत्नी अहिल्या का उद्धार इसी जगह किया था। इसके पश्चात अहिल्या गङ्गा के उत्तर तट पर गई।

 काशी की सीमा रोकने हेतु राजा उदापि ने अपने राज्यारोहण के चौथे वर्ष में गङ्गा और शोन के सङ्गम स्थल पर पटना दुर्ग बनाया था। तब शोण पटना से सटकर बहती थी।लेकिन आजकल गङ्गा पटना से ५० कि.मी. पश्चिम में हो गई है।

इन कारणों से उन क्षेत्रों में जन्में व्यक्तियों, या जिनका कार्यक्षेत्र ये स्थान रहे, या कोई पुस्तक इस क्षेत्र में रची गई, या किसी पुस्तक में इन क्षेत्रों का उल्लेख हुआ वे विवादित हो गये।
उदाहरणार्थ मण्डन मिश्र के निवास और आद्य शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ के स्थान के विषय पर मगध, मिथिला, मण्डला और मण्डलेश्वर जैसे कई स्थानों का दावा किया जाता है।
जबकि शास्त्रीय प्रमाण है कि,
मण्डन मिश्र का जन्म स्थान या निवास स्थान शोण तट, मगध सीमा और शालवन में था।

शक शब्द के दो अर्थ - संवत और शक जाति ।

*शक और कुषाण उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त अर्थात तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में  शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) में गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) के मूल निवासी थे।*
हूण भी इसी क्षेत्र के उत्तर में मङ्गोलिया से लगे क्षत्र के निवासी थे। 
इसलिए वर्तमान में लोग इन्हें विदेशी कहते हैं।

"पुराणों अनुसार *शक जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।*
कुषाण -- मथुरा के इतिहासकार मानते हैं कि वे *शिव के उपासक और कुष्मांडा जाति के थे। इस जाति के लोग प्राचीन काल में भारत से बाहर जाकर बस गए थे और जब वे शक्तिशाली बन गए तो उन्होंने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।*
हूण --- *हुंडिया एक यक्ष था। उस काल में यक्षों का मूल स्थान तिब्बत और मंगोल के बीच का स्थान था। कुबेर वहीं के राजा थे। कई ऐसे यक्ष थे, जो चमत्कारिक थे। जैन पन्थ में यक्षों-यक्षिणिनियों की लोकपूजा भी होती है। यह वेद विरुद्धकर्म है।*
यक्ष उपासक जैन लोग हुंडिय को महावीर स्वामी के पहले के (पार्श्वनाथ आदि की) जैन परम्परा के अनुयाई मानते हैं।

इतिहासकार ऐसा लिखते हैं कि, उक्त जातियों का राजपूतो की अलग-अलग जातियों से वैवाहिक सम्बन्ध होते थे।

राज तरङ्गिणी तरङ्ग -१ के अनुसार कश्मीर में गोनन्द वंश का इक्कावनवाँ राजा कनिष्क हुआ। जिसका राज्यारोहण ईस्वी पूर्व १२९४ में हुआ। इसका प्रमाण उसके शिलालेख हैं।
कुषाण वंशीय कनिष्क प्रथम और कनिष्क द्वितीय दोनों उसके परवर्ती रहे।
लेकिन भ्रमवश तीनों को एक मानकर भ्रम फैलाया गया।

शालिवाहन शकाब्द+ ३१७९ = कलियुग संवत।
शालिवाहन शकाब्द+ ३२१७ = युधिष्ठिर संवत।
विक्रम संवत+ ३०४४ = कलियुग संवत।
विक्रम संवत+ ३०८२ = युधिष्ठिर संवत।
कलियुग संवत + ३८ = युधिष्ठिर संवत।
ईस्वी सन + ३१०१ = कलियुग संवत
ईस्वी सन + ३१३९ = युधिष्ठिर संवत
संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में शक शब्द संवत के अर्थ में प्रयोग होता था। यथा युधिष्ठिर संवत को युधिष्ठिर शक भी कहा गया है।
इस कारण कई इतिहासकारों नें भ्रमित होकर युधिष्ठिर शक को युधिष्ठिर संवत के स्थान पर शालिवाहन शकाब्द मानकर कई प्राचीन व्यक्तियों को ३२१७ वर्ष बाद जन्मे मान लिया और ऐसे ही कई प्राचीन ग्रंथों को भी ३२१७ वर्ष पश्चात की रचना मानकर कई विभ्रम पैदा कर अनर्थ कर डाला। यथा ---

वराहमिहिर ने अपनी जन्मतिथि युधिष्ठिर संवत ३०४२ चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि बतलाई है। अर्थात ०६ मार्च ९७ ईसापूर्व में वराहमिहिर जन्में थे।
उत्पल भट्ट के अनुसार वराहमिहिर का देहान्त ९० वर्षायु में हुआ अर्थात ईसापूर्व ०७ में वराहमिहिर का देहान्त हुआ।

वराहमिहिर, कालिदास, और जिष्णुगुप्त के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने युधिष्ठिर संवत का ही प्रयोग किया है। जबकि लोगों ने भ्रमवश शक शब्द देखकर शालिवाहन शकाब्द का अनुमान कर उन्हें युधिष्ठिर संवत में दिए गए उनके वास्तविक जन्म संवत से ३२१७ वर्ष बाद में जन्मा मान लिया ।
परिणाम स्वरूप ब्रह्मगुप्त के ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त की रचना ६२६ ईस्वी मान लिया गया।

शुक्रवार, 17 मई 2024

पञ्च महायज्ञ

वेदोक्त धर्म / वर्णाश्रम धर्म/ ब्राह्मण ग्रन्थो ,आरण्यकों, उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्म धर्म/विभिन्न धर्म सुत्रों और याज्ञवल्क्य स्मृति आदि द्वारा बतलाये गये आर्ष धर्म/मानव धर्य शास्त्र और मनुस्मृति द्वारा बतलाये गये मानव धर्म/सनातन वेदिक धर्म के अनुसार
*पञ्चमहायज्ञ -* 
1सन्ध्योपासना, वेदाध्यन, अध्यापन, गायत्रीमंत्र जप, अष्टाङ्ग योगाभ्यास रुपी *ब्रह्म यज्ञ* ।
2 जप, भजन, किर्तन, देव आव्हान पुर्वक अग्निहोत्र रुपी *देवयज्ञ*।
3 अतिथि, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, सन्यासियों ,बिमार, दुःखी, वृद्धों, बेसहाराओं और जरुरतमंदों की सेवा सुश्रुषा करना, सामाजिक दायित्व निर्वहन कर *नृयज्ञ* / मानव यज्ञ/ अतिथि यज्ञ।
4 बलिवैश्वदेव कर्म - गौ बलि - (गौ आदि पाल्य पशु), श्वान बलि - (कुत्ता आदि सड़क के पशु), काक बलि - (कौवा आदि पक्षी), देव बलि -(यक्ष,गन्धर्व आदि योनियों में भटक रहे जीवों के लिये), पिपीलिकादि बलि - चीटियों, मछलियों आदि छोटे जीवों और पैड़पोधों की सेवासुश्रषा कर *भूत यज्ञ* करना।
5 - माता- पिता, बुजुर्गों, पास पड़ोसियों, रिश्तेदारों की सेवासुश्रुषा करना, तर्पण, नित्य श्राद्ध करना, सन्तान उत्पन्न करना आदि के माध्यम से *पित्र यज्ञ* करना।
 06 *स्मार्त-पुर्त कर्म* (घर तथा आसपास साफ सफाई करना, गन्दगी होने से रोकना; कुवे, बावड़ी, तालाब, नहर खुदवाना; बाग - बगिचे, वन-उपवन लगाना; सड़क/ मार्ग बनवाना, मार्गावरोध दूर करना, प्रकाश व्यवस्था करना; धर्मशाला, ,अतिथि शाला, बस स्टाप, बनवाना; विद्यालय, पुस्तकालय बनवाना; औषधालय बनवाना, जिन्हे हम आजकल केन्द्र, प्रदेश, जिला और स्थानीय शासन प्रशासन के भरोसे छोड़े बैठे है वे कार्य करना और उसमें सहयोग देना। *ये हमारे धार्मिक कर्त्तव्य हैं।*
इनको छोड़ कर वर्तमान में *जैन बौद्धों से होड़ कर मिश्र, युनान, अरब देशों से जैनों द्वारा अपनायी गयी मुर्तिपुजा और कबर / समाधियों की पुजा के लिये बड़े / छोटे ढेरों मन्दिर, समाधियाँ/ छत्रियाँ (दरगाह/ मकबरे) बनवा लिये* और उनके लिये *पाञ्चरात्र आदि आगम / तन्त्र शास्त्र रचडाले*। उन्ही में आपके द्वारा प्रेषित नियम - मुर्तिपुजा, प्रतिमा ध्यान, और सकामोपासना रुपी प्रार्थना के विधान रचे।
और कमी थी तो *यक्ष पुजक जैनों* से भी आगे बड़कर समयमत के *दक्षिण पन्थी समय मत तन्त्रशास्त्र*, *कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण रचित शाबरी, डाबरी वाममार्गी कौलमत के तन्त्रशास्त्र* रचडाले। और *अघोरियों को सन्त का दर्जा देकर पुज्य मानलिया*। *ये सब महा अधर्म है।*
*मुर्तिपुजा के दोष -*
1- *वेद विरोधी* - न तस्य प्रतिमा अस्ति यजुर्वेद 32/3 परमात्मा की कोई प्रतिमा नही है के विरुद्ध प्रतिमा गड़ना फिर पुजना। वास्तव में पुजा मतलब सेवा होता है। केवल पर्यावरण का ध्यान रख कर भूमि की सेवासुश्रुषा कर सकते हैं। जड़ प्रतिमा की सेवा कैसे करोगे? और उससे क्या सार्थकता?
2- *सर्वव्यापी/ सर्वव्यापक / सर्वव्याप्त परमात्मा की कोई सीमा/ लिमिट नही होती इसलिये परमात्मा का कोई आकार, रुप और परिसीमा / शेप नही होता।*
 ऐसे परमात्मा की प्रतिमा/ मुर्ति कैसे बनाओगे। अर्थात *परमात्मा की मुर्ति गड़ना/ प्रतिमा निर्माण करना, में सहयोगी होना, प्रतिमा निर्माण का कारण बनना ( कोई पुजता है इसलिये कलाकार बना कर बेंचता है), प्रतिमा बनवाना सभी धार्मिक दृष्टि से अपराध है/ पाप है।*
3 - *अपरिमित सर्वव्याप्त को अति सिमित बतलाना* - ईश्वर यहाँ इस मुर्ति/ प्रतिमा में है, इसके बाहर आसपास , मन्दिर के बाहर आसपास नही है यह मानना और मानने की प्रेरणा बनना। इस कारण लोग मन्दिर के बाहर निशंक अपराध/ पापकर्म करते हैं। क्यों कि वे समझते हैं कि वहाँ कोई देखने वाला नही है।
4 - विभिन्न *देवताओं को ईष्ट मान कर उन्हे ईश्वर , महेश्वर, जगदीश्वर, परमेश्वर मानना।* यहाँ तक कि, सन्तोषी माता जैसे नवीन देवी- देवता गड़ लेना, और परब्रह्म परमेश्वर, विष्णु - माया हैं।
 उल्लेखनीय है कि, वेदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों ,आरण्यकों, और उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म , विधाता, सवितृ (हरि) - सावित्री (कमला) महेश्वर तथा अपरब्रह्म विराट नारायण - श्रीलक्ष्मी आदि जगदीश्वर हैं। सर्वेश्वर और परमेश्वर नही हैं।
तथा हिरण्यगर्भ ( विश्वकर्मा), त्वष्टा- रचना भी ईश्वर श्रेणी के देवता हैं।

 इनके अलावा
 प्रजापति रुचि- आकुति एवम् दक्ष (प्रथम) -प्रसुति,स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, ब्रहस्पति, इन्द्र- शचि आदि *जन्मजात अजयन्त देवों* , ब्रह्मणस्पति- द्वादश आदित्य, वाचस्पति - अष्टवसु, पशुपति - एकादश रुद्र आदि *प्राकृतिक वैराज देवों* हैं।

जबकि *अजयन्त देव, वैराज देव आदि परमेश्वर के शासन के प्रशासकीय अङ्ग / अधिकारी हैं।* स्वयम् शासक, नियन्ता/ नही है।
इनके अलावा - 

अनेकरुद्र - भैरव, काली, शीतला आदि *रौद्रदेवता*, रामदेवजी, तेजाजी आदि *लोक देवताओं* की श्रेणी में आते हैं। 

इन सबके मन्दिर बनाये गये और पुजा की जाने लगी।
 
5- इन उपर्युक्त देवी- देवताओं के उपासकों द्वारा अपने अपने *सम्प्रदाय बनाकर स्वयम् को श्रेष्ठ तथा अन्यों को निष्कृष्ट सिद्ध कर आपसी फुट परस्ती पैदा करना।*
6 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को भी असहाय समझकर उनको बच्चा समझकर उनका पालन पोषण करने जैसे भाव से पूजा (सेवा) करना।*
7 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को मुर्ख ,अज्ञानी समझ कर उन्हे अपनी आवश्यकता बतला कर उस आवश्यकता की पुर्ति का उपाय समझाना।* (कि उसको ऐसा करके मेरे लिए ऐसा करदे।) इस प्रकार *निष्काम स्तुति- प्रार्थना को सकामोपासना में बदलना।*
8- *माता-पिता, गुरु की सेवासुश्रुषा न कर उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
9 - *सुर्य, नक्षत्रों, सप्तर्षि, ध्रुवतारा, ग्रहों, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, नदि, पहाड़ जैसे प्रत्यक्ष होते हुए उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
10 - *माता पिता का अनादर करना जबकि शास्त्रानुसार पुत्र का गुरु पिता होता ही है। पुत्री की गुरु भी पिता तथा विवाह पश्चात पति ही गुरु होता है।*
 फिर भी किसी पन्थ विशेष के उस सम्प्रदाय/ पन्थ के महन्त, मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर को ईश्वर तुल्य समझना, और माता- पिता ,पति, सास श्वसुर, बुजुर्गों , बिमारों, बच्चों को छोड़कर उन महन्तो मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर की आज्ञानुसार *उनकी उचित अनुचित सेवासुश्रुषा करना।*
 और उस पन्थ/ सम्प्रदाय के मन्दिर, मुर्ति, के सम्मुख सभी गिड़गिड़ाना।

11 और.अन्त में उन महन्त, *मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर के मत परिवर्तन पर या मन्दिर/ प्रतिमा/मुर्ति या प्रतीक के भञ्जन करने वाले असुर के प्रति श्रद्धावन्त होकर उनके पन्थ/ सम्प्रदाय/ मजहब के प्रति आस्थावन्त हो अपने वर्णाश्रम के स्वधर्म और राष्ट्रधर्म का त्याग कर असुरों का दास होना।* 
 और आसुरी धर्म पालन करना।
मुर्तिपुजा के ये सब परिणाम हमें प्रत्यक्ष दिख रहे हैं।

*अतः आपके द्वारा प्रेषित प्रक्रिया व्यर्थ आडम्बर मात्र है।*














वेदोक्त धर्म / वर्णाश्रम धर्म/ ब्राह्मण ग्रन्थो ,आरण्यकों, उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्म धर्म/विभिन्न धर्म सुत्रों और याज्ञवल्क्य स्मृति आदि द्वारा बतलाये गये आर्ष धर्म/मानव धर्य शास्त्र और मनुस्मृति द्वारा बतलाये गये मानव धर्म/सनातन वेदिक धर्म के अनुसार
*पञ्चमहायज्ञ -* 
1सन्ध्योपासना, वेदाध्यन, अध्यापन, गायत्रीमंत्र जप, अष्टाङ्ग योगाभ्यास रुपी *ब्रह्म यज्ञ* ।
2 जप, भजन, किर्तन, देव आव्हान पुर्वक अग्निहोत्र रुपी *देवयज्ञ*।
3 अतिथि, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, सन्यासियों ,बिमार, दुःखी, वृद्धों, बेसहाराओं और जरुरतमंदों की सेवा सुश्रुषा करना, सामाजिक दायित्व निर्वहन कर *नृयज्ञ* / मानव यज्ञ/ अतिथि यज्ञ।
4 बलिवैश्वदेव कर्म - गौ बलि - (गौ आदि पाल्य पशु), श्वान बलि - (कुत्ता आदि सड़क के पशु), काक बलि - (कौवा आदि पक्षी), देव बलि -(यक्ष,गन्धर्व आदि योनियों में भटक रहे जीवों के लिये), पिपीलिकादि बलि - चीटियों, मछलियों आदि छोटे जीवों और पैड़पोधों की सेवासुश्रषा कर *भूत यज्ञ* करना।
5 - माता- पिता, बुजुर्गों, पास पड़ोसियों, रिश्तेदारों की सेवासुश्रुषा करना, तर्पण, नित्य श्राद्ध करना, सन्तान उत्पन्न करना आदि के माध्यम से *पित्र यज्ञ* करना।
 06 *स्मार्त-पुर्त कर्म* (घर तथा आसपास साफ सफाई करना, गन्दगी होने से रोकना; कुवे, बावड़ी, तालाब, नहर खुदवाना; बाग - बगिचे, वन-उपवन लगाना; सड़क/ मार्ग बनवाना, मार्गावरोध दूर करना, प्रकाश व्यवस्था करना; धर्मशाला, ,अतिथि शाला, बस स्टाप, बनवाना; विद्यालय, पुस्तकालय बनवाना; औषधालय बनवाना, जिन्हे हम आजकल केन्द्र, प्रदेश, जिला और स्थानीय शासन प्रशासन के भरोसे छोड़े बैठे है वे कार्य करना और उसमें सहयोग देना। *ये हमारे धार्मिक कर्त्तव्य हैं।*
इनको छोड़ कर वर्तमान में *जैन बौद्धों से होड़ कर मिश्र, युनान, अरब देशों से जैनों द्वारा अपनायी गयी मुर्तिपुजा और कबर / समाधियों की पुजा के लिये बड़े / छोटे ढेरों मन्दिर, समाधियाँ/ छत्रियाँ (दरगाह/ मकबरे) बनवा लिये* और उनके लिये *पाञ्चरात्र आदि आगम / तन्त्र शास्त्र रचडाले*। उन्ही में आपके द्वारा प्रेषित नियम - मुर्तिपुजा, प्रतिमा ध्यान, और सकामोपासना रुपी प्रार्थना के विधान रचे।
और कमी थी तो *यक्ष पुजक जैनों* से भी आगे बड़कर समयमत के *दक्षिण पन्थी समय मत तन्त्रशास्त्र*, *कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण रचित शाबरी, डाबरी वाममार्गी कौलमत के तन्त्रशास्त्र* रचडाले। और *अघोरियों को सन्त का दर्जा देकर पुज्य मानलिया*। *ये सब महा अधर्म है।*
*मुर्तिपुजा के दोष -*
1- *वेद विरोधी* - न तस्य प्रतिमा अस्ति यजुर्वेद 32/3 परमात्मा की कोई प्रतिमा नही है के विरुद्ध प्रतिमा गड़ना फिर पुजना। वास्तव में पुजा मतलब सेवा होता है। केवल पर्यावरण का ध्यान रख कर भूमि की सेवासुश्रुषा कर सकते हैं। जड़ प्रतिमा की सेवा कैसे करोगे? और उससे क्या सार्थकता?
2- *सर्वव्यापी/ सर्वव्यापक / सर्वव्याप्त परमात्मा की कोई सीमा/ लिमिट नही होती इसलिये परमात्मा का कोई आकार, रुप और परिसीमा / शेप नही होता।*
 ऐसे परमात्मा की प्रतिमा/ मुर्ति कैसे बनाओगे। अर्थात *परमात्मा की मुर्ति गड़ना/ प्रतिमा निर्माण करना, में सहयोगी होना, प्रतिमा निर्माण का कारण बनना ( कोई पुजता है इसलिये कलाकार बना कर बेंचता है), प्रतिमा बनवाना सभी धार्मिक दृष्टि से अपराध है/ पाप है।*
3 - *अपरिमित सर्वव्याप्त को अति सिमित बतलाना* - ईश्वर यहाँ इस मुर्ति/ प्रतिमा में है, इसके बाहर आसपास , मन्दिर के बाहर आसपास नही है यह मानना और मानने की प्रेरणा बनना। इस कारण लोग मन्दिर के बाहर निशंक अपराध/ पापकर्म करते हैं। क्यों कि वे समझते हैं कि वहाँ कोई देखने वाला नही है।
4 - विभिन्न *देवताओं को ईष्ट मान कर उन्हे ईश्वर , महेश्वर, जगदीश्वर, परमेश्वर मानना।* यहाँ तक कि, सन्तोषी माता जैसे नवीन देवी- देवता गड़ लेना, और परब्रह्म परमेश्वर, विष्णु - माया हैं।
 उल्लेखनीय है कि, वेदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों ,आरण्यकों, और उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म , विधाता, सवितृ (हरि) - सावित्री (कमला) महेश्वर तथा अपरब्रह्म विराट नारायण - श्रीलक्ष्मी आदि जगदीश्वर हैं। सर्वेश्वर और परमेश्वर नही हैं।
तथा हिरण्यगर्भ ( विश्वकर्मा), त्वष्टा- रचना भी ईश्वर श्रेणी के देवता हैं।

 इनके अलावा
 प्रजापति रुचि- आकुति एवम् दक्ष (प्रथम) -प्रसुति,स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, ब्रहस्पति, इन्द्र- शचि आदि *जन्मजात अजयन्त देवों* , ब्रह्मणस्पति- द्वादश आदित्य, वाचस्पति - अष्टवसु, पशुपति - एकादश रुद्र आदि *प्राकृतिक वैराज देवों* हैं।

जबकि *अजयन्त देव, वैराज देव आदि परमेश्वर के शासन के प्रशासकीय अङ्ग / अधिकारी हैं।* स्वयम् शासक, नियन्ता/ नही है।
इनके अलावा - 

अनेकरुद्र - भैरव, काली, शीतला आदि *रौद्रदेवता*, रामदेवजी, तेजाजी आदि *लोक देवताओं* की श्रेणी में आते हैं। 

इन सबके मन्दिर बनाये गये और पुजा की जाने लगी।
 
5- इन उपर्युक्त देवी- देवताओं के उपासकों द्वारा अपने अपने *सम्प्रदाय बनाकर स्वयम् को श्रेष्ठ तथा अन्यों को निष्कृष्ट सिद्ध कर आपसी फुट परस्ती पैदा करना।*
6 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को भी असहाय समझकर उनको बच्चा समझकर उनका पालन पोषण करने जैसे भाव से पूजा (सेवा) करना।*
7 - उपर्युक्त *देवी- देवताओं को मुर्ख ,अज्ञानी समझ कर उन्हे अपनी आवश्यकता बतला कर उस आवश्यकता की पुर्ति का उपाय समझाना।* (कि उसको ऐसा करके मेरे लिए ऐसा करदे।) इस प्रकार *निष्काम स्तुति- प्रार्थना को सकामोपासना में बदलना।*
8- *माता-पिता, गुरु की सेवासुश्रुषा न कर उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
9 - *सुर्य, नक्षत्रों, सप्तर्षि, ध्रुवतारा, ग्रहों, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, नदि, पहाड़ जैसे प्रत्यक्ष होते हुए उनकी प्रतिमा/ मुर्ति/ चित्र की पुजा करना।*
10 - *माता पिता का अनादर करना जबकि शास्त्रानुसार पुत्र का गुरु पिता होता ही है। पुत्री की गुरु भी पिता तथा विवाह पश्चात पति ही गुरु होता है।*
 फिर भी किसी पन्थ विशेष के उस सम्प्रदाय/ पन्थ के महन्त, मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर को ईश्वर तुल्य समझना, और माता- पिता ,पति, सास श्वसुर, बुजुर्गों , बिमारों, बच्चों को छोड़कर उन महन्तो मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर की आज्ञानुसार *उनकी उचित अनुचित सेवासुश्रुषा करना।*
 और उस पन्थ/ सम्प्रदाय के मन्दिर, मुर्ति, के सम्मुख सभी गिड़गिड़ाना।

11 और.अन्त में उन महन्त, *मण्डलेश्वर/ महामण्डलेश्वर के मत परिवर्तन पर या मन्दिर/ प्रतिमा/मुर्ति या प्रतीक के भञ्जन करने वाले असुर के प्रति श्रद्धावन्त होकर उनके पन्थ/ सम्प्रदाय/ मजहब के प्रति आस्थावन्त हो अपने वर्णाश्रम के स्वधर्म और राष्ट्रधर्म का त्याग कर असुरों का दास होना।* 
 और आसुरी धर्म पालन करना।
मुर्तिपुजा के ये सब परिणाम हमें प्रत्यक्ष दिख रहे हैं।

*अतः आपके द्वारा प्रेषित प्रक्रिया व्यर्थ आडम्बर मात्र है।*

राजनीतिक दल

केवल आर्थिक विचारों पर आधारित कम से कम तीन और अधिकतम पाँच राजनीतिक दल हो। १ पूँजी वादी २ *परम्परा वादी* ३ *उदार वादी* (मध्यम मार्गी) ४ *समाजवादी* (सबका साथ सबका विकास) ५ श्रमिक दल ।
इनकी नीतियाँ और घोषणाएँ निश्चित हो।
विदेशनीति और गृह नीति (व्यवस्था) सबकी एक ही हो। कोई भी अराजकतावादी, अन्तर्राष्ट्रीयता वादी, जातिवादी, भाषा वादी, प्रान्तवादी और पन्थ विशेष की विचारधारा वाली राजनीति घोर प्रतिबन्धित हो।
निर्वाचन के समय इन्हें गत निर्वाचन के बाद अपने कार्यों का ब्योरा प्रस्तुत करना होगा। जिसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिन्ट मीडिया के माध्यम से ही प्रचारित किया जा सके। कोई आम सभा, नुक्कड़ सभा, रेली कुछ नहीं हो।
केवल हर माह मोहल्ला / कॉलोनी, वार्ड, ग्राम/ नगर के लोग मिलकर प्रश्नावली भेजे और प्रगति का लेखा मांगे। जिसे पदाधिकारी ऑनलाइन उत्तर दें, तीन/ छः माह में प्रत्यक्ष उपस्थित होकर उत्तर दें।

शिक्षा प्रणाली।

बचपन से प्राथमिक शिक्षा ही कृषि, बागवानी,गृह उद्योगों, भवन, सड़क, पसेतु, बान्ध निर्माण और कारखानो, औषधालयों, चिकित्सालयों, दुकानों, प्रयोगशालाओं , वैधशालाओं, पूलिस थाना, न्यायालयों, सङ्गीत शालाओं, नृत्य शालाओं, नाट्य शालाओं,फिल्म शुटिंग, खेलकूद एथलीट्स गतिविधिया़, योग शिक्षा, कार्यालयों, यज्ञ-याग, विवाह आदि धार्मिक-सामाजिक समारोहों, चिड़ियाघरों जैसे सभी व्यवहारों में ही लेजाकर, प्रत्यक्ष, दिखाकर 
वहीँ संज्ञा, क्रिया, विशेषण, क्रिया विशेषण सब दिखेंगे, बच्चों को पहले उन्हें दिखाकर समझाओ,बच्चा पूछे तो भी बतलाओ। 
इस ढंग से भाषा, गणित, भुगोल, भौतिकी, रसायन जैसे सभी विषयों को प्रत्यक्ष दिखाओ, करने दो और करवाओ। इस प्रकार उसकी रुचि देखी- समझी और कौशल देखा-परखा जाए। और उसके योग्य क्षेत्र में ही उसे शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाए।
जितना विकास करता जाए, करने दो। स्वरोजगार से धनार्जन भी कर लेगा और अपनी रुचि और कौशल के अनुसार व्यवसाय भी खड़ा कर लेगा।
कृषि-बागवानी हो, निर्माण प्रकल्प हो, उद्योग हो सभी परस्पर पूरक योग्यता वाले लोग मिलकर सामुदायिक रूप से सहकारिता के साथ स्थापित कर संचालित करें। कोई नोकर नहीं कोई मालिक नहीं। सभी समान साझेदार होंगे।
यही सब गुरुकुल में होता था। ब्रह्मचारी और शुद्र सेवा करते-करते ही सीख जाता था।
चाहे गोपालन / गयें चराने जाना हो या खेत की मेढ़ बान्धकर पानी रोकना हो या आश्रम की साफ सफाई, रसोई बनाना हो, बर्तन मार्जन हो चाहे गुरु के वस्त्र प्रक्षालन हो इन सेवाओं से बड़े बड़े ज्ञानी हुए हैं।

बुधवार, 15 मई 2024

जीवन कैसे जीया जाए?

पाँच वर्ष की अवस्था से बीस वर्ष तक की वय में गुरुकुल में अनुशासित जीवन जीते हुए पूर्ण श्रद्धा, समर्पण, निष्ठा और लगन पूर्वक विद्याध्ययन करना। फिर

बीस से तीस वर्ष की अवस्था तक धर्म पालन सहित, निष्ठा लगन बुद्धि - चातुर्य सहित कठोर परिश्रम पूर्वक धनार्जन। और उसके बाद 

धैर्य पूर्वक स्थायित्व के साथ परिवार, मोहल्ले, ग्राम, नगर, राज्य, देश और समाज की व्यवस्था सम्हालते हुए जिस समाज से लिया उसकी वैसी ही सेवा करते हुए यथा सामर्थ्य पचास/ साठ/ पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक आजीविका चलाना। उसके बाद 

अपने ज्ञान और अनुभव से बिना अपने-पराये का भेद किये त्याग और तपस्या पूर्वक नई पीढ़ी को योग्य बनाने की सेवा करना और हरि भजन करना।

आज भी लगभग सभी को यही करना पड़ता है।
बस
गुरुकुल, श्रद्धा, समर्पण, अनुशासन, त्याग और तपस्या छूट गये।
बीस-पच्चीस साल की उम्र तक पढ़ाई कम ढीठाई अधिक।
तीस- चालित साल की उम्र तक सुख- चैन, घर- परिवार सबको त्याग कर पैसे के पीछे भागना।
साठ- पैंसठ वर्षायु तक घर परिवार के लिए एशो-आराम के संसाधन जुटाना।
फिर बीमार, लूंज-पूंज, अपङ्ग होकर आराम फरमाना।
यह आज की जीन्दगी है।
या तो व्यवस्था में परिवर्तन की क्रान्ति में सहयोगी बनें या अव्यस्था के शिकार होकर संघर्ष करते-करते मर जाएँ।

या तो सुखी सन्तुष्ट जीवन जी लो या आधुनिक जीवनशैली अपनाकर आत्मघात करलो।

मर्जी है आपकी। आखिर जीवन है आपका।

वेदों का अर्थ और भाव कैसे जानें/ समझेंगे?

वेदों को समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। जिसमें आरण्यक और उपनिषद सम्मिलित ही है।
वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा, अर्थ और भाव समझने के लिए षड वेदाङ्गों का अभ्यास चाहिए।
उच्चारण हेतु शिक्षा, शब्दार्थ ज्ञान हेतु निरुक्त और निघण्टु (शब्दकोश), वाक्य विन्यास और काक्य का अर्थ समझने के लिए व्याकरण, पेरोग्राफ, पद का भाव समझने के लिए छन्दशास्त्र और पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दर्शन, तर्क समझने हेतु न्याय दर्शन, एकाग्रता के लिए पञ्चमहायज्ञ और अष्टाङ्ग योग, योग दर्शन अत्यावश्यक है। तथा विधि निषेध और व्यवस्था समझने के लिए धर्म सूत्र, यज्ञ वेदी, मण्डप और वास्तु तथा गणित ज्ञान हेतु शुल्बसूत्र, और सिद्धान्त ज्योतिष, बड़े यज्ञों की आवश्यकता, महत्व, उपयोगिता और विधि निषेध समझने के लिए श्रोत सूत्र, संस्कार, व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों को मनाने के विधि- निषेध, आवश्यकता, उपयोगिता और महत्व जानने के लिए ग्रह्यसूत्र समझना आवश्यक है।
वैज्ञानिक तथ्य समझने के लिए आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद/ स्थापत्य वेद और सामगान हेतु गन्धर्व वेद (उप वेदों) और समाज शास्त्र-राजनीति का ज्ञान अर्थशास्त्र का ज्ञान आवश्यक है।

मंगलवार, 14 मई 2024

आदर्श राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग केलेण्डर कैसा हो?

मैरा मत है, मैरी मंशा है कि,
भारत शासन की ओर से राष्ट्रीय केलेण्डर में संशोधन कर निम्नानुसार परिवर्तन किए जाएँ।

1 संवत्सर कलियुग संवत लिखा जाए।

2 सायन मेष संक्रान्ति/ वसन्त सम्पात से संवत्सर परिवर्तन होना दर्शाया जाए। 

3 सायन संक्रान्ति के दुसरे दिन या गतांश ०१ हो उस दिन मास परिवर्तन दर्शाया जाकर संक्रान्ति गते ०१ अंकित किया जाए।

4 सायन मेष मास को वैदिक मधु मास , सायन वृषभ मास को माधव मास। मासों के ऐसे वैदिक नाम ही अंकित किये जाए। माहों के नाम १ मधू, २ माधव, ३ शुक्र, ४ शचि, ५ नभ:, ६ नभस्य, ७ ईष, ८ ऊर्ज, ९ सहस, १० सहस्य, ११ तपः और १२ तपस्य मास नाम हो।

5  मासारम्भ के दिनांक ग्रेगोरियन केलेण्डर / C.E. के दिनांक निम्नानुसार हो।

१- मधुमास 21 मार्च से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
२- माधव मास 21 अप्रेल से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
३-मिथुन / शुक्र/ 22 मई से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
४- शचि मास 22 जून से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
वर्षा ऋतु 
५- नभस मास 23 जुलाई से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
६ नभस्य मास 23 अगस्त से प्रारम्भ होकर 31 दिन का मास रहेगा। 
७- ईष मास 23 सितम्बर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
८- उर्ज मास 23 अक्टूबर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
९- सहस मास 22 नवम्बर से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
१०- सहस्य मास 22 दिसम्बर प्रारम्भ होकर 29 दिन का मास रहेगा। 
११- तपस मास 20 जनवरी से प्रारम्भ होकर 30 दिन का मास रहेगा। 
१२- तपस्य मास 19 फरवरी से प्रारम्भ होकर सामान्य वर्ष में 30 दिन का रहेगा और प्रति चौथे वर्ष प्लूत वर्ष (लीप ईयर) में 31 दिन का रहेगा।

6 सायन मेष संक्रान्ति (वसन्त सम्पात) से सायन तुला संक्रान्ति तक वैदिक उत्तरायण/ उत्तर गोल दर्शाया जाए।
सायन कर्क संक्रान्ति (उत्तर परम क्रान्ति) से सायन मकर संक्रान्ति तक वैदिक उत्तर तोयन दर्शाया जाए।
सायन तुला संक्रान्ति (शरद सम्पात) से सायन मेष संक्रान्ति तक वैदिक दक्षिणायन/ दक्षिण गोल दर्शाया जाए।
सायन मकर संक्रान्ति (दक्षिण परम क्रान्ति) से सायन कर्क संक्रान्ति तक दक्षिण तोयन दर्शाया जाए।

7 सायन मेष-वृषभ के सूर्य मधु- माधव मास में वैदिक वसन्त ऋतु, 
सायन मिथुन -कर्क के सूर्य में में ग्रीष्म ऋतु, 
सायन सिंह-कन्या के सूर्य में वर्षा ऋतु, 
सायन तुला-वृश्चिक के सूर्य में शरद ऋतु, 
सायन धनु- मकर के सूर्य में हेमन्त ऋतु और 
सायन कुम्भ मीन के सूर्य में तपस तपस्य मास में वैदिक शिशिर ऋतु दर्शाई जाए

8 अयन, तोयन, ऋतु और मासारम्भ का स्पष्टीकरण ---
 क - उत्तरायण/उत्तर गोल, दक्षिण तोयन।
वसन्त ऋतु 
१-मेष / मधु / 21 मार्च से / 31 दिन। 
२-वृष / माधव/ 21 अप्रेल से / 31 दिन।  

ग्रीष्म ऋतु।
३-मिथुन / शुक्र/ 22 मई से / 31 दिन। 

उत्तरायण / उत्तर गोल , दक्षिण तोयन।
४-कर्क / शचि/ 22 जून से / 31 दिन। 

वर्षा ऋतु 
५-सिंह / नभस / 23 जुलाई से / 31 दिन। 
६ कन्या / नभस्य / 23 अगस्त / 31 दिन। 

 दक्षिणायन / दक्षिण गोल, उत्तर तोयन 

शरद ऋतु
७-तुला / ईष / 23 सितम्बर से / 30 दिन। 
८-वृश्चिक / उर्ज / 23 अक्टूबर से / 30 दिन। 

हेमन्त ऋतु 
९-धनु / सहस / 22 नवम्बर से /30 दिन। 

दक्षिणायन / दक्षिण गोल, / दक्षिण तोयन
१०-मकर / सहस्य / 22 दिसम्बर से/ 29 दिन। 

शिशिर ऋतु 
११-कुम्भ / तपस / 20 जनवरी से /30 दिन। 
१२-मीन / तपस्य / 19 फरवरी से / 30 या 31 दिन।

9  इस प्रकार कलियुग संवत या युगाब्ध में उत्तरायण - दक्षिणायन, उत्तर तोयन - दक्षिण तोयन, और १ वसन्त ऋतु, २ ग्रीष्म ऋतु, ३ वर्षा ऋतु, ४ शरद ऋतु, ५ हेमन्त ऋतु और ६ शिशिर ऋतु का प्रत्यक्ष सम्बन्ध जुड़ जाएगा।

11  सायन सौर संक्रान्ति आधारित चान्द्र संवत्सर का नाम युगाब्ध हो। जो सायन मेष संक्रान्ति और सायन वृषभ संक्रान्ति के बीच होंने वाली प्रथम अमावस्यान्त समय से प्रारम्भ होगा।

12 सायन सौर संक्रान्ति आधारित चान्द्र मासों के नाम प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ट, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश और द्वादश मास हो।
अधिक मास का कोई नाम नहीं होगा।
ऐसे ही क्षय मास वाले वर्ष में भी परम्परागत व्यवस्था के अनुसार ही नाम होंगे।*संसर्प मास एवं अहंस्पति मास ---*
*जिस वर्ष क्षय मास हो, उस वर्ष 2 अधिमास अवश्य होते हैं-  क्षय मास के पूर्व आने वाले अधिक मास को संसर्प मास कहते हैं। संसर्प मास में मुंडन, व्रतबंध (जनेऊ), विवाह, अग्न्याधान, यज्ञोत्सव एवं राज्याभिषेकादि वर्जित हैं। अन्य पूजा आदि कार्यों के लिए यह स्वीकार्य है। क्षय मास के अनन्तर पड़ने वाले अधिक मास को अहंस्पति मास कहते हैं।"*

13  दशाह के दस वासर १ रविवासर २सोम वासर, ३ बुध, ४ शुक्र, ५ भूमि वासर , ६ मङ्गलवासर, ७ गुरु ब्रहस्पति, ८ शनि, ९ निऋति , और १० अदिति वासर दर्शाए जाए। 
निरयन मेष संक्रान्ति दिनांक १४ अप्रैल १९९९  को दशाह का प्रथम वासर रविवासर/ रविवार था । ऐसे ही आगे-पीछे गणना कर लें।
यह निर्धारण नाक्षत्रीय सौर वर्ष में कल्पसंवत के अहर्गण ज्ञात कर किया गया।

14  सभी सायन संक्रान्ति, निरयन मासारम्भ/ मासान्त/ सूर्य , चन्द्रमा और बुध, शुक्र, मङ्गल, गुरु ब्रहस्पति, शनि, युरेनस, नेपच्यून तथा राहु और केतु के सायन राशि प्रवेश, तेरह अरों (नवीन एस्ट्रोनॉमीकल साईन), असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्र, और वर्तमान एस्ट्रोनॉमीकल अठासी नक्षत्र (कांस्टीलेशन) के प्रवेश दिनांक और समय तथा प्रथम चन्द्र दर्शन, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा (पूर्ण चन्द्र समय), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या (चन्द्रमा का पूर्ण अदर्शन का समय) ये पर्वकाल दर्शाये जाए।
16  दैनिक सायन लग्न प्रवेश और सायन दशम भाव प्रारम्भ होने का समय दर्शाया जाए।
असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्रों का पूर्व में उदय और आकाश में ठीक शीर्ष पर (मेरीडियन कॉइल) का प्रारम्भ समय दर्शाया जाए।
ऐसे ही तेरह अरों (नवीन एस्ट्रोनॉमीकल साईन) और वर्तमान एस्ट्रोनॉमीकल अठासी नक्षत्र (कांस्टीलेशन) का पूर्व क्षितिज पर उदय और आकाश में ठीक शीर्ष पर (मेरीडियन कॉइल) का प्रारम्भ समय दर्शाया जाए।

17 *अधिकांश व्रत पर्व, उत्सव और त्योहारों के संक्रान्ति वर्तमान अंश या संक्रान्ति गतांश या संक्रान्ति गते को आधार बनाया जाए।* 

18 *केवल महाशिवरात्रि को व्याघ तारा रातभर दिखना चाहिए इसलिए इसे नाक्षत्रीय पद्यति पर आश्रित निरयन सौर धनु मास के २०°१३'१३" वर्तमानांश या गतांश हो उस रात में दर्शाया जाए।* 

19 *होली, जन्माष्टमी, दिवाली जैसे जो व्रत पर्व, उत्सव और त्योहार में ऋतु विशेष दर्शाई जाती है; लेकिन एकाष्टका, पूर्णिमा, अष्टका या अमावस्या का भी महत्व है उन व्रत पर्व, उत्सव और त्योहारों को सायन सौर संक्रान्ति आधारित चान्द्रमासों की एकाष्टका पूर्णिमा, अष्टका या अमावस्या के दिन दर्शाया जाए।*

20 जहाँ सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाते हैं जैसे बङ्गाल में नवरात्र में सरस्वती आव्हान, पूजन, बलिदान, विसर्जन आदि और तमिलनाडु में ओणम को सायन सौर मधु-माधव माह और असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्र के आधार पर सम्बन्धित नक्षत्र के अनुसार दर्शाया जाए।

21 चैत्र वैशाख नामक मास नाम तभी सार्थक होंगे जब पूर्णिमा तिथि में विशेषकर पूर्णिमान्त समय (पूर्ण चन्द्र के समय) असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्र में से चित्रा, विशाखा आदि नक्षत्र पर चन्द्रमा हो।








सोमवार, 13 मई 2024

आदम / आयु का जन्म स्थान।

जबकि ब्रहस्पति की पत्नी तारा और चन्द्रमा के पुत्र बुध, वैवस्वत मनु की पुत्री इला और बुध के पुत्र एल पुरुरवा (एल, ईलाही/ अल्लाह), उर (इराक) की निवासी, तिब्बत-कश्मीर- लद्दाख, पूर्वी तुर्किस्तान (उइगुर) प्रान्त स्थित स्वर्ग के राजा इन्द्र की नर्तकी उर्वशी और एल पुरुरवा का पुत्र दक्षिण-पूर्वी टर्की (तुर्किये) में जन्मे आयु (आदम) के वंशज राजा खत्तुनस की प्रजा खत्ती (हित्ती) / खाती/ खत्री अर्थात चन्द्रवंशियों को मेक्समूलर ने आर्य माना।
आरामी भाषा में रचित तनख (बायबल ओल्ड टेस्टामेंट की पहली पुस्तक उत्पत्ति) के अनुसार यहोवा (एल पुरुरवा) ने आदम (आयु) को दक्षिण पूर्व टर्की के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में अकेले ही पाला था।
ये चन्द्रवंशी हैं, अनु, दुह, *यदु* , *पुरू* और तुर्वसु जिनने तृत्सु वंशीय मनुर्भरत - दिवोदास और उनके पुत्र सुदास पर आक्रमण किया था जिसे ऋग्वेद में दशराज युद्ध कहा गया है।
परिणाम स्वरूप पुरू वंशीय प्रयागराज में बसाये गए। तुर्वसु के वंशजों को आदित्यों के क्षेत्र तुर्किस्तान में बसाया, यदु वंशीय पूर्वी भारत में अङ्ग देश में बसे। ये गोरे और डेन्युब नदी किनारे बसे दानव (युरोपीयन) से मिलते-जुलते थे, इसलिए इन्हें आर्य कहा।

शक और कुषाण और हूण कौन थे?

शक और कुषाण और हूण कौन थे?

*शक और कुषाण उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त अर्थात तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) में गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में डुहुआंग नगर, उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32" N और पुर्व देशान्तर 94 ° 39 '43" E पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) के मूल निवासी थे।*
हूण भी इसी क्षेत्र के उत्तर में मङ्गोलिया से लगे श्रेत्र के निवासी थे। 
इसलिए वर्तमान में लोग इन्हें विदेशी कहते हैं।

"पुराणों अनुसार *शक जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।* महाभारत में भी शकों का उल्लेख है। शक साम्राज्य से संबंधित मथुरा के राजकीय संग्रहालय में मूर्ती, स्तंभ, सिंह शीर्ष स्तंभ, मुद्रा आदि कई वस्तुएं रखी हुई है। गार्गी संहिता, बाणभट्ट कृत हर्षचरित में भी शकों का उल्लेख मिलता है।

कुषाण -- मथुरा के इतिहासकार मानते हैं कि वे *शिव के उपासक और कुष्मांडा जाति के थे। इस जाति के लोग प्राचीन काल में भारत से बाहर जाकर बस गए थे और जब वे शक्तिशाली बन गए तो उन्होंने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गुर्जर इतिहासकार उसे गुर्जर मानते हैं।* 
कुछ लोग पाटिदारों को भी कुषाण मानते हैं। पर पाटिदार नहीं मानते।

हूण --- *हुंडिया एक यक्ष था। उस काल में यक्षों का मूल स्थान तिब्बत और मंगोल के बीच का स्थान था। कुबेर वहीं का राजा था।कई ऐसे यक्ष थे, जो चमत्कारिक थे। उस काल में यक्षों-यक्षिणिनियों की लोकपूजा भी होती थी। यह वेद विरुद्धकर्म था।*
यक्ष उपासक जैन लोग हुंडिय को महावीर स्वामी के पहले के जैन परम्परा के अनुयाई मानते हैं।

इतिहासकार ऐसा लिखते हैं कि, उक्त जातियों का राजपूतो की अलग-अलग जातियों से वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। जैसे हूणों के वैवाहिक सम्बन्ध गुहिलोत और राठोड़ सूर्यवंशी राजपुतों से होते थे।
कृपया देखें - राजस्थानी ग्रन्थागार प्रकाशन जोधपुर से प्रकाशित श्री ठाकुर बहादुर सिंह बिदासर रचित *क्षत्रिय जाति की सुची* पुस्तक का *पृष्ठ क्रमांक 159,*

रविवार, 12 मई 2024

विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त द्वितीय , शक, कुषाण कौन थे तथा विक्रम संवत और शकाब्द की तुलना।

विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय 

*विक्रमादित्य के पितामह महाराज नाबोवाहन ने हरियाणा के ऋषिदेश, गोड़ देश, मालव प्रान्त, कुरुक्षेत्र से आकर उक्त मध्यप्रदेश के सोनकच्छ जिला मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर ग्राम गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था।
बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु और शिव के भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। *जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य ने गन्धर्वपुरी से अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा कुषाण क्षत्रप / शकराज को गन्धर्वसेन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है।
*शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने शिकार पर गये  महाराज गन्धर्वसेन को अकेला पाकर उनपर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप महाराज गंधर्वसेन की जंगल में ही मृत्यु हो गई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।* 

 *गन्धर्वसेन के दो पुत्र भृतहरि और विक्रमसेन (विक्रमादित्य) और पुत्री मैनावती थी।* मैनावती के पुत्र गोपीचन्द थे। भृतहरि की पत्नी पिङ्गला से अलाका, शंख नामक दो पुत्र हुए

*गन्धर्वसेन के बड़े पुत्र भृतहरि ने उज्जैन को राजधानी बनाया।भृतहरि ने अपने अनुज विक्रमसेन को सेनापति बनाया।*
 लेकिन भृतहरि की प्रिय पत्नी महारानी पिङ्गला ने महाराज भृतहरि को विक्रमसेन के विरुद्ध भड़का कर विक्रमसेन को देश निकाला दिलवा दिया। सुदृढ़ सेनापति के अभाव में उज्जैन पर शकों के आक्रमण बढ़ने लगे। 
*भृतहरि और विक्रम की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द पहले ही नाथ सम्प्रदाय के सम्पर्क में आकर नाथयोगी हो गये। योगी गोरखनाथ भृतहरि को अपना शिष्य बनाना चाहते थे। इसलिए गोरखनाथ जी ने भृतहरि को रानी पिङ्गला की आसक्ति से मुक्त कर भृतहरि को धारा नगरी में नाथ पन्थ में दीक्षित किया।*

 *नाथ पन्थ में दीक्षित होकर वैरागी होने के कारण राजा भृतहरि ने अपने अनुज विक्रम सेन को खोज कर राज्यभार विक्रम सेन को सोंप दिया। विक्रम सेन ने सैन्य सङ्गठन मजबूत कर शकों को देश से निकाल कर अपनी राज्य सीमा अरब तक पहूँचा दी। इस उपलक्ष्य में विक्रम सेन सम्राट विक्रमादित्य कहलाये। और उननें विक्रम संवत प्रवर्तन किया। जो वर्तमान में भी पञ्जाब हरियाणा में प्रचलित नाक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के मूल स्वरूप में प्रचलित है ।* 

*भविष्य पुराण, स्कन्दपुराण तथा तुर्की के शहर इस्ताम्बुल के पुस्तकालय मकतब - ए - सुल्तानिया में रखी अरब के अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में उल्लेख के अनुसार ईरान,अरब, ईराक, सीरिया, टर्की, मिश्र देशों पर विक्रमादित्य की विजय का उल्लेख है और अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में विक्रमादित्य से सम्बन्धित शिलालेख का उल्लेख है; जिसमे विक्रमादित्य को उदार, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, प्रत्यैक व्यक्ति का हितचिन्तक और हितकारी कहकर विक्रमादित्य के शासन काल में जन्में और जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को सौभाग्यशाली कहा है। साथ ही कहा है विक्रमादित्य नें मिश्र, टर्की, सीरिया, ईराक, सऊदी अरब, यमन और ईरान में वेदिकधर्म के प्रकाण्ड पण्डित विद्वानों को भेजकर ज्ञानप्रकाश फैलाया।*

 *गुप्त वंशीय समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त (चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई) राजा हुए।उनके सिक्के पुरातत्वीय खुदाई में मिलने से प्रमाणित हुआ कि, समुद्रगुप्त के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय के पहले रामगुप्त शासक हुए।*
*रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी पर शक राजा आसक्त हो गया और बौद्धों के सहयोग से ध्रुव स्वामिनीका अपहरण कर तिब्बत ले गया।*
जिसे चन्द्रगुप्त द्वितीय नें रानी के लिए आवश्यक वस्त्र, श्रंगार और दासियों को भेजने के नाम पर  सैनिकों के साथ पालकियों में सवार होकर शकराज के रनिवास में पहूँच कर पहरेदारों को मारकर वहाँ से ध्रुव स्वामिनी को वापस लाये। और बाद में  चन्द्रगुप्त द्वितीय नें ध्रुव स्वामिनी से विवाह किया।
*भृतुहरि-पिङ्गला- अश्वपाल और विक्रमसेन की घटनाओं में साम्य होने से और चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा उज्जैन को राजधानी बनाने के कारण  अंग्रेज- मुस्लिम और वामपन्थी इतिहासकारों ने भारत के गौरव सम्राट विक्रमादित्य और भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय को बड़ी सफाई से एक ही व्यक्ति घोषित कर दिया।*
*जबकि टर्की (तुर्किये) में विक्रमादित्य के शासन की प्रशंसा में मे शिलालेख मिलना और उसका काल विक्रमादित्य से मैल खाना विक्रमादित्य के इतिहास को प्रमाणित करता है।*

शक और कुषाण और हूण कौन थे?

*शक और कुषाण उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त अर्थात तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में  शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) में गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) के मूल निवासी थे।*
हूण भी इसी क्षेत्र के उत्तर में मङ्गोलिया से लगे श्रेत्र के निवासी थे। 
इसलिए वर्तमान में लोग इन्हें विदेशी कहते हैं

"पुराणों अनुसार *शक जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।* महाभारत में भी शकों का उल्लेख है। शक साम्राज्य से संबंधित मथुरा के राजकीय संग्रहालय में मूर्ती, स्तंभ, सिंह शीर्ष स्तंभ, मुद्रा आदि कई वस्तुएं रखी हुई है। गार्गी संहिता, बाणभट्ट कृत हर्षचरित में भी शकों का उल्लेख मिलता है।

कुषाण -- मथुरा के इतिहासकार मानते हैं कि वे *शिव के उपासक और कुष्मांडा जाति के थे। इस जाति के लोग प्राचीन काल में भारत से बाहर जाकर बस गए थे और जब वे शक्तिशाली बन गए तो उन्होंने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गुर्जर इतिहासकार उसे गुर्जर मानते हैं।* 
कुछ लोग पाटिदारों को भी कुषाण मानते हैं। पर पाटिदार नहीं मानते।

हूण --- *हुंडिया एक यक्ष था। उस काल में यक्षों का मूल स्थान तिब्बत और मंगोल के बीच का स्थान था। कुबेर वहीं के राजा थे।कई ऐसे यक्ष थे, जो चमत्कारिक थे। उस काल में भी नास्तिक श्रमण लोगों में यक्षों-यक्षिणिनियों की लोकपूजा भी होती थी। और आज भी जैन पन्थ में यक्ष पूजा होती है।यह वेद विरुद्धकर्म है।*
यक्ष उपासक जैन लोग हुंडिय को महावीर स्वामी के पहले के अर्थात पार्श्वनाथ आदि की परम्परा के अनुयाई मानते हैं।

इतिहासकार ऐसा लिखते हैं कि, उक्त जातियों का राजपूतो की अलग-अलग जातियों से वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। जैसे हूणों के वैवाहिक सम्बन्ध गुहिलोत और राठोड़ सूर्यवंशी राजपुतों से होते थे।
कृपया देखें - राजस्थानी ग्रन्थागार प्रकाशन जोधपुर से प्रकाशित श्री ठाकुर बहादुर सिंह बिदासर रचित *क्षत्रिय जाति की सुची* पुस्तक का *पृष्ठ क्रमांक 159,* 

 विक्रम संवत और शकाब्द

*विक्रम संवत लागू होनें के १३५ वर्ष बाद विक्रम संवत १३६ में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन वंशीय गोतमीपुत्र सातकर्णी नें अपने राज्यारोहण या मतान्तर से नासिक क्षेत्र महाराष्ट्र के पेठण विजय के अवसर पर अपने राज्य क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलङ्गाना, और मध्य भारत में निरयन सौर मासों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शालिवाहन शकाब्द आरम्भ किया।*
 *लगभग इसी समय वर्तमान पाकिस्तान के पञ्जाब प्रान्त के  पैशावर के कुशाण वंशीय क्षत्रप कनिष्क नें मथुरा विजय के उपलक्ष्य में मथुरा और उत्तर भारत में निरयन सौर मासों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया।* 

*वर्तमान में यह भ्रम प्रचलित है कि, विक्रम संवत भी शुद्ध निरयन सौर वर्ष न होकर आरम्भ से निरयन सौर मासों पर आधारित चान्द्र वर्ष ही था।* यदि यह कथन सही माना जाए तो प्रश्न खड़ा होता है कि,
 *निरयन सौर विक्रम संवत लागू होने के केवल १३५ वर्ष बाद ही शक संवत में निरयन सौर मासों पर आधारित चान्द्र मास वाली यह नवीन प्रणाली लागू करने के लिए शक संवत आरम्भ करने की क्या आवश्यकता थी?*

*विक्रमादित्य के पूर्वजों के क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में आज तक विक्रम संवत निरयन सौर मास और गते क्यों प्रचलित रहते?*

*कुछ लोग गुजरात के कार्तिकादि संवत को विक्रम संवत मानते हैं। यह भी उचित नहीं है। क्योंकि यह केवल गुजरात में ही सीमित है।* 

* केवल, सातवाहन और कुशाणों के बहुत बड़े राज्यक्षेत्र में निरयन सौर मास पर आधारित चान्द्र वर्ष वाला शकाब्द पञ्चाङ्ग प्रचलित है और, शेष भारत में अर्थात पञ्चाङ्ग, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, बङ्गाल,उड़िसा, असम आदि सेवन सिस्टर्स प्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि प्रदेशों में निरयन सौर मासों और गते   या गतांश ही प्रचलित है।*

*केवल पौराणिकों नें विक्रम संवत को  चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होना बतलाया जिसका अनुकरण सिद्धान्त ग्रन्थों में भी हुआ। लेकिन सिद्धान्त ग्रन्थों में गणना का आधार सदैव शकाब्द ही लिया है। और सिद्धान्त ग्रन्थों नें ही निरयन सौर मास आधारित चैत्र वैशाख वाला शकाब्द लागू किया।*
गुप्त संवत का आरम्भ चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त प्रकाल नाम से 319 ई. में किया था। किन्तु यह वर्तमान में अप्रचलित है। किन्तु गुप्तकालीन दस्तावेजों में गुप्त प्रकाल का उल्लेख मिलता है।

अब आप बतलाइएगा कि, विक्रम संवत को किस आधार पर सौरचान्द्र वर्ष कहा जा सकता है? और शकाब्द को सौर वर्ष गणना आधारित कैसे कहा जा सकता है?

विक्रमादित्य कौन थे?

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट सोनकच्छ जिला मुख्यालय है। सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी नामक कस्बा / ग्राम है। यहाँ एक शिवमंदिर है। कहा जाता है कि रात्रि में कुछ नाग शिवलिङ्ग की प्रदक्षिणा करते हैं। प्रातःकाल मन्दिर खोलने पर शिवलिङ्ग के आसपास वृत्ताकार परिपथ में सर्पों की विष्ठा पाई जाती है।

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब के मालव प्रान्त से आकर गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था।बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।

गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य उनसे रुष्ट थे। उनने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने उनपर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है। इस कथा में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।

गन्धर्वसेन के पुत्र भृतहरि और विक्रमसेन (विक्रमादित्य) और पुत्री मैनावती थी। मैनावती के पुत्र गोपीचन्द थे। भृतहरि की पत्नी पिङ्गला से अलाका, शंख नामक पुत्र हुए।

भविष्य पुराण के अनुसार विक्रमादित्य का जन्म कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत होनें पर अर्थात 101 ईसापूर्व हुआ था। और उनने शतवर्ष राज्य किया।

गन्धर्वसेन की मृत्यु पश्चात शकों के भारत पर आक्रमण के होंसले बुलन्द होगये। महाराज भृतहरि के समय भी अनेकबार शक आक्रमण हुए जिनका सामना उनके छोटेभाई विक्रमसेन (विक्रमादित्य) नें किया।

कलियुग संवत 3068 अर्थात34 ईस्वी में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ के अनुसार करुर नामक स्थान पर शकों को परास्त कर शक विजय कर उज्जैन का राज्य सम्भाला। राज्यारोहण के उपलक्ष्य में कलियुग संवत 3044 आरम्भ दिन में निरयन मेष संक्रान्ति को अर्थात 57 ईसापूर्व में विक्रमादित्य नें विक्रम संवत चलाया।

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के युधिष्ठिर के वंशज राजा हिरण्य की मृत्यु निस्सन्तान रहते होजानें के कारण अवन्ति नरेश विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य सोपा था। नेपाल के राजवंशावली के अनुसार - नेपाल के राजा अंशुवर्धन के समय विक्रमादित्य नेपाल भी गये थे।

विक्रमादित्य ने अलग अलग देश और संस्कृति की पाँच पत्नियाँ थी मलयावती, मदनलेखा,पद्मिनी, चेल्ल, और चिल्लमहादेवी। जिनसे पुत्र विक्रम चरित और विनयपाल तथा विद्योत्तमा प्रियमञ्जरी और वसुन्धरा हुई।

विक्रमादित्य के राजपुरोहित त्रिविक्रम एवम् वसुमित्र थे। विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति एवम् चन्द्र बतलायें गये हैं। भट्टमात्र जो नौरत्नों में से एक वेतालभट्ट भी कहलाते हैं वे विक्रमादित्य के मित्र थे।

1आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, 2 ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर, 3 महाकवि कालीदास, 4 व्याकरणाचार्य वररुचि, 5 तन्त्राचार्य वेतालभट्ट, 6 अमरकोश अर्थात संस्कृत शब्दकोश रचियता। अमरसिंह, 7 शंकु 8 क्षपणक और 9 घटखर्पर विक्रमादित्य के शासन के नौरत्न थे।

भविष्य पुराण और स्कन्दपुराण तथा तुर्की के शहर इस्ताम्बुल के पुस्तकालय मकतब - ए - सुल्तानिया में रखी अरब के अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में उल्लेख के अनुसार ईरान,अरब, ईराक, सीरिया, टर्की, मिश्र देशों पर विक्रमादित्य की विजय का उल्लेख है और अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में विक्रमादित्य से सम्बन्धित शिलालेख का उल्लेख है; जिसमे विक्रमादित्य को उदार, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, प्रत्यैक व्यक्ति का हितचिन्तक और हितकारी कहकर विक्रमादित्य के शासन काल में जन्में और जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को सौभाग्यशाली कहा है। साथ ही कहा है विक्रमादित्य नें मिश्र, टर्की, सीरिया, ईराक, सऊदी अरब, यमन और ईरान में वेदिकधर्म के प्रकाण्ड पण्डित विद्वानों को भेजकर ज्ञानप्रकाश फैलाया।

शनिवार, 11 मई 2024

साधन और मार्ग तो केवल पञ्च महायज्ञ ही है और ज्ञान तथा भक्ति तो साध्य और लक्ष्य है।

भक्ति और ज्ञान मार्ग नहीं लक्ष्य है।
भक्ति और ज्ञान साधन नहीं साध्य है।
साधन तो केवल पञ्च महायज्ञ ही है क्योंकि, वास्तविकता में अष्टाङ्ग योग भी ब्रह्मयज्ञ ही है।
अतः 
साधन तो केवल पञ्च महायज्ञ ही है। बस।

बुधवार, 8 मई 2024

परमात्मा और उसकी व्यवस्था ऋत पर विश्वास।

छाया और माया के पीछे भागने वाले के सदा आग-आगे चलती है।
और पीठ फेर लो तो पीछे-पीछे चलती है।
मुझे विश्वास है कि, जो इतनी बड़ी सृष्टि चला रहा है, वही सब देख लेगा। मुझसे भी जो करवाना होगा करवा ही लेगा। मुझे परमात्मा और उसके ऋत पर पूर्ण विश्वास है।

सम्प्रदायों की उत्पत्ति का कारण वैदिक ज्ञान की कमी।

यह सत्य है कि, ब्रह्म बड़ो से महत्तर और महा से बड़ा है लेकिन ब्रह्म शब्द का सही अर्थ निरन्तर बढ़ने वाला भी है। वैदिक ऋचाओं को भी ब्रह्म कहते हैं। ये सब अर्थ ज्ञात होने पर यह समस्या आती है कि, यदि ब्रह्म का मतलब निरन्तर विस्तार होने वाला भी है, तो प्रकृति और ब्रह्म में अन्तर ही क्या रहा।।
क्योंकि अधिकांश लोगों के मन मस्तिष्क में घुसा हुआ था कि, ब्रह्म मतलब सबसे बड़ा।
माना कि, ब्रह्म बड़ो से महत्तर और महा से बड़ा है, लेकिन उससे बड़ा परब्रह्म ही सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि, ब्रह्म सबसे बड़ा नहीं है।
 वास्तविकता में ब्रह्म < परब्रह्म < ॐ < परमात्मा।। परमात्मा को सबसे बड़ा कह सकते हैं।

ऐसी ही समस्या महाभारत के भागवत धर्मियों के साथ भी होती है।
विष्णु परम पद है।
पद है तो वहाँ कर्म, उपासना और ज्ञान की सीढ़ी के सहारे कोई भी पहूँच सकता है।
यह उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।
तो वैकुण्ठ के एक देश (भाग) गो लोक को उनने उच्चतम लोक कह दिया और अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण को सर्वोच्च घोषित कर दिया।
फिर शैव क्यों पीछे रहते उनने कैलाश और शंकर को वहीं स्थान दे दिया।
शाक्तों के पास ऐसा कोई स्थान था नही। तो उनने भी एक लोक कल्पित कर अपनी इष्टदेवी पराम्बा को स्थापित कर दिया।

मंगलवार, 7 मई 2024

पुराणों के अनुसार शक, कुषाण और हूण कौन थे।

"पुराणों अनुसार *शक जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।* महाभारत में भी शकों का उल्लेख है। शक साम्राज्य से संबंधित मथुरा के राजकीय संग्रहालय में मूर्ती, स्तंभ, सिंह शीर्ष स्तंभ, मुद्रा आदि कई वस्तुएं रखी हुई है। गार्गी संहिता, बाणभट्ट कृत हर्षचरित में भी शकों का उल्लेख मिलता है।
अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। तदनुसार -
शक  वर्तमान चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
शको ने बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया के मिथिदातस से से हार कर हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया और विजित किया । उनका काल १२३ ई.पू. से २०० ईस्वी तक माना गया है। 
भारत में युनानी साम्राज्य के कमजोर प्रान्तो पर शकों ने आक्रमण कर जीता। सिन्धु नदी के तट पर मीन नगर को राजधानी बनाया। 

कुषाण -- मथुरा के इतिहासकार मानते हैं कि वे *शिव के उपासक और कुष्मांडा जाति के थे। इस जाति के लोग प्राचीन काल में भारत से बाहर जाकर बस गए थे और जब वे शक्तिशाली बन गए तो उन्होंने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गुर्जर इतिहासकार उसे गुर्जर मानते हैं।* 
कुछ लोग पाटिदारों को भी कुषाण मानते हैं। पर पाटिदार नहीं मानते।

*कुषाण* --- "अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
 भारतीय इतिहासकार कुष्माण्डा जाति के मानते हैं। कुषाण भी चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के ही निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। कुसान इनका आदि पुरुष था जिनके नाम पर ये कुषाण कहलाये।
कुषाण भी शकों के ही पद चिन्हों पर चल कर बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया होते हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया कन्धार और काबुल को जीतकर और काबुल को राजधानी बनाया ।
कुजल कडफाइसिस ने ईरानी पारसी पल्लहवों को हराकर भारत के उत्तर उत्तर पश्चिमी सीमा पर कब्जा किया। बाद में पश्चिमी पञ्जाब तक सीमा विस्तार कर लिया। कुजल के पुत्र विम तक्षम ने शुङ्ग वंशियों राजा को हराकर मथुरा तक विस्तार कर लिया। कनिष्क (१२७ ईस्वी से १४० ईस्वी तक) ने काबुल, पेशावर और मथुरा को क्षत्रप क्षेत्र घोषित किया। इसका शासन कश्मीर, पूर्व में सारनाथ (वाराणसी) तक था। कनिष्क की मृत्यु १५१ ईस्वी में हुई।
कुषाण वंश में कुजल, विम कडफाइसिस, कनिष्क प्रथम, वशिष्क , कनिष्क तृतीय, वासुदेव कुषाण द्वितीय प्रमुख राजा हुए।

 *हूण* - हूण भी उत्तरी चीन के चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त (जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं) की उत्तरी सीमा से लगे मंगोलिया से आये थे।   
फारस के बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई॰ में हूणों को पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया। 
बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा। वे धीरे-धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे। फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था।
हूणों के राजा तोरणमल ने गांधार (अफगानिस्तान) भारतवर्ष मे सीमान्त प्रदेश कपिश (पेशावर - पाकिस्तान) पर अधिकार किया, फिर उज्जैन (मालवा मध्यदेश) की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे। 
गुप्त सम्राट कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारे गये। इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा। कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे। फिर भी सन् ४५७ ई॰ तक मगध पर स्कंदगुप्त का अधिकार रहा। 
सन् ४६५ के उपरान्त तोरणमल के नेतृत्व में हुण प्रबल पड़ने लगे और अन्त में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युद्ध करने में मारे गए । 
सन् ४९९ ई॰ में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (संस्कृत : तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए। 
तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल (संस्कृत : मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ। पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ।


हूण --- पुराणों के अनुसार लोगों के पूर्वज आपराधिक प्रवृत्ति के अनुशासन हीन क्षत्रिय थे इसलिए इनको देश-निकाला दिया गया था। इसलिए ये लोग *उत्तर* पूर्व सीमा पर बस गये थे।
हुंडिया एक यक्ष था। उस काल में यक्षों का मूल स्थान तिब्बत और मंगोल के बीच का स्थान था। कुबेर वहीं का राजा था।कई ऐसे यक्ष थे, जो चमत्कारिक थे। उस काल में यक्षों-यक्षिणिनियों की लोकपूजा भी होती थी। यह वेद विरुद्धकर्म था।*
यक्ष उपासक जैन लोग हुंडिय को महावीर स्वामी के पहले के जैन परम्परा के अनुयाई मानते हैं।


निरन्तर स्मरण बनये रखना ही ध्यान है, भक्ति साध्य है, लक्ष्य है; साधन नही।

निरन्तर स्मरण बनये रखना ही ध्यान है, न कि; नाम जप, नाम स्मरण । भक्ति साध्य है, लक्ष्य है; साधन नही। भक्ति न भजन-कीर्तन है, न नाम जप।  

वैदिक शास्त्रीय नियम तो यह है कि, धर्म पालन युक्त सदाचारी जीवन जीते हुए पञ्च महायज्ञ और अष्टाङ्ग योग के आचरण द्वारा प्रत्येक श्वास प्रश्वास स्वयम् की जानकारी में  और नियन्त्रण में ही लेते छोड़ते हुए,देह के समस्त आन्तरिक तन्त्र (सिस्टम) और संस्थान स्वयम् के नियन्त्रण में रखते हुए संचालित होते हुए नियमित , संयमित और सजग जीवन जीना। इसके साथ ही ईशावास्यम् इदम सर्वम्। सर्व खल्विदम् ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि का बोध सहित ध्यान हर पल होना चाहिए, हर श्वास-प्रवास के साथ सोऽहम् का ध्यान रहना ही चाहिए। यही ज्ञान है;  मानव देह का सदुपयोग भी यही है।
प्रत्येक श्वास प्रश्वास आपकी जानकारी में आपके नियन्त्रण में ही चले देह के समस्त आन्तरिक तन्त्र (सिस्टम) और संस्थान आपके नियन्त्रण में हो इसके लिए अष्टाङ्ग योग आवश्यक है। सम्पूर्ण जीवन ऋत के अनुकूल हो इसलिए पञ्च महायज्ञ आवश्यक है।

लोग बोलते हैं सन्त कहते हैं कि,
यदि भावना सही है तो क्रिया में गलती भी क्षमा हो जाती है।
तो भाई सन्तों की बात मानकर अच्छी भावना से गरम प्रेस पर हाथ रखकर देख लेना; अकल ठिकाने आ जाएगी।
वैदिक ऋषि मुर्ख नहीं थे जिनने सभी क्रिया विधि और निषेध जारी किये।

लोग बोलते हैं सन्त कहते हैं नाम जप करो। इससे ही पञ्च महायज्ञ की पूर्ति हो जाएगी। शायद उनके अनुसार तो केवल नाम जप से अष्टाङ्ग योग भी हो ही जाता होगा। और नाम जप करके लोग स्वस्थ्य,सुघड़, सुन्दर हो गये होंगे पर मुझे तो एक भी नहीं दिखा।
जबकि श्रीकृष्ण ने "श्रीमद्भगवद्गीता 06/35 में कहा है कि,
हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है  (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र  (यह) अभ्यास और वैराग्य से  वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से ही काबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35

【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के गुणों और लीलाओं का भजन - कीर्तन, भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन श्रवण, मनन, चिन्तन तथा प्रणायाम पूर्वक जप अर्थात श्वास- प्रश्वास पर भी ध्यान देना और फिर सजगता पूर्वक ॐ या गायत्री मन्त्र के अर्थ और भाव को भी ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण सजगता पूर्वक जप करना  इत्यादिक चेष्ठाओं से है। यह बात श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से वर्णित है। बल्कि निष्काम कर्म युक्त बुद्धियोग के लिए से यही साधन बतलाया है।* 】"
स्वामी रामसुखदास जी महाराज के अनुसार नाम लेना मतलब करुण पुकार करना। "हे नाथ मेरे नाथ मैं आपको न भूलूँ।" "मैं केवल आपका ही हूँ।"
"मैरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।"
जप से उनका तात्पर्य तोता रटन्त नही है। करुण पुकार करना है।

सन्त सम्प्रदाय के लोग तो राधा नामक स्त्री को श्रीकृष्ण की प्रेयसी और पत्नी मानने है। जबकि, यह निर्विवाद सत्य है कि, ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था (उम्र) में श्रीकृष्ण कन्स के निमन्त्रण पर अक्रूर जी के साथ मथुरा चले गए थे और फिर वापस ब्रज, गोकुल, बरसाना में कभी नहीं आये। 
अब ग्यारह वर्ष के बालक की प्रेमिका होना और कामक्रीड़ा करना विचारणीय विषय है।
जबकि राधा का विवाह नन्दराय जी के साले अर्थात यशोदा माता के भाई रायण से हुआ था। न कि, श्रीकृष्ण से। तो राधा तो श्रीकृष्ण की मामी हुई ना।

ये सब कथा जयदेव के गीत गोविन्दम रचने के बाद कथा वाचकों ने गर्ग संहिता में डाल दी। फिर ब्रह्म वैवर्त पुराण में तो इतनी अति अश्लीलता के साथ वर्णन किया कि, कथावाचकों के मोज- मस्ती को रास-लीला नाम दे सके।
वह बात और है कि, ये नकली कथा न महाभारत में है और न भागवत पुराण में है। दोनों ग्रन्थों में राधा का नाम तक नहीं है।
महाभारत में तो श्रीकृष्ण की एक ही पत्नी रुक्मिणी ही बतलाई है।

महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक के अनुसार तो शंकर जी पार्वती सहित दक्ष-यज्ञ से सहर्ष कैलाश लौटे थे। सती पार्वती ने आत्मदाह किया ही नहीं।
इन महन्तो और कथावाचकों के अनुसार तो शंकर जी के दो विवाह हुए पहला प्रणेताओं की पौत्री और दक्ष द्वितीय और असीक्नी की पुत्री सती के साथ 
फिर दक्ष यज्ञ में सती ने आत्मदाह कर लिया तो  हिमाचल/ हिमावन - मेनावती की पुत्री (और अर्यमा की नातिन)पार्वती के रूप में सती का दुसरा जन्म  हुआ, फिर शंकर जी का दुसरा विवाह  पार्वती के साथ हुआ। देवी- देवता की आयु तो एक मन्वन्तर होती है। इसलिए बीच मे मरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। देवता ऋत के विरुद्ध नहीं कोई कार्य नहीं करते हैं। लेकिन इनके अनुसार तो देवता भी बीच में ही मर जाते हैं और उनका पुनर्जन्म भी होता है। 
जबकि महाभारत के अनुसार यह ग़लत है। न दक्षपुत्री ने आत्मदाह किया न उनका पुनर्जन्म हुआ।

रामचरितमानस और शिव पुराण के अनुसार श्री राम वनवास के समय सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम के समक्ष जाना भी मानते हैं इस कारण शंकर जी ने मानसिक रूप से सती का त्याग कर दिया। इस प्रकार सती देवी को अल्पज्ञ, और अविवेकी सिद्ध किया गया, और शंकर जी को असहाय पति घोषित कर दिया। जबकि महाभारत के अनुसार यह भी ग़लत है‌ ऐसा कुछ नहीं हुआ। 
पुराणों के अनुसार भस्मीभूत सती के शव को कन्धे पर लाद कर शंकर जी विक्षिप्त हो पूरे भारतवर्ष का चक्कर लगाते हैं। जब देह भस्म हो गई तो शव कहाँ से आया? फिर जब देह ही नहीं बची तो विष्णु जी सती के भस्मीभूत देह के ५१ टुकड़े करने का प्रश्न ही नहीं उठता। ये टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे, वहा शक्तिपीठ बनना भी ग़लत सिद्ध हो जाता है। ये पौराणिक कहना चाहते हैं कि, भगवान शंकर जैसे देवता पगला जाते हैं। और भगवान विष्णु भी उन्हें ठीक नहीं कर पाये। बल्कि उन्हें चुपके से कन्धे पर टंगे भस्मीभूत देह के ५१ टुकड़े करना पड़ता है। जबकि महाभारत के अनुसार सती ने आत्मदाह किया ही नहीं अतः यह भी ग़लत है ऐसा कुछ नहीं हुआ।

महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/अध्याय 332-333 में शर शैय्या पर लेटे भीष्म युधिष्ठिर को बतलाते हैं कि, बहुत समय पहले वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्मलोक को सिधार गए। ध्यान दीजिएगा कि, महाभारत युद्ध के समय परीक्षित उत्तरा के गर्भ में ही थे। और उसके बहुत पहले शुकदेव जी ब्रह्मलोक सिधार चुके थे। 
महन्त और कथावाचक सन्त तो श्रीमद्भागवत पुराण को शुकदेव जी का परीक्षित को दिया प्रवचन बतलाते हैं। जबकि कितना विचित्र लगता है कि, महाभारत के लगभग चालीस वर्ष से अधिक समय बाद और शुकदेव जी के ब्रह्मलोक सिधारने के भी कम से कम अस्सी वर्ष बाद वे ही शुकदेव जी परीक्षित को भागवत पुराण सुनाने कहाँ से और कैसे आगये? मतलब ये पौराणिक महन्त, कथावाचक और तथाकथित सन्त कहना चाहते हैं कि, भागवत पुराण लिखते समय वेदव्यास जी सठिया गए थे। जिन्हें अपने पुत्र का ब्रह्मलोक सिधारना याद नहीं रहा ‌

सन्त बनकर घूम रहे ऐसे कथावाचकों और महन्तो से और इनकी मन गड़न्त कथाओं और सिद्धान्तों से तो भगवान ही बचाए। ऐसे सन्तों की बात मानने केवल नास्तिकता ही बढ़ेगी। लाभ तो सम्भव ही नहीं।

संस्कृत ग्रंथों में नाम से अधिक विशेषणो को महत्व दिया गया है। 
श्रीकृष्ण काले थे इसलिए उन्हें कृष्ण या श्याम कहा।
पता नहीं उनका नाम कन्हैया था या और कुछ! लगभग कोई नहीं जानता।
किसी के मन मे कृष्ण बोलने या सुनने से मुरलीधर का स्मरण हुआ, या गिरधर का या चक्रधर का या गीता प्रवचन कर्ता का या वस्त्रावतार का, या कूटनीतिक का या दुर्योधन को दिखाये विराट स्वरूप का, या अर्जून को दिखाये जगतरूप का (विभूति वर्णन का), या काल स्वरूप का या चतुर्भुज रूप का यह उसकी तत्कालीन भावावस्था पर निर्भर होता है। दुसरा कोई निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता कि, वह क्या देख रहा हैं।  ऐसे ही राम बोले तो परशुराम समझें, श्रीरामचन्द्र जी समझें या बलराम समझें? इसलिए नाम स्मरण करते समय वाच्य और वाच्यार्थ अलग-अलग हो सकते हैं।
विशेषण में यह समस्या नहीं रहती इसलिए संस्कृत शास्त्रों में विशेषण का प्रयोग अधिक किया गया।
इसीलिए प्रणायाम में परमात्मा के प्राचीनतम नाम ॐ (प्रणव) का ही ध्यान पूर्वक उच्चारण होता है।
योगाचार्य केवल प्रणव को ही केन्द्रित करके लिखते बोलते हैं कि, प्रणव ॐ में ही वाच्य से वाच्यार्थ का ही बोध होता है। इसलिए ध्यान नहीं भटकता।
इसलिए प्रणव ॐ के जप के अलावा अन्य नाम जप करने से भाव स्थिर हो यह अनिवार्य नहीं है।
लेकिन श्रद्धा पूर्वक लीला श्रवण, लीला कथन, लीला स्मरण में भावनात्मक तल्लीनता आती है। मन प्रसन्न होता है, श्रद्धा बढ़ती है। इसलिए वेदों में त्रिविक्रम विष्णु , इन्द्र अग्नि आदि के पराक्रम का वर्णन मिलता है।
इसलिए ईश्वर प्राणिधान में भी गुणों का वर्णन या प्रकारान्तर से पौराणिक पद्यति से लीला श्रवण-कथन- चिन्तन- मनन अधिक उपयोगी है।

नाम स्मरण और स्मरण में अन्तर समझना चाहिए। सतत स्मरण रखना अर्थात लगातार याद रखना ही ध्यान है।

स्मरण करना अर्थात याद करना या नाम रटना ध्यान नहीं है। तोता भी राम-राम बोलता है। वह कोई जप नहीं करता। अतः बार-बार एक नाम लेने को याद करना (स्मरण/ ध्यान) कैसे माना जा सकता है?
बगुला एकाग्र चित्त हो मछली की गतिविधियों को ध्यान रखकर मौका पड़ते ही खा लेता है। वह कोई ध्यान नहीं करता। ऐसे ही एक आसन पर बैठकर शरीर और संसार की स्मृति बनी रहे तो काहेका ध्यान? यह तो केवल दिखावा मात्र है।

वैदिक साहित्य में नामजप का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। ॐ के ध्यान का ही उल्लेख है न कि, ओ३म,ओ३म रटने का।
ध्रुव और प्रहलाद तक की कथा में भी मन्त्र ध्यान का ही उल्लेख किया गया है।
नाम जप का प्रथम बार उल्लेख महर्षि वाल्मीकि की कथा में भी नहीं आता है। किन्तु कथावाचकों नें मन से जोड़ लिया।

कबीर दास जी भी कह गए हैं कि, 
माला फेरत जुग भया, गया न मन का मैल, कर का मनका डारि के मन का मनका फेर।
और
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पण्डित भया न कोई, 
ढाई आखर प्रेम का 
पढ़े सो पण्डित होय।

नाम स्मरण और स्मरण दोनों अलग-अलग बातें हैं।
याद रखना ध्यान है, याद करना नही। स्मरण रखना ध्यान है। स्मरण करना नही अर्थात नाम रटना या केवल वाचिक मन्त्र जप कोई ध्यान नहीं है।

बेहोशी में किया गया कोई भी कर्म वास्तविक में कुछ अन्य कर्म ही होता है। गुणों के प्रति सजगता आवश्यक है तभी भक्ति और प्रेम होता है।
 देह और इन्द्रियों द्वारा की गई क्रिया संकल्पित कर्म तभी कहलाता है जब, जो किया जा रहा है, उसी का भाव चित्त में हो, विचार बुद्धि में हो, संकल्प/ इच्छा मन में हो। अन्यथा बैठे हैं जप कर रहे है लेकिन, दिमाग घर गृहस्थी में, स्कूल/ कॉलेज में ऑफिस में/ कम्पनी में/ दुकान/ व्यवसाय में/ राजनीति में या खेल में चला गया। योजना बनना शुरू हो गई। इसको यह कह देना था , उसको यह कह कर गलत किया, वहाँ, यह करना है, अभी जाकर पहले यही करूँगा। तो काहेका ध्यान?

यदि इसको स्मरण कहा जाए तो ऐसा स्मरण करने और न करने में क्या अन्तर है। 
यही स्थिति पढ़ाई करते समय, व्यायाम करते समय, ध्यान के नाम पर बैठते समय हो तो वह न तो पढ़ाई है, न व्यायाम है, और न ही ध्यान है। 
ऐसे में ही विद्यार्थी पढ़ते समय या ध्यान के लिए बैठकर सो जाते हैं, और ड्राइवर एक्सिडेंट करते हैं। 
जबतक कर्ता भाव है तब-तब ध्यान हो ही नहीं सकता।
किसी विचार, भाव या मनोदशा को लगातार संकल्पित निश्चित अवधि तक एक सी बनी रहना ध्यान है। बाकी आडम्बर है।
यदि कोई भी कार्य जो सजगता पूर्वक ,ध्यान पूर्वक नहीं किया जाता है तो, उस क्रिया  या कार्य को वह कर्म नहीं कहा जा सकता जिसे करने का दिखावा किया जा रहा है। ऐसे मे कर्म वही कहलाएगा जिसके विचारों में खोये थे। जो संकल्प उठ रहे थे।
नाम जप करते समय यदि पुछा जाए कि, आपका मोबाइल कहाँ रखा है? तो यह पढ़ते ही आपका ध्यान आपके मोबाइल पर केन्द्रित हो गया होगा। तब न पठन, न ध्यान, न आप न मैं कोई नहीं बचा था। बस मोबाइल ही रह गया था। लेकिन नाम जप चालू है।
उस समय धारणा थी मोबाइल की, मोबाइल को चित्त में धारण कर लिया। यदि यही अवस्था लम्बे समय तक रहे तो यह मोबाइल का ध्यान कहलाएगा न कि, नाम जप।
मैं संहिताओं को ही आधार मानकर चलता हूँ। क्योंकि मुझे वृहदारण्यकोपनिषद और छान्दोग्योपनिषद् में भी कल्याण और श्रेय शब्द के विषय में महर्षि याज्ञवल्क्य और महर्षि औषस्तिपाद में मतभेद दिखा । दोनों ऋषि एक दूसरे के शब्द को तुच्छ और अपने शब्द को श्रेष्ठ और सही सिद्ध करते हैं।
इसलिए मैं पारिभाषिक शब्दावली प्रयोग नहीं करता। यह उचित नहीं है कि, मैं किसी और सन्दर्भ में कहूँ और आप दूसरे सन्दर्भ में समझें। ऐसे में तो दोनों अपनी-अपनी जगह सही होते हुए भी परस्पर विरुद्ध जाएँगे। क्योंकि सबलोग पारिभाषिक शब्दों के अलग-अलग अर्थ लगाते हैं।
मैंने जिसे भक्ति कहा वह साध्य है, लक्ष्य है; साधन नहीं। वैदों में भक्ति मार्ग नहीं, लक्ष्य हैसाधन नहीं, साध्य है।
भक्ति मार्ग महाभारत ग्रन्थ में उल्लेखित वेदव्यास जी का भागवत धर्म की देन है।आजकल लोग भजन-किर्तन को भक्ति समझने लगे हैं। यह गलत है।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

भावार्थ - 
जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उसी प्रकार भजता हूं, क्योंकि सब मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते है।