बुधवार, 31 जनवरी 2024
वाल्मीकी रामायण उत्तर काण्ड शम्बुक वध को छोड़कर जाति-प्रथा की उँच-नीच नहीं मिलता। शम्बुक वध का कारण भी तान्त्रिक साधना और तामसी तप होना भी सम्भव है।महाभारत में भी उँच-नीच नहीं दिखती है। परशुराम जी ने गङ्गा पुत्र और वसु अंश मानकर भीष्म को धनुर्वेद की शिक्षा देने के बाद में संकल्प ले लिया कि, केवल विप्र वर्ण के बालकों को ही धनुर्वेद शिक्षा दूँगा। ताकि, चन्द्र वंशियों के अनाचार से समाज सुरक्षित रहे।और द्रोणाचार्य राज्य कर्मचारी होने के नाते अपने और राज परिवार के अतिरिक्त अन्य को धनुर्वेद शिक्षा नहीं दे सकते थे। इसलिए उन्होंने कर्ण और एकलव्य को शिक्षा नहीं दी।लेकिन इसके पीछे कोई जाति-प्रथा नहीं थी। यह केवल दुष्प्रचार मात्र है।सिकन्दर, शक-हूण और पारसी आक्रमण के बाद पञ्चम वर्ण अस्तित्व में आया जिसने म्लेच्छों की सेवा स्वीकार कर ली।
मंगलवार, 23 जनवरी 2024
क्या पाप कर्म का प्रायश्चित सम्भव है?
हम सनातन वैदिक धर्मावलम्बी धर्मशास्त्र के रूप में चारों वेदिक संहिताओं, चारों वेदों के आरण्यक और उपनिषद सहित ब्राह्मण ग्रन्थों, कल्प वेदाङ्ग के अन्तर्गत चारों वेदों के शुल्बसुत्रों, श्रोतसूत्रों, गृह्यसुत्रों और धर्मसुत्रों तथा षड दर्शनों में विशेषकर महर्षि जैमिनी का पूर्वमीमांसा दर्शन और महर्षि बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसुत्र या शारीरिक सुत्र) को ही धर्मशास्त्र मानते हैं।
वैदिक दर्शन में सहायक के रूप में वरीयता क्रम में सांख्य कारिकाएँ और महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन- महर्षि पतञ्जली का योगदर्शन, महर्षि गौतम का न्याय दर्शन- महर्षि कणाद का वैशेषिक दर्शन को मान्यता देते हैं। ये दर्शन उक्त ग्रन्थों के आशय को समझने में सहायक होते हैं। लेकिन इनमें जो भाग वैदिक संहिताओं के अनुकूल है वहीं भाग मान्य है। शेष भाग त्याज्य है।
इसके अलावा धर्मसूत्रों के आधार पर बने मनुस्मृति - याज्ञवल्क्य स्मृति आदि स्मृतियों को ही धर्मग्रन्थ के समान ही मानते हैं। लेकिन इनमें भी जो भाग वैदिक संहिताओं के अनुकूल है वहीं भाग मान्य है। शेष भाग त्याज्य है।
वाल्मीकी रामायण और श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास रचित महाभारत को इतिहास के ग्रन्थ मानते हैं। चुँकि, वाल्मीकी रामायण - महाभारत में धर्मपालन कैसे किया जाता है, धर्म पालन में आई दुविधाओं और कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है इसकी सोदाहरण विषद, अच्छी और प्रामाणिक जानकारी है इसलिए वाल्मीकी रामायण - महाभारत को धार्मिक ग्रन्थ कहते हैं, लेकिन धर्मगन्थ नही कहते।
वाल्मीकी रामायण-महाभारत के प्राचीन इतिहास में सहायक ग्रन्थ के रूप में केवल महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण को पुराण के रूप में मान्यता देते हैं।
तथाकथित वेदव्यासजी कृत अन्य पुराणों- उप पुराणों और पौराणिक ग्रन्थों में अनेक विरोधाभासी और बहुत सी अनर्गल बातों का समावेश होने के कारण सनातन वैदिक धर्मी इन्हें प्रामाणिक नहीं मानते। लेकिन पौराणिक- महाभागवत, सौर, शैव, शाक्त और गाणपत्य आदि सम्प्रदायों में अपने अपने पुराणों की अधिमान्यता है।
ऋग्वेद में दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें कही हैं जिसे लोग भूल जाते हैं।
(1) "ऋग्वेद प्रथम मण्डल के बाइसवें सुक्त का बीसवाँ मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि,
तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। ऋग्वेद 1/22/20 (पृष्ठ 43) ।
विष्णु परम पद है, चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा, इन्द्र, द्वादश आदित्य, अष्ट वसु और (शिव-शंकर- शंम्भ- महादेव सहित) एकादश रुद्र ये तैंतीस देवता भी विष्णु परमपद को देखते हैं। अर्थात विष्णु परमपद के दर्शन को लालायित रहते हैं। ऋग्वेद 1/22/20 (पृष्ठ 43) ।
(2) तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमं पदम्। ऋग्वेद 1/22/ 21
विष्णु का जो परम पद है, उसे कर्मकुशल जाग्रत रहने वाले ज्ञानी सम्यक प्रकाशित हुआ देखते हैं। 21
अर्थात विष्णु का परम पद द्युलोक में फैले हुए प्रकाश के समान ज्ञानी देवता सदा देखते हैं। ऋग्वेद 1/22/ 21
दोनों मन्त्रों से सिद्ध है कि, विष्णु का पद परमपद है और शेष देवता हैं।
ऋग्वेद प्रथम मण्डल के एक-सौ पचपनवें सुक्त का छटा मन्त्र कहता है कि,
चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभि श्चक्रं न वृत्तं व्यतीरवीविपत। वृहच्छरीरो विमिमान ऋक्कभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम्। ऋग्वेद 1/155/6
यह विष्णु बीतने वाले काल के चार गुणा नब्भे अर्थात तीन सौ साठ अवयवों को अपनी प्रेरणा से गोल चक्र के समान घुमाता है। तब बड़े शरीर वाला सदा तरुण रहने के कारण कभी भी कुमार न होने वाला यह विष्णु काल को नापता हुआ स्तुतियों से आकर्षित होकर यज्ञ की तरफ आता है।
अर्थात विष्णु के नियन्त्रण में 90×4 (= 360) अरों का नियति चक्र है। कालचक्र या नियति चक्र का नियन्त्रण विष्णु के हाथों में है।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब परब्रह्म विष्णु ने एक से बहुत होने का निश्चय किया तभी विष्णु की कल्पना में सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक घटना और समस्त घटनाएँ घट गई। यह ठीक ऐसा ही है जैसे फिल्म की शुटिंग तो पहले ही हो जाती है वैसे ही सृष्टि की सम्पूर्ण घटनाएँ घट चुकी है और हम इसमें लगाव होने के कारण लिप्त भाव से अनुभव कर रहे हैं। जबकि ज्ञानी दृष्टा भाव से केवल देखता रहता है। लिप्त नहीं होता।
साधारण व्यक्ति भावुक दर्शक की भाँति; स्वयम् को पात्र होने का भ्रम पालकर कभी सुखी- कभी दुःखी होते हुए किसी पात्र विशेष की भूमिका मैं ही निबाह रहा हूँ ऐसा समझ लेता है। ऐसे ही जगत में भी भूमिका मैं निभा रहा हूँ और मैं भोग रहा हूँ; ऐसा समझता है। जबकि ज्ञानी तटस्थ भाव से देख अपनी भूमिका (रोल) को निर्वाह करते हैं। क्योंकि, ज्ञानी जन जानते हैं कि, यह माया है, इसलिए इस संसार में मन लगाकर लिप्त होने के बजाय वे तटस्थ होकर केवल शरीर से अपनी भूमिका निबाहते हुए देखते रहते हैं।
पूरी सृष्टि का क्रम नियत है, यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में काल रूप दर्शन देने के समय कही थी।
ऐसे ही शुक्ल यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम और द्वितीय मन्त्र भी अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवन जीने की कला सिखाते हैं। प्रथम मन्त्र के प्रथम वाक्यांश के आधार पर इसे ईशावास्योपनिषद कहते हैं।
प्रथम मन्त्र में तीन बातें कही हैं ---
1 "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।"
ईशावास्यम् इदम् सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
अर्थात इस सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी है वह ईश (परमात्मा) से व्याप्त है, (यह जान समझ लो)।
जब परमात्मा नें सृष्टि उत्पत्ति का ॐ संकल्प किया तब अन्य तो कुछ था ही नहीं, अतः परमात्मा नें स्वयम् को ही चेतन प्रकृति (जीव जगत) और अष्टधा जड़ प्रकृति (जगत) के रूप में प्रकट किया। यही बात श्रीमद्भगवद्गीता में भी कही है।
कुछ लोग मानते हैं कि, चेतन जीवात्मा और अष्टधा जड़ प्रकृति भी अनादि हैं। यदि ये जीवात्मा और अष्टधा जड़ प्रकृति भी अनादि अनन्त होते तो परमात्मा सर्वव्यापी कैसे हो सकते हैं? यदि अन्य पदार्थ का एक कण भी विद्यमान हो; तो, परमात्मा सर्वव्याप्त नहीं कहे जा सकते।
दुसरी बात कही है कि, तेन त्यक्तेन भूंजीथा अर्थात उसे त्याग पू्र्वक भोग करें।
अर्थात अष्टधा प्रकृति रूप जड़ जगत जीव के भरण-पोषण रूप भोग के लिए ही बना है, अतः इस जगत का उपयोग-उपभोग तो करें लेकिन इसमें लगाव न रखें, आसक्त न हो, इसमें ही लीन न हो जाएँ, लौ लगाना है तो ईश्वर से लगाओ।
तीसरी बात कही है कि, मा गृधः कस्यस्वीत् धनम्। अर्थात किसी के भी धन का लोभ मत करो। अर्थात अपनी सम्पत्ति पर भी स्वामित्व और आधिपत्य (कब्जे) का भाव न रखें।
जिस हिरण्यगर्भ पञ्चमुखी ब्रह्मा ने इस जगत के/ ब्रह्माण्ड को बढ़ाई की भाँति गढ़ा, वह जगत ही उसके शयन काल में उसमें ही लय हो जाता है। जब यह जगत और इसके पदार्थ अपने सृजेता के नही हुए तो हमारे-तुम्हारे क्या होंगे। जब उसी के नहीं हैं तो हम क्यों अपने नाम करने का, स्वामीत्व आधिपत्य का भ्रम पालें। अतः किसी भी चीज की इच्छा न रखें।
दुसरे मन्त्र में कहा है,
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः |
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||
कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजीविशेत शरदम् समाः अर्थात कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||
इसके अतिरिक्त तेरे पास कोई मार्ग नहीं है। जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।
अर्थात अकर्मण्यता पूर्वक जीवन निर्वाह सम्भव नहीं है, और निरुद्देश्य कर्म करने का भी कोई औचित्य नहीं है, लेकिन फलाशा व्यर्थ है। क्योंकि फल इच्छा करने से फल प्राप्त नहीं होता। बल्कि कर्म का फल तो होगा ही। उससे तो आप बच ही नहीं सकते। तो इच्छा करना तो व्यर्थ ही है ना।
संकल्प सहित किये गए सकाम कर्म बान्धते हैं और ज्ञान खोलता है, छुड़ाता है,मुक्त करता है।
बिना संकल्प के, मैं पन के बिना किये गए निष्काम कर्मों से केवल अन्तःकरण शुद्ध होता है।
मैं- मेरा और हम- हमारा, तु- तेरा, तुम- तुम्हारा, वे- उनका वाले भाव से किए गए कर्म ही बान्धते हैं। इसके बिना मै- मैरा के भाव के बगैर, बिना कामना के, सत उद्देश्य से किये जाने वाले शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से करने पर बन्धनकारी नहीं होते।
वैदिक ग्रन्थों के अनुसार किसी भी एक कर्म से दुसरा कर्म नष्ट नहीं होता। प्रत्येक भले-बुरे कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है।
यदि गलती से तेज चलते दो व्यक्ति आपस में टकरा जाए और एक गिर जाए, लेकिन किसी प्रकार की कोई क्षति न हो और दुसरा व्यक्ति गिरे व्यक्ति से क्षमा प्रार्थना करते हुए उठने में सहायता करे तो क्या गिरने वाला क्षमा नहीं करेगा? यह हुआ छोटे मोटे पाप का प्रायश्चित।
जैसे शैशव, निन्द्रा, स्वप्न, सम्मोहन अवस्था में किया गया अपराध का ज्ञान होने पर जिसके प्रति अपराध हुआ है उससे क्षमा प्रार्थना करने पर और उस व्यक्ति द्वारा क्षमा किया जाने पर उस पाप का शमन हो जाता है, वैसे ही विभिन्न साधारण पापों के प्रायश्चित बतलाये गए हैं।
जिसमें वरिष्ठों का समुचित मान-सम्मान न करना, वचन भङ्ग, पंक्ति भेद, पैर छू जाना, अशालीन भाषा, पर्याप्त दान न कर पाना, पर्याप्त दक्षिणा न देना, पारिश्रमिक कम देना या नही देना, कर्ज चुकाये बिना मृत्यु होना आदि के प्रायश्चित बतलाये हैं। जिससे इन पापों का शमन होता है।
लेकिन सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय न होकर जानबूझकर, केवल स्वार्थवश मच्छर की हत्या का प्रायश्चित भी नहीं हो सकता।
कुछ छोटे मोटे पापों के प्रायश्चित के विषय में कुछ स्थानों में उल्लेख है कि, पर्वकाल में तीर्थ स्नान, तीर्थ में दान आदि प्रायश्चित भी हैं। जिसे पौराणिकों और कथावाचकों नें गङ्गास्नान से पाप धुलना मान लिया।
पौराणिक तो कहते हैं कि, जिसने जीवन भर पाप किया और केवल एक बार ही हरि, नारायण, राम, कृष्ण आदि कोई भी नाम ले लेता है तो उस एकबार नाम लेने मात्र से वैकुण्ठ से भगवान विष्णु के पार्षद आते हैं और यम दूतों को भगाकर उसे वैकुण्ठ लेजाते हैं; तो फिर सदाचार पूर्वक वर्णाश्रम धर्म पालन, पञ्चमहायज्ञ क्यों किये जाएँ। पुराणों के इस मिथ्या और असत्य ज्ञान के फलस्वरूप आजकल अधिकांश जन दुराचारी होगये हैं।
वस्तुतः जीवनभर जो सोचोगे तदनुसार वही कर्म करोगे अतः अन्त समय में भी वही स्मरण होगा।
पौराणिक कथा के आधार पर एक व्यक्ति ने पुत्र का नाम नारायण रख दिया। सोचा जीवनभर कुछ भी करलो, अन्त में पुत्र का नाम याद आता ही है, अतः सब पाप धुल जाएंगे और वैकुण्ठ में सीट पक्की।
अब वह निरंकुश हो गया, उसे पाप कर्म करने में ही रुचि हो गई। मरते समय चार-पाँच बार नारायण, नारायण कह कर पुत्र को पुकारा, लेकिन आखिर दुष्ट का पुत्र था, उसने भी सुनी-अनसुनी कर दी। तब क्रोधित हो कर उस पापी ने पुत्र को तीन चार गन्दी गालियाँ और वैसे ही उसकी मृत्यु हो गई। पौराणिक चालबाजी धरी रह गई।
अतः यह भ्रम छोड़ कर केवल शास्त्रोंक्त वचनानुसार सद्भावना, सद्विचार, सत्य भाषण, सत्कर्म, सदाचार पूर्वक जीवन यापन ही एकमात्र सतपथ है। यही वैदिक सनातन धर्म है।
रविवार, 21 जनवरी 2024
धर्म के अधीन राज्य हो तो धर्मराज्य, पन्थ के अधीन राज्य पन्थराज्य और राज्य के अधीन धर्म अधर्म ही होता है।
जिसने भी महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र के अधीन रहकर राज चलाते दशरथ जी और श्री रामचन्द्र जी का इतिहास पढ़ा समझा है। बौद्धकाल का इतिहास पढ़ा समझा है, जिसने ईरान का इतिहास पढ़ा समझा है। जिसने इङ्लैण्ड (इंग्लैंड) का इतिहास पढ़ा है। जिसने भी रोमन कैथलिक चर्च के विरुद्ध प्रोटेस्टेण्ट चर्च और एङ्लिकन चर्च (एंग्लिकन चर्च) बनने का इतिहास पढ़ा है और उसके बाद ईसाई परिवार और सामाजिक व्यवस्था में हुए परिवर्तन का इतिहास समझा है, जिनने देखा है कि, रोमन कैथोलिक चर्च दूसरे विवाह की अनुमति नहीं देता था इसलिए इसाइयों में तलाक देकर दुसरा - तिसरा विवाह कर जीवन में चार-पाँच विवाह नहीं होते थे।
वे सब जानते हैं कि, राज्य पर धर्म का नियन्त्रण और धर्म पर राज्य (और राजनीति) के नियन्त्रण के अन्तर को जान समझ सकते हैं।
और सनातन धर्म का सनातन रहने का कारण भी जान सकते हैं।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए आदि शंकराचार्य जी ने भारत की चारों दिशाओं में चार शंकराचार्यों की पदस्थापना की थी। उनके पास तो केरल के राजा की सेना थी। उनने स्वयम् की नागा साधुओं की सेना भी तैयार कर ली थी। नाथ सम्प्रदाय बनने के बाद नाग सेना पर सिद्ध सम्प्रदाय का नियन्त्रण हो गया। फिर भी शंकराचार्यों का औपचारिक सम्मान शेष रहा।
पहले आर्य समाज के प्रचारकों और आर्यसमाज द्वारा संचालित स्वातन्त्र्य आन्दोलन सहित धार्मिक आन्दोलनों, फिर करपात्री जी के नेतृत्व में रामराज्य परिषद के गौरक्षा आन्दोलनों के कारण जनता को भ्रम हो गया कि, शंकराचार्यों ने भी ऐसे ही प्रवचन देकर प्रचार करना और आन्दोलन चलाना चाहिए। थोड़ा कार्य श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने किया और सफल भी रहे।
रा.स्व.से.संघ ने जनता की इस इच्छा को समझ कर विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से 1984 ईस्वी से गङ्गा यात्रा और रामजन्म भूमि आन्दोलन के माध्यम से ने जनता की यह इच्छा पूरी की तो जनता उसकी भक्त हो गई।
लेकिन यह कार्य धर्मराज का नहीं है। उसके लिए स्वामी श्रद्धान्द सरस्वती जी और करपात्री जी जैसे संन्यासी चाहिए।
जिस दिन राजनीति और राज्य का नियन्त्रण धर्म पर हो जाएगा उसदिन वैदिक सनातन समाप्त हो कर केवल हिन्दूत्व रह जाएगा। हिन्दूत्व का अर्थ है भारतीय या भारतवंशी। वह व्यक्ति जिसके अजमेर -गोवा जैसे तीर्थ स्थान भारत भूमि में हो, जो भारत को अपना देश मानता हो, भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो। वह चाहे बाइबल को धर्मशास्त्र मानता हो; चर्च में बाइबल के भजन गाकर प्रार्थना करता हो, चाहे कुरान को अपना धर्मग्रन्थ मानता हो और हदीस के नियमों का पालन करता हो और मस्जिद में नमाज अदा करता हो वह हिन्दू है। विशेष कर पुरुष खाकी पेण्ट, सफेद शर्ट, काली टोपी और महिलाएँ सलवार कुर्ता पहन कर रा.स्व.से. संघ की शाखा में जाता हो तो वह पक्का हिन्दू कहलायेगा। विशेषता यह है कि, उक्त गणवेश में कुछ भी भारतीय नहीं है।
तब शंकराचार्यों के पद समाप्त हो कर आचार्य धर्मेन्द्र और उमा भारती और प्रज्ञा ठाकुर जैसे साधु होंगे। और
दासो के (हिन्दुओं के) दस (अ)धर्माचार्य घोषित किए जाएँगे ---
नागपुर में (महाराष्ट्रपति) लम्पटराय और राजधानी में परधान मन्त्री राष्ट्रप्रमुख पद पर सत्तासीन रहेंगे।
इनके अधीन
1 गुरुग्राम में चम्मचराय (राष्ट्र प्रमुख का प्रधान चम्मच) ,
2 नोएडा में दलपतराय (बहुमत दल का अध्यक्ष),
3 मुम्बई में घोटाले कर (चम्पत होने में प्रवीण) चम्पतराय,
4 कोलकाता में बलवन्तराय (गुण्डों का सरदार),
5 अहमदाबाद में सम्पतराय (प्रचूर सम्पदा का स्वामी),
6 चेन्नई में धनपतराय (सबसे बड़ा धनवान),
7 बेंगलुरु, हैदराबाद, गुरुग्राम, नोएडा में मीडिया राय।
ये सातों नौकर राष्ट्र प्रमुख के लिए उत्तरदाई होंगे।
वैदिक सनातन धर्मियों से कर वसूला जाएगा।
मंगलवार, 16 जनवरी 2024
कल्पारम्भ में ग्रह स्थिति।
केवल मन्द केन्द्रीय ग्रह ही सूर्य केन्द्रीय होते हैं। शेष पूरी ज्योतिष गणनाएँ भू केन्द्रीय ही होती है। क्योंकि, हमें देखना तो भूमि से ही है तो भारतीय भू केन्द्रीय ग्रह स्थिति लेते हैं और यूरोपीय भू पृष्ठीय ग्रह स्थिति लेते हैं; ये ही उपयोगी है।
लग्न मूलतः सायन गणना से ही आता है। उसमें अयनांश घटाकर निरयन बनाना पड़ता है।
ऐसे ही
नाक्षत्रीय पद्यति में तो तारामण्डल (नक्षत्र) बतलाया जाता है। इनका उपयोग संहिता ज्योतिष में ही होता है। फलित ज्योतिष/ होरा शास्त्र में नहीं होता।
आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में तेरह तारामण्डल को राशियाँ मान जाता है और अठासी तारामण्डल को नक्षत्र (Constilation) कह सकते हैं। भारत में पहले अट्ठाइस नक्षत्र माने जाते थे, लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र क्रान्तिवृत से काफी दूर हो गया इसलिए अब सत्ताइस नक्षत्र ही चलते हैं।
सूर्य सिद्धान्त और वराहमिहिर दोनों के अनुसार कल्पारम्भ में भू-मध्य रेखा और उज्जैन के देशान्तर रेखा के काट पर वसन्त सम्पात का उदय हो रहा था। उस समय सभी ग्रह वसन्त सम्पात (सायन मेषादि बिन्दु) पर ही थे।
चूंकि उस समय अयनांश भी शुन्य ही था अतः निरयन सायन दोनों स्थितियाँ समान ही थी। तदनुसार उस समय चित्रा तारा पश्चिम में अस्त हो रहा था। अतः चित्रा तारे को नक्षत्र मण्डल के मध्य में (180°) पर माना जाता है। और चित्रा तारे से 180° पर अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ माना जाता है। इसे निरयन मेषादि बिन्दु भी कहा जाता है।
शनिवार, 13 जनवरी 2024
श्री पुष्पेन्द्र श्रीवास्तव के भाषणों का प्रभाव
डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की पुस्तक पाकिस्तान एण्ड पार्टिशन ऑफ इण्डिया पर श्री पुष्पेन्द्र श्रीवास्तव जी का भाषण कई लोग कई बार सुन चुके हैं।
विशेषता यह है कि, मुस्लिमों के विरुद्ध जो तथ्य डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर जी ने बतलाये उनके प्रष्ठ संख्या सहित बतलाने के बाद भी जो बातें पुष्पेन्द्र श्रीवास्तव जी को समझ आ गये, उनके माध्यम से आपको जानकारी मिली उससे हमारे जैसे लोग समझ गए लेकिन अम्बेडकर वादियों को न पढ़कर समझ आया न पुष्पेन्द्र श्रीवास्तव जी समझा पाये।जो पहले से जानते-समझते हैं, पहले से ही मानते हैं उनको उनके मत की पुष्टि कर दी, लेकिन जो गलत जानकारी और गलत सोच से ग्रस्त हैं जिनको समझाना आवश्यक है उनको ही नहीं समझा पा रहे हैं उन्हें तो, इतने भाषण देने से भी कोई लाभ नहीं मिला।
आगम ग्रन्थ क्या है। क्या आगम ग्रन्थों का वेदों से कोई सम्बन्ध है?
जैसे वैदिक कर्मकाण्ड के लिए अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ के सुत्र ग्रन्थ और सुत्र ग्रन्थों के अनुसार कर्मकाण्ड भास्कर, संस्कार भास्कर जैसे निबन्ध ग्रन्थ बनें वैसे ही
ऐसे ही प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए तन्त्रोक विधि से क्रियाएँ करने हेतु अपने-अपने आगम ग्रन्थ रचे गए। मूर्तिपूजा की विधि पुराणों और आगम ग्रन्थों में ही मिलती है।
शंकराचार्य जी ने चारों मठों को चार वेदों से सम्बन्धित बतलाया। वैसे उसका कोई प्रामाणिक आधार तो नहीं था लेकिन दिशाओं के अनुसार और प्रथम मठाधीश सुरेश्वराचार्य, हस्तमालकाचार्य, त्रोटकाचार्य, पद्मपादाचार्य की रुचि को भी आंशिक रूप से आधार मान सकते हैं।
जब आद्य शंकराचार्य जी ने श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों की शुद्धि कर सनातन धर्म में वापसी करवाई तो,
इन पूर्व श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों नें प्राचीन ऋषियों की वर्णाश्रम व्यवस्था नही अपनाई। वानप्रस्थों के समान आश्रम न बनाते हुए अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इष्टदेव का चयन कर अपने- अपने मठ स्थापित किए। मठों में अपने इष्ट का मन्दिर बनवाया या कुछ नें पञ्चदेवोपासना हेतु तदनुसार मन्दिर बनवाये। श्रमणों और बौद्धों के मठ अधिग्रहित कर शिवलिंग के समान पत्थर (नाम भूल रहा हूँ) को ही शिवलिंग बना लिया।
इन पूर्व श्रमणों,बौद्धों,जैनों और तान्त्रिकों नें श्रमण/ बौद्ध/ जैन / तान्त्रिक परम्परानुसार ही अपने-अपने मठों के लिए संविधान बनाया जिसे आम्नाय कहते हैं। हर एक आम्नाय का एक आगम ग्रन्थ तैयार किया। जिसमें मठ व्यवस्था, पूजा विधि, पूजारी चयन आदि नियम हैं।
इन्हीं लोगों नें अपने-अपने मतानुसार पुराण रचे और शास्त्रों में संशोधन कर दिये।
प्रत्येक आम्नाय को एक वेद से जोड़ा गया जैसे शंकराचार्य जी ने किया था।
वेद भाष्य के प्रकार
वेद व्याख्याताओं के प्रकार ---
१ ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर व्याख्या।
२ व्याकरण, निरुक्त, छन्द के जानकार अनुवादक मात्र।
३ सायण/ महिधर भाष्य के अनुवादक।
४ दयानन्द सरस्वती जी या श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भाष्य के अनुसार अनुवाद करने वाले।
५ मेक्समूलर के भाष्य के अनुवादक।
सोमवार, 8 जनवरी 2024
वासर
वार
दो सूर्योदय के बीच की अवधि वासर या वार कहलाती है।
वार सूर्योदय से सूर्योदय तक चलते हैं। अतः वार सूर्योदय से बदलता है। रात बारह बजे Day & Date बदलते हैं वार नहीं।
वैदिक काल में पारिश्रमिक वितरण हेतु दशाह चलता था। लेकिन सप्ताह शब्द भी मिलता है।
वैदिक काल में ग्रहों के नाम वाले वार प्रचलित नहीं थे।
ग्रहों का कक्षाक्रम निम्नानुसार है।---
0 सूर्य, 1 बुध, 2 शुक्र, 3 भूमि (प्रकारान्तर से सूर्य), 4 मङ्गल, 5 गुरु ब्रहस्पति, 6 शनि, 7 युरेनस (हर्षल), 8 नेपच्यून।
तदनुसार
रविवार को चौबीस घण्टों के होरा बनते हैं।
01 रवि, 02 शुक्र, 03 बुध, 04 सोम, 05 शनि, 06 गुरु ब्रहस्पति, 07 मङ्गल, 08 रवि, 09 शुक्र, 10 बुध, 11 सोम, 12 शनि, 13 गुरु ब्रहस्पति, 14 मङ्गल 15 रवि, 16 शुक्र, 17 बुध, 18 सोम, 19 शनि, 20 गुरु ब्रहस्पति, 21 मङ्गल, 22 रवि, 23 शुक्र 24 बुध और अगला रहेगा सोम का होरा। यही सोम का होरा सोमवार का पहला होरा रहेगा। अतः अगला वार सोमवार रखा गया।
ऐसे ही सोमवार को चौबीसवाँ होरा गुरु ब्रहस्पति का रहेगा। अतः उसका अगला होरा मंगल का रहेगा इसलिए अगला वार मंगलवार माना गया। ताकि, मंगलवार को पहला होरा मंगल का ही पड़े।
यह वारो के क्रम का रहस्य है।
सत्ताइस योग
योग ---
सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के अंशों का योग (जोड़) जब 180° होता है तब व्यतिपात योग होता है। और सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के अंशों का योग (जोड़) जब 360° या 000° होता है तब वैधृति पात योग होता है।
ये भी राहु और केतु के समान पात हैं।
लेकिन इस आधार पर सूर्य और चन्द्रमा के निरयन भोगांश के योग को सत्ताइस से विभाजित कर सत्ताइस योग बनाते हैं। जिस समय सूर्य और चन्द्रमा के निरयन भोगांश के योग में सत्ताइस का भाग लगने पर नक्षत्रों के भोगांश 13°20' या 26°40' जैसे पूरा भाग लग जाता है वह समय योग का अन्तिम घण्टा-मिनट या घटि-पल होता है और अगले योग का प्रारम्भ का समय होता है।
सत्ताइस योगों के नाम 01 विष्कुम्भ, 02 प्रीति, 03 आयुष्मान, 04 सौभाग्य, 05 शोभन, 06 अतिगण्ड, 07सुकर्मा, 08धृति, 09शूल, 10 गण्ड, 11 वृद्धि, 12 ध्रुव, 13 व्याघात, 14 हर्षण, 15 वज्र, 16 सिद्धि, 17 व्यतिपात, 18 वरियान, 19 परिघ, 20 शिव, 21 सिद्ध, 22 साध्य, 23 शुभ, 24 शुक्ल, 25 ब्रह्म, 26 इन्द्र और 27 वैधृति।
ये यथा नाम तथा फलम् माने जाते हैं। अर्थात जैसा नाम है वैसा ही फल दर्शाते हैं।
पञ्चाङ्ग परिचय
तिथि
प्रत्येक तिथि औसत 23 घण्टे 37 मिनट 28.09 सेकण्ड की होती है जो कम से कम 19 घण्टे 59 मिनट से लेकर अधिकतम 26 घण्टे 47 मिनट तक की हो सकती है । अर्थात सप्त वृद्धि दश क्षय का सिद्धान्त ही सही है (अर्थात कोई भी तिथि सात घड़ी तक बढ़ सकती है और दस घड़ी तक घट सकती है यह सिद्धान्त ही सही है), न कि, बाण वृद्धि रस क्षय (पाँच घटि वृद्धि और छः घटि क्षय होने) का सिद्धान्त। उल्लेखनीय है कि किसी भी पञ्चाङ्ग शोधन समिति में कोई भी विद्वान बाण वृद्धि रस क्षय का का प्रमाण नही दे पाया। फिर भी इसी को आधार बनाकर उज्जैन के महाकाल पञ्चाङ्ग और जबलपुरी लालाओं के केलेण्डर पञ्चाङ्ग धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
एक तिथि मतलब सूर्य और चन्द्रमा में 12° का अन्तर। तदनुसार
कृष्ण पक्ष की अमावस्या का अर्थ है सूर्य से 348 से 360° (या 000°) तक चन्द्रमा आगे होना।ऐसे ही
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का अर्थ है; सूर्य से चन्द्रमा 00°00' से 12°00' का आगे होना।
शुक्ल पक्ष की द्वितीया का अर्थ है सूर्य से 12° से 24° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की तृतीया का अर्थ है सूर्य से 24° से 36° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का अर्थ है सूर्य से 36° से 48° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की पञ्चमी का अर्थ है सूर्य से 48° से 60° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की षष्ठी का अर्थ है सूर्य से 60° से 72° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की सप्तमी का अर्थ है सूर्य से 72° से 84° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की अष्टमी का अर्थ है सूर्य से 84° से 96° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की नवमी का अर्थ है सूर्य से 96° से 108° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की दशमी का अर्थ है सूर्य से 108° से 120° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की एकादशी का अर्थ है सूर्य से 120° से 132° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की द्वादशी का अर्थ है सूर्य से 132° से 144° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी का अर्थ है सूर्य से 144° से 156° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का अर्थ है सूर्य से 156° से 168° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का अर्थ है सूर्य से 168° से 180° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का अर्थ है सूर्य से 180° से 192° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की द्वितीया का अर्थ है सूर्य से 192° से 204° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की तृतीया का अर्थ है सूर्य से 204° से 216° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का अर्थ है सूर्य से 216° से 228° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की पञ्चमी का अर्थ है सूर्य से 228° से 240° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की षष्ठी का अर्थ है सूर्य से 240° से 252° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की सप्तमी का अर्थ है सूर्य से 252° से 264° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की अष्टमी का अर्थ है सूर्य से 264° से 276° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की नवमी का अर्थ है सूर्य से 276° से 288° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की दशमी का अर्थ है सूर्य से 288° से 300° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की एकादशी का अर्थ है सूर्य से 300° से 312° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की द्वादशी का अर्थ है सूर्य से 312° से 324° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी का अर्थ है सूर्य से 324° से 336° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का अर्थ है सूर्य से 336° से 348° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की अमावस्या का अर्थ है सूर्य से 348 से 360° तक चन्द्रमा आगे होना।
यह अन्तर कलकत्ता, दिल्ली, या उज्जैन स्थित भारत शासन की वैधशाला में जाकर वैध लेकर देखे जा सकते हैं। इसलिए तिथि निर्धारण कोई विवाद का विषय नहीं है।
फिर भी भारत में भारत शासन की पञ्चाङ्गों, बङ्गाल शासन की पञ्चाङ्ग, उज्जैन वैधशाला की पञ्चाङ्ग, लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज के अलावा केतकी ज्योतिर्गणितम, केतकी ग्रह गणितम् और केतकी वैजयन्ती ग्रन्थों पर आधारित पञ्चाङ्गों में ही सही तिथियाँ मिलती है।
लेकिन लोग गलत पञ्चाङ्ग केलेण्डर खरीदकर अपने व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार गलत तिथियों में मनाते हैं, तो बढ़ा आश्चर्य मिश्रित दुःख होता है।
करण
तिथि के अर्धभाग को करण कहते हैं। करण निम्नानुसार होते हैं।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में शकुनि करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या पूर्वार्ध में चतुष्पाद करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या उत्तरार्ध में नाग करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में किंस्तुघ्न करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष द्वितीया पूर्वार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष द्वितीया उत्तरार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष तृतीया पूर्वार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष तृतीया उत्तरार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्थी पूर्वार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्थी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष पञ्चमी पूर्वार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष पञ्चमी उत्तरार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष षष्ठी पूर्वार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष षष्ठी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष सप्तमी पूर्वार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष सप्तमी उत्तरार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष अष्टमी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष अष्टमी उत्तरार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष नवमी पूर्वार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष नवमी उत्तरार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष दशमी पूर्वार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष दशमी उत्तरार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष एकादशी पूर्वार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष एकादशी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष द्वादशी पूर्वार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष द्वादशी उत्तरार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष त्रयोदशी पूर्वार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष त्रयोदशी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा उत्तरार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष द्वितीया पूर्वार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष द्वितीया उत्तरार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष तृतीया पूर्वार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष तृतीया उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्थी पूर्वार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्थी उत्तरार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष पञ्चमी पूर्वार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष पञ्चमी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष षष्ठी पूर्वार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष षष्ठी उत्तरार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष सप्तमी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष सप्तमी उत्तरार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष अष्टमी पूर्वार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष अष्टमी उत्तरार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष नवमी पूर्वार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष नवमी उत्तरार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष दशमी पूर्वार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष दशमी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष एकादशी पूर्वार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष एकादशी उत्तरार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष द्वादशी पूर्वार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष द्वादशी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष त्रयोदशी पूर्वार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष त्रयोदशी उत्तरार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में शकुनि करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या पूर्वार्ध में चतुष्पाद करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या उत्तरार्ध में नाग करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में किंस्तुघ्न करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में बव करण।
चन्द्रमा के नक्षत्र का अर्थ।
वैदिक काल में नक्षत्र का तात्पर्य क्रान्ति वृत के आसपास उत्तर दक्षिण में नौ-नौ अंशों की नक्षत्र पट्टी में एक निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल (कांस्टिलेशन Constilation) होता था।
उस समय चित्रा नक्षत्र का केवल एक ही तारा होता था। जिसका भोगांश 00°23'31" होता है। जबकि,
स्वाती नक्षत्र का भोग 20°50'57" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग 25°14'08" था; ऐसे ही सभी सत्ताइस नक्षत्रों के भोगांश असमान और अलग अलग थे। न कि, वर्तमान में प्रचलित 13°20'।"
पहले अभिजीत नक्षत्र सहित अट्ठाइस नक्षत्र मान्य थे लेकिन अभिजीत नक्षत्र क्रान्ति वृत के आसपास उत्तर दक्षिण में नौ-नौ अंशों की नक्षत्र पट्टी से दूर हो जाने के कारण अभिजीत नक्षत्र की मान्यता समाप्त करना पड़ी। और अब असमान भोगांश वाले केवल सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। लेकिन आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में अठासी तारामण्डल (कांस्टिलेशन Constilation) माने जाते हैं। और तेरह आर्याएँ (साइन Sign) माने जाते हैं। जबकि पूर्व में बेबीलोन की बारह राशियाँ (साइन Sign) मानी जाती थी।
वर्तमान भारतीय पञ्चाङ्गों में 13°20' के सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। एक चन्द्र नक्षत्र औसत 24 घण्टे 17 मिनट 09.317 सेकण्ड का होता है।
नक्षत्र निम्नानुसार हैं।---
000° से 13°20' तक अश्विनी नक्षत्र। या
00-00°00' से 00-13°20' तक अश्विनी नक्षत्र।
13°20' से 26°40' तक भरणी नक्षत्र। या
00-13°20' से 00-26°40' तक भरणी नक्षत्र।
26°40' से 40°00' तक कृतिका नक्षत्र। या
00-26°40' से 01-10°00' तक कृतिका नक्षत्र।
40°00' से 53°20' तक रोहिणी नक्षत्र। या
01-10°00' से 01-23°20' तक रोहिणी नक्षत्र।
53°20' से 66°40' तक मृगशीर्ष नक्षत्र। या
01-23°20' से 02-06°40' तक मृगशीर्ष नक्षत्र।
66°40' से 80°00' तक आर्द्रा नक्षत्र। या
02-06°40' से 02-20°00' तक आर्द्रा नक्षत्र।
80°00' से 93°20' तक पुनर्वसु नक्षत्र। या
02-20°00' से 03-03°20' तक पुनर्वसु नक्षत्र।
93°20' से 106°40' तक पुष्य नक्षत्र। या
03-03°20'' से 03-16°40' तक पुष्य नक्षत्र।
106°40' से 120°00' तक आश्लेषा नक्षत्र। या
03-16°40' से 04-00°00' तक आश्लेषा नक्षत्र।
120°00' से 133°20' तक मघा नक्षत्र। या
04-00°00' से 04-13°20' तक मघा नक्षत्र।
133°20' से 146°40' तक पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र। या
04-13°20' से 04-26°40' तक पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र।
146°40' से 160°00' तक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। या
04-26°40' से 05-10°00' तक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र।
160°00' से 173°20' तक हस्त नक्षत्र। या
05-10°00' से 05-23°20' तक हस्त नक्षत्र।
173°20' से 186°40' तक चित्रा नक्षत्र। या
05-23°20' से 06-06°40' तक चित्रा नक्षत्र।
186°40' से 200°00' तक स्वाति नक्षत्र। या
06-06°40' से 06-20°00' तक स्वाति नक्षत्र।
200°00' से 213°20' तक विशाखा नक्षत्र। या
06-20°00' से 07-03°20' तक विशाखा नक्षत्र।
213°20' से 226°40' तक अनुराधा नक्षत्र। या
07-03°20' से 07-16°40' तक अनुराधा नक्षत्र।
226°40' से 240°00' तक ज्येष्ठा नक्षत्र। या
07-16°40' से 08-00°00' तक ज्येष्ठा नक्षत्र।
240°00' से 253°20' तक मूल नक्षत्र। या
08-00°00' से 08-13°20' तक मूल नक्षत्र।
253°20' से 266°40' तक पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र। या
08-13°20' से 08-26°40' तक पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र।
266°40' से 280°00' तक उत्तराषाढा नक्षत्र। या
08-26°40' से 09-10°00' तक उत्तराषाढा नक्षत्र।
280°00' से 293°20' तक श्रवण नक्षत्र। या
09-10°00' से 09-23°20' तक श्रवण नक्षत्र।
293°20' से 306°40' तक धनिष्ठा नक्षत्र। या
09-23°20' से 10-06°40' तक धनिष्ठा नक्षत्र।
306°40' से 320°00' तक शतभिषा नक्षत्र। या
10-06°40' से 10-20°00' तक शतभिषा नक्षत्र।
320°00' से 333°20' तक पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र। या
10-20°00' से 11-03°20' तक पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र।
333°20' से 346°40' तक उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र। या
11-03°20' से 11-16°40' तक उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र।
346°40' से 360°00' तक या000°00' तक रेवती नक्षत्र। या
11-16°40' से 12-00°00' तक या 00-00°00' तक रेवती नक्षत्र।
इसी प्रकार वर्तमान में प्रचलित बारह राशियाँ निम्नलिखित हैं।---
00° से 30° तक मेष राशि।
30° से 60° तक वृष राशि।
60° से 90° तक मिथुन राशि।
90° से 120° तक कर्क राशि।
120° से 150° तक सिंह राशि।
150° से 180° तक कन्या राशि।
180° से 210° तक तुला राशि।
210° से 240° तक वृश्चिक राशि।
240° से 270° तक धनु राशि।
270° से 300° तक मकर राशि।
300° से 330° तक कुम्भ राशि।
330° से 360° तक (या 000° तक) मीन राशि।
जब सूर्य उक्त राशियों में रहता है, उसे निरयन सौर मास कहते हैं। वर्तमान में सूर्य का मन्दोच्च निरयन 2-19°08'37" पर है। अर्थात चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से 79° 08' 37" पर है। इस कारण तीसरा महिना अर्थात मिथुन मास सबसे बड़ा होता है और धनुर्मास सबसे छोटा होता है।
वार
दो सूर्योदय के बीच की अवधि वासर या वार कहलाती है। इसलिए वार हमेशा सूर्योदय से ही बदलते हैं।
वैदिक काल में पारिश्रमिक वितरण हेतु दशाह चलता था। लेकिन सप्ताह शब्द भी मिलता है।
वैदिक काल में ग्रहों के नाम वाले वार प्रचलित नहीं थे।
ग्रहों का कक्षाक्रम निम्नानुसार है।---
0 सूर्य से, 1 चन्द्रमा, 2 बुध, 3 शुक्र, 4 भूमि (प्रकारान्तर से सूर्य), 5 मङ्गल, 6 गुरु ब्रहस्पति, 7 शनि, 8 युरेनस (हर्षल), 9 नेपच्यून।
इसका उल्टा क्रम है --- 7 शनि, 6 गुरु, 5 मंगल, 4 सूर्य (भूमि), 3 शुक्र, 2 बुध, 1 चन्द्रमा।
तदनुसार
रविवार को चौबीस घण्टों के होरा बनते हैं।
01 रवि, 02 शुक्र, 03 बुध, 04 सोम, 05 शनि, 06 गुरु ब्रहस्पति, 07 मङ्गल, 08 रवि, 09 शुक्र, 10 बुध, 11 सोम, 12 शनि, 13 गुरु ब्रहस्पति, 14 मङ्गल 15 रवि, 16 शुक्र, 17 बुध, 18 सोम, 19 शनि, 20 गुरु ब्रहस्पति, 21 मङ्गल, 22 रवि, 23 शुक्र 24 बुध और अगला रहेगा सोम का होरा। यही सोम का होरा सोमवार का पहला होरा रहेगा। अतः अगला वार सोमवार रखा गया।
ऐसे ही सोमवार को चौबीसवाँ होरा गुरु ब्रहस्पति का रहेगा। अतः उसका अगला होरा मंगल का रहेगा इसलिए अगला वार मंगलवार माना गया। ताकि, मंगलवार को पहला होरा मंगल का ही पड़े।
यह वारो के क्रम का रहस्य है।
योग ---
सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के अंशों का योग (जोड़) जब 180° होता है तब व्यतिपात योग होता है। और सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के अंशों का योग (जोड़) जब 360° या 000° होता है तब वैधृति पात योग होता है।
ये भी राहु और केतु के समान पात हैं।
लेकिन इस आधार पर सूर्य और चन्द्रमा के निरयन भोगांश के योग को सत्ताइस से विभाजित कर सत्ताइस योग बनाते हैं। जिस समय सूर्य और चन्द्रमा के निरयन भोगांश के योग में सत्ताइस का भाग लगने पर नक्षत्रों के भोगांश 13°20' या 26°40' जैसे पूरा भाग लग जाता है वह समय योग का अन्तिम घण्टा-मिनट या घटि-पल होता है और अगले योग का प्रारम्भ का समय होता है।
सत्ताइस योगों के नाम 01 विष्कुम्भ, 02 प्रीति, 03 आयुष्मान, 04 सौभाग्य, 05 शोभन, 06 अतिगण्ड, 07सुकर्मा, 08धृति, 09शूल, 10 गण्ड, 11 वृद्धि, 12 ध्रुव, 13 व्याघात, 14 हर्षण, 15 वज्र, 16 सिद्धि, 17 व्यतिपात, 18 वरियान, 19 परिघ, 20 शिव, 21 सिद्ध, 22 साध्य, 23 शुभ, 24 शुक्ल, 25 ब्रह्म, 26 इन्द्र और 27 वैधृति।
ये यथा नाम तथा फलम् माने जाते हैं। अर्थात जैसा नाम है वैसा ही फल दर्शाते हैं।
चन्द्रमा के नक्षत्र और राशियों का अर्थ।
चन्द्रमा के नक्षत्र का अर्थ।
वैदिक काल में नक्षत्र का तात्पर्य क्रान्ति वृत के आसपास उत्तर दक्षिण में नौ-नौ अंशों की नक्षत्र पट्टी में एक निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल (कांस्टिलेशन Constilation) होता था।
उस समय चित्रा नक्षत्र का केवल एक ही तारा होता था। जिसका भोगांश 00°23'31" होता है। जबकि,
स्वाती नक्षत्र का भोग 20°50'57" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग 25°14'08" था; ऐसे ही सभी सत्ताइस नक्षत्रों के भोगांश असमान और अलग अलग थे। न कि, वर्तमान में प्रचलित 13°20'।"
पहले अभिजीत नक्षत्र सहित अट्ठाइस नक्षत्र मान्य थे लेकिन अभिजीत नक्षत्र क्रान्ति वृत के आसपास उत्तर दक्षिण में नौ-नौ अंशों की नक्षत्र पट्टी से दूर हो जाने के कारण अभिजीत नक्षत्र की मान्यता समाप्त करना पड़ी। और अब असमान भोगांश वाले केवल सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। लेकिन आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में अठासी तारामण्डल (कांस्टिलेशन Constilation) माने जाते हैं। और तेरह आर्याएँ (साइन Sign) माने जाते हैं। जबकि पूर्व में बेबीलोन की तरह बारह राशियाँ (साइन Sign) मानी जाती थी।
वर्तमान भारतीय पञ्चाङ्गों में 13°20' के सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। एक चन्द्र नक्षत्र औसत 24 घण्टे 17 मिनट 09.317 सेकण्ड का होता है।
नक्षत्र निम्नानुसार हैं।---
000° से 13°20' तक अश्विनी नक्षत्र। या
00-00°00' से 00-13°20' तक अश्विनी नक्षत्र।
13°20' से 26°40' तक भरणी नक्षत्र। या
00-13°20' से 00-26°40' तक भरणी नक्षत्र।
26°40' से 40°00' तक कृतिका नक्षत्र। या
00-26°40' से 01-10°00' तक कृतिका नक्षत्र।
40°00' से 53°20' तक रोहिणी नक्षत्र। या
01-10°00' से 01-23°20' तक रोहिणी नक्षत्र।
53°20' से 66°40' तक मृगशीर्ष नक्षत्र। या
01-23°20' से 02-06°40' तक मृगशीर्ष नक्षत्र।
66°40' से 80°00' तक आर्द्रा नक्षत्र। या
02-06°40' से 02-20°00' तक आर्द्रा नक्षत्र।
80°00' से 93°20' तक पुनर्वसु नक्षत्र। या
02-20°00' से 03-03°20' तक पुनर्वसु नक्षत्र।
93°20' से 106°40' तक पुष्य नक्षत्र। या
03-03°20'' से 03-16°40' तक पुष्य नक्षत्र।
106°40' से 120°00' तक आश्लेषा नक्षत्र। या
03-16°40' से 04-00°00' तक आश्लेषा नक्षत्र।
120°00' से 133°20' तक मघा नक्षत्र। या
04-00°00' से 04-13°20' तक मघा नक्षत्र।
133°20' से 146°40' तक पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र। या
04-13°20' से 04-26°40' तक पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र।
146°40' से 160°00' तक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। या
04-26°40' से 05-10°00' तक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र।
160°00' से 173°20' तक हस्त नक्षत्र। या
05-10°00' से 05-23°20' तक हस्त नक्षत्र।
173°20' से 186°40' तक चित्रा नक्षत्र। या
05-23°20' से 06-06°40' तक चित्रा नक्षत्र।
186°40' से 200°00' तक स्वाति नक्षत्र। या
06-06°40' से 06-20°00' तक स्वाति नक्षत्र।
200°00' से 213°20' तक विशाखा नक्षत्र। या
06-20°00' से 07-03°20' तक विशाखा नक्षत्र।
213°20' से 226°40' तक अनुराधा नक्षत्र। या
07-03°20' से 07-16°40' तक अनुराधा नक्षत्र।
226°40' से 240°00' तक ज्येष्ठा नक्षत्र। या
07-16°40' से 08-00°00' तक ज्येष्ठा नक्षत्र।
240°00' से 253°20' तक मूल नक्षत्र। या
08-00°00' से 08-13°20' तक मूल नक्षत्र।
253°20' से 266°40' तक पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र। या
08-13°20' से 08-26°40' तक पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र।
266°40' से 280°00' तक उत्तराषाढा नक्षत्र। या
08-26°40' से 09-10°00' तक उत्तराषाढा नक्षत्र।
280°00' से 293°20' तक श्रवण नक्षत्र। या
09-10°00' से 09-23°20' तक श्रवण नक्षत्र।
293°20' से 306°40' तक धनिष्ठा नक्षत्र। या
09-23°20' से 10-06°40' तक धनिष्ठा नक्षत्र।
306°40' से 320°00' तक शतभिषा नक्षत्र। या
10-06°40' से 10-20°00' तक शतभिषा नक्षत्र।
320°00' से 333°20' तक पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र। या
10-20°00' से 11-03°20' तक पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र।
333°20' से 346°40' तक उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र। या
11-03°20' से 11-16°40' तक उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र।
346°40' से 360°00' तक या000°00' तक रेवती नक्षत्र। या
11-16°40' से 12-00°00' तक या 00-00°00' तक रेवती नक्षत्र।
इसी प्रकार वर्तमान भारतीय पञ्चाङ्गों में तीस तीस अंशों की बारह राशियाँ मानी गई है।
बारह राशियाँ निम्नलिखित हैं।---
00° से 30° तक मेष राशि।
30° से 60° तक वृष राशि।
60° से 90° तक मिथुन राशि।
90° से 120° तक कर्क राशि।
120° से 150° तक सिंह राशि।
150° से 180° तक कन्या राशि।
180° से 210° तक तुला राशि।
210° से 240° तक वृश्चिक राशि।
240° से 270° तक धनु राशि।
270° से 300° तक मकर राशि।
300° से 330° तक कुम्भ राशि।
330° से 360° तक (या 000° तक) मीन राशि।
जब सूर्य उक्त राशियों में रहता है, उसे निरयन सौर मास कहते हैं।
वर्तमान में सूर्य का मन्दोच्च निरयन 2-19°08'37" पर है। अर्थात चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से 79° 08' 37" पर है। इस कारण तीसरा महिना अर्थात मिथुन मास सबसे बड़ा होता है और धनुर्मास सबसे छोटा होता है।
करण का अर्थ।
तिथि के अर्धभाग को करण कहते हैं। करण निम्नानुसार होते हैं।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में शकुनि करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या पूर्वार्ध में चतुष्पाद करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या उत्तरार्ध में नाग करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में किंस्तुघ्न करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष द्वितीया पूर्वार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष द्वितीया उत्तरार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष तृतीया पूर्वार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष तृतीया उत्तरार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्थी पूर्वार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्थी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष पञ्चमी पूर्वार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष पञ्चमी उत्तरार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष षष्ठी पूर्वार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष षष्ठी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष सप्तमी पूर्वार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष सप्तमी उत्तरार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष अष्टमी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष अष्टमी उत्तरार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष नवमी पूर्वार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष नवमी उत्तरार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष दशमी पूर्वार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष दशमी उत्तरार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष एकादशी पूर्वार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष एकादशी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
शुक्ल पक्ष द्वादशी पूर्वार्ध में बव करण।
शुक्ल पक्ष द्वादशी उत्तरार्ध में बालव करण।
शुक्ल पक्ष त्रयोदशी पूर्वार्ध में कौलव करण।
शुक्ल पक्ष त्रयोदशी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में गर करण।
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में वणिज करण।
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा उत्तरार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष द्वितीया पूर्वार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष द्वितीया उत्तरार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष तृतीया पूर्वार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष तृतीया उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्थी पूर्वार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्थी उत्तरार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष पञ्चमी पूर्वार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष पञ्चमी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष षष्ठी पूर्वार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष षष्ठी उत्तरार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष सप्तमी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष सप्तमी उत्तरार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष अष्टमी पूर्वार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष अष्टमी उत्तरार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष नवमी पूर्वार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष नवमी उत्तरार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष दशमी पूर्वार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष दशमी उत्तरार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष एकादशी पूर्वार्ध में बव करण।
कृष्ण पक्ष एकादशी उत्तरार्ध में बालव करण।
कृष्ण पक्ष द्वादशी पूर्वार्ध में कौलव करण।
कृष्ण पक्ष द्वादशी उत्तरार्ध में तैतिल करण।
कृष्ण पक्ष त्रयोदशी पूर्वार्ध में गर करण।
कृष्ण पक्ष त्रयोदशी उत्तरार्ध में वणिज करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी पूर्वार्ध में विष्टि (भद्रा) करण।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी उत्तरार्ध में शकुनि करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या पूर्वार्ध में चतुष्पाद करण।
कृष्ण पक्ष अमावस्या उत्तरार्ध में नाग करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा पूर्वार्ध में किंस्तुघ्न करण।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा उत्तरार्ध में बव करण।
तिथियों का अर्थ।
तिथि
प्रत्येक तिथि औसत 23 घण्टे 37 मिनट 28.09 सेकण्ड की होती है जो कम से कम 19 घण्टे 59 मिनट से लेकर अधिकतम 26 घण्टे 47 मिनट तक की हो सकती है । अर्थात सप्त वृद्धि दश क्षय का सिद्धान्त ही सही है (अर्थात कोई भी तिथि सात घड़ी तक बढ़ सकती है और दस घड़ी तक घट सकती है यह सिद्धान्त ही सही है), न कि, बाण वृद्धि रस क्षय (पाँच घटि वृद्धि और छः घटि क्षय होने) का सिद्धान्त। उल्लेखनीय है कि किसी भी पञ्चाङ्ग शोधन समिति में कोई भी विद्वान बाण वृद्धि रस क्षय का का प्रमाण नही दे पाया। फिर भी इसी को आधार बनाकर उज्जैन के महाकाल पञ्चाङ्ग और जबलपुरी लालाओं के केलेण्डर पञ्चाङ्ग धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
एक तिथि मतलब सूर्य और चन्द्रमा में 12° का अन्तर। तदनुसार
कृष्ण पक्ष की अमावस्या का अर्थ है सूर्य से 348 से 360° (या 000°) तक चन्द्रमा आगे होना।ऐसे ही
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का अर्थ है; सूर्य से चन्द्रमा 00°00' से 12°00' का आगे होना।
शुक्ल पक्ष की द्वितीया का अर्थ है सूर्य से 12° से 24° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की तृतीया का अर्थ है सूर्य से 24° से 36° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का अर्थ है सूर्य से 36° से 48° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की पञ्चमी का अर्थ है सूर्य से 48° से 60° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की षष्ठी का अर्थ है सूर्य से 60° से 72° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की सप्तमी का अर्थ है सूर्य से 72° से 84° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की अष्टमी का अर्थ है सूर्य से 84° से 96° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की नवमी का अर्थ है सूर्य से 96° से 108° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की दशमी का अर्थ है सूर्य से 108° से 120° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की एकादशी का अर्थ है सूर्य से 120° से 132° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की द्वादशी का अर्थ है सूर्य से 132° से 144° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी का अर्थ है सूर्य से 144° से 156° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का अर्थ है सूर्य से 156° से 168° तक चन्द्रमा आगे होना।
शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का अर्थ है सूर्य से 168° से 180° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का अर्थ है सूर्य से 180° से 192° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की द्वितीया का अर्थ है सूर्य से 192° से 204° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की तृतीया का अर्थ है सूर्य से 204° से 216° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का अर्थ है सूर्य से 216° से 228° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की पञ्चमी का अर्थ है सूर्य से 228° से 240° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की षष्ठी का अर्थ है सूर्य से 240° से 252° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की सप्तमी का अर्थ है सूर्य से 252° से 264° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की अष्टमी का अर्थ है सूर्य से 264° से 276° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की नवमी का अर्थ है सूर्य से 276° से 288° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की दशमी का अर्थ है सूर्य से 288° से 300° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की एकादशी का अर्थ है सूर्य से 300° से 312° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की द्वादशी का अर्थ है सूर्य से 312° से 324° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी का अर्थ है सूर्य से 324° से 336° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का अर्थ है सूर्य से 336° से 348° तक चन्द्रमा आगे होना।
कृष्ण पक्ष की अमावस्या का अर्थ है सूर्य से 348 से 360° तक चन्द्रमा आगे होना।
यह अन्तर कलकत्ता, दिल्ली, या उज्जैन स्थित भारत शासन की वैधशाला में जाकर वैध लेकर देखे जा सकते हैं। इसलिए तिथि निर्धारण कोई विवाद का विषय नहीं है।
फिर भी भारत में भारत शासन की पञ्चाङ्गों, बङ्गाल शासन की पञ्चाङ्ग, उज्जैन वैधशाला की पञ्चाङ्ग, लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज के अलावा केतकी ज्योतिर्गणितम, केतकी ग्रह गणितम् और केतकी वैजयन्ती ग्रन्थों पर आधारित पञ्चाङ्गों में ही सही तिथियाँ मिलती है।
लेकिन लोग गलत पञ्चाङ्ग केलेण्डर खरीदकर अपने व्रत-पर्व-उत्सव और त्योहार गलत तिथियों में मनाते हैं, तो बढ़ा आश्चर्य मिश्रित दुःख होता है।
मंगलवार, 2 जनवरी 2024
अधिक मास, क्षय मास, सायन सौर,निरयन सौर चान्द्र वर्ष और मास तथा ग्रहण आवृत्ति।
*जिन दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या हो अथवा यह कहें कि, दो अमावस्या के बीच कोई संक्रान्ति नही पड़े तो वह चान्द्रमास अधिकमास कहलाता है।*
और *उसका अगला मास शुद्ध मास कहलाता है।*
इसके ठीक विपरीत क्षय मास होता है।
*जिन दो अमावस्या के बीच दो संक्रान्तियाँ हो अथवा यह कहें कि, दो संक्रान्तियों के बीच कोई अमावस्या नही पड़े तो वह चान्द्रमास क्षयमास कहलाता है।*
सभी जानते हैं कि,
सायन सौर मास ३०.४३६८४९१७ दिन का होता है। और
नाक्षत्रीय सौर मास (या निरयन सौर मास ) ३०.४३८०३०२५ दिन का होता है। जबकि,
औसत चान्द्रमास २९.५३०५८९ दिन का होता है।
अर्थात सौर मास चान्द्रमास से बड़ा होता है।
ऐसे ही औसत सायन सौर वर्ष ३६५.२४२१९ दिन का होता है। एवम्
नाक्षत्रीय सौर वर्ष (या निरयन सौर वर्ष) ३६५.२५६३६३ दिन का होता है। जबकि
औसत शुद्ध चान्द्र वर्ष ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। अर्थात शुद्ध चान्द्रवर्ष सौर वर्ष से लगभग ग्यारह दिन छोटा होता है। इसी कारण प्रत्येक तीसरे वर्ष २८ माह से ३२ माह १५ दिन के बाद एक चान्द्रमास अधिक होता है । परिणाम स्वरूप अधिक मास वाला औसत चान्द्रवर्ष ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है।फिर भी
क्रमशः १९ वर्ष में उसके बाद १२२ वर्ष में और उसके बाद १४१ वर्ष में क्षय मास होता है। इससे पुनः सौर वर्ष और चान्द्रवर्ष में एक रूपता बनी रहती है।
वर्तमान मन्दोच्च सायन १०३°१७'५६" पर है। अर्थात सायन कर्क १३°१७'५६" पर होने की स्थिति के कारण शचि मास सबसे बड़ा और सहस्य मास सबसे छोटा होता है।
ऐसे ही नाक्षत्रीय/ निरयन गणनानुसार मन्दोच्च निरयन ७९°०८'४९" पर अर्थात मिथुन १९°०८'४९" पर चल रहा है। इस कारण निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा और निरयन धनु मास सबसे छोटा होता है।
इस कारण वर्तमान में अधिकांशतः फाल्गुन और चैत्र से कार्तिक मास तक के माह ही अधिक होते हैं।
मार्गशीर्ष मास कभी कभार ही क्षय होता है।पौष और माघ मास कभी क्षय नही होता, शेष कोई भी मास क्षय होता है।
प्रत्येक क्षय मास के पहले वाला माह और क्षय मास के बाद वाला माह अधिक होता है। कभी कभी एक माह पहले या बाद में अधिक मास पड़ता है। इस प्रकार हर क्षय वर्ष में संवत्सर में तेरह महीने होते हैं। अर्थात क्षय मास वाला वर्ष भी अधिक मास वाले वर्ष के समान ही ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है।
*संसर्प मास एवं अहंस्पति मास ---*
*जिस वर्ष क्षय मास हो, उस वर्ष 2 अधिमास अवश्य होते हैं- प्रथम क्षय मास से पूर्व तथा द्वितीय क्षय मासोपरांत। क्षय मास के पूर्व आने वाले अधिक मास को संसर्प मास कहते हैं। संसर्प मास में मुंडन, व्रतबंध (जनेऊ), विवाह, अग्न्याधान, यज्ञोत्सव एवं राज्याभिषेकादि वर्जित हैं। अन्य पूजा आदि कार्यों के लिए यह स्वीकार्य है। क्षय मास के अनंतर पड़ने वाले अधिक मास को अहंस्पति मास कहते हैं।"*
*क्षय मास के पहले वाला संसर्प मास को भी पूजा-पाठ आदि में शुद्ध मास जैसा ही मानते हैं। जैसे
*शकाब्द १९०४ ( अर्थात १९८२ ईस्वी) में १७ सितम्बर १९८२ शुक्रवार को १७:३९ बजे (अपराह्न ०५:३९ बजे) से १६ उपरान्त १७ अक्टूबर १९८२ शनिवार (Sunday) को पूर्वाह्न ०५:३४ बजे उत्तररात्रि तक अधिक (आश्विन) मास संसर्प मास माना गया। जिसकी नवरात्र और दीपावली आदि की पूजा मान्य रही।*
फिर १६ उपरान्त १७ अक्टूबर १९८२ शनिवार (Sunday) को पूर्वाह्न ०५:३४ बजे उत्तररात्रि से १५ नवम्बर १९८२ सोमवार को २०:४० बजे (अपराह्न ०८:४० रात्रि) तक शुद्ध आश्विन मास रहा।
*१४ जनवरी १९८३ शुक्रवार को पूर्वाह्न १०:३८ से १२ उपरान्त १३ फरवरी १९८३ शनिवार (Sunday) को पूर्वाह्न ०६:०२ बजे तक पौष मास क्षयमास था। इसे ही माघ मास माना गया।*
*फिर १३ फ़रवरी १९८३ शनिवार (Sunday) को पूर्वाह्न ०६:०२ से १४ मार्च १९८३ सोमवार को २३:१३ बजे (अपराह्न ११:१३ बजे रात्रि) तक अधिक फाल्गुन मास अहंस्पति मास माना गया।* फिर
१४ मार्च १९८३ सोमवार को २३:१३ बजे (अपराह्न ११:१३ बजे रात्रि) से १३ अप्रेल १९८३ बुधवार को १३:२८ बजे तक (अपराह्न ०१:२८ दोपहर) तक शुद्ध फाल्गुन मास रहा।*
*शकाब्द १८८५ ( अर्थात १९६३ ई.) में १४१ वर्ष बाद वाला क्षय मास पड़ा था। फिर शकाब्द १९०४ (अर्थात १९८३ ईस्वी) में १९ वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। अब शके २०२६ में अर्थात २१०४ ईस्वी में १२२ वर्ष वाला क्षय मास पड़ेगा।*
सोमवार, 1 जनवरी 2024
वसन्त सम्पात से कलियुग संवत प्रारम्भ और वैशाखी से युधिष्ठिर संवत तथा विक्रम संवत तथा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्द प्रारम्भ में अन्तर।
लगभग सभी पञ्चाङ्गकारों में सर्वसम्मति है कि, वसन्त सम्पात (सायन मेष संक्रान्ति 20 मार्च), उत्तर परम क्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति 23 जून), शरद सम्पात (सायन तुला संक्रान्ति 23 सितम्बर) और दक्षिण परम क्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर) के आधार पर ही संवत्सर प्रारम्भ, अयन प्रारम्भ और ऋतुओं का निर्धारण होता आया है।
जब भूमि से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर रहता है तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से वसन्त सम्पात 24°12'07" हो जाने के कारण सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) और निरयन मेष संक्रान्ति (13 अप्रेल) में लगभग 24 दिन का अन्तर हो गया है।
वर्तमान में अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या निरयन मीन संक्रान्ति से निरयन मेष संक्रान्ति (14 मार्च से 14 अप्रैल) के बीच पड़ती है।
शक संवत प्रारम्भ अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का प्रारम्भ; अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या की समाप्ति से होता है।
इस कारण चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) निरयन मीन संक्रान्ति से निरयन मेष संक्रान्ति (14 मार्च से 14 अप्रैल) के बीच कभी भी होती रहती है।
अर्थात, गुड़ी पड़वा वसन्त सम्पात के 07 दिन पहले से लेकर वसन्त सम्पात के 24 दिन बाद तक आगे पीछे होती रहती है, इसलिए चान्द्र-सौर शकाब्द के चैत्र-वैशाख आदि मास ऋतु बद्ध नही है।
ईसापूर्व 4012 में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन कुम्भ संक्रान्ति साथ साथ (21 जनवरी को) शिशिर ऋतु में होती थी; तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) शिशिर ऋतु में पड़ती थी। तथा
ईसा पूर्व 1864 में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति साथ साथ (19 फरवरी) को होती थी। तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) पौराणिक वसन्त ऋतु के प्रारम्भ में पड़ती थी।
22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात, निरयन मेषादि बिन्दु पर होने से सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों साथ साथ हुई , अर्थात वसन्त ऋतु में तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) वसन्त ऋतु में पड़ी । तथा
2433 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन वृषभ संक्रान्ति साथ साथ (21 अप्रैल )को होगी अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) पौराणिक ग्रीष्म ऋतु में पड़ेगी । और
4582 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मिथुन संक्रान्ति साथ साथ (22 मई को) होगी तब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) ग्रीष्म ऋतु में पड़ेगी।
इसी बात को प्रकारान्तर से समझते हैं ---
जब सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होता है तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन संक्रान्ति क्या थी और क्या होगी?---
ईसापूर्व 4012 मे निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन मिथुन संक्रान्ति हुई थी। तब निरयन मेष संक्रान्ति २२ मई को पड़ी थी।
ईसापूर्व 1864 मे निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन वृषभ संक्रान्ति हुई थी। तब निरयन मेष संक्रान्ति २1 अप्रेल को पड़ती थी।
22 मार्च 285 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मेष संक्रान्ति साथ साथ हुई थी। तब निरयन और सायन दोनों मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ी थी।
आगामी सन 2433 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन मीन संक्रान्ति होगी। तब निरयन मेष संक्रान्ति 18/19 फरवरी को होगी।
आगामी सन 4585 ईस्वी में निरयन मेष संक्रान्ति के समय सायन कुम्भ संक्रान्ति होगी। तब निरयन मेष संक्रान्ति 21 जनवरी को होगी।
22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात, निरयन मेषादि बिन्दु पर होने से सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों साथ साथ हुई थी तब से आज तो मात्र 24 दिन का ही अन्तर होने से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) वसन्त ऋतु में ही आ रही है।
अतः यह कथन गलत है कि, चैत्रशुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) हमेशा वसन्त ऋतु में ही आती है।
जबकि वैदिक युगाब्ध (कलियुग संवत) का प्रारम्भ हमेशा वसन्त सम्पात से (सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च) को वसन्त ऋतु में ही होता है; क्योंकि यजुर्वेदोक्त मधु-माधवादि सायन सौर मास ऋतुओं के आधार हैं।
मधु-माधव की वसन्त, शुक्र-शचि की ग्रीष्म, नभः - नभस्य की वर्षा, ईष-उर्ज की शरद, सहस- सहस्य की हेमन्त और तपः - तपस्य की शिशिर ऋतु निश्चित/ नियत है।
राष्ट्रीय शक पञ्चाङ्ग केलेण्डर में इन्ही माहों के चैत्र -वैशाखादि नाम किये गए हैं, जिससे चान्द्र-सौर चैत्रादि मास में और राष्ट्रीय केलेण्डर के चैत्र-वैशाख आदि मासों मे भ्रम होता है। ऐसे ही राष्ट्रीय शक केलेण्डर के चैत्रादि मासों मे तथा पञ्जाबी निरयन सौर वैशाख आदि मासों में भी भ्रम पैदा होता है। राष्ट्रीय केलेण्डर में माहों प्रारम्भ दिनांक और माह की अवधि में भी एक-दो दिन की गलती है। लेकिन फिर भी राष्ट्रीय शक केलेण्डर का प्रारम्भ वसन्त ऋतु में ही होता है; इसलिए चैत्र-वैशाख मास वाले चान्द्र-सौर शकाब्द पञ्चाङ्ग से राष्ट्रीय शक केलेण्डर लाख गुणा अच्छा है।
न वैशाखी (14 अप्रैल) को न चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) को बल्कि वसन्त सम्पात, सायन मेष संक्रान्ति पर (21 मार्च को) ही निम्नलिखित घटनाएँ होती है; ---
उत्तरायण, उत्तर गोल, वसन्त ऋतु, मधुमास, दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय ठीक पूर्व दिशा में होता है। सूर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय, दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। उत्तर गोलार्ध में दिनमान बढ़ जाता है रात्रि मान कम हो जाता है; दक्षिणी गोलार्ध में रात्रि मान बढ़ जाता है दिनमान कम हो जाता है।
भूमध्य रेखा पर मध्याह्न में छाया लोप हो जाता है। क्योंकि उस समय वहाँ सूर्य ठीक सिर पर होता है। ऐसा न निरयन मेष संक्रान्ति के दिन होता है न चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को।
विशेष सुचना ---
वर्तमान मन्दोच्च (भूमि से सूर्य की सर्वाधिक दूरी) सायन १०३°१७'५६" पर है। अर्थात सायन कर्क १३°१७'५६" पर होने की स्थिति के कारण शचि मास सबसे बड़ा और सहस्य मास सबसे छोटा होता है।
ऐसे ही निरयन सौर गणनानुसार मन्दोच्च निरयन ७९°०८'४९" पर अर्थात मिथुन १९°०८'४९" पर चल रहा है। इस कारण निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा और निरयन धनु मास सबसे छोटा होता है। क्योंकि जब सूर्य से भूमि की दूरी सर्वाधिक होती है तब भूमि की अंशात्मक कोणीय गति कम हो जाती है। इस कारण 30 अंश पार करने में समय अधिक लगता है।
निरयन सौर युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत के विषय में विशेष जानकारी। ---
वैशाखी / निरयन मेष संक्रान्ति (14 अप्रैल) से प्रारम्भ होने वाले निरयन सौर वर्ष प्रत्येक 72 वर्ष में एक दिनांक बाद में प्रारम्भ होता है।
2149 वर्ष में एक माह (30°) तथा 4297 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है।
25780 निरयन सौर वर्ष में 25781 सायन सौर वर्ष हो जाते हैं। अर्थात पूरे एक वर्ष का अन्तर हो जाता है।
अतः निरयन सौर संवत के मेष वृषभादि मास ऋतु आधारित नहीं है। इन्हीं मासों को पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में निरयन सौर वैशाख आदि मास कहते हैं।
इसी निरयन सौर संवत और मासों पर आधारित चान्द्र-सौर शकाब्द और चैत्र वैशाख आदि चान्द्रमास भी ऋतु आधारित नहीं है, क्योंकि
औसत सायन सौर वर्ष ३६५.२४२१९ दिन का होता है। एवम्
नाक्षत्रीय सौर वर्ष (या निरयन सौर वर्ष) ३६५.२५६३६३ दिन का होता है।
जबकि औसत शुद्ध चान्द्र वर्ष ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। अर्थात सौर वर्ष मसे चान्द्रवर्ष 11दिन छोटा होता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले चान्द्र-सौर शकाब्द के बारे में विशेष जानकारी ---
औसत शुद्ध चान्द्र वर्ष ३५४.३६७०६८ दिन का होता है।
अर्थात शुद्ध चान्द्रवर्ष सौर वर्ष से लगभग ग्यारह दिन छोटा होता है। इसी कारण प्रत्येक तीसरे वर्ष २८ माह से ३२ माह १५ दिन के बाद एक चान्द्रमास अधिक होता है । परिणाम स्वरूप अधिक मास वाला औसत चान्द्रवर्ष ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है। फिर भी
क्रमशः १९ वर्ष में उसके बाद १२२ वर्ष में और उसके बाद १४१ वर्ष में क्षय मास होता है। इससे पुनः सौर वर्ष और चान्द्रवर्ष में एक रूपता बनी रहती है।
निरयन सौर गणनानुसार मन्दोच्च निरयन ७९°०८'४९" पर अर्थात मिथुन १९°०८'४९" पर चल रहा है। इस कारण निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा और निरयन धनु मास सबसे छोटा होता है।
इस कारण वर्तमान में अधिकांशतः फाल्गुन और चैत्र से कार्तिक मास तक के माह ही अधिक होते हैं।
मार्गशीर्ष मास कभी कभार ही क्षय होता है। पौष और माघ मास कभी क्षय नही होता, शेष कोई भी मास क्षय होता है।
प्रत्येक क्षय मास के पहले वाला माह और क्षय मास के बाद वाला माह अधिक होता है। कभी कभी एक माह पहले या बाद में अधिक मास पड़ता है। इस प्रकार हर क्षय वर्ष में संवत्सर में तेरह महीने होते हैं। अर्थात क्षय मास वाला वर्ष भी अधिक मास वाले वर्ष के समान ही ३८३. ८९७६५७ दिन का होता है।
*संसर्प मास एवं अहंस्पति मास ---*
*जिस वर्ष क्षय मास हो, उस वर्ष 2 अधिमास अवश्य होते हैं- क्षय मास के पूर्व आने वाले अधिक मास को संसर्प मास कहते हैं। संसर्प मास में मुंडन, व्रतबंध (जनेऊ), विवाह, अग्न्याधान, यज्ञोत्सव एवं राज्याभिषेकादि वर्जित हैं। अन्य पूजा आदि कार्यों के लिए यह स्वीकार्य है। क्षय मास के अनन्तर पड़ने वाले अधिक मास को अहंस्पति मास कहते हैं।"*
इस प्रकार चान्द्र-सौर वर्ष कोभी निरयन सौर संवत के साथ-साथ कर लिया जाता है। लेकिन सायन सौर मास से तारतम्य नहीं बिठाया जाता।
जिन दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या हो तो अधिक मास होता है। अथवा यह कहें कि, दो अमावस्या के बीच कोई संक्रान्ति नही पड़े तो वह चान्द्रमास अधिकमास कहलाता है। और
जब दो अमावस्या के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो क्षय मास होता है। या यों कहें कि, जब दो संक्रान्ति के बीच कोई अमावस्या न पड़े तो क्षयमास होता है।
ऐसा ही सायन सौर संक्रान्तियों के साथ चान्द्रमासों को जोड़कर सायन सौर संस्कृत चान्द्र-सौर संवत की पञ्चाङ्ग भी बनाया गया है। जो अभी लोगों को अल्पज्ञात है। वर्तमान में ऐसा एकमात्र पञ्चाङ्ग श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् ग्रेटर नोएडा से निकलता है।
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