शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आत्मा का अज, अनादि, अजर, अमर, अनन्त होते हुए मानव जनसंख्या वृद्धि क्यों और कैसे?

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से  -- 
वास्तविक तर्क --
1 -- मूलतः आत्मा अर्थात वास्विकता मैं, और परमात्मा अर्थात परम मैं एक ही तत्व है।अतः यह अनेक नही अपितु एक ही है। 
वास्तविक तथ्य तो यही है कि, आत्म तत्व में अनेकत्व है ही नही।
जड़- चेतन सभी उसी आत्म तत्व के ही सःवरूप मात्र हैं ।

ख -- धार्मिक आधार से तर्क  --

1 -- यदि मान लिया जाये कि, सृष्टि में जीवों की संख्या बराबर ही रहती हो तोऐसा भी तो हो सकता है कि, स्वर्गादि उर्ध्व लोकों के जीव मानव योनि में जन्म लेरहे हों और अन्धलोकों/ अधोलोकों के जीव भी कर्मफल भोगकर मानव योनि में जन्म लेनें के कारण मानव जनसंख्या बड़ रही हो। और अधिकांश मानव दुराचारी, पापी होनें के कारण बेक्टीरिया, वायरस आदि अनेकरूद्र के रूप में जन्मलेकर रोगादि फैलाकर संहार कर रहे हैं।

2 -- जन्तुओं , वनस्पतियों और पाषाणादि जड़ पदार्थों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गयी।  सम्भवतया वे अधिकांश पुण्यात्मा हो और उन्हे मानव योनि में जन्म मिला हो इसकारण उन प्रजातियों के जन्तु वनस्पतियों की संख्या कम हो गई और मानवीय जनसंख्या बड़ गई हो।

वास्तविक तर्क --
अर्थात -- कोई कम हो रहा है कोई बढ़ रहा है। कुल मिलाकर  जीवों की संखा वही रहती हो।

ग -- आधिदैविक  दृष्टिकोण से 

1 -- जैसे एक सिद्ध व्यक्ति एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होजाते हैं। अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न कर्म करते देखे जाते हैं।
2 -- जैसे ईश्वर कई स्थानों पर कई स्वरूपों में प्रकट हुए दिखते हैं ,व्यवहार करते हुए दिखते हैं।
 तो क्या वह आत्मा कई टुकड़ों में बँट गई? और फिर एक हो गई। यह कल्पना ही परम मुर्खतापूर्ण लगती है।

घ --भौतिकवादी दृष्टिकोण से --
 

1 --जैसे आकाश के  दिगंश या राशि नक्षत्र के रुप में काल्पनिक विभाग किये गये, जैसे भूमि पर अक्षांश देशान्तर रेखाओं की कल्पना की गयी,
2 -- जैसे एक ही सागर को छः महासागर, कई सागरों, और खाड़ियों में काल्पनिक रुप से विभाजित किया गया। 
3 -- जैसे भूमि को महाद्वीपों में माना गया।

वास्तविक  तर्क --
वैसे ही विभाग रहित एक आत्मा को अनेकों प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) और जीवात्माओं और भूतात्माओं आदि के स्वरूपों में विभाग माने जाते है।

रविवार, 13 दिसंबर 2020

सबका वास्तविक स्वरूप परम आत्म परमात्मा, सर्वाधिक प्रिय है; रौद्ररूप भयंकर नही।

*परमात्मा वास्तविक मैं, परम मैं, मेरा वास्तविक स्वरूप है। ईश्वर परमप्रिय है। भगवान प्रेमपात्र हैं रौद्र या भयंकर नही। मृत्यु नियत है, अवश्यम्भावी है, न एक पल पहले आयेगी न एक पल बाद होगी अतः मृत्यु अविचारणीय सत्य है।* 

*इष्ट का मतलब जिसकी इच्छा हो* / जैसे इष्ट मित्र, यथेष्ठ अर्थात जैसी इच्छा हो शब्दोंं मे स्पष्ट है।
 *सनातन धर्मियों के इष्ट भगवान होते है। सर्वाधिक प्रिय वह ईश्वर ही है। परम आत्म मतलब परम मैं अर्थात मेरा वास्तविक स्वरूप , वास्तविक मैं परमात्मा है ।* 
वे *सनातन धर्मी पापकर्म करने से डरते हैं। दुराचार करनें से डरते हैं। अनाचार अनीति पूर्ण कर्म से डरते हैं।पापियों, दुरात्माओं, दुष्टों, अनाचारियों, दुराचारियों के सङ्ग से दूर रहता है।* 
 *सनातन धर्मी मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अमर होनें की चाह नही रखते।* इच्छा मृत्यु प्राप्त व्यक्ति भी अपनी मृत्यु का उपाय विपक्षी को स्वयम् बतलाता है। अर्थात सनातन धर्मी --
 *ईश्वर से/ भगवान से प्रेम करता है। अपना वास्तविक सत्य परमात्मा है यह जानता है। अवश्यम्भावी मृत्यु से भी नही डरता।* 
 *असुर लोग अनाचार दुराचार, पापाचार में सदैव सलग्न रहते हैं इसलिये असुर, दैत्य, दानव  ईश्वर से डरते हैं, भगवान से डरते हैं मृत्यु से डरते हैं।*
 सदाचारी सनातन धर्मी भगवान से प्रेम करते हैं। मित्रभाव से तो ठीक भगवान को पुत्र मानकर भी लाड़ प्यार करते हैं। नृसिंह मेहता और सुरदास तो भगवान से रुठ जाते थे और भगवान उन्हे मनाते थे। मीराबाई ने पति मानकर उपासना की तो अर्जुन ने मित्र मानकर द्रोपदी ने बन्धु और सखा भावसे उपासना की। ये लोग भगवान से क्यों डरनें वाले।
असुर,दैत्य दानव आज भी ही ईश्वर और मौत से डरते हैं। आज भी वे ही उपदेश देते हैं कि, ईश्वर से डरो, मौत से डरो । 
वेद कहते हैं ईश्वर सर्वाधिक प्रिय है ईश्वर से स्वाभाविक प्रेम होता है भय नही। मृत्यु समय पूर्व होना नही और समय होनें पर रुकना नही तो मृत्यु अविचारणीय सत्य है। हमें केवल अपने कर्तव्य पालन के प्रति सजग रहना है। वर्णाश्रम अनुकूल  स्वधर्म पालन में तत्पर रहना चाहिए न कि, भयभीत। डराहुआ व्यक्ति सदैव गलती ही करता है।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।

सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।

केवल होली दिवाली जैसी इष्टियाँ, कोजागरी - शरदपुर्णिमा जैसे कुछ विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को छोड़ शेष सभी वृत पर्वोत्सव सायन सौर संक्रान्तियों, और उनके गतांश के अनुसार ही मनाये जावें।
 
 इष्टियों और अष्टका-एकाष्टका वेदिक पर्व है।अतः इन विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि (अर्ध चन्द्रमा) पर ही किया जाता था अतः इन्हें दर्शाया जा सकता है।
कृष्णपक्ष की तिथियों को 16, 17, 18 से 30 तक गिनती मानकर जो व्रत पर्वोत्स्व जिस तिथि को मनाया जाता है उसी गतांश पर मनाया जाये। नागपञ्चमी जैसे कुछ व्रत पर्वोत्सवों में राजस्थान और शेष भारत में एक चान्द्र पक्ष अर्थात लगभग 15 दिन का अन्तर पड़ता है उनका निबटारा भी शास्त्रज्ञानियों की बैठक करवा कर करना होगा।

खालसा पन्थ के मनिषियों को भी समझाया जावे । वे भी यदि सायन सौर संक्रान्तियों से अपने व्रत पर्वोत्स्व जोड़ना उचित समझे तो अत्युत्तम होगा।

ऐसे ही जैन और बौद्ध सम्प्रदायों के आचार्यों, और उपाध्यायों को भी समझाया जावे। जैनों से तो आशा की जा सकती है। 

पारसियों और ईसाइयों के कुछ व्रतपर्वोत्सव तो पहले से सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित है ही।

यदि इसाई क्रिसमस सायन मकर संक्रान्ति (22/23 दिसम्बर) को और नव वर्ष आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च) के सुर्योदय से आरम्भ करना स्वीकार करले तो अत्युत्तम।
  
भारत में यहूदी तो नगण्य ही शेष हैं। 

यहूदियों की परम्परा पर चलनें वाले इस्लाम के कट्टर पन्थियों से कोई आशा नही है। 
विशेषकर भारतीय मुस्लिमों के लिये प्राकृतिक और वैज्ञानिक तथ्यों का कोई मुल्य नही है केवल परम्पराओं के प्रति आस्था ही सबकुछ है। अतः उन्हें उनके हाल पर ही छोड़देना उचित होगा। यदि वे स्वतः समझदारी दिखाये तो उनका स्वागत किया जाये।

शनिवार, 28 नवंबर 2020

अवसाद चिकित्सा

बच्चे के जन्म के बाद प्रायः हर माँ को डिप्रेशन होता है। पढ़ाई पूर्ण होनें पर हर विद्यार्थी को अवसाद होता है। व्यवसाय में नौकरी में उतार चड़ाव पर हर व्यक्ति को अवसाद होता है। यह जीवन के व्यस्थापन की मूलभूत प्रणाली है इसे बदला नही जा सकता। तो फिर इसकी चिन्ता क्यों पाली जाये।
जो सम्पूर्ण जगत का सञ्चालन कर रहा है वही इसकी भी व्यवस्था करेगा। आपसे यदि कोई गलती हो भी गई हो तो उस व्यवस्थाप के सामने अपना दोष स्वीकार कर व्यवस्था उसपर छोड़दो। यह हमारा कार्य नही है। वही निबटेगा। हम क्यों सोचे।
किसी नें हमारे साथ अनुचित किया है तो यह जान समझ लो कि, इसकी सुचना भी व्यवस्थापक को है और उसकी स्व नियन्त्रित प्रणाली (ऑटोमेटिव सिस्टम) में इसकी व्यवस्था भी हो चुकी है। (प्रोसेस हो चुकी है।) पर हर रिपोर्ट आपके ध्यान में लाई जाये यह आवश्यक नही है। आपकी क्षमता जितना झेल सकती है और जिस पर आपको कुछ करना आवश्यक हो उतनी ही जानकारी आप तक पहूँचाई जाती है। पुरी जगत की जानकारी आप झेल नही सकते। अतः उसे व्यवस्थाप पर ही छोड़ो।
इसकी चिकित्सा उच्च स्वर में भजन करना है न कि, उसी बात को बार बार सोचना।
भजन में आनन्द तो है ही सर्वकष्ट निवारण शक्ति भी होती है।
प्रत्यैक व्यक्ति के जीवन में उतार चड़ाव आते हैं। यदि श्री राम और श्री कृष्ण के जीवन का अध्ययन करें तो सर्वाधिक कष्ट उनके जीवन में आये। लेकिन उनने उनका निवारण किया चिन्तन नही।
आशा और विश्वास के योग्य केवल परमात्मा, ॐ, विष्णु ही है।अपनें आत्म स्वरूप का ध्यान, (परम आत्म यानी वास्तविक मैं का सदैव स्मरण रखना) परमात्मा का स्मरण - ध्यान ही है। 
सम्पुर्ण जगत में परमात्मा को ही देखना, परमात्मा के अलावा कुछ है ही नही यह ध्यान रखते हुए जगत से व्यवहार करना विश्वात्मा ॐ का ध्यान है।
सबकुछ परम आत्म परमात्मा ही है। वही जगत है वही मैं हूँ, परम आत्म (वास्तविक मैं) ही सबकुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ हो ही नही सकता तो कौन मैं कौन तु, क्या मेरा,क्या तेरा सबकुछ तो मैं ही हूँ।
सोते समय और जागनें के बाद और बिस्तर छोड़नें/ उठने के पहले यह ध्यान करना। 
यही विष्णु का ध्यान है।
यही वास्तविक आराधना उपासना है। और जगत से व्यवहार के समय भी यही तथ्य याद रखते हुए ही व्यवहार करना है।
सदैव परमात्मा (आत्म स्वरूप/परम आत्म / परम मैं) का ध्यान रखना और हर समय जगत की सेवा में तत्पर रहना यही जीवन है।
यह समझ लेना ही वास्तविक जाग्रति। वास्तविक जागरण है।
जगत में न कोई भलाई है न कोई बुराई है। वह तो अपना दृष्टिकोण बदलने पर बदल जाता है। जगत वास्तवमें ऐसा नही है जैसा हम समझ रहे हैं। जिसे हम जगत / ब्रह्माण्ड कहते समझते हैं यह केवल हमारी सोच समझ में ही है। आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकारनें लगा है। अतः जगत चिन्तन त्याग कर आत्म चिन्तन करो।
दुसरों की भलाई-बुराई जो हम जान समझ रहे हैं यह यथार्थ से बहुत परे है।
जागो दुनिया वह नही है जो तुम देख समझ रहे हो। दुनिया को अपने आप में खोजो।जगत भी मैं ही हूँ यह ध्यान रखो। याद रखो आत्म से परे कुछ नही है।

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

दान देने के नियम।

दान देनें के नियम।

दान देनें के लिये सुयोग्य पात्र मिलनें पर दानगृहिता द्वारा दान गृहण करनें की स्वीकृति प्रदान करनें पर दानगृहिता का आभार मानना चाहिए
जिन्हे दान गृहण करनें हेतु निवेदन करने, निमन्त्रण देनें और आमन्त्रित करनें जा रहे हैं वे , या बलिवैश्वदेव कर्म के समय बिना बुलाये अचानक उपस्थित अतिथि और याचक जिसकी प्रार्थना या यााचना पर दान देनें जा रहे हैं इन तीनों की जाँच परख करना अत्यावश्क है।

दान देने के पूर्व यह निश्चित करलें कि, दान गृहिता निर्व्यसनी, अहिंसक, सत्यवादी, सदाचारी, निर्लोभ, अपरिग्रही (अकारण संग्रह न करने वाला न हो), ब्रह्म की ओर चलनेवाला ब्रह्मचारी, स्वच्छ, पवित्र, शुद्ध अन्तःकरण वाला, प्राप्ति में सन्तुष्ट, विद्यध्ययन , दान देनें, परमार्थ कर्म और सेवा करने यानी यज्ञ करने में, ईश्वर भक्ति करनें में सदा असन्तूष्ट हो। स्वधर्म पालन में आनेवाली बाधाओं का सक्षमता पुर्वक सामना कर निवारण करनें में होनें वाले कष्टों को सहर्ष सहन करनें वाला तपस्वी, सत्शास्त्राध्ययन, मनन, चिन्तन और अनुशिलन करनें वाला योगाभ्यासी, और परमात्मा में एकनिष्ठ समर्पित हो ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ दान देनें के लिए सुपात्र होता है।

1- दानगृहिता का आभार मानना चाहिए ।क्योंकि दानगृहिता नें  हमे इस योग्य माना कि, वे दान गृहण करें/ हमसे दान स्वीकार करलें। इस प्रकार उननें हमारा सम्मान किया है।

2 - नियमानुसार दानदाता को दानगृहिता के पास स्वयम् जाना चाहिए। यदि उन्हे घर बुलाकर दान देना चाहे तो उन्हें पहले सादर निमन्त्रित करें, फिर मार्गव्यय और उनके समय की क्षतिपूर्ति पहले ही करके आमन्त्रित करना चाहिए। दानगृहण करने पर आभार प्रदर्शन कर उनके द्वारा दान गृहण क्रिय और कर्म के लिये पारिश्रमिक स्वरूप योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

3 - यदि वे बिना बुलाये अतिथि स्वरूप उपस्थित होगये हों तो बिन्दु 2 में उल्लेखित भार अधिक मानकर सवाया दान दक्षिणा देना चाहिए।

4 - आमन्त्रित और अतिथि दोनों को घर के बाहर दस कदम छोड़नें जाना और चरण वन्दन और पुनः आभार प्रदर्शन कर बिदा करना चाहिए।
5 सन्तुष्ट होनें पर ही दान गृहिता आपको शुद्ध अन्तःकरण से शुभाशीष प्रदान करेंगे।

सज्जन और दुर्जन की परीक्षा का एक आसान उपाय श्लेष अलंकार में बतलाया गया है।
मंगत देखत देत पट। 
यहाँ पट शब्द के दो अर्थ हैं प्रथम (धारण किये हुए) वस्त्र और द्वितीय (घर के) द्वार
सज्जन वह जो याचक को देखकर अपने पहने हुए वस्त्र (पट) तक उतार कर दे दे। और
दुर्जन वह जो याचक / भिक्षुक को देखकर  घर के पट (द्वार) बन्द करदे।

तुलसीदास जी और रहीम का निम्नांकित संवाद स्मरणीय है।⤵️

ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
  ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
                          #तुलसीदास

 देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
 लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
                              #रहीम

अर्थ
हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं। देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए। लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है। मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगने वाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो।

पहले भगवान/ ईश्वर हमें धन,धान्य, सम्पदा, सामर्थ्य और सहृदयता का भाव देता है, तभी तो हम किसी को कुछ दे पाते हैं, किसी की कुछ सहायता कर पाते हैं। तो इसमें हमारा महत्व कुछ भी नही है। यह तो ईश्वरीय कृपा है जो उसनें हमें माध्यम बनाया।
अतः देनें वाला /कर्ता यह भ्रम कभी न पाले कि, मैं दे रहा हूँ या मैं मैं कर रहा हूँ।

दान, दक्षिणा, सहायता और भिक्षा में अन्तर।
ये सभी कर्तव्य है।

१ आय का १०% दान और उसपर दान ग्रहिता द्वारा दान प्राप्त करने हेतु किये गए श्रम के लिए उपयुक्त दक्षिणा देना नित्य कर्म है। क्योंकि, दान ग्रहिता दान लेकर आप पर उपकार करता है।
दान किसी व्यक्ति या संस्था या दोनों को दिया जाता है।

२ अबला, बालक, वृद्ध,  असहाय, रुग्ण, अपङ्ग, दरीद्र, दुःखी की बिना माँगे/ अयाचित करुणार्द्र होकर की गई सहायता दान नही कहलाता।  क्योंकि इसमें कोई दक्षिणा का प्रावधान नही है। यह सहायता कहलाती है। शरण देना भी इसी श्रेणी में आता है। इसका कोई निर्धारित समय नही हो सकता। ये अवसर मिलने पर ईश्वरीय कृपा समझना चाहिए।

३ उक्त कथित ये लोग ही यदि  याचक बनकर माँगे तब, इनको दी गई वस्तु भिक्षा कहलाती है। इसमें भी कोई दक्षिणा नही दी जाती। इसका समय भी निश्चित नही है। उनने आपको योग्य समझा यह उनकी कृपा है।

४ किसी कर्मकाण्ड की क्रिया करवानें के उपरान्त दी गई दक्षिण (फीस) भी दान नही है, बल्कि श्रम मुल्य है। जैसे ट्युटर, डॉक्टर, इञ्जिनयर, कारीगर आदि को फीस दी जाती है।


बुधवार, 18 नवंबर 2020

सिद्धान्त ज्योतिष की सायन गणना - निरयन गणना,नाक्षत्रीय गणना, सायन सौर संस्कृत चान्द्र गणना, निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणना, और शुद्ध चान्द्र गणना सभी का महत्व है।

सायन सौर गणना आधारित वेदिक संवत्सर,वेदिक वर्ष या वेदिक अयन (जिसे पौराणिक गोल कहते हैं।) ,वेदिक तोयन (जिसे पौराणिक अयन कहते हैं।),वेदिक ऋतु, वेदिक मास - और उनके गतांश और गते, तथा सुर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त , ग्रहों के दर्शन - अदर्शन  इसे भी उदय अस्त ही लिखा जाता है।अगस्तादि तारों का उदय - अस्त, तारों और ग्रहों के लोप -दर्शन, ग्रहण, होराशास्त्र के दशमभाव और लग्नादि की गणना सायन बिना नही हो सकती।
किसी योगतारा का  सायन भोगांश और निरयन भोगांश दोनों उल्लेख करनें पर भविष्य में इतिहास लेखकों को समय निर्धारण आसान होगा। 
ऐसे ही थोड़े से अभ्यास से सुर्योदय के पहलें  पूर्व में लुप्त होनें के पहले और पश्चिम में क्षितिज के नीचे भूमि की आड़ में छुपनें को तैयार किसी तारों को देखकर और और सुर्यास्त के बाद पूर्व में उदय होनेंवाले तारों और पश्चिम में ठीक क्षितिज पर के तारों को देखकर निरयन मास और संक्रान्ति गतांश और गते  अर्थात संक्रान्ति गत दिवस बतलाये जा सकते हैं। ग्रामीण किसान पहले यह आसानी से समझलेते थे।
चन्द्रमा की कला और कटा हुआ  भाग पु्र्व और पश्चिम की और देखकर पक्ष का ज्ञान हो सकता है जबकि चन्द्रमा का आकार / कला देखकर तिथि का अनुमान किया जा सकता है। अतः चान्द्र गणना का भी अपना महत्व है।
हमारे सौर मण्डल का सुर्य मार्तण्ड भी गेलेक्सी के केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है। ऐसे ही नक्षत्रमण्डल में कोई भी तारा अचल नही है।  केन्द्र से दूरी के अनुसार सभी तारों की गति भी अलग अलग होती है। अतः
आकाश का नक्षा या दृष्य कभी एकसा नही रहता। जैसे कुछ दिनों और महिनों में तारों के सापेक्ष मे ग्रहों का स्थान बदलता बदलता रहता है। ठीक वैसे ही नक्षत्र मण्डल के और अन्य सभी तारे भी परस्पर / सापेक्ष अपना स्थान बदलते रहते हैं। इनके लिये  बिन्दू रूप में ऐसा कोई नही खोजा जा सका जिसे आधार माना जा सके। समझनें के लिये भूमिवासी अपनें स्थान के ख स्वस्तिक (मेरेडियन कॉईल) के आधार पर ही तारासमुहों से निर्मित आकृतियों का सहारा लेते हैं। जिन्हे राशि नाम दे दिया गया। किन्तु,
न सायन राशियाँ अपनें पुरानें आकार में बची है  भारतीय नक्षत्रों की आकृति और स्थान वैसे ही पुर्ववत नही रहे। और भविष्य में और बदल जायेंगे। एन्ट्रापी प्रभाव पूर्ण जगत में दिखता है। 
तारे परस्पर भी और अपनें केन्द्र से दूर होते जा रहे हैं। गेलेक्सी भी अपनें केन्द्र से और एक दुसरे से दूर होती जा रही है। इस क्रम में कभी कभार परस्पर टकराव भी होता है। अतः आकाश की एकरूपता सम्भव ही नही है।
सभी आकाशीय पिण्डों का परिक्रमा मार्ग दीर्घवृत्ताकार है इसकारण मन्दोच्च शिघ्रोच्च का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। क्योकि मन्दोच और शिघ्रोच्च की भी चलनशिलता /  गति होती है। व्यतिपात वैधृतिपात  में भी चन्द्र नक्षत्रों के बीच चलनशिलता / गति है। इनका उल्लेख भी इतिहास काल गणना में सहायक होता है।
अतः इस / उक्त आधार पर सायध गणना और निरयन गणना का औचित्य निर्धारण और एक को सही और दुसरे को गलत ठहराया जाना सम्भव नही है।
 सायन गणना का अपना उपयोग है, निरयन गणना का अपना उपयोग है।कोई किसी को प्रस्थापित नही कर सकता।
निष्कर्ष य  की सबका अपना - महत्व है। किन्तु जहाँ जिसकी आवश्यकता हो वहाँ उसीका उपयोग करना चाहिए।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुर्तिपूजा उचित है या अनुचित ?, मुर्तिपूजा से क्या हानि है?

मुर्तिपूजा के पक्ष - विपक्ष में तर्क।

जो व्यक्ति जिस भाव से जिस विधि से जिस आस्था - विश्वास से परमात्मा के जिस स्वरूप में श्रद्धा पुर्वक जिस किसी देवता की आराधना उपासना करता है,  उस व्यक्ति की उसी परमात्मा के उसी स्वरूप में, उसी देवता में, उसी विधि विधान में, वैसी ही आस्था - विश्वास और भावना दृढ़ हो जाती हैं।
प्रकारान्तर से यही बात श्रीमदभगवदगीता 04/11 एवम् 12 तथा 09/22 एवम् 23  में भी कही है।

वेदों में ईशावास्यमिदम् सर्वम यत्किञ्च जगत्याम् जगत कहकर सर्वखल्विदम् ब्रह्म की घोषणा की है। परमात्मा ही इस जगत इस सृष्टि का निमित्तोपादन कारण कहा है। प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्माब्रह्म (अयम्आत्मा ब्रह्म) , तत्वमसि (तत् त्वम् असि) और अहम्ब्रह्मास्मि (अहम् ब्रह्म अस्मि) कहकर जीवन्मात्र का भी परमात्मा से अभेद प्रतिपादित किया है। 
जब परमात्मा को छोड़ कर अन्य कुछ है ही नही तो कौन पूज्य और कौन पूजारी? क्या मूल और क्या प्रतिमा? सबकुछ वही (परमात्मा) ही तो है। उसके (परमात्मा के) सिवा कुछ है ही नही।
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 3 में न तस्य प्रतिमा अस्ति कहकर परमात्मा की प्रतिमा की कल्पना को ही स्पष्ट नकार दिया है।
तान्त्रिक लोगों द्वारा शिष्ण और योनि को जगत्कारण बतला कर शिष्ण और योनि को लिङ्ग (पहचान चिह्न) के रूप में की जानें वाली प्रतिमा पूजन के कारण उन्हें शिश्णेदेवाः कहकर उनके कृत्य  को  दोषपूर्ण निषिद्ध कर्म बतला कर  स्पष्ट कहा है कि,यज्ञकरते समय  लिङ्गपूजकों की छाँया भी यज्ञ में पड़़ जाये तो  यज्ञ बन्द कर स्नानादि से शुद्ध हो पुनः यज्ञ आरम्भ करें।

वेदों में मुर्तिपूजा निषेध होनें का कारण यह है कि, 
1 सर्वव्यापी को सिमित बतलाना, 
2 वैष्णवों के मत में मुर्ति के सामने या मन्दिर में सुरापान, हिन्सा और अश्लीलता निशेध बतला कर अप्रत्क्ष रूप से ऐसे दुष्कर्मों को अन्यत्र करने की छूट देदी गई।
3 उसमें भी विशेषता यह कि, तान्त्रिकों द्वारा तो पञ्चमकार (मुद्रा,मदिरा सेवन कर, मत्स्य, मान्स खाकर, माता, बहन, बैटी, पुत्रवधु आदि को भैरवी बनाकर उसे भी मदिरा सेवन करवा कर मत्स्य - मान्स खिलाकर अश्लील मुद्राएँ दिखाकर उनके  साथ मैथून कर उसी अपवित्र अवस्था में) में ही लिङ्ग (योनि में समाये हूए शिश्ण की प्रतिमा) की पूजन की जाती है। (देखिये पाण्डुरङ्ग वामन काणे रचित धर्मशास्त्र का  इतिहास पञ्चम भाग / अध्याय 26)।
4 विधर्मी आक्रान्ताओं द्वारा मुर्ति भञ्जन से अश्रद्धा, अनास्था उत्पन्न होना। और आक्रांताओं का पन्थ ग्रहण करना।
5 सनातन वेदिक धर्म में ही मुर्ति, पूजन विधि आदि के आधार पर सेकड़ों पन्थ/ सम्प्रदाय बनगये और बन रहे हैं।
अतः मुर्तिपूजन गलत तो है ही।

भारत में प्रतिमा पूजन का इतिहास।
तान्त्रिकों द्वारा लिङ्ग अर्थात शिष्ण और योनि, एवम् योगीराज और योगिनी , शंकर और मात्रका की मुर्तियों/ प्रतिमाओं की पूजा और शत्रु का पुतला बना कर उसे प्रताड़ित करनें की प्रथा तन्त्र के आरम्भ अर्थात वेदिक काल के उत्तरार्ध से ही त्वष्टापुत्र विश्वरूप, शंकर -पार्वती, शुक्राचार्य और उनके पुत्र त्वष्टा ने कर दी थी। जिसे बादमें अत्रिपुत्र दत्तात्रय और उनके शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून एवम् रावण ने बढ़ाया। फिर जैनों और बौद्धों ने इसका अति विकास किया। अन्त में गिरनार पर्वत और आबु शिखर पर एक मुखी दत्तात्रेय ने नाथ सम्प्रदाय में नेपाल के मत्स्येंद्रनाथ और  गोरखनाथ, जालन्धर नाथ आदि उनके आठ शिष्यों के माध्यम से बहुत व्यापक प्रचारित कर दिया।
उनकी प्रतिस्पर्धा में नागा सम्प्रदाय नें भी अपने अपने मठों में अपने आराध्य की प्रतिमा और प्रतीक रखकर पूजना प्रारम्भ कर दिया। नागाओं के मठों में देवी देवताओं की सात्विक मुर्तियाँ लोक लुभावन रही।
फिर भी मुर्तिपूजा के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि, भारत भूमि में ईस्वी सन की सातवीँ - आठवीँ सदी के पहले वैष्णव और सौर सम्प्रदायों की प्रतिमाएँ नही मिलती।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जैन सम्प्रदाय नें तिर्थंकरों और यक्षों की प्रतिमाएँ गड़ना और पूजना आरम्भ की। जिसमें तान्त्रिकों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
बाद में बौद्धों नें गोतम बुद्ध की पूजा हेतु विशिष्ट प्रकार का लिङ्ग (प्रतीक चिह्न) बनाकर पूजा आरम्भ की। 
दोनों सम्प्रदायों में चैत्यालय बनानें की होड़ लग गई जो, जैनों में आजतक जारी है।
फिर सनातन धर्म में शैवों ने शिवलिङ्ग ( प्रतीक चिह्न) की पूजा आरम्भ हुई। इसमें तान्त्रिकों के लिङ्ग यानी शिश्ण - योनि का सभ्यस्वरूप निर्धारित किया गया।
विनायक गजानन की प्रतिमा निर्माण पश्चिम एशिया से सीखकर गजानन विनायक की मुर्तियाँ बनने लगी। यह प्रतिमा बनाना सबसे आसान माना जाता है।
सातवीँ सदी के अन्त में और आठवीँ सदी के अन्त में मुर्तिकला का विकास होनें के साथ ही वैष्णव और सौर प्रतिमाएँ बनने लगी।
 साथ ही काली, दुर्गा आदि की मुर्तियाँ बनने लगी।
मानवी स्वरूप की प्रतिमा निर्माण कठिन है। इस कला में युनानी विशेषज्ञ थे।अतः सिकन्दर आक्रमण के पश्चात युनानी सम्पर्क से वैष्णव, सौर शैव शाक्तों नें मानवीय स्वरूप गड़ना आरम्भ किया। और मुर्तिपूजा सम्पूर्ण जोर शोर से सनातन धर्म में भी आरम्भ होगई।

अब मुर्तिपूजकों के पक्ष में तर्कों पर भी विचार किया जाये --

1 ,हरियाणा के ऋषिदेश और पञ्जाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिन्ध, राजस्थान, गुजरात, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, अफगानिस्तान, और पूर्वी ईरान तक बसे पञ्चमहायज्ञों के माध्यम से प्रकृति की सेवा करनें वाले मूल वेदिक धर्मी प्रजापतियों की सन्तानों और स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों के देश वासियों का सम्पर्क; (तिब्बत कश्मीर में आकर बसे कश्यप की सन्तान) द्वादश आदित्यों में से एक विवस्वान की सन्तान सुर्य वंशियों से और  ( मृगशीर्ष नक्षत्र / ओरायन में स्थित सोमलोकपति) सोम के उपासक (चन्द्रमा- तारा के पुत्र बुध की पत्नी ईला जो वैवस्वत मनु की सन्तान थी के पुत्र) पुरुरवा (की पत्नी उर शहर में जन्मी इन्द्र के दरबार की नर्तकी अप्सरा उर्वशी) के पुत्र आयु के वंशज चन्द्रवंशियों से हुआ जो दक्षिण पूर्व टर्की से भारत में कश्मीर तरफ आये थे और सिरिया से आये नागवंशियों तथा पश्चिमी तुर्कीस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान की ओर से आये आग्नेयों के बीच जब परस्पर संयोग हुआ तो; ऐसे सम्पर्कों सें सांस्कृतिक घालमेल होनें से वेदिक धर्म में पर्वतों, नदियों, सागर, कूप - तड़ाग (तालाब), पेड़-पौधों, वक्षोंं की पूजा आरम्भ हूई।
2 जब हम उक्त प्रकार से पूर्ण प्रकृति में ही परमात्म भाव रखते हुए प्रकृति पूजन कर सकते हैं तो उसी प्रकृति से निर्मित प्रतिमा में परमात्मा का भाव क्यों नही रख सकते?
3 मुर्तिपूजा में मुर्तिपूजक जीते जागते लीलामय अपनें ईष्ट को ही देखते हैं किसी पाषाणादि में निर्मित किसी प्रतिमा की।

इन तर्कों को भी एकदम नकारना भी सम्भव नही है। अतः मुर्तिपूजा में केवल दोष दर्शन भी तो अनुचित ही है।

निष्कर्ष

जब हम विवशता में नाग - असुर, यक्ष - राक्षसों ,दैत्य- दानवों के आराधकों उपासकों को सह सकते हैं तो देवों - देवताओं को ईष्ट मानकर उनकी मुर्ति बनाकर पूजनें वालों को क्यों नहीँ सह सकते।

शनिवार, 19 सितंबर 2020

विक्रमादित्य, विक्रम संवत और गुप्त संवत

विक्रम संवत और गुप्त संवत
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ कालक आचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।
अवन्तिका अर्थात उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने ई.पू. 58 में निरयन मेष संक्रान्ति से विक्रम संवत चलाया था। कुछ स्थानों पर इसे मालव संवत के नाम से भी उल्लेख किया गया है।
निरयन मेष संक्रान्ति वर्तमान में प्रायः 14 अप्रेल को पड़ती है। हर 71 वर्ष में निरमन वर्ष का आरम्भ सायन वर्ष की एक दिन बाद के दिनांक से आरम्भ होता है।
ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन वर्ष पर आधारित है अतः हमारे सामनें ही निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को पड़ने लगी है।
पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मु, हिमाचल प्रदेश, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु,और केरल में निरयन सौर वर्ष आज भी प्रचलित है। किन्तु निरयन सौर वर्ष के साथ विक्रम संवत वर्तमान में केवल पञ्जाब में ही प्रचलित रह गया है।
हिन्दीभाषी क्षेत्रों में  निरयन सौर वर्ष से  संस्कारित चान्द्र वर्ष  शक संवत के आरम्भ दिवस यानि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत का आरम्भ होता है। जबकि गुजरात में दिवाली के दुसरे दिन अर्थात उक्त शक संवत के कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत का आरम्भ होता है।
विक्रमादित्य कौन थे इसे जानने के लिए वेबदुनिया की लिंक प्रस्तुत है। कृपया अवश्य देखें।

https://m-hindi.webdunia.com/indian-history-and-culture/emperor-vikramaditya-117121300044_1.html?amp=1

गुप्त संवत का आरम्भ चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त प्रकाल नाम से 319 ई. में किया था। किन्तु यह वर्तमान में अप्रचलित है। किन्तु गुप्तकालीन दस्तावेजों में गुप्त प्रकाल का उल्लेख मिलता है।
कुछ लोग चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य समझने की भूल करते हैं।
चन्द्रगुप्त प्रथम को जानने के लिए गुप्तवंश का इतिहास विकिपीडिया पर देखने का कष्ट करें। लिंक प्रस्तुत है।

https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6
इसके अतिरिक्त हिन्दी क्वोरा पर दिनांक 21 मार्च 2020 को  शक संवत का प्रारम्भ कब किया गया था प्रश्न पर मेरा उत्तर भी पढ़ने का कष्ट करें। 






शक संवत का प्रारंभ कब किया गया था?

शक संवत का प्रारंभ कब किया गया था?
भारत में वेदिक काल में संवत्सरारम्भ वसन्त विषुव से होता था। जिस दिन सुर्य भुमध्य रेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश करता है, पुरे विश्व में दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सुर्यास्त होता है, सुर्योदय के समय सुर्य ठीक पुर्व में उदय होता है और सुर्यास्त के समय सुर्य ठीक पश्चिम में अस्त होता है उस दिन को वसन्त विषुव कहते हैं। तीनसौ साठ दिन के सावन वर्ष में अन्तिम पाँच/ छः दिन यज्ञ होता था तथा पाँच वर्ष उपरान्त पुरे माह यज्ञसत्र चला कर वसन्त विषुव से संवत्सरारम्भ करते थे।

महाभारत काल के ज्योतिष के अनुसार हर अट्ठावन माह पश्चात दो माह अधिक मास मान कर इकसठवें माह को नियमित मास माना जाता था। यह गणना कठिन थी जिसे भीष्म पितामह द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन भी नही समझ पाया था।

आकाश की मध्य रेखा विषुववृत (Meridian) पर उत्तर की ओर जहाँ भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत्त क्रास करता है उसे वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेषादि बिन्दु कहते हैं। इसी बिन्दु पर भूमि के केन्द्र से सुर्य का केन्द्र दिखने को महा विषुव या वसन्त विषुव कहते हैं। यही समय वेदिक संवत्सरारम्भ का है। इस गणना का लाभ यह है कि यह ऋतु चक्र के बिल्कुल अनुकुल होने से इसके मास और मासांश दिवसों को ऋतु ठीक ठीक बैठती है। दिनमान रात्रिमान , सुर्योदयास्त समय प्रति वर्ष ठीक ठीक समान समय पर ही आवृत्ति होती है।

 20 मार्च 2020 शुक्रवार को पुर्वाह्न 09:20 बजे वसन्त विषुव हुआ। इस समय सुर्य का सायन मेष संक्रमण हुआ। अर्थात वेदिक नव संवत्सर आरम्भ हुआ। कल्प संवत्सरारम्भ, सृष्टि संवत्सरारम्भ, और कलियुग संवत्सरारम्भ इसी दिन को माना जाना चाहिए।

महर्षि विश्वामित्र जी ने नवीन गणना प्रणाली का सुत्रपात किया जिसे नाक्षत्रीय गणना कहा जाता है। जब सुर्य के केन्द्र भू केन्द्र और चित्रा नक्षत्र के योग तारा (Spica Virginia) का केन्द्र एक रेखा में हो तब सुर्य अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है जिसे निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं। इस गणना का लाभ यह है कि, चलते रास्ते भी चन्द्रमा, और ग्रहों के नक्षत्रचार देखे जा सकते हैं। कौनसा ग्रह किस निरयन राशि और किस नक्षत्र पर है किसान भी बतला देते हैं। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति 13/14 अप्रेल को पड़ती है। इसी दिन वैशाखी मनाई जाती है।इस दिन से निरयन संवत्सरारम्भ माने जाना लगा।

इस वर्ष 13 अप्रेल 2020 सोमवार को 20:23 बजे (अपराह्न 08:23 बजे रात में) निरयन मेष संक्रान्ति से कल्पारम्भ गताब्ध संवत 1,97,29,49,121 का आरम्भ होगा , सृष्टिगताब्ध संवत 1,95,58,85,121 का आरम्भ होगा। एवम् युधिष्ठिर संवत तथा कलियुग संवत 5158 का आरम्भ होगा। पञ्जाब हरियाणा उड़िसा, दिल्ली में विक्रम संवत 2077 का आरम्भ मनाया जायेगा। पञ्जाब का मालव संवत भी इसीदिन आरम्भ होता है।

शक और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे।
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ।  इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत  तथा गुजरात में में चलाया। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में मथुरा विजय कर कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में पूणे- नासिक क्षेत्र में पेठण में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
नेटपर सर्च करने पर आपको निम्नांकित तथ्य मिलेंगे।
शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (आर। ५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे। [४४] इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (आर। ४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ।  इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।


इसके पहले भारत में निरयन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से वृतोत्सव मनाने का प्रचलन था जो दक्षिण भारत मेंअभी भी प्रचलित है। जैसे निरयन सिंह के सुर्य में श्रवण नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो वामनावतार जयन्ति ओणम मनाते हैं। गया में कन्या राशि के सुर्य में कृष्ण पक्ष में श्राद्ध का विशेष महत्व है। बंगाल में भी नवरात्रि में तुला राशि के सुर्य और मूल, पुर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा में ही देवी आव्हान, स्थापना, पुजन, बलिदान और विसर्जन होता है।

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर के चैत्रादि मास प्रचलित हो चुके थे। किन्तु तब केवल सुर्य चन्द्र ग्रहण और इष्टि के लिये अमावस्या, पुर्णिमा, तथा अर्ध चन्द्र दिवस उपरान्त अष्टका एकाष्टका के लिये अष्टमी तिथियाँ ही मुख्य रुप से प्रचलित थी। एकादशी का प्रचलन चन्द्रवंशी ययाति के समय हुआ। तिथी वार, नक्षत्र , योग और करण युक्त पञ्चाङ्गों का प्रचलन वराहमिहिर के बाद ही हुआ।


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

विक्रम संवत एवम् शकाब्द

महाराज नाबोवाहन ने कुरुक्षेत्र हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ आचार्य कालक ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है। इस कथा में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।

सामान्यतः तो पञ्चाङ्गों में दोनो संवत एक साथ लिखे जाते हैं।
निरयन सौर विक्रम संवत लागु होने के मात्र 135 वर्षों बाद ही निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनात्मक शकाब्ध लागु होगया। उत्तर भारत में शक वंशी कुशाणों ने इसे लागु किया और दक्षिण भारत में सातवाहनों ने इसे लागू किया।

कुशाणों में कनिष्क और सातवाहनों में गोतमीपुत्र सातकर्णि बड़े लोकप्रिय और निरङ्कुश शासक हुए। जनता में इनका प्रभाव बहुत था। बौद्ध शकों के काफी निकट थे और उज्जेन के एक जैनाचार्य अफगानिस्तान से कुशाणों को स्वयम् आमन्त्रित कर भारतीय मुख्य भूमि में लाये थे अतः इन दोनों सम्प्रदायों में शक संवत की गहरी पैठ रही। सातवाहनों को दक्षिण भारतीय ब्राह्मण मानते थे इसलिए दक्षिण भारतीय सनातन धर्मियों में भी यह अधिमान्य होगया। बादमें सातवाहनों के उत्तराधिकारी के रुप में पेशवाओं के नेत्रत्व में मराठा साम्राज्य उत्तर भारत तक फैल गया।

परिणाम स्वरूप निरयन सौर विक्रम संवत के वैशाखी / बैसाखी पर्व मनाने वाले मालव गणों के उत्तरवर्ती पञ्जाब - हरियाणा और हिमाचल प्रदेश तक ही विक्रम संवत के साथ निरयन सौर केलेण्डर सिमट गया। पुर्व में उड़िसा, बङ्गाल, असम, और दक्षिण में तमिलनाड़ु और केरल में निरयन सौर गणनात्मक केलेण्डर प्रचलित रहा किन्तु विक्रम संवत के साथ केवल पञ्जाब हरियाणा तक सीमित रहा।

निरयन सौर विक्रम संवत निरयन मेष संक्रमण से प्रारम्भ होता है। इसका प्रथम माह वैशाख कहलाता है। दिनांक के लिए संक्रान्ति गत दिवस का उपयोग होता है। ज्योतिर्गणना और धर्मशास्त्र में गतांश का प्रयोग होता है। वर्तमान में 13/14 अप्रेल को निरयन सौर मेष संक्रमण होता है। हर इकहत्तर वर्ष में यह अगले दिनांक को होने लगेगी । थोड़े वर्षों में आप 15 अप्रेल को निरयन मेष संक्रमण होते हुए देखेंगे।  अभी निरयन मिथुन राशि के 19°08'25" पर भूमि सुर्य से सर्वाधिक दूर रहती है इस कारण इसके आसपास के 90° -90° तक के माह 31 दिन के होते हैं। मिथुन मास तो 32 दिन तक का हो जाता है और निरयन धनु राशि के 19°08'25" के पर भूमि सुर्य के निकट होने के कारण शेष मास प्रायः 30 दिन के होते हैं। स्वयम् धनुर्मास तो 29 दिन का ही रहता है।

निरयन सौर मेष संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा) से आरम्भ होता है। इसमें प्रायः तीसरे वर्ष (अट्ठाइस से अड़तीस माह के अन्तराल से) एक अधिक मास होता है और 19 वर्ष, 122 वर्ष और 141 वर्ष के क्रम में एक क्षय मास होता है। जिस वर्ष क्षय मास होता है उसी क्षय मास के आगे पीछे एक एक अधिक मास पड़ता है। इस प्ररकार 282 वर्ष मेंइस  पञ्चाङ्ग की पुनरावरृत्ति होती रहती है।

अमावस्या से अमावस्या तक चान्द्रमास होता है। मा मतलब चन्द्रमा अतः अमा मतलब जिसदिन आकाश में चन्द्रमा न दिखे और पुर्णिमा मतलब जिसदिन  चन्द्रमा पूर्ण दिखे। इस बीच शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। सुर्य और चन्द्रमा में 12° का अन्तर तिथि कहलाता है। सुर्य और चन्द्रमा में 06 ° का अन्तर करण कहलाता है। चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ कर चन्द्रमां के प्रत्यैक 13°20' एक नक्षत्र कहलाता है। सूर्य के अंशादि और चन्द्रमा के अंशादि के योग का सत्ताइसवाँ भाग योग कहलाता है। दो सुर्योदयों की बीच की अवधि वासर या वार कहलाती है। तिथि,वार, नक्षत्र, योग, करण ये पाँचो मिलकर पञ्चाङ्ग कहलाती है।

इस तिथि पत्रक से व्रत, पर्व उत्सव मनाने का मुख्य आधार मास और पर्वकाल की तिथि है। पर कभी कभी विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर शेष आधी तिथि में ही व्रत पर्व उत्सव मनाते हैं। तिथि के साथ नक्षत्र के योग का भी धर्मशास्त्रीय महत्व है। कुछ व्रत पर्व उत्सवों में इस योग का भी ध्यान रखा जाता है। कभी कभार शुभ वार भी महत्व रखते हैं। मुहुर्त में पूर्व दिशा में उदय हो रही राशि अर्थात लग्न सबसे महत्वपूर्ण होता है।

इस विषय में मेरे अन्य आलेख भी देखनें का कष्ट करेंगे तो विस्तृत जानकारी मिलेगी। इस आलेख में वे सब क्लिष्ट गणनाएँ हैं छोड़ रहा हूँ।
उल्लेखनीय है कि, नेटपर सर्च करने पर भी निम्नलिखित तथ्य मिलेंगे।
शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे।  इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर) में 98 ई.पू. में हुआ। और निधन 44 ई. मे हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्म से यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संक्रमण पर आधारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में लागू किया तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने शालिवाहन शक नाम से प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में लागू किया गया जबकि दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
उक्त जानकारी स्पष्ट कर देती है कि, 19 वर्ष,122 वर्ष और 141 वर्ष में आवृत्ति वाला निरयन सौर संक्रमण आधारित शकाब्द पञ्चाङ्ग (केलेण्डर) विदेशी परम्परा है। जबकि वैदिक परम्परा में सायन सौर संवत्सर और सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ गतांश और संक्रान्ति गत दिवस  चलते थे। कभी कभी कुछ विशिष्ठ धार्मिक प्रकरणों में सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ चन्द्रमा का नक्षत्र को ध्यान रखा जाता था। जबकि अन्वाधान और इष्टि भें पुर्णिमा/ अमावस्या एवम् अष्टका एकाष्टका में अर्धचन्द्र की तिथि जिसे वर्तमान में हम अष्टमी तिथि कहते हैं देखी जाती थी। वेदों में केवल अमावस्या, पूर्णिमा, एकाष्टका और अष्टका (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी) तथा व्यष्टिका (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा) तथा बालेन्दु (प्रथम चन्द्र दर्शन) का ही उल्लेख है।
तथाकथित उत्तरवैदिक काल में चान्द्रमास के मध्य की तिथि पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर बने चैत्र- वैशाखादि मास और तिथियाँ प्रचलित हुई। लेकिन तब भी संवतरारम्भ सायन सौर मेष संक्रान्ति को आधार मानकर सायन सौर मीन संक्रान्ति और सायन सौर मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद वाली शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही संवत्सर आरम्भ करते थे। जैसा कि, वर्तमान में आचार्य दार्शनेय लोकेश श्री मोहनकृति आर्ष पत्रकम् ग्रेटर नोएडा से प्रकाशित करते हैं। 



संवत्सर आरम्भ और वसन्त विषुव

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत का आरम्भ प्रायः मार्च - अप्रेल माह में ही आरम्भ होता है? ऐसा क्यों? 
वेदिक युग में नवसंवत्सरोत्सव, वसन्तोत्सव, नव सस्येष्टि ये सभी उत्सव उस दिन मनाये जाते थे जिस दिन सुर्य ठीक भूमध्यरेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश.करता है। उस दिन दिन - रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सुर्यास्त होता है । सुर्योदय सुर्यास्त के समय सुर्य भूमध्य रेखा पर होने के कारण सुर्योदय ठीक पुर्व दिशा में और सुर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है।उस दिन मध्याह्न की छाँया देखकर स्व स्थान का अक्षांश देशान्तर ज्ञात करना आसान होता है।उक्त दिवस को महा विषुव, और वसन्त विषुव कहा जाता है। इसे ज्योतिषीय भाषा में सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं। मूलतः कलियुग संवत का आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति से होता है।

22 मार्च 1957 से भारत शासन ने भी भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर के रुप में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। इसमें महान ज्योतिषी स्व. श्री निर्मल चन्द्र लाहिरी जी का विशेष योगदान रहा।

पहले लगभग पुरे विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में ही इसी दिन नववर्ष मनाया जाता था। जमशेदी नवरोज नामक पारसी नववर्ष आज भी इसी दिन मनाते हैं। चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है।

सऊदी अरब और ईराक में भी सायन मेष संक्रान्ति वाले माह के आसपास वाले दो माह वसन्त ऋतु आरम्भ के पु्र्व वाला माह और वसन्त ऋतु आरम्भ के बादवाला माह को रबीउल अव्वल और रबीउस्सानी कहते हैं।

ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार 1975 ईस्वी के पहले यह प्रायः 20 मार्च को पड़ता था एवम् 1975 ई. के बाद आगामी हजारों लाखों वर्ष तक यह अधिकांशतः 21 मार्च को होता है और होगा।

चुँकि, ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष गणना आधारित केलेण्डर है तथा चार वर्षों में प्लुत वर्ष में एक दिन बढ़ा कर,तथा प्रति 400 वर्षों में प्लुत वर्ष नही करना जैसे सन 1900 ई. में फरवरी 28 दिन का ही था और प्रत्येक 400 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष करना जैसे फरवरी 2000 29 दिन का था।और प्रत्यैक 4000 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष न करना इस प्रकार ग्रेगोरियन केलेण्डर में स्थाई रुप से एक दिन या एक तारीख का अन्तर हजारों लाखों वर्ष में ही आयेगा। तब सायन मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ने लगेगी।

इसके अतिरिक्त वेदिक काल में ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा नाक्षत्रिय गणना आधारित वर्षगणना प्रचलित की। इस पद्यति में नाक्षत्रिय या निरयन मेष संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ होता है। आज भी पञ्जाब, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु, केरल आदि अनेक राज्यों में निरयन मेष संक्रान्ति से ही संवत्सरारम्भ होता है। मूलतः युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत निरयन मेष संक्रान्ति से ही आरम्भ होता है।

सन 285 ईस्वी में दिनांक 22मार्च 285 ई. को सायन और निरयन मेष संक्रान्ति एकसाथ हुई थी। तब से लगभग हर 71 वर्ष में निरयन मेष संक्रान्ति एक दिनांक बाद में होते होते आजकल दिनांक 14 अप्रेल को होने लगी है।अर्थात 1735 वर्षों में 24 दिन का अन्तर पड़ गया है। सन 2189 में 22 अप्रेल को निरयन मेष संक्रान्ति आयेगी। ऐसे ही तथा 12890 वर्ष में पुरे छः मास का अन्तर पड़ जायेगा। और 25780 वर्ष में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ने से सायन कलियुग संवत 28882 और निरयन युधिष्ठिर संवत 28881 होगा यानि एक वर्ष का अन्तर होगा।

उत्तर भारत में कुशाण राजाओं विशेषकर कनिष्क द्वारा और दक्षिण भारत में सातवाहन राजाओं विशेषकर शालवाहन सातकर्णि द्वारा चलाये गये निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

निरयन मीन राशि में सुर्य हो तब अर्थात वर्तमान में लगभग14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जो अमावस्या होती है उस दिन निरयन सौर संस्कृत शक संवत का वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष नया शकाब्ध आरम्भ होता है।

जब दो संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े या यों कहें कि जब दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो वह क्षय मास कहलाता है सन 1982 में आश्विन मास क्षय हुआ था। इसके पहले 1963 ई. में भी क्षय मास आया था। माघ मास को छोड़ कोई भी मास क्षय हो सकता है। क्षय मास वाले वर्ष में क्षय मास के पहले और बादमें अधिक मास पड़ते हैं। ऐसा प्रत्यैक 19 वर्ष, 122वर्ष और 141 वर्ष में होता है। 1963 ई. में 141 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। 1982 में 19 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था और अब 122 वर्ष बाद वाला क्षय मास सन 2104 ईस्वी में पड़ेगा।

इसी 19,122,141 वर्षों के क्रम से निरयन सौर संस्कृत संवत्सर मे पञ्चाङ्ग के मासा, तिथि, करण, नक्षत्र, और योग तथा सुर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहणों की आवृत्ति होती रहतीहै।

इसी प्रकार जब दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े या यों कहें कि अमावस्याओं के बीच कोई संक्रान्ति न पड़े तो अधिक मास होता है। ये चैत्र से कार्तिक तक कोई भी मास अधिकमास हो सकता है।

ऐसे अधिक मास और क्षय मास के प्रावधान कर 354 दिन के चान्द्र वर्ष को 365.256363 दिन के निरयन सौर वर्ष से बराबरी कर ली जाती है।

अब चुँकि अभी निरयन मेष संक्रान्ति 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच पड़ती है इसलिये 15 मार्च से 13 अप्रेल के बीच ही शकाब्ध आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पड़ती है। लगभग 1130 वर्ष बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अप्रेल माह में ही पड़ा करेगी।

सुचना -

1 प्लुत वर्ष यानि अन्तिम माह में एक दिन अधिक होना । पहले फरवरी अन्तिम माह था।

2 भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के गोलाध्याय (यानि खगोल विज्ञान और भुगोल) में पुरे विश्व के लिये पुर्व पश्चिम दिशा भूमध्यरेखा पर ही मान्य है। वेधलेनें वाले के अक्षांश पर पुर्व पश्चिम मानने से पुर्व पश्चिम दिशा अर्थहीन हो जायेगी। क्यों कि प्रत्यैक देशान्तर के लिये तो पुर्व पश्चिम अलग अलग होती ही है। भारत वासियों का पुर्व और अमेरिका वासियों का पश्चिम लगभग एक ही होता है। ऐसे में यदि अलग अलग अक्षांशों पर उत्तराभिमुख खड़े अक्षांशों वेध लेनें वाले के 90° दाँयें बाँयें पुर्व पश्चिम मानें तो कम्युनिकेशन असम्भव सा होजायेगा। सभी अक्षांशों के पुर्व पश्चिम अलग अलग होंगें।

3 जब सुर्य को केन्द्र मानकर देखनें पर भूमि कृतिका नक्षत्र के सम्मुख दिखे यानि सुर्य, भूमि और चित्रा नक्षत्र का तारा एक पङ्क्ति में दिखे। केन्द्रीय ग्रह स्पष्ट में भूमि चित्रा नक्षत्र के योग तारा का भोग एक ही हो या जब चित्रा तारे से भूमि की युति हो तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है।

4 सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष गणना लागु करने का प्रयोग काशी के बापुशास्त्री जी ने किया था और कई वर्षों तक सायन सौर संस्कृत पञ्चाङ्ग प्रकाशित किया। किन्तु धर्माचार्यों के असहयोग और लोकप्रिय नही होने के कारण उन्हें प्रकाशन बन्द करना पड़ा। खेर।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

परमात्मा से प्रजापति तक।

परमात्मा से प्रजापति तक कहें या कहें प्रजापति से परमात्मा तक।

सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप), ब्रह्माण्ड स्वरूप, महादेव (देवों में सबसे महत , पितामह) हैं। प्रजापति की शक्ति अथवा पत्नी सरस्वती है। सुत्रात्मा प्रजापति की आयु  हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प तुल्य है।
मुर्तिरहस्य में सुत्रात्मा प्रजापति को चतुर्मुख बतलाया जाता है। अर्थात चारों ओर मुख वाला मानते हैं। अर्थात पूर्ण गोलाकार स्वरूप में समझा जा सकता है।
इन्हे रेतधा - स्वधा युग्म या ओज - आभा और संज्ञान - संज्ञा अध्यात्मिक स्वरूप में समझा जा सकता है।
आधिदेविक स्वरूप में ये बाईस स्वरूप में प्रकट हुए। १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इन्द्र - शचि,  ८ अग्नि - स्वाहा,  ९ पितरः अर्यमा - स्वधा, १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष -  प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति, १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ,  १५ मरिची - सम्भूति, १६  महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति 
(सुचना  इनमें १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद (ये पाँचों ब्रह्मचारी रहे।), ७ इन्द्र - शचि, ८ अग्नि - स्वाहा, ९ पितरः अर्यमा - स्वधा देवस्थानी प्रजापति हैं। १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष - प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति (नामक प्रजापतियों के जोड़े भू स्थानी हुए। दक्ष, रुचि और कर्दम प्रजापति की पत्नियाँ प्रसुति, आकूति एवम् देवहूति तीनों स्वायम्भूव मनु - शतरुपा की पुत्रियाँ भी मानी गई है।), १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (जो दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ थी।) एवम् १५ मरिची - सम्भूति, १६ महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति नामक ब्रह्मर्षि गण हुए (जिनकी पत्नियाँ दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए। सभी ब्राह्मण इनके वंशज और शिष्य मानें जाते हैं।)

चूँकि हिरण्यगर्भ से प्रजापति प्रकट हुए और प्रजापति ने स्वयम् को उक्त २२ स्वरूप में प्रकट किया अतः ये बाईस भी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की ही सन्तान मानी जाती है। और चूँकि इनका प्रकटीकरण प्रजापति से हुआ इसलिए इन्हें कहीँ - कहीँ प्रजापति से उत्पन्न भी कहा जाता है। केवल कथन का ढङ्ग भिन्न है लेकिन तात्पर्य एक ही है पर लोग भ्रमित हो जाते हैं।

सुत्रात्मा प्रजापति के कारण भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, विश्वकर्मा हैं। पुरुष सुक्त के हिरण्यगर्भ प्रथमो जायते कहा है। अर्थात हिरण्यगर्भ जन्मलेनें वालों में प्रथम हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की शक्ति अथवा पत्नी वाणी है।
जो महादिक, अधिभूत, हैं इनकी आयु दो परार्ध है। अर्थात इकतीस नील दस खरब, चालीस अरब सायन सौर वर्ष है। ये प्रथम भौतिक वैज्ञानिक तत्व हैं अर्थात ये अनुभव गम्य हैं। मुर्तिरहस्य मे इन्हें पञ्चमुखी बतलाया गया है। अर्थात ये अण्डाकार हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा श्री लक्ष्मीनारायण की नाभी (केन्द्र) से उत्पन्न कमलासनस्थ बतलाया जाता है। 
अध्यात्मिक स्वरूप में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को देही - अवस्था , प्राण - धारयित्व और चेतना - धृति के  युग्म मे जानते हैं।

आधिदेविक स्वरूप में ये त्वष्टा - रचना कहलाते हैं। वेदों में कहा गया है कि, त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्डों के गोलों और लोकों, भुवनों को बढ़ाई  (इंजीनियर) की भाँति घड़ा। किन्तु ये देवलोक के विश्वकर्मा (आर्किटेक्ट) से ये उच्चतर देव हैं। ईश्वरत्व या ईश्वर श्रेणी के देवताओं में ये अन्तिम हैं।

भूतात्मा हिरण्यगर्भ का कारण जीवात्मा अपरब्रह्म विराट है। 
पुरुष सुक्त के विराट ये ही हैं। जो सर्वप्रथम उत्पन्न हुए। ये  श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद अध्याय 11 मन्त्र 32 में उल्लेखित काल हैं  जिस स्वरूप का दर्शन करके अर्जुन भयभीत होगये थे।  श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद में इन्हे स्व भाव और अध्यात्म (अधि आत्म) , और क्षर कहा है। जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) को प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता,और गुण सङ्गानुसार योनियों में भ्रमण करनें वाला कहा है।
विष्णु पुराण में जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) का वास स्थान शिशुमार चक्र (उर्सामाइनर) कहा गया है। यह प्रथम साकार स्वरूप है। जिसे तरङ्गाकार के रूप में समझा जा सकता है।
मानवीय सोच के अनुसार हम स्त्री-पुरुष या शक्ति और शक्तिमान के रूप में समझनें के आदि हैं तदनुरूप ---
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट को जीव और आयु के युग्म में  अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। इसे वेदों, उपनिषदों में अपर पुरुष- त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति भी कहा जाता है। या सांख्य दर्शन में अपर पुरुष और अपरा प्रकृति को पुरुष और प्रधान कहा गया है। 
इस स्वरूप को ही विवेक और विद्या भी कहा गया है।
अपर पुरुष - त्रिगुणात्मक प्रकृति को  वेदों में आधिदेविक स्वरूप में धातृ और धरित्री (नारायण - श्री एवम लक्ष्मी ) के स्वरूप में कहा गया हैं। ये जिष्णु  अर्थात स्वाभाविक रूप से विजेता कहे गये हैं। 
ऋग्वेद के अनुसार जो का 90× 4 = 360 अरों का नियती चक्र या संवत्सर चक्र है अर्थात काल वह भी ये ही हैं।  नारायण और श्री एवम् लक्ष्मी के स्वरूप में पुराणों वर्णन किया गया है। ये प्रकृतिस्थ हैं इसलिए इन्हें नारायण कहागया। इन्हे जगत का ईश्वर या जगदीश कहा जाता है। पुराणों में इनका वासस्थान क्षीर सागर भी बतलाया गया है।
अवतारी पुरुषों के नियन्ता ये ही हैं। इनके निर्देशानुसार ही ब्रह्मज्ञ सिद्ध पुरुषों को निर्धारित कार्य पुर्ण करनें हेतु सिमित समय के लिए भूलोक की व्यवस्था बनाये रखनें हेतु युगान्त में भेजा जाता है।

जीवात्मा अपरब्रह्म विराट  का कारण --
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म, विधाता है। विधि विधाता स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं। विधाता ही ऋत के अनुसार  सृष्टि संचालन करते हैं। ये महाकाश हैं श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हे क्षेत्र और अधिदेव कहा गया है। प्रत्यगात्मा ब्रह्म को सर्वगुण सम्पन्न, कालातीत, सुख दुःख का हेतु कहा गया हैं।
उपनिषद वाक्य सर्वखल्विदम् ब्रह्म, और महावाक्य -  प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, अहम ब्रह्मास्मि, तत्वमसि में इसी प्रत्यगात्मा ब्रह्म का निर्देश किया गया है। 
आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान यहीँ से आरम्भ होता है। अर्थात ये प्रज्ञान हैं
यह प्रत्यैक का नीज स्वरूप है। ये ही समाने वृक्षे द्वासुपर्णा का मधुर फल भक्षी पक्षी हैं।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता को मानवीय स्वभावानुसार --
पुरुष और प्रकृति, प्रज्ञान और प्रज्ञा के अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। आधिदेविक दृष्टि से सवितृ - सावित्री कहलाते हैं। (गायत्री मन्त्र का देवता सवितृ है।) 
पुराणों में  हरि और कमला देवी (कमलासना) के रूप में वर्णित हैं।
ये अज (अजन्मा), और प्रभविष्णु  जिनसे सब कछ हुआ ऐसा कहा जाता है। ये महेश्वर (महा ईश्वर) हैं।
मुर्ति रहस्य में इन्हें इन्हें साथ साथ बैठे नही बतलाते हुए दो अलग अलग कमल पुष्पों पर विराजित बतलाया जाता है।  इनकी मुर्ति या चित्र प्रायः गौर वर्णी ही बतलाई जाती है। इन्हें ब्रह्म सावित्री भी बोला जाता है। इसकारण लोग इन्हें हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और शारदा देवी / सरस्वती मान लेते हैं।

प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता का कारण ---प्रज्ञात्मा परब्रह्म है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सनातन, अव्यक्त, अव्यय, कुटस्थ, परमधाम, परमगति कहलाते हैं। "समाने वक्षे द्वासुपर्णा" मन्त्र के दृष्टा पक्षी ये ही हैं।
श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हें अधियज्ञ और क्षेत्रज्ञ  तथा  उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता,भोक्ता महेश्वर कहा है जो भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नही होता। अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रज्ञात्मा परब्रह्म का अस्तित्व समस्त उत्पन्न होने वाले/ प्रकट होनें वालों के नष्ट होनें पर यथावत बना रहता है।  अन्त में प्रज्ञात्मा परब्रह्म ही शेष रहते हैं/  विद्यमान रहते हैं।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म को मानवीय 
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सर्व गुणों वाला प्रथम सगुण स्वरूप है।  
समझनें की दृष्टि से अध्यात्मिक स्वरूप में अक्षर, दिव्य, परम पुरुष तथा - परा प्रकृति के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है।  आधिदेविक स्वरूप में 
 प्रज्ञात्मा परब्रह्म को सर्वव्यापी विष्णु और सत् असत् अनिर्वचनिय माया कहाते है। विष्णु ही परमेश्वर हैं।

विष्णु अनन्त सुर्यों के समान अत्यन्त प्रकाश स्वरुप/ ज्ञानस्वरूप माया से आवृत्त होने से अपृकट /अप्रत्यक्ष है।
अर्थात माया का यह आवरण हटनें पर  विष्णु प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
चुँकि, विष्णु सगुण निराकार स्वरूप हैं। अतः  विष्णु का साक्षात्कार होने पर ही विष्णु ॐ  का साक्षात्कार करवा सकते हैं ।

प्रज्ञात्मा परब्रह्म परमात्मा के  ॐ संकल्प के साथ प्रकट हुए। अर्थात प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण परमात्मा का  ॐ संकल्प को कह सकते हैं।
अर्थात विश्वात्मा ॐ को   प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण हैं। किन्तु  प्रज्ञात्मा परब्रह्म के साथ ही कार्य - कारण सम्बन्ध का अन्त हो जाता है।
दिव्य अक्षर पुरुष विष्णु का ज्ञान होते ही विश्वात्मा ॐ तथा परमात्मा में स्थिति हो जाती है।

सृष्टि के स्वरूप में प्रकट होनें के लिए हुआ परमात्मा का संकल्प ॐ कहलाता हैं। परमात्मा के उस  ॐ (कल्याण स्वरूप)  संकल्प से ही अनन्त, सत, चित , आनन्द  हुआ जो परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सर्वव्यापी, विश्वात्मा कहलाता है। ॐ संकल्प ही ऋत है। 

परमात्मा तो सत असत दोनों से परे है। परमात्मा का साक्षात्कार होते ही वास्तविक सत्य से साक्षात्कार अर्थात आत्म साक्षात्कार होकर अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। केवल परमात्मा (परम आत्म) ही रह जाता है। वेदों में इसे ही मौक्ष कहा है।

शनिवार, 29 अगस्त 2020

क्या लोकवास मतलब उस योनि में जन्म ग्रहण करना है? क्या श्राद्ध आवश्यक है? श्राद्ध किसके लिए और क्यों किये जाते हैं ?प्रश्न का उत्तर ।

लोकवास की परम्परा स्मृतियों , और पुर्वमिमान्सा दर्शन से वैष्णव और शैवों में आई है।
जिसका अर्थ है मृत्यलोक से मरकर किसी उर्ध्व या अधोलोक में जन्म ग्रहण करना।
किसी लोक में वास होने का अर्थ उसलोक में जन्म लेना होता है। जन्मलिया मतलब योनि ही है।
हनुमान चालिसा में तुलसीदास जी नें कहा है, अन्तकाल रघुवर पुर जाईं जहा जन्म हरिभक्त कहाई।
शतक्रतु का मतलब भी सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला है। सौ अश्वमेध यज्ञकरनें के फल स्वरूप पुरन्दर को इन्द्रपद प्राप्ति हुई
नारद तम्बूरा आदि के भी पुर्वजन्मों का उल्लेख है।
वैवस्वत मनु की सन्तानों मे सर्वप्रथम मरनें वाले व्यक्ति यम थे।उन्हें धर्म नें धर्मशासन करने वाला मृत्यलोक का वाला शासक धर्मराज पद दिया।
1 जय - विजय का तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्म लेना
2 यमलार्जुन का वृक्ष होना और पुर्व में विजीत लोक में पुनः जाना की कहानी, 
3 पद्मिनी अप्सरा द्वारा रसायन विद्या द्वारा सदानन्द ऋषि के नवजात पुत्रों को युवा बनाकर विद्या के दुरुपयोग के फल स्वरूप आसुरी योनि में जन्म लेकर बन्ध्या होना और  रसायन विद्या से प्रद्युम्न को युवा बना कर लोक कल्याणकारी कार्य के पुण्य से पुनः अप्सरा होकर पुर्व लोक में जाना,
4 पुष्पदन्त का शिव गणों में जन्म लेना, 
5 शिवपुत्र कार्तिकेय और इन्द्र का पुत्र जयन्त, बृहस्पति का पुत्र कच, गणपति पुत्र लाभ-शुभ होना सभी देवयोनियों में प्रजनन के प्रमाण हैं। और कर्म के प्रमाण भी है। 
उपनिषदों में  विभिन्न मन्वन्तरों में  देवताओं का ब्रह्मज्ञ होनें की कथाएँ आती है। जिसमें केनोपनिषद की भगवती उमा से इन्द्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश पाकर अग्नि और वायु को भी ब्रह्मज्ञानोपदेश देकर ब्रह्मज्ञानी बनादेने की कथा हैं।और
छान्दोग्योपनिषद की कथा - धैर्यपूर्वक 101 वर्ष तप कर अन्तःकरण निर्मल करके, शास्त्र चिन्तन करनें से विवेक जाग्रत होनें के कारण, प्रजापति से उपदेश ग्रहण कर इन्द्र का आत्मज्ञानी हो जाने की कथा। तथा 
उसी कहानी में असुरों में विरोचन भी आत्मज्ञानोपदेश हेतु प्रजापति के पास बत्तीस वर्ष ब्रह्मश्चर्य पुर्वक तपस्या रत रहे। किन्तु कर्मवादी होनें के कारण ज्ञान को भी कर्मफल समझनें वाले होनें के कारण ज्ञानमार्ग का अनुसरण न कर सके। (बुद्धिवृक्ष का फल नही खा पानें के कारण मुर्ख 😁) अज्ञानी ही रह गये। 
गजेन्द्र मौक्ष कथा में भी गज द्वारा श्रद्धा भक्ति पुर्वक स्तुति करनें यानि पशुयोनि में भी कर्माधिकार का वर्णन है।
अर्थात मानवैत्तर देवादि उच्च योनियाँ और पशु-पक्षी एवम् असुर दैत्य आदि निम्न योनियों में भी कर्म करना, कर्मफलभोग, परलोक गमन, और मौक्ष प्राप्ति सबकछ होता होता है।
परलोक में जन्म होनें की बात नयी और अटपटी लगेगी इस सम्भावना के कारण उच्च और अधो लोकों में जन्म, मरण, कर्म और ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञाश और  मौक्ष सबकी कथाएँ स्मरण करवाने हेतु प्रसङ्ग दिये हैं।

श्राद्ध का औचित्य है या नही ? ---

अन्तरात्मा जैसे ही देह छोड़ती है।उसीके साथ ही जीवात्मा से लिङ्ग शरीर तक रहते हैं।
अतः अधिकतम दस दिन तक कारण शरीर, सुक्ष्म शरीर और लिङ्ग शरीर  ही प्राण / देही की देह रह पाती है। जिसके  आकार के कारण ही उस प्राणी / देही को पहचाना जासकता है । परिवार को झलक दिखलाने वाला लिङ्ग शरीर ही होता है। ऐसी कहानियाँ सुनी होगी कि, दुर्घटना में मरनें वाले व्यक्ति के परिवार वालों को  अपनी दुर्घटना सुचना स्वयम् लिङ्ग शरीर ही देता है। 
सुक्ष्म शरीर स्वप्न और सम्मोहन में यात्रा करता है; कारण शरीर केवल दृष्टाभाव से उस यात्री सुक्ष्मशरीर रूपी यात्री / कर्ता की पीठ और आँख भी देख पाता है।
दशाह कर्म -- लिङ्ग शरीर को देह के प्रति लगाव त्यागने के निर्देश देनें हेतु तिर्थ स्थान पर जाकर दशाह कर्म के अन्तर्गत अस्थि विसर्जन के उपरान्त अवशिष्ट अस्थी को देह मानकर उसका पुनः दाह कर अन्त्येष्टि की जाती है। दसवें की क्रियाओं से लिङ्ग शरीर नही रहा यह मान लिया जाता है।
एकादशाह कर्म में मृतक की अतृप्त इच्छाओं के रहते बची आसक्ति को समाप्त करनें हेतु (ब्राह्मणों के लिए) चाँवल का पिण्ड बनाकर उसके टुकड़े टुकड़े कर उसे इस जीवन की स्मृतियों की आसक्ति छोड़ने का सन्देश देना और  गौ दान, भूमि दान आदि कर  उसके शेष रहे संकल्पों, निश्चयों और कामनाओं की पुर्ति करके सुक्ष्म शरीर को बिदाई दी जाती है। और मान लिया जाता है कि सुक्ष्म शरीर नष्ट होगया।
द्वादशाह श्राद्ध में  घर पर आकर दशाह - एकादशाह कर्म की क्रियाओं के दृष्य की प्रतिकात्मक पुनरावृत्ति कर वैसे ही पिण्ड निर्माण कर पुनः उनको विसर्जित कर घर में बचे उस जीव की स्मृतियों, लगावों का विसर्जन कर कारण शरीर को बिदा कर दिया जाता है। और मान लिया जाता है कि, अब उस जीव का हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
तृयोदशाह कर्म में तो बारह दिनों से जारी शोक की निवृत्त करना एवम् बन्द हुए माङ्गलिक कार्य आरम्भ करनें के प्रतिक रूप मंगल श्राद्ध करते हैं, तथा तथा कथित पगड़ी रस्म के माध्यम से उत्तराधिकार घोषणा  की जाती है।
इसके बाद भी हमारी स्मृति में रहने के कारण स्पप्न आदि में दिखनें के कारण दो वर्ष तक यह माना जाता है कि,हम उसके प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं अतः मासिक कुम्भ, त्रेमासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक तथा द्विवार्षिक श्राद्ध कर पिण्डोदक आदि क्रियाओं के द्वारा यह आश्वस्त किया जाता है कि, हम आपको भूले नहीँ हैं। आपकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। कुआ, बावड़ी, तालाब, बगीचा, धर्मशाला निर्माण जैसी दिर्घकालिक योजनाओं की पुर्ति इन दो वर्षों में कर ली जाती है। फिर तीसरे वर्ष श्राद्ध तिथि में पुनः श्राद्ध कर यह मान लिया जाता है कि, अब वे देव रूप सप्त पितरः के रूप में हमारे द्वारा अर्पित नित्य श्राद्ध को ग्रहण कर सकेंगे। 
सत्य क्या है? --- अस्थि विसर्जन के पश्चात गृहशुद्धि यज्ञ के उपरान्त की जानें वाली उक्त सभी क्रियाएँ चन्द्रवंशियों , नागों, और आग्नेयों के साथ भारत में आई। और दुष्यन्त - शाकुन्तल चन्द्रवर्षिय सम्राट भरत के उत्तराधिकारी  महर्षि भारद्वाज नें वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में भारत में आरम्भ की।
बलिवैश्वदेव कर्म के साथ सप्त पितर और विश्वेदेवाः के निमित्त स्वधा अर्पण रूप नित्य श्राद्ध, तर्पण और शुभकार्यारम्भ के पहले होनें वाले नान्दिमुख सांकल्पिक श्राद्ध आदि गृह्य सुत्रों के अनुसार शोत्रिय विधि से की जानेंवाली क्रियाएँ वेदिक कर्म है।
 ऋग्वेद का वचन है कि, दस दिन में ही या अधिकतम ग्यारहवें दिन जीवात्मा और देही (प्राण) सहित अन्तरात्मा (प्रत्यगात्मा) , किसी भी योनि में प्रवेश कर लेता है यानि गर्भ में स्थापित हो जाता है।
स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् स्वीकार किया है कि, स्मृतियों और  पुराणों में वेदवाह्य और वेद विरुद्ध कई वचन निहित है। साथ ही मनिषियों के लिए स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् निर्देश दिये हैं कि स्मृतियों और  पुराणों में उल्लेखित केवल वेदिक मत और तथ्य ही स्वीकार किये जायें। वेद विरुद्ध और वेदवाह्य मत त्याज्य हैं।
अतः समय समय पर प्रविष्टि कुरीतियाँ त्यागी जाना ही उचित और धर्म है।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्राद्धकर्म का यथार्थ

अन्तरात्मा जैसे ही देह छोड़ती है।उसीके साथ ही जीवात्मा से लिङ्ग शरीर तक रहते हैं।
अतः अधिकतम दस दिन तक कारण शरीर, सुक्ष्म शरीर और लिङ्ग शरीर  ही प्राण / देही की देह रह पाती है। जिसके  आकार के कारण ही उस प्राणी / देही को पहचाना जासकता है । परिवार को झलक दिखलाने वाला लिङ्ग शरीर ही होता है। ऐसी कहानियाँ सुनी होगी कि,   ही  दुर्घटना में मरनें वाले व्यक्ति के परिवार वालों को  अपनी दुर्घटना सुचना देता है वह लिङ्ग शरीर ही होता है। 
सुक्ष्म शरीर स्वप्न और सम्मोहन में यात्रा करता है।और कारण शरीर केवल दृष्टाभाव से उस यात्री सुक्ष्मशरीर की पीठ और आँख भी देख पाता है।
इस लिङ्ग शरीर को देह के प्रति लगाव त्यागने के निर्देश देनें हेतु तिर्थ स्थान पर जाकर दशाह कर्म के अन्तर्गत विसर्जन से के उपरान्त अवशिष्ट अस्थी को देह मानकर उसका पुनः दाह कर अन्त्येष्टि की जाती है। दसवें की क्रियाओं से लिङ्ग शरीर नही रहा यह मान लिया जाता है।
एकादशाह में मृतक की अतृप्त इच्छाओं के के रहते आसक्ति समाप्त करनें हेतु ब्राह्मणों के लिए चाँवल का पिण्ड बनाकर उसके टुकड़े टुकड़े कर उसे इस जीवन की स्मृतियों की आसक्ति छोड़ने का सन्देश और  गौ दान, भूमि दान आदि कर  उसके शेष रहे संकल्पों, निश्चयों और कामनाओं की पुर्ति कर सुक्ष्म शरीर को बिदाई दी जाती है। और मान लिया जाता है कि सुक्ष्म शरीर नष्ट होगया।
द्वादशाह श्राद्ध में  घर पर आकर दशाह एकादशाह कर्म की क्रियाओं के दृष्य की प्रतिकात्मक पुनरावृत्ति कर  वैसे ही पिण्ड निर्माण कर पुनः उनको विसर्जित कर घर में बचे उस जीव की स्मृतियाँ, लगाव का विसर्जन कर कारण शरीर को बिदा कर दिया जाता है। और मानलिया जाता है कि, अब उस जीव का हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
तृयोदशाह कर्म में तो बारह दिनों से जारी शोक की निवृत्त कर बन्द हुए माङ्गलिक कार्य आरम्भ के प्रतिक रूप मंगल श्राद्ध, तथा तथा कथित पगड़ी रस्म के माध्यम से उत्तराधिकार घोषणा  की जाती है।
इसके बाद भी हमारी स्मृति में रहने के कारण स्पप्न आदि में दिखनें के कारण दो वर्ष तक यह माना जाता है कि,हम उसके प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं अतः मासिक कुम्भ, त्रेमासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक तथा द्विवार्षिक श्राद्ध कर पिण्डोदक आदि क्रियाओं के द्वारा यह आश्वस्त किया जाता है कि, हम आपको भूले नहीँ हैं। आपकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। कुआ, बावड़ी, तालाब, बगीचा, धर्मशाला निर्माण जैसी दिर्घकालिक योजनाओं की पुर्ति इन दो वर्षों में कर ली जाती है। फिर तीसरे वर्ष श्राद्ध तिथि में पुनः श्राद्ध कर यह मान लिया जाता है कि, अब वे देव रूप सप्त पितरः के रूप में हमारे द्वारा अर्पित नित्य श्राद्ध को ग्रहण कर सकेंगे। 
अस्थि विसर्जन उपरान्त गृहशुद्धि यज्ञ के उपरान्त की जानें वाली उक्त सभी क्रियाएँ चन्द्रवंशियों , नागों, और आग्नेयों के साथ भारत में आई। और दुष्यन्त - शाकुन्तल चन्द्रवर्षिय सम्राट भरत के उत्तराधिकारी  महर्षि भारद्वाज नें वैवस्वत मन्वन्तर में  आरम्भ की।
बलिवैश्वदेव कर्म के साथ सप्त पितर और विश्वेदेवाः के निमित्त स्वधा अर्पण रूप नित्य श्राद्ध, तर्पण और शुभकार्यारम्भ के पहले होनें वाले नान्दिमुख सांकल्पिक श्राद्ध आदि गृह्य सुत्रों के अनुसार शोत्रिय विधि से की जानेंवाली क्रियाएँ वेदिक कर्म है।
 ऋग्वेद का वचन है कि, दस दिन में ही या अधिकतम ग्यारहवें दिन जीवात्मा और देही (प्राण) सहित अन्तरात्मा (प्रत्यगात्मा) , किसी भी योनि में प्रवेश कर लेता है यानि गर्भ में स्थापित हो जाता है।
स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् स्वीकार किया है कि, स्मृतियों और  पुराणों में वेदवाह्य और वेद विरुद्ध कई वचन निहित है। साथ ही मनिषियों के लिए स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् निर्देश दिये हैं कि स्मृतियों और  पुराणों में उल्लेखित केवल वेदिक मत और तथ्य ही स्वीकार किये जायें। वेद विरुद्ध और वेदवाह्य मत त्याज्य हैं।
अतः समय समय पर प्रविष्टि कुरीतियाँ त्यागी जाना ही उचित और धर्म है।

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

चौदह भुवन की न्यायापालिका - धर्म, धर्मराज अर्थात यम और चित्रगुप्त।

ब्रह्मलोक, और वैकुण्ठ के भाग साकेत और गौलोक तथा वैकुण्ठ को छोड़कर 1 भूः , 2 भुवः,  3 स्वः,  4 महः, 5 जनः, 6 तपः,7 सत्यम् और सप्त अधोलोक--- 8 अतल , 9  वितल  ,10 सुतल , 11 रसातल  ,12  तलातल  , 13 महातल  और 14 पाताल नामक चौदह भुवन / चौदह लोक की न्यायापालिका धर्म, धर्मराज अर्थात यम और चित्रगुप्त हैं। 

धर्म, धर्मराज यम और चित्रगुप्त तीनों अलग अलग देवता हैं।

दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति का जोड़ा,मरीचि और धर्म तीनों ही  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे। 

प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति का जोड़ा  हुआ।
दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति की चौवीस कन्या सन्तान हुई।

धर्म नामक देवता प्रजापति  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र  हैं। दक्ष प्रथम और प्रसुति की चौवीस कन्याओं में से तेरह पुत्रियाँ धर्म की पत्नी हैं।

महर्षि मरीचि भी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे। प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र  दक्ष प्रथम और प्रसुति की पुत्री  सम्भूति का विवाह मरीचि से हुआ। मरीचि और उनकी पत्नी सम्भूति  के पुत्र महर्षि कश्यप हुए।  

प्रचेताओं के पुत्र  दक्ष (द्वितीय) की पत्नि असिक्नि की साठ पुत्रियों में से तेरह पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप से हुआ।
 महर्षि कश्यप नें केस्पियन सागर (कश्यप सागर) से कश्मीर तक कई स्थानों पर तप किया । 
महर्षि कश्यप नें कश्यप सागर से कश्मीर तक के भिन्न भिन्न स्थानों पर  अलग - अलग पत्नी से अलग अलग सन्ताने उत्पन्न की। ये सन्तानें विभिन्न प्रजातियों की आदि पुरुष कहलाई।

महर्षि कश्यप की इन सन्तानों से ही अलग अलग संस्कृतियाँ उत्पन्न हुई। इतिहास में ये सब सभ्यता/ संस्कृतियाँ सिथियन नाम से जानी जाती है।

कश्यप - अदिति के पुत्र द्वादश आदित्य  हुए। द्वादश आदित्यों में विवस्वान और विश्वकर्मा त्वष्टा भी हैं। विश्वकर्मा त्वष्टा और रचना की पुत्री सरण्यु  है।सरण्यु का विवाह विवस्वान से हुआ।

 विवस्वान और सरण्यु की सन्तान यम और यमी (यमुना नदी) हुई। तथा
विवस्वान और सरण्यु  के ही पुत्र श्राद्धदेव (सातवें और वर्तमान मनु) वैवस्वत मनु कहलाते हैं।उनकी की पत्नी श्रद्धा है।

सरण्यु की ही छाँया विवस्वान की दुसरी पत्नी  कही गई है। उनकी सन्तान  शनि और मान्दी (भद्रा) हैं। (कुछ स्थानों पर मान्दी और भद्रा अलग अलग मानी गई है।)

सरण्यु का ही तीसरा रूप अश्विनी के विवस्वान से  दस्र और नासत्य नामक दो पुत्र हुए जो अश्विनी कुमार कहलाते हैं।

यम, यमी (यमुना), शनि, मान्दी, भद्रा, दस्र और नासत्य ये सब वैवस्वत मन्वन्तर में जन्मी प्रथम सन्तान  कहलाते हैं।

दक्ष (द्वितीय) और असिक्नि  पुत्रीअदिति से महर्षि कश्यप की आठ सन्तान और हुई वे अष्टादित्य कहलाती है। 
इन अष्टादित्यों में से एक मार्तण्ड हमारे सुर्य देव हैं। मार्तण्ड के प्रकाश सेआलोकित लोक मृत्युलोक कहलाता है।
 मृत्यलोक के शासक को धर्मराज कहते हैं। जिनके पास राजदण्ड के रूप में  उनकी शक्ति मृत्यु रहती है।
यम की मृत्यु सर्वप्रथम हुई। मार्तण्ड नें सर्वप्रथम मरनें वाले यमराज को मृत्यु उपरान्त धर्मराज    के पद पर अभिषिक्त किया। अर्थात मृत्यलोक का शासक धर्मराज के पद पर नियुक्त किया। उनके सहायक चित्रगुप्त जी हैं।
इस प्रकार धर्म, धर्मराज (यम), और चित्रगुप्त तीनों अलग अलग देवता हैं।

यम धर्मराज के रूप में धर्मपुर्वक मृत्यलोक पर शासन करते हैं। उनकी शक्ति मृत्यु है। उनके वाहन का आकार प्रकार महिष (भेंसे) के समान है।

अष्टादश लोक ---

जितनी सृष्टि उतने ही आयाम  कहा जा सकता है। या ठीक इसका उलट जितनी सृष्टियाँ उतने आयाम भी कहा जा सकता है। 
जहाँ पिण्ड हो, भूतल  हो वह भुवन कहलाता है तथा जहाँ जीवन का आलोक होता है उसे लोक कहते हैं। सभी भुवन में लोक नही होते किन्तु सभी लोक किसी न किसी भुवन में ही होते है।
जैसे मृत्युलोक, भू में है। नागलोक अतल में बतलाया गया है।
एक ही सृष्टि में कई लोक हो सकते हैं।
जैसे हम जिस सृष्टि में रह रहे हैं उसमें ही सप्त उर्व लोक - 1 भूः , 2 भुवः,  3 स्वः,  4 महः, 5 जनः, 6 तपः,7 सत्यम्। ये भूः फिर भूमि से ध्रूव तारे की ओर आगे बढ़ते जाने पर आते जाते हैं। उक्त सप्त लोको के उर्ध्व ( उत्तर में) इन सप्त लोकों के अलावा  8 ब्रह्मलोक , 9 साकेत, 10 गोलोक, 11  वैकुण्ठ आदि लोक और भी है।
सप्त अधोलोक --- 1 अतल ,2 वितल  ,3 सुतल  ,4 तलातल  ,5 महातल  ,6 रसातल  और 7 पाताल।
सप्त उर्व लोक ---  1 भूः , 2 भुवः,  3 स्वः,  4 महः, 5 जनः, 6 तपः,7 सत्यम् और सप्त अधोलोक--- 8 अतल , 9  वितल  ,10 सुतल , 11 तलातल  ,12  महातल  , 13 रसातल  और 14 पाताल लोक हैं। इनके अलावा  15 ब्रह्मलोक , 16 साकेत, 17 गोलोक, 18  वैकुण्ठ आदि लोक और भी है। अतः कुल 18 लोक हुए।

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

पिशाच क्या होते हैं। मानवेत्तर योनि या मानव या दोनों?

*पिशाच योनि*

पिशाच और पिशाचिनियां, कर्ण पिशाचिनी, काम पिशाचिनी आदि भी होती हैं जिनकी साधनाओं का भी प्रचलन है। सिंहासन बत्तीसी में जो पुतलियां थीं वे सभी पिशाचिनी ही थीं। वेदों के अनुसार दैत्य और दानवों का विकृत रूप पिशाच हैं।   प्रेत (शव) भक्षक पिशाच वेताल कहलाते हैं।  ब्रह्मपुराण के अनुसार पिशाच लोगों को गंधर्व, गुह्मक और राक्षसों के समान ही 'देवयोनि विशेष' कहा गया है।
सामर्थ्य की दृष्टि से इन्हें इस क्रम में रखा गया है- गंधर्व, गुह्मक, राक्षस एवं पिशाच।
ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा देते हैं।
इनकी पूजा करने वाला इनके ही जैसा हो जाता है। 
पिशाच राक्षसों और मानवों के साथ और पितरों के विरोधी थे।  वैताल  प्रेत (शव) भक्षक  है।

*पिशाच जाती जो वर्तमान में पठान भी कहलाती है।*
पौराणिक सन्दर्भ ----
गृहीत्वा तु बलं फाल्गुन: पांडुनंदन: दरदान्‌ सह काम्बौजैरजयत्‌ पाकशासिनि:।' [महाभारत, सभापर्व, 27/ 23]
महाभारत के सभापर्व, 27/ 23 केअनुसार अर्जुन ने दिग्विजय यात्रा में दरद देश पर विजय प्राप्त की थी। इसी दरद देश में पिशाच जाती निवास करती थी। जो महाभारत युद्ध में पांडवों की ओर से लड़े थे। महाभारत में दरद के साथ ही काम्बोज (ताजिकिस्तान) का भी वर्णन आया है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि, यह दरद देश काम्बोज देश के निकट था। अर्थात किर्गिज़स्तान ही दरद देश हो सकता है। मार्कंडेय पुराण में वर्णित दरद प्रदेश उत्तरी कश्मीर और दक्षिणी रूस के सीमांत पर स्थित  गिलगित और यासीन का इलाका दर्दिस्थान कहलाता है इस दरद देश की राजधानी दरतपुरी थी। विष्णु पुराण में भी दरद देश का उल्लेख है। संस्कृत साहित्य में 'दरद' और 'दरत' दोनों ही रूप मिलते हैं। तथा टॉलमी तथा स्ट्रेबो ने भी दरदों का वर्णन किया है।
महाभारत, भीष्मपर्व, 50/50 के अनुसार--
द्रौपदेयाभिमन्युश्च सात्यकिश्च महारथ:,
पिशाचादारदाश्चैव पुंड्रा: कुंडीविषै: सह'।
 महाभारत के अनुसार पिशाच जाती अनार्य तथा असभ्य जातियों में से एक थी ।
कुछ विद्वानों ने 'दरिद्र' शब्द से 'दरद' से ही व्युत्पन्न माना है। और उनके अनुसार यह शब्द दरदवासियों की हीनदशा का द्योतक था।

मूल निवास और प्रवास ---

पिशाच रुस के केस्पियन सागर क्षेत्र ताजिकिस्तान  और चीन के शिंजियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र उइग़ुर ख़ाङ्नत आदि के सीमांत प्रदेश, ,ईरानी बलोचिस्तान के कजान ख़ानत या ख़ाङ्नत,  और खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्रों,अफगानिस्तान  का पाकिस्तान से लगा भाग नूरीस्तान ,पाकिस्तानी बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा,और  भारत के पश्चिमोत्तर  अर्थात आधूनिक नूरीस्तान के निवासी थे। इसी क्षेत्र में पिशाचों का दरद देश था। 

सांस्कृतिक इतिहासकार मानते हैं कि, जाता है कि,प्रजापति कश्यप के साथ आये भैरव उपासक शैव मतावलम्बी पिशाच लोग रूस के कैस्पियन क्षेत्र, अफगानिस्तान और  भारत के पश्चिमोत्तर, बलोचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्रों से अर्थात आधूनिक नूरीस्तान से आकर दक्ष प्रजापति (द्वितीय) के राज्य क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर, उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र),  कश्मीर, पंजाब और हरियाणा, सिंध नदी के कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान  में  बस गये थे। 
कश्यप पहले दक्ष प्रजापति (द्वितीय) के दमाद बने, बाद में प्रजापति भी बने| इतिहासकारों ने इस घटना का समय निर्धारण  लगभग 1700 ईसापूर्व किया है। अर्थात आजके 3700 वर्ष पहले। जो उचित नही लगता।
【सुचना --- स्वायम्भूव मन्वन्तर में यह भाग दक्ष प्रजापति का राज्य क्षेत्र था। चुँकि दक्ष प्रजापति द्वितीय भी लगभग इसी क्षेत्र के शासक रहे। दक्ष प्रजापति द्वितीय ने अपनी पुत्रियों का विवाह केस्पियन सागर क्षेत्र में तप करने वाले कश्यप ऋषि से कर दिया तो कश्यप ऋषि की सन्तान कश्मीर में बस गई। 】

अर्थात पिशाच पहले से  सिंध नदी के कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान , उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र),भारत के पश्चिमोत्तर में बस गये थे। 
आधुनिक पशाई कश्मीरी लोग संभवत: इन्हीं के वंशज हैं।
कर्नाटक के मैंगलूरु के कुछ पै या पाई ब्राह्मण लोग अपने आपको पैशाची लोगों का वंशज कहते हैं, इसी तरह ओडिसा के पाईक, आदिवासी पैगा या बैगा को भी पैशाची लोगों का वंशज कहते हैं।

धर्म और धार्मिक विचारधारा ---

पिशाच लोग इरानी मीढ संस्कृति के श्रमण उग्र शैव थे और शिव व भैरव के उपासक  थे| यह सम्प्रदाय भारत के नाथ सम्प्रदाय से मिलता जुलता है। उन्नीसवी सदी के अंत तक नूरिस्तानियों का धर्म भारत के नाथ पन्थ के समान भैरव उपासक रौद्र शैव मत के समान इरानी मीढ संस्कृति का अति-प्राचीन हिन्द-ईरानी धर्म था।पिशाच कबीलाई गणों मे रहते थे।गण’ या ‘घन’ का शब्द का बिगडा रूप है “घान” या ‘खान’ शब्द बना है। जो पठानों में आज तक प्रचलित है।

सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था ---

पिशाचों में क्षत्रप आधारित गणतंत्र का प्रचलन था
'क्षत्रप' शब्द का प्रयोग ईरान से शु्रू हुआ। यह राज्यों के मुखिया के लिए प्रयुक्त होता था। दारा (डेरियस या दरियुव्ह) के समय में राज्यपालों के लिए यह उपाधि प्रयुक्त होती थी। यही बाद में महाक्षत्रप कही जाने लगी। भारत में क्षत्रप शब्द आज भी राजनीति में प्रयोग किया जाता है।
 नूरिस्तान को इर्द-गिर्द के मुस्लिम इलाक़ों के लोग "काफ़िरिस्तान" के नाम से जानते थे क्योंकि ये नाथ सम्प्रदाय जैसे या ईरान की मीढ संस्कृति जैसे शैव धर्मी थे। सैंकड़ों-हज़ारों वर्षों तक यहाँ के लोग स्वतन्त्र रहे और यहाँ तक कि पंद्रहवी सदी के आक्रमणकारी तैमुरलंग को भी हरा दिया।
१८९५-९६ में अफ़्ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान ख़ान ने  आक्रमण कर के यहाँ क़ब्ज़ा जमा लिया और यहाँ के लोगों को मुस्लिम बनने पर विवश किया। उसी समय इस इलाक़े का नाम बदलकर 'नूरिस्तान' (यानि 'प्रकाश का स्थान') रख दिया गया।
【 पिशाच शब्द का ही रुपान्तरण पठान होगया।】

नूरिस्तान प्रान्त की सरहदें, जो कि अफगानिस्तान का एक भाग है, पाकिस्तान से लगती हैं। यहाँ के लगभग ९५% लोग नूरिस्तानी हैं।
नूरिस्तानी समुदाय पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के नूरिस्तान इलाक़े में रहने वाली एक जाती है। नूरिस्तान के लोग अपने सुनहरे बालों, हरी-नीली आँखों और गोरे रंग के लिए जाने जाते हैं।

पहले पिशाच भैरव उपासक शैवशाक्त सम्प्रदाय के मतावलम्बी थे और परम्परागत शैव शामनिक (Shamanic) (श्रमण) संस्कृति का पालन करते थे। परवर्ती काल मे पिशाचों में महायान बौद्ध धर्म अङ्गीकार कर लिया था।

【सुचना --- भाषाशास्त्र पर आधारित इस भाग में विकिपीडिया से मिली जानकरियों का भी समावेश हुआ है। 】
भाषा ---

पश्चिमी नृवंशशास्त्रियों (Western Anthropologist) द्वारा बाहरी पर्यवेक्षक की तरह मंगोलों, तुर्कों और इनके पडोस के तुंगुसी – समोयेड भाषा-परिवार (Tungusic and Samoyedic-speaking peoples) के लोगों धर्म के अध्ययन के समय पहली बार ‘शामनिक (श्रमण) संस्कृति’ शब्द का प्रयोग किया
शामनिक (Shamanic) (श्रमण) व्यवहार/ संस्कृति की मान्यता अनुसार वे समाधि में उतरकर अध्यात्म द्वारा पारलोकिक दैवीय शक्तियों को भूमि पर उतार लाते  है। (यह परम्परा बौद्धों में भी है। और थियोसोफिकल सोसायटी ने जे कृष्णमूर्ति पर भी यह प्रयोग किया था। जो असफल हो गया।)
शामन (Shaman) (श्रमण) समाधि अवस्था में शुभ आत्माओं अशुभ आत्माओं (पिशाचों) को वश में कर के अनुष्ठानों द्वारा इनसे भविष्य-कथन और चिकित्सा करते हैं।
शामन (Shaman) (श्रमण) शब्द उत्तरी एशिया के तुंगुसी – एवेंकी भाषा (Tungusic Evenki language of North Asia) से निकला है।
मिर्सिआ एलियादे (Mircea Eliade) ने लिखा है तुंगुसी – एवेंकी भाषा (Tungusic Evenki language of North Asia) से निकल कर संस्कृत में मिलता हुआ यह शब्द ‘श्रमण’ है। अर्थात चलते रहने वाले (wandering) जङ्गम साधुओं को श्रमण कहते है। श्रमण संस्कृति बौद्ध धर्म के साथ मध्य एशिया के कई देशों में पहूँची। 

इस देश के निवासियों की भाषा 'पैशाची' नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें प्रतिष्ठान, (पेठण) महाराष्ट्र निवासी गुणाढ्य की वृहत्‌कथा लिखी गयी थी। पैशाची को 'भूत भाषा' भी कहा गया है। महाभारत के अनुसार भी पैशाची/ भूत भाषा का क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश और पश्चिमी कश्मीर था। कहा जाता है कि गुणाढ़्य पिशाच देश (पश्चिमी कश्मीर) में प्रतिष्ठान से जाकर बसे थे।

बुरूशस्की भी पिशाच वर्ग की भाषा है। बुरुशस्की एक भाषा है जो पाक-अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र के उत्तरी भागों में बुरुशो समुदाय द्वारा बोली जाती है।
यह एक भाषा वियोजक (language isolate) है, यानि विश्व की किसी भी अन्य भाषा से इसका कोई ज्ञात जातीय सम्बन्ध नहीं है; और यह अपने भाषा-परिवार की एकमात्र ज्ञात भाषा है।
सन् २००० में इसे हुन्ज़ा-नगर ज़िले, गिलगित ज़िले के उत्तरी भाग और ग़िज़र ज़िले की यासीन व इश्कोमन घाटियों में लगभग ८७,००० लोग बुरूशस्की भाषा और बोली बोलते थे।
बुरूशस्की भाषा जम्मू और कश्मीर राज्य के श्रीनगर क्षेत्र में भी लगभग ३०० लोग बोलते हैं।

खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्र के शाहबाजगढी और मनसेहरा में सम्राट अशोक के शिलालेख खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में मिले हैं
पाकिस्तान के पंजाब में भी खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में शिलालेख मिले हैं
चीन के शिंजियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र उइग़ुर ख़ाङ्नत (Xinjiang Uyghur Autonomous Region) के खोतान में भी खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में शिलालेख मिले हैं

भारतीय भाषाओं और अफगानिस्तान का आपसी संबंध बहुत पुराना और एतिहासिक है।
अफगानिस्तान और बलुचिस्तान की एक पुरानी भाषा द्रविड़ परिवार की  ब्राहुई भाषा है।  कुछ भाषाशास्त्री इसे ब्राह्मी भाषा भी मानते हैं। किन्तु इसकी लिपि ब्राह्मी लिपि से भिन्न है।

निष्कर्ष ---
देवताओं, असुरों,दैत्यों, दानवों, यक्षों, गन्धर्वों, राक्षसों के के ही समान पिशाच भी एक योनि विशेष भी है और उनके द्वारा प्रेरित मानवीय संस्कृति भी है। 
जैसे कश्यप ऋषि की सन्तानों ने स्वर्गीय देवताओं द्वारा स्थापित प्रेरित संस्कृति पामिर, तिब्बत, कश्मीर में देेव संंस्कृति स्थापित की। बलुचिस्तान और अफगानिस्तान में गन्धर्वों ने गन्धर्व संस्कृति स्थापित की। असिरिया (इराक) में असुर संस्कृति स्थापित की। सिरिया में नागों ने सूर संस्कृति स्थापित की। गर्डेशिया में गरुड़ ने गारुड़ी संस्कृति स्थापित की। पुर्वी चीन में यक्षों ने (सर्वभक्षी थुलथुले शरीर वाली) यक्ष संस्कृति स्थापित की मिश्र और सिनाई , लेबनान के आसपास दैत्यों ने दैत्य संस्कृति स्थापित की। डेन्यूब नदी के आसपास युगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, से जर्मनी तक के क्षेत्रों में दानवों ने दानवी संस्कृति स्थापित की। और अफ्रीका और अमेरिका महाद्वीप (बोलिविया) में राक्षसों ने रक्षाकरनें वाली राक्षस संस्कृति स्थापित की जिसे रावण नें क्रुरता का पाठ पढ़ाकर पथभ्रष्ट करदिया।

शनिवार, 25 जुलाई 2020

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

भारतीय दर्शन वेदिक तत्वमीमान्सा पर आधारित है।  इसलिए इस विषय को समझनें के लिये कुछ गुढ़ तत्वों की मीमान्सा की जारही है। ताकि, सन्देह दूर हो और भ्रम निवारण हो।

श्वेताश्वतरोपनिषद  के तीसरे अध्याय का बीसवाँ मन्त्र है। और कठोपनिषद  प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली का बीसवाँ मन्त्र--
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।
इसका अर्थ है-- 

इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) की महिमा (महत्ता) को उस प्रज्ञात्मा या प्रज्ञानात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामना रहित पुरुष जानता है कि,   जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है ऐसे जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) को जान पाते हैं।

स्पष्टीकरण ---
जन्तु यानि जीवधारी।
गुहा अर्थात बुद्धिगुहा का केन्द्र चित्त ।
निहित अर्थात रहने वाला 
 जन्तोर्निहित --  सृष्टि का प्रथम देहधारी तत्व प्रज्ञानात्मा है। परमात्मा और  विश्वात्मा ॐ देहान्तर्गत नही आते अतः प्रज्ञानात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है। 
अणोरणीयान्  अर्थात इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान आदि का भी कारण होने से  सुक्ष्मातिसुक्ष्म है अतःअणोरणीयान्  कहा है।
महतो महीयान् जीवात्मा --  अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यागात्मा ब्रह्म होता है इस कारण इसे बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा दोनों मिलकर  महा बड़ा होने से ब्रह्म कहते हैं ;जिससे  आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। प्रत्यागात्मा ब्रह्म से भी अति परे होने से  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को परब्रह्म  कहते हैं ।  अतः महतो महीयान् कहा है।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं तथा शरीरान्तर्वर्ती भी नही अतः उन्हे धारणकर्ता  नही कहा जा सकता।  अतः  प्रज्ञानात्मा को ही जीवनधारक या जीवन को धारण करने वाला कहा जा सकता है।
अक्रत -- क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाले को अक्रत कहते हैं।क्योंकि, वह ज्ञानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही क्रिया कहते है।  अतः उसे अक्रत कहा गया हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं। क्योंकि, वह किसी भी क्रिया में अपना अहंकार और संकल्प नही जोड़ता।
वीतवोक -- जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
 वे ही देखपाते है अर्थात   वे ही जान पाते है। 
ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।

भारतीय वेदिक दर्शनानुसार सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।
अतः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
श्वेताश्वतरोपनिषद 03/20 और कठोपनिषद 01/02/20 
मन्त्र से सिद्ध हुआ कि,
इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  
जैसे विज्ञान की दृष्टि से उर्जा को भी आप केवल सुक्ष्म या केवल विराट नही कहा जा सकता ऐसे ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सबसे बड़ा दोनों है।  यह स्पष्ट किया गया है कि, प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा न केवल शरीरान्तर्वर्ती है अपितु समस्त शरीर भी प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा के अन्तर्वर्ती हैं। अतः यह नही कहा जा सकता कि पैड़ पौधों में हृदय या मस्तिष्क नही होता तो आत्मा कहाँ रहेगी। यह भी कहना गलत सिद्ध होजायेगा कि, हृदय या मस्तिष्क के प्रत्यारोपण होनें से आत्मा का भी प्रत्यारोपण होजायेगा। या कृत्रिम हृदय या कृत्रिम मस्तिष्क लगादिया अतः आत्मा कैसे होगी? यह सभी प्रश्न खारिज हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा हर कण में है और हर चीज आत्मा में है। क्योंकि मूलतः सब पदार्थ ,दिक, काल,  इलेक्ट्रॉन ,फोटान, आदि सभी सुक्ष्मतर कण भी आत्मा का ही रुपान्तरण मात्र हैं।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02 भी अवलोकनीय हैं।
तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति।। छान्दोग्योपनिषद  06/03/ 01 

अर्थ -- इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं --  प्रथम- आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज, 
द्वितीय - जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और
तृतीय-  उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न।  01
(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र  02

अर्थ -- उस  ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।02

अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा अपरब्रह्म, (विराट)  रहता ही है।
इसी प्रकार जड़ पदार्थों में भी भूतात्मा (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा)  रहता है। इसलिए इन्हे भूतमात्र और भूताप्राणी भी कहते है।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 
ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

अर्थ -- तीन बार नचिकेता अग्नि चयनकर्ता पञ्चाग्निसेवी  आत्मज्ञ, ब्रह्मवेत्ता ,परमगति को प्राप्त धीर पुरुष यह कहते हैं कि,---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (ब्रह्म)  और  प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा  (परब्रह्म) (रहते) हैं।

स्पष्टीकरण ---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक  अर्थात (देश, कुटुम्ब,परिवार और योनि तथा देह  या प्रकारान्तर से मानव देह ।
 परम परार्ध  गुहा में अर्थात अंगुष्ठ प्रमाण पुरुष रूपी बुद्धि आकाश के केन्द्र  चित्त में।
ऋत का पान करने वाले अर्थात परम सत्य परमेश्वरीय विधि को ऋत कहते है इस ऋत का पालन करने वाले।
छाँया और धूप के समान  अर्थात दो विपरीत प्रकृति वाले पुरुष या वेदान्त की भाषा में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अर्थात अध्यात्मिक दृष्टि से  प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) तथा अध्यात्मिक दृष्टि से   प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा (परम दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  परब्रह्म  (विष्णु - माया) ।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष पर रहते हैं।अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा / अन्तरात्मा  (ब्रह्म)  पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा   (परब्रह्म)   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।

स्पष्टीकरण ---
 दो पक्षी यानी   प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ये दो पक्षी है।
 मित्रता पुर्वक एक ही (पिप्पल) वृक्ष का आश्रय लेकर  अर्थात एक ही शरीर में (रहते हैं)।
उनमें से प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा  (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री)  तो पिप्पल वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है  यानि कर्मफल भोगकरता है। 【तथा अन्य अर्थ में गुणों के सङ्ग के कारण गुण सङ्गानुसार विभिन्न योनियों में प्रवेश करता है।】वहीँ
दुसरा पक्षी अर्थात प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है। 
अर्थात स्वार्थ (स्वयम् के लिये) कर्म न करता है। अतः कर्मफल भोगता भी नही है बल्कि केवल दृष्टा है।

मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/मन्त्र 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 07

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर अर्थात आत्मसंयम आत्म नियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म की महिमा को देखता है तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।

स्पष्टीकरण ---
 समान वृक्ष पर अर्थात शरीर में।
अनीश होकर  अर्थात आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण  ईशित्व रहित होकर।
 गुह्यमान अर्थात मोहित होकर अर्थात अनात्मा में आत्मभाव होने से  गलत को ही सही मानने के कारण मोहित होना ।
शोचनीय अवस्था अर्थात दुरावस्था ।
महिमा अर्थात महत्ता (को देखता है ।)
वीतशोक  अर्थात शोकरहित । यानि आनन्दित रहना।
जुष्ट अर्थात जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
जब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  की महिमा देखता है तब संसर्ग के प्रभाव से शोकरहित हो जाता है अर्थात आनन्द का अनुभव करता है और तब  प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
अब वह अनुभव करता है कि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।  

सुचना --- यहाँ जुष्ट शब्द का अर्थ क्रिया विशेषण रूप में अर्थ जुड़ना किया गया है। जबकि अधिकांशतः जुष्ट शब्द का संज्ञारूप अर्थ जुठा / जुठन यानि उच्चिष्ठ के अर्थ में किया जाता है। जबकि यहाँ उच्चिष्ठ की कोई सार्थकता नही है। भक्तों द्वारा नित्य सेवित अर्थ भी किया गया। लेकिन इस स्थान पर सेवित शब्द भी सार्थक नही है। अतः उचित अर्थ युक्त होना या जुड़जाना ही लगता है।

  श्रीमद्भगवद्गीता में 13 / 22  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को  उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है; 
ऐसा कहा गया है। जिज्ञासु संशय में पड़ जाता है कि, परमात्मा कर्ता और भोक्ता कैसे हो सकता है। इस प्रश्न को हल करने का प्रयत्न किया जा रहा है--
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है;  मन्त्र का अर्थ समझनें के लिए इसी क्षेत्र क्षेत्रज्ञ प्रकरण के मन्त्रों को समझना होगा। अतः

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 मन्त्र 19, 20, 21 और 22 को क्रमशः समझते हैं।

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।19

(प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा) परम पुरुष और पराप्रकृति दोनों को ही अनादि जान और  विकारों और (सत्वरज और तम) गुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान।19

स्पष्टीकरण -- प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि हैं । इस स्वरूपमें स्थित पुरुष स्वतः विश्वात्मा ॐ और फिर परमात्मा में स्थित होजाता है। अर्थात 
परम पुरुष विष्णु और पराप्रकृति अर्थात विष्णु की माया दोनों ही अनादि है। शक्ति सदैव शक्तिमान के साथ ही रहती है । विष्णु अनादि हैं तो माया भी अनादि ही कही जायेगी।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते। 20

(पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुत रूपी) कार्य , (दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय रूपी) करण, और  कर्तृत्व  की हेतु प्रकृति कही जाती है। तथा सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का  हेतु पुरुष को कहा जाता है।20

स्पष्टीकरण ---
 पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुतों को कार्य कहते हैं। शब्द, स्पर्ष, रुप, रस और गन्ध तन्मात्रा से ही कृमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि (पृथ्वी) महाभूत उत्पन्न हुए। ये दसों प्रकृति के कार्य कहलाते हैं।
श्रोत (कान), त्वक (त्वचा),नैत्र, रसना (जीव्हा), नाक ये पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक (कण्ठ), हस्त, पाद (पैर), उपस्थ (शिष्ण या भग लिङ्ग) और पायु (गुदा) ये पञ्च कर्मेन्द्रियाँ हैं। कुल मिलाकर  दसों इन्द्रियाँ बहिर्करण कहलाती हैं , और चित्त,बुद्धि,अहंकार और मन ये अन्तःकरण चतुष्टय कहलाते हैं। बहिर्करण और अन्तःकरण मिलकर  इन सब चौदहों को करण कहते है। करण  क्रियाओं में सहायक होते हैं।
 जैसे उपकरण यानि औजार  कार्य करनें में शरीर को विशेषकर हाथों को बाहर से सहायक होते है वैसे ही ये करण देहिक ,  मान्सिक और बौद्धिक क्रियाओं में आन्तरिक सहायक होते हैं इसलिये ये करण कहलाते हैं।
कर्तृत्व  यानि कर्तापन
प्रकृति इन तीनों की हेतु कही जाती है।
 सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का हेतु पुरुष को कहा जाता है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु। 21 

 प्रकृतिस्थ पुरुष यानि मायाश्रित पुरुष अर्थात प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष- प्रकृति) वाला पुरुष या प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।21

स्पष्टीकरण ---
प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।

जिसप्रकार अतिसंग्रहकर्ता जमाखोर के प्रति भारत शासन दण्डात्मक कार्रवाई करता है वैसे ही परमेश्वर भी हमारी सरकार के रूप में जमाखोरों को (परिग्रही को) दण्ड देते हैं।
हिन्सा, मिथ्याचार, लोभ, चोरी, नारी के प्रति अभद्रता, परिग्रह, अपवित्रता, गन्दगी फैलाना, कृतघ्नता, मक्कारी, अनुचित चिन्तन,ईश्वर के प्रति अभिमान, अधीरता, आदि के मान्सिक कर्मों का दण्ड भारत शासन नही देपाता किन्तु वह परम शासक तो अविलम्ब आपके संस्कारों में उन कर्मों को भी जोड़ ही देते हैं। और तदनुसार आपके क्लेश, भय आदि रुपों में तत्काल फल भी मिलजाता है।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।22

इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

स्पष्टीकरण -
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

 *उपदृष्टा* मतलब जो सर्वाधिक निकटता से देखता है।
 *अनुमन्ता* मतलब जिसकी अनुमति के बिना इस जगत में कोई क्रिया नही होती। समस्त क्रियाएँ उसके संकल्प के अनुरूप हो चुकी है जिसका साक्षात्कार हम कर रहे हैं। केवल हमारे अनुभव में अब आ रही है। इसीकारण कोई ध्यानावस्था में कोई तन्द्रा में कोई स्वप्न में और कोई किसी घटना होने के शकुन के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं जैसे रामचरितमानस में कहती है लंकिनी ने विकल होय ते कपि के मारे , तो जानो निशिचर संहारे ।
 तो कोई होराशास्त्र के आधार पर  जातक या ताजिक  या सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी कर पाते हैं। वस्तुतः उन शास्त्रियों के द्वारा वह परमात्मा के संकल्प अनुसार भविष्य में प्रत्यक्ष होनेवाली घटनाओं की  भविष्यवाणी करते है। 

प्रकृति के गुणों का परस्पर संयोजन और बर्ताव से हुई  क्रियाओं के साथ हम अपनी अहन्ता ममता और संकल्प जोड़ लेते हैं इस कारण उन क्रियाओं मे  हम जिस आशय  और  जिस उद्देश्य की पुर्ती के लिये स्वयम द्वारा किया गया मानलेते हैं वह हमारा कर्म कहलाता है।  मतलब क्रियाएँ कर्म नही है। बल्कि क्रियाओं के साथ हमारे द्वारा जोड़ेगये आषय और उद्देश्य निर्धारित करते हैं कि क्या कर्म हुआ है।
जैसे रहीमदास जी ने कहा कि, मरीजाऊँ माँगूँ नही अपने तन के काज, परमारथ के कारणे मोहि न आवे लाज।
यहाँ स्वयम् के लिये माँगना भिक्षावृत्ति है। भिक्षाटन है।जबतक अपरिहार्य परिस्थिति न हो तबतक स्वयम् के लिये माँगना पाप है। जबकि परमार्थ समाज का सहयोग लेना , किसी सत्कार्य में सभी का योगदान लेना पुण्यकर्म है।
ऐसे ही कुछ विद्यार्थी समझने के उद्देश्य से  पढते हैं। वे अध्यैता कहलाते हैं। तो कोई रट्टु परीक्षा तक याद करनें के लिये ही पढ़ता है।  और कोई लोभी केवल परीक्षा में उत्तर  लिखकर अच्छे अंक प्राप्त्यर्थ ही पढ़ाई करते हैं। 
महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल,  चन्द्रशेखर, भगतसिंह शहीद कहलाते हैं क्योंकि,क्रान्तिकारी कार्यक्रम  उनका कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य नही था। ये क्रान्तिकारी उर्ध्वलोकों के अधिकारी हुए।
चम्बल के बागी आदि डाकु कहलाये। ये पुनर्जन्म लेकर दण्डभोग के अधिकारी हुए।
और वर्तमान आतंकवादी सबकी घ्रणा के पात्र आतंकी कहलाते हैं। ये नीचे के अन्धतम लोकों के अधिकारी हुए।

तीनों की क्रियाओं कोई अन्तर नही है। पर कर्म एकदम भिन्न है।
शहीद उच्चतम लोकों को प्राप्ति के अधिकारी हुए। डाकु निम्न योनियों में जन्म के पात्र हुए। क्योंकि एकतो वे केवल बदले की भावना से किसी को दण्ड देनें के लिए बागी हुए। लूट में भी नैतिकता के आदर्शों का पालन करते थे।और लूट से प्राप्त धन जनकल्याण में निवेश भी करते थे।
और आतंकी  निम्नतम अन्धतम  लोकों के अधिकारी हुए।क्यों कि ये नृशन्स- बर्बर होते हैं। और इनका लक्ष्य भी हड़प नीति है।

किन्तु परमात्मा के ॐ संकल्प  में सर्व कल्याण ही निहित है। उनकी स्वाभाविक लीला है।इसे ही ऋत कहते हैं ऋत को जाने बिना मौक्ष नही होता। ऋते ज्ञानान्मुक्ति।
 उसी ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही आजतक जो हो रहा है और भविष्य में भी जो होगा वह प्रभु की लीला मात्र है। उसे भ्रमवश हम अपना कर्म मानते हैं या कर्मफल भोग मान लेते हैं।
इसी ॐ संकल्प को आगे बढ़ाते हुए ही समस्त देव और देवता अपने अपने  शिवसंकल्प के अन्तर्गत ही कर्मकरते रहते हैं। उसमें उनका अपना कोई कर्म नही है।  उनके कर्म ऋत के अनुकूल ही भावना रखकर किये जाते हैं। इसी लिए  परमात्मा के परब्रह्म स्वरूप में विष्णु और माया के परमेश्वर स्वरूप में नियत व्यवस्था के अन्तर्गत विष्णु के शासन के पदाधिकारी देवता गण है। सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, आदित्य ,वसु , रुद्र आदि  जो कुछ करते हैं वह.सबकुछ  कृते परमेश्वर विष्णु परमपद ही करते हैं। अर्थात परमेश्वर विष्णु परमपद के निमित्त ही होता है। देवता लोग परमेश्वर विष्णु के लिए, परमेश्वर विष्णु की सेवा कार्यही करते हैं। अर्थात यज्ञ ही करते हैं। 
 इसलिए वह परब्रह्म प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष विष्णु और उनकी माया परा प्रकृति) को अनुमन्ता कहलाता है।

 *भर्ता*  अर्थात पालक, पालनहार, भरण- पोषण करनें वाला, संचालक, अर्थात वह भी ऋत के अन्तर्गत कर्म करते हैं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण नें श्रीमद्भगवद्गीता में विष्णु के बीहाफ पर कही है कि, यदि मैं निष्करर्मण्य (निठल्ला) हो जाऊँ तो मेरा ही अनुसरण करके सम्पूर्ण जगत निठल्ला हो जायेगा। अतः मेरे समान सभी को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिए न कि, स्वार्थपूर्ति हेतु।

 *भोक्ता* अर्थात यज्ञभोक्ता। सर्वदेव नमस्कारं केशवम् प्रतिगच्छति। किसी के प्रति जिस किसी भाव (आषय और उद्देष्य) से कियागया कर्म उसी रूप में परब्रह्मप्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा, परम पुरुष, विष्णु परमपद, परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। 
हमारे द्वारा दिया गया दानभी उन्हे ही मिलता है तो हम यदि किसी का हक भी छीनते हैं तो वह भी उन्हे ही लूटते हैं। अर्थात हमारे द्वारा सर्वजन हिताय कर्म अर्थात यज्ञ को भोगने वाले श्री विष्णु ही हैं।

यह सब इसी लिए क्योंकि, हमारे मूल स्वरुप प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा परब्रह्म रूप में वही तो भोक्ता भी है। किन्तु चुँकि उसके किसी कर्म में कोई स्वार्थ निहित नही होता, कोई अहन्ता- ममता नही होती इस कारण उसके कोई नीजी भोग भी नही होते।

सभीने सुना होगा जबतक जगत का प्रत्यैक प्राणी भोजन ग्रहण नही करलेता , तृप्त नही हो जाता तबतक भगवान विष्णु भोजन ग्रहण नही करते।

अर्थात भगवान के समक्ष भोग रखकर नैवेद्य अर्पित करना ही पर्याप्त नही है बल्कि  बलिवैश्वदेव कर्म द्वारा हमसे सम्बन्धित समस्त जन्तु, वनस्पति,जड़- चेतन, दृष्य अदृष्य सभी भूतप्राणियों को भोजन अर्पित कर तृप्त कराये जाने के पश्चात ही भगवान हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य भोग ग्रहण करते हैं। और इस यज्ञ से बचाहुआ अन्न ही पोषण प्रदान करता है। अन्यथा इसके बिना तो वह चोरी का अन्न विष ही है।

ऐसा है परब्रह्म का भोग।

 *महेश्वर* मतलब ईश्वरों का भी ईश्वर महा ईश्वर। 
 *ईश्वरत्व* -- -  इसको ऐसे समझा जासकता है---

*ईश्वर* तो भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा , महादिक (प्राण-चेतना/ देही- अवस्था / धृति - धारयित्व) भी हैं। यह प्रथम पुर्ण साकार दीर्घवृत्तीय गोलाकार यानि अण्डाकार किन्तु ठोस, दृव गेस, प्लाज्मादि अवस्थाओं से परे है। 
 *जगदीश*   -   जीवात्मा अपरब्रह्म /विराट, महाकाल,  (अपर पुरुष - जीव/ नारायण- श्री लक्ष्मी/ आयु- त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति) *जगदीश्वर*  हैं। 
यह स्वरूप तरङ्गाकार रूप में प्रथम साकार और महाकाल है। यह सृष्टि / जगत का अचल केन्द्र स्वरूप है।   वृत्ताकार फीते से निर्मित, आपस में कहीँ काट (क्रास) नही हो ऐसे अंग्रेजी के 8 के समान परिपथ में इसी की परिक्रमा हिरण्गर्भ करते हैं।
 *महेश्वर* प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म,विधाता, महाकाश , (पुरुष,/सवितृ,/श्रीहरि - कमला/ सावित्री/ प्रकृति)  महेश्वर हैं। 
यह स्वरूप सर्वगुणसम्पन्न है।किन्तु कालातीत है।
और
 *परमेश्वर*  - प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म   (परमपुष/ विष्णु- माया/ पराप्रकृति) परमेश्वर हैं।
 प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म प्रथम / अन्तिम सगुण स्वरूप है।जिसमे  ॐ तत्सत;   सच्चिदानन्द;   सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम्  ब्रह्म;   सत्यम् शिवम् सुन्दरम्;  अनादिमत्पर ब्रह्म,न सतन्नासदुच्चते श्रीमद्भगवद्गीता 13/12 ऐसे सिमित गुण ही हैं। मूलतः तो यह स्वरूप भी लगभग गुणातीत ही है।
जबकि विश्वात्मा ॐ और परमात्मा तो गुणातीत हैं।

 *परमात्मा* समस्त सृष्टियों में जो कुछ होरहा था, है और होगा। सोचा जा रहा था, है और होगा। बोला जा रहा था, है और होगा।जो नही हो रहा था, है और होगा।जो नही सोचा जा रहा था, है और होगा। जो नही बोला जा रहा है वह सब परमात्मा के बारेमें ही है। फिर भी परमात्मा के बारेमें नही के बराबर ही सोचा,बोला और किया जा सका है। अतः परमात्मा को केवल परमात्मा होकर ही जाना समझा जा सकता है। वही सबकछ है और सबकछ वही है। बस न इति न इति, नेति नेति।
परमात्मा में स्थित होने का साधन -- चुँकि कोई भी व्यक्ति पञ्चमहायज्ञों जिसमें अष्टाङ्गयोग और जप-तप आदि ब्रह्मयज्ञ में निहित ही है उन पञ्चमहायज्ञों  के माध्यम से और स्वयम् को परमात्मा के अर्पित कर, सदेव अविरत सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण- उत्सर्जन करते हुए भी हरिनामस्मरण  सदैव जगत्सेवा में तत्पर रहकर यानि बुद्धियोग के माध्यम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर  गुरुमुख से वेदश्रवण कर चिन्तन मनन उपरान्त प्रभु कृपा से गुरु मुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण करते ही अहम्ब्रह्मास्मि , सर्वखल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानम्ब्रह्म का बोध होने पर अपने प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा स्वरूप में स्थित होता है। यहाँ पहूँच कर गति समाप्त होजाती है। अतः इस अवस्था को परमगति कहते हैं। इसके उपरान्त विश्वात्मा ॐ और परमात्मा स्वरूपों में तो स्वतः स्थित हो जाता है।
ॐ तत्सत।इति।