शनिवार, 25 जुलाई 2020

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

भारतीय दर्शन वेदिक तत्वमीमान्सा पर आधारित है।  इसलिए इस विषय को समझनें के लिये कुछ गुढ़ तत्वों की मीमान्सा की जारही है। ताकि, सन्देह दूर हो और भ्रम निवारण हो।

श्वेताश्वतरोपनिषद  के तीसरे अध्याय का बीसवाँ मन्त्र है। और कठोपनिषद  प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली का बीसवाँ मन्त्र--
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।
इसका अर्थ है-- 

इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) की महिमा (महत्ता) को उस प्रज्ञात्मा या प्रज्ञानात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामना रहित पुरुष जानता है कि,   जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है ऐसे जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) को जान पाते हैं।

स्पष्टीकरण ---
जन्तु यानि जीवधारी।
गुहा अर्थात बुद्धिगुहा का केन्द्र चित्त ।
निहित अर्थात रहने वाला 
 जन्तोर्निहित --  सृष्टि का प्रथम देहधारी तत्व प्रज्ञानात्मा है। परमात्मा और  विश्वात्मा ॐ देहान्तर्गत नही आते अतः प्रज्ञानात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है। 
अणोरणीयान्  अर्थात इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान आदि का भी कारण होने से  सुक्ष्मातिसुक्ष्म है अतःअणोरणीयान्  कहा है।
महतो महीयान् जीवात्मा --  अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यागात्मा ब्रह्म होता है इस कारण इसे बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा दोनों मिलकर  महा बड़ा होने से ब्रह्म कहते हैं ;जिससे  आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। प्रत्यागात्मा ब्रह्म से भी अति परे होने से  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को परब्रह्म  कहते हैं ।  अतः महतो महीयान् कहा है।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं तथा शरीरान्तर्वर्ती भी नही अतः उन्हे धारणकर्ता  नही कहा जा सकता।  अतः  प्रज्ञानात्मा को ही जीवनधारक या जीवन को धारण करने वाला कहा जा सकता है।
अक्रत -- क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाले को अक्रत कहते हैं।क्योंकि, वह ज्ञानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही क्रिया कहते है।  अतः उसे अक्रत कहा गया हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं। क्योंकि, वह किसी भी क्रिया में अपना अहंकार और संकल्प नही जोड़ता।
वीतवोक -- जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
 वे ही देखपाते है अर्थात   वे ही जान पाते है। 
ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।

भारतीय वेदिक दर्शनानुसार सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।
अतः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
श्वेताश्वतरोपनिषद 03/20 और कठोपनिषद 01/02/20 
मन्त्र से सिद्ध हुआ कि,
इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  
जैसे विज्ञान की दृष्टि से उर्जा को भी आप केवल सुक्ष्म या केवल विराट नही कहा जा सकता ऐसे ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सबसे बड़ा दोनों है।  यह स्पष्ट किया गया है कि, प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा न केवल शरीरान्तर्वर्ती है अपितु समस्त शरीर भी प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा के अन्तर्वर्ती हैं। अतः यह नही कहा जा सकता कि पैड़ पौधों में हृदय या मस्तिष्क नही होता तो आत्मा कहाँ रहेगी। यह भी कहना गलत सिद्ध होजायेगा कि, हृदय या मस्तिष्क के प्रत्यारोपण होनें से आत्मा का भी प्रत्यारोपण होजायेगा। या कृत्रिम हृदय या कृत्रिम मस्तिष्क लगादिया अतः आत्मा कैसे होगी? यह सभी प्रश्न खारिज हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा हर कण में है और हर चीज आत्मा में है। क्योंकि मूलतः सब पदार्थ ,दिक, काल,  इलेक्ट्रॉन ,फोटान, आदि सभी सुक्ष्मतर कण भी आत्मा का ही रुपान्तरण मात्र हैं।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02 भी अवलोकनीय हैं।
तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति।। छान्दोग्योपनिषद  06/03/ 01 

अर्थ -- इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं --  प्रथम- आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज, 
द्वितीय - जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और
तृतीय-  उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न।  01
(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र  02

अर्थ -- उस  ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।02

अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा अपरब्रह्म, (विराट)  रहता ही है।
इसी प्रकार जड़ पदार्थों में भी भूतात्मा (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा)  रहता है। इसलिए इन्हे भूतमात्र और भूताप्राणी भी कहते है।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 
ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

अर्थ -- तीन बार नचिकेता अग्नि चयनकर्ता पञ्चाग्निसेवी  आत्मज्ञ, ब्रह्मवेत्ता ,परमगति को प्राप्त धीर पुरुष यह कहते हैं कि,---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (ब्रह्म)  और  प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा  (परब्रह्म) (रहते) हैं।

स्पष्टीकरण ---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक  अर्थात (देश, कुटुम्ब,परिवार और योनि तथा देह  या प्रकारान्तर से मानव देह ।
 परम परार्ध  गुहा में अर्थात अंगुष्ठ प्रमाण पुरुष रूपी बुद्धि आकाश के केन्द्र  चित्त में।
ऋत का पान करने वाले अर्थात परम सत्य परमेश्वरीय विधि को ऋत कहते है इस ऋत का पालन करने वाले।
छाँया और धूप के समान  अर्थात दो विपरीत प्रकृति वाले पुरुष या वेदान्त की भाषा में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अर्थात अध्यात्मिक दृष्टि से  प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) तथा अध्यात्मिक दृष्टि से   प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा (परम दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  परब्रह्म  (विष्णु - माया) ।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष पर रहते हैं।अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा / अन्तरात्मा  (ब्रह्म)  पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा   (परब्रह्म)   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।

स्पष्टीकरण ---
 दो पक्षी यानी   प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ये दो पक्षी है।
 मित्रता पुर्वक एक ही (पिप्पल) वृक्ष का आश्रय लेकर  अर्थात एक ही शरीर में (रहते हैं)।
उनमें से प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा  (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री)  तो पिप्पल वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है  यानि कर्मफल भोगकरता है। 【तथा अन्य अर्थ में गुणों के सङ्ग के कारण गुण सङ्गानुसार विभिन्न योनियों में प्रवेश करता है।】वहीँ
दुसरा पक्षी अर्थात प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है। 
अर्थात स्वार्थ (स्वयम् के लिये) कर्म न करता है। अतः कर्मफल भोगता भी नही है बल्कि केवल दृष्टा है।

मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/मन्त्र 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 07

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर अर्थात आत्मसंयम आत्म नियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म की महिमा को देखता है तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।

स्पष्टीकरण ---
 समान वृक्ष पर अर्थात शरीर में।
अनीश होकर  अर्थात आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण  ईशित्व रहित होकर।
 गुह्यमान अर्थात मोहित होकर अर्थात अनात्मा में आत्मभाव होने से  गलत को ही सही मानने के कारण मोहित होना ।
शोचनीय अवस्था अर्थात दुरावस्था ।
महिमा अर्थात महत्ता (को देखता है ।)
वीतशोक  अर्थात शोकरहित । यानि आनन्दित रहना।
जुष्ट अर्थात जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
जब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  की महिमा देखता है तब संसर्ग के प्रभाव से शोकरहित हो जाता है अर्थात आनन्द का अनुभव करता है और तब  प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
अब वह अनुभव करता है कि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।  

सुचना --- यहाँ जुष्ट शब्द का अर्थ क्रिया विशेषण रूप में अर्थ जुड़ना किया गया है। जबकि अधिकांशतः जुष्ट शब्द का संज्ञारूप अर्थ जुठा / जुठन यानि उच्चिष्ठ के अर्थ में किया जाता है। जबकि यहाँ उच्चिष्ठ की कोई सार्थकता नही है। भक्तों द्वारा नित्य सेवित अर्थ भी किया गया। लेकिन इस स्थान पर सेवित शब्द भी सार्थक नही है। अतः उचित अर्थ युक्त होना या जुड़जाना ही लगता है।

  श्रीमद्भगवद्गीता में 13 / 22  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को  उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है; 
ऐसा कहा गया है। जिज्ञासु संशय में पड़ जाता है कि, परमात्मा कर्ता और भोक्ता कैसे हो सकता है। इस प्रश्न को हल करने का प्रयत्न किया जा रहा है--
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है;  मन्त्र का अर्थ समझनें के लिए इसी क्षेत्र क्षेत्रज्ञ प्रकरण के मन्त्रों को समझना होगा। अतः

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 मन्त्र 19, 20, 21 और 22 को क्रमशः समझते हैं।

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।19

(प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा) परम पुरुष और पराप्रकृति दोनों को ही अनादि जान और  विकारों और (सत्वरज और तम) गुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान।19

स्पष्टीकरण -- प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि हैं । इस स्वरूपमें स्थित पुरुष स्वतः विश्वात्मा ॐ और फिर परमात्मा में स्थित होजाता है। अर्थात 
परम पुरुष विष्णु और पराप्रकृति अर्थात विष्णु की माया दोनों ही अनादि है। शक्ति सदैव शक्तिमान के साथ ही रहती है । विष्णु अनादि हैं तो माया भी अनादि ही कही जायेगी।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते। 20

(पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुत रूपी) कार्य , (दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय रूपी) करण, और  कर्तृत्व  की हेतु प्रकृति कही जाती है। तथा सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का  हेतु पुरुष को कहा जाता है।20

स्पष्टीकरण ---
 पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुतों को कार्य कहते हैं। शब्द, स्पर्ष, रुप, रस और गन्ध तन्मात्रा से ही कृमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि (पृथ्वी) महाभूत उत्पन्न हुए। ये दसों प्रकृति के कार्य कहलाते हैं।
श्रोत (कान), त्वक (त्वचा),नैत्र, रसना (जीव्हा), नाक ये पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक (कण्ठ), हस्त, पाद (पैर), उपस्थ (शिष्ण या भग लिङ्ग) और पायु (गुदा) ये पञ्च कर्मेन्द्रियाँ हैं। कुल मिलाकर  दसों इन्द्रियाँ बहिर्करण कहलाती हैं , और चित्त,बुद्धि,अहंकार और मन ये अन्तःकरण चतुष्टय कहलाते हैं। बहिर्करण और अन्तःकरण मिलकर  इन सब चौदहों को करण कहते है। करण  क्रियाओं में सहायक होते हैं।
 जैसे उपकरण यानि औजार  कार्य करनें में शरीर को विशेषकर हाथों को बाहर से सहायक होते है वैसे ही ये करण देहिक ,  मान्सिक और बौद्धिक क्रियाओं में आन्तरिक सहायक होते हैं इसलिये ये करण कहलाते हैं।
कर्तृत्व  यानि कर्तापन
प्रकृति इन तीनों की हेतु कही जाती है।
 सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का हेतु पुरुष को कहा जाता है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु। 21 

 प्रकृतिस्थ पुरुष यानि मायाश्रित पुरुष अर्थात प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष- प्रकृति) वाला पुरुष या प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।21

स्पष्टीकरण ---
प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।

जिसप्रकार अतिसंग्रहकर्ता जमाखोर के प्रति भारत शासन दण्डात्मक कार्रवाई करता है वैसे ही परमेश्वर भी हमारी सरकार के रूप में जमाखोरों को (परिग्रही को) दण्ड देते हैं।
हिन्सा, मिथ्याचार, लोभ, चोरी, नारी के प्रति अभद्रता, परिग्रह, अपवित्रता, गन्दगी फैलाना, कृतघ्नता, मक्कारी, अनुचित चिन्तन,ईश्वर के प्रति अभिमान, अधीरता, आदि के मान्सिक कर्मों का दण्ड भारत शासन नही देपाता किन्तु वह परम शासक तो अविलम्ब आपके संस्कारों में उन कर्मों को भी जोड़ ही देते हैं। और तदनुसार आपके क्लेश, भय आदि रुपों में तत्काल फल भी मिलजाता है।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।22

इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

स्पष्टीकरण -
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

 *उपदृष्टा* मतलब जो सर्वाधिक निकटता से देखता है।
 *अनुमन्ता* मतलब जिसकी अनुमति के बिना इस जगत में कोई क्रिया नही होती। समस्त क्रियाएँ उसके संकल्प के अनुरूप हो चुकी है जिसका साक्षात्कार हम कर रहे हैं। केवल हमारे अनुभव में अब आ रही है। इसीकारण कोई ध्यानावस्था में कोई तन्द्रा में कोई स्वप्न में और कोई किसी घटना होने के शकुन के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं जैसे रामचरितमानस में कहती है लंकिनी ने विकल होय ते कपि के मारे , तो जानो निशिचर संहारे ।
 तो कोई होराशास्त्र के आधार पर  जातक या ताजिक  या सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी कर पाते हैं। वस्तुतः उन शास्त्रियों के द्वारा वह परमात्मा के संकल्प अनुसार भविष्य में प्रत्यक्ष होनेवाली घटनाओं की  भविष्यवाणी करते है। 

प्रकृति के गुणों का परस्पर संयोजन और बर्ताव से हुई  क्रियाओं के साथ हम अपनी अहन्ता ममता और संकल्प जोड़ लेते हैं इस कारण उन क्रियाओं मे  हम जिस आशय  और  जिस उद्देश्य की पुर्ती के लिये स्वयम द्वारा किया गया मानलेते हैं वह हमारा कर्म कहलाता है।  मतलब क्रियाएँ कर्म नही है। बल्कि क्रियाओं के साथ हमारे द्वारा जोड़ेगये आषय और उद्देश्य निर्धारित करते हैं कि क्या कर्म हुआ है।
जैसे रहीमदास जी ने कहा कि, मरीजाऊँ माँगूँ नही अपने तन के काज, परमारथ के कारणे मोहि न आवे लाज।
यहाँ स्वयम् के लिये माँगना भिक्षावृत्ति है। भिक्षाटन है।जबतक अपरिहार्य परिस्थिति न हो तबतक स्वयम् के लिये माँगना पाप है। जबकि परमार्थ समाज का सहयोग लेना , किसी सत्कार्य में सभी का योगदान लेना पुण्यकर्म है।
ऐसे ही कुछ विद्यार्थी समझने के उद्देश्य से  पढते हैं। वे अध्यैता कहलाते हैं। तो कोई रट्टु परीक्षा तक याद करनें के लिये ही पढ़ता है।  और कोई लोभी केवल परीक्षा में उत्तर  लिखकर अच्छे अंक प्राप्त्यर्थ ही पढ़ाई करते हैं। 
महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल,  चन्द्रशेखर, भगतसिंह शहीद कहलाते हैं क्योंकि,क्रान्तिकारी कार्यक्रम  उनका कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य नही था। ये क्रान्तिकारी उर्ध्वलोकों के अधिकारी हुए।
चम्बल के बागी आदि डाकु कहलाये। ये पुनर्जन्म लेकर दण्डभोग के अधिकारी हुए।
और वर्तमान आतंकवादी सबकी घ्रणा के पात्र आतंकी कहलाते हैं। ये नीचे के अन्धतम लोकों के अधिकारी हुए।

तीनों की क्रियाओं कोई अन्तर नही है। पर कर्म एकदम भिन्न है।
शहीद उच्चतम लोकों को प्राप्ति के अधिकारी हुए। डाकु निम्न योनियों में जन्म के पात्र हुए। क्योंकि एकतो वे केवल बदले की भावना से किसी को दण्ड देनें के लिए बागी हुए। लूट में भी नैतिकता के आदर्शों का पालन करते थे।और लूट से प्राप्त धन जनकल्याण में निवेश भी करते थे।
और आतंकी  निम्नतम अन्धतम  लोकों के अधिकारी हुए।क्यों कि ये नृशन्स- बर्बर होते हैं। और इनका लक्ष्य भी हड़प नीति है।

किन्तु परमात्मा के ॐ संकल्प  में सर्व कल्याण ही निहित है। उनकी स्वाभाविक लीला है।इसे ही ऋत कहते हैं ऋत को जाने बिना मौक्ष नही होता। ऋते ज्ञानान्मुक्ति।
 उसी ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही आजतक जो हो रहा है और भविष्य में भी जो होगा वह प्रभु की लीला मात्र है। उसे भ्रमवश हम अपना कर्म मानते हैं या कर्मफल भोग मान लेते हैं।
इसी ॐ संकल्प को आगे बढ़ाते हुए ही समस्त देव और देवता अपने अपने  शिवसंकल्प के अन्तर्गत ही कर्मकरते रहते हैं। उसमें उनका अपना कोई कर्म नही है।  उनके कर्म ऋत के अनुकूल ही भावना रखकर किये जाते हैं। इसी लिए  परमात्मा के परब्रह्म स्वरूप में विष्णु और माया के परमेश्वर स्वरूप में नियत व्यवस्था के अन्तर्गत विष्णु के शासन के पदाधिकारी देवता गण है। सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, आदित्य ,वसु , रुद्र आदि  जो कुछ करते हैं वह.सबकुछ  कृते परमेश्वर विष्णु परमपद ही करते हैं। अर्थात परमेश्वर विष्णु परमपद के निमित्त ही होता है। देवता लोग परमेश्वर विष्णु के लिए, परमेश्वर विष्णु की सेवा कार्यही करते हैं। अर्थात यज्ञ ही करते हैं। 
 इसलिए वह परब्रह्म प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष विष्णु और उनकी माया परा प्रकृति) को अनुमन्ता कहलाता है।

 *भर्ता*  अर्थात पालक, पालनहार, भरण- पोषण करनें वाला, संचालक, अर्थात वह भी ऋत के अन्तर्गत कर्म करते हैं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण नें श्रीमद्भगवद्गीता में विष्णु के बीहाफ पर कही है कि, यदि मैं निष्करर्मण्य (निठल्ला) हो जाऊँ तो मेरा ही अनुसरण करके सम्पूर्ण जगत निठल्ला हो जायेगा। अतः मेरे समान सभी को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिए न कि, स्वार्थपूर्ति हेतु।

 *भोक्ता* अर्थात यज्ञभोक्ता। सर्वदेव नमस्कारं केशवम् प्रतिगच्छति। किसी के प्रति जिस किसी भाव (आषय और उद्देष्य) से कियागया कर्म उसी रूप में परब्रह्मप्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा, परम पुरुष, विष्णु परमपद, परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। 
हमारे द्वारा दिया गया दानभी उन्हे ही मिलता है तो हम यदि किसी का हक भी छीनते हैं तो वह भी उन्हे ही लूटते हैं। अर्थात हमारे द्वारा सर्वजन हिताय कर्म अर्थात यज्ञ को भोगने वाले श्री विष्णु ही हैं।

यह सब इसी लिए क्योंकि, हमारे मूल स्वरुप प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा परब्रह्म रूप में वही तो भोक्ता भी है। किन्तु चुँकि उसके किसी कर्म में कोई स्वार्थ निहित नही होता, कोई अहन्ता- ममता नही होती इस कारण उसके कोई नीजी भोग भी नही होते।

सभीने सुना होगा जबतक जगत का प्रत्यैक प्राणी भोजन ग्रहण नही करलेता , तृप्त नही हो जाता तबतक भगवान विष्णु भोजन ग्रहण नही करते।

अर्थात भगवान के समक्ष भोग रखकर नैवेद्य अर्पित करना ही पर्याप्त नही है बल्कि  बलिवैश्वदेव कर्म द्वारा हमसे सम्बन्धित समस्त जन्तु, वनस्पति,जड़- चेतन, दृष्य अदृष्य सभी भूतप्राणियों को भोजन अर्पित कर तृप्त कराये जाने के पश्चात ही भगवान हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य भोग ग्रहण करते हैं। और इस यज्ञ से बचाहुआ अन्न ही पोषण प्रदान करता है। अन्यथा इसके बिना तो वह चोरी का अन्न विष ही है।

ऐसा है परब्रह्म का भोग।

 *महेश्वर* मतलब ईश्वरों का भी ईश्वर महा ईश्वर। 
 *ईश्वरत्व* -- -  इसको ऐसे समझा जासकता है---

*ईश्वर* तो भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा , महादिक (प्राण-चेतना/ देही- अवस्था / धृति - धारयित्व) भी हैं। यह प्रथम पुर्ण साकार दीर्घवृत्तीय गोलाकार यानि अण्डाकार किन्तु ठोस, दृव गेस, प्लाज्मादि अवस्थाओं से परे है। 
 *जगदीश*   -   जीवात्मा अपरब्रह्म /विराट, महाकाल,  (अपर पुरुष - जीव/ नारायण- श्री लक्ष्मी/ आयु- त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति) *जगदीश्वर*  हैं। 
यह स्वरूप तरङ्गाकार रूप में प्रथम साकार और महाकाल है। यह सृष्टि / जगत का अचल केन्द्र स्वरूप है।   वृत्ताकार फीते से निर्मित, आपस में कहीँ काट (क्रास) नही हो ऐसे अंग्रेजी के 8 के समान परिपथ में इसी की परिक्रमा हिरण्गर्भ करते हैं।
 *महेश्वर* प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म,विधाता, महाकाश , (पुरुष,/सवितृ,/श्रीहरि - कमला/ सावित्री/ प्रकृति)  महेश्वर हैं। 
यह स्वरूप सर्वगुणसम्पन्न है।किन्तु कालातीत है।
और
 *परमेश्वर*  - प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म   (परमपुष/ विष्णु- माया/ पराप्रकृति) परमेश्वर हैं।
 प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म प्रथम / अन्तिम सगुण स्वरूप है।जिसमे  ॐ तत्सत;   सच्चिदानन्द;   सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम्  ब्रह्म;   सत्यम् शिवम् सुन्दरम्;  अनादिमत्पर ब्रह्म,न सतन्नासदुच्चते श्रीमद्भगवद्गीता 13/12 ऐसे सिमित गुण ही हैं। मूलतः तो यह स्वरूप भी लगभग गुणातीत ही है।
जबकि विश्वात्मा ॐ और परमात्मा तो गुणातीत हैं।

 *परमात्मा* समस्त सृष्टियों में जो कुछ होरहा था, है और होगा। सोचा जा रहा था, है और होगा। बोला जा रहा था, है और होगा।जो नही हो रहा था, है और होगा।जो नही सोचा जा रहा था, है और होगा। जो नही बोला जा रहा है वह सब परमात्मा के बारेमें ही है। फिर भी परमात्मा के बारेमें नही के बराबर ही सोचा,बोला और किया जा सका है। अतः परमात्मा को केवल परमात्मा होकर ही जाना समझा जा सकता है। वही सबकछ है और सबकछ वही है। बस न इति न इति, नेति नेति।
परमात्मा में स्थित होने का साधन -- चुँकि कोई भी व्यक्ति पञ्चमहायज्ञों जिसमें अष्टाङ्गयोग और जप-तप आदि ब्रह्मयज्ञ में निहित ही है उन पञ्चमहायज्ञों  के माध्यम से और स्वयम् को परमात्मा के अर्पित कर, सदेव अविरत सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण- उत्सर्जन करते हुए भी हरिनामस्मरण  सदैव जगत्सेवा में तत्पर रहकर यानि बुद्धियोग के माध्यम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर  गुरुमुख से वेदश्रवण कर चिन्तन मनन उपरान्त प्रभु कृपा से गुरु मुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण करते ही अहम्ब्रह्मास्मि , सर्वखल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानम्ब्रह्म का बोध होने पर अपने प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा स्वरूप में स्थित होता है। यहाँ पहूँच कर गति समाप्त होजाती है। अतः इस अवस्था को परमगति कहते हैं। इसके उपरान्त विश्वात्मा ॐ और परमात्मा स्वरूपों में तो स्वतः स्थित हो जाता है।
ॐ तत्सत।इति।

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